( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(कर्मयोग का विषय)
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।।42।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।।43।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।44।।
वेदों पर वार्तायें मधु करते जो विद्वान
उससे अधिक न और कुछ कर लेते अनुमान।।42।।
जन्मकर्म फलदायी ले स्वर्ग प्राप्ति की चाह
भोग-ऐश्वर्य क्रियाओे की करते है परवाह।।43।।
ऐसे भोगासक्त की कोई न स्थिर बात
समय समय पर बेतुकी करते रहते बात।।44।।
भावार्थ : हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती।।42 -44।।
Flowery speech is uttered by the unwise, who take pleasure in the eulogising words of the Vedas, O Arjuna, saying: “There is nothing else!” ।।42।।
Full of desires, having heaven as their goal, they utter speech which promises birth as the reward of one’s actions, and prescribe various specific actions for the attainment of pleasure and power. ।।43।।
For those who are much attached to pleasure and to power, whose minds are drawn away by such teaching, that determinate faculty is not manifest that is steadily bent on meditation and Samadhi (the state of Super consciousness). ।।44।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का विभिन्न लेखकों के द्वारा दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु तो अवश्य ही खोल देंगे। तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।
वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………
तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न और उसके अनेक उत्तर। प्रस्तुत है पांचवा उत्तर जबलपुर के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री राकेश सोहम जी की ओर से –
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
जबलपुर से व्यंग्यकार श्री राकेश सोहम जी – 5
सवाल बड़ा पेंचीदा है। क्योंकि इसमें बचने का मार्ग ही नहीं छोड़ा। या मैं कहूं सवाल गलत है। दो आप्शन हैं और दोनों स्थिति बंधन की हैं। मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। घोड़े की आंख बंधी होती है और लगाम तो है ही बंधन का प्रतीक। लगाम घोड़े को नियंत्रित करके उस ओर देखने को मजबूर करती है जिस मार्ग पर उसे बढ़ना है। खैर ! दूसरे दृष्टिकोण से कुल जमा हिसाब ये कि लेखक एक सामाजिक प्राणी है। इसी समाज में रहकर अनुभवों को उर्वरा करता है। जब ये अनुभव के बीज, लेखनी की भूमि पर पल्लवित होते हैं तब समाज और परिवेश को दिशा देते हैं।
एक तर्किक चिंतक के अनुसार कोई भी सोच शाश्वत् नहीं होती। सोच परिवेश से बनती वह प्रभावित होती है। यही सोच चिंतन की गहराई में उतरकर परिमार्जित होती है। फिर कलाकार या साहित्यकार की कृति के रूप में ढल जाती है। कितने नए पुराने साहित्यकारों की कृतियां आज भी दशा दिशा दे रहीं हैं।
खैर ! दूसरे दृष्टिकोण से कुल जमा हिसाब ये कि लेखक एक सामाजिक प्राणी है। इसी समाज में रहकर अनुभवों को उर्वरा करता है। जब ये अनुभव के बीज, लेखनी की भूमि पर पल्लवित होते हैं तब समाज और परिवेश को दिशा देते हैं।
सवाल बड़ा पेंचीदा है। क्योंकि इसमें बचने का मार्ग ही नहीं छोड़ा। या मैं कहूं सवाल गलत है। दो आप्शन हैं और दोनों स्थिति बंधन की हैं। मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। घोड़े की आंख बंधी होती है और लगाम तो है ही बंधन का प्रतीक। लगाम घोड़े को नियंत्रित करके उस ओर देखने को मजबूर करती है जिस मार्ग पर उसे बढ़ना है। खैर ! दूसरे दृष्टिकोण से कुल जमा हिसाब ये कि लेखक एक सामाजिक प्राणी है। इसी समाज में रहकर अनुभवों को उर्वरा करता है। जब ये अनुभव के बीज, लेखनी की भूमि पर पल्लवित होते हैं तब समाज और परिवेश को दिशा देते हैं।
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
श्री विजयानंद विजय मुजफ्फरपुर बिहार से लिखते हैं – 6
भौतिकवाद की आँधी में, आधुनिकता के घोड़े पर सवार मनुष्य आज वक्त की रफ्तार से भी तेज दौड़ने की कोशिश कर रहा है, इससे बिलकुल बेपरवाह और लापरवाह कि हकीकत की जमीन क्या है, हमारा वजूद क्या है, हमारी हैसियत क्या है, हमारी औकात क्या है, हमारी सामाजिक-आर्थिक दशा और दिशा क्या है।बस, हम अंधानुकरण की मानसिकता में जी रहे हैं…कृत्रिम, बनावटी और दिखावे की संस्कृति के कहीं-न-कहीं पोषक बनते हुए।
नैतिक मूल्यों के भयंकर क्षरण के इस दौर में जहाँ मर्यादाएँ टूट रही हैं, मान्यताएँ खंडित हो रही हैं, परंपराएँ सूली पर चढ़ी हैं, आदर्श तार-तार हैं, अपसंस्कृतिकरण प्रबल है, आचार-व्यवहार सतही हो चले हैं, वहाँ लेखक, रचनाकार, कलाकार समय और समाज की आँखें खोलता है,उन्हें आइना दिखाता है, वास्तविकता से साक्षात्कार कराता है, हमें जगाता है, सजग-सचेष्ट करता है कि हममें वो सबकुछ बचा रहे, जो हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है, ताकि हम मनुष्य कहलाने योग्य बने रहें।
हम पृथ्वी के सबसे ज्ञानवान प्राणी समझे, माने, जाने और पहचाने जाते हैं, मगर हमारा यह ज्ञान कहाँ तिरोहित हो जाता है, जब हम परम स्वार्थ में डूबकर स्वजनों के ही दुश्मन बन जाते हैं, उनका अहित करते-सोचते हैं ? वक्त का मिजाज और स्वार्थ जब इंसान पर हावी होता है, तो वह उसकी पूरी सोच और विचारधारा पर हावी होने लगता है।जब यह नकारात्मक दिशा की ओर उन्मुख होता है, तो ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, नफरत की आग मन और विचार के साथ-साथ घर-समाज-राष्ट्र को भी भस्मसात करने पर उतारू हो जाती है।यह आत्मघाती प्रवृत्ति किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं हो सकती।यहीं रचनाकार, लेखक, कलाकार, सृजनधर्मी की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है, जहाँ उसे दिग्भ्रमित, दिशाहीन होती पीढ़ी को भटकाव से बचाकर समाज और राष्ट्रहित में उच्च आदर्शों और प्रतिमानों की स्थापना की ओर ले जाना होता है।यहाँ फटकार भी जरूरी है, चोट भी जरूरी है, कटाक्ष भी जरूरी है और प्यार-मनुहार भी जरूरी है, अपेक्षित अंकुश और लगाम भी जरूरी है। जरूरी है कि लेखक और रचनाकार अपनी भूमिका, अपने दायित्व, अपने कर्त्तव्य को समझें और समाज-राष्ट्र की दशा व दिशा सुधारने में अपना सकारात्मक सहयोग दें।
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
सुश्री निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, असम से लिखती हैं -7
लेखक समाज रूपी घोड़े का क्या है ?
लेखक समाज रूपी घोड़े की आँख और लगाम दोनों है क्योंकि जन साधारण लेखक की आँख से देखता है। फिल्म नाटक आदि के द्वारा लेखक जो परोसता है। वही जन सामान्य खाने की कोशिश करता है और इस घोड़े की लगाम तो शत प्रतिशत लेखक के ही हाथ में होती है। लेखक अपनी लेखनी की लगाम से समाज रूपी घोड़े के विचारों को बदलने की ताकत रखता है इसलिए लेखक को बहुत सोच समझकर अपनी लगाम का प्रयोग करना चाहिए।
लगाम में कसावट होनी चाहिए। लगाम ढीली छोड़ते ही घोड़े की चाल बदल जाती है। वे भटकने लगता है। लेखक पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। तभी महान कवि गुप्त जी ने कहा था –
“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।”
कभी कभी एक सार्थक पंक्ति भी हृदय के तारों को झंकृत कर देती है।मस्तिष्क को सोचने के लिए मजबूर कर देती है। इसलिए ठीक ही कहा गया है कि तलवार से अधिक ताकत लेखनी में होती है।
लेखनी एक साथ लाखों लोगों को घायल कर सकती है। दिमाग में उत्पन्न विचारों, कल्पनाओं को कागज पर उकेरना एक लेखक की कला है। लेखक को लेखन से पहले यह सोचना चाहिए कि वह क्यों लिखना चाहता है? उससे समाज को क्या लाभ व हानि होगी। लेखक के लिए समाज का लाभ सर्वोपरि होना चाहिए।
एक अच्छा लेखक जब लिखने बैठता है तो हर पहलु के बारे में सोचकर उसे पूर्ण करता करता है।
लेखन शतरंज के खेल की तरह है फर्क सिर्फ इतना है की यहां आखिरी चाल सबसे पहले सोची जाती है।
फिल्म या टी. वी लेखन लेखकों पर एक बोझ होता है। उनकी अपनी पहचान विलुप्त हो जाती है। उसको जैसा कहा जाता है वह उसी दिशा में लिखता चलता है। पर सच्चे लेखक को यह सब स्वीकार नहीं करना चाहिए। उसे समाज को सदैव सकारात्मक और प्रेरणार्थक ही देने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी भी लेखक की सोच निश्चित ही उसके व्यक्तित्व का ही हिस्सा होती है, लेकिन वो अपने लेखों में उन्हें पूरी ईमानदारी से प्रतिबिंबित करता है या नहीं, ये निश्चित करना अत्याधिक कठिन है।
लेखक का जैसा गहरा रिश्ता समाज से होना चाहिए वैसा आज नहीं है। लेखक को जिस तरह अपनी परंपरा,अपने आज और अपने भावी कल के बीच का पुल होना चाहिए वैसा पुल वो नहीं बन पा रहा है। घोड़े की लगाम ढीली पड़ती जा रही है। जिसका कारण है कि आज लेखक तो बहुत है पर प्रेमचंद नहीं हैं। जो भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण के दौर में भारतीय जीवन में आए बदलाव और स्थाई-सी हो चुकी समस्याओं के द्वंद्व और उससे उबरने की छटपटाहट को शब्दों में बयां कर सके।
(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(कर्मयोग का विषय)
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।41।।
शुद्ध कर्म की बुद्धि एक होती सुदृढ महान
अकर्मण्यता है पालती कई बुद्धि अज्ञान।।41।।
भावार्थ : हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।।41।।
Here, O joy of the Kurus, there is a single one-pointed determination! Many-branched and endless are the thoughts of the irresolute. ।।41।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
The benefits of Laughter Yoga are amazing. Laughter Yoga is a unique exercise routine that combines laughter exercises with yogic breathing which brings in more oxygen to the body and brain making one feel more energetic and healthy. It is a powerful cardio workout. In fact, 10 minutes of hearty laughter is equal to 30 minutes on a rowing machine. The foremost benefit of laughing is that one remains cheerful throughout the day. This sense of wellbeing comes from the release of feel good hormones called endorphins.
It decreases the negative effects of stress on your body which is the root cause of all illness. Laughter Yoga is a single exercise that deals with physical, mental and emotional stress simultaneously. It also strengthens the immune system, lowers blood pressure, CONTROLS BLOOD SUGAR and keeps your heart healthy. It is a powerful antidote against depression – the number one sickness today.
Laughing promotes a healthy heart. In a good bout of laughter, there is a dilation of blood vessels all over the body. We’ve all seen or experienced this as a flushed appearance and feeling of warmth. Pulse rate and blood pressure rise as the circulatory system is stimulated before settling down, below the original levels. In a nutshell, laughter helps tone the circulatory system of the body.
Laughter and breathing exercises help to increase the breathing capacity of the lungs and increase the net supply of oxygen to the body. Laughter sessions, along with deep breathing, are like chest physiotherapy – especially for those who smoke and suffer from bronchitis and respiratory airway obstruction.
A weak immune system is a major cause for almost all sicknes and ill health. Laughter boosts immune system. Oxygen is one of the primary catalysts for all metabolic reactions in the human body. Ongoing scientific studies show that lack of oxygen is the major cause of most diseases. Laughter Yoga flushes the lungs and fully oxygenates the blood and major organs leaving one bursting with energy and vitality and free from disease.
Diabetes is emerging as a major health hazard worldwide. Japanese scientist Murakami’s experiment to ascertain the effect of laughter on the blood sugar levels has affirmed that laughter has a lowering impact on blood sugar. Murakami indentified 23 genes that can be activated with laughter. In addition, it also reduces the stress hormone cortisol responsible for increase in sugar levels and stabilizes the immune system, which if weakened, can affect the production of insulin in the pancreas.
Laughter has a profound positive impact on allergies, with many practitioners reporting complete disappearance of all symptoms of asthma, skin and other allergies. Though not an intervention for countering physical causes of allergies; Laughter Yoga is a definite tool to remedy stress. It helps to reduce the risk factors by boosting the immune system, encouraging deep breathing and flushing the lungs of stale air and generating a feeling of wellness.
Those suffering from life threatening diseases not only go through physical pain; they also face immense psychological trauma. Not just the patient, but family, friends and care givers all need positive reinforcement. Having a positive mental attitude greatly influences the course of the disease. We have had many members suffering from cancer, immune disorders, multiple sclerosis and other chronic diseases who have reported relief from their symptoms, thereby reducing their medications.
Depression is often associated with physical pain, feelings of despair, loss of appetite, immobility, insomnia and other cardiovascular problems. Practicing Laughter Yoga regularly helps to resolve most of these ailments as it is one of the fastest ways of boosting heart rate, reducing blood pressure, providing an excellent cardio workout and alleviating pain. Extended hearty laughter is a body exercise with powerful body-mind healing effects.
The combination of natural pain killers with movements in laughter exercises makes Laughter Yoga a powerful tool for physiotherapy. Many practitioners have reported reversal of frozen shoulder and other movement limitations due to stroke, arthritis, and injury. Endorphins released as a result of laughter help in reducing the intensity of pain in those suffering from arthritis, spondylitis and muscular spasms of the body.
Scientific studies have proved that a few days of laughter exercises and deep breathing lowers blood pressure thus reducing the risk of a heart attack. Having too much cholesterol in the blood can lead to the hardening and narrowing of the arteries in the major vascular systems. A daily dose of laughter opens the arteries and allows the blood to flow freely to all parts of the body thus preventing a cardiac failure.
Stress is the number one killer today, and most illnesses are stress related. Laughter Yoga is an instant stress buster which takes care of physical, mental and emotional stress simultaneously. It has been scientifically proven that laughter reduces the level of stress hormones like cortisol and epinephrine and enhances positive emotions.
Laughter exercises are short and easy and can be added to your existing fitness programme. It can be a value addition to Yoga groups, Tai-Chi groups, aerobic centres, meditation centres, health clubs, sports and fun activities. Laughter Yoga is the latest health craze sweeping the world where anyone can laugh without any reason. It is truly a life changing experience for millions. It is scientifically proven and a lot of fun. People can feel the benefits right from the very first session.
(Ms. Neelam Saxena Chandra’s poem “Bequest” will definitely compel you to think that how dark night and dark side of life follows like a ghost for whole life, particularly in dark. Still, I find a silent message to struggle with present for the future.)
So peaceful was her life,
The sea provided her a peaceful calm;
The waves were lovely and soothing
Having a composed charm…
Suddenly it was dark
The albatross shrieked;
There were wild tremors
Jeopardy reeked…
Life changed for her
In the fraction of a second,
There was water and water
And then everything blackened…
The enchanting sea
Engulfed her near and dear ones;
The waves which had been tranquil erstwhile
Suddenly became destructive like dragons…
As she was helplessly watching the destruction,
There was a loud uproar-
One particular large wave jumped at her
And she was dragged ashore…
The harbour waves kept
Pushing and pulling her;
But she kept holding on
Like a providential survivor…
Although she could endure and live on,
She still feels hapless and sad-
Her near and dear ones
Have left for the other world and are dead…
The sea has given her a bequest
She does not want to remember at all;
The waves: they still come and go
But she no more listens to their call…
The ghosts of the past
Shall live on with her forever;
Life shall normalize and she may forget it in the daylight
But the silent night shall make her remember it forever…
(सुश्री प्रभा सोनवणे जी हमारी पीढ़ी की एक ज्येष्ठ मराठी साहित्यकार हैं । उनका यह संस्मरण आलेख/संस्मरण निश्चित ही हमारी समवयस्क पीढ़ी को अस्सी के दशक के दिन याद दिला देगा। )
मनस्वी, अविचाराने, अव्यवहार्य असं मी अनेकदा वागलेली आहे.
आई वडिलांची भीती वाटायची, धाक होता. खरंतर चाकोरीबध्द आयुष्य असायला हवं होतं, पण मी चाकोरी बाहेरचे अनुभव घेतले,आठवीत असताना मुली म्हणाल्या कुठेतरी सहलीला जाऊ, एक मैत्रीण म्हणाली, “हिच्या शेतावर जाऊ” – म्हणजे माझ्या, आई परवानगी देणं शक्य नव्हतं, मैत्रिणीच्या शेतावर, जवळच जाणार असं सांगितलं, आमचं गाव, शेत पंधरा किलोमीटर होतं, एसटी नं जावं लागणार होतं जवळ कंपासबॉक्स साठी वडिलांनी दिलेले पैसे होते ते खर्च केले, ट्रीप चा आनंद घेतला, सहाजणी गेलो होतो, सहल छान झाली, त्या सहलीवर आशा देव नावाच्या आमच्या मैत्रिणीने कविताही केली, अर्थातच संध्याकाळी आईला समजलं, बोलणी खावी लागली, पण एक वेगळा अनुभव घेतला! लग्न अतिशय जुन्या मताच्या घरात झालं, हातात बांगड्या, डोक्यावर पदर! मैत्रिणीबरोबर ब्युटीपार्लर मध्ये गेले तिथे ब्युटीशियन म्हणाली, कुरळ्या केसांसाठी बॉयकट बेस्ट, मैत्रीण म्हणाली तिच्या घरी चालणार नाही!पण मी एक दिवस जाऊन बॉयकट करून आले, पण स्ट्रीक्टली डोक्यावर पदर घेऊन वावरले! १९८३ सालची गोष्ट!
कवितेमुळे बाहेरचं जग दिसलं, बॉयकट, बांगड्या न घालणं याला मान्यता मिळाली….म्हणजे कुणी नावं तरी ठेवली नाहीत! कवितेच्या कार्यक्रमांना जाणं हे माझ्यासाठी दिव्यच होतं, विरोध पत्करून बाहेर पडले!
येरवड्याच्या शाळेत नोकरी साठी अर्ज करा,नंतर सुट्टीत बी.एड.करा असे एका सुहृदाने सुचवलं! पण जिद्द, महत्वाकांक्षी काहीच नव्हतं,
पुढे स्वतःचा दिवाळी अंक सुरु केला तिथेही चिकाटी कमी पडली, पुढे एका मोठ्या अंकाच्या संपादकाने स्वतः फोन करून संपादकीय विभागात आमंत्रित केलं, दोन महिने बिनपगारी काम केले, पैसे त्यांनी दिले नाहीत मी मागितले नाहीत, हा अव्यवहारीपणा!
पण त्याची खंत वाटली नाही, तो एक चांगला अनुभव होता, बस रिक्षाचे पैसे अक्कल खाती जमा!
अविचाराचे अनेक प्रसंग घडले, पण मी हे स्वतःच मान्य करते मी आळशी आणि बिनमहत्वाकांक्षी बाई आहे त्या मुळे *जो मिल गया उसीको मुकद्दर समझ लिया*
स्वतः कष्ट करून अर्थार्जन करायला हवे होते असे वाटते कधी तरी, पण फार खंतही वाटत नाही! कारण तसं सुखवस्तू आयुष्यच वाट्याला आलं कुठलं ही चॅलेंज नसलेलं!
माझ्या इतर जावांपेक्षा माझं आयुष्य वेगळं आहे, फक्त घरात रमले असते तर आयुष्य वेगळं झालं असतं, मी शिस्तबद्ध, गृहकृत्यदक्ष, संसारी अजिबात नाही, पण गृहिणीपद ब-यापैकी सांभाळले, रांधा वाढा उष्टी काढा इती कर्तव्य अजूनही चालूच आहेत!
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(कर्मयोग का विषय)
यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
किये गये हर कर्म का होता कभी न नाश
थोड़ा सा भी धर्म नित करता पाप विनाश ।।40।।
भावार्थ : इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है।।40।।
In this there is no loss of effort, nor is there any harm (the production of contrary results or transgression). Even a little of this knowledge (even a little practice of this Yoga) protects one from great fear. ।।40।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)