पुस्तक समीक्षा : व्यंग्य – मिली भगत – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

मिली भगत – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  

संपादक – विवेक रंजन श्रीवास्तव

प्रकाशक – रवीना प्रकाशन, दिल्ली-110094

मूल्य – 400 रू हार्ड बाउंड संस्करण, पृष्ठ संख्या 256

फोन- 8700774571,७०००३७५७९८

समीक्षक – डॉ. कामिनी खरे,भोपाल

कृति चर्चा .. मिली भगत – (हास्य व्यंग्य का वैश्विक संकलन)

तार सप्तक संपादित संयुक्त संकलन साहित्य जगत में बहुचर्चित रहा है. सहयोगी अनेक संकलन अनेक विधाओ में आये हैं, किन्तु मिली भगत इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है कि इसमें संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के वैश्विक संबंधो के चलते सारी दुनिया के अनेक देशो से व्यंग्यकारो ने हिस्सेदारी की है. संपादकीय में वे लिखते हैं कि  “व्यंग्य विसंगतियो पर भाषाई प्रहार से समाज को सही राह पर चलाये रखने के लिये शब्दो के जरिये वर्षो से किये जा रहे प्रयास की एक सुस्थापित विधा है. “यद्यपि व्यंग्य  अभिव्यक्ति की शाश्वत विधा है, संस्कृत में भी व्यंग्य मिलता है,  प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में  व्यंग्य है, यह कटाक्ष  किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि उसे सही मार्ग दिखाने के लिए ही होता है. कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता उसकी ढाल है.  हास्य और व्यंग्य में एक सूक्ष्म अंतर है, जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग्य हमें सोचने पर विवश करता है. व्यंग्य के कटाक्ष पाठक को  तिलमिलाकर रख देते हैं. व्यंग्य लेखक के संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है. शायद व्यंग्य, उन्ही तानों और कटाक्ष का  साहित्यिक रचना स्वरूप है, जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में स्थाई रूप से घुलमिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं. कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है, भी कुछ कुछ व्यंग्य, छींटाकशी, हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है.

प्रायः अनेक समसामयिक विषयो पर लिखे गये व्यंग्य लेख अल्पजीवी होते हैं, क्योकि किसी  घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया  व्यंग्य, अखबार में फटाफट छपता है, पाठक को प्रभावित करता है, गुदगुदाता है, थोड़ा हंसाता है, कुछ सोचने पर विवश करता है, जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह थोड़ा कसमसाता है पर अपने बचाव के लिये वह कोई अच्छा सा बहाना या किसी भारी भरकम शब्द का घूंघट गढ़ ही लेता है, जैसे प्रायः नेता जी आत्मा की आवाज से किया गया कार्य या व्यापक जन कल्याण में लिया गया निर्णय बताकर अपने काले को सफेद बताने के यत्न करते दिखते हैं.. अखबार के साथ ही व्यंग्य  भी रद्दी में बदल जाता है. उस पर पुरानेपन की छाप लग जाती है. किन्तु  पुस्तक के रूप में व्यंग्य संग्रह के लिये  अनिवार्यता यह होती है कि विषय ऐसे हों जिनका महत्व शाश्वत न भी हो तो अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हो. मिली भगत ऐसे ही विषयो पर दुनिया भर से अनेक व्यंग्यकारो की करिश्माई कलम का कमाल है.

संग्रह में अकारादि क्रम में लेखको को पिरोया गया है. कुल ४३ लेखकों के व्यंग्य शामिल हैं.

अभिमन्यु जैन की रचना ‘बारात के बहाने’ मजेदार तंज है. उनकी दूसरी रचना अभिनंदन में उन्होने साहित्य जगत में इन दिनो चल रहे स्वसम्मान पर गहरा कटाक्ष किया है. अनिल अयान श्रीवास्तव नये लेखक हैं, देश भक्ति का सीजन और  खुदे शहरों में “खुदा“ को याद करें लेख उनकी हास्य का पुट लिये हुई शैली को प्रदर्शित करती है. अलंकार रस्तोगी बड़ा स्थापित नाम है. उन्हें हम जगह-जगह पढ़ते रहते हैं. ‘साहित्य उत्त्थान का शर्तिया इलाज’ तथा ‘एक मुठभेड़ विसंगति से’ में रस्तोगी जी ने हर वाक्य में गहरे पंच किये हैं. अरुण अर्णव खरे वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, वे स्वयं भी संपादन का कार्य कर चुके हैं, उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं. बच्चों की गलती, थानेदार और जीवन राम तथा बुजुर्ग वेलेंटाईन, उनकी दोनो ही रचनायें गंभीर व्यंग्य हैं. इंजी अवधेश कुमार ’अवध’ पेशे से इंजीनियर हैं ‘पप्पू-गप्पू वर्सेस संता-बंता’ एवं ‘सफाई अभिनय’ समसामयिक प्रभावी  कटाक्ष हैं. डॉ अमृता शुक्ला के व्यंग्य ‘कार की वापसी’ व ‘बिन पानी सब सून’ पठनीय हैं. बसंत कुमार शर्मा रेल्वे के अधिकारी हैं ‘वजन नही है’ और ‘नालियाँ’ व्यंग्य उनके अपने परिवेश को अवलोकन कर लिखने की कला के साक्षी हैं. ब्रजेश कानूनगो वरिष्ठ सुस्थापित व्यंग्यकार हैं. उनके दोनो ही लेख उपन्यास लिख रहे हैं वे तथा वैकल्पिक व्यवस्था मंजे हुये लेखन के प्रमाण हैं, जिन्हें पढ़ना गुनना मजेदार तो है ही साथ ही व्यंग्य की क्षमता का परिचायक है. छाया सक्सेना ‘प्रभु’ के लेख फ्री में एवलेबल रहते हैं पर फ्री नहीं रहते और ध्यानचंद्र बनाम ज्ञानचंद्र बढ़िया हैं. प्रवासी भारतीय धर्मपाल महेंद्र जैन एक तरफा ही सही और  गड्ढ़े गड्ढ़े का नाम लेखो के माध्यम से कुछ हास्य कुछ व्यंग्य के नजारे दिखाते हैं. वरिष्ठ लेखक जय प्रकाश पाण्डे ने ‘नाम गुम जाएगा’ व  ‘उल्लू की उलाहना’ लेखो के माध्यम से कम में अधिक कह डाला है. किशोर श्रीवास्तव के सावधान, यह दुर्घटना प्रभावित क्षेत्र है और  घटे वही जो राशिफल बताये लेखो के जरिये स्मित हास्य पैदा किया है. कृष्णकुमार ‘आशु’ ने पुलिसिया मातृभाषा में पुलिस वालो की बोलचाल के तौर तरीको पर कलम चलाकर कटाक्ष किया है उनका दूसरा लेख फलित होना एक ‘श्राप का’ भी जबरदस्त है. मंजरी शुक्ला के दो लेख क्रमशः जब पडोसी को सिलेंडर दिया एवं बिना मेक अप वाली सेल्फी, मजेदार हैं व पाठक को बांधते हैं.

मनोज श्रीवास्तव के लेख अथ श्री गधा पुराण व  यमलोक शीर्षक से ही कंटेंट की सूचना देते हैं.  महेश बारमाटे ‘माही’ बिल्कुल नवोदित लेखक हैं किन्तु उनके व्यंग्य धारदार हैं  बेलन, बीवी और दर्द व सब्जी क्या बने एक राष्ट्रीय समस्या पर उन्होने लिखा है, वे पेशे से इंजीनियर हैं,  ओम वर्मा के लेख  अनिवार्य मतदान के अचूक नुस्ख़े व ‘दो टूक’ शानदार हैं.  ओमवीर कर्ण के लेख प्रेम कहानी के बहाने तथा  पालिटीशियन और पब्लिक की सरल ताने भरी भाषा पैनी है. डा. प्रदीप उपाध्याय सुस्थापित नाम है, उनकी कई पुस्तकें लोगो ने पसंद की हैं. यह संपादक का ही कमाल है कि वे इस किताब में  ढ़ाढ़ी और अलजाइमर का रिश्ता और  उनको रोकने से क्या हासिल लेखों के माध्यम से शामिल हैं. रमाकान्त ताम्रकार परसाई की नगरी के व्यंग्यकार हैं.

उनके लेख  दो रुपैया दो भैया जी व जरा खिसकना अनुभवजन्य हैं.  रमेश सैनी  व्यंग्य जगत में अच्छा काम कर रहे हैं, वे व्यंग्यम संस्था के संयोजक भी हैं.  उनकी पुस्तकें छप चुकी हें.  ए.टी.एम. में प्रेम व  बैगन का भर्ता के जरिये उनकी किताब में उपस्थिति महत्वपूर्ण है.  राजशेखर भट्ट ने  निराधार आधार और  वेलेंटाईन-डे की हार्दिक शुभकामनायें लिखी हैं.  राजशेखर चौबे रायपुर में बड़े शासकीय पद पर कार्यरत हैं, किन्तु स्थापित संपादक व व्यंग्यकार की उनकी पहचान को उनके लेख  ज्योतिष की कुंजी और डागी  फिटनेस ट्रेकर मुखरित करते हैं.  राजेश सेन को हर व्यंग्य में रुचि रखने वाले पाठक बखूबी जानते हैं.  अपने प्रसिद्ध नाम के अनुरूप ही उनके लेख  डार्विन, विकास-क्रम और हम एवं   बतकही के शोले और ग्लोबल-वार्मिंग किताब में चार चांद लगा रहे हैं. अबूधाबी की प्रसिद्ध लेखिका  समीक्षा तैलंग की हाल ही में चर्चित किताब जीभ अनशन पर है आई है, वे विषय की पिच पर जाकर बेहतरीन लिखती हैं. किताब में उनके दो लेख  विदेश वही जो अफसर मन भावे तथा  धुंआधार धुंआ पटाखा या पैसा लिये गये हैं. मेरठ के सुप्रसिद्ध साहित्यिक सांध्यकालीन अखबार विजय दर्पण टाईम्स के संपादक – संतराम पाण्डेय की लेखनी बहुप्रशंसित है. उनके लेख  लेने को थैली भली और  बिना जुगाड़ ना उद्धार पढ़ेंगे तो निश्चित ही आनंद आवेगा. दिव्य नर्मदा ब्लाग के  संजीव सलिल ने  हाय! हम न रूबी राय हुए व  दही हांडी की मटकी और सर्वोच्च न्यायालय  जैसे समाज की समकालीन घटनाओ को इंगित करते लेख लिखे हें.  इंजी संजय अग्निहोत्री प्रवासी भारतीय और इंजीनियर हैं, यह विवेक जी का ही संपर्क जाल है कि उनके लेख  यथार्थपरक साहित्य व   अदभुत लेखकों को किताब में संजोया गया है. मुम्बई के सुप्रसिद्ध लेखक संजीव निगम के व्यंग्य  लौट के उद्धव मथुरा आये और  शिक्षा बिक्री केन्द्र जबरदस्त प्रहार करने में सफल हुये हैं. ब्लाग जगत के चर्चित व्यक्तित्व केनेडा के  समीर लाल उड़नतश्तरी के लेखों  किताब का मेला या मेले की किताब और  रिंग टोनः खोलती है राज आपके व्यक्तित्व का  ने किताब को पूरे अर्थो में वैश्विक स्वरूप दे दिया है.  शशांक मिश्र भारती का  पूंछ की सिधाई व  अथ नेता चरित्रम् व्यंग्य को एक मुकाम देते लेख हैं. बहुप्रकाशित लेखक  प्रो.शरद नारायण खरे ने  ख़ुदा करे आपका पड़ोसी दुखी रहे एवं  छोड़ें नेतागिरी बढ़िया व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं.

सशक्त व्यंग्य हस्ताक्षर  शशिकांत सिंह ‘शशि’ जिनकी स्वयं कई किताबें छप चुकी हैं, तथा विभिन्न पत्रिकाओ में हम उन्हें पढ़ते रहते हैं के  गैंडाराज और  सुअर पुराण जैसे लेख शामिल कर विवेक जी ने किताब को मनोरंजक बनाने में सफलता प्राप्त की है.  शिखरचंद जैन व्यंग्य में नया नाम है, किन्तु उनके व्यंग्य लेख पढ़ने से लगता है कि वे सिद्धहस्त व्यंग्यकार हैं उनके लेख  आलराउंडर मंत्री और  मुलाकात पार्षद से पुस्तक का हिस्सा है.  सुधीर ओखदे आकाशवाणी के कार्यक्रम प्रोड्यूसर हैं, उनके व्यंग्य-संग्रह बहुचर्चित हैं.  विमला की शादी एवं  गणतंत्र सिसक रहा है व्यंग्यो के जरिये उनकी उपस्थिति दर्ज की जा सकती है.  विक्रम आदित्य सिंह ने  देश के बाबा व  ताजा खबर लिखे हैं. विनोद साव का एक ही लेख है   दूध का हिसाब पर, इसमें ही उन्होने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिखाया है. युवा संपादक, समीक्षक, व्यंग्यकार  विनोद कुमार विक्की की व्यंग्य की भेलपुरी साल की चर्चित किताब है. पत्नी, पाकिस्तान और पेट्रोल तथा व्यथित लेखक उत्साहित संपादक के द्वारा उनके लेख किताब में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी करते हैं.  विजयानंद विजय ने आइए, देश देश खेलते हैं एवं हम तो बंदर ही भले है व्यंग्यों के जरिये अपनी कलम का कमाल बता दिया है. स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के भी दो लेख  सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिये और  आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती पुस्तक को महत्वपूर्ण व पठनीय बनाते हैं. अमन चक्र के लेख कुत्ता व   मस्तराम पठनीय  हैं. रमेश मनोहरा  उल्लुओ का चिंतन करते हैं. दिलीप मेहरा के लेख  कलयुग के भगवान, तथा  विदाई समारोह और शंकर की उलझन गुदगुदाते हैं.

मिली भगत के सभी लेख एक से बढ़कर एक हैं. इन उत्तम, प्रायः दीर्घ कालिक महत्व के विषयो पर लिखे गये मनोरंजक लेखो के चयन हेतु संपादक विवेक रंजन श्रीवास्तव बधाई के पात्र हैं. सभी लेख ऐसे हैं कि एक बार पाठक पढ़ना शुरू करे तोलेख पूरा किये बिना रुक नही पाता. निश्श्चित ही मिली भगत को व्यंग्य जगत लंबे समय तक याद रखेगा व संदर्भ में इसका उपयोग होगा. कुल मिलाकर किताब पैसा वसूल मनोरंजन, विचार और परिहास देती है. खरीद कर पढ़िये, जिससे ऐसी सार्थक किताबो को प्रकाशित करने में प्रकाशकों को गुरेज न हो. किताब हार्ड बाउंड है, अच्छे कागज पर डिमाई साईज में लाईब्रेरी एडिशन की तरह पूरे गैटअप में संग्रहणीय लगी.

समीक्षक..  डा कामिनी खरे, भोपाल




मराठी साहित्य – मराठी आलेख – * अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य – गरज व अतिरेक… * – सुश्री आरुशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य – गरज व अतिरेक…

(e-abhivyakti में सुश्री आरूशी दाते जी का  स्वागत है। ई-अभिव्यक्ति में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं उससे संबन्धित तथ्यों पर विचारपरक लेख निःसन्देह एक उपहार ही है। इस आलेख के लिए हम सुश्री आरुशी जी के हृदय से आभारी हैं। )

अभिव्यक्ती ही देवाने दिलेली निसर्गदत्त देणगी आहे. प्राण्यांनासुद्धा ही देणगी आहे, पण मनुष्यप्राणी अधिक चांगल्या प्रकारे, वेगवेगळ्या पद्धतीने किंवा वेगवेगळ्या मार्गाने अभिव्यक्त होऊ शकतो. त्याच्या बुद्धीची भरारी गगनाचा ठाव घेऊ शकते…

अभिव्यक्त होताना मग ते प्रेमरूपात असो, राग असो, अबोला असो, इतकंच काय गायन, वादन, नृत्य, चित्रकला किंवा शिल्पकला असो, नैसर्गिक असल्यामुळे अभिव्यक्ती थांबवता येणारच नाही, ती फक्त कधी, कशी आणि कुठे करावी हे नक्कीच ठरवू शकतो… हे स्वातंत्र्य प्रत्येक व्यक्तिला मिळणं गरजेचं आहे, त्याला कारणंही तितकीच महत्वाची आहेत…

अभिव्यक्त होणे हे जिवंतपणाचे लक्षण आहे, आपल्या विचारांचा मनाशी, भावनांशी झालेला वाद-संवाद अभिव्यक्तीतून प्रगट आणि प्रगत होत असतो. वर म्हटल्याप्रमाणे त्याचे मार्ग अनेक आहेत, पण अभिव्यक्त होण्याची खरंच गरज आहे का? तर निःशंकपणे हो, हेच उत्तर मिळेल…

आपल्या मनातील भाव जर दुसऱ्यापर्यंत पोहोचवायचे असतील तर त्यात दोन पायऱ्या आहेत… पहिली म्हणजे स्वतःच्या अंतर्मनात व्यक्त होणे (अंतस्थ अभिव्यक्ती), आपल्याला स्वतःला काय वाटतं, ह्याचा अभ्यास करून बाह्यरूपात व्यक्त होणं गरजेचं आहे… त्यासाठी मनन, चिंतन आवश्यक आहे… ह्यावर आपली क्रिया अवलंबून असते…

उदाहरणार्थ, भूक लागली असेल तर, तसा संदेश मेंदूकडून मिळतो, तो मिळाला कि मनातल्या मनात भुकेची भावना जागृत होते, पोट रिकामं आहे, हा विचार मनात येतो, काही तरी खाल्लं पाहिजे नाहीतर विपरीत परिणाम होऊ शकतो हा संवाद घडतो (अंतस्थ अभिव्यक्ती)… मग खायचं कि नाही किंवा काय खायचं हे ठरवता आलं पाहिजे आणि त्यानुसार क्रिया केली जाते…

म्हणजेच जेव्हा एखादा विचार मनात येतो, तेव्हा तो कदाचित आपल्याला भावतो किंवा भावत नाही. कदाचित विचारातूनच त्याची अनुभूती मिळते… तो AWARENESS आपल्याकडे असणं अत्यंत गरजेचं आहे. त्यासाठी अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य उपयोगी येतं… आपण मनात आलेल्या विचारांना RESPOND करतो कि रिऍक्ट करतो हे ठरवता येते, मात्र अभ्यासपूर्ण सवयीनेच होऊ शकते…ह्याबरोबरच ह्या स्वातंत्र्याची दिशा ठरवणेही गरजेचे आहे. म्हणजे आपला मुद्दा मांडताना, अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा उपयोग करत असताना नक्की काय मांडलं पाहिजे हे कळलं पाहिजे आणि ते सर्वस्वी आपल्या हातात आहे…

तुम्हीच बघा ना… एखादी गोष्ट आपल्याला पटत नसेल किंवा एखाद्या माणसाचं मत आपल्याला पटत नसेल तर आपण लगेचच ते बोलून दाखवतो, समोरचा माणूस किती चुकीचा आहे, हे सांगायचा, मी तर म्हणेन ते सिद्ध करायचा आटोकाट प्रयत्न करतो… ह्यातून कदाचित आपला अहंकार नक्कीच सुखावतो, पण असे केल्याने आपण नक्की काय साध्य केलं ह्याचा अभ्यास होणं खूप आवश्यक आहे…. अभिव्यक्त होण्याच्या पद्धतीने माणसे दुरावू शकतात किंवा जवळ येऊ शकतात… ह्याबरोबर समोरच्या व्यक्तीलाही अभिव्यक्ती स्वातंत्र्य आहे हेच आपण विसरवून जातो, जे अयोग्य आहे….

तेव्हा लक्षात घेतलं पाहिजे ते म्हणजे

१) विचार

२) त्यांच्याशी निगडित भावना (अंतस्थ अभिव्यक्ती)

३) त्यानुसार होणारी क्रिया (बाह्य अभिव्यक्ती)

ह्याचा सतत अभ्यास होणं आवश्यक आहे. नाहीतर अभिव्यक्तीसारख्या सुंदर देणगीचा अतिरेक होऊन अयोग्य गोष्टी घडायला वेळ लागणार नाही… ह्याचा अर्थ स्वत्व पणाला लावणे असा अजिबात होत नाही… पवित्रता, शांतता, सुख, समाधान, प्रेम, ज्ञान, शक्ती, युक्ती, सत्यता ह्यात कुठेच कमी पडणार नाही, ह्याची खात्री आहे आणि अभ्यासाने हे सहज शक्य आहे…

आता ह्यापुढची बाब लक्षात घेऊ या… विचार, भावना, क्रिया ह्या गोष्टी आयुष्याकडे किंवा जीवनाकडे बघायचा दृष्टिकोन ठरवतात, आणि मग त्याचेच रूपांतर सवयीमध्ये होऊ शकते, हीच सवय आपली वृत्ती बनते, त्यातूनच मानसिकता घडते आणि आपले व्यक्तिमत्व आकाराला येते… तेव्हा अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचे महत्व नाकारून चालणार नाही आणि त्याचप्रमाणे त्याचा गैरवापर करूनही चालणार नाही…

अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याची गरज आपल्याला, आपल्या कुटुंबाला आणि कुटुंब ज्या समाजाचा किंवा देशाचा भाग आहे त्याच्या विकासासाठी, ते सुदृढ बनवण्यासाठी आवश्यक आहे, जीवन सुखकर बनवण्यासाठी, नवनवीन शोध, प्रयोग घडवण्यासाठी मनुष्य वैचारिक दृष्ट्या सशक्त होणं गरजेचं आहे आणि त्यासाठी त्याची सृजनशीलतेचा उपयोग नक्कीच होतो… यासाठी अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा खूप हातभार लागतो… पण अति तिथे माती, ह्या नियमानुसार स्वातंत्र्याचा अतिरेक स्वैराचारात बदलून हानी पोहोचवू शकतो किंवा हे स्वातंत्र्य हिरावून घेतले तर विपरीत परिणाम होऊ शकतात… स्वातंत्राबरोबर येणारी जबाबदारी लक्षात ठेवून त्याप्रमाणे क्रिया प्रतिक्रिया झाल्या पाहिजेत… गरजेचं व्यसन आणि त्याचा अतिरेक ह्यातील सीमारेषा ओळखता आल्या की अनेक गोष्टी सुखकर होतील, ह्यात दुमत नाही…

हल्ली आपल्याला मीडियाच्या माध्यमातून होणार अतिरेक नाकारता येणार नाही… आजकाल सोशल मीडियाला प्राधान्य दिलं जातं, त्यावर घडणाऱ्या अभिव्यक्ती कितपत योग्य किंवा अयोग्य असतात हेही किंवा त्याची पद्धत काय आहे ह्यावर अवलंबून आहे… त्यांचा आपल्या जीवनावरील प्रभाव टाळता येईल की नाही ही व्यक्तिगत गोष्ट आहे… त्यामुळे नैसर्गिक गरज भागवण्यासाठी अभिव्यक्तीचं मिळालेलं स्वातंत्र्य उपभोगताना त्याचा अतिरेक टाळून आनंदी राहता येते, त्या दृष्टीने अभ्यास सतत चालू ठेवला पाहिजे…

© आरुशी दाते




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (10) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥

तब सेनाओं बीच में,दुखी सखा को जान

हँसते से, हे भारत !  बोले श्री भगवान।।10।।

भावार्थ :   हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले।।10।।

 

To him who was despondent in the midst of the two armies, Sri Krishna, as if smiling, O Bharata, spoke these words! ।।10।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * दरार * – डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

दरार

डॉ कुंवर प्रेमिल जी का e-abhivyakti में स्वागत है। 
(विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन)

एक माँ ने अपनी बच्ची को रंग-बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर हरे-भरे दरख्त, एक हरी-भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से ऊगता सूरज और एक प्यारी सी हट। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियाँ बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई -‘ममा देखिये मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’

चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।

थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई – ‘ममा गज़ब हो गया, दादा-दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’

ममा की आवाज आई- आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो। दादा-दादी वहीं रह लेंगे।’

मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। हट के बीचों-बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है।

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782




मराठी साहित्य – कथा/लघुकथा – घरटं  – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

घरटं 

श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास

कल आपने श्री सुजित  कदम  जी  का  मराठी आलेख * घराचे घरपण * पढ़ा। आखिर चिड़िया का घोंसला भी तो घर ही है

इसी क्रम में हम श्री सदानंद आंबेकर जी  के आभारी हैं इस मराठी  लघुकथा  – “घरटं के लिए जो कि उनके जीवन के ही एक प्रसंग से प्रेरित है। )

शहरातील प्रसिद्ध समाजसेवक, अनेक धर्मार्थ संस्थांचे प्रमुख आणि नामवंत बिल्डर, डॉ प्रताप आपल्या बालकनी मधे त्यांच्या धर्मपत्नी सह बसून सकाळच्या चहा चा आनन्द घेत होते। देशकाळाची चर्चा होत असतांना अचानक प्रताप चे लक्ष बालकनी मधे ठेवलेल्या उंची लाकडी रॅक कडे गेले, त्यात सर्वात वरच्या कप्यावर दोन सुरेख लहानगे पक्षी येर-झार करीत होते। लक्ष देऊन पाहिले तर कळले कि ते वारंवार येत-जात, वाळके गवत, कापूस, पंख इत्यादि वस्तु आणून तिथे आपले एक घरटं बनवून राहिले आहेत। बायकोला  ती गोष्ट दाखविली तर तिच्या तोंडून सहजपणे निघाले – ‘अय्या, किती सुंदर घरटं बनवून राहिले आहेत ते, कित्ती मज्जा येईल जेव्हां लहान-लहान पिले चीव-चीव करतील ते . . . .’

हे ऐकतांच प्रतापराव लगेच बोलले- ‘हे कसलं सुंदर, यानी तर घरांत कचरांच व्हायचा आणि कसलं ते चीव-चीव म्हणे, उगांच नसला तो कल्ला व्हायचा। छे छे, हा त्रास आत्ताच लांब करायला हवा। तू नोकराला सांग कि ही घाण आत्ताच्या आत्ता इथून फेक।’

यावर त्यांच्या सौ उत्तरल्या – ‘अहो, यांत काय नुकसान होतंय आपलं ? न ते बिचारे तुम्हांला सीमेंट-वाळू मागतांत न तंर तुमच्या प्लॉट चा हक्कं, मग त्यात कसंला त्रास तो? अहो, तुम्हीं पण तर शहराभरांत कुठेहि इमारती उभ्या करता नां, मग या बिचारयांना कां म्हणून हाकलावे? त्या शिवाय तुम्हीं तर गोर-गरीबांना मदतीचे कामं पण करता नं?’

बायकोचे  उत्तर ऐकून लगेच उठून प्रतावरावांनी लांब दंडा हातांत घेतला नि त्या चिमुकल्या पक्ष्यांचं ते घरटं उधळलं आणि बायको कडे पहांत बोलले- ‘अगं तू पण एकदम भाबडीच, आपल्या या बंगल्याची ब्यूटी खराब व्हायची आणि या घरट्याने आपल्याला काय तरी प्रॉफिट मिळणार??’

प्रतापरावांची पत्नी त्यांच्या कडे न समजणार्या नजरेनी नुसती बघत राहून गेली।

©  सदानंद आंबेकर




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation Lessons & Videos Links -Shri Jagat Singh Bisht

Meditation Learning Lessons/Eight Videos Links

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

We reproduce links of Meditation Learning Lessons with Video Links for the benefit of our  readers:

  1. Meditation: Mindfulness of Breathing-Learning Video#1
  2. Meditation: Awareness of Body-Learning Video#2
  3. Meditation: Calming the Body – Learning Video 3
  4. Meditation: Breathing with the Body – Learning Video 4
  5. Meditation: Breathing with feeling – Learning Video #5
  6. Meditation: Breathing with the Mind – Learning Video #6
  7. Meditation: Breathing with the Mind – Learning Video #7
  8. Meditation: Breathing with Wisdom – Learning Video #8
LifeSkills
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore



आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

 

संजय उवाच

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।

न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ।।9।।

 

संजय बोले

ऐसा कह श्री कृष्ण से अर्जुन हो चुपचाप

नहीं लडूँगा मैं प्रभो ! मन में भर संताप।।9।।

भावार्थ :   संजय बोले- हे राजन्‌! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान्‌ से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए।।9।।

 

Having spoken thus to Hrishikesa (Lord of the senses), Arjuna (the conqueror of sleep), the destroyer of foes, said to Krishna: “I will not fight,” and became silent. ।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * लंगोटी की खातिर * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

लंगोटी की खातिर 

            आदिवासी जिले में भ्रमण के दौरान बैगाओं की दयनीय स्थिति देख प्रशांत का मन द्रवित हो गया  । क्योंकि आदिवासी समाज के विकास एवं उन्नति हेतु सरकार के द्वारा आजादी के बाद से ही विभिन्न योजनाओं  के अंतर्गत करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके हैं ।

बैगाओं की इस स्थिति हेतु उसने वहां के आदिवासी विकास अधिकारी से पूछ ही लिया — ” आजादी के 65 वर्षों के बाद भी आदिवासियों के तन पर सिर्फ लंगोटी ही क्यों ? ”

अधिकारी ने जवाब दिया — ” यदि हम आदिवासियों को लंगोट के स्थान पर पेंट शर्ट पहना देंगे तो हममें और उनमें क्या अंतर रह जावेगा ? उनकी पहचान नष्ट हो  जावेगी , फिर हम विदेशी पर्यटकों को बैगा आदिवासी कैसे दिखावेंगे और वे उनकी लंगोटी वाली  वीडियो फ़िल्म , फ़ोटो कैसे उतारेंगे ? अतः उनकी पहचान बनाये रखने  उन्हें लंगोटी में ही रहने देने के लिए सरकार द्वारा करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं । इसमें आदिवासियों का विकास हो या न हो , हमारा तो हो रहा है । ” कहते हुये उन्होंने बेशर्मी से ठहाका लगाया ।

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002



मराठी साहित्य – मराठी आलेख – * घराचे घरपण * – कवी श्री सुजित कदम.

श्री सुजित कदम

 

*घराचे घरपण*

(श्री सुजित कदम जी का यह आलेख टूटते हुए संयुक्त परिवारों जीवन एवं जीवन की सच्चाई को उजागर करता है।)

आजकाल घरांची वाढत जाणारी संख्या बघता काही घरांमध्ये अस्तित्वात असणारी एकत्र कुटुंब पध्दत ही लयाला जाईल की काय असं वाटायला लागलंय.  कुटुंबातील माणसं माणसाशी औपचारिक पणे वागतात. कौटुंबिक  ओलावा कुठेतरी नष्ट होत चाललाय.

एकत्र कुटुंबात राहणं त्रासदात्रक वाटू लागलय की काय कळत नाही . छोट्या छोट्या गोष्टीत  एकमेकांच मन जपायचं असत हेच  आम्ही विसरलोय. सतत एकमेंकाशी जुळवून घेणं, एकमेकांची मन संभाळणं, ह्याचा उगाचच नको इतका बाऊ करु लागलोय आपण. अगदी छोट्या छोट्या कारणावरून आपण एकत्र कुटुंबातून वेगळं राहण्याचा निर्णय घेऊन मोकळे होतो.

कालांतराने लोकांनी विचारल्यावर कारण देतो…, आधीच घर लहान होतं म्हणून.. पोरांना जरा आभ्यासासाठी वेळ मिळावा म्हणून…हवा पालट.. स्पेस,  प्रायव्हसी  अशी  एक ना अनेक कारण आपल्याजवळ तयार असतात. .अर्थात ती आपण नव्या घरात रहायला येण्या आधीच पाठ करून ठेवलेली असतात..!

पण..,   खरं कारण कधी सांगत नाही. मनात जे चाललय ते सांगायला घाबरतो. तेव्हा आपण आपला आणि आपल्या कुटुंबाचा विचार करतो.. आणि

खरं कारण  लोकांना समाजाला कळल्यावर मात्र

लोक काय म्हणतील ह्याचा विचार करतो..!

हाच विचार आपण वेगळ राहण्या आधी का करत नाही,आपण कुटुबापासून विभक्त होताना जरासुद्धा विचार करत नाही. आपण लहानपणापासून ज्या घरात लहानाचे मोठे झालो.. ज्यांच्या अंगाखांद्यावर लहानाचे मोठे झालो, माणसांना  ओळखायला शिकलो,

ज्या घराने,घरातल्या आपल्या माणसांनी आपल्याला लहानपणापासून सांभाळून घेतलं.. त्याच माणसांचा आपण जरासुद्धा विचार नाही करता घराबाहेर पडतो.  ज्या  माणसांनी आपल्याला घडवलं त्याच माणसांचा आपण मोठे झाल्यावर त्रास होऊ लागतो..

कदाचित…मनात नव्या घराला जागा हवी असल्याने मनातली..,आपल्या माणसांची जागा आपण नकळतपणे कमी करत जातो..! बाहेरचं जग आणि घरातल जग समजून घेण्यात गल्लत करतो. आपल्या स्वतःच्या विचारापुढेस अनुभवी बोलांकडे आपण दुर्लक्ष करत  आहोत हे  आपल्या लक्षात देखील येत नाही.

आपण नव्या घरात राहायला जाण्या आधी जर..

एकदा … लोकांना काय वाटेल हा विचार सोडून जरा शांत पणाने घरच्यांना काय वाटेल हा विचार केला…

तर घरांची वाढत जाणारी ( विभक्त कुटुंब ची) संख्या  निश्चितच कमी होईल…,!

नव्या घरात रहायला जा…अगदी आंनदाने जा .

स्वतःच्या कर्तबगारीवर नव्या घरात राहायला जाणारच असाल तर एकत्र कुटुंब घेऊनच रहायला जा…कारण

घर मोठ नसलं तरी चालेल मन मोठं असल पाहिजे…!

मनात जागा  असली की जनात देखील  आपोआप मानाचे स्थान मिळते. बघा विचार करा. स्वतःच घरकुल सजवताना घरातल्या माणसांच्या काळजात असलेले घर देखील तितकेच मजबूत ठेवा.

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626.

 




आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (8) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌।

अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धंराज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌।।8।।

क्योंकि सूझता अब नहीं,मुझको कोई उपाय

मन का ताप न मिटेगा,स्वर्ग राज्य भी पाय।।8।।

 

भावार्थ :   क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।।8।।

 

I do not see that it would remove this sorrow that burns up my senses even if I should attain prosperous and unrivalled dominion on earth or lordship over the gods. ।।8।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)