हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मेरी बिटिया ☆ – डॉ ऋतु अग्रवाल

डॉ ऋतु अग्रवाल 

☆ मेरी बिटिया ☆

(आज प्रस्तुत है प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री डॉ ऋतु अग्रवाल जी की  कविता “मेरी बिटिया”।  संयोगवश  आज के ही अंक में  सुश्री निशा नंदिनी जी की  एक और कविता “परिभाषा बेटियों की ” भी प्रकाशित हुई है  और बेटियों से ही संबन्धित सुश्री नीलम सक्सेना  चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविता  “Tearful Adieu” कल प्रकाशित की थी । निश्चित ही आपको ये तीनों कवितायेँ  बेहद पसंद आएंगी।)

 

मेरी आन है मेरी शान है बेटी

मेरी सांसों की पहचान है बेटी

ममता का एहसास है बेटी

कुदरत का एहसान है बेटी

बाती बन दिए की, दूर करती अंधेरा

रोशनी बन लाती, मेरे जीवन में सबेरा ।

 

मेरे सपनों की बहार है बेटी

खिलते फूलों की मुस्कान है बेटी

मेरे आंगन की किलकारी है बेटी

मेरे जीवन सफर के, हर कदम की शान बनी

निराशा से आस बनी बेटी

मेरी बुलबुल, मेरी आंखों की पुतली है

मेरा हंसना, मेरा बिछौना है मेरी बेटी ।

 

बेटी के आने से घर में बहार आयी

पुलकित को गए रिश्ते, खुशियां ही खुशियाँ छायी

मुझ में भर दिया ममत्व

सत्कर्म से मिला, वरदान है मेरी बेटी |

 

© डॉ.ऋतु अग्रवाल 

 




मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ? मोरपीस ? – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

? मोरपीस  ?

(सुश्री ज्योति हसबनीस जी की लेखनी में एक अद्भुत क्षमता है किसी भी वस्तु, शब्द अथवा भावों को परिभाषित करने की अथवा किसी भी विधा में साहित्य रचने की। संभवतः ‘मोरपीस’ अथवा ‘मोरपंख’ अथवा ‘मोर का पंख’ अनायास ही हमारे नेत्रों के समक्ष न केवल मोर के उस कोमल पंख की झलक दिखलाता है अपितु यह आलेख बचपन से लेकर अब तक की हमारी स्मृतियों में विस्मृत करने हेतु पर्याप्त है।)  

एखाद्या शब्दाची कशी आपली एक स्वतंत्र ओळख असते, अस्तित्व असतं. त्याचं दिसणं, असणं, जाणवणं, अगदी रंग, रूप, स्पर्शासकटच अगदी खास त्याचं त्याचंच असतं . गुलाब म्हटला की पाकळ्या पाकळ्यातून डोकावणारा राजबिंडा रूबाब अगदी रूतणाऱ्या काट्यासकट डोळ्यासमोर येतो, तर मोगरा म्हटला की अगदी श्वासा श्वासात भरभरून तनमन धुंद करणारी मोगऱ्याची ओंजळच नजरेसमोर येते, तर प्राजक्त बकुळीचं नाव जरी उच्चारलं तरी नाजुक फुलांचा अंगणभर पडलेला सडा आणि तो नाजूक दिमाख मिरवणारं श्रीमंत अंगणच डोळ्यासमोर साकारतं! रंग रूप स्पर्श गंधाचं अवघं जगच त्या त्या शब्दांमध्ये सामावलेलं असतं.

असाच एक शब्द मोरपीस ! माझ्या फार फार आवडीचा ! कुणी स्तुती केली, जरा शब्दांनी मला कुरवाळलं की अगदी गालावर मोरपीसच फिरवल्याचा भास मला होतो. मोरपीसाचा मुलायम स्पर्श, त्याच्या लोभस रंगछटा, त्याच्या सौंदर्याचं गारूड इतकं आहे ना मनावर की ते सारं मला त्याक्षणी जाणवतं आणि ते शब्द जणू मोरपीसच होऊन माझ्या गालावर आणि नकळत मनातच रूंजी घालू लागतात !!

मोरपीस…बालपणातला अमूल्य खजिना ! पुस्तकात दडवलेलं /दडपलेलं मोरपीस म्हणजे जणू कुबेराची श्रीमंतीच आपली! केवढा तोरा ते ऐश्वर्य मैत्रिणीला दाखवतांना ..बालपणीचा मुलायम स्पर्श ल्यालेलं श्रीमंतीची पहिली ओळख घडवणारं सुंदर मोरपीस …!

मोरपीस ….मेघांनी व्यापलेल्या नभाकडे बधून उत्फुल्लतेने पिसारा फुलवून बेभान नाचणाऱ्या मोराचं पीस ! पावसाची चाहूल लागताक्षणी जलधारांचा उत्सव डोळ्यात जागवत आनंदविभोर होऊन नृत्य करणारा  मोर आणि त्याचा सुंदर पिसारा ..किती मोठा आशावाद सूचित करणारा ..!

मोरपीस …इतिहासातली किती तरी प्रेमपत्रे ह्याने खुलवली असणार, प्रेमाच्या जगातले सारे शब्द आपल्या  स्निग्ध आर्जवासकट ह्याच्याच मदतीने इष्ट स्थळी पोहोचले असणार, प्रेमी जनांच्या विश्वात अनोखे रंग भरणारं मोरपीस …!

‘मोरपीस’ …..चायनाला’ गेले असतांना तिथे ‘Su embroidery’ हा अनोखा प्रकार बघितला . त्यात कलाकुसर करतांना जे धागे वापरले होते ना त्यात एक मोरपीसाचा धागा पण होता. कित्ती नाजूक, सुंदर, रेखीव आणि नीळ्या हिरव्या रंगांची कलाकुसर डोकवत होती मधून मधून …!

आणि हेही ‘मोरपीसच’…. ‘सावळ्याच्या’ दैवी स्पर्शाने पावन झालेलं, अनोख्या ऐटीत त्याच्या मुकुटात विराजमान झालेलं, शतपटीने देखणं दिसणारं, डौलात विहरणारं… परमात्म्याशी नातं जोडणारं अलौकिक मोरपीस..!

 

©  सौ. ज्योति हसबनीस




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (37) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ।।37।।

उठ निश्चय कर जीतने का खोया साम्राज्य

मृत्यु हुई भी तो खुला तुझे स्वर्ग का राज्य।।37।।

भावार्थ : या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।।37।।

 

Slain, thou wilt obtain heaven; victorious, thou wilt enjoy the earth; therefore, stand up,O son of Kunti, resolved to fight!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga: How to do it all alone for 10 minutes everyday ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Laughter Yoga: How to do it all alone for 10 minutes everyday

Learning Video for Laughing Alone

Laughter is the best medicine.
To get all the health benefits of laughter, you need to laugh deep and continuously for 10-20 minutes. How to do that every day when you are all alone? This video is a tutorial for that.
Laughter Yoga is usually done in groups. People find it difficult to practise it on a daily basis by themselves.
Laughter Yoga is a unique concept where anyone can laugh for no reason without relying on humour, jokes or comedy.
The concept is based on a scientific fact that the body cannot differentiate between real and fake laughter if done with willingness. One gets the same physiological and psychological benefits.
Dr Madan Kataria, a medical doctor, founded the first Laughter Club with just five members in Mumbai in the year 1995. Today there are thousands of laughter clubs all over the world where laughter is initiated as an exercise in a group but with eye contact and childlike playfulness, it soon turns into real and contagious laughter.
It is called Laughter Yoga because it combines laughter exercises with yoga breathing. This brings more oxygen to the body and the brain which makes one feel more energetic and healthy.

When we laugh, our body generates feel good hormones called endorphins which improve our mood and general outlook. During laughter exercises, all the stale air inside the lungs is expelled and our system gets more oxygen which enhances the immune system. In the long run, the inner spirit of laughter helps you build more caring and sharing social relationships, and laugh even when the going in not good.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore




English Literature – Poetry – ☆Tearful Adieu ☆– Ms Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

☆Tearful Adieu  ☆

(Thousand salutes to Ms. Neelam Saxena Chandra’s pen to pen down such emotional poem. Only an author/mother poet like Ms Neelam ji can write such poem. I could not stop my tears while reading this poem being a human being and an author/father of a daughter who is now mother.)

 

Mom, so secured was I in your womb;

My life inside you was a real miracle!

My tiny feet swam in glee; my little hands cuddled you merrily;

My toothless mouth would often giggle and cackle!

 

Mom, so happy was I in your womb;

But, one day, some quivering clatters I could hear –

I heard someone scream and roar, “I don’t want daughters anymore!”

I sobbed as I listened to your helpless tears…

 

Mom, how could I smile in your womb

When I had understood that being a daughter was so bad?

My little eyes cried and heart yelled; something in me had already failed

Alas, I realized that I would soon be dead!

 

Mom, although I shall no longer dwell in your womb,

Your warmth and affection I shall surely miss….

To you, I shall not lie; I had not expected to die:

But fate had in store for me this deathly kiss!

 

Mom, so happy I am to have been a part of your womb,

Although the togetherness was destined as a short boon !

As death pounces and approaches near, I bid you a tearful adieu mom dear,

May a hundred sons be born to you soon!

 

© Ms Neelam Saxena Chandra

 




हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆सांप कौन मारेगा? ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

☆ सांप कौन मारेगा ?☆

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  ने बड़ी  दुविधा में डाल दिया।  एक तो “बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधेगा?” इस मुहावरे से परेशान थे  और  अब पाण्डेय जी  ने ये मुहावरा  कि “साँप  कौन मारेगा?” बता कर डरा  दिया।  यहाँ तो कई लोगों की जान पर आ पड़ी है। लो, अब आप ही तय करो कि साँप कौन मारेगा?”

विक्रम और बेताल पहले जैसे अब नहीं रहे। जमाना बदला तो जमाने के साथ वे दोनों बदल गए। झूठ झटके का सहारा लेकर एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते। बात बात में चौकीदार और चोर पर बहस करने लगते। चौकीदार की गलती से एक बैंक में सांप घुस गया। चौकीदार गेट पर बैठकर ऊंघता रहा और एक छै – सात फुट का जहरीला काला नाग धीरे से बैंक के अंदर घुस गया। हडकंम्प मच गया। उसी समय बैंक के बाहर से विक्रम और बेताल गुजर रहे थे। भगदड़ मची हुई थी तभी विक्रम ने बेताल से पूछा – बताओ बेताल… यदि किसी बैंक में सांप निकल आये, तो सांप मारने की ड्यूटी किसकी है ?

बेताल प्रश्न को सुनकर दंग रह गया फिर बहस करने लगा कि जब पिछली बार बैंक में माल्या और नीरव जैसे कई लोग घुस कर तीस पेतींस करोड़ ले उड़े थे तब तो ये प्रश्न नहीं पूछा था अब बेचारा सांप घुस गया है तो टाइम पास करने के लिए नाहक में हमसे आंखन देखी सुनना चाह रहे हो। विक्रम नाराज हो गया तब बेताल थोड़ी देर सोचता रहा फिर याद आया तो अपनी पुरानी शैली में बताने लगा – देखो भाई…… एक बार हम एक बैंक घूमने गए रहे, चौकीदार से कुछ पूछा तो उसने दाढ़ी में हाथ फेरते हुए हाथ मटका कर आगे तरफ ऊंगली दिखा दी। आगे बढ़े तो काऊंटर की मेडम ने हमें बिना देखे आगे जाने को कहा, फिर आगे वाले से पूछा तो उसने ईशारे से आगे तरफ के लिए ऊंगली दिखा दी। आगे गए तो वहां बाथरूम था सोचा चलो इत्मीनान से धार मारके एक काम निपटा दें। सब हाथ मटका कर ऊंगली दिखाते रहे और कोई काम बना नहीं। बाहर निकलने लगे तो चौकीदार प्रधानमंत्री स्टाइल में चौकीदार की खूबियों पर भाषण दे रहा था और भाषण सुनते सुनते एक सांप धीरे से घुसकर एकाउंटेंट की टेबिल के सामने फन काढ़कर खड़ा हो गया। बैंक में हड़कंप मच गया। कैश आफीसर और काउंटर वाले कैश खुला छोड़कर आनन फानन बैंक के बाहर भागने लगे। ग्राहक सांप – सांप चिल्ला कर भागे। बड़े बाबू और चौकीदार खिड़की से मजे ले लेकर झांकने लगे। अंदर फन फैलाए सांप और डरावना सन्नाटा……..

ब्रांच मैनेजर को सन्नाटे की हवा लगी तो वह कुर्सी में बैठा बैठा सन्न रह गया, उसने आव देखा न ताव इमर्जेंसी बेल बजाना चालू कर दिया। कोई असर नहीं हुआ कोई नहीं आया तो वह भी कुर्सी पटक कर जान बचाने बाहर भागा। बाहर भीड़ में सांप और खतरनाक सांप के किस्से कहानियां रहस्य और रोमांच से कहे और सुने जा रहे थे। जैसे ही ब्रांच मैनेजर बाहर पहुंचा कुछ बिना रीढ़ वाले लोग चमचागिरी के अंदाज में बोले – सॉरी सर… आपको खबर नहीं कर पाए कि ब्रांच में सांप…………

चौकीदार ने खिड़की से झांक कर ब्रांच मैनेजर को बताया कि एक काला जहरीला नाग फन काढ़कर अपने एकाउंटेंट के सामने खड़ा है, एकाउंटेंट अपनी कुर्सी में ‘काटो तो खून नहीं’ की मुद्रा में डटे हुए हैं।

समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए छोटी जगह थी यहां कोई सांप पकड़ने वाला भी नहीं था। वन विभाग के कुछ कर्मचारियों ने बताया कि सांप को मारने से आपके ऊपर जे और जे धारा लग जाएंगी। बहुत देर से सोचा -विचारी चल रही थी और खतरनाक सांपों के नये नये दिलचस्प किस्सों में सब व्यस्त थे बेचारे एकाउंटेंट की कोई बात ही नहीं कर रहा था। बहुत देर हो गई तो पुराना बदला निकालने का मौका पाकर नेता टाइप के बड़े बाबू ने खीसें निपोरते हुए एक जुमला फेंका। बोला – साब, सांप को मारने का प्रबंध किया जाए….. बहुत काम पड़ा है और जल्दी जाना भी है क्योंकि आज की चुनावी सभा में चौकीदार साहब का भाषण भी सुनना है। बड़े बाबू के व्यंग्यगात्मक जुमले को सुनकर सब हें हें करने लगे तो ब्रांच मैनेजर ने गुस्से में आकर बड़े बाबू को आदेश दिया कि वो जल्दी से जल्दी सांप मारके बाहर लाये। कर्मचारी संघ के नेताओं के कान खड़े हो गए, सब आपस में एक दूसरे को देखने लगे, पीछे से आवाज आई सांप मारना एकाउंटेंट की ड्यूटी में आता है। अधिकारी संघ के नेता ने सुना तो उसने एकाउंटेंट का बचाव करते हुए बैंक का सर्कुलर का संदर्भ दे दिया कि बैंक का इनीसियल वर्क करना अधिकारी की ड्यूटी में नहीं आता सांप जब मर जाएगा तो अलटा पलटा के उसके मरने की घोषणा ब्रांच मैनेजर करके  सांप मारने का श्रेय वो चाहे तो ले सकता है। टेंशन बढ़ रहा था और मामला यूनियनबाजी का रूप ले रहा था और उधर सांप और एकाउंटेंट आपस में एक दूसरे पर नजर गढ़ाए राजनैतिक हथकंडों की बात सुन रहे थे।

मामला बिगड़ता देख ब्रांच मैनेजर रूआंसा हो गया था। उसने रीजनल आफिस को फोन लगाकर बताया कि बैंक में जहरीला नाग घुस गया है, ये छोटी जगह है यहां सांप मारने वाला कोई नहीं है और वन विभाग के कुछ लोग सांप मारने पर लगने वाली खतरनाक धाराओं पर चर्चा कर रहे हैं।

पहले तो रीजनल मैनेजर ने ब्रांच मैनेजर की हंसी उड़ाई कहने लगा – डिपाजिट लाने की कोई कोशिश करते नहीं हो अब सांप आ गया तो उससे भी नहीं निपट सकते। सांप का ब्रांच में घुसना यह संकेत है कि कोई बड़ा डिपाजिट तुम्हारे यहां आने वाला है। सांप की पूजा करो दूध – ऊध पिलाओ, अगरबत्ती लगाओ…… और ये बताओ कि तुम्हारे रहते ये सांप ने घुसने की हिम्मत कैसे कर ली। किसी बात पर कंट्रोल नहीं है तुम्हारा….. तुम्हारा चौकीदार क्या कर रहा था चौकीदार के रहते सांप बिना पूछे कैसे घुस गया। ये चौकीदारों ने ही मिलकर बैकों को लुटवा दिया। तीस चालीस करोड़ लेकर भाग गए।ऐसे समय ये चौकीदार लोग आंख बंद कर लेते हैं। सांप के बारे में ठीक से पता करो कहीं वो रूप बदल कर तो नहीं आया है। चौकीदार का तुरंत एक्सपलेशन काल करो तुरंत मेमो दे दो, और सुनो तुम्हारे यहां का चौकीदार के बारे में बताओ…….

… सर, हमारा चौकीदार एक नंबर का झटकेबाज है चुपके से चोरी भी करवा देता है और हर ग्राहक को अपने हाथ में चौकीदार लिखने की सलाह देता है। हमारा चौकीदार कहता है कि हर आदमी के अंदर एक चौकीदार रहता है और हर व्यक्ति कभी तन से कभी मन से चोरी करता है।

सर जी, चौकीदार सांप को मारने पर राजनीति कर रहा है सबको सांप मारने की ड्यूटी बता रहा है और सांप को मजाक बना लिया है।

-सूनो ब्रांच मैनेजर.. यदि सांप मारने कोई तैयार नहीं है,  तो तुम सांप को मारो और कन्फर्म करो।

सर जी, सांप को मैं कैसे मार सकता हूं मैं तो यहाँ का ब्रांच मैनेजर हूं। ब्रांच मैनेजर सांप मरेगा तो बैंक की चारों तरफ छबि खराब हो जाएगी और वन विभाग वाले मुझ पर धाराएं लगाकर मेरी नौकरी चाट लेंगे।

तो ठीक है ब्रांच मैनेजर….

जांच कमेटी बना कर जांच करायी जाए कि सांप को घुसेड़ने में किसकी राजनीति है। जांच रिपोर्ट लेकर एक घंटे में किसी को रीजनल आफिस भेजा जाए।

जी सर।

ब्रांच मैनेजर ने रीजनल मैनेजर से हुई चर्चा को सब स्टाफ को बताया और रिपोर्ट लेकर कौन रीजनल आफिस जाएगा इसके लिए सबसे पूछताछ की। ब्रांच मैनेजर ने सबके सामने खड़े होकर पूछा कि जो भी स्टाफ बैंक खर्चे से तुरंत रीजनल आफिस जाना चाहता है वो अपना हाथ हाथ उठाए…..

ब्रांच मैनेजर और ग्राहक देखकर दंग रह गए कि एकाउंटेंट की कोई चिंता नहीं कर रहा और बैंक खर्च पर सब शहर जाना चाह रहे हैं।

तब विक्रम ने बेताल से पूछा – क्यों बेताल सभी ने तुरंत अपने अपने हाथ क्यों उठा दिये?

तब बेताल ने बताया कि बैंक का रीजनल आफिस पास के शहर में था और हर स्टाफ शहर जाकर अपने व्यक्तिगत कार्य निपटाना चाहता था तो बैंक खर्चे पर टीए डीए बनाने का मोह सबके अंदर पैदा हो गया।

फिर विक्रम ने बेताल से पूछा – फिर आखिर रीजनल आफिस कौन गया ?

बेताल ने बताया कि सबको तो भेजा नहीं जा सकता था जिसका हाथ नहीं उठा था वहीं जाने का हकदार था। इसलिए ब्रांच मैनेजर के सिवाय कौन जाता उसके भी बाल बच्चे बीबी शहर में रहते हैं और उनके सब्जी भाजी का भी इन्तजाम करना जरूरी था।

विक्रम ने  पूछा कि फिर सांप का क्या हुआ ?

सांप रीजनल आफिस के आदेश के इंतजार में अभी भी खड़ा है और एकाउंटेंट मूर्छित होकर कुर्सी पर लटक गया है। बाहर चौकीदार चौकन्ना खड़ा पब्लिक से पूछ रहा हैकि इस बार किसकी सरकार बनेगी…

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (36) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

अवाच्यवादांश्च बहून्‌वदिष्यन्ति तवाहिताः ।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌॥

शत्रु निन्द्य शब्दावली का कर घृणित प्रयोग

करने तव अपकीर्ति का पायेंगे संयोग।।36।।

भावार्थ :  तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?।।36।।

 

Thy enemies also, cavilling at thy power, will speak many abusive words. What is more painful than this! ।।36।।

 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Why one should not speak a deliberate lie even in jest ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Why one should not speak a deliberate lie even in jest.
[1]
One day  the Buddha came to Rahula, pointed to a bowl with a little bit of water in it, and asked: “Rahula, do you see this bit of water left in the bowl?”
Rahula answered: “Yes, sir.”
“So little, Rahula, is the spiritual achievement of one who is not afraid to speak a deliberate lie.”
[2]
Then the Buddha threw the water away, put the bowl down, and said: “Do you see, Rahula, how that water has been discarded?
“In the same way, one who tells a deliberate lie, discards whatever spiritual achievement he has made.”
[3]
Again, he asked: “Do you see how this bowl is now empty?
“In the same way, one who has no shame in speaking lies is empty of spiritual achievement.”
[4]
Then the Buddha turned the bowl upside down and said: “Do you see, Rahula, how this bowl has been turned upside down?
“In the same way, one who tells a deliberate lie turns his spiritual achievement upside down and becomes incapable of progress.”
[5]
Therefore, the Buddha concluded, one should not speak a deliberate lie even in jest.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
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Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

 

 




ई-अभिव्यक्ति: संवाद-20 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–20       

 

आज सुश्री निशा नंदिनी जी की कविता नेत्रदान ने मुझे मेरी एक पुरानी कविता ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं की याद दिला दी जो मैं आपसे साझा करना चाहूँगा:

(यह कविता दहेज के कारण आग से झुलसी युवती द्वारा मृत्युपूर्व नेत्रदान के एक समाचार से प्रेरित है )

 

ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु

जीवन यज्ञ वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

 

मैंने देखा है,

नहीं-नहीं

मेरे इन नेत्रों ने देखा है

आग का एक दरिया

माँ के आँचल की शीतलता

और

यौवन का दाह।

 

विवाह मण्डप

यज्ञ वेदी

और सात फेरे।

नर्म सेज के गर्म फूल

और ……. और

अग्नि के विभिन्न स्वरुप।

 

कंचन काया

जिस पर कभी गर्व था

मुझे

आज झुलस चुकी है

दहेज की आग में।

 

कहाँ हैं – ’वे’?

कहाँ हैं?

जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान

हाथ थामा था

फिर

दहेज की अग्नि दी

और …. अब

अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।

 

बस

एक गम है।

साँस आस से कम है।

जा रही हूँ

अजन्में बच्चे के साथ

पता नहीं

जन्मता तो कैसा होता/होती ?

हँसता/हँसती  ….. खेलता/खेलती

खिलखिलाता/खिलखिलाती या रोता/रोती?

 

किन्तु, माँ!

तुम क्यों रोती हो?

और भैया तुम भी?

दहेज जुटाते

कर्ज में डूब गये हो

कितने टूट गये हो?

काश!

…. आज पिताजी होते

तो तुम्हारी जगह

तुम्हारे साथ रोते!

मेरी विदा के आँसू तो

अब तक थमे नहीं

और

डोली फिर सज रही है।

 

नहीं …. नहीं

माँ !

बस अब और नहीं

अब

ये नेत्र किसी को दे दो।

दानस्वरुप नहीं

दान तो वह करता है

जिसके पास कुछ होता है।

 

अतः

यह नेत्रदान नहीं

नेत्रार्पण हैं

सफर जारी रखने के लिये।

 

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु,

जीवन यज्ञ वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

रचना  – 2 दिसम्बर 1987

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

7  अप्रैल 2019




मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ प्रेमा तुझा रंग कसा? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ प्रेमा तुझा रंग कसा? ☆

 

या विषयावर विचार प्रकट करताना, आठवतात ओळी, ‘पाण्या तुझा रंग कसा? ‘ एखाद्या व्यक्तीवर जीव जडतो. त्याचं शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सौंदर्य मनाला भुरळ घालत.  अशा व्यक्तीच्या सहवासात मन रमत.  आणि सुरू होतो प्रेमाचा प्रवास. प्रेम हे पाण्याइतकच जीवनावश्यक. जीवनदायी. प्रेमाचा अविष्कार नसेल तर,  आयुष्य निरर्थक, निरस, कंटाळवाणे होईल.

प्रेम दिसत नसले तरी,  त्याचे रंग अनुभुतीतून जाणवतात. कुणाच्या नजरेतून, कुणाच्या स्पर्शातून, कुणाच्या काळजीतून,  कुणाच्या आचारातून , कुणाच्या विचारातून, कुणाच्या सेवेतून, कुणाच्या त्यागातून, कुणाच्या आधारातून प्रेमरंगाच्या विविध छटा  अनुभवता येतात. असं हे रंगीबेरंगी प्रेम,  ह्रदयात जाणवत. . . आणि व्यक्त होताना कुणाचं तरी ह्रदय हेलावून टाकत. हा प्रवास  असतो. . सृजनाचा. माणूस माणसाशी जोडला जातो. परस्परात नातं निर्माण होत.  अनेक विध नात्यातून व्यक्त होणारे प्रेम माणसाला पदोपदी एकच संदेश देत. . . तो म्हणजे. . . ”तू माणूस  आहेस. . ”

एकदा का व्यक्तीला स्वत्वाची जाणिव झाली कि तो स्वतःवर, नात्यांवर,  देशावर प्रेम करायला लागतो. प्रेम हे एक रेशमी कुंपण  असते.  आपणच आपल्या आत्मीयतेने हा परीघ स्वतःभोवती निर्माण करतो. नात्यांचे भावबंध गुंफत  असताना, गुणदोषासकट आपण प्रेमाची बांधिलकी स्विकारतो. वेळ, काळ, पद, पत,  पैसा प्रतिष्ठा,  तन, मन, धन,  सारं काही पणाला लावतो. या प्रेमाच्या रंगात आपण स्वतः तर रंगतोच पण  इतरांनाही रंगीत करतो.

एकतर्फी प्रेम, आपुलकी, जिव्हाळा,  आदर, यांच्या पलीकडे जाऊन दुसर्‍या वर हक्क प्रस्थापित करू पहात. . . तेव्हा ते घातक ठरत. कुंपण शेत खात या म्हणीनुसार,  एकतर्फी प्रेम  आधी व्यक्ती, मग कुटुंब, मग समाज,  यांना गोत्यात  आणत. प्रेमाचा  उगम हा सरितेसारखा. प्रेम ह्ददयातून उत्पन्न होत असलं तरी त्याचं मूळ नी प्रिती च कूळ शोधायला जाऊ नये. ही सहज सुंदर तरल भावना,  आपले जीवन  उत्तरोत्तर  अधिकाधिक रंगतदार करत असते.

प्रेमाच्या विविध छटा, त्याचे पैलू, नानाविध  अविष्कार हे आपलेच जीवन रंग  असतात. जीवना तू असा रे कसा, याचा शोध घेतला की  आपोआपच या प्रेमरंगाच्या रंगान आपण निथळू लागतो. विविध ऋतूंप्रमाणे हे जीवन स्तर प्रत्येकाच्या आयुष्यात असतात. . फक्त ते अनुभवता  आले पाहिजेत. अडीच अक्षरात सामावलेलं हे प्रेम,  वळल तर सूत, नाही तर भूत. . या  म्हणीचा प्रत्यय देते. प्रेमाचा रंगीत  अविष्कार कुणाला मानव करतो. . तर कुणाला दानव. . . हे प्रेम रंग किती द्यायचे, किती घ्यायचे. . .  अन् कसे किती उधळायचे,  इतकेच फक्त कळले पाहिजे.

स्वतःचे मी पण हिरावून नेणारे हे प्रेम रंग  जात्यातच असतात मनोहारी. . . ! आईचे काळीज म्हणजे प्रेमरंगाचा वात्सल्य भाव.  आठवणींचा पसा पसरून संस्काराचा वसा वेचत माणूस घडविण्याचं कार्य हा प्रेमरंग करतो. बापाचं काळीज म्हणजे फणसाचा गरा. त्याची आठळी म्हणजे  अमृताचा कोष. . पण ती  आठळी सदैव बाजूला पडते. त्याच्या नजरेचा धाक वाटतो पण त्या धाकात त्याच्या लेकराचा घट घडत  असतो. बाप लेकाचे प्रेम हे सुई दोरा  सारखे. . फक्त जोडणीचा होरा चुकायला नको.

बहिण भावंडे यांच रेशमी कुंपण,  प्रेमाच्या गुंफणीत माया ममतेचं अलवार नातं निर्माण करत. ही गुफण मग सुटता सुटत नाही.  आज्जी, आजोबा काका, काकू, मामा, मामी, हे आधाराचे हात बनून जीवनात येतात.  अनेक संकटांवर लिलया मात केली जाते. ती याच हातांकरवी. सारे आप्तेष्ट, मित्र परिवार यांच्या प्रेमरंगाच्या अंतराला जाणवणारा दंगा हा वर्णनातीत आहे. . . तो ज्यान त्यान अनुभवण्यात जास्त रंगत आहे.

गुरू शिष्य नाते स्नेहभावाचे. पैलू विना हिर्‍याला चमक नाही तसे ज्ञानार्जन माणसाला ज्ञानी करते. सारे जग प्रेमाच्या रंगात रंगत जाताना  आपले अंतरंग फुलून येते. जाणिवा नेणिवा,  साद, प्रतिसाद, राग, लोभ, मोह, द्वेष, मत्सर, सारे षड्विकार प्रेमरंगाला आपापल्या जाळ्यात ओढू पहातात. हे जीवनरंग अनुभवताना  काळजाची भाषा  उमजायला हवी.

प्रेमरंगात रंगताना त्यात होणारी देव घेव प्रेमाचं यशापयश ठरवते. फक्त प्रेमात व्यवहार नसावा. रोख ठोक हिशोब नसावा. . . शेवटच्या श्वासापर्यत स्वतःवर आणि प्रिय व्यक्तीवर  विश्वास ठेवला की हे सारे प्रेमरंग अनुभवता येतात. हा जीवन रस,  हे जीवन सौख्य  अखेर पर्यंत  आपल्या सोबत  असत. त्याचा  अविरत प्रवास

सुरू  असतो. . . .  अंतरातून  अंतराकडे . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

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