( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(सांख्ययोग का विषय)
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।21।।
अविनाशी अज सतत जो,उसका कहाँ विनाश
उसके मारण-मरण का झूठा है विश्वास।।21।।
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?।।21।।
Whosoever knows Him to be indestructible, eternal, unborn and inexhaustible, how can that man slay, O Arjuna, or cause to be slain? ।।21।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
Laughter and meditation are not opposites. Laughter opens a beautiful door to transcendence. Laughter meditation is one of the most intense and beautiful experiences that you can ever have.
मेरे जैसे फ्रीलान्स लेखक के लिए अपने ब्लॉग के लेखकों / पाठकों की संख्या का निरंतर बढ़ना मेरे गौरवान्वित होने का नहीं अपितु, मित्र लेखकों / पाठकों के गौरवान्वित होने का सूचक है। यह सब आप सबके प्रोत्साहन एवं सहयोग का सूचक है। साथ ही यह इस बात का भी सूचक है कि इस चकाचौंध मीडिया और दम तोड़ती स्वस्थ साहित्यिक पत्रिकाओं के दौर में भी लेखकों / पाठकों की स्वस्थ साहित्य की लालसा अब भी जीवित है। लेखकों /पाठकों का एक सम्मानित वर्ग अब भी स्वस्थ साहित्य/पत्रकारिता लेखन/पठन में तीव्र रुचि रखता है।
अन्यथा इस संवाद के लिखते तक मुझे निरंतर बढ़ते आंकड़े साझा करने का अवसर प्राप्त होना असंभव था। अत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि 15 अक्तूबर 2018 से आज तक 5 माह 9 दिनों में कुल 542 रचनाएँ प्रकाशित की गईं। उन रचनाओं पर 360 कमेंट्स प्राप्त हुए और 10,000 से अधिक सम्माननीय लेखक/पाठक विजिट कर चुके हैं।
प्रतिदिन इस यात्रा में नवलेखकों से लेकर वरिष्ठतम लेखकों और पाठकों का जुड़ना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।
सबसेअधिक सौभाग्य के क्षण मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ।
इस जबलपुर प्रवास के दौरान मुझे अपने जीवन के दो महत्वपूर्ण एवं स्मरणीय क्षणों को सँजो कर रखने का अवसर प्राप्त हुआ।
प्रथम डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी से आशीर्वचन स्वरूप उनकी साहित्यिक यात्रा के विभिन्न पड़ावों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ।
दूसरा संयोग बड़ा ही अद्भुत एवं आलौकिक था। इस संदर्भ में बेहतर होगा कि मैं उस वाकये को सचित्र आपसे साझा करूँ जो कि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की फेसबुक वाल से साभार उद्धृत करना चाहूँगा।
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार >>>>
शिक्षकीय सुख यह होता है, कल घर आये Hemant Bawankar जी वे और डॉ विजय तिवारी किसलय जी, पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी के केंद्रीय विद्यालय जबलपुर क्रमांक 1 जिसके संस्थापक प्राचार्य हैं पिताजी, में उनके विद्यार्थी थे । साथ मे थे डॉ विजय तिवारी किसलय ।
पिताजी का जन्मदिन था कल , बधाई , मिठाई ,होली मिलन आशीर्वाद सब ।
ऐसे व्यक्तिगत एवं आत्मीय क्षणों में मेरी प्रतिकृया मात्र यह थी >>>
अपने प्रथम प्राचार्य का लगभग 53 वर्ष पश्चात अपनी सेवानिवृत्ति के उपरान्त आशीर्वाद पाना किसी भी प्रकार से ईश्वर के प्रसाद से कम नहीं है।
इस संयोग के लिए मैं उनका एवम उनके चिरंजीव बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री विवेक रंजन जी एवम अनुज डॉ विजय तिवारी जी का हृदय से आभारी हूँ।
इन दोनों ही क्षणों में अनुज डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी के साथ ने ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस अवसर को अविस्मरणीय बना दिया।
जीवन में ऐसे सुखद क्षणों की हम मात्र कल्पना ही कर पाते हैं। किन्तु, जब कभी ऐसे क्षण ईश्वर हमें देते हैं तो उन्हें अंजुरी में समेटना बड़ा कठिन लगता है । ऐसा लगता है कि ये कि ये क्षण सदैव के लिए हृदय के कैमरे में अंकित हो जाएँ। और वे हो गए।
(कल के अंक में आपने डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी के व्यंग्य संकलन “एक रोमांटिक की त्रासदी” की श्री अभिमन्यु जैन जी द्वारा लिखित समीक्षा पढ़ी। आज हम आपके लिए इसी व्यंग्य संकलन से एक चुनिन्दा व्यंग्य “अमर होने की तमन्ना” लेकर आए हैं।
इस सार्थक व्यंग्य से आप व्यंग्य संकलन की अन्य व्यंग्य रचनाओं की कल्पना कर सकते हैं। साथ ही यह भी स्वाकलन कर सकते हैं कि – अमर होने की तमन्ना में आप अपने आप को कहाँ पाते हैं? यह तो तय है कि इस व्यंग्य को पढ़ कर कई लोगों के ज्ञान चक्षु जरूर खुल जाएंगे।)
प्रकृति ने तो किसी को अमर बनाया नहीं। सब का एक दिन मुअय्यन है। समझदार लोग इसे प्रकृति का नियम मानकर स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन फिर भी कुछ लोग अमरत्व पाने के लिए हाथ-पाँव मारते रहते हैं। प्रकृति पर वश नहीं चलता तो अपने नाम से स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला, मंदिर बनवा देते हैं, क्योंकि इमारत का जीवन आदमी के जीवन से लंबा होता है। बहुत से लोग मंदिर की सीढ़ियों पर अपने नाम का पत्थर लगवा देते हैं। इसमें विनम्रता के साथ अमरत्व की लालसा भी होती है।
शाहजहां ने अपनी बेगम को अमर बनाने के लिए करोड़ों की लागत का ताजमहल बनवाया। मुमताज की ज़िंदगी में तो कुछ याद रखने लायक था नहीं, अलबत्ता ताजमहल उसकी याद को ज़िंदा रखे है। लेकिन यह अमरता का बड़ा मंहगा नुस्खा है,खास तौर से तब जब ग़रीब जनता का पैसा शासक को अमर बनाने के लिए लगाया जाए। ऐसी अमरता से भी क्या फायदा जहाँ आदमी अपने काम के बूते नहीं, कब्र की भव्यता के बूते अमर रहे?
समय भी बड़ा ज़ालिम होता है। वह बहुत से लोगों की अमरत्व की लालसा की हत्या कर देता है। धन्नामल जी बड़ी हसरत से अपने नाम से अस्पताल खुलवाते हैं, और लोग कुछ दिन बाद उसे डी.एम.अस्पताल कहना शुरू कर देते हैं। धन्नामल जी डी.एम.के पीछे ग़ायब हो जाते हैं।और अगर धन्नामल जी का पूरा नाम सलामत भी रहा,तो कुछ दिनों बाद लोगों को पता नहीं रहता कि ये कौन से धन्नामल थे—– नौबतपुर वाले, या ढोलगंज वाले?
जो लोग सिर्फ परोपकार और परसेवा के लिए स्कूल, अस्पताल या धर्मशाला बनवाते हैं, वे प्रशंसा के पात्र हैं। उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका नाम रहे या भुला दिया जाए। लेकिन जो लोग खालिस अमरत्व और वाहवाही के लिए इमारतें खड़ी करते हैं वे अक्सर गच्चा खा जाते हैं। ऐसे लोग ईंट-पत्थर की इमारत में तो लाखों खर्च कर देते हैं, लेकिन आदमी की सीधी मदद करने के मामले में खुद पत्थर साबित होते हैं। बहुत से लोग चींटियों को तो शकर खिलाते हैं, लेकिन आदमी को गन्ने की तरह पेरते हैं।
मंदिर मस्जिद बनवाने के पीछे शायद अमरता प्राप्त करने के साथ साथ ख़ुदा को धोखा देने की भावना भी रहती हो। सोचते हों कि मंदिर बनवाने से सब गुनाह माफ हो जाएंगे और स्वर्ग में पनाह मिल जाएगी। इसीलिए बहुत सा दो नंबर का पैसा मंदिरों अस्पतालों में लगता है। लेकिन ख़ुदा इतना भोला होगा, इस पर यकीन नहीं होता।
हमारे देश में अमर होने का एक और नुस्खा चलता है—–कुलदीपक पैदा करने का। लोग समझते हैं कि पुत्र पैदा करने से उनका वंश चलेगा।इसमें पहला सवाल तो यह उठता है कि श्री खसोटनलाल का वंश चले ही क्यों? वे कोई तात्या टोपे हैं जो उनका वंश चलना ज़रूरी है? जो सचमुच बड़े होते हैं वे अपना वंश चलाने की फिक्र नहीं करते। गांधी के वंश का आज कितने लोगों को पता है? अलबत्ता जिन्होंने ज़िंदगी भर सोने, खाने और धन बटोरने के सिवा कुछ नहीं किया, वे अपना यशस्वी वंश चलाने के बड़े इच्छुक होते हैं।
दूसरी बात यह है कि कुलदीपक अक्सर वंश चलाने के बजाय उसे डुबा देते हैं। बाप के जतन से जोड़े धन को वे दोनों हाथों से बराबर करते हैं और पिताश्री के सामने ही उनके वंश का श्राद्ध कर देते हैं। लोग पूछते हैं, ‘ये किस कुल के चिराग हैं जो पूरे मुहल्ले को फूँक रहे हैं?’ और पिताजी अपनी वंशावली बताने के बजाय कोई अँधेरा कोना ढूँढ़ने लगते हैं।
कुछ लोग वंश को पीछे से पकड़ते हैं। संयोग से किसी महापुरुष के वंशज हो गये।अपने पास उस पूर्वज की याद दिलाने वाले कोई गुण बचे नहीं, लेकिन ‘विशिष्ट’ बने रहने की इच्छा पीछा नहीं छोड़ती। दिन भर दस साहबों को सलाम करते हैं, दस जगह रीढ़ को ख़म देते हैं, लेकिन यह बखान करते नहीं थकते कि वे अमुक वीर की वंशबेल के फूलपत्र हैं।
समझदार लोग अमरता के प्रलोभन में नहीं पड़ते।वक्त के इस प्रवाह में बहुत आये और बहुत गये। जो अपनी समझ में अपने अमर होने का पुख्ता इंतज़ाम कर गये थे उनका नाम हवा में गुम हो गया। बहुत से लोगों को उनकी पुण्यतिथि पर काँख-कूँख कर याद कर लिया जाता है, और फिर उसके बाद उनकी फोटो को एक साल के लिए टांड पर फेंंक दिया जाता है। अगली पुण्यतिथि पर फिर फोटो की धूल झाड़कर श्रद्धांजलि की रस्म भुगती जाती है।ऐसी अमरता से तो विस्मृत हो जाना ही अच्छा।
इसलिए बंडू भाई, अमर होने की इच्छा छोड़ो। मामूली आदमी बने रहो,जितना बने दूसरों का कल्याण करो, और जब मरो तो इस इच्छा के साथ मरो कि दुनिया हमारे बाद और बेहतर हो। बहुत से लोग हैं जो बिना शोरगुल किये दुनिया का भला करते हैं और चुपचाप ही दुनिया से अलग हो जाते हैं।ऐसे लोग ही दुनिया के लिए ज़रूरी हैं।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है एक सामयिक एवं मार्मिक रचना जिसकी पंक्तियां निश्चित ही आपके नेत्र नम कर देंगी और आपके नेत्रों के समक्ष सजीव चलचित्र का आभास देंगे।)
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(सांख्ययोग का विषय)
न जायते म्रियते वा कदा चिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।20।।
आत्मा शाश्वत ,अज अमर,इसका नहिं अवसान
मरता मात्र शरीर है, हो इतना अवधान।।20।।
भावार्थ : यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।।20।।
He is not born nor does He ever die; after having been, he again ceases not to be unborn, eternal, changeless and ancient. He is not killed when the body is killed. ।।20।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
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