(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
“स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ” राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त की ये पंक्तियां सेल्फी फोटो कला के लिये प्रेरणा हैं.ये और बात है कि कुछ दिल जले कहते हैं कि सेल्फी आत्म मुग्धता को प्रतिबिंबित करती हैं. ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि सेल्फी मनुष्य के वर्तमान व्यस्त एकाकीपन को दर्शाती है. जिन्हें सेल्फी लेनी नही आती ऐसी प्रौढ़ पीढ़ी सेल्फी को आत्म प्रवंचना का प्रतीक बताकर अंगूर खट्टे हैं वाली कहानी को ही चरितार्थ करते दीखते हैं.
अपने एलबम को पलटता हूं तो नंगधुड़ंग नन्हें बचपन की उन श्वेत श्याम फोटो पर दृष्टि पड़ती हैं जिन्हें मेरी माँ या पिताजी ने आगफा कैमरे की सेल्युलर रील घुमा घुमा कर खींचा रहा होगा. अपनी यादो में खिंचवाई गई पहली तस्वीर में मैं गोल मटोल सा हूँ, और शहर के स्टूडियो के मालिक और प्रोफेशनल फोटोग्राफर कम शूट डायरेक्टर लड़के ने घर पर आकर, चादर का बैकग्राउंड बनवाकर सैट तैयार करवाया था, हमारी फेमली फोटोग्राफ के साथ ही मेरी कुछ सोलो फोटो भी खिंची थीं. मुझे हिदायत दी थी कि मैं कैमरे के लैंस में देखूं, वहाँ से चिड़िया निकलने वाली है. घर के कम्पाउंड में वह जगह चुनी गई थी जिससे सूरज की रोशनी मुझ पर पड़े और पिताजी के इकलौते बेटे का बढ़िया सा फोटो बन सके. फोटो अच्छा ही है, क्योकि वह फ्रेम करवाया गया और बड़े सालों तक हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाता रहा.अब वह फोटो मेरी पत्नी और बच्चो के लिये आर्काईव महत्व का बन चुका है.
यादो के एलबम को और पलटें तो स्कूल , कालेज के वे ग्रुप फोटो मिलते हैं जिन्हें हार्ड दफ्ती पर माउंट करके नीचे नाम लिखे होते थे कि बायें से दायें कौन कहां खड़ा है. मॉनिटर होने के नाते मैं मास्साब के बाजू में सामने की पंक्ति पर ही सेंटर फारवार्ड पोजीशन पर मौजूद जरूर हूं पर यदि नाम न लिखा हो तो शायद खुद को भी आज पहचानना कठिन हो. वैसे सच तो यह है कि मरते दम तक हम खुद को कहाँ पहचान पाते हैं, प्याज के छिलको या कहें गिरगिटान की तरह हर मौके पर अलग रंग रूप के साथ हम खुद को बदलते रहते हैं. आफिस के खुर्राट अधिकारी भी बीबी और बास के सामने दुम दबाते नजर आते हैं. शादी में जयमाला की रस्मो के सूत्रधार फोटोग्राफर ही होते हैं वे चाहें तो गले में पड़ी हुई माला उतरवा कर फिर से डलवा दें. शादी का हार गले में क्या पड़ता है, पत्नी जीवन भर शीशे में उतारकर फोटू खींचती रहती है ये और बात है कि वे फोटू दिखती नही जीवन शैली में ढ़ल जाती हैं.
कालेज के दिन वे दिन होते हैं जब आसमान भी लिमिट नही होता. अपने कालेज के दिनो में हम स्टडी ट्रिप पर दक्षिण भारत गये थे. ऊटी के बाटनिकल गार्डेन के सामने खिंचवाई गई उस फोटो का जिक्र जरूरी लगता है जिसे निगेटिव प्लेट पर काले कपड़े से ढ़ांक कर बड़े से ट्रिपाईड पर लगे कैमरे के सामने लगे ढ़क्ककन को हटाकर खींचा गया था, और फिर केमिकल ट्रे में धोकर कोई घंटे भर में तैयार कर हमें सुलभ करवा दिया गया था. कालेज के दिनो में हम फोटो ग्राफी क्लब के मेंम्बर रहे हैं. डार्क रूम में लाल लाइट के जीरो वाट बल्ब की रोशनी में हमने सिल्वर नाइत्रेट के सोल्यूशन में सधे हाथो से सैल्युलर फिल्में धोई और याशिका कैमरे में डाली हैं. आज भी वे निगेटिव हमारे पास सुरक्षित हैं, पर शायद ही उनसे अब फोटो बनवाने की दूकाने हों.
डिजिटल टेक्नीक की क्रांति नई सदी में आई. पिछली सदी के अंत में तस्करी से आये जापानी आटोमेटिक टाइमर कैमरे को सामने सैट करके रख कर मिनिट भर के निश्चित समय के भीतर कैमरे के सम्मुख पोज बनाकर सेल्फी हमने खींची है, पर तब उस फोटो को सेल्फी कहने का प्रचलन नहीं था. सेल्फी शब्द की उत्पत्ति मोबाइल में कैमरो के कारण हुई. यूं तो मोबाईल बाते करने के लिये होता है पर इंटनेट, रिकार्डिग सुविधा, और बढ़िया कैमरे के चलते अब हर हाथ में मोबाईल, कम्प्यूटर से कहीं बढ़कर बन चुके हैं. जब हाथ में मोबाईल हो, फोटोग्राफिक सिचुएशन हो, सिचुएसन न भी हो तो खुद अपना चेहरा किसे बुरा दिखता है. ग्रुप फोटो में भी लोग अपना ही चेहरा ज्यादा देखते हैं . हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा आये की शैली में सेल्फी खींचो और डाल दो इंस्टाग्राम या फेसबुक पर लाईक ही लाईक बटोर लो. अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ साधन हैं सेल्फी. मेरे फेसबुक डाटा बताते हैं कि मेरी नजर में मेरे अच्छे से अच्छे व्यंग को भी उतने लाइक नही मिलते जितने मेरी खराब से खराब प्रोफाइल पिक को लोड करते ही मिल जाते हैं. शायद पढ़ने का समय नही लगाना पड़ता, नजर मारो और लाइक करो इसलिये . शायद इस भावना से भी कि सामने वाला भी लाइक रेसीप्रोकेट करेगा. यूं लड़कियो को यह प्रकृति प्रदत्त सुविधा है कि वे किसी को लाइक करें न करें उनकी फोटो हर कोई लाइक करता है.
सेल्फी से ही रायल जमाने के तैल चित्र बनवाने के मजे लेने हो तो अब आपको घंटो एक ही पोज पर चित्रकार के सामने स्थिर मुद्रा में बैठने की कतई जरूरत नहीं है. प्रिज्मा जैसे साफ्टवेयर मोबाईल पर उपलब्ध हैं, सेल्फी लोड करिये और अपना राजसी तैल चित्र बना लीजीये वह भी अलग अलग स्टाइल में मिनटो में.
जब सस्ती सरल सुलभ सेल्फी टेक्नीक हर हाथ में हो तो उसके व्यवसायिक उपयोग केसे न हों. कुछ इनोवेटिव एम बी ए पढ़े प्रोडक्ट मेनेजर्स ने उनके उत्पाद के साथ सेल्फी लोड करने पर पुरस्कार योजनायें भी बना डालीं . कोई कचरे के साथ सेल्फी से हिट है तो कोई देश के विकास में योगदान दे रहा है योगासन की सेल्फी से, तो अपनी ढ़ेर सी शुभकामनायें सभी सेल्फ़ीबाजो को. सैल्फी युग में सब कुछ हो, भगवान से यही दुआ है कि हम सैल्फिश होने से बचें और खतरनाक सेल्फी लेते हुये किसी पहाड़ की चोटी, बहुमंजिला इमारत, चलती ट्रेन, या बाइक पर स्टंट की सेल्फी लेते किसी की जान न जावें.
(श्री सदानंद आंबेकर,गायत्री तीर्थशांतिकुंज, हरिद्वारके निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण से जुड़े हैं एवं गंगा तट पर 2013 सेनिरंतर प्रवासरत हैं । )
( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )
( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥22॥
लड़ने को तैयार जो उनको लूं पहचान
कौन उपस्थित युद्ध की इच्छा ले बलवान।।22।।
भावार्थ : और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए॥22॥
So that I may recognise,my oponents desirous to fight, and know with whom I must fight when the battle begins.॥22॥
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जीका व्यंग्य – “उधार प्रेम का बंधन है”।)
आज रामलाल की दूकान पर पान खाने पहुँच गया। पान खाकर पैसे देने लगा तो उन्होंने नोट देखकर कहा – भैया छुट्टे नहीं हैं। तब मैंने कहा – कल ले लेना। तब नई-नई चिपकी सूक्ति की ओर इशारा किया जिसमें लिखा था – उधार प्रेम की कैंची है। दूसरी ओर इशारा किया, वहाँ लिखा था – आज नगद कल उधार। बस मेरा भेजा उखड़ गया – क्या तमाशा है, यह सब गलत है, इस संबंध में भ्रम फैला रहे हो तुम। मैंने कहा तो यह सुनकर वह मुस्करा दिया। उसकी मुस्कराहट में व्यंग्य छिपा था, जो मुझे अंदर तक भेद गया। अब वक़्त आ गया है कि उन्हें एक लम्बा डोज़् पिलाऊं। वैसे उनकी आदत है साल-छः महीने में एक लम्बे डोज़् की। तभी वे काफी समय तक ठीक रहते हैं।
रामलाल जी आप गलतफहमी मत पालिए आज उधार का जमाना है – उधार बिन सब सून। उधार प्रेम का बंधन है। उधार से प्रेम के रिश्ते बनते हैं और लम्बे चलते हैं। नहीं चलते हैं तो चलाना पड़ता है। उधार ऐसा माध्यम है जिसमें दोनों पक्षों को प्रेम सम्बंध बनाए रखना पड़ता है। इससे ऐसी संभावना बलवती रहती है कि सम्बंध बने रहेंगे। ऐसे सम्बंध में हर रंग और स्वाद मौजूद रहता है। आप उधार ले लो, उधार देने वाला आपकी पूरा ध्यान और खोज-ख़बर रखने लगता है। वह समय-समय पर आपको फोन करता है। कभी-कभी आपके घर भी आ जाता है, यह पता लगाने के लिए आप ठीक-ठाक तो हैं न…। आप ठीक रहेंगे तो उधार भी चुका ही देंगे। यहाँ वह याचक सा हो जाता है। अपने पैसे की सलामती के लिए वह भगवान से दुआ मांगता है कि आप स्वस्थ और प्रसन्न रहें। प्रसन्नता का निर्णय उधार देने वाला करता है। आप बीमार हैं तो आपको इलाज के लिए पैसा दे देता है ताकि आप ठाक हो जाएं। वरना उसकी उधारी…? पहले उधारी शर्म की बात मानी जाती थी। मगर आज वही शान की बात है – कि देखो हमारी औकात इतनी है, कि लोग हमें उधार देने खड़े रहते हैं।
मान लीजिए कि उधार अब एक फैशन हो गया है। आपके पास इतना पैसा है कि आपका काम आसानी से चल सकता है। फिर भी आप उधार लेते हैं। टी.व्ही., फ्रिज, सिलाई मशीन, मिक्सी, मोबाइल, प्रेशर कुकर, माइक्रोवेव आदि अनेक चीज़् बाजार में हैं जो आपके घर आने को उतावली हैं। बस आप अपनी इच्छा व्यक्त कीजिए, एक-एक कर वे घर आने लगेंगी। इज्जत का फालूदा न निकले इसलिए पहले लोग उधार छिपाते थे। पर इसके उलट अब प्रचार करते हैं कि उन्होंने मकान, गाड़ी या किसी अन्य चीज़् – जो उनका सम्मान बढ़़ाती है – के लिए लोन लिया है। मतलब यह कि घर में जो महँगी नई चीज़् है वह लोन की। अब यह बताना पड़ता है कि कौन सी चीज़् बिना लोन के खरीदी गई है। जो लोग लोन नहीं लेते उन्हें पिछड़ा समझा जाता है। और जो पिछड़ा नहीं दिखना चाहते या कहलाना चाहते वे लोन लेकर कुछ ने कुछ खरीदते ज़रूर हैं।
‘उधार विकास की कुंजी है।’ इसके बिना विकास रूपी ताला खुल नहीं सकता। उधार से आप सम्पन्न हो जाते हैं। उधार से आपके पास हर चीज़् पलक झपकते आ सकती है। विकास की गति तीव्र हो जाती है। बस इशारा करना पड़ता है। उधार का बंधन ऐसा अटूट है कि आदमी उसमें जकड़ जाता है। उधार या कहें लोन के लिए एक बात और निहायत ज़रूरी है… कि आप उधार लो और भूल जाओ… वरना आप हर पल तनाव में रहोगे। यह काम अगले का है कि वह आपका ख़्याल रखे। मतलब ‘टेंशन लेने का नहीं देने का…।’ अपन यह कह सकते हैं कि अधार टेंशन मुक्त जीवन का अवसर देता है। बस, आपमें उधार लेने का टेलेण्ट होना चाहिए कि आप अवसर का लाभ उठा सकें। जो लोग उधार लेकर टेंशन में रहते हैं उनके लिए ‘बेवकूफ’ से अच्छा शब्द किसी कोश में नहीं।
‘उधार की महिमा अपरम्पार है।’ जिसने इस सूक्ति वाक्य को समझ लिया उसका इहलोक तो संवर ही गया, परलोक भी सुधर जाता है। आगे आने वाली पीढ़ियाँ आपको याद कर इस रास्ते पर आत्मविश्वास से विकास रथ पर सवार हो आगे बढ़ती जाती हैं।
यह संसार विचित्र है। यहाँ उधार देने वालों की कतार लगी रहती है। आप एक से उधार मांगते हो और कई लोग कतार तोड़ आप पर झपट्टा मारने के दौड़ पड़ते हैं। इसलिए उधार लेने वालों के आजकल भाव बढ़े हुए हैं। उधार देने वाले से उधार लेने वाले अब बड़े माने जाने लगे हैं।
उधार लेने और देने से चरित्रगत परिवर्तन भी आ जाते हैं। ऐसे लोग सामान्य धारा से अलग दिखते हैं। देने वाले के चेहरे पर आत्मविश्वास टपकता-टपकता सा दिखाई देता है। चेहरे पर कठोरता आ जाती है। रहम का भाव केवल उधार देते वक़्त दिखाता है। उसकी भाषा विकसित हो जाती है। माषा में माँ-बहन से सम्बंधित मृदु वचन धारा प्रवाह निकलने लगते हैं। उसकी सहनशक्ति विकसित हो जाती है। कज़र्दाता चाहता है कि उसे ब्याज मिलता रहे। मूलधन न भी मिले तो चलेगा। वह उपदेशक हो जाता है। साधुओं के बाद वही अर्थतंत्र और बाजार तंत्र की व्यवस्था को समझता समझाता है। एक सिद्ध पुरुष की तरह उसे अपने ऊपर पैसा खर्चना अपमान लगता है। सिर्फ उधार लेने वाले से पैसा खर्च करवाना अपना उसे धर्म प्रतीत होता है।
इसी तरह उधार लेने वाले के चरित्र में भी आमूल परिवर्तन आ जाता है। उसमें माँ-बहन से सम्बंधित वचन सुनने और सहने की क्षमता बढ़ जाती है। कभी-कभार एकाध हाथ भी सह लेता है। वह पैसे की महत्ता को समझने लगता है। उसे पैसे लौटाने की अपेक्षा लटकाने में अधिक विश्वास रहता है। वह छुपा-छुपी के खेल में भी माहिर हो जाता है, बहाने बनाना सीख जाता है। समय आने पर बहानों का, वह रक्षा कवच की तरह भलीभाँति उपयोग करने लगता है। उसमें एक कला और विकसित हो जाती है। वह टोपी बदलना सीख कर अपनी टोपी दूसरे, तीसरे को पहनाने की कुशलता हासिल कर लेता है। यह अद्भुत कला अर्थतंत्र में जादुई महत्व रखती है। और उधार लेने की कला से ही यह गुण पनपता विकसित होता है।
बड़े-बड़े लोग और उनकी कम्पनियाँ उधार लेना अपनी शान समझती हैं। खुद का पैसा लगाना उन्हें बेवकूफी लगती है। वह कम्पनी, कारख़ाना, प्रतिष्ठान खोलने के लिए सरकार या बैंक को चूना लगाते हैं। उनको लगता है पराये चूने से पान का रंग और स्वाद बढ़ जाता है। ‘‘हर्रा लगे न फिटकरी और रंग चोखा।’’ बिन पैसे का खेल और उसका मजा। मतलब बाय वन गेट वन फ्री। मतलब धंधा चल कर रफ़्तार पकड़ गया तो पैसा चुका दिया और साख बनाकर दुगना उधार ले लिया और न चला तो कुण्लली मार कर चिंता का त्याग कर चुपचाप बैठ जाओ। देश में न बैठ सको तो विदेश में आसन जमा लो। चिन्ता फिर सरकार करेगी या बैंक। बस कोशिश यह होनी चाहिए कि उधार इतना हो कि सरकार या बैंक वसूलते वसूलते थक जाएँ, पर वसूल न कर पायें। प्रतिभाशालियों के लिए यह बहुत आसान है। इसमें शान तो बनती ही है मुफ़्त में प्रचार भी मिलता रहता है। इसमें राजयोग और तंत्रयोग का सहयोग मिलना निहायत ज़्ारूरी है अन्यथा उधार योजना में आपकी सफलता संदेह से परे नहीं।
अभी कुछ समय पहले की बात है। एक उद्योगपति शराब पिलाकर पहले दूसरों को हवा में उड़ाते रहे। फिर उन्होंने सोचा कि ख़ुद ही क्यों न उड़ा जाये। सरकार, बैंक और अन्य शासकीय संस्थाओं की मदद से वे हवा में उड़ने लगे। फिर उन्होंने इतनी ऊंचाई पर उड़ान भरी कि सबके होश उड़ गये। मदद देने वाले और उसमें हाथ बंटाने वालों के तो हाथ-पाँव ही फूल गए। वे उड़ते गये… ऊंचे और ऊंचे… जब उन्हें समझ में आया कि अब ज़्यादा उड़ना ख़तरनाक होगा तो अपनी लेंडिंग विदेश में कर ली। अब जिम्मेदार लोग उनकी लेंडिंग देश में कराने के प्रयास में जी जान से लगे हैं। अब वह बड़ा उधारची है। यह सब उधार का कमाल है।
अब यही लफड़ा देश के मामले में है। देश का विकास करना है तो उधार लो भी और दो भी। उधार नहीं दोगे तो कोई माल को नकद नहीं खरीदेगा और माल डंप होगा। उधार और विकास का चोली-दामन का सम्बंध है। दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं। एक दूसरे के बिना दोनों असहाय।
मुझे रोकते हुए रामलाल ने कहा – भाई साहब बस करो अब। मैं पूरी तरह समझ गया। मुझे माफ कर दो। आपसे पैसा मांगकर हमने गल्ती कर दी। आप अब उधार ही रहने दें। रामलाल ने खड़े होकर भाई साब से माफी मांगने लगे और भाई जी पीक को दूकान के बाजू में थूककर आगे बढ़ गये।
भावार्थ : हे राजन्! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥20-21॥
Then, seeing all the people of Dhritarashtra’s party standing arrayed and the dischargeof weapons about to begin, Arjuna, the son of Pandu, whose ensign was that of a monkey, took up his bow and said the following to Krishna, O Lord of the Earth! place my chariot, O Krishna,In the middle of the two armies. ॥20-21॥
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
पिछले कुछ दिनों से श्रीमती जी हमारी साहित्यिक गतिविधियों पर जरूरत से ज्यादा नजर रखने लगीं थीं । उनकी पैनी निगाहैं न जाने हमारे किस अन किये अपराध को ढूंढने में लगी रहती थीं। जब उन्हें कुछ समझ नहीं आया तो आखिर एक दिन मुझसे पूछ ही बैठीं- “क्यों जी, शादी के पूर्व आपकी कोई प्रेमिका थी क्या?”
उनके इस सवाल पर हमने आश्चर्य चकित हो उनकी ओर देखते हुए उनसे ही पूछा – “क्यों, क्या बात है ? आज तुम्हारी तबियत तो ठीक है न।” “अरे तबियत खराब हो मेरे दुश्मनों की, में सिर्फ यह पूछ रही हूँ कि तुम्हारी कोई प्रेमिका है या नहीं । क्योंकि हमने पिछले दिनों टी.व्ही. में देखा था जिसमें तुम्हारे ही जैसे लेखक ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि ये सब लिखने की प्रेरणा मुझे अपनी प्रेमिका से ही मिलती है, पत्नी से नहीं।”
श्रीमती जी के इतने दिनों की जासूसी का रहस्य मुझे आज समझ आया था कुछ देर तो हम चुप रहे फिर एक जोरदार ठहाका लगाया और श्रीमती जी से कहा -“अरी भागवान, उसने जो कहा ठीक ही कहा । प्रेमिका की प्रेरणा से रचनाकार महान हो जाता है किंतु पत्नी की प्रेरणा से अच्छे से अच्छा लेखक भी आटा, दाल, तेल, घी, शक्कर के प्रपंच में उलझकर सिर्फ आदमी रह जाता है । लेकिन मेरी बन्नो यदि मेरी कोई प्रेमिका होती तो मैं भी उसकी प्रेरणा से शादी से पहले श्रंगार रस का कवि एवं शादी के बाद उसकी याद में विरह रस का कवि बनकर कविता के आकाश की ऊंचाइयां नाप रहा होता । दोनों ही स्थिति में मेरी जिंदगी में रस तो होता , लेकिन हमारी किस्मत इतनी अच्छी कहां जो हमें एक प्रेमिका भी नसीब होती । यही तो मेरी बदकिस्मती है तभी तो मैं कवि न बनकर व्यंग्यकार बन गया हूँ, हाय तुमने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है । मेरी वर्षों से सोई हुई तमन्ना को जगा दिया है अब तुम्हीं बताओ में कैसे प्रेमिका की तलाश करूं।”
श्रीमती ने मुझे कल्पना के सागर में गोते लगाने से पहले ही यथार्थ के कठोर धरातल पर पटकते हुए कहा – “बस बस बहुत हो गयी आपकी ये रामायण, आप मुझसे ही मेरी सौतन का पता पूछने चले हैं, खबरदार जो ये ख्याल भी अब मन में लाया, नहीं तो आपकी इस रामायण के बाद में अपनी महाभारत की तैयारी शुरू करूं।”
श्रीमती जी के चंडी रूप का ध्यान आते ही हमने उन्हें शांत कर कहा -“बस देवी जी, फिलहाल महाभारत के ये एपिसोड अभी शुरू मत कीजिये, दर्शक (यानि हमारे बच्चे) अपने घरेलू महाभारत के दृश्य देख देख कर बोर हो चुके हैं।”
हमारे दिमाग में प्रेमिका ढूढ़ने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। बस क्या था हम घर से थोड़ा सज संवर कर निकले, कालोनी में प्रेमिका ढूंढना बेकार था क्योंकि बहुत जल्दी पोल खुलने की संभावना रहती है और वैसे भी कालोनी की प्रायः सभी खूबसूरत विवाहित- अविवाहित कन्यायें हमें अंकल जी के लेबिल से नवाज चुकी हैं । अतः हमने अपना प्रेमिका ढूंढो अभियान कालोनी के बाहर से ही प्रारंभ किया । सड़क पर हर आती जाती लड़की में मैं अपनी प्रेमिका की छवि ढूढ़ने लगा ।
दो तीन दिन में यहां से वहां भटकता रहा, बहुत सी प्रेमिकाएं नजर आईं लेकिन वे सब किसी और की थीं , मेरी कोई भी प्रेमिका नजर नहीं आ रहीं थीं । एक दिन मेरे मित्र ने मुझे सलाह दी कि यार क्या तुम यहाँ से वहां भटकते फिर रहे हो । अरे प्रेमिका चाहिये तो लड़कियों के कालेज के पास खड़े हो जाओ, एक ढूढोगे हजार मिलेंगी । हमने अपने मित्र की नेक? सलाह मानकर अपने खिचड़ी बालों पर हाथ फेर लड़कियों के कॉलेज के पास खड़ा हो गया । कुछ देर इधर उधर ताकने के बाद में निराश होकर घर लौटने ही वाला था कि मुझे एक रूपसी बाला नजर आयी जो मेरे नजदीक से इठलाती बलखाती एक तिरछी चितवन और मोनालिसा सी मुस्कान बिखेरती आगे बढ़ गई ।
मेरा दिल अचानक बल्लियों उछला (ऐसा तो श्रीमती जी को शादी के बाद पहली बार देखकर भी नहीं उछला था) और दिल से बस यही आवाज निकली – “यूरेका -यूरेका” यानी पा लिया, पा लिया । और दिल के हाथों हम मजबूर होकर उस रूपसी बाला के पीछे हो लिये, हमारे कदम उस रूपसी के हमकदम होने को बेताब थे और हम ख्यालों में खोये प्रेमिका पा जाने की खुशी में फूले न समा रहे थे तभी हमारे गालों पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद हुआ और हम ख्यालों की दुनिया से निकलकर यथार्थ की सड़क पर जा गिरे और हमारे कानों में ‘मारो साले को’ की आवाजें थोड़ी देर तक गूंजती रहीं और हम पर लातों घूसों की बारिश होती रही ।
हमें जब होश आया तो हम अस्पताल के बिस्तर पर थे और हमारे चारों ओर हमारे परिचितों के साथ ही पुलिस के सिपाही भी थे , उनमें एक खाकी वर्दी वाली महिला पर नजर पड़ी तो हमारे होश पुनः फाख्ता हो गये क्योंकि जिसे हमने समझा था प्रेमिका, वह निकली महिला पुलिस ।
बस जनाब आगे का किस्सा क्या सुनायें , आप लोग खुद समझदार हैं ।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)