हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ प्रवासी भारतीय दिवस विशेष – प्रवासी हिंदी साहित्य में भारतबोध… ☆ श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’

(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’का हार्दिक स्वागत। आज प्रस्तुत है  प्रवासी भारतीय दिवस पर आपका विशेष आलेख “– प्रवासी हिंदी साहित्य में भारतबोध” ।

☆ आलेख ☆ प्रवासी भारतीय दिवस विशेष – प्रवासी हिंदी साहित्य में भारतबोध… ☆ श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’  ☆

(9 जनवरी ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ है। आज के ही दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत आए थे। प्रवासी दिवस के इस अवसर पर आज हम प्रवासी साहित्य और प्रवासी साहित्यकारो के विषय में चर्चा करेंगे। – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’। )

जैसा कि मैं पहले भी कहता आया हूं। मैं हिंदी साहित्य का विद्यार्थी नहीं हूं। मैं विशुद्ध रूप से विज्ञान का विद्यार्थी हूँ और हिंदी साहित्य मेरी अभिरुचि है। विशेषकर गिरमिटिया देशों में रचे जाने वाला साहित्य। इसके पृष्ठभूमि में प्रवासी साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर एवं भारतीय साहित्यकार डॉ. दीपक पाण्डेय एवं डॉ. नूतन पाण्डेय जी से शुरुआती दौर में पैदा साहित्यिक संबंध भी है। जैसा कि मैंने कहा कि मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं हूं इसलिए हो सकता है कि मैं उतनी गहराई तक प्रवासी साहित्य पर न लिख सकूं या कह सकूं, तो इस आलेख को इसी संदर्भ के साथ समझना होगा। संभव होगा कि इसमें त्रुटि भी हो जाए, तो इसके लिए पहले ही क्षमा याचना करता हूं।

अब हम मूल विषय पर चर्चा करते हैं और समझते हैं कि प्रवासी साहित्यकार से क्या तात्पर्य है ? वे साहित्यकार जिनका जन्म भारत में हुआ और कालांतर में वे अमेरिका ब्रिटेन कनाडा यूरोपीयन या खाड़ी देशों में बस गए। दूसरे वे जिनके पूर्वज पौने दो सौ वर्ष पहले एग्रीमेंट के तहत फिजी,मॉरीशस सूरीनाम गयाना, त्रिनिदाद,दक्षिण अफ्रीका आज देश में जाकर बस गए।

प्रवासी जनों की तीन श्रेणियां है एक तो वे जो दास प्रथा के समाप्ति के तुरंत बाद लगभग 1835 के आसपास फिजी मॉरीशस, गयाना सूरीनाम, त्रिनिदाद दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में बस गए। दूसरे वह जो 1980 के दशक में शिक्षित और अशिक्षित कुशल – अकुशल कर्मियों के रूप में नौकरी के लिए गए और वहीं बस गए। तीसरे वे हुए जो 80 और 90 के दशक में शिक्षा ग्रहण करने या प्रबुद्ध वर्ग के रूप उच्च पदों पर कार्यरत हुए और कालांतर में वहीं बस गए।

यदि हम गिरमिटिया देश के साहित्यकारों की बात करें तो इनमे सर्वश्री प्रोफेसर विष्णु दयाल, श्री मुनीश्वर चिंतामणि, श्री जय नारायण राय, श्री सोमदत्त बखोरी, श्री अभिमन्यु अनंत,श्री रामदेव धुरंधर श्री वीरसेन जगा सिंह श्री पूजा नेमा, श्री भानुमति नागदेव, श्री राज हीरामन आ0 कल्पना लाल जी,एवं आ0 सरिता बुद्धु आदि है।

वही अमेरिका, कनाडा या यूरोपियन देशों के साहित्य सेवा करने वाले साहित्यकारों में सर्व श्री पद्मेश गुप्ता आ0 उषा प्रियंवदा,आ0 सुषम बेदी आ0 पुष्पिता अवस्थी श्रो सुरेश चंद्र शुक्ला आ0 पुष्पा सक्सेना, आदरणीय तेजेंद्र शर्मा आ0 कादंबरी मेहरा आ0 सुधा ओम ढीगरा आ 0 जाकिया जुबेरी,श्री कृष्णाबिहारी आ0 इला प्रसाद जी, डॉ हंसा दीप जी, धर्मपाल महेंद्र जैन जी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है।

अमेरिका, कनाडा और फिर त्रिनिदाद टोबैगो कैरेबियन सागर के देशों में बस जाने वाले प्रोफेसर हरिशंकर आदेश जी ने अपनी कृतियों अनुराग शकुंतलम्, महारानी दमयंती, ललित गीत रामायण, देवी सावित्री, रघुवंश शिरोमणि जैसे महाकाव्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति और अध्यात्म का अलख जगाया है।

अन्य प्रवासी साहित्यकारों में जिसे मैं स्वयं भी परिचित हूँ, उनमे श्री रितु ननन पाण्डेय नींदरलैंड, श्री सुरेश पाण्डेय जी स्वीडन, श्रीमती अनीता कपूर अमेरिका है जो बहुत ही उच्च कोटि के साहित्य का सृजन कर रहे हैं

बहुत से ऐसे प्रवासी साहित्यकार है, जिन्हें मैं नहीं जानता या जिनका साहित्य मुझे पढ़ने के लिए नहीं मिला। ऐसे हिंदी की सेवा करने वाले प्रवासी साहित्यकारों को भी मैं आज के अपने आलेख में याद करता हूँ और प्रवासी भारतीय दिवस की बधाई देता हूं।

इन सभी साहित्यकारों के अंदर भारतीया रची बसी हुई है, जो उनके रचनाओं में तथा इनके लेखों में परिलक्षित होती है।

इन साहित्यकारों के साहित्य में किस तरह से भारतीयता बसी है इसका कुछ उदाहरण निम्नवत है –

इंग्लैंड में साहित्य रच रहे प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार श्री तेजेंद्र शर्मा जी, जिनके ग्रन्थ काला सागर, ढिबरी टाइट, देह की कीमत, मृत्यु के इंद्रधनुष आदि है। आदरणीय शर्मा जी एक जगह लिखते हैं कि – भारत से बाहर लिखे जाने वाले हिंदी साहित्य की विशेषता यह है कि पाठक नई थीम नई परिस्थितियों नवजीवन से परिचित होता है। श्री तेजेंद्र शर्मा जी की कहानी संग्रह इंद्रधनुष की कहानी – हथेलियों में कंपन कहानी में एक परिवार अस्थि विसर्जन के लिए विदेश से हरिद्वार आता है जहां पिता अपने पुत्र का नाम लिखवा कर हस्ताक्षर करता है किंतु उसके मौसा की हथेली कांपती है।

वही लेखक अपनी कविता टेम्स का पानी में अपनी गंगा को देखते हैं।

मॉरीशस के साहित्यकार राज हीरामन जी आदि ने भारतीय संस्कृति को बहुत कुछ दिया है। वहीं प्रोफेसर वासुदेव विष्णु दयाल ने अपनी 500 कृतियों के साथ भारतीयता का प्रचार किया है।

मॉरीशस के प्रख्यात साहित्यकार रामदेव धुरंधर सीधे-सीधे कहते हैं कि मैं अपने साहित्य के बीच मॉरीशस में बोता हुआ भारत में फसल काटता हूँ। श्री रामदेव धुरंधर का ऐतिहासिक उपन्यास पत्रिका सोने के खंड दो पृष्ठ आठ में धुरंधर जी लिखते हैं-

हब्सी कमजोर कैदियों को पीटेंगे उनका खाना छीन लेंगे। भारतीय लोगों के मन की लड़ाई दूसरी होती है। इनका संस्कार अस्तित्व में आ जाता है। रोटी न मिले या धरोहर तो बचे।

पथरीला सोना में ही धुरंधर जी  ने लिखा –

“भारत की सांस्कृतिक विरासत रामायण हनुमान चालीसा आल्हा ऊदल बनकर मॉरीशस पहुंची। “

” भारत के यशस्वी कृष्ण की बंसी से इस संस्कृति को इतनी शक्ति मिली कि लोगों ने खुलकर अपनाया “

” रामायण आ चुकी थी गाने से रोका गया तो सीना तान कर गाया गया “

इस पूरे उपन्यास में भारतीय संस्कृति एवं इसके अनेको उदाहरण है।

श्री धुरंधर जी एक जगह गौरव की कठपुतली किरपाल के बारे में लिखते हैं-

खूसट ने इस बुढ़ौती में भी अपने मन से अपने भारत की गंगा में नहाने की जरूरत नहीं समझी।

मॉरीशस के प्रख्यात साहित्यकार श्री अभिमन्यु अनत के ऐतिहासिक ग्रंथ लाल पसीना,जम गया सूरज, एक बीघा प्यार, बीच का आदमी है।

मॉरीशस की राष्ट्रीय चेतना में महावीर पूजा के अनेक संदर्भ मिलते हैं।

प्रवासी वेदना का चित्रण अभिमन्यु अनत के इस रचना में कुछ इस प्रकार मिलता है-

सुन कहानी गिरमिटियन के

काहे कल जन सुन सुन के।

भईल मोहताज मजबूरियां जब देशवा में,

फसलन मीठी बोलिया दलालवा के।

सोनवा खातिर माई बाप छोड़न।

छोड़न सब कुछ सागर पार करके।

पहुंचन मिरिचिया जहाजिया भाई बन के।

प्रवासी साहित्यकार आ0 शशि पाधा, (वर्जीनिया) अमेरिका, का साहित्य विदेशी संस्कृति को कहीं-कहीं उल्लेखित करते हुए मूल रूप से अपने देश के सांस्कृतिक मूल्यों को ही अपने पात्रों के द्वारा प्रतिपादित करता है।

पूजा अर्चना, तीज त्यौहार, संयुक्त परिवार,मेला उत्सव हिंदी भाषा संस्कृति के बिना अमेरिका में बसे लोगों का जीवन पूरा नहीं होता है।

इंग्लैंड के लेखक प्राण शर्मा की कहानी पराया देश में की पंक्तियाँ

भारत मेरा देवता भारत है भगवान

भारत में बसते सदा प्रतिपल मेरे प्राण

बैठे भले विदेश में भोगे भाग्य विधान

पल-पल हर पल ध्यान में रहता हिंदुस्तान

अमेरिका की साहित्यकार आदरणीय सुषुम बेदी अपने उपन्यासों एवं कहानियों में अमेरिका में बस कर भारत को देखती हैं।

आपकी कहानी काला लिबास में, अनन्या अमेरिका में जन्म लेती है। पढ़ाई भी वही करती है लेकिन अमेरिका की संस्कृति को नहीं मानती है उसके मन में भारत के रहन-सहन और कपड़े में ही परम सुख है।

सुरेश चंद शुक्ला शरद आलोक जी जो नार्वे में रहकर साहित्य साधना करते हैं लखनऊ की सर जमीन से निकले है। इनकी कहानी भारत और विदेश दोनों धरती की मिली जुली कहानी है।

भोजपुरी साहित्य में अलग जगाने वाली  डॉ सरिता बुद्धू मॉरीशस में रहकर भारत और भोजपुरी की बात करती है।

भोजपुरी साहित्य और संस्कृति के आज के चर्चित नाम श्री मनोज भाउक जी को उनके सानिध्य प्राप्त होता है, और वह भोजपुरी साहित्य को आगे की तरफ ले जाते हुए दिखते हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रवासी साहित्यकार स्वयं को भारतीयता से अलग कर ही नहीं सकते है। उनकी रचनाओं में भारत और भारतीयता कूट-कूट कर भरा पड़ा है। जो इन्हें यहां की मिट्टी से लगातार जोड़े हुए हैं।

आज प्रवासी दिवस के अवसर पर मैं इन सभी मूर्धन्य साहित्यकार विद्वान साहित्यकार गण को जो दिवंगत हो चुके हैं उन्हें श्रद्धापूर्वक ह्रदय से नमन करता हूं और जो वर्तमान में साहित्य साधना कर रहे हैं, उन्हें प्रवासी दिवस की बधाई देते हुए वंदन करता हूँ।

***

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – महाकाव्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – महाकाव्य ? ?

तुम्हारा चुप,

मेरा चुप,

चुप लम्बा खिंच गया,

तुम्हारा एक शब्द,

मेरा एक शब्द,

मिलकर महाकाव्य रच गया!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-८ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-८  ☆ श्री सुरेश पटवा ?

हम्पी के विध्वंस को देखने के पूर्व उसका स्वर्णयुग जानना ज़रूरी है, जो कि रतीय इतिहास का गौरव शाली अध्याय है। हरिहर तथा बुक्का ने हम्पी को राजधानी बनाकर साम्राज्य का नाम विजयनगर रखा। जिसकी स्थापना के साथ ही हरिहर तथा बुक्का के सामने कई कठिनाईयां थीं। वारंगल का शासक कापाया नायक तथा उसका मित्र प्रोलय वेम और वीर बल्लाल तृतीय उसके विरोधी थे। देवगिरि का तुगलक सूबेदार कुतलुग खाँ भी विजयनगर के स्वतंत्र अस्तित्व को नष्ट करना चाहता था। हरिहर ने सर्वप्रथम बादामी, उदयगिरि तथा गुटी के दुर्गों को सुदृढ़ किया। उसने कृषि की उन्नति पर भी ध्यान दिया जिससे साम्राज्य में समृद्धि आयी।

होयसल साम्राट वीर बल्लाल मदुरै के विजय अभियान में लगा हुआ था। इस अवसर का लाभ उठाकर हरिहर ने होयसल साम्राज्य के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया। आंध्र का वीर बल्लाल तृतीय मदुरा के सुल्तान द्वारा 1342 में मार डाला गया। बल्लाल के पुत्र तथा उत्तराधिकारी अयोग्य थे। इस मौके को भुनाते हुए हरिहर ने होयसल अर्थात् आंध्र साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। आगे चलकर हरिहर ने कदम्ब के शासक तथा मदुरा के सुल्तान को पराजित करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।

हरिहर के बाद बुक्का राजा बना हालांकि उसने ऐसी कोई उपाधि धारण नहीं की। उसने तमिलनाडु का राज्य विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। कृष्णा नदी को विजयनगर तथा बहमनी की सीमा तय कर दी। कृष्णा के उत्तर में बहमनी और दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य। बुक्का के बाद उसका पुत्र हरिहर द्वितीय सत्तासीन हुआ। हरिहर द्वितीय एक महान योद्धा था। उसने अपने भाई के सहयोग से कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, कांची, चिंगलपुट आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

दक्षिण भारत के इतिहास में विजयनगर अत्यंत समृद्ध साम्राज्य बन गया था। जिसकी तुलना उस समय के साम्राज्यों से की जाये तो रोमन साम्राज्य उस समय पतन के गर्त में जा रहा था। अंततः उसका 1453 में पतन हो ही गया। उसकी कोख से इंग्लैंड, फ़्रांस और जर्मनी सहित यूरोप के अन्य देश अस्तित्व में आना शुरू हुए थे। उत्तर भारत में ग़ुलाम, ख़िलजी, तुग़लक़, सैयद और लोधी वंश लड़खड़ा कर पतन के गर्त में जा रहे थे। जिनकी अस्थियों पर बाबर 1526 में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखने वाला था। इतिहास के उसी कालखंड में विजयनगर का हिंदू साम्राज्य चरम समृद्धि पर पहुँचा हुआ था।

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना संगम वंश के हरिहर एवं बुक्का ने 1336 ईस्वी में की थी। हरिहर और बुक्का के पिता का नाम संगम था। उन्हीं के नाम पर इस वंश का नाम संगम वंश पड़ा। इस वंश का प्रथम शासक हरिहर प्रथम (1336 – 1356 ईस्वी) हुआ, जिसने 1336 ईस्वी में विजयनगर साम्राज्य कि स्थापना कर हम्पी को अपनी राजधानी बनाया। विजयनगर साम्राज्य ने चार अलग-अलग राजवंशों का शासन देखा गया: संगम के बाद सलुवा, तुलुवा और अराविदु राजवंश का शासन रहा।

दो अमरीकी विद्वानों ने डारोन एसेमोग्लू और जेम्स ए. रॉबिन्सन मिलकर ‘व्हाई नेशन्स फेल’ इस सवाल पर केंद्रित पुस्तक लिखी है, जिसे कुछ समय पूर्व पड़ा था। विश्व इतिहास के उदाहरण देकर यह बताया गया है कि कोई भी राजनीतिक इकाई तीन-चार पीढ़ियों में नये राजवंश या नये समीकरण में हस्तांतरित हो जाती है। विजयनगर के मामले में भी यही सिद्धांत प्रभावी नज़र आता है।

दूसरा राजवंश सालुव नाम से प्रसिद्ध था। इस वंश के संस्थापक सालुब नरसिंह ने 1485 से 1490 ई. तक शासन किया। उसने शक्ति क्षीण हो जाने पर अपने मंत्री नरस नायक को विजयनगर का संरक्षक बनाया। वही तुलुव वंश का प्रथम शासक माना गया है। उसने दक्षिण में कावेरी के सुदूर तलहटी भाग पर भी विजयदुन्दुभी बजाई। इसके बाद तुलुव वंश के राजा नरस नायक ने 1491 से 1503 तक राज किया। फिर क्रमश: वीरनरसिंह राय (1503-1509), कृष्ण देवराय (1509-1529), अच्युत देवराय (1529-1542) और सदाशिव राय (1542-1570) ने शासन किया।

उनके कृष्णदेव राय सबसे प्रतापी राजा हुए। कृष्णदेव राय ने 1509 से 1539 ई. तक शासन किया और विजयनगर को भारत ही नहीं दुनिया का उस समय का सबसे बड़ा समृद्ध साम्राज्य बना दिया। दिल्ली में उस समय लोधी वंश (1451-1516) का शासन चल रहा था। 1526 में मुगल बाबर आने वाला था।

कृष्ण देव राय के शासन में आने के बाद उन्होंने अपनी सेना को इस स्तर तक पहुँचाया कि जिसमें  88,000 पैदल सैनिक, 1.50 लाख घुड़सवार सैनिक, 20,000 रथ, 64,000 हाथी और 15,000 तोपखाना सैनिक थे। वे महान प्रतापी, शक्तिशाली, सर्वप्रिय, सहिष्णु और व्यवहारकुशल शासक थे। उन्होंने विद्रोहियों को दबाया, उड़ीसा पर आक्रमण किया और उत्तर भारत के कुछ भूभाग पर अपना अधिकार स्थापित किया। सोलहवीं सदी में यूरोप से पुर्तगाली भी पश्चिमी किनारे पर आकर डेरा डाल चुके थे। उन्होंने कृष्णदेव राय से व्यापारिक सन्धि करने की विनती की जिससे विजयनगर राज्य की श्रीवृद्धि हो सकती थी लेकिन कृष्ण देव राय ने मना कर दिया और पुर्तगालियों सहित विदेशी शक्तियों को राज्य से खदेड़ कर बाहर किया। वे गोवा दमन ड्यू के निर्जन भाग पर जम गये।

उन्होंने युद्ध के बाद युद्ध जीतकर विशाल विजयनगर साम्राज्य का विस्तार किया। उन्होने पूरे दक्षिण भारत को अधिकार में किया और आज के उड़ीसा के हिस्सों को तक राज्य में मिलाया, जिसमें गजपति शासक, प्रतापरुद्र को हराया था। वो एक महान योद्धा और सेनापति के रूप में अपने कौशल के अलावा बहुत महान विद्वान और कवि थे। दक्षिण भारत की कृष्णा नदी की सहायक तुंगभद्रा को इस बात का गर्व है कि विजयनगर साम्राज्य हम्पी स्थित राजधानी के साथ उसी गोद में पला, जिसमें हनुमान जी का बाल्यकाल बीता था।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 142 ☆ मुक्तक – विश्व हिंदी दिवस विशेष -।। हिंदी हिन्द की बन चुकी पहचान है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 142 ☆

☆ मुक्तक ।। हिंदी हिन्द की बन चुकी पहचान है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

।।विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी के अवसर पर।।

=1=

सरल  सहज  सुगम भाषा वो बोली हिंदी है।

सौम्य और  सुबोध आशा वो बोली हिंदी है।।

आत्मीय     अभिव्यक्ति   है   उसका   प्राण।

सुंदर और सभ्य परिभाषा वो बोली हिंदी है।।

=2=

संस्कृति संस्कार    की वो एक फुलवारी    है।

हिंदी बहुत मधुर भाषा वो तो जग से न्यारी है।।

भारत    लाडली     वीरता की है  गौरवगाथा।

हिंदी ह्रदय की वाणी    वो बहुत ही प्यारी है।।

=3=

भारत जन जन की  भाषा हिंदी बहुत दुलारी है।

मन मस्तिष्क की     बोली भारत की लाली है।।

हो रहा सम्पूर्ण     विश्व  में हिंदी मान सम्मान।

हिंदी में ही   निहित  भारत की   खुशहाली है।।

=4=

हिंदी हिन्द की बन     चुकी पहचान         है।

सम्पूर्ण विश्व में हिंदी से  ही गौरव गान      है।।

एकता की  डोर   नैतिकता का है सूत्र   हिंदी।

हिंदी से ही  विश्व में   भारत की आज शान है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 208 ☆ कविता – मां गंगा… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – मां गंगा। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 208 ☆ कविता – मां गंगा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

हे भारत की जीवन धारा कलकल निनादिनी माँ गंगे

हिमगिरी से चलकर सागर तक निर्बाध वाहिनी माँ गंगे

देती अमृत सम जल अपना वन उपवन जन जन कण कण को

मिलती है अनुपम शांति तुम्हारे तीर दुखी आहत मन को

भारत जन मन की परम पूज्य प्रिय पतित पावनी माँ गंगे

 *

उत्तर दक्षिण प्रांतो पंथो का भेद मिटाने वाली तुम

भावुक भक्तों पर माँ सी ममता प्यार लुटाने वाली तुम

भारत वसुन्धरा को वैभव कल्याण दायिनी माँ गंगे

 *

तव निर्मल उज्जवल धारा ने कवि कण्ठों को कलगान दिये

कृषि को नित वरदान दिये सन्तो को गरिमा ज्ञान दिये

भारत की आध्यात्मिक संस्कृति की प्राण दायिनी माँ गंगे

 *

तुम भारत की पहचान तुम्हारे दर्शन को हर मन प्यासा

जीते हैं लाखों लोग लिये तुममे डुबकी की एक आशा

भारत के जनजीवन के मन में नित निवासिनी माँ गंगे

 *

जग से विक्षुब्ध असांत हृदय को शान्ति प्राप्ति की अभिलाषा

निर्मल जल की चंचल धारा देती है नवजीवन आशा

हे पाप नाशिनी , मोक्ष दायिनी जगत तारिणी माँ गंगे .

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 574 ⇒ नहीं नहाने का बहाना ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शीत लहर और स्नान।)

?अभी अभी # 574 नहीं नहाने का बहाना ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जल ही जीवन है ;

पानी व्यर्थ नहीं बहाना है !

हम जब छोटे थे, तब जल का महत्व नहीं समझते थे। सर्दियों के मौसम को छोड़कर,  हर मौसम में नहाने का मौका ढूंढते रहते थे। बात बात पर कपड़े गीले कर लेना अथवा मिट्टी में खेलने चले जाना,  ताकि नहाकर साफ सुथरे होकर गीले कपड़े उतारना पड़े। कितना पानी बर्बाद किया होगा हमने बचपन में, नहाने में।

पहले गर्मी में बाहर खेलकर पसीने में नहाना, फिर घर आकर ठंडे पानी से नहाना, ऐसी इच्छा होती, अपने आप पर घड़ों पानी डाल लें। गर्मी के मौसम में प्यास और नहाने की आस,  बुझाए नहीं बुझती।।

यही हाल बारिश में होता। जब प्रकृति ने शावर लगा रखा है, तो उसका उपयोग क्यों ना किया जाए। इसमें कौन सा हमारी गिरह का जल खर्च हो रहा है। बहती गंगा में अगर हाथ नहीं धो पाए तो क्या,  भारी बरसात का लुत्फ तो उठाया ही जा सकता है। लेकिन हाय रे बचपन, भीगने पर भी डांट ही सुनना पड़ती थी। जाओ, जल्दी कपड़े बदलो, अगर जुकाम हो गया तो।

और सर्दियों में, जब हम नहीं नहाना चाहते थे, तब भी हमें स्वच्छता की आड़ में नहाना पड़ता था। तब कहां घरों में इलेक्ट्रिक गीजर थे। चूल्हे पर बड़े भगोने में गर्म पानी हुआ करता था। एक अनार सौ बीमार की तरह, राशन की तरह गर्म पानी दिया जाता था। कई बार तो पानी पूरी तरह गर्म भी नहीं हो पाता था। तब से ही ठंड में नहाना एक तरह से सर्दी को ही दावत पर बुलाने जैसा था।।

तब, या तो ठंड अधिक पड़ती थी, अथवा ठंड से बचाव के संसाधन अपर्याप्त थे। रुई वाली रजाई और गद्दे तो थे, लेकिन आज जैसे इंपोर्टेड कंबल नहीं थे। देसी कंबल गर्म तो होते थे लेकिन उनके बाल चुभते थे। अंदर एक सूती चद्दर न जाने कहां खिसक जाती थी। ठंड से बचाव या तो बंडी करती थी, अथवा घरों में मां, बहन अथवा मौसी के हाथों से बुने हुए स्वेटर। हां, सर पर एक गर्म टोपा और गले में मफलर जरूर होता था। और साथ में पढ़ने वाले, सरकारी स्कूलों के बच्चों की तो बस, पूछिए ही मत।

हाथ पांव धोना, एक बारहमासी स्वच्छता अभियान है। बच्चे कितनी भी बार हाथ पांव धो लें, हम बड़े, उनके पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं, जाओ हाथ धोकर आओ, तुमने अभी अभी पिंकी के मोबाइल को हाथ लगाया था। तब हमारे साथ भी यही होता था। कितनी भी ठंड हो, शाम को खेलकर घर आओ, तो पहले हाथ पैर धोकर आओ। तब कहां का गर्म पानी। हम चुपचाप हाथ पांव पर चोरी से सरसों का तेल लगा लेते थे,  लो देखो धूल गायब ! लेकिन थोड़ी देर में पोल खुल जाती, जब तेल के कारण पांवों में धूल और अधिक चिपक जाती।।

नानी हमें बहुत प्यार करती थी, फिर भी ठंड में सुबह सुबह नहाने और स्कूल जाने में हमारी नानी मरती थी। उसे हम पर दया भी आती। वह हम पर जान छिड़कती थी, बेटा, बहुत ठंड है, आज स्कूल मत जा। लेकिन उसकी एक ना चलती। घर में पिताजी का शंकर ऑर्डर जो चलता था।

आज ऐसा कुछ नहीं है। हम अपनी मर्जी के मालिक हैं। बाथरूम में गीजर लगा है, 24 x 7 गर्म पानी उपलब्ध है, लेकिन नहाने के लिए पहले बिस्तर छोड़ना, फिर ठिठुरते हुए वस्त्र त्याग, इस उम्र में, हमसे तो ना हो। माफ करें, इतनी ठंड में तो हम हमाम में भी नंगे ना हों।

हमारा हमाम कोई लाक्षागृह नहीं। क्या वस्त्र सहित नहाने की कोई तरकीब नहीं है।।

रेनकोट स्नान के बारे में सुना था। कितना अच्छा हो, हमारी इज्जत ना उछले, हम हमाम में भी शालीन बने रहें। वैसे भी ठंड में खुद के अथवा दूसरों के कपड़े उतारना हमें पसंद नहीं। नहीं नहाने से पानी की भी बचत होगी और जब नहाएंगे ही नहीं, तो क्या निचोड़ेंगे। बचत ही बचत। पानी की महाबचत।

हमें व्यर्थ पानी

नहीं बहाना है।

नहीं नहाने का बस,

यही एक बहाना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आयुष्य… ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर ☆

श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आयुष्य ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर ☆

आयुष्य आपले नेहमीच

असते तडजोडीचा झूला

त्यातच दिसते नेहमीच

आयुष्य पूर्तता मला

 *

मने जूळवते तडजोड

अन् आगळी नवे नात

जेथे नसते तडजोड

तेथे निश्चित आहे भिंत

 *

भिंत असे ती मतभेदांची

त्याचेच पडसाद उठती

मग बीकट वाट जीवनाची

क्षणोक्षणी आस सुखाची

 *

मतभेद अन् तडजोड

एका नाण्यांच्या दोन बाजू

करा मतभेदात तडजोड

मग सुखी जीवन विराजू

© श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

सह्याद्री अपार्टमेंट, खाडीलकर गल्ली, बालगंधर्व नाट्यमंदिर समोर, ब्राह्मणपुरी, मिरज,जि. सांगली

मो 9689896341

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ गीता जशी समजली तशी… – गीतेचे वैशिष्ट्य – भाग – ३ ☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

 

☆ गीता जशी समजली तशी… – गीतेचे वैशिष्ट्य – भाग – ३ ☆ सौ शालिनी जोशी

गीतेचे वैशिष्ट्य

पारंपारिक शब्दाना नवीन अर्थ देणे हे गीतेचे एक विशिष्ट्य आहे.

१) धर्म — येथे धर्म म्हणजे हिंदू, बौद्ध, जैन इत्यादी धर्म असा अर्थ नाही. यांना धर्म पेक्षा संप्रदाय म्हणणे योग्य. धर्म या शब्दाचे अनेक अर्थ आहेत.’धृ- धारयति इति धर्म:l’ धर्म म्हणजे समाजाची तर धारणा करणारा विचार किंवा कर्म . धर्म म्हणजे मार्ग किंवा सहज स्वभाव किंवा कायदा, नियम. तसेच धर्म म्हणजे कर्तव्य. तोच अर्थ गीतेला अपेक्षित आहे. त्यालाच गीता स्वधर्म म्हणते. प्रत्येक माणसाचा त्या त्या वेळचा स्वधर्म असतो. त्या त्यावेळी तो करणे कर्तव्य असते. उदाहरणार्थ पित्रुधर्म, क्षत्रिय धर्म, या दृष्टीने आई-वडिलांचे सेवा करणे हा मुलांचा तर मुलांचे पालन करणे त्यावेळेचा आईचा धर्म असतो.आणि राष्ट्रप्रेम हा प्रत्येक नागरिकाचा धर्म.प्रजा रक्षण हा अर्जुन क्षत्रिय होता म्हणून त्याचा धर्म होता. म्हणून गीतेच्या दृष्टीने स्वतःचे कर्तव्य म्हणजेच स्वधर्म .

२) यज्ञ– यज्ञ म्हटले की समोर येते आणि कुंड, तूप, समिधा इत्यादी साहित्य आणि हवन, स्वाहाकार अशा क्रिया. पण गीतेच्या दृष्टीने ममता व आसक्ती रहित असलेले, सर्व काळी सर्वांच्या कल्याणासाठी केलेले कर्म हाच यज्ञ. ‘इदं न मम’ या भावनेने केलेले कर्म हाच यज्ञ. यज्ञात आहुती देताना त्याच्यावरचा हक्क सोडून ते देवतेला अर्पण केले जाते. कर्माचे बाबतीत आसक्ती व ममता सोडून ईश्वरार्पण बुद्धीने केकेले कर्म हाच यज्ञ. मग अन्नपदार्थाबाबत अनासक्तीने केलेले अन्नग्रहण हे यज्ञ कर्मच, ‘उदरभरण नोहे जाणिजे यज्ञ कर्म’.असा हा निस्वार्थ कार्याला प्रतिष्ठा मिळवून देणारा यज्ञ.

३) पुजा– येथे पुजेसाठी हळद-कुंकू, फुले, निरांजन, नैवेद्य, पाणी कशाचीच गरज नाही. ही पूजा स्वकर्मानी करायची आहे. गीता म्हणते, ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च सिद्धिं विंदति मानव:l ‘शास्त्रविधिने नेमून दिलेले कर्म कर्ता भाव सोडून भगवंताला अर्पण करणे म्हणजेच कर्माने भगवंताची पूजा करणे.म्हणून भगवंत अर्जुनाला सांगतात तुझ्या सर्व क्रिया, खाणे, दान, तप सर्व कर्तुत्वभाव सोडून माझ्यासाठी कर. हीच पूजा, येथे पान, फुल, फळ कशाची गरज नाही. अशी ही शुद्ध कर्माने केलेली पूजा गीतेला अपेक्षित आहे. कर्म हे साध्य नसून ईश्वराची पूजा करून त्याला प्रसन्न करण्याचे साधन आहे. ईश्वरावर जो प्रेम करतो त्याची सर्व कर्मे पुजारूपच होतात.

४) संन्यास — गीता म्हणते, ‘ज्ञेय:स नित्य संन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षतिl’ जो कोणाचा द्वेष करत नाही, कशाची इच्छा करीत नाही तो नित्य संन्याशीच जाणावा. म्हणजे गीतेला अपेक्षित असलेल्या संन्यास हा घरदार सोडून वनात जाण्याचा आश्रम संन्यास किंवा भगवी वस्त्रे घालून यज्ञादि कर्माचा त्याग करण्याचा नाही. हा वृत्ती संन्यास आहे. त्यासाठी वासना कामनांचा, फलाशेचा त्याग अपेक्षित आहे. निष्क्रिय होणे नाही. हा बुद्धीत आहे. कर्म सोडणे या बाह्यक्रियेत नाही. गीतेचा संन्यास हा कर्माचा नसून मी, माझे पणाचा आहे. कर्तुत्वमद आणि फलेच्छा टाकण्याचा आहे. असा संन्यासी लोकसंग्रहासाठी कार्य करतो. घरात राहूनही हा साधणे शक्य आहे.

५) अव्यभिचारी भक्ती– भक्ती म्हणजे भगवंताविषयी प्रेम, त्याची पूजा, नामस्मरण, प्रदक्षिणा करणे एवढा मर्यादित अर्थ नाही. ही भक्ती स्थळ, काळ, प्रकार यांनी मर्यादित आहे. ती संपते व सुरू होते. स्वकर्म आणि कर्मफळ त्या सर्वात्मकाला अर्पण करणे हीच भक्ती. विश्वाच्या रूपाने श्रीहरीच नटला आहे हे जाणून आपल्या सकट सर्व ठिकाणी त्याला पाहणे हेच अव्यभिचारी भक्ती. तेव्हा प्रत्येक वस्तूत, व्यक्तीत भगवंत आहे हा अभेदभाव पटला की प्रत्येक व्यवहार हा भगवंताशीच होतो.’ जे जे देखे भूतl ते ते भगवंत’l हा भाव हीच ईश्वर भक्ती. अशा प्रकारे भक्तीचे व्यापक रूप जे विहितकर्मातून साध्य होते ते गीता दाखवते. प्रत्येकांत देव पाहून केलेला व्यवहार शुद्ध होतो. व्यवहार व भक्ती दोन्ही एकच होतात.

६) अकर्म– व्यवहारात आपण सत्य -असत्य, धर्म -अधर्म या विरोधी अर्थाच्या जोड्या म्हणतो. त्या दृष्टीने कर्म -अकर्म ही जोडी नाही. अकर्म म्हणजे म्हणजे कर्म न करणे नव्हे, तर सामान्य कर्मच यावेळी निरपेक्ष बुद्धीने फलाची अपेक्षा न ठेवता कोणताही स्वार्थ न ठेवता, ईश्वरार्पण पद्धतीने केले जाते.त्यावेळी ते फळ द्यायला शिल्लक राहत नाही. करून न केल्यासारखे होते. त्यालाच अकर्म म्हणतात. म्हणजे इंद्रियांच्या दृष्टीने कर्म होते पण फळाचे दृष्टीने ते अकर्म. कर्माशिवाय माणूस एक क्षणभरही राहू शकत नाही. अशावेळी स्वस्थ बसणे हे ही कर्म होते. म्हणून निष्काम, सात्विक कर्म म्हणजेच अकर्म. थोर लोकांचे कर्म अकर्मच असते. लोकांना ते कर्म करतात असे वाटत असले तरी फलेच्छा व कर्तृत्व भाव नाही आणि लोकहिताचा उद्देश. त्यामुळे त्यांच्या दृष्टीने फल रहित बंधरहित क्रिया म्हणून अकर्म.

७) समाधि– गीतेतील समाधी व्यवहारातील समाधी पेक्षा वेगळी आहे. व्यवहारात साधू पुरुषांना गतप्राण झाल्यावर खड्ड्यात पुरतात त्याला समाधी म्हणतात. गीता समाधी सांगते ती कर्म करत असतानाच प्राप्त होते .कर्म होत असतानाही आत्मस्थितीचे समत्व बिघडत नाही. बुद्धी स्वरूपाच्या ठिकाणी स्थिर होते. तेव्हाची योगस्थिती म्हणजे परमेश्वराशी ऐक्य तीच समाधी. अष्टांग योगातील शेवटची पायरी ही समाधी. अशाप्रकारे नेहमीच्या व्यवहारातील धर्म, यज्ञ, पूजा, संन्यास, समाधी, भक्ती, अकर्म या शब्दाला वेगळे अर्थ देऊन गीतेने क्रांतीच केली आहे. येथे कोणतेही कर्मकांड नाही. श्रद्धा एकमेव परमात्म्यावर. या सर्व क्रिया कोणत्याही भौतिक साधनाशिवाय केवळ कर्मातून साध्य होतात. हे दाखवणे हेच गीतेचे वैशिष्ट्य. १८व्या अध्यायात भगवंत सांगतात, ‘ स्वे स्वे कर्मण्यभिरत:संसिद्धि लभते नर:l’ विहित कर्म तत्परतेने व उत्कृष्टपणे केल्याने साधकाला आत्मसिद्धी प्राप्त होते. अशाप्रकारे गीता हे आचरण शास्त्र आहे. आचरण्याची वेगळी वाट दाखवते.

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तुम्ही म्हणाल तसं… – भाग – २ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

☆ तुम्ही म्हणाल तसं…  भाग – २ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

(या उलट ती मला समजून घेत शांत करत आलीय. मुलांच्यावर संस्कार करण्याचं काम आणि त्यांच्या शिक्षणाची संपूर्ण धुरा तिनं एकटीने सांभाळली आहे. ती नसती तर..?’) – इथून पुढे —

भावनावश झालेले गंगाधरपंत हलक्या आवाजात म्हणाले, “सुलु, बरं वाटत नाहीये का तुला? डोकं दुखतंय का?”

तिनं हळूच डोळे उघडत विचारलं, “फिरून आलात का? चहा करून देऊ का तुम्हाला?” आणि उठून बसली.

गंगाधरपंत पटकन म्हणाले, “नाही, नको. मानसीने आताच करून दिलाय.” असं म्हटल्यावर सुलोचना तोंडावर पाणी मारून देवघरात निरांजने पेटवून हात जोडून बसली.

संध्याकाळी काहीच न घडल्यासारखं रात्रीची जेवणं उरकली. शतपावली करून आल्यावर टीव्हीवरच्या बातम्या न ऐकताच गंगाधरपंत बेडरूममध्ये शिरले. उशीला पाठ टेकून विचारमग्न स्थितीत बसले. सुलोचना स्वयंपाकघरातील आवराआवर करून आली आणि शेजारी बसत म्हणाली, “काय पंत, आज मूड बिघडलेला दिसतोय. अहो, एवढे विचारमग्न व्हायला काय झालंय?”

त्यावर गंगाधरपंत काय बोलणार? सुनेनं जे सुनावलं, ते सांगायचं का सुलोचनेला? सूनदेखील काय चुकीचं बोलली? तिनं फक्त आरसा दाखवण्याचं काम केलं होतं. गंगाधरपंत पटकन म्हणाले, “अं, कुठं काय? काहीच नाही. असाच बसलो होतो.”

सुलोचना त्यांचं अंतरंग ओळखून होती. ती हसत हसत म्हणाली, “आता जास्त विचार करत बसू नका. लवकरच आपल्या कुटुंबात आणखी एका सदस्याची भर पडणार आहे, आहात कुठे आजोबा? झोपा आता.” ही आनंदाची बातमी ऐकून गंगाधरपंतांना त्या रात्री शांत झोप लागली. 

एक नवी सकाळ. गंगाधरपंतांना अंतर्बाह्य बदलून गेली. ते सकाळच्या प्रहरी फिरायला जायला लागले. लवकरच त्या भागातल्या प्रभात मंडळाचे सदस्य झाले. वेगवेगळ्या मतांचे विचारमंथन त्यांच्या कानावर पडत होते. कित्येक दिग्गज लोकांच्या अनुभवाचा खजिना त्यांच्यासमोर रिता होत होता. आत्ममग्न झालेल्या गंगाधरपंतांना नकळत स्वत:चं खुजेपण जाणवत होतं, त्यामुळे हळूहळू ते विनम्र होत चालले होते. 

एके दिवशी सकाळी मंडळाच्या बैठकीत एक तरुण आला आणि हात जोडत म्हणाला, ‘मी विनय. माधवरावांचा मुलगा. बाबा काल पुण्याला गेले आहेत. येत्या सहा डिसेंबरला आईबाबांच्या लग्नाचा पन्नासावा वाढदिवस आहे. आम्ही त्या निमित्ताने हॉटेल ओपलमधे एक सोहळा आयोजित केला आहे. कृतज्ञता सोहळाच म्हणा हवं तर. सर्वांचेच आईबाबा मुलांच्या भवितव्यासाठी झटत असतात. माझे आईबाबा मात्र आजही आमचं जीवन सुसह्य करण्यासाठी प्रयत्न करत असतात. ते दोघे आमच्यासाठी आधारवड बनून ठामपणे उभे आहेत. तुम्हा सर्व ज्येष्ठ मंडळींनी त्या दिवशी अवश्य उपस्थित राहून आईबाबांना सरप्राइज द्यावं, अशी विनम्र प्रार्थना. मंडळाच्या नावे हे निमंत्रण.’ 

निमंत्रण अगत्याचं होतं. वेळ दुपारची होती. मंडळाचे सदस्य एका ठिकाणी जमले. दोन जाडजूड पुष्पहार घेऊन हजर झाले. माधवरावांच्या मुलाने आणि सुनेने त्यांचं अगत्याने स्वागत केलं. माधवरावांना मंडळाच्या सदस्यांची उपस्थिती अनपेक्षित होती. ते हरखून गेले. कार्यक्रमात मुलगा-सून, कन्या-जावई, नातवंडं यांचा उत्साह ओसंडून वाहत होता. प्रीतीभोजनाचा आस्वाद घेऊन सगळेच जण घरी परतले.

दुसऱ्या दिवशी माधवराव सकाळी मंडळाच्या मीटींगला हजर झाले. सगळ्याच सदस्यांनी त्यांच्या मुलाचं आणि सुनेचं कौतुक केलं. गंगाधरपंत म्हणाले, “माधवराव, तुम्ही भाग्यवान आहात. तुमचा मुलगा आणि सून खूपच चांगले आहेत.”

माधवराव काहीसे गंभीर होत म्हणाले, “होय. ते दोघे खूप चांगले आहेत. आपण जन्मदात्या मातापित्यांचा प्रत्येक शब्द झेलत होतो. आता तो जमाना संपला. आजचं एक कटु सत्य सांगू का? आज प्रत्येक नात्यात तुम्हाला ‘युटिलीटी’ म्हणजे तुमची उपयोगिता सिद्ध करावी लागते. आपण त्यांच्याशी चांगले वागलो तरच ते आपल्याशी चांगले वागतात. जुनं फर्निचर जास्त कुरकुर करायला लागलं की आजकाल लगेच मोडकळीत टाकतात. तसंच जास्त कुरकुर करणाऱ्या आणि उपयोगिता नसलेल्या आईवडिलांना देखील नाईलाजाने वृद्धाश्रमात पाठवलं जातं.”

माधवरावांच्या बोलण्याने सगळेच जण गंभीर झाले. माधवराव पुढे म्हणाले, “मित्रांनो, आजकाल मुलगा आणि सून दोघेही नोकरी करतात. आजच्या जीवघेण्या स्पर्धेत त्यांना तिमाही टार्गेट्सच्या चक्रात अक्षरश: पिळून निघावं लागतं. लठ्ठ पगार मिळतो पण त्यांना तणाव नावाच्या राक्षसाशी दोन हात करावे लागतात. ऑफिसातल्या ताणतणावाने ते पार थकून जातात. घरी आल्यावर तुमच्यामुळे कटकटी होत असतील तर ते कसे सहन करतील? 

त्यांना पोटापाण्यासाठी ऑफिसातले ताणतणाव टाळता येत नाहीत. मग नाईलाजाने तुम्हाला दूर करण्याशिवाय त्यांच्याकडे दुसरा पर्याय नसतो. एवढंच सांगतो, सावध व्हा. त्यांच्यावर बोजा बनून न राहता शक्य असेल तेवढी मदत करा. घरी कामवाल्या बायका असतात त्यांच्या कामावर लक्ष ठेवा. सांसारिक कटकटीतून त्यांना मुक्त करा. बाजारहाट करायचं काम आनंदाने करा. नातवंडांना सांभाळा. घरातलं वातावरण शक्य तेवढं आनंदी ठेवा. मग बघा, हे जुनं फर्निचरच ते अ‍ॅंटिक पीस म्हणून अभिमानाने जपतील. कधीच वृद्धाश्रमात जायची वेळ येणार नाही.” त्यावर सर्व सदस्यांनी उत्स्फूर्तपणे टाळ्या वाजवल्या.

हल्ली घरात लागणारं सामान गंगाधरपंत ऑनलाईन ऑर्डर करून घरपोच मागवून घेत होते. संध्याकाळी सुलोचनेसोबत समोरच्या बागेत फिरायला जात होते. माघारी येताना ताज्या भाज्या आणि फळे घेऊन येत होते. ऑफिसातून सून घरी येताच, तिला फळांचा बाऊल देवून दूध पिण्यासाठी आग्रह करत होते. ‘मानसी बेटा, आपल्या तब्येतीची काळजी घे, ’ असं वारंवार सांगत होते.

 गंगाधरपंतांचं हे नवं रूप पाहून सुलोचना हरखून गेली. गंगाधरपंत त्या रात्री भावविवश होत सुलोचनेला म्हणाले, “सुलु, या जगात तुझ्या इतकं मला समजून घेणारं कुणीही नाही. तू मला कधीही सोडून जाणार नाहीस म्हणून वचन दे, अगदी देवानं बोलवलं तरी!”

सुलोचना पंतांच्या हातावर हात ठेवत म्हणाली, “पंत, वचन देते. मी तुम्हाला सोडून कुठेही जाणार नाही. मग तर झालं?” 

सुलोचनेचा हातात असलेला हात दाबत गंगाधरपंत हळूच म्हणाले, “सुलु, आजपासून अख्खं राज्य तुझंच ! यापुढे सगळं काही तू म्हणशील तसंच होईल.”

त्यावर सुलोचना खळखळून हसली आणि खट्याळपणे म्हणाली, “पंत, तुम्ही म्हणाल तसं….!”

— समाप्त —

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “शुभेच्छा…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

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☆ “शुभेच्छा…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

तसं तर परिस्थिती जरासुध्दा बदललेली नसते …. तारीख नुसती बदलते..

चोवीसचं पंचवीस झालं .. .. वाटतं की नवीन वर्ष आलं…. नवीन वर्ष आलं..

 

काय झालं बरं वेगळं… अगदी काही नाही…

जरा विचार केला की लक्षात येतं दिवस येतात आणि जातात..

आपणच आपल्याला समजून घ्यायचं…..कारण बाकी कोणी घेत नाही..

शहाण्यासारखं वागत राहायचं….. आपल्या परीने…

कालच्या चुका आज करायच्या नाही असं निदान ठरवायचं तरी .. .. उद्याची फारशी काळजी करायची नाही… भरपूर काम करायचं …. कष्ट करायचे..

मुख्य म्हणजे….. कशाची आणि कोणाकडून अपेक्षा करायची नाही..

झालं .. इतकंच तर असतं…..

नूतन वर्षाच्या वास्तव शुभेच्छा ……

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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