हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 573 ⇒ डेविड मैनुअल (David Manuel) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डेविड मैनुअल (David Manuel)।)

?अभी अभी # 573 ⇒ डेविड मैनुअल (David Manuel) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बैंकिंग की दुनिया में मेरा वास्ता केवल मैन्युअल ऑफ इंस्ट्रक्शंस से ही पड़ा था, जो हमारे लिए गीता, बाइबल, कुरआन ही नहीं, बैंकिंग उद्योग का एक तरह से संविधान ही था। बस हमने बैंक ज्वॉइन करने के पहले सिर्फ इस संविधान की शपथ ही नहीं ली थी, लेकिन हम पूरी तरह से इसके लकीर के फकीर थे।

हमारी शाखा में एक जीता जागता मैनुएल और था, जिसका नाम डेविड मैनुअल था। एक हड्डी का, जवानी में बुजुर्गियत ओढ़े यह शख्स सिर्फ अंग्रेजी बोलना ही जानता था। मेन्यूअल ऑफ इंस्ट्रक्शंस और मिस्टर डेविड मैनुएल की अंग्रेजी एक जैसी थी, जिसे समझना हिंदीभाषी कर्मचारियों के लिए टेढ़ी खीर था।।

फिर भी जिस तरह हम हिंदी भाषी, टूटी फूटी अंग्रेजी से काम चला लेते हैं, मिस्टर डेविड भी टूटी फूटी हिंदी से काम चला ही लेते थे। यह तब की बात है, जब दफ्तरों में पान और धूम्रपान वर्जित नहीं था। मिस्टर डेविड भी एक चैन स्मोकर थे, और जरूरत पड़ने पर किसी डेली वेजेस के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से टूटी फूटी हिंदी में पुचकारते हुए, दो रुपए का नोट थमाकर, बाहर पान वाले से, दो विल्स और एक पान लाने का आग्रह करते थे। वह जब आदेश का पालन कर, बाकी पैसे लौटाने लगता, तो दरियादिली से कहते, कीप द चेंज। काम की अंग्रेजी हर भारतीय को आती है, वह खुश हो जाता।

अफसर हो अथवा क्लर्क, मिस्टर डेविड की धाराप्रवाह अंग्रेजी के बोझ से हमेशा दबे रहते, और फिर भी अपना रौब झाड़ने के लिए पूरा जोर लगाकर उन्हें अंग्रेजी में डांटने का प्रयास करते, जिसे मिस्टर डेविड अंग्रेजी में कोई घटिया सा जोक सुनाकर निष्प्रभावी कर देते। जोक हंसने के लिए होता है, इसलिए समझने वाले और नहीं समझने वाले दोनों, जोक पर हंस देते।।

मिस्टर डेविड मैनुएल कॉन्वेंट रिटर्न थे इसलिए उनका उच्चारण आम हिंदी भाषियों से अलग और परिष्कृत था। फिर भी वे हिन्दी प्रेमी थे, और एक आम नागरिक की तरह हिंदी और अंग्रेजी दोनों गालियों का बराबर प्रयोग करते थे। पूरे अंग्रेजी वाक्य में केवल हिंदी गालियों को इतना सम्मान देना, आसान नहीं। थ्री चीयर्स टू मिस्टर डेविड।

चीयर्स से याद आया, एक बरसात की शाम मिस्टर डेविड मुझसे बाजार में टकरा गए, और मुझे चाय का न्यौता दे बैठे। मुझे एक चाय की गंदी सी दुकान पर बैठाकर वे अचानक उठकर बाहर चले गए, और जब बाहर आए, तो उनके हाथ में एक बीयर की बोतल थी। मैं नहीं जानता था, उनकी चाय की परिभाषा। जब उन्होंने दो ग्लास और कुछ ठंडे भजिए बुलवाए, तो मैंने उनकी चाय पीने से मना कर दिया। उसी समय, मैं उनकी निगाह से गिर गया।।

इतना ही नहीं, पास की टेबल पर एक सज्जन को उल्टी हो गई, जिसे देख हमारे मित्र भी हड़बड़ा गए और उनकी बीयर की बोतल धक्का लगने से जमीन पर गिर, चकनाचूर हो गई। मुझे अफसोस हुआ कि मैने उनका मजा किरकिरा कर दिया। मैने आग्रह किया, मैं दूसरी बोतल ले आता हूं, लेकिन वे नहीं माने, और कसम खा ली कि कभी आगे से आपके साथ “चाय” नहीं पीऊंगा।

कल ही मिस्टर डेविड मैनुएल का जन्मदिन था, मैने विश किया, तो अनायास ही ४० वर्ष पुरानी दर्दनाक दास्तान याद आ गई। उम्र का असर उनकी अंग्रेजी पर भी पड़ गया है, अब वे केवल हिंदी में बात करते है हैं। बस इतना ही बोले, जिंदा हूं। आप कैसे हो शर्मा जी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #244 ☆ मन पर दोहे… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपके – मन पर दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 244 ☆

☆ मन पर दोहे… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

तन का राजा मन सदा, जिसके हैं नवरंग

उसके ही आदेश से, करें काम सब अंग

*

मन टूटा तो टूटता, अंदर का विश्वास

रखें सुद्रण मन को सदा, मन से बंधती आस

*

मन चंचल मन वाबरा, मन की गति अंनत

पल में ही वह तय करे, जमी-गगन का अंत

*

जो अंकुश मन पर रखे, मन पर हो असवार

उसका जीवन है सफल, रखे शुद्ध आचार

*

रखें साथ तन के सदा, मन को भी हम साफ

तभी बढेगा जगत में, स्वयं साख का ग्राफ

*

ध्यान योग अभ्यास से, मन पर रखें लगाम

तभी मिलेगी सफलता, बनते बिगड़े काम

*

मन रमता संसार में, मन माया का दास

मन के घोड़े भागते, लेकर लालच, आस

*

दूर करें मन का तिमिर, मन में भरें उजास

रोशन हों सुख-दुख सभी, अंतस प्रभु का वास

*

मन को निर्मल राखिए, कभी जमे नहिं धूल

मन मैला तो कर्म भी, बनें राह के शूल

*

जीवन के सुख-दुख सभी, मन के हैं आधार

छिपे न मन से कुछ कभी, मन के नैन हजार

*

मन के पीछे भागकर, खोएं मत “संतोष”

तभी मिलेगी सफलता, रखें ज्ञान का कोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 239 ☆ कष्टाची किंमत… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 239 – विजय साहित्य ?

☆ कष्टाची किंमत ☆

(काव्यप्रकार अष्टाक्षरी.)

आंबा चिंच ,जांभुळाची ,

बांधावर झाडी दाट.

बेल,पिंपळ, उंबर,

दावी गायरान वाट. १

*

रामफळ,भोकराने ,

दिली अवीटशी गोडी.

बोर,डाळींब,आवळा ,

नाचे‌ राघू‌‌ मैना जोडी. २

*

पिके नगदी घेताना ,

सोनं  देई काळी माती.

ज्वारी,बाजरी पिवळी,

तेलबिया ,डाळी, हाती.३

*

भुईमुग, कापसाचा ,

आगळाच असे थाट.

मळ्यातल्या पाटावरी,

ऊस वाढे घनदाट.४

*

शालू हिरवा नेसून ,

साद घाली लेकराला.

मोती घामाचे लावती,

शिरपेच वावराला.५

*

जितराब दावणीचं,

जिवलग जोडीदार.

दुध दुभत्याने मिळे,

रोज अमृताची धार.६

*

भाजी भाकरीची गोडी,

नाही येणार कश्याला.

कळे कष्टाची किंमत,

तुझ्या नाजूक खिश्याला.७

*

देई जिवाला या जीव,

गडी माणूस राबता.

गुळपाक पोळीमध्ये,

सण थांबतो नांदता.८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वाद संवाद… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

? कवितेचा उत्सव  ?

☆ वाद संवाद सुश्री नीलांबरी शिर्के 

निरोगी निरामय

जगण्यासाठी

नको पाहणे

केवळ स्वाद

*

सुखी आनंदी

रहायचे तर

नसावा कधी

कोणाशी वाद

*

आरोग्यास्तव

 आपणासाठी

षडरस परीपूर्ण

आहार हवा

*

 मन निरोगी

आनंदी रहाण्या

 वाद नको पण

 संवाद हवा

*

 नसेल साधत

 जर संवाद

 सोडवून स्वतःला

 दूर व्हावे अलगद 

 

 

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ चष्मा… ☆ डॉ. शैलजा करोडे ☆

डॉ. शैलजा करोडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “चष्मा…” ☆  डॉ. शैलजा करोडे

चष्मा चाळीशीचा डोळी

देई प्रौढत्व जाणीव

अनुभव समृद्धिची

भासू ना देई उणीव

*

धुसरले जग सारे

चष्मा सुस्पष्ट करते

अनुभव संपन्नता

जीवनाचे धडे देते

*

सल्ला द्या नवपिढीस

सक्ती मात्र ती नसावी

जुन्या नव्या संगमाची

कास नेहमी धरावी

*

काळ वेळ बदलते

बदलते जग सारे

चष्मा नंबर बदला

दिसतील तेज तारे

*

रंग बिरंगी गाॅगल

दावी दुनिया रंगीन

सकारात्मकता मग

होऊ ना देई मलीन

*

चष्मा घोड्याचा लावून

नाही जगावे जीवन

माणुसकी चष्मा लावा

तत्व जाणावे गहन

© डॉ. शैलजा करोडे (काव्यशलाका)

नेरुळ नवी मुंबई मो. 9764808391

ईमेल – [email protected] 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “चल उड़ जा रे पंछी… समय हुआ बेगाना…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “चल उड़ जा रे पंछी… समय हुआ बेगाना…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

हीच आता आपल्या आयुष्याची दोरी आहे बरं… पहाटेचं तांबडं फुटल्या पासून अखंड दिवसभर पंख पसरून निळ्याशार आकाशात गगन विहार करत राहता येईल.. पण संध्याकाळी तांबुस किरमीजी किरणांचा सडा सांडल्यावर आपल्या सगळ्यांना या दोरीवरच रात्रीचा आसरा घेण्यासाठी हीच एकमेव आता जागा शिल्लक राहिली आहे… थोड्या दाटीवाटीने राहायला लागणार आहे ,पण त्याला इलाज नाही… आता पूर्वीसारखं सुटसुटीत स्वतंत्र घरट्यात राहायची लागलेल्या सवयीला बदलावं लागणार आहे.. कारण आता काळ फारच झपाट्याने बदलत चाललाय बरं.. शहरातील वनराई ची हिरवीगार जंगल भुईसपाट करून तिथं आता सिमेंटच्या टोलेजंग जंगलांची व्याप्ती वाढत चालली असल्याने आपली म्हणणारी झाडांची कत्तल करण्यात आली… ती माणसांची जमात आपली घरं बांधताना आपल्याला बेघर करून राहिली… त्यामुळे आपण आता आपलं छप्परच काय पण दुपारच्या कडक उन्हात झाडाच्या सावलीला सुध्दा मुकलोय.. पोट भरण्यासाठी चारापाणी दाण्यासाठी शहरभर उंच उंच उडत जातोय… पण अन्नाचा कण फारच क्वचित ठिकाणी दिसून येतो… आणि जिथे तो दिसतो तिथं तर आपल्याच जातभाईंची झुंबड उडून गेलेली बघावी लागते… कुणाचं एकाचं तरी अश्याने पोटभरत असेल कि नाही.. काही कळत नाही.. जिथं मोठ्यांची ही कथा तिथं कच्चीबच्ची पिलांना कोण आणि कसं पोसणारं… काळ फारच वाईट आलाय… आपल्या जगण्यावर गदा आलीय.. भुकबळी, तहानबळी आणि दिवसरात्र उन्हाळा पावसाळा नि हिवाळा असं उघड्यावर राहणं आपलं जगणचं संपवून टाकायला लागला.. आपली संख्या रोडावत चाललीय.. आता तो दिवस दूर नसेल इतिहासात नोंद असेल या धरेवर पक्षी गणांचं कोणेऐकेकाळी वास्तव्य होतं… बस्स इतकाच दाखला शिल्लक राहील.. तेव्हा आता आपण जितके आहोत तितके एकत्र राहणे हेच श्रेयस्कर राहील… या दोरीवरच सध्या आपला कठीण काळ कंठावा लागेल… त्या माणूस नावाचा स्वार्थी प्राण्याने स्वताची जमात वाढवत वाढवत गेला नि या वसंधुरेचा, निर्सगाचा र्हास करत सुटला.. ना हवा शुद्ध राहीली ना पाणी… त्याला स्वताला देखील यासाठी खूपच धावाधाव करावी लागत आहेच… मुबलक होतं तेव्हा त्याने नुसती नासाडीच केली. जे जे आयतं मिळत गेलं ते ते नुसतं ओरबाडत गेला… त्याचं भवितव्य उजाडत गेलं नि आपलं मात्र उजाडलं गेलं… कधी भविष्यातील पिढीचा विचार त्यानें केलाच नाही… ना स्वताच्या ना इतर प्राणांच्या.. माणूसकीला कधीच हद्दपार करून बसलेला भूतदयेला कितीसा जागणार म्हणा… आणि मगं भोगावी लागताय त्या दुष्परिणामांची फळं त्याच्याबरोबर विनाकारण आपल्याला… जो चोच देतो तो चारा देखील देतो हे कोरडं तत्वज्ञान ठरलयं आताच्या या काळात.. त्या माणसाचा अलिकडे काही भरंवसाच देता येत नाही.. कुठच्या क्षणाला कसा वागेल ते देवाला देखील सांगता येणार नाही… आता हेच बघा ना ज्या दोरीवर आपण बसलोय ती आपल्या आधाराची जरी असली तरी खऱ्या अर्थाने ती आपल्या आयुष्याची दोरी आहे बरं.. ती कुठून कशी तुटेल, तो माणूस कधी तोडेल,हे काही सांगता यायचं नाही.. ती तशी तुटलीच तरी आपल्या जीवाला धोका असणार नाही.. आपण लगेच सावधगिरीने हवेत पंख पसरून विचरू लागू… मात्र मागच्या पानावरून पुढच्या पानावर आपलं विस्थापिताचं पुन्हा नव्याने जगणं सुरू होताना किती जण मागे उरतील हे त्या परमेश्वरालाच माहीत असेल…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सिंहावलोकन… ☆ सुश्री अपर्णा परांजपे ☆

सुश्री अपर्णा परांजपे

🌳 विविधा 🌳

☆ ✍️ सिंहावलोकन… ☆ सुश्री अपर्णा परांजपे

वर्षे येतील व जातील हे कालचक्र आहे. होते आहे व रहाणार आहे यात आपल्याला काय गवसलं हे महत्त्वाचे आहे.

प्रयत्नाचे फळ निश्चित मिळते. प्रयत्न विचार व‌ कृतीतून घडतात‌. इच्छित फळ मिळाले तर आनंदी आनंद पण नाही मिळाले तर निराशा, दुःख! फळाच्या परिणामाची शाश्वती नाही. व आनंद जरी मिळाला तरी तो टिकणारा असत नाही त्यामुळे खरे समाधान मिळणे ही आजच्या क्षणाची आवश्यकता ओळखून निश्चय करणे हाच काळावर मिळवलेला विजय असतो‌, अन्य कोणताही उपाय नाही.

प्रयत्न करणे व ते करत असतांनाच आनंद घेणे हा वेळेचा सदुपयोग आहे. येणारा परिणाम दुय्यम स्थानी ठेवल्यास त्यातून मिळणाऱ्या आनंदाचा  किंवा दु:खाचा परिणाम मनावर होणार नाही. सततच समाधान उपभोगता येईल हे जाणवणे म्हणजे स्थिरता प्राप्त होणे आहे.

*

“विचाराइतके देखणे काहीच नाही”

“एक दाणा पेरता मेदिनी माजी कणीस होते”..

*

✍️तो माझा अन् मी त्याची  दुग्धशर्करा योगच हा

मनी वसे ते स्वप्नी दिसे भगवंताचा खेळच हा…

*

“सोहम् सोहम्” शिकवून मजला धाडियले या जगतात

“कोहम् कोहम्” म्हणोनी अडलो उगाच मायापाशात..

*

अंतर्चक्षू प्रदान करुनी रूप दाविले हृदयात

कमलपत्र निर्लेप जसे नांदत असते तीर्थात..

*

सुखदुःखाची जाणीव हरली, ईश्वर चरणी भाव जसा

तसेच भेटे रुप तयाचे,गजेंद्राशी विष्णू तसा …

*

महाजन, साधूळ संत सज्जन काय वेगळे असे तिथे?

प्रेमाची पूर्तता व्हावी, हे ध्येय निश्चित तिथे…

*

“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः”।

वचन तुझे रे अनुभव घ्यावा, हीच आस रे तुझी पहा…

*

निजानंदी रंगलो मी तव हृदयाशी भेटता

आतच होता,आहे,असशी जाणीव याची तू देता…

*

कृतार्थ मी अन् कृतार्थ तू ही जन्माचा या अर्थ खरा

आनंदाचा कंद खरा तू (मम)हृदयाचा आराम खरा…

*

कृष्ण सखा तू, रामसखा तू प्रेमाचा अवतार सख्या

अयोनिसंभव बीज अंकुरे सात्विक, शुध्द हृदयी सख्या..

*

प्रशांत निद्रा प्रशांत जीवन देहात पावले मज नाथा

प्राणांवर अधिराज्य तुझे रे केशव देतो (जसा)प्रिय पार्था…

*

आदीशक्ती अंबाबाई शक्तिरुपाने वसे इथे

त्याच शक्ती ने जाणीव होते भगवंत असे जेथे…

*

भगवंत हृदयस्थ आहे 🙏

© सुश्री अपर्णा परांजपे

कात्रज, पुणे

मो. 9503045495

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तुम्ही म्हणाल तसं… – भाग – १ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

☆ तुम्ही म्हणाल तसं…  भाग – १ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

गंगाधर पदवीधर झाले. मूळ गावापासून दूर, जिल्ह्याच्या सरकारी कचेरीत कारकून म्हणून रुजू झाले.

मुळात गंगाधर यांचं बालपण कडक शिस्तीत गेलं होतं. त्यांचे वडील म्हणजे जमदग्नीचा अवतारच होते. नोकरीचं निमित्त झालं आणि एका अर्थाने गंगाधर वडिलांच्या दडपणातून मुक्त झाले. यथावकाश लग्न उरकलं. पत्नी म्हणून सुस्वरूप, संस्कारी सुलोचना लाभली. राजाराणीचा संसार होता. गंगाधर ‘सुलु, सुलु’ करत तिच्या मागे मागे असायचे. तिच्याशिवाय त्यांचं पानही हलायचं नाही. हे जरी खरं असलं तरी पित्याकडून मिळालेला एकमेव वारसा, ‘एकाधिकारशाही’ ते कसे विसरणार? त्यांच्या शब्दाला नाही म्हटलेलं त्यांना अजिबात खपायचं नाही.

 सुलोचना मात्र एकत्र कुटुंबातील आणि चारचौघात वावरलेली व्यवहारी कन्या होती. तिने गंगाधरांच्या कलानेच घ्यायचं असं ठरवलं. गंगाधराच्या प्रत्येक निर्णयाला ‘पंत, तुम्ही म्हणाल तसं.. ’ ह्या नमनानेच ती सुरुवात करायची. ‘पंत’ म्हटलं की गंगाधर खुलून जायचे. त्यानंतर, ‘पण मी काय म्हणते.. ’ असं म्हणत ती त्यावरचे पर्याय सुचवायची. विविध फायदे सांगून झाल्यावर तिचं शेवटचं पालुपद असायचं, ‘पंत, मी फक्त सुचवायचं काम केलं. माझा आग्रह नाही. अर्थात अंतिम निर्णय तुमचाच. ’ ही मात्रा लागू पडली.

 घरातल्या कुकरपासून फ्रीजपर्यंत सगळ्याच वस्तु सुलोचनेच्या मनाप्रमाणेच घेतल्या गेल्या. एवढंच काय, तर मुलांच्या अ‍ॅडमिशन कुठल्या शाळेत घ्यायच्या, इथपर्यंतचे सगळे निर्णय कसलाही वादविवाद न होता सुलोचनेच्या मनाप्रमाणेच घडत गेले. सुलोचनेची ही शिताफी मात्र गंगाधरांच्या कधीच लक्षात आली नाही.

 गंगाधरपंतांना सदासर्वदा साहेबांच्या समोर मान खाली घालून ‘हांजी हांजी’ करत निमूटपणे सगळं ऐकावं लागायचं. त्यामुळे कचेरीत दाबून ठेवलेले मानापमानाचे कढ घरातल्या लोकांच्या समोर उफाळून यायचे.

 मुलं मोठं होत गेली तसं त्यांना गंगाधरपंतांचे वागणं खटकत राहायचं. सुलोचना मात्र वडील आणि मुलांच्यामधे एक सुंदर दुवा बनून राहिली. त्या नात्यांत कुठलीच कटुता येऊ नये म्हणून ती काळजी घेत राहिली. ‘हे बघा, बाबा तुम्हाला रागावत असतील, पण तुमच्याविषयी त्यांना खूप कौतुक आहे. प्रसंगी ते स्वत:कडे दुर्लक्ष करतात, पण सदैव तुमच्या भवितव्याचा विचार करत असतात. तुम्हाला ते कधी काही कमी पडू देत नाहीत ना? मग जास्त विचार करू नका. तुम्ही फक्त अभ्यासात लक्ष घाला. ’ असं ती मुलांना सांगत राहायची.

 अधूनमधून ती गंगाधरपंताना ऐकू जाईल असं पुटपुटायची, ‘माझं नशीबच थोर म्हणायचं बाई. मुलं ह्यांच्या बुद्धिमत्तेवर गेली म्हणून बरं आहे. उत्तम गुणांनी तर उत्तीर्ण होताहेत. माझ्यावर गेली असती तर… ह्यांनी काय केलं असतं, ते देवच जाणे!’ हे ऐकल्यावर, पंतांचा मुलांवरचा राग थंड व्हायचा.

 गंगाधरपंत असंच एकदा मूडमध्ये असताना म्हणाले, ‘बरं का, सुलु. माझे सगळेच मित्र एकजात जोरू के गुलाम आहेत साले. मी त्यांना सांगतो, लेको माझी बायको सुलोचनेकडे बघा. ती माझ्या शब्दाच्या बाहेर नाही. मी सांगेल त्याला ‘तुम्ही म्हणाल तसं’ म्हणत असते. ’ त्यावेळी सुलोचना गालातल्या गालात हसली. तिला पंतांचा भ्रमाचा भोपळा फोडायचा नव्हता.

 बघता बघता पुलाखालून बरंच पाणी वाहून गेलं. लेक सुचेता लग्न होऊन सासरी गेली. दिल्या घरी सुखी होती. कारण सुचेताचे सासू सासरे गाव सोडून शहरात यायला अजिबात तयार नव्हते. तीच त्या घरची राणी होती.

 यथावकाश मुलगा अमेय उत्कृष्ट गुणांनी इंजिनियर झाला. चांगली नोकरी मिळाली. लवकरच कंपनीतल्या एका स्वरूप सुंदर मुलीशी विवाहाचा त्यांने प्रस्ताव मांडला. त्या स्थळात जागा ठेवण्यासारखं काहीच नव्हतं. लग्न यथासांग पार पडले.

 त्याच महिन्याभरात गंगाधरपंत हेडक्लार्क म्हणून सेवानिवृत्त झाले.

साहजिकच सुलोचनेचं लक्ष गंगाधरपंतावरून अमेय आणि सून मानसीकडे केंद्रित झालं. ती सकाळी त्यांच्यासाठी न्याहरीच्या तयारीत असायची. अमेय आणि मानसी दुपारचं जेवण कंपनीच्या कॅन्टिनमधेच घेत असत. सदैव केंद्रस्थानी असलेल्या गंगाधरपंताना आपल्याकडे उपेक्षा होत असल्याच जाणवत होतं.

 एके दिवशी गंगाधरपंत कुठल्यातरी कारणावरून अमेयला आणि सुलोचनेला डाफरत होते, तेव्हा मानसीने त्या दोघांची बाजू घेऊन त्यांना तिथंच गप्प केलं. गंगाधरपंत संध्याकाळी नुकतेच फिरून येऊन कोचवर बसले. आजूबाजूला कुणीही नसल्याचं पाहून, मानसी त्यांना चहाचा कप देत म्हणाली, “बाबा, सकाळी मी जे काही बोलले होते त्याबद्दल मला माफ करा. ” हे ऐकताच गंगाधरपंतांचा राग निवळला.

 मानसी लगेच पुढे म्हणाली, “बाबा, खरं तर त्यात तुमची काहीच चूक नाही. खरी चूक सासूबाईंची आहे. मुळात तुमच्या एकाधिकारशाहीला आणि एककल्ली प्रवृत्तीला त्याच जबाबदार आहेत. तुमच्या प्रत्येक गोष्टीला ‘तुम्ही म्हणाल तसं.. ’ असं म्हणत त्या तुमच्या अहंकाराला वारा घालत गेल्या. त्यामुळे कधीकाळी या घरात वादळ उठेल ह्याची त्यांना कल्पनाही नसावी. सासूबाईंनी इतकी वर्ष तुम्हाला खपवून घेतलं असेल. जर काहीही चूक नसताना, तुम्ही कुणाला काही बोललात तर मी ते खपवून घेणार नाही. आताच सांगून ठेवते, तुम्ही सुखात राहा, आम्हालाही सुखाने राहू द्या. “

 सुनेचं असं अनपेक्षित बोलणं ऐकून गंगाधरपंत क्षणभर चक्रावून गेले. त्यांच्या तोंडातून एक ब्र शब्दही फुटला नाही. गार झालेला चहा त्यांनी तसाच घशात ओतला. दाराआडून संभाषण ऐकत उभ्या असलेल्या सुलोचनेला मनस्वी आनंद झाला. गंगाधरपंत खोलीत यायच्या आतच ती कपाळाला बाम चोळून झोपेचं सोंग घेत बेडवर जाऊन पडली.

 गंगाधरपंत बेडरूममधे आले. आजवर दिवेलागणीच्या वेळी कधी सुलोचना झोपल्याचं त्यांना आठवत नव्हतं. त्यांनी हळूवारपणे तिच्या कपाळाला हात लावला आणि बराच वेळ तिथल्या खुर्चीत विचार करत बसून राहिले. ‘माझ्यासारख्या एककल्ली माणसाला सुलोचनेनं इतकी वर्षे कसं सहन केलं असेल? स्वत:चं मन मारून ‘तुम्ही म्हणाल तसं’, असं म्हणत, दुसरं कुणी माझ्याशी संसार केला असता का? कसल्याही गोष्टीचा त्रागा नाही. आदळआपट नाही. या उलट ती मला समजून घेत शांत करत आलीय. मुलांच्यावर संस्कार करण्याचं काम आणि त्यांच्या शिक्षणाची संपूर्ण धुरा तिनं एकटीने सांभाळली आहे. ती नसती तर.. ?’

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-१४ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

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☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-१४ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

बखळ, आळी, आणि बागा —

‘बोळ ‘ बंधूंचा आप्तस्वकीयांचा पसारा मोठा होता, बोळांना बऱ्याच बहिणी होत्या त्यावेळी बोळ पुढे बंद होत असेल, तर तो बोळ नसून त्याला ‘बखळ’ म्हणायचे. अहिल्यादेवीकडून शनिवारवाड्याकडे आम्ही जायचो ती होती हसबनीस बखळ. टिळक रोड जवळ स्काऊट समोरची म्हणजे (सध्याचं उद्यान प्रसाद कार्यालय) 1957 पूर्वी तिथे इचलकरंजीकरांची बखळ होती. पुण्यातले बोळ प्रसिद्ध होते तशा ‘आळ्या’ही अनेक होत्या. लोणीविके दामले आळी, गाय आळी, शुक्रवारांतील शिंदे आळी, त्याच रस्त्याने थोडं पुढे गेलात ना! की मग तुम्हाला लागेल खडक माळ आळी. गणपतीच्या दिवसात पायांचे तुकडे पडेपर्यंत पहाटे चार वाजेस्तोवर गणपती पहायला प्रत्येक बोळ् आणि अगदी आळीतले सुद्धा गणपती बघायला आम्ही भटकत होतो. या खडक माळ आळीचा भव्य दिव्य गणपती बघताना डोळे विस्फारायचे. कसब्यातील तांबट आळी अगदी डोकं उठवायची. कारण तांब्याची मोठमोठी सतेली, पातेली, टोप, बंब, अशी ठोक्याची भांडी, ते बनवणारे कारागीर कानात बोळे न घालता ठोक ठोक करून ठोकायची. बुधवारातील दाणे आळी, आणि हो विशेष म्हणजे तिथे एकही शेंगदाणा मिळायचा नाही, चोरखण आळीत चोर राहतात का?असा भाबडा प्रश्न विचारल्यावर आम्हाला टप्पल मारून ‘वेडपटच आहेस ‘असा शिक्का मिळून, अग चोर नाही. चोळखण आळी म्हणायचे त्या आळीला. तिथले धारवाडी खण प्रसिद्ध आहेत. तिथेच पुढे विजयानंद टॉकीजची गवळी आळी होती. तिथे एकही गाय गोठा किंवा डेअरी नव्हती. बहुतेक सगळ्या गाई गाय आळीत गेल्या असाव्यात. पूर्व भागांत होती बोहरी आळी, तिथे मात्र बोहारणींचा तांडा जुन्या कपड्यांच्या ढीगात फतकल मारून बसलेला असायचा. नुसता कलकलाट चालायचा जसा काही मासळी बाजारच भरलाय.

तर मंडळी अशी होती ही, काळा आड लुप्त झालेल्या बोळ ‘आळ्या’ बागा आणि बखळींची ची कथा.

– क्रमशः…

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ हरवणे, सापडणे… – लेखिका : सुश्री माधुरी ताम्हाणे देव ☆ प्रस्तुती – सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर ☆

सौ. बिल्वा शुभम् अकोलकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ हरवणे, सापडणे… – लेखिका : सुश्री माधुरी ताम्हाणे देव ☆ प्रस्तुती – सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर 

सोनेरी रंगाचं टोपण असलेलं काळ्याभोर रंगाचं एक जुनं, देखणं, महागाचं फाउंटन पेन माझ्या वडिलांच्या कपाटातून मला नेहमी खुणावत असे. आपण त्या पेनाने छानसं काहीतरी लिहून बघावं असं मला फार वाटत असे. “पैसे देऊनही आता असं पेन मिळणार नाही” असं बाबांचं मत होतं. त्यांचं ते फार आवडतं पेन होतं. पण मग सातवी, आठवीत गेल्यावर मला फार आवडतं म्हणून ते पेन त्यांनी मला दिलं. आणि कसं कोण जाणे, एका शनिवारी सकाळी शाळेतून परत येताना ते पेन माझ्या दप्तरातून रस्त्यात खाली पडलं, हरवलं.

पेन हरवलं म्हणून बाबा मला रागावतील, ही माझी भीती नव्हती. बाबांचं आवडतं पेन आपल्या हातून हरवल्याचं आणि बाबांना त्याचं वाईट वाटेल याचं मला दुःख होतं. पण पेन हरवल्याचं कळल्यावर बाबा मला म्हणाले होते, “ रस्त्यात पडलं असेल तर मिळेलही कदाचित आणि समज जर नाही मिळालं, तर तू मोठी झालीस की यापेक्षा सुंदर पेन तू माझ्यासाठी आण. अशीही कोणती गोष्ट कायम टिकते? “ 

त्यांच्या या वाक्यामुळे, पेन हरवल्याच्या दुःखापेक्षा, हरवलेलं पेन परत मिळू शकतं हा आशावाद आणि आपण मोठे झाल्यावर बाबांसाठी सुंदरसं पेन आणू शकू हा बाबांनी दाखवलेला विश्वास मला उमेद देऊन गेला.

महत्त्वाची गोष्ट म्हणजे, मुलांना शाळेत सोडून परत जाणाऱ्या एका पालकांना हे पेन रस्त्यात मिळालं आणि त्यांनी ते शाळेच्या ऑफिसमध्ये जमा केलं. हरवलेलं पेन परत मिळालं.

“वस्तू हरवणे” ही कोणाच्याही आयुष्यात, कधीही घडू शकणारी एक घटना असते. आपल्या चुकीमुळे वस्तू हरवली की एक प्रकारची चुटपुट लागून राहते, काहीसं अपराधीही वाटतं. वस्तू मौल्यवान असेल तर ती आठवण कायमच स्मरणात राहते. अशावेळी वस्तू हरवणाऱ्या माणसाला, “ धांदरट, बेफिकीर” अशी विशेषणं लागू शकतात आणि ती जास्त दुखावणारी असतात. हरवणाऱ्याचा पुढे वाद घालण्याचा, आपली चूक कशी नव्हती हे सांगण्याचा हक्क जवळजवळ संपुष्टात आलेला असतो. आणि जर आपली चूक असेल तर गप्प बसण्याला पर्याय नसतो.

परंतु हरवणं या अनुभवाला इतरही सकारात्मक बाजू असतात हे मला माझ्या बाबतीत घडलेल्या पेन हरवण्याच्या घटनेवरून कळलं. लोकं चांगली असतात, शाळेच्या आवारात मिळालेले पेन त्यामुळेच परत मिळू शकलं हा चांगुलपणावरचा विश्वास तर वाढलाच, पण “ तू मोठी झाल्यावर माझ्यासाठी एक सुंदर असं पेन आण” या बाबांच्या शब्दांनी पेन हरवण्याच्या बदल्यात मला एक “स्वप्न” बक्षीस दिलं. मोठी झाले की मी माझ्या पहिल्या पगारातून, कमाईतून बाबांसाठी एक किंमती पेन विकत घेण्याचं स्वप्न त्यानंतर मी कायम बघितलं आणि ते पूर्ण झाल्याचा आनंदही घेतला.

वस्तू हरवण्याला अशा कितीतरी बाजू असतात. लाकूडतोड्याची कुऱ्हाड लाकडं तोडताना नदीत पडली म्हणजे हरवलीच. देवाने त्याला त्याच्या लाकडी कुऱ्हाडी बदली सोन्याची, चांदीची कुऱ्हाड देऊ केली. पण प्रामाणिक लाकूडतोड्याने ती नाकारली. मग देवाने त्याला त्याची हरवलेली कुऱ्हाड तर दिलीच पण सोन्याची आणि चांदीची कुऱ्हाड त्याच्या प्रामाणिकपणाचं बक्षीस म्हणून दिली. बालपणी ऐकलेली ही भाबडी गोष्ट खरी वाटो, न वाटो पण प्रामाणिक असण्याचा संस्कार करते इतकं नक्की.

इथे मला विशेषत्वाने आठवते ती फ्रान्झ काफ्का ( Franz Kafka) ची गोष्ट. आवडती “बाहुली” हरवली म्हणून रडणारी एक लहानशी, गोड मुलगी तुमच्या, माझ्यासमोर येऊन उभी राहिली, तर आपण काय करू? आपण तिची समजूत काढू, तिला नवीन बाहुली आणून देऊ. पण फ्रान्झ काफ्काने तसं केलं नाही.

काफ्का हा जर्मन कथा कादंबरीकार होता. बर्लिनच्या पार्कमध्ये फिरत असताना त्याला बाहुली हरवली म्हणून रडत असलेली एक छोटी मुलगी भेटली. त्या दोघांनी मिळून बाहुली खूप शोधली. परंतु बाहुली मिळाली नाही. काफ्काने ह्या छोट्या मुलीला दुसऱ्या दिवशी परत बाहुली शोधण्यासाठी पार्कमध्ये बोलावले.

दुसऱ्या दिवशी काफ्काने या छोट्या मुलीला बाहुलीने लिहिलेलं एक पत्र दिलं. त्यात बाहुलीने लिहिलं होतं की ती जगप्रवासाला चालली आहे. आणि ती, या प्रवासाचे वर्णन पत्रातून नियमितपणे ह्या छोट्या मुलीला लिहित राहील.

अशा रीतीने, काफ्काने बाहुलीच्या नावाने लिहिलेल्या जगप्रवासाच्या साहस कथांना सुरुवात झाली. काफ्का ही पत्रे स्वतः त्या मुलीला वाचून दाखवत असे. ज्या पत्रातील साहसकथा आणि संभाषणे त्या मुलीला आवडू लागली.

नंतर बरेच दिवसांनी काफ्काने प्रवास करून बर्लिनला परत आलेली बाहुली ( म्हणजे त्याने विकत आणलेली ) छोट्या मुलीला दिली. “ही माझ्या बाहुलीसारखी अजिबात दिसत नाही, ” मुलगी म्हणाली.

काफ्काने तिला दुसरे पत्र दिले ज्यामध्ये बाहुलीने लिहिले होते : “माझ्या प्रवासाने मला बदलले आहे. ” चिमुरडीने हरवलेली बाहुली मिळाली म्हणून तिला आनंदाने मिठी मारली आणि ती बाहुली घरी नेली. बाहुली “हरवण्याच्या निमित्ताने” छोट्या मुलीने पत्रातून जग बघितलं.

काफ्काच्या मृत्यूनंतर, आता वयाने काहीशी मोठी झालेल्या या मुलीला बाहुलीच्या खोक्यात एक पत्र सापडले. काफ्काने स्वाक्षरी केलेल्या छोट्या पत्रात लिहिले होते:

“तुम्हाला जे आवडते ते कदाचित कधी हरवले जाईल, परंतु दुसऱ्या मार्गाने ते नक्कीच परत येईल. “!!!!

काफ्काची गोष्ट इथे संपते.

हरवलेलं बालपण? हरवलेलं प्रेम? हरवलेलं रूप? असे प्रश्न पडले तर त्याची उत्तरं निसर्ग आणि ऋतू देत असतात. ऋतूंना परत बहर येत असतात. बालपण मुलं, नातवंड यांच्या रूपात आजूबाजूला वावरत असतं आणि आयुष्यातील प्रेम कधीच दूर गेलेलं नसतं. आपली माणसं असतातच आपल्या अवतीभवती, प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष ! 

– – – हे एकदा कळलं की मग हरवणं आणि सापडणं हा केवळ उन्ह सावलीचा खेळ भासतो.

लेखिका : सुश्री माधुरी ताम्हाणे देव 

संग्रहिका: सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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