हिन्दी साहित्य – कविता (दोहा) – * आतंकवाद * – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आतंकवाद – (दोहा कृति)
(डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी की  5 फरवरी 2019 को विमोचित “किसलय मन अनुराग (दोहा कृति)” पुस्तक के पुस्तकांश स्वरूप उनकी सामयिक दोहा -कृति  “आतंकवाद” आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है।)

 

विश्व शांति के दौर में, आतंकी विस्फोट

मानव मन में आई क्यों, घृणा भरी यह खोट

 

विकृत सोच से मर चुके, कितने ही निर्दोष

सोचो अब क्या चाहिए, मातम या जयघोष

 

प्रश्रय जब पाते नहीं, दुष्ट और दुष्कर्म

बढ़ती सन्मति, शांति तब, बढ़ता नहीं अधर्म

 

दुष्ट क्लेश देते रहे, बदल ढंग, बहुभेष

युद्ध अदद चारा नहीं, लाने शांति अशेष

 

मानवीय संवेदना, परहित जन कल्याण

बंधुभाव वा प्रेम ने, जग से किया प्रयाण

 

मानवता पर घातकर, जिन्हें न होता क्षोभ

स्वार्थ-शीर्ष की चाह में, बढ़ता उनका लोभ

 

हर आतंकी खोजता, सदा सुरक्षित ओट

करता रहता बेहिचक, मौका पाकर चोट

 

पाते जो पाखंड से, भौतिक सुख-सम्मान

पोल खोलता वक्त जब, होता है अपमान

 

रक्त पिपासू हो गये, आतंकी, अतिक्रूर

सबक सिखाता है समय, भूले ये मगरूर

 

सच पैरों से कुचलता, सिर चढ़ बोले झूठ

इसीलिए अब जगत से, मानवता गई रूठ

 

निज बल, बुद्धि, विवेक पर, होता जिन्हें गुरूर

सत्य सदा ‘पर’ काटने, होता है मजबूर

 

आतंकी हरकतों से, दहल गया संसार

अमन-चैन के लिए अब, हों सब एकाकार

 

मानव लुट-पिट मर रहा, आतंकी के हाथ

माँगे से मिलता नहीं, मददगार का साथ

 

आतंकी सैलाब में, मानवता की नाव

कहर दुखों का झेलती, पाये तन मन घाव

 

अपराधों की श्रृंखला, झगड़े और वबाल

शांति जगत की छीनने, ये आतंकी चाल

 

© विजय तिवारी  “किसलय”, जबलपुर 




आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (33) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥

सुख,भोगों औ” राज्य की जिनके हित थी चाह

वे सब उतरे युद्ध में तज,तन धन परवाह।।33।।

 

भावार्थ :  हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥

 

Those for whose sake we desire kingdoms, enjoyments and pleasures, stand here in battle, having renounced life and wealth ।।33।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yah oo.co.in

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक सामयिक , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)

बाअदब बा मुलाहिजा होशियार, बादशाह सलामत पधार रहे हैं … कुछ ऐसा ही उद्घोष करती थीं मंत्रियो, अफसरो की गाड़ियों की लाल बत्तियां. दूर से लाल बत्तियों के काफिले को देखते ही चौराहे पर खड़ा सिपाही बाकी ट्रेफिक को रोककर लालबत्ती वाली गाड़ियो को सैल्यूट करता हुआ धड़धड़ाते जाने देता था.  लाल बत्तियां  आम से खास बनने की पहचान थीं. चुनाव के पहले और चुनाव के बाद लाल बत्ती ही जीतने वाले और हारने वाले के बीच अंतर बताती थीं. पर जाने क्या सूझी उनको कि लाल बत्ती ही बुझा दी यकायक. मुझे लगता है कि यूं लाल बत्ती का विरोध हमारी संस्कृति पर कुठाराघात है. हम सब ठहरे देवी भक्त. मंदिर में दूर से ही उंचाई पर फहराती लाल ध्वजा देखकर भक्तो को जिस तरह माँ का आशीष मिल जाता है कुछ उसी तरह लाल बत्ती की सायरन बजाती गाड़ियो के काफिले को देखकर हमारी बेदम जनता में भी जान आ जाती थी और भीड़, भरी दोपहर तक में  लाल बत्ती वाली गाड़ी से उतरते श्वेत वस्त्रावृत  नेता से अपनी पीड़ा कहकर या ज्ञापन सौंपकर, आम जनता राहत महसूस कर पाती थी. अब जब लाल बत्ती का ही रसूख न रहा तो भला बिना लाल बत्ती का नेता जनता के हित में शोषण करने वालो को क्या बत्ती दे सकेगा ? लाल बत्ती से सजी चमचमाती कार पर सवार नेता, मंत्री जब किसी मंदिर भी जाते,  तो उनके लिये आम लोगों की भीड़ से अलग वी आई पी प्रवेश दिया जाता है, पंडित जी उनसे विशिष्ट पूजा करवाते हैं, खास प्रसाद देते हैं. जब ये लाल बत्ती वाले खास लोग कही किसी शाप में पहुंचते हैं या किसी आयोजन में जाते हैं तो इन्हें घेरे हुये सुरक्षा कर्मी और प्रोटोकाल आफीसर्स देखकर ही सब समझ जाते हैं कि कुछ विशिष्ट है.

दुनिया भर में  विवाह में मांग में लाल सिोंदूर भरने का रिवाज केवल हमारी ही संस्कृति में है, शायद इसलिये कि लाल सिंदूर से भरी मांग वाली लड़की में किसी की कुलवधू होने की गरिमा आ जाती है. अब जब मंत्री जी की गाड़ी से लाल बत्ती ही उतर गई तो उनसे किसी गरिमा की अपेक्षा किस मुंह से करेंगे हम? वी आई पी गाड़ियो से लाल बत्ती क्या उतरी मेरी पत्नी का तो सपना ही टूट गया. गाड़ियो से लालबत्ती का उतर जाना मेरी पत्नी के गले नही उतर पा रहा है. शादी होते ही मेरी पत्नी ने मुझे आई ए एस बनाने की मुहिम चलाई थी, और इसके लिये वह टाटा मैग्राहिल्स से प्रकाशित एक प्राईमर बुक भी खरीद लाई थी, उसका कहना था कि अपने पिता और भाई की लाल बत्ती वाली गाड़ियो में घूमने के कारण उसे उनका महत्व मालूम है,जब किसी के पोर्च में तेज गति से पहुंचती गाड़ी को ब्रेक मारकर रोका जाता है और फिर जब कार का दरवाजा कोई संतरी खोल कर आपको उतारता है तो जो सुख मिलता है वह मंहगी मर्सडीज में भी स्वयं ड्राइव कर पार्किंग में खुद गाड़ी लगाकर उतरकर आने में नहीं आता.  मूढ़मति मैं अपनी पत्नी को  समझाता ही रह गया कि जो मजा आम बने रहने में है वह खास बनने में नहीं? हमारा संविधान हम सब को बराबरी का अधिकार देता हैं.  खैर ! जब वह मेरी ओर से हताश हो गई तो उसने अपने सपने सच करने के लिये अपने बच्चो को लाल बत्ती वाले अधिकारी  बनाने की पुरजोर कोशिश की. प्राइमरी स्कूल से ही हर महीने कम्पटीशन सक्सेज रिव्यू खरीद कर बच्चो पर लाल बत्ती का भूत चढ़ाने की पत्नी की सारी कोशिश नाकाम हो गई क्योकि बच्चे इंफ्रा रेड वी आई पी बन गये हैं. उन्हें देश ही छोटा लगने लगा है. वे वर्ल्ड सिटिजन बन चुके हैं. उन्हें आई ए एस बड़े बौने लगते हैं.  एक ही समय में हमारा परिवार कई टाइम जोन में बना रहता है. बच्चे उस कल्चर को एप्रीसियेट करते हैं जहां उनका टैक्सी ड्राइवर भी बराबरी से बैठकर ब्रेकफास्ट करता है. बच्चो को जब कारो से लालबत्ती उतरने की घटना पता चली तो उन्होने कुछ सवाल किये. क्या लाल बत्ती उतरने से जनता और मंत्री जी के बीच का घेरा टूट जायेगा ? क्या मंत्री जी का वी वी आई पी दर्जा समाप्त हो जायेगा ?

बच्चो के सवाल मेरे लिये यक्ष प्रश्न हैं. मेरे लिये ही क्या, ये सवाल तो स्वयं उनके लिये भी  अनुत्तरित सवाल ही हैं जिन्होने लालबत्ती हटवाने की घोषणायें की हैं ! आपको इन सवालो के जबाब मिल जाये तो जरूर बताईयेगा.  जो भी हो कभी समाचारो की सुर्खियो में जनता के सामने बने रहने में लाल बत्ती मददगार होती थी तो अब जाते जाते भी लालबत्तियो ने अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से निभाया है, सबकी लाल बत्तियां बंद, बुझ हो रही हैं. लाल बत्ती हटने के समाचारो के कारण भी इन दिनो सारे वी आई पी सुर्खियो में हैं.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८




हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – * यह गांव बिकाऊ है * – श्री एम एम चन्द्रा (समीक्षक – श्री उमाशंकर सिंह परमार)

यह गांव बिकाऊ है

लेखक – श्री एम एम चन्द्रा

समीक्षक – श्री उमाशंकर सिंह परमार

भूमंडलीकरण व आर्थिक उदारीकरण ने हिन्दुस्तानी गाँवों और गाँव की संस्कृति व सम्बन्धों पर व्यापक प्रभाव डाला है इन प्रभावों को किसानी जीवन से जोड़कर सकारात्मक नकारात्मक सन्तुलित नजरिए से देखने वाले तमाम उपन्यास हिन्दी में प्रकाशित हुए है । राजकुमार राकेश , अनन्त कुमार सिंह , रणेन्द्र , रुपसिंह चन्देल ने इस विषय पर क्रमशः धर्मक्षेत्र , ताकि बची रहे हरियाली , ग्लोबल गाँव का देवता  , पाथरटीला , जैसे शानदार उपन्यास लिखे । इसी क्रम में हम यह गाँव बिकाऊ है रख सकते हैं
“यह गाँव बिकाऊ है” ग्राम्य जीवन व समाज की गतिशील आत्मकथा है । कथा गाँव की है एक ऐसा गाँव जो बदले हुए मिजाज़ का है जहाँ कोई भी घटना व्यक्ति उसकी पहचान स्वायत्त नही है सब परस्पर एक दूसरे से संग्रथित हैं । वर्तमान  परिदृष्य  में गाँव की असलियत बताता हुआ  उपन्यास है जिसमें लेखक ने गाँव को केन्द्रिकता प्रदत्त करते हुए राजनीति थोथे वादे , लोकतान्त्रिक अवमूल्यन , अपराध हिंसा , जनान्दोलनों , संठगनों की भूमिका व इन संगठनों के भीतर पनप रहे वर्चस्ववाद पर गाँव की भाषा और जीवन्त संस्कृति पर सेंध लगाकर रचनात्मक विवेचन किया है ।
“यह गाँव बिकाऊ है” बाजारवादी दौर का उपन्यास है जहाँ गाँव की समूचीं राजनैतिक संस्कृति व सामाजिक सरंचना पर काबिज बुर्जुवा शक्तियों को परखने हेतु व्यापक फलक पर बहस की गयी है यथार्थ वास्तविक है चरित्र जीवन्त है संवाद स्वाभाविक है घटनात्मक व्यौरों व वस्तु विन्यास में कहीं भी काल्पनिकता अतिरंजना मनगढन्तता का कोई स्पेस नही है ।
“यह गाँव बिकाऊ है”  नंगला गाँव की व्यथा कथा है। जो पूर्णतः उदारीकृत भूमंडलीकृत व लम्पटीकृत गाँव है । गाँव बसता है उजड़ता है । गाँव शहर पलायन करता है । मजदूरी करता है । मन्दी की मार से उत्पादन इकाई टूटती है । गाँव बेरोजगार होता है वह फिर लौटता है ।वह पाता है यहाँ से वह विस्थापित है नये सत्ता समीकरण बन गये , नये समाजिक समीकरण बन गये विकास के छद्म नारे तन्त्र में काबिज कुछ लोगों के हाथ मजबूत कर रहे है।गाँव जूझता है । संगठित होता है ।लड़ता है ।
“यह गाँव बिकाऊ है” बदलाव और संघर्ष का उत्तरदायित्व फतह या रामू काका जैसे बुजुर्गों को नही देता । नव शिक्षित अघोष , सलीम राजेश जैसे युवाओं को देता है तथा आखिरी विकल्प व प्रस्तावित विकल्प संगठन बद्ध , चरणबद्ध सक्रिय संघर्ष ही है जो निष्कलुष और अपने आवेग मेँ  तमाम चीजों को बहाकर ले जाने का साहस रखता है ।
“यह गाँव बिकाऊ है” हमारी पीढ़ी के युवा कथाकार द्वारा लिखा गया शानदार उपन्यास  है इसके लेखक साथी   एम.एम. चन्द्रा  को बधाई …
समीक्षक – श्री उमाशंकर सिंह परमार
(साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर)



हिन्दी साहित्य – कविता – * Retired दोपहर * – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार 

Retired दोपहर

(श्री आशीष कुमार जी की एक प्रयोगात्मक कविता।)
वो दोपहर अब नहीं आती
वो दोपहर जिसकी गोद के किसी कोने में कुछ बच्चे
धूल में धुले हुए कंचे या गीली डंडा खेलते थे।
कुछ बच्चे उस दोपहर के गले में
उचक कर झट से अपनी हाथो की माला डाल कर
उसके गले में लटक कर झूला झूलने लगते थे।
वो दोपहर जिसमे खाने के बाद
पांच मिनिट की झपकी भी होती थी
कहीं पर चार -पांच लोग बैठ कर
ताश खेलते दिख जाते थे ।
वो प्याऊ का ठंडा पानी
जो दोपहर की प्यास बुझाता था,
उसके घड़े में छेद हो गया है,
पास में ही कुछ प्लास्टिक की बोतल रखी रहती है उसके,
उस दोपहर की प्यास उन बोतलों के पानी से नहीं बुझती है।
पकड़म-पकड़ाई जैसे खेल
अब दोपहर के सूनेपन को चिढ़ाते नहीं है।
त्यौहारो और उत्सवों के अपनेपन की आवाजें
अब उसे शोर लगने लगी है
अब वो दोपहर Retire हो गयी है।
अब उसकी जगह एक नयी दोपहर ने ले ली है
जो अपने को फिट रखती है
सूट बूट में रहती है।
ये नयी दोपहर
अब चार दीवारों से बाहर नहीं निकलती है।
वरना गर्मियों में लू लगने से,
बारिश में भीग जाने से
और
सर्दी में ठण्ड से इसकी तबीयत खराब हो जाती है।
ये नयी दोपहर
अपनी गोदी में बच्चो को नहीं बैठने देती।
क्योकि,
थोड़ी modern हो गयी है।
बल्कि पकड़ा देती है उनके हाथो में मोबाइल।
अब ज्यादातर जगह
ये नयी दोपहर ही मिलती है
वो पुरानी दोपहर
अब कही कही मजदूरो के पसीनो में,
किसानो के हलो में
और
गरीबो की लाचारी में बेबस सी दिखाई दे जाती है।
पर शायद ये ही नियम है
पुराना जाता है
और
उसकी जगह नया आता है……….
© आशीष कुमार 



आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (31) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )

 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।31।।

लक्षण सारे दिख रहे केशव ! मन विपरीत

स्वजनों का वध युद्ध में, दिखती अनुचित रीति।।31।।

भावार्थ :  हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥

 

And I see adverse omens, O Keshava! I do not see any good in killing my kinsmen in battle. ।।31।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yah oo.co.in

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र * – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  व्यंग्य – “लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र”।)

शहर में क्या पूरे प्रदेश में हलचल है। वैसे यह हलचल यदाकदा दो-चार महीने में समुद्री ज्वार-भाटा की भांति उठती गिरती है कि ‘‘लोकतंत्र खतरे में है’’ या ‘‘लोकतंत्र की हत्या हो गयी है’’ यह उसी तरह है जब पाकिस्तान में इस्लाम खतरे में हो जाता है। जब-जब देश में चुनाव होते हैं तब-तब लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगता है। चुनाव और लोकतंत्र, ये हैं तो सगे भाई, पर दिखते दुश्मन जैसे हैं।

लोकतंत्र है तो चुनाव है, और चुनाव है तो लोकतंत्र भी रहेगा। पर देश में हर पार्टी का अपना लोकतंत्र है, जो कभी लाल हरे, केशरिया हरे तो कभी तीन रंगों में रंगे हैं। सभी पार्टियों ने लोकतंत्र को अपने रंग में रंगकर, लोकतंत्र की दुकान सजा ली है। वे अपने-अपने तरह से लोकतंत्र की मार्केटिंग कर रहे हैं। लोकतंत्र इनके हाथ में है। आज लोकतंत्र शोकेस का पीस बन गया है। लोग उसे देख सकते हैं पर महसूस नहीं कर सकते हैं।

यह सब सोच रहा था कि भाई रामलाल आ धमके – नमस्कार। मैंने उन्हें सदा की भांति हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा अपनाई। वे इस मुद्रा को व्यंग्य समझते हैं, पर इसके उत्तर में दुबारा नमस्कार कह जवाब भी देते हैं। ‘‘कहिये क्या समाचार है।’’ मैंने उनसे पूछा, तब उनका जवाब आया – गुप्ता जी का फ़ोन आया है कि लोकतंत्र की हत्या हो गई। वे बता रहे थे कि किसी कद्दावर नेता ने किसी चैनल पर कहा है। पर भाई साहब, मुझे नहीं लगता कि यह ख़बर सही है। इस पर मुझे संदेह है, गुप्ता कभी-कभी लम्बी फेंकता है। जब कोई गंभीर मामला होता है तभी वह फ़ोन करता है, वरन वह सिर्फ मिस-काल करता है। उसकी बैटरी मिस-काल में खर्च हो जाती है। तब मैंने रामलाल को रोकते हुए कहा – अरे ऐसा नहीं हो सकता। वरना अब तक शोर मच गया होता। मेरी बात को बीच में काटते हुए उन्होंने कहा – भाई साब, आप किस दुनिया में रहते हैं, हल्ला मच गया है। गुप्ता कह रहा था वाट्स ऐप, फेस बुक,  ट्वीटर, पूरे सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा है।

मैंने कहा – राम लाल अभी तो सुबह के सात बजे हैं और लोग….? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा – भाई साब, अब कट-कॉपी और पेस्ट का जमाना है, हवा फैलते देर नहीं लगती है। फिर भी मुझे गुप्ता पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने अपने मुहल्ले के राजनैतिक विशेषज्ञ नागपुरकर को फ़ोन लगाया। तब उसने बताया कि ऐसी कोई ख़बर नहीं है। नागपुरकर तो राजनीति का एंटीना है, वह इस तरह की ख़बर जल्दी पकड़ता है। उसकी न सुनकर यह लगा कि वह भी फेल हो गया है। अचानक रामलाल जी को स्मरण आया और उन्होंने अंदर की ओर इशारा किया – ‘‘चाय कहाँ है?’’ मैंने भी निश्चिन्त रहो का इशारा किया। चाय आ रही है। हमारे घर में रामलाल जी की आवाज सुनकर सब लोग उनके लिए चाय-नाश्ता की तैयारी में लग जाते हैं, वरना वे इसके बिना खिसकते नहीं है। यह सब चर्चा तो उनके लिए चाय का बहाना है। जब वे आश्वस्त हो गये तब उन्होंने कहा – ‘‘तब मैंने स्वयं दो-तीन चैनल पलटाये, सब जगह अपनी-अपनी चिंताएँ, अपने-अपने राग बज रहे थे, पर लोकतंत्र की ख़बर नहीं थी।’’

ऐसा लगता है वे लोकतंत्र को लेकर निश्चिन्त हैं। उनका लोकतंत्र मजबूत है, कोई भी उसे कुछ भी कहला सकता है। पूरा लोकतंत्र उन्होंने नेताओं पर छोड़ दिया है। वे (मीडिया) तो बस जनता के मनोरंजन के लिए बने हुए हैं। मैंने उन्हें रोका – चाय आ गयी है। चाय देखकर वे तुरन्त रुक गये। उनकी नज़रें नाश्ते की प्लेट को ढूढ़़ रही थीं। नाश्ता भी आया, तब नाश्ता और चाय लेकर वे कहने लगे – एक चैनल में लोकतंत्र की हत्या पर कुछ लोग बतियाते हुए दिख रहे थे, पर उनके चेहरे शांत, प्रसन्न और निर्विकार थे। जैसे वे लोकतंत्र के सन्यासी हों। उन्हें उससे कोई लेना-देना नहीं। वे अपना काम समान भाव से कर रहे थे। उनके सामने चाय के कप रखे थे। फिर भला आप ही सोचिए, लोकतंत्र या किसी की भी हत्या हो जाय तो दुख की बजाय कोई  बेशर्मी से चाय पी सकता है, क्या?। फिर मैंने सोचा यह ख़बर सही नहीं है। सह कहकर रामलाल जी मेरे मुँह की ओर देखने लगे तब मैं अचकचाया और फिर कहा, आप सही कह रहे हैं, का इशारा किया। मेरे इशारे से उनके चेहरे पर रौनक फैल गई। यह देखकर लगा कि रामलाल जी की चिन्ता कम हो गई है। थोड़ी देर तक हमारे बीच अनबोला रहा। उन्होंने एक-दो बार सांस ली और कहा – ‘‘लोकतंत्र की हत्या होने पर यह भी पता चलता कि हत्या कहाँ हुई, कैसे हुई, किस हथियार से हुई, किसने की, कितने लोग थे? या हत्या के पीछे सिर्फ लूट थी या हत्या अवैध सम्बन्धों की वजह से हुई। कुछ इस तरह की कोई भी सुगबुगाहट नहीं थी। अरे, हत्या के बाद पुलिस जाँच-परख करती है। हत्या होने पर पुलिस की सूंघने की शक्ति बढ़ जाती है। वह उसमें अपना फायदा देखने लगती है। पर वहाँ तो पुलिस का अता-पता तक नहीं था। हमारे यहाँ की पुलिस इतनी निकम्मी नहीं है कि हत्या हो जाये और कुछ न करे। पर गुप्ता इतना बड़ा झूठ नहीं बोल सकता।

कहीं कुछ तो है, पर सन्नाटा फैला है। अब लोगों को चिन्ता नहीं रही है। लोकतंत्र 70 साल का हो गया है। बूढ़े लोकतंत्र की कौन चिन्ता करता है।’’ रामलाल की चिन्ता देख मैं चिन्तित हो गया। उनको रोकते हुए कहा – रामलाल जी आप जल्दी भावुक हो जाते हैं। कभी-कभी इतिहास भी पढ़ लिया करो। क्यों क्या हुआ? उन्होंने प्रश्न झोंका। मैंने कहा, भाई साहब लोकतंत्र की हत्या अब से 43 बरस पहले हो चुकी थी। तब लोगों की बोलती बंद हो गई थी। बोलने वालों को जेल में ठूंस दिया गया था। शहरों में सन्नाटा फैला रहता था। अभी जो लोकतंत्र देख रहे हो वह तो लोकतंत्र की लाश है। इस लाश को नेताओं ने सम्हालकर, मतलब का लेप लगाकर फ्रीज़र में रख दिया है। तब से लोकतंत्र की लाश सुरक्षित है। जब-जब नेताओं को ज़रूरत पड़ती है, वे किराया चुकाकर लाश को बाहर निकाल लेते हैं और चीख-चीख कर कहते हैं – लोकतंत्र खतरे में है। फलानी पार्टी ने लोकतंत्र की हत्या कर दी है, या करने वाली है। जब उनका काम हो जाता है, तब उस लाश को पुनः फ्रीज़र में वापिस रख देते हैं।

यह खेल सभी पार्टियाँ अपने मतलब के लिए खेल रही हैं और जनता को पता नहीं है कि लोकतंत्र कहाँ है। वैसे राजनीतिक पार्टियों को पता है कि लोकतंत्र कहाँ है। वे जनता को लोकतंत्र का लेज़र शो दिखाती हैं और जनता इस रंग-बिरंगे खेल से खुश है तो नेता भी खुश हैं। जब दोनों खुश हैं तो लोकतंत्र की ज़रूरत नहीं है। जब लोकतंत्र की ज़रूरत पड़ेगी तो उसकी लाश तो है।

© रमेश सैनी , जबलपुर 




मराठी साहित्य – मराठी आलेख – * जेथे जातो तेथे तू माझा सांगाती * – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

जेथे जातो तेथे तू माझा सांगाती

(प्रस्तुत है  सुश्री ज्योति  हसबनीस जी  का  रोचक आलेख तो तेथे तू माझा सांगाती  हमें  बताता है कि कैसे मोबाइल हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण  अंग बन गया है और हम उसके बिना कितने अपूर्ण हैं ?)

बागेला पाणी घालता घालता आज मी हेच गुणगुणत होते. आणि जशी मी रंगून गेले ना तशी नजरेसमोर  माझा सांगातीच  फेर धरू लागला. माझा सांगाती ..माझा मोबाईल !! हो..विश्वास बसत नाहीय ना ..माझा माझ्यावरही विश्वास बसत नाहीय ..पण अगदी खरं तेच सांगतेय ! अगदी गाता गाता ‘सांगाती’ ह्या शब्दाशी मी अडखळले आणि जणू मला साक्षात्कारच झाला ! सांगाती ह्या शब्दाचा खराखुरा अर्थ मला उमगला !

अक्षरश: जिथे जाईन तिथे जळी, स्थळी, काष्ठी, पाषाणी येणारच माझ्या बरोबर तो ! कधी एखाद्या नम्र सेवकासारखा उशा पायथ्याशी निमूटपणे बसणार, तर एकांतात सारं जग पुढ्यात टाकून ‘काय प्रिय करू गं मी तुझं’ करत माझ्या हातचं बाहुलं बनत बघ्याची भूमिका घेणार ! एकाग्रपणे काही वेगळं करू म्हंटलं तर सारखा साद घालणार, जणू ओरडूनच सांगतोय जसा ‘बघ तरी कोण आलंय तुला भेटायला, ‘काय आणलंय बघ तरी, ‘अगं काय म्हणणं आहे ते तरी बघ जरा डोकावून .. ! ‘अक्षरश: लहान मुलासारखं लक्ष्य वेधून घेणार, भंडावून सोडणार, आणि हातातलं काम टाकून एकदाचा जवळ घेतला की जिवाला निवांतता … त्याच्या आणि माझ्याही ..! हो कधी कधी मुकाट बसवावंच लागतं त्याला, किती सारखा सहन करायचा त्याचा टणटणाट !

त्याला न घेता बाहेर जायची काय बिशाद ! सारे रस्ते, पत्ते, फोन नंबर्स, माझ्यापेक्षा यालाच पाठ ! माझ्यापेक्षा तीक्ष्ण याचे डोळे, तल्लख  याची स्मरणशक्ती, आणि उत्तुंग बुद्धीची झेप ! इकडून तिकडे सांगावा धाडण्याचा वायूवेग तर विचारूच नका ..साऱ्याचंच कौतुक करावं तेवढं थोडंच ! महत्वाच्या भेटीगाठीच्या वेळा, औषधाच्या वेळा, एकवेळ मी विसरेन पण हा पठ्ठा नाही विसरणार ! ती वेळ वेळेवारी पाळण्यात, साधण्यात याचा वाटा लाख मोलाचा ! दऱ्या , खोऱ्या , समुद्र किनारे किर्रजंगल ,सगळीकडे हा माझ्याबरोबर असणारच ! मी डोळ्यात साठवण्याआधीच सारं काही टिपायची याला कोण घाई ! याच्या या घाईपायी कित्येकदा सारं नीटपणे डोळ्यात साठवायचं पण राहून जातं आणि थोडी चुटपूट लागते जिवाला ! मनस्वी संताप येतो त्याच्या अगोचरपणाचा आणि स्वत:च्या धांदरटपणाचा देखील ! पण मग कधीतरी याने गोळा केलेला खजिना न्याहाळतांना अपार कौतुक मनात दाटतं, त्याच्या एकनिष्ठपणाची साक्ष पटते, आणि उगाचच रागावतो आपण याच्यावर म्हणून मन खंतावतं देखील ! कधी मनात काही दाटून आलं की सारं ह्याला सांगून मी मोकळी ! अगदी सगळी माझी स्पंदनं तोही तितक्याच असोशीने अनुभवणार आणि  क्षणार्धात माझ्या सख्यांपर्यंत ती तशीन् तशी पोहोचवणार. संवाद राखला जाणं याचं पुरतं श्रेय या तत्परतेने सांगावा धाडणाऱ्या माझ्या सांगात्याला ! सकाळी कितीही वाजता उठायचं असलं तरी ‘तूच उठवशील रे’ असा माझा लाडिक हट्ट असतो त्याच्याजवळ ! मंद मंद संगीत ऐकत हळूच डोळे उघडावेत, काही क्षण परत ते सूर कानामनात  साठवून घेत डोळे अलगद मिटावेत असा नित्यक्रमच ठरवून टाकलाय मी.. !

अरे हो ! एक तर सांगायचंच राहिलं.

चिमुरड्या नातींना सोबत करण्यात, त्यांना अंगाई म्हणून झोपवण्यात, आवडती गाणी गोष्टी, व्हिडिओ दाखवण्यात काय interest घेतला ह्या माझ्या दोस्ताने !  तिथे जर तो माझ्या सोबत आला नसता ना तर मग मात्र माझी काही खैर नव्हती…! अवखळ  नातींचे मनस्वी हट्ट पुरवणं तर माझ्या आवाक्याबाहेरचंच  झालं असतं !

आणि अजून एक, जरा आतली गोष्ट सांगते हा माझा दोस्त अगदी सावलीसारखा पाठीराखा,

आणि म्हणूनच माझ्या जोडीदाराचा अगदी कडवा प्रतिस्पर्धी ! ह्याची माझ्याशी वेळी अवेळीची जवळीक हा एक वादाचा ज्वलंत विषय ..कायम धगधगता ..!ठिणगीच पडू दे की वणवा पेटलाच म्हणून समजा …

तर असा आहे हा माझा सांगाती, जिथे मी जाते तिथे हा असतोच! आणि मी कसली चालवतेय त्याला, तोच मला चालवतो, साऱ्या जगाची सैर करवतो, अक्षरश: सुखात आणि निवांत असते मी त्याचा हात धरून ..!!

© ज्योति हसबनीस, नागपूर

 




आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (30) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।।30।।

 

दया भाव से भरे मन से बोला तब पार्थ,

गिरा जा रहा हाथ से अनायास गांडीव

त्वचा जल रही,भ्रमित मन,उठना कठिन अतीव।।30।।

भावार्थ :  हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥30॥

 

The (bow) “Gandiva” slips from my hand and my skin burns all over; I am unable even to stand, my mind is reeling, as it were. ॥30॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yah oo.co.in

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – कविता – * तिरंगा अटल है * – हेमन्त बावनकर

 हेमन्त बावनकर

तिरंगा अटल है

 

अचानक एक विस्फोट होता है

और

इंसानियत के परखच्चे उड़ जाते हैं

अचानक

रह रह कर ब्रेकिंग न्यूज़ आती है

सोई हुई आत्मा को झकझोरती है

सारा राष्ट्र नींद से जाग उठता है

सबका रक्त खौल उठता है

सारे सोशल मीडिया में

राष्ट्र प्रेम जाग उठता है

समस्त कवियों में

करुणा और वीर रस जाग उठता है।

देखना

घर से लेकर सड़क

और सड़क से लेकर राष्ट्र

जहां जहां तक दृष्टि जाये

कोई कोना न छूटने पाये।

 

शहीदों के शव तिरंगों में लपेट दिये जाते हैं

कुछ समय के लिए

राजनीति पर रणनीति हावी हो जाती है

राजनैतिक शव सफ़ेद चादर में लपेट दिये जाते हैं

तिरंगा सम्मान का प्रतीक है

अमर है।

सफ़ेद चादर तो कभी भी उतारी जा सकती है

कभी भी।

शायद

सफ़ेद चादर से सभी शहीद नहीं निकलते।

हाँ

कुछ अपवाद हो सकते हैं

निर्विवाद हो सकते हैं

गांधी, शास्त्री, अटल और कलाम

इन सबको हृदय से सलाम।

 

समय अच्छे अच्छे घाव भर देता है

किन्तु,

समय भी वह शून्य नहीं भर सकता

जिसके कई नाम हैं

पुत्र, भाई, पिता, पति ….

और भी कुछ हो सकते हैं नाम

किन्तु,

हम उनको शहीद कह कर

दे देते हैं विराम।

 

परिवार को दे दी जाती है

कुछ राशि

सड़क चौराहे को दे दिया जाता है

अमर शहीदों के नाम

कुछ जमीन या नौकरी

राष्ट्रीय पर्वों पर

स्मरण कर

चढ़ा दी जाती हैं मालाएँ

किन्तु,

हम नहीं ला सकते उसे वापिस

जो जा चुका है

अनंत शून्य में।

 

समय अच्छे-अच्छे घाव भर देता है

जीवन वैसे ही चल देता है

ब्रेकिंग न्यूज़ बदल जाती है

सोशल मीडिया के विषय बदल जाते हैं

शांति मार्च दूर गलियों में गुम जाते हैं

कविताओं के विषय बदल जाते हैं।

तिरंगा अटल रहता है

रणनीति और राजनीति

सफ़ेद कपड़ा बदलते रहते हैं।

गंगा-जमुनी तहजीब कहीं खो जाती है

रोटी कपड़ा और मकान का प्रश्न बना रहता है

जिजीविषा का प्रश्न बना रहता है।

 

खो जाती हैं वो शख्सियतें

जिन्हें आप महामानव कहते हैं

उन्हें हम विचारधारा कहते हैं

गांधी, शास्त्री, अटल और कलाम

जिन्हें हम अब भी करते हैं सलाम।

 

© हेमन्त बावनकर