हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदा ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदा

(हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदापर्व पर  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी का  विशेष  आलेख  उनके व्हाट्सएप्प  से साभार। )

 

*हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदा पर आपको एवम् आपके परिवार को ढेर  सारी हार्दिक शुभकामनाएं*

*चैत्र शुक्ल प्रतिपदा,*
*विक्रमी संवत् २०७६*
*सृष्टि संवत् १९६०८५३१२० वर्ष*
*दिनांक – ६ अप्रैल शनिवार २०१९ ई.
*सनातन महत्व-*
  1. सृष्टि संवत्
  2. मनुष्य उत्पत्ति संवत्
  3. वेद संवत्
  4. देववाणी भाषा संवत्
  5. सम्पूर्ण प्राणी उत्पत्ति संवत्
*ऐतिहासिक महत्व -*
  1.    विक्रम संवत्
  2.    शक संवत्
  3.    आर्य सम्राट विक्रमादित्य जन्मदिवस
  4.    युधिष्ठिर राज्याभिषेक दिवस
  5.    आर्यसमाज स्थापना दिवस

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नव वर्ष प्रारंभ होता है। इसी दिन सूर्योदय के साथ सृष्टि का प्रारंभ परमात्मा ने किया था। अर्थात् इस दिन सृष्टि प्रारंभ हुई थी तब से यह गणना चली आ रही है।

यह नववर्ष किसी जाति, वर्ग, देश, संप्रदाय का नहीं है अपितु यह मानव मात्र का नववर्ष है। यह पर्व विशुद्ध रुप से भौगोलिक पर्व है। क्योकि प्राकृतिक दृष्टि से भी वृक्ष वनस्पति फूल पत्तियों में भी नयापन दिखाई देता है। वृक्षों में नई-नई कोपलें आती हैं। वसंत ऋतु का वर्चस्व चारों ओर दिखाई देता है। मनुष्य के शरीर में नया रक्त बनता है। हर जगह परिवर्तन एवं नयापन दिखाई पडता है। रवि की नई फसल घर में आने से कृषक के साथ संपूर्ण समाज प्रसन्नचित होता है। वैश्य व्यापारी वर्ग का भी आर्थिक दृष्टि से यह महीना महत्वपूर्ण माना जाता है। इससे यह पता चलता है कि जनवरी साल का पहला महीना नहीं है पहला महीना तो चैत्र है, जो लगभग मार्च-अप्रैल में पड़ता है। १ जनवरी में नया जैसा कुछ नहीं होता किंतु अभी चैत्र माह में देखिए नई ऋतु, नई फसल, नई पवन, नई खुशबू, नई चेतना, नया रक्त, नई उमंग, नया खाता, नया संवत्सर, नया माह, नया दिन हर जगह नवीनता है। यह नवीनता हमें नई ऊर्जा प्रदान करती है।
नव वर्ष को शास्त्रीय भाषा में नवसंवत्सर (संवत्सरेष्टि) कहते हैं। इस समय सूर्य मेष राशि से गुजरता है इसलिए इसे *”मेष संक्रांति”* भी कहते हैं।
प्राचीन काल में नव-वर्ष को वर्ष के सबसे बड़े उत्सव के रूप में मनाते थे। यह रीत आजकल भी दिखाई देती है जैसे महाराष्ट्र में गुडीपाडवा के रुप में मनाया जाता है तथा बंगाल में पइला पहला वैशाख और गुजरात आदि अनेक प्रांतों में इसके विभिन्न रूप हैं।
नववर्ष का प्राचीन एवं ऐतिहासिक महत्व-
  1. आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही परम पिता परमात्मा ने १९६०८५३१२० वर्ष पूर्व यौवनावस्था प्राप्त मानव की प्रथम पीढ़ी को इस पृथ्वी माता के गर्भ से जन्म दिया था। इस कारण यह “मानव सृष्टि संवत्” है।
  2. इसी दिन परमात्मा ने अग्नि वायु आदित्य अंगिरा चार ऋषियों को समस्त ज्ञान विज्ञान का मूल रूप में संदेश क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के रूप में दिया था। इस कारण इस वर्ष को ही वेद संवत् भी कहते हैं।
  3. आज के दिन ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने लंका पर विजय प्राप्त कर वैदिक धर्म की ध्वजा फहराई थी। (ज्ञातव्य है कि भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक चैत्र शुक्ल षष्ठी को हुआ था ना की प्रतिपदा अथवा दीपावली पर) (विजयादशमी व दीपावली का श्रीराम से कोई संबंध नहीं है देखे श्रीमद् वाल्मीकि रामायण)।प0
  4. आज ही से कली संवत् तथा भारतीय विक्रम संवत् युधिष्ठिर संवत् प्रारंभ होता है।
  5. आज ही के शुभ दिन विश्व वंद्य अद्वितीय वेद द्रष्टा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संसार में वेद धर्म के माध्यम से सब के कल्याणार्थ “आर्य समाज” की स्थापना की थी। इसी भावना को ऋषि ने आर्य समाज के छठे नियम में अभिव्यक्त करते हुए लिखा *”संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना”*
         महानुभावों! इन सब कारणों से यह संवत् केवल भारतीय या किसी पंथ विशेष के मानने वालों का नहीं अपितु संपूर्ण विश्व मानवों के लिए है।
आइए! हम सार्वभौम संवत् को निम्न प्रकार से उत्साह पूर्वक  मनाएं -*
  1. यह संवत् मानव संवत् है इस कारण  हम सब स्वयं को एक परमात्मा की संतान समझकर मानव मात्र से प्रेम करना सीखें। जन्मना ऊंच-नीच की भावना, सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयता, संकीर्णता आदि भेदभाव को पाप मानकर विश्वबंधुत्व एवं प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव जगाएं। अमानवीयता व दानवता का नाश तथा मानवता की रक्षा का व्रत लें।
  2. आज वेद संवत् भी प्रारंभ है। इस कारण हम सब अनेक मत पंथों के जाल से निकलकर संपूर्ण भूमंडल पर एक वेद धर्म को अपनाकर प्रभु कार्य के ही पथिक बनें। हम भिन्न-भिन्न समयों पर मानवों से चलाए पंथों के जाल में न फसकर मानव को मानव से दूर न करें। जिस वेद धर्म का लगभग २ अरब वर्ष से सुराज्य इस भूमंडल पर रहा उस समय (महाभारत से पूर्व तक) संपूर्ण विश्व त्रिविध तापों से मुक्त होकर मानव सुखी समृद्धि व आनंदित था। किसी मजहब का नाम मात्र तक ना था। इसलिए उस वैदिक युग को वापस लाने हेतु सर्वात्मना समर्पण का व्रत लें। स्मरण रहे धर्म मानव मात्र का एक ही है, वह है वैदिक धर्म।
  3. वैदिक धर्म के प्रतिपालक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की विजय दिवस पर हम आज उस महापुरुष की स्मृति में उनके आदर्शों को अपनाकर ईश्वर भक्त, आर्य संस्कृति के रक्षक, वेद भक्त, सच्चे वेदज्ञ गुरु भक्त, मित्र व भातृवत्सल, दुष्ट संहारक, वीर, साहसी, आर्य पुरुष व प्राणी मात्र के प्रिय बने। रावण की भोगवादी सभ्यता के पोषक ना बनें।
  4. आज राष्ट्रीय संवत् पर महाराज युधिष्ठिर विक्रमादित्य आदि की स्मृति में अपने प्यारे आर्यावर्त भारत देश की एकता अखंडता एवं समृद्धि की रक्षा का व्रत लें। राष्ट्रीय स्वाभिमान का संचार करते हुए देश की संपत्ति की सुरक्षा संरक्षा के व्रति बनें। जर्जरीभूत होते एवं जलते उजड़ते देश में इमानदारी, प्राचीन सांस्कृतिक गौरव, सत्यनिष्ठा, देशभक्ति, कर्तव्यपरायणता व वीरता का संचार करें।
  5. आज आर्य समाज स्थापना दिवस होने के कारण *”कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”* वेद के आदेशानुसार सच्चे अर्थों में आर्य बनें एवं संसार को आर्य बनाए न की नामधारी आर्य। आर्य शब्द का अर्थ है- सत्य विज्ञान  न्याय से युक्त वैदिक अर्थात ईश्वरीय मर्यादाओं का पूर्ण पालक, सत्याग्रही, न्यायकारी, दयालु, निश्छल, परोपकारी, मानवतावादी व्यक्ति। इस दिवस पर हम ऐसा ही बनने का व्रत लें तभी सच्चे अर्थों में आर्य (श्रेष्ठ मानव) कहलाने योग्य होंगे। आर्यत्व आत्मा व अंतःकरण का विषय है। न कि कथन मात्र का।

 

© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-19 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–19       

सर्वप्रथम आप सबको आप सबको भारतीय नववर्ष, गुड़ी पाडवा, चैत्र नवरात्रि एवं उगाड़ी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें। पर्व हमारे जीवन में उल्लास तो लाते ही हैं साथ ही हमें एवं हमारी आने वाली पीढ़ी को हमारी संस्कृति से अवगत भी कराते हैं।

आज इन सभी पर्वों के साथ आप सबसे यह संदेश साझा करने में गर्व का अनुभव हो रहा है कि विगत दिनों www.e-abhivyakti.com परिवार के दो सदस्यों ने अभूतपूर्व सफलता अर्जित की जिसके लिए मैं दोनों सदस्यों को हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई देना चाहता हूँ।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सम्माननीय साहित्यकार श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर जी की कविता “असीम बलिदान ‘पोलिस'” को विगत दो दिनों में 252 पाठकों  ने इस वेबसाइट पर पढ़ा। यह अपने आप में उनकी रचना के लिए एक कीर्तिमान है।

विगत दिवस  हमारी वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी को मशाल न्यूज़  नेटवर्क स्पर्धा में   द्वितीय  पुरस्कार प्राप्त करने के लिए हार्दिक  अभिनंदन।

मैं आपका हृदय से आभारी हूँ। आप सभी साहित्यकार मित्रगणों  का स्नेह ही मेरी पूंजी है।  पुनः आपका सभी  साहित्यकार  मित्र गणों  का अभिनंदन एवं  लेखनी को सादर नमन।

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

6 अप्रैल 2019

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अब क्यूँ ? ☆ – डॉ ऋतु अग्रवाल

डॉ ऋतु अग्रवाल 

☆ अब क्यूँ ? ☆

(डॉ ऋतु अग्रवाल जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप भीम राव आंबेडकर कॉलेज, दिल्ली में प्राध्यापक हैं । सोशल मीडिया से परिपूर्ण वर्तमान एवं विगत जीवन के एहसास की अद्भुत अभिव्यक्ति स्वरूप यह कविता “अब क्यूँ?” हमें विचार करने के लिए प्रेरित करती है।)

 

अब क्यूँ

हमारे शर्म से

चेहरे गुलाब नहीं होते.

अब क्यूँ

हमारे मिजाज मस्त मौला नहीं होते

इजहार किया करते थे

दिल की बातों का

अब क्यूँ

हमारे मन खुली किताब नहीं होते

कहते हैं तब, बिना बोले

मन की बात समझते

आलिंगन करते ही हालात समझ लेते

ना होता था

व्हाट्सएप, फेसबुक

ख़त होता था

खुली किताब

मिल जाता था दिलों का हिसाब

हम कहां थे कहां आ गए

नहीं पूछता बेटा बाप से

उलझनों का समाधान

नहीं पूछती बेटी मां से

घर के सलीको का निदान

अब कहां गई

गुरु के चरणों में बैठकर

ज्ञान की बातें

परियों की वह कहानी

न रही ऐसी जुबानी

अपनों की वह यादें

न रहे वो दोस्त,न रही वो दोस्ती

ऐ मेरी जिंदगी

हम सब

व्यावहारिक हो गए

मशीनी दुनिया में इंसानियत खो गए.

 

© डॉ.ऋतु अग्रवाल 

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ? प्रेमाला उपमा नाही ? – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

? प्रेमाला उपमा नाही ?

 

प्रेम करावे भरभरून , जीव ओवाळून , कधी कधी स्वतःत रमतांना स्वतःला विसरून !

 

प्रेम करावे तृणपात्याच्या दंवबिंदूवर

प्रेम करावे उषःकालच्या क्षितिजावर

प्रेम करावे किलबिलणा-या पाखरांवर

प्रेम करावे गंधित वायुलहरींवर

प्रेम करावे शहारणा-या जललहरींवर

प्रेम करावे रविकिरणांच्या ऊर्जेवर

प्रेम करावे चांद्रकालच्या भरतीवर

प्रेम करावे सांध्यकालच्या ओहोटीवर

प्रेम करावे सृष्टीच्या अथक सृजनावर

प्रेम करावे  पहाडाच्या उंचीवर

प्रेम करावे सागराच्या अथांगतेवर

प्रेम करावे आकाशाच्या असीमतेवर

प्रेम करावे आईच्या निरंतर वात्सल्यावर

प्रेम करावे बाल्याच्या निर्व्याज हास्यावर

प्रेम करावे दोस्तीच्या निखळ नितळपणावर

 

प्रेम खळाळत्या बालपणावर करावे

प्रेम सळसळत्या तारूण्यावर करावे

प्रेम शांत समंजस वानप्रस्थावर करावे

सर्व चराचर व्यापून असलेल्या चिरंतनावर तर प्रेम करावेच करावे

 

©  सौ. ज्योति हसबनीस

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ? आनंदाचं फुलपाखरू ?- श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 ? आनंदाचं फुलपाखरू ?

 

(विगत दिवस आदरणीया श्रीमति रंजना जी को मशाल न्यूज़  नेटवर्क स्पर्धा में पुरस्कार के लिए अभिनंदन। आपने इस आलेख में  मेरे लिए सम्मान जाहिर  किया है  उसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ। आप सभी साहित्यकार मित्रगणों  का स्नेह ही मेरी पूंजी है।  पुनः आपका अभिनंदन एवं  लेखनी को सादर नमन)

आज मशाल न्यूज नेटवर्कने घेतलेल्या स्पर्धेचा निकाल जाहीर झाला  आणि मला या स्पर्धेत दुसरा क्रमांक मिळाला . स्पर्धेला जाताना एक सादरीकरणाची संधी म्हणून गेले. प्रचंड तणाव  असताना सादरीकरण केले.  शुभांगी यशस्वी झाले. व्हिडीओ तयार झाला. त्याची  लिंक आली.

सुरुवातीला भीत भीत मित्र मंडळींना फॕमिली मेंबरला ती लिंक  शेअर केली ,हळूहळू शैक्षणिक समुह काव्य समुहात सुद्धा फिरू माझी कविता घराघरात वाजू लागली .भेटणारा प्रत्येकजण आवर्जून त्या बद्दल बोलू लागला , आणि नकळत आयुष्यातील चाळीशीचे वळण आठवले. या वयात जवळपास आपली मुलं साधारणपणे मोठी झालेली असतात . अगदी दहा  पंधरा वर्षे आई आई करत मागेपुढे घुटमळणारी मुलं शिक्षण, नोकरीच्या निमित्ताने एकाएकाने दूर जाऊ लागतात.

सुरूवातीला शरीराने आणि हळूहळू मनाने कार्यक्षेत्र  बदलते  चर्चेचे विषय बदलतात. बरेच वेळा आपल्याला  त्यांची चर्चा  समजत ही नाही मग मुलं बाबांशी, मित्रांशी थोडीफार चर्चा करतात, त्यांचा सल्ला घेतात, ही गोष्ट सुद्धा मनाला  नक्कीच खटकत असे .

आज पर्यंत आपल्या आवडीने कपडेलत्ते खाणे पिणे करणारी मुलांना मित्र, मैत्रीणींचा , सल्ले घ्यावे लागतात हे पाहून कुठतरी चुकल्या सारखं वाटे. प्रत्येक बाबींवर मनसोक्त चर्चा करणारी मुलं मित्रांना फोनवर नंतर बाहेर आल्यावर बोलू म्हणतात, पुरणपोळी खीर आवडीने खाणारी मुलं पिझ्झा बरगर आवडीने खातात आणि कुठेतरी नवरा देखील त्यांना साथ देतो  ही  आशा अनेक गोष्टी ज्या    आजवर फक्त आपल्या मनाप्रमाणे चाललेल्या होत्या त्यात बदल झालेला असतो कुठेतरी आपल्या हातातून सत्ता निसटून जात आहे  पेक्षा आता आपली कुणालाही गरज राहिली नाही ही भावना  अंतरंगात डोकावत असते . आपण एकटे पडत चालल्याची जाणीव वाढायला लागते. यातून चिडचिड वाढायला लागते आणि घरातील माणसे  दुरावत जातात . कारण आपल्या चिडण्या पेक्षा आपल्या पासून दूर राहाणेच योग्य असे त्यांना वाटायला लागतं.

अगदी जीवन नकोस वाटायला लागले . रिकामा वेळ खायला ऊठला. ज्या मुलांसाठी घरासाठी आपण रात्रीचा दिवस करतो. स्वतःची प्रकृती, शिक्षण छंद कशाचा ही विचार केला नाही परंतु आज मात्र हळूहळू चित्र बदलताना दिसत होतं मन खट्टू झालं.

थोडंस थांबून  शांतपणे विचार केला. आपलं तरूणपण आठवले. हवेत तरंगणारे दिवस आठवले. आणि आर्धी चिडचिड नक्कीच कमी झाली .  लक्षात आले की या घराला सावरण्यात आपल्याला स्वतःसाठी करावयाच्या कितीतरी गोष्टी राहून गेलेल्या आहेत अनेक छंदांना आपण तिलांजली दिली होती.

आता आपल्याकडे भरपूर वेळ आहे. मग कुरकुरत कशाला बसायचं ऊठा लागा कामाला . मुख्य म्हणजे रडणारी आणि चिडणारी माणसं कुणालाही आवडत नाहीत त्यामुळे आता स्वतःसाठी जगायचं असं मनाशी ठरवलं . अगदी वयाच्या बेचाळीसाव्या वर्षी बी.  ए. फायनलचा फॉर्म भरला तेही इंग्रजी ऐच्छिक घेऊन आता आपल्याला झेपेल का भीती होती परंतु जमलं.पुढे बी. एड . सुद्धा केले. गल्लीत महिला बचत गट सुरू केला .यातून बऱ्याच महिलांना शिलाई मशीन मिर्ची पल्वलायझर, शेवयाची मशीन , छोटी गिरणी, छोटे लेडीज एम्पोरियम सुरू करणे अशी अनेक छोटी मोठी कामे यातून सुरू करण्यात आली. मुख्य म्हणजे रिकामा वेळ सार्थकी लागला. नोकरी आणि घर या कसरतीत मैत्री हा प्रकार जीवनातून जणू हद्दपारच झाला होता, तो पुन्हा सापडला .

कामासाठी का असेना पण अनेक जणींशी गप्पागोष्टी वाढल्या आणि एकटेपणा पळून गेला. आठवड्यातून एकदा गुरूवारी व एकादशीला सत्संगाच्या निमित्ताने रात्री एकत्र जमायला लागलो . भजनाच्या निमित्ताने जुना संगिताचा छंद डोकावू लागला वीस वर्षे माळ्यावर ठेवलेली हार्मोनियम खाली आली. नकळत सूर जुळायला लागले. शिक्षणोत्सव सर्व शिक्षा अभियानाच्या निमित्तानं शैक्षणिक साहित्य निर्मिती करणे शैक्षणिक साहित्य जत्रेत स्टॉल लावणे, इत्यादीमुळे बाजुला सारलेली चित्रकला पुन्हा उपयोगात आली . ओळखीच्या मोठ्या मुली शिवण काम शिकवणे, रुखवताचे साहित्य शिकवणे, अशा अनेक गोष्टी त्याही विनामूल्य असल्यामुळे सहाजिकच अनेकजणी जवळ आल्या जगण्याचा सूर कुठेतरी गवसला आनंदाचे वारे पुन्हा वाहू लागले.

यात भर पडली ती स्मार्ट फोनची whats app सुरू झाले सुरूवातीला मैत्रीणींचे समुह नंतर शैक्षणिक समुह जॉईन केले. उत्तम सादरीकरणामुळे अनेक समुहात संचालिका म्हणून कामाची संधी मिळाली. आणि अचानक एक दिवस काव्य समुहाची लिंक मिळाली.समुह जॉईन केला आणि पंचवीस वर्षापूर्वीचं कवी मन नकळत जागे झाले. हा कदाचित दैवयोग असेल परंतु मला या समुहात सुद्धा संचालिका म्हणून काम करण्याची संधी मिळाली . आयुष्यात कधी काव्य संमेलन पाहायला जाण्याचं सुद्धा स्वप्न न पाहिलेली मी परंतु नागपूर शिलेदार समुहाच्या संमेलनात कविता सादरीकरणाची संधी मिळाली आणि खूप आनंद झाला . राज्यस्तरीय समुहातून अनेक कवी कवयित्रींची ओळख झाली .आणि स्वतःचे समुह तयार केले . दररोज लेखन वाढले .

अनेक दिग्गज लेखक कवी कवयित्रींच्या ओळखी झाल्या कवी संमेलनातील सहभाग वाढला आणि आत्मविश्वास सुद्धा वाढला . यातच मशाल न्यूज नेटवर्क ने काव्य स्पर्धा ठेवली आणि गुपचूप लिहिणारी मी नकळत घराघरात पोहचले. या स्पर्धेत सुद्धा राज्यात दुसरा नंबर मिळाल्या मुळे झालेला आनंद नक्कीच शब्दात व्यक्त करणे अशक्य आहे.

दरम्यानच्या काळात हेमंतजी बावनकर यांच्या वेबसाईटवर ब्लॉक लेखिका म्हणून लेख कथा लेखनाची संधी मिळाली. आयुष्यातील पन्नास वर्षात अनुभवलेले अनेक अनुभव नकळत कागदावर उतरायला लागले.मुख्य म्हणजे हेमंतजींच्या प्रोत्साहनामुळे लेखनास चालना मिळाली.

आज मला प्रश्न पडला की आयुष्यात एवढं भरभरून करण्यासाठी बरच काही असताना आपण म्हातारे झालो . आपली कुणाला गरज नाही या विचाराने कुढत का बसावं आपले ज्ञान अपडेट करा . भरपूर वाचन करा ,जमेल तसे लेखन करा. भरपूर व्यायाम करा. तुमच्याकडे इतरांसाठी वेळ नाही हे लक्षात आल्यानंतर घरातल्यांना सुद्धा तुमची किंमत कळेल . मुख्य म्हणजे हे सर्व हसत खेळत करा.

आयुष्यातील या वळणावर जसा जसा वेळ मिळत जाईल तसे तसे एकेक उपक्रम वाढवत जा म्हणजे आयुष्यातील ही पोकळी जाणवणार नाही . मुख्य म्हणजे रडणारी आणि चिडणारी माणसं कुणालाही आवडत नाहीत त्यामुळे संयमाने वागा. लहानात लहान , तरूणांत तरूण होऊन वागावं आपलीच रट लावून धरता.

आपण इतरांचे जर  ऐकायला शिकलो तर  पाहा जे आनंदाचे फुलपाखरू पकडण्यासाठी तुम्ही अकांड तांडव करत होतात . ते फुलपाखरू नकळत तुमच्या खांद्यावर येऊन बसेल अगदी सहजपपणे . . . . !

एक आनंदी सर्व समावेशक समाजशील प्रौढत्व आकाराला येईल जे अगदी प्रसंन आणि परिपूर्ण असेल.

 

©  रंजना लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (33) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।

ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥

यदि तू नहीं करेगा यह धर्म समय संग्राम

तो अपयश देगा तुझे यही “पाप का काम” ।।33।।

भावार्थ : किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।।33।।

 

But, if thou wilt not fight in this righteous war, then, having abandoned thine duty and fame, thou shalt incur sin. ।।33।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – ☆ You Too Can Be A Buddha! ☆ – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

You Too Can Be A Buddha!

Every person seeks happiness, peace and harmony. But often stumbles upon misery, stress and dis-content. Then, starts a journey. Each one takes a different route.
The most common route leads to a pleasant life. A life of material comfort and luxury. One studies in a good school, goes to the university and finds a rewarding job and climbs up and up the ladder. Or, he starts his own business, and flourishes. Such a life is a life full of pleasures. At times, this person wonders – am I really happy?
You may choose a different track. The road less traveled. You are passionate about something and love doing it. You get so absorbed in the activity that you lose track of time, even yourself. Such a life is a life of flow, an engaged life. You may find gratification in sport, science, design, or cooking. This is good life. One uses her signature strengths on an ongoing basis and feels happy.
Some others search for meaning in their lives. They have the greater good of humanity in their minds. They seek happiness for themselves and all around them. They strive for, and acquire, right wisdom and are full of compassion for others. One such enlightened soul visited this planet about two thousand and five hundred years ago. He saw misery all around and, by deep meditation, discovered a way out of it. That is why he is known as ‘Tathagata’ – one who has walked the Path and known the Truth! The path is the eight-fold noble path of morality, mindfulness and wisdom. Such a life is a meaningful life.
Swami Vivekananda, it seems, preferred a meaningful life over others. He once said, “They only live who live for others. Others are more dead than alive!”
But you may choose the life you wish to live. You can choose a pleasant life, or an engaged one, or a life full of meaning. You can aspire to be a Buddha, and you too can become a Buddha – the Enlightened One! The choice is totally yours.
As the Enlightened One blessed us: Bhavatu sabba mangalam! May all beings be happy!

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆

(डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में स्वागत है। इस अत्यंत भावप्रवण प्रणय गीत  ☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆की रचना के लिए डॉ प्रेम कृष्ण जी को हार्दिक बधाई। हम आपसे आपकी विभिन्न विधाओं की चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )

 

प्रिय उर वीणा के तार छेड़नें,

मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ।

निज मन तेरे मन से मिला दूंगा,

मैं तेरा नेह मनस्वी आया हूँ।।

 

मैं निज उर वीणा के तार प्रिये,

तेरे ह्रदतन्त्री से मिलाने आया हूँ।

प्रिय प्रेमज्योति मैं बुझने न दूंगा,

मैं नेह का दीप जलाने आया हूँ।।

 

न होने पाए काया का विगलन,

मैं प्रेम अमृत पिलाने आया हूँ।

यौवन विगलित मैं न होने दूंगा,

मैं तेरा प्रीति यशस्वी आया हूँ।।

 

है करता प्रेम नवजीवन सर्जन,

प्रेम से होता विश्व का संचालन।

तेरा प्रेम मैं कभी न मरने दूंगा,

मैं तेरा प्रेम तपस्वी आया हूँ।।

 

है  प्रेम यहॉ यौवन का अर्जन,

है प्रेमय हॉ अंतर्मन का बंधन।

मैं नफरत यहां न फैलने दूंगा,

मैं तेरी प्रेम संजीवनी लाया हूँ।।

 

मन है जीवन के मरु में प्यासा,

है जीवन में विसरित घोर निराशा,

तनमन का उपवन महका दूंगा,

मैं निर्झर तेरे प्रेम का लाया हूँ।।

 

हैं शूल यहां हर पथ में बिछे,

हैं प्रस्तर यहां हर पंथ चुभे।

फूल यहॉ हर पंथ बिछा दूंगा,

मैं ऋतुराज बसंत लाया हूँ।।

 

मन क्यों अवसादग्रस्त होता,

तन भी क्यों है क्लांत हुआ।

तनमन सोने सा चमका दूंगा,

मैं पारस निज नेह का लाया हूँ।।

 

प्रिय उर वीणा के तार छेड़नें,

मैं तेरा प्रणयतपस्वी आया हूँ।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ नदी हूँ मैं ☆ – डॉ भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

☆ नदी हूँ मैं ☆

 

(प्रस्तुत  है डॉ भावना शुक्ल जी की एक भावप्रवण कविता ☆ नदी हूँ मैं ☆)

नदी हूं मैं !
बहती हूं
अनवरत
चारों दिशाओं में
मैं हूँ सेवा में रत
राह में धीरे-धीरे
बहती हो प्रवाह में
अविरल
शांत निर्मल जल
पावन है गंगाजल
सुंदर वादियों के आसपास निकलती हूँ
लहराती बलखाती सी चलती हूँ
चलती हूँ तट पर सुंदरता बिखराती हूँ
बहुत कुछ सहती हूँ
बढ़ती हूं आगे
कभी पथरीले
कभी रेतीले
कभी उबड़-खाबड़
कभी पहाड़ के रास्तों से
कभी पहाड़ के रास्तों से गुजरती हूं
कभी बहाव तेज तेज
कभी धीमा
कभी बाढ़
कभी कभी तबाही
कभी कंपन्न
होता है सब छिन्न-भिन्न
फिर भी रखना है हौसला
यही है किस्मत का फैसला
राह में आयें
कितनी भी बाधाएं
कितनी समस्याएं
मुझे पथ पर बहना है
सब कुछ सहना है
एक नारी की तरह
तप, त्याग, विश्वास की भरती रहेगी सबकी गागर
होगा मिलन एक  दिन मुझसे सागर
बहते हुए बीत गई सदी
हूं मैं एक नदी
हूं मैं एक नदी…………
© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बस इतना ही चाहता हूँ…. ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर

*बस इतना ही चाहता हूँ….*

(सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी मराठी की एक बेहतरीन कवियित्रि हैं. प्रस्तुत है उनकी एक हिन्दी गजल।)

अक्सर बढ़ती महंगाई के बारे मे सोचता हूँ
सरकारी नए नियमों मे बस उलझ जाता हूँ ।
अख़बार मे जी एस टी दर पे ग़ुम हो जाता  हूँ
कहीं अख़बार न महंगे हो जाएं इससे डरता हूँ ।
अवसर हो तभी बाज़ार में  कुछ लेने जाता हूँ
बटुए में कम पैसे होने से ख़ुद पे शरमाता हूँ ।
आवाम को हर जग़ह कतारों मे देखता हूँ
राशन के लिए लोगों को व्यस्त ही  पाता हूँ ।
आजीवन मैं कठिनाइओं से दोस्ती निभाता हूँ
बच्चों को संस्कार की मधुशाला भी बाँटता हूँ ।
आयु अधिक होने से थोड़ा बहुत थकता हूँ
विचारों की गहराई मे नम आँखों से सोता हूँ ।
अच्छे दिन तो आते रहेंगें रबसे दुआ करता हूँ
कुछ भी हो साँसो को मुफ़्त ही लेना चाहता हूँ ।
© स्वप्ना अमृतकर (पुणे)

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