(संयोग से इसी जमीन पर इसी दौरान एक और कविता की रचना श्री विवेक चतुर्वेदी जी द्वारा “पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां“ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज ये दोनों कवितायें जिनकी अपनी अलग पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
प्रस्तुत है सुश्री नूतन गुप्ता जी की भावप्रवण कविता ।)
(संयोग से इसी जमीन पर इसी दौरान एक और कविता की रचना सुश्री नूतन गुप्ता जी द्वारा “पेंसिल की नोक “ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज ये दोनों कवितायें जिनकी अपनी अलग पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की भावप्रवण कविता ।)
( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )
( दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन )
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥12॥
संजय ने कहा-
तभी पितामह भीष्म ने करके,शँख निनाद
सबको उत्साहित किया ,सहसा कर सिहंनाद।।12।।
भावार्थ : कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया॥12॥
His glorious grandsire (Bhishma), the eldest of the Kauravas, in order to cheer Duryodhana, now roared like a lion and blew his conch. ॥12॥
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
“हुजूर, माई — बाप मुझे बचा लीजिये, वरना जनता मुझे मार डालेगी —-” कहते हुए ट्रक ड्राइवर थाने में प्रवेश कर सब- इंस्पेक्टर के कदमों में गिर गया।
सब – इंस्पेक्टर मेहरा ने कड़कदार आवाज में उसे गाली बकते हुए कहा –“किस को अपने ट्रक की चपेट में ले लिया ?”
“हुजूर, अम्बेडकर चौक पर अचानक एक कॉलेज की लड़की गाड़ी सहित ट्रक के नीचे आ गई । सच कह रहा हूँ हुजूर, मेरा कोई दोष नहीं है । में वहां से सीधा ट्रक लेकर आपके पास आ गया, पब्लिक के पहुंचने से पहले हुजूर ये एक हजार रुपए रखिये और मामला निपटा दीजिये ।”
“हूँ –” सब इंस्पेक्टर ने चारों ओर देखा, दोपहर डेढ़ बजे का समय था, ड्यूटी पर तैनात सिपाही खाना खाने पीछे ही पुलिस लाइन के अपने क्वार्टर पर गए हुए थे और बड़े साहब भी नहीं थे, मौका अच्छा था । उसने सोचा – आज यह पूरी रकम उसकी है, किसी को भी हिस्सा नहीं देना है ।
सब इंस्पेक्टर मेहरा ने जल्दी से ट्रक ड्राइवर से रुपये लिये और कहा – “जा जल्दी से फूट ले यहां से । पब्लिक के हाथों पड़ गया तो मार – मार कर भुरता बना देगी ।”
वह मन ही मन खुश होकर जेब में रखे हजार रुपयों पर हाथ फेर रहा था, तभी टेलीफोन की घन्टी बजी, उसने फोन उठाया , “हेलो — मेहरा सब इंस्पेक्टर स्पीकिंग।”
दूसरी ओर से आवाज आई — “सर, आपकी लड़की की कालेज से लौटते समय अम्बेडकर चौक पर ट्रक से एक्सीडेंट हो जाने के कारण मौत हो गयी है।”
सब इंस्पेक्टर के हाथों से रिसीवर छूट गया और वह बेहोश होकर, कुर्सी पर एक ओर लुढ़क गया ।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
मोहित जब भी अपने पिताजी से बात करता किसी बात का सीधा उत्तर न देता। पिता रामदास परेशान हो उठते सोचने लगते क्या तीन लड़कियों के बाद इसी दिन को देखने के लिए पैदा किया था इसको,न जाने परवरिश में क्या कमी रह गई? जब भी बात करो टेढ़ेपन से जवाब देता है।मेरी तो कोई भी बात अच्छी नहीं लगती।
एक दिन जब वह मोहित से पूछने लगा कि घर लौटने में आज देर कैसे हो गई, कॉलेज में एक्सट्रा पीरियड था क्या? बस मोहित तो सुनते ही बस आगबबूला हो गया,”आपकी क्या आदत है,क्यूँ हर वक्त इन्क्वायरी करते रहते हैं?मैं कोई दूध पीता बच्चा थोड़े ही हूँ।अपना बुरा भला समझता हूँ।” रामदास तो उसको लेकर आज पहले ही परेशान था एक थप्पड़ झट से गाल पर जड़ चिल्लाने लगा,”बाप हूँ तेरा बोलने की तमीज नहीं है,माँ-बाप के लिए बच्चा कभी बड़ा नहीं होता है। हम चिन्ता नहीं करेंगे तो क्या बाहर वाले ख्याल रखेंगे।” बस मानो मोहित तो मौके की तलाश में ही था बोलने लगा ,”बड़ी जल्द समझ आई आपको ,जब दादा जी यही सब बातें आपको बोलते थे तो क्यों तिलमिला उठते थे,क्यों उनकी बातो का कभी सीधे मूहँ जवाब नहीं देते थे? मैं बच्चा जरूर था तब पर सब समझता था कैसे वो चुपके से जाकर आपके इस गंदे रवैये से रोते थे।मैं कहता था उनसे कि वो बात करें आपसे इस बारे में,पर डरते थे आपसे।फिक्र भी थी कि न जाने ऑफिस की क्या टैंशन रही होगी इसलिए ऐसे चिल्ला रहा है। बेचारे आपकी चिंता व आपके दो मीठे बोल को तरसते-तरसते ही चल बसे।”
रामदास तो यह सुनते ही भौचक्का रह गया व शर्मिंदा भी हो उठा क्योंकि कहीं न कहीं गलती तो उससे हुई ही थी।अब उसको एहसास था पर वक्त हाथ से निकल चुका था।यह बात सही थी कि बच्चे हम से ही सीखते हैं। उनके संस्कारों के हम ही तो रचयिता हैं।वक्त के साथ विचारों में भी अंतर आ जाता है।वह अपने सवाल का जवाब खुद ही ढूंढ़ने में लग गया कि शायद यही है जनरेशन गैप।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
आपण ज्या वास्तुत राहतो त्या वास्तुत एक वास्तुपुरूषही कायम वस्तीला असतो असं म्हणतात. आपले हुंकार, चित्कार, उद्गार साऱ्यांची स्पंदनं ह्या वास्तूत झिरपतात, आणि अलगद ह्या वास्तुपुरूषापर्यंत पोहोचतात असा समज आहे. हे कितपत खरं आहे मला कल्पना नाही. पण आपली मानसिकता ज्या वेळी जशी असते तसे पडसाद वास्तूत उमटतात एवढं मात्र नक्की !
खरंच दिवसा कधीतरी लागलेला विसंवादी सूर घरातला नूर घालवल्याखेरीज राहत नाही. घरातलं चैतन्य, घरातला खळाळ साऱ्यालाच खीळ लागल्यासारखं होतं. स्तब्ध, वरवर शांत, पण आतमध्ये धगधगत असणाऱ्या तगमगीची झळ घराच्या भिंतीत शोषली जाऊन अगदी कानाकोपऱ्यापर्यंत जाऊन पोहोचते, आणि ती वास्तू पण कुठेतरी शिणल्यासारखी त्रासल्यासारखी दिसू लागते. आज हा काय सूर लागलाय असा जाब तर तो वास्तुपुरूष आपल्याला विचारत नाहीय ना असं उगाचच वाटायला लागतं.
अतिशय प्रेमाने घर सजवतांना, सजलेलं घर डोळ्यात साठवतांना ते घर पण आपल्याकडे खुप कौतुकाने बघतंय असा नकळतच भास होतो. घराच्या भिंती आपल्याशी खुष होऊन बोलतायत, नविन पडद्यांआडून खिडकीतून येणारी वाऱ्याची झुळूकही आनंदाने काही सांगू बघतेय, काळीभोर मैना झाडाच्या डहाळीवर झुलतांना हळूच उत्सुकतेने खिडकीतून डोकावतेय, आणि दुसऱ्या क्षणी झाडाला टांगलेला कंदिल निरखून बघतेय असा उगाचच भास होतो. पक्ष्यांचा गोड किलबिलाट, बागेतल्या झाडापानांची हिरवी अपूर्वाई , फुलांची उमलती नवलाई साऱ्यांचे आनंदी हुंकार परिसरात दाटतायत आणि ह्या साऱ्यामुळे तृप्त झालेला वास्तुपुरूष खुप आनंदलाय असं अकारणच मनात येऊ लागतं !
खरंच असं असतं का, नाही माहित मला! पण एक गोष्ट मात्र नक्की, मनातला आनंद घरातल्या भिंतीभिंतीत साठवला जातो, आणि तोच परत परत जमेल तसा भेटायला येत असतो, चित्तवृत्ती अधिकाधिक प्रफुल्लित करायला!
मनातलं मळभ सतत काजळी धरत असतं, प्रकाशाने घर जरी लखलखत असलं ना तरी वास्तुच्या भिंती ती काजळीच उजळ करायला मदत करतात!
मग वास्तुपुरूष ही जर संकल्पना खरंच अस्तित्वात असेल तर ‘ वास्तुपुरूषाने चैतन्याच्या खळाळालाच मनापासून ‘तथास्तु’ म्हणू दे ना !!
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)