(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है
प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा डॉ. हंसा दीप जी द्वारा लिखित कहानी संग्रह “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 174 ☆
☆ “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” – कहानीकार – डॉ. हंसा दीप☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कहानीकार – डॉ. हंसा दीप, टोरंटो
कहानी संग्रह – मेरी पसंदीदा कहानियाँ
किताब गंज प्रकाशन,
मूल्य 350रु
कथा साहित्य के मानकों पर खरी कहानियां
चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव,
डॉ. हंसा दीप हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट कहानीकार हैं, जिनकी रचनाएँ प्रवासी जीवन की संवेदनाओं, मानवीय संबंधों की जटिलताओं और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण के लिए जानी जाती हैं। उनका कहानी संग्रह “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” (किताबगंज प्रकाशन) उनकी लेखन शैली की परिपक्वता और कथ्य की गहराई का प्रमाण है। हिंदी कथा साहित्य के मानकों—जैसे कथानक की मौलिकता, चरित्र-चित्रण की गहनता, भाषा की समृद्धि और सामाजिक संदर्भों का समावेश—के आधार पर इस संग्रह की कहानियां खरी उतरती हैं।
हिंदी कथा साहित्य में कथानक की मौलिकता लेखक की सृजनात्मकता का आधार होती है। डॉ. हंसा दीप की कहानियाँ साधारण जीवन की घटनाओं को असाधारण संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती हैं। “टूक-टूक कलेजा” में एक नायिका अपने पुराने घर को छोड़ने की भावनात्मक यात्रा को जीती है। “सामान का आखिरी कनस्तर ट्रक में जा चुका था। बच्चों को अपने सामान से भरे ट्रक के साथ निकलने की जल्दी थी। वे अपनी गाड़ी में बैठकर, बगैर हाथ हिलाए चले गए थे और मैं वहीं कुछ पलों तक खाली सड़क को ताकती, हाथ हिलाती खड़ी रह गयी थी। ” यह अंश विस्थापन की पीड़ा और पारिवारिक संबंधों में बढ़ती दूरी को सूक्ष्मता से उजागर करता है। यह कथानक प्रेमचंद और जैनेन्द्र की परंपरा को आगे बढ़ाता है, जहाँ रोज़मर्रा की घटनाएँ गहरे मानवीय सत्य को प्रकट करती हैं।
वहीं, “दो और दो बाईस” में एक पैकेज की डिलीवरी के इर्द-गिर्द बुना गया कथानक प्रवासी जीवन की अनिश्चितता और अपेक्षाओं के टकराव को दर्शाता है। “पड़ोस में आयी पुलिस की गाड़ी ने मुझे सावधान कर दिया। उनके जाते ही बरबस वे पल जेहन में तैर गए जब मेरा पुलिस से सामना हुआ था। ” यहाँ सस्पेंस और मनोवैज्ञानिक तनाव का संयोजन कहानी को रोचक बनाता है।
उनकी कहानियाँ व्यक्तिगत अनुभवों को सार्वभौमिक संदर्भों से जोड़ने में सक्षम हैं।
कहानी में पात्रों का जीवंत चित्रण कथा की आत्मा होता है। डॉ. हंसा दीप के पात्र बहुआयामी और संवेदनशील हैं। “टूक-टूक कलेजा” की नायिका अपने घर के प्रति गहरे लगाव और उससे बिछड़ने की पीड़ा को इस तरह व्यक्त करती है कि वह पाठक के मन में एक सशक्त छवि बनाती है। “मैंने उस आशियाने पर बहुत प्यार लुटाया था और बदले में उसने भी मुझे बहुत कुछ दिया था। वहाँ रहते हुए मैंने नाम, पैसा और शोहरत सब कुछ कमाया। ” यहाँ उसका आत्मनिर्भर और भावुक व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। यह चरित्र-चित्रण हिंदी साहित्य में नारी के पारंपरिक चित्रण से आगे बढ़कर उसे एक स्वतंत्र और जटिल व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करता है।
“दो और दो बाईस” में नायिका की बेसब्री और आत्म-चिंतन—”अवांछित तनाव को मैं आमंत्रण देती हूँ”—उसके मनोवैज्ञानिक गहराई को दर्शाते हैं। उनकी कहानी “छोड़ आए वो गलियाँ” में भी एक प्रवासी स्त्री का अपने मूल से कटने का दर्द इसी संवेदनशीलता के साथ चित्रित हुआ है। उनकी इस अभिव्यक्ति क्षमता की प्रशंसा की ही जानी चाहिए। वे अपने पात्रों को सामान्य जीवन की असामान्य परिस्थितियों में रखकर उनकी आंतरिक शक्ति को उजागर करती हैं।
भाषा का लालित्य और शिल्प की कुशलता लेखक की पहचान होती है। डॉ. हंसा दीप की भाषा सहज, भावप्रवण और काव्यात्मक है। “टूक-टूक कलेजा” में “उसी खामोशी ने मुझे झिंझोड़ दिया जिसे अपने पुराने वाले घर को छोड़ते हुए मैंने अपने भीतर कैद की थी” जैसे वाक्य भाषा की गहराई और भावनात्मक तीव्रता को प्रकट करते हैं। इसी तरह, “आँखों की छेदती नजर ने जिस तरह सुशीम को देखा, उन्होंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी” जैसे वाक्य संवाद और वर्णन के बीच संतुलन बनाते हैं। उनकी शैली में एक प्रवाह है, जो पाठक को कथा के साथ रखता है।
उनकी शैली में लोक साहित्य की छाप भी दिखती है।
हंसा दीप की कहानियाँ प्रवासी जीवन के अनुभवों को हिंदी साहित्य में एक सामाजिक आयाम देती हैं।
वे अपने मूल से कटने की भावना को रेखांकित करती हैं। उनकी कहानी “शून्य के भीतर” भी आत्मनिर्वासन और पहचान के संकट को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। वैश्वीकरण के दौर में भारतीय डायस्पोरा की भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक यात्रा को चित्रित करने में वे सिद्धहस्त हैं। उनकी कहानियाँ न केवल व्यक्तिगत अनुभवों को उकेरती हैं, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों पर भी टिप्पणी करती हैं। यह हिंदी साहित्य की उस परंपरा को आगे बढ़ाता है, जिसमें कहानी सामाजिक चेतना का दर्पण बनती हैं। पुरस्कार और मान्यता के संदर्भ में
डॉ. हंसा दीप की लेखन प्रतिभा को कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जैसे कमलेश्वर उत्तम कथा पुरस्कार (2018), विश्व हिंदी सचिवालय मॉरीशस की अंतरराष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता (2019), और शत प्रतिशत कहानी संग्रह के लिए शांति-गया सम्मान (2021) । ये पुरस्कार उनकी कहानियों की गुणवत्ता और हिंदी साहित्य में उनके योगदान को प्रमाणित करते हैं।
इस पुस्तक में दोरंगी लेन, हरा पत्ता, पीला पत्ता, टूक-टूक कलेजा, फालतू कोना, शून्य के भीतर, सोविनियर, शत प्रतिशत, इलायची, कुलाँचे भरते मृग, अक्स, छोड आए वो गलियाँ, पूर्णविराम के पहले, फौजी, पापा की मुक्ति, नेपथ्य से, ऊँचाइयाँ, दो और दो बाईस, पुराना चावल, चेहरों पर टँगी तख्तियाँ शीर्षकों से कहानियां संग्रहित हैं।
डॉ. हंसा दीप का कहानी संग्रह “मेरी पसंदीदा कहानियाँ” हिंदी कथा साहित्य के सभी प्रमुख मानकों—कथानक की मौलिकता, चरित्र-चित्रण की गहराई, भाषा की समृद्धि और सामाजिक प्रासंगिकता—पर खरा उतरता है। संग्रह न केवल उनके व्यक्तिगत अनुभवों को सार्वभौमिक बनाता है, बल्कि प्रवासी चेतना को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में भी योगदान देता है। डॉ. हंसा दीप की यह कृति हिंदी साहित्य के समकालीन परिदृश्य में एक मूल्यवान जोड़ है और उनकी लेखन यात्रा का एक सशक्त प्रमाण है। कृति पठनीय है।
कहानीकार – डॉ. हंसा दीप
22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका संस्मरणात्मक आलेख – “अविवाहित…“।)
अभी अभी # 643 ⇒ अविवाहित श्री प्रदीप शर्मा
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। विवाह को आप एक ऐसा लड्डू कह सकते हैं, जो खाए वह भी पछताए और जो नहीं खाए, वह भी पछताए। एक कुंवारा व्यक्ति ब्रह्मचारी भी हो सकता है और अविवाहित भी। माननीय अटल जी से जब यह प्रश्न किया था, तो उनका जवाब था, मैं ब्रह्मचारी नहीं, एक बैचलर हूं। वैसे आपको सामाजिक जीवन में कई शादीशुदा बैचलर भी मिल जाएंगे।
शादी, व्यक्ति का अत्यंत निजी मामला है। मेरे पचास वर्ष के विवाहित अनुभव में मैं कुछ ऐसे अंतरंग मित्रों से भी मिला हूं, जो आजीवन अविवाहित एवं अविवादित रहे। दुर्योगवश, आज उनमें से एक भी जीवित नहीं है।
वे जीवन में कितने सुखी अथवा सफल रहे, इसका आकलन मैं करने वाला कौन? लेकिन इसी बहाने मैं उन चार व्यक्तियों को स्मरण करना चाहता हूं। उनके नाम असली भी हो सकते हैं और काल्पनिक भी। इसमें मानहानि जैसा कुछ नहीं है, और जरूरी भी नहीं कि वे आपके परिचित हों, क्योंक उनका फेसबुक से भी कोई संबंध नहीं।।
१. सबसे पहले व्यक्ति श्री चंद्रकांत सरमंडल थे, जो मेरी नजर में एक संत थे, मुझसे दो वर्ष बड़े थे, और अभी कुछ समय पहले ही वे आकस्मिक रूप से हमें छोड़ गए। उनके नारायण बाग के मकान में मैं ३५ वर्ष एक किराएदार की हैसियत से रहा। संयोगवश वे मेरे कॉलेज के एक मित्र के भी सहपाठी रहे थे। सरल, सौम्य और संतुष्ट चंद्रकांत जी पेशे से एक वैज्ञानिक होते हुए भी सात्विक विचारधारा वाले एक धार्मिक व्यक्ति थे, जिनका पूरा जीवन उनके माता पिता और परिवार को समर्पित था।
उनमें प्राणी मात्र के लिए दर्द था, वे अत्यंत मृदुभाषी, संकोची एवं स्वावलंबी सज्जन पुरुष थे।।
२. नंबर दो पर मेरे पूर्व बैंककर्मी साथी और अभिन्न मित्र श्री बी.के .वर्मा थे, वे बैंक से अधिक मेरे पूरे परिवार से जुड़े रहे। हमारी शर्मा जी व वर्मा जी की जोड़ी मशहूर थी। बैंक समय के पश्चात् हमेशा हमें साथ साथ देखा जाता। वे मेरे सारथी भी थे।
कॉफी हाउस में उन्हें घंटों बहस करते देख सकते थे। उनकी सुबह की दिनचर्या में अहिल्या लायब्रेरी भी शामिल थी। सुबह लाइब्रेरी में हिंदी अंग्रेजी अखबारों का कलेवा करते, और तत्पश्चात् सिर्फ कॉफी टोस्ट के धुंए में सामने वाले को परोस देते। शादी नहीं करने के उनके कारण मुझे कभी हजम नहीं हुए।।
अपने भोजन के लिए उन्होंने एक गरीब महिला रख रखी थी, जिसकी गरीबी और मजबूरी से वे इतने द्रवित हो गए थे, कि उनकी अपनी बीमारी के वक्त वे पहले उनकी केयरटेकर बनी और उसके बाद दत्तक पुत्री। स्वयं कानून के जानकार और एक लॉ ग्रेजुएट, हमारे वर्मा जी ने नाजुक वक्त पर अपनी वसीयत भी उसके नाम पर कर दी, और मानसिक तनाव और पारिवारिक संघर्ष के बीच अपनी इहलीला त्याग दी।
३. तीसरे नंबर पर मुझसे पांच वर्ष बड़े चार्टर्ड अकाउंटेट की शौकिया डिग्रीधारी श्री जी.एल., गोयल जिन्होंने मुझे जीवन में बौद्धिक और आध्यात्मिक आधार दिया। कुछ लोगों की निगाह में वे एक चमत्कारी पुरुष थे, लेकिन मेरे लिए वे एक सच्चे हितैषी और शुभचिंतक मित्र साबित हुए। रोज मुझसे कुछ लिखवाना, और फिर एक समीक्षक की तरह उसे A, B, C अथवा D ग्रेड देना, ही शायद आज मुझे उनके बारे में कुछ लिखने को मजबूर कर रहा है।
संगीत हो अथवा बागवानी, ज्योतिष, शेयर मार्केट होम्योपैथी नेचुरोपैथी, टेलीपैथी के अलावा शायद ही कोई ऐसी पैथी हो, जिनकी जानकारी उन्हें नहीं हो।
वे आजीवन अकेले रहे, लेकिन हमेशा सबके काम आते रहे। फिर भी जो सबका भला करना चाहते हैं, उन्हें जीवन में कष्ट भी झेलना पड़ता है। अंतिम कुछ समय से गंभीर रूप से बीमार रहे और कुछ वर्ष पहले ही मुझे अकेला छोड़ गए।
४. मेरे अंतिम अविवाहित पात्र श्री क्रांतिकुमार शुक्ला भी आज मेरे साथ नहीं है। कभी संघर्षशील पत्रकार रहे शुक्ला जी स्काउट गतिविधि के प्रति आजीवन समर्पित रहे।
उनके साथ कई स्काउट ट्रिप का भी हमने आनंद लिया। क्या जमाना था, शुक्ला जी साइकिल उठाए, सुबह सुबह हमारे घर चले आ रहे हैं। स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मनोरंजन, कैसे बीत गया जीवन, कुछ पता ही नहीं चला।।
अंतिम समय भी उनका जीपीओ स्थित स्काउट हेडक्वार्टर पर ही गुजरा। स्मृति दोष और अकेलापन यह पुराना फौजी झेल नहीं पाया, और कुछ वर्ष पूर्व वे भी इस दुनिया से कूच कर गए।
अविवाहित रहते हुए भी ये चारों व्यक्ति मेरे जीवन का हिस्सा रहे। मेरे व्यक्तिगत परिवार को इन चार सदस्यों के जाने से जो क्षति पहुंची है, उसकी व्यथा ही यह आज की कथा है। चारों मेरे अपने थे, और सदा मेरे अपने रहेंगे। कभी हम पांच थे, आज सिर्फ मैं अकेला। हूं, फिर भी शादीशुदा हूं।।
ऊंची कद काठी के, मृतप्राय से, अपने पति को मृत्यु शैय्या पर देख सुमित्रा का मन धक सा हो रहा था। तीनों बेटियों को बुला लिया था डाक्टर ने जवाब जो दे दिया था। इसलिए हास्पिटल से पति को वापिस लाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। वैसे तो छोटी बेटी ने किचन संभाल लिया था। रोटी सब्जी दाल चावल तो बन ही जाता था। पर सुमित्रा को यह रह रह कर लग रहा था कि मेरी बेटियां इतने दूर से आई है, उन्हें कुछ अच्छा खिला सकती।
दूसरे दिन माँ को बेटियों ने घर पर नहीं पाया। सोचा, कहां चली गयी होगीं? तभी दरवाजा खोल माँ का आगमन हुआ। माँ के कंधे पर बैग झूल रहा था। उसमे से उन्होंने एक डिब्बा निकाला और डायनिंग टेबल पर रख दिया। ‘क्या है इसमें?’ बेटियों ने उत्सुकता से पूछा।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “जय माता दी ”।)
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 125 ☆ देश-परदेश – नज़र बट्टू ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे देश में “नज़र बट्टू” विशेषकर उत्तर भारत के भागों में प्रमुखता से उपयोग किया जाता हैं। नए घर, संस्थान, वाहन या उस स्थान पर लगाया जाता है, जो सुंदर और आकर्षण होता हैं।
छोटे बच्चे को भी काजल का टीका लगा कर ये कवायत की जाती हैं। वाहन में विशेष रूप से ट्रक आदि पर काले रंग से भूत जैसी आकृति बना दी जाती हैं। कुछ वाहन चालक काले रंग की नकली बनी हुई चोटी भी लटका देते हैं।
ट्रक पर शेरो शायरी लिखने के साथ ही साथ “बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला” लिखने का रिवाज़ कई दशकों से चल रहा हैं। हमारे मित्र ने कुछ वर्ष पूर्व नई बाइक खरीदने के पश्चात उसकी पेट्रोल टंकी पर सिक्के से एक लाइन बना दी थी। पूछने पर बोला नज़र नहीं लगेगी और कोई दूसरा ये करता तो बुरा लगता है, इसलिए स्वयं ही इसे अंजाम दे दिया।
आज प्रातः काल भ्रमण के समय ऊपर लिखा हुआ दिखा तो क्लिक कर दिया हैं। पहले तो हमें लगा कि कहीं अंधेरा होने के कारण कोई ट्रक तो नहीं हैं। वैसे मकान दिखने में भी कोई विशेष खूबसूरत नहीं प्रतीत हो रहा हैं, परंतु ये लगा हुआ बोर्ड बहुत चमक रहा हैं। हमें तो ये डर लग रहा है कहीं इस बोर्ड को ही ना नजर लग जाए। एक पुराना गीत भी है, ना, “नज़र लगी राजा तोरे बंगले पर”।
💐जागतिक कविता दिनाच्या सर्वांना हार्दिक शुभेच्छा!💐
(सूक्ष्मजीव शास्त्र व कविता यांचा समवाय साधण्याचा प्रयत्न. कोणत्याही विज्ञान शाखेतील पुस्तकांच्या निर्मितीसाठी, परस्पर मैत्रीपूर्ण संबंध राखण्यासाठी, ज्ञानाची देवाणघेवाण यशस्वी होण्यासाठी भाषा ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभावते.)
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सूक्ष्मजीव असति जळी स्थळी काष्ठी आणि पाषाणी
करावी लागते सूक्ष्मदर्शकातून त्यांची नेमकी पहाणी
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सुंदर निर्मियले जग हे परमेश्वराने चित्र मनोवेधक जाहले
मानवा बरोबर जीवाणू, विषाणू, अल्गी प्रोटोझोआ अवतरले
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विरजण लावत, इडलीचे पीठ आंबवत आई-आजी मोठ्या झाल्या.
लॅक्टोबॅसिलस आणि यीस्ट त्यांच्या प्रक्रिया यशस्वीपणे पार पाडू लागल्या
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ॲंटोनी, पाश्चर, ॲलेक्झांडर, रॉबर्ट यांनी आयुष्य सर्व वाहिले.
सूक्ष्मजीवांवर संशोधन करताना जीवन समर्पित जाहले.
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आरोग्य, उद्योग, औषधे, अन्न सुरक्षा यांना विस्तारते सूक्ष्मजीवशास्त्र
अथांग पसरलेले सखोल, शाश्वत असे हे मार्गदर्शक तत्त्वांचे शास्त्र