हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 572 ⇒ दूर संवेदन और पूर्वाभास ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दूर संवेदन और पूर्वाभास।)

?अभी अभी # 572 ⇒ दूर संवेदन और पूर्वाभास ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या किसी की अनायास याद आना महज एक संयोग है। आज दूर संचार के माध्यमों ने हमारी वैचारिक तरंगों का स्थान ले लिया है। जब मन किया, कॉल कर लिया। जिन लोगों को कॉल से तसल्ली नहीं होती, वे वीडियो कॉल लगा लेते हैं। आज के डिजिटल इंडिया में राष्ट्र के हर नागरिक के पास संजय की दिव्य दृष्टि है।

केवल कवि की पहुँच ही रवि तक नहीं होती, जब मन के घोड़े सरपट दौड़ते हैं, तो सात समंदर पार बैठा पिया, मल्हारगंज में बैठी मानसी के मन में ऐसा समा जाता है, कि इधर खयाल आया और उधर फोन की घंटी बजी। इसे कहते हैं टेलीपेथी। ।

बड़ी उम्र है आपकी! क्या विचित्र संयोग है, अभी अभी बस आपको याद ही किया था और आप हाजिर। हिचकी को हम कभी गंभीरता से नहीं लेते। क्या किसी के महज स्मरण मात्र से हिचकी आना बंद हो सकती है। कहीं यह टेलीपेथी तो नहीं! मन पर अगर लगाम लगा ली जाए, तो बड़ा काम का है यह मन। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इसी मन की अवस्था से तो हम कभी फकीरी और कभी अमीरी का लुत्फ उठा सकते हैं।

हमारी संवेदना का स्तर जितना सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होता चला जाता है, हमारे मन के द्वार खुलते चले जाते हैं। अन्नमय, मनोमय प्राणमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोष में वह सब है, जो कुबेर के खजाने में भी नहीं। रावण और राम में बस यही अंतर है। ।

हमारा मन चेतन हो अथवा अवचेतन, आगे आने वाली घटनाओं का भी हमें पूर्वाभास होता रहता है। गणित का अध्ययन और धारणा ध्यान का मिला जुला स्वरूप ही है ज्योतिष और नक्षत्र विज्ञान। मंगल पर आप जब जाना चाहें जाएं, हम तो मंगलनाथ कल ही होकर आ गए। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी जैसी विद्याएं कहीं बाहर नहीं, हमारे अंदर ही मौजूद हैं। जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। बस इधर मन चंगा हुआ, उधर कठौती में गंगा प्रकट।

शरीर ही हमारा विज्ञान है और प्रकृति हमारी प्रयोगशाला। सभी वैज्ञानिक हाड़ मांस के पुतले ही थे, जब जिज्ञासा जुनून बन जाती है तब ही आविष्कार संभव होते हैं। ।

घर के जोगी बने रहें, अगर आन गांव में सिद्ध होने की कोशिश की, तो महात्मा बनने का खतरा है। अपनी सिद्धियों को छुपाए रखिए, उनका प्रदर्शन नहीं, सदुपयोग कीजिए, ज्ञानार्जन बुरा नहीं, ज्ञान का मार्केटिंग भ्रमित करने वाला है।

डोनेशन से एडमिशन और कोचिंग क्लासेस का ज्ञान ही आज हमारी धरोहर है, काहे की टेलीपेथी और इंटुइशन की मगजमारी।

इधर कॉल उधर तत्काल..! !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 227 ☆ बहती धारा अनवरत… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना बहती धारा अनवरत। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 227 ☆ बहती धारा अनवरत

प्रकृति में वही व्यक्ति या वस्तु अपना अस्तित्व बनाये रह सकती है जो समाज के लिए उपयोगी हो, समय के साथ अनुकूलन व परिवर्तन की कला में सुघड़ता हो। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि मुझे जो मिलना चाहिए वो नहीं मिला या मुझे लोग पसंद नहीं करते।

यदि ऐसी परिस्थितियों का सामना आपको भी करना पड़ रहा है तो अभी भी समय है अपना मूल्यांकन करें, ऐसे कार्यों को सीखें जो समाजोपयोगी हों, निःस्वार्थ भाव से किये गए कार्य एक न एक दिन लोगों की दुआओं व दिल में अपनी जगह बना पायेंगे।

निर्बाध रूप से अगर जीवन चलता रहेगा तो उसमें सौंदर्य का अभाव दिखायी देगा, क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। सोचिए नदी यदि उदगम से एक ही धारा में अनवरत बहती तो क्या जल प्रपात से उत्पन्न कल- कल ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो सकता था। इसी तरह पेड़ भी बिल्कुल सीधे रहते तो क्या उस पर पक्षियों का बसेरा संभव होता।

बिना पगडंडियों के राहें होती, केवल एक सीध में सारी दुनिया होती तो क्या घूमने में वो मज़ा आता जो गोल- गोल घूमती गलियों के चक्कर लगाने में आता है। यही सब बातें रिश्तों में भी लागू होती हैं इस उतार चढ़ाव से ही तो व्यक्ति की सहनशीलता व कठिनाई पूर्ण माहौल में खुद को ढालने की क्षमता का आंकलन होता है। सुखद परिवेश में तो कोई भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर वाहवाही लूट सकता है पर श्रेष्ठता तो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना लोहा मनवाने में होती है, सच पूछे तो वास्तविक आंनद तभी आता है जब परिश्रम द्वारा सफलता मिले।

नदियों की धारा जुड़ी, राह को बनाते मुड़ी

जल का प्रवाह बढ़ा, कल- कल सी बहे।

*

सागर की ओर चली, बन मतवाली कली

बूंद- बूंद वन- वन, छल- छल सी रहे।।

*

संगम को अकुलाई, बिना रुके चल आई

जीवन को सौंप दिया, सुकुमारी सी कहे।

*

जल बिन कैसे जियें, घूँट- घूँट कैसे पियें

शुद्धता का भाव धारे, मौन मूक सी सहे।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पसोपेश ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पसोपेश ? ?

बहुत बोलते हो तुम..

उस रोज़ ज़िंदगी ने कहा था,

मैंने ख़ामोशी ओढ़ ली

और चुप हो गया…,

 

अर्से बाद फिर

किसी मोड़ पर मिली ज़िंदगी,

कहने लगी-

तुम्हारी ख़ामोशी

बतियाती बहुत है…,

 

पसोपेश में हूँ,

कुछ कहूँ या चुप रहूँ…!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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English Literature – Poetry ☆ – ‘The Company We Keep…’ – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ ‘The Company We Keep…~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ ~ The Company We Keep~? ☆

Let good company guide us

on life’s fearsome ways,

While the evil thoughts lurk,

many a night and days…

Our friends are our noble

thoughts that keep shining,

Yet, sinister thoughts are the

enemies, always inflicting

 *

Sanctified virtuous thoughts

transform our weary lives,

Defining the ideals that go

beyond the endless skies

 *

The mind is a huge bundle of

thoughts, —wicked or fine,

Gives birth to many yields

a harvest of satanic or divine

 *

Turn your mind wholly towards God,

Let His love shine as effulgent light

Let the goal of the life, be purified

through the devotion’s might..!

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

24 September 2024

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 35 – पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 35 – पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गाँव हरिपुर में पंचायत का बड़ा आयोजन था। ऐसा कहा जा रहा था कि इस बार ‘विकास’ नामक अमूल्य वस्तु का वितरण होगा। विकास वही जादुई चीज थी, जिसे नेता जी चुनावों के दौरान दिखाते थे लेकिन बाद में वो कहीं गुम हो जाती थी। पंचायत भवन पर बैनर लगा था – “हरिपुर: आधुनिकता की ओर पहला कदम।”

सभा शुरू हुई। नेता जी आए, हाथ जोड़कर मुस्कुराए और बोले, “गाँववालों, इस बार हमने विकास का पूरा खाका तैयार किया है।” फिर वे चुप हो गए, मानो खाका दिखाना भूल गए हों। तभी पीछे से चौधरी रामलाल खड़े हुए और बोले, “नेता जी, खाका तो दिखाइए!”

नेता जी झेंप गए। बोले, “खाका अभी प्रक्रिया में है। लेकिन विकास के लिए हमने दो योजनाएँ बनाई हैं। पहली योजना है ‘हर घर पिज्जा योजना’।”

गाँववालों की आँखें चमक उठीं। पिज्जा का नाम सुनते ही बच्चा-बूढ़ा सब खुश हो गए। किसी ने पूछा, “पिज्जा का क्या मतलब है?”

नेता जी ने समझाया, “पिज्जा का मतलब है बदलाव। बदलाव का स्वाद, जिसे हर घर तक पहुँचाया जाएगा।”

सभा में तालियाँ गूँज उठीं।

दूसरी योजना थी – ‘गड्ढों में गगनचुंबी सपने।’ नेता जी ने कहा, “हम सड़कों पर गड्ढे नहीं भरेंगे। गड्ढे हमारे इतिहास की धरोहर हैं। लेकिन हर गड्ढे के बगल में एक ‘स्वप्न-झूला’ लगाएँगे।”

गाँववालों को समझ नहीं आया कि यह स्वप्न-झूला क्या है। नेता जी ने बताया, “जब आप झूले पर बैठेंगे, तो आपको ऐसा लगेगा कि आप किसी मेट्रो सिटी की सड़क पर चल रहे हैं। यह झूला सस्ती दरों पर किराए पर मिलेगा।”

सभा में हलचल मच गई। लोग आपस में कानाफूसी करने लगे। लेकिन कोई खुलकर विरोध नहीं कर पाया, क्योंकि विरोध करने वाले को नेता जी के चमचों से तुरंत ‘अविकसित’ घोषित कर दिया जाता था।

सभा के अंत में विकास का प्रतीक – ‘पिज्जा बॉक्स’ – हर सरपंच को सौंपा गया। यह पिज्जा बॉक्स असल में खाली था। नेता जी ने मुस्कुराकर कहा, “यह खाली बॉक्स हमारे सपनों का प्रतीक है। आप इसे अपने घर सजाकर रखिए, ताकि हर दिन आपको विकास की याद आए।”

सभा खत्म हुई। पंचायत भवन के बाहर चाय-पकौड़े की दुकान पर लोग चर्चा कर रहे थे।

“ये विकास का पिज्जा तो बड़ा स्वादिष्ट है। न खाने को कुछ और न शिकायत करने का मौका!” रामलाल बोले।

चायवाले ने हँसकर कहा, “गाँव का विकास अब पिज्जा के बक्सों में सिमट गया है। और वो झूले, वो तो बस हवा में सपने देखने का एक और बहाना है।”

नेता जी अपनी गाड़ी में बैठे, हाथ हिलाते हुए बोले, “गाँववालों, अगले चुनाव में मिलते हैं। तब तक झूलते रहिए और पिज्जा का मज़ा लेते रहिए।”

और इस तरह हरिपुर का आधुनिकता की ओर पहला कदम हवा में लटका रह गया।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 326 ☆ आलेख – पठनीयता का अभाव सोशल मीडीया और लघु पत्रिकाएं श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 326 ☆

? आलेख – पठनीयता का अभाव सोशल मीडीया और लघु पत्रिकाएं ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मुझे स्मरण है, पहले पहल जब टी वी आया तब पत्रिकाओं और किताबो पर इसे मीडीया का खतरा बताया गया था। फिर सोशल मीडीया का स्वसंपादित युग आ गया। अतः यह बहस लाजिमी ही है कि इसका पत्रिकाओं पर क्या प्रभाव हो रहा है। जो भी हो दुनियां भर में केवल प्रकाशित साहित्य ही ऐसी वस्तु हैं जिनके मूल्य की कोई सीमा नही है, इसका कारण है पुस्तको में समाहित ज्ञान। और ज्ञान अनमोल होता है। लघु पत्रिकाओं के वितरण का कोई स्थाई नेटवर्क नहीं है। वे डाक विभाग पर ही निर्भर हैं, अब सस्ते बुक पोस्ट की समाप्ति हो गई है। अतः मुद्रण से लेकर वितरण तक ये पत्रिकाएं जूझ रही हैं। इसलिए ई बुक फ्लिप फॉर्मेट, पीडीएफ में सॉफ्ट स्वरूप मददगार साबित हो रहा है। पठनीयता का अभाव, कागज और पर्यावरण की चिंता पुस्तको के हार्ड कापी स्वरूप पर की जा रही है। सचमुच एक कागज खराब करने का अर्थ एक बांस को नष्ट करना होता है यह तथ्य अंतस में स्थापित करने की जरूरत है।

प्रकाशन सुविधाओं के विस्तार से आज रचनाकार राजाश्रय से मुक्त अधिक स्वतंत्र है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार आज हमारे पास है। आज लेखन, प्रकाशन, व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन कही अधिक सुगम हैं। लेखन की व अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है। माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है। पर आज नई पीढ़ी में पठनीयता का तेजी हृास हुआ है। साहित्यिक किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है। आज साहित्य की चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये। पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की जाये। आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है, प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है। इस दिशा में लघु पत्रिकाओं का महत्व निर्विवाद है। लघु पत्रिकाओं का विषय केंद्रित, सुरुचिपूर्ण, अनियतकालीन प्रकाशन और समर्पण, पाठकों तक सीमित संसार रोचक है।

समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग्य के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्य का प्रमुख हिस्सा बनाया जा सकता है ? यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर किताबो की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं। जो भी हो हमारी पीढ़ी और हमारा समय उस परिवर्तन का साक्षी है जब समाज में कुंठाये, रूढ़ियां, परिपाटियां टूट रही हैं। समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है, अतः हमारी लेखकीय पीढ़ी का साहित्यिक दायित्व अधिक है। निश्चित ही आज हम जितनी गंभीरता से इसका निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा।

किताबें तब से अपनी जगह स्थाई रही हैं जब पत्तो पर हाथों से लिखी जाती थीं। मेरी पीढ़ी को हस्त लिखित और सायक्लोस्टाईल पत्रिका का भी स्मरण है। , मैंने स्वयं अपने हाथो, स्कूल में सायक्लोस्टाईल व स्क्रीन प्रिंटेड एक एक पृष्ठ छाप कर पत्रिका छापी है। आगे और भी परिवर्तन होंगे क्योंकि विज्ञान नित नये पृष्ठ लिख रहा है, मेरा बेटा न्यूयार्क में है, वह ज्यादातर आडियो बुक्स ही सुनता गुनता है। किन्तु मेरे लिये बिस्तर पर नींद से पहले हार्ड कापी की लघु पत्रिकाओं और किताब का ही बोलबाला है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #199 – लघुकथा – सेवा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “अथकथा में, हे कथाकार!)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 199 ☆

☆ लघुकथा – सेवा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

दो घंटे आराम करने के बाद डॉक्टर साहिबा को याद आया, ” चलो ! उस प्रसूता को देख लेते हैं जिसे आपरेशन द्वारा बच्चा पैदा होगा,हम ने उसे कहा था,” कहते हुए नर्स के साथ प्रसव वार्ड की ओर चल दी. वहां जा कर देखा तो प्रसू​ता के पास में बच्चा किलकारी मार कर रो रहा था तथा दुखी परिवार हर्ष से उल्लासित दिखाई दे रहा था.

” अरे ! यह क्या हुआ ? इस का बच्चा तो पेट में उलझा हुआ था ?”

इस पर प्रसूता की सास ने हाथ जोड़ कर कहा, ” भला हो उस मैडमजी का जो दर्द से तड़फती बहु से बोली— यदि तू हिम्मत कर के मेरा साथ दे तो मैं यह प्रसव करा सकती हूं.”

” फिर ?”

” मेरी बहु बहुत हिम्मत वाली थी. इस ने हांमी भर दी. और घंटे भर की मेहनत के बाद में ​प्रसव हो गया. भगवान ! उस का भला करें.”

” क्या ?” डॉक्टर साहिबा को यकीन नहीं हुआ, ” उसने इतनी उलझी हुई प्रसव करा दूं. मगर, वह नर्स कौन थी ?”

सास को उस का नाम पता मालुम नहीं था. बहु से पूछा,” बहुरिया ! वह कौन थी ? जिसे तू 1000 रूपए दे रही थी. मगर, उस ने लेने से इनकार कर दिया था.”

” हां मांजी ! कह रही थी सरकार तनख्वाह देती है इस सरला को मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए.”

यह सुनते ही डॉक्टर साहिबा का दिमाग चकरा गया था. सरला की ड्यूटी दो घंटे पहले ही समाप्त हो गई थी. फिर वह यहां मुफ्त में यह प्रसव करने के लिए अतिरिक्त दो घंटे रुकी थी.

” इस की समाजसेवा ने मेरी रात की डयूटी का मजा ही किरकिरा कर दिया. बेवकूफ कहीं की,” धीरे से साथ आई नर्स को कहते हुए डॉक्टर साहिबा झुंझलाते हुए अगले वार्ड में चल दी.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०७.०३.२०१८

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 234 ☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 234 ☆ 

☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

दक्षिण ध्रुव की बर्फ में रहता

सागर में खाता गोता।

पंख नहीं वह न उड़ सकता

पक्षी है सबको मोहता।

 *

बर्फ पर चलता अंडे देता

कूद-फाँद वह कर सकता।

सागर की तलहटी चूमे

मित्र मनुज का बन सकता।

 *

दाँत नहीं हैं इसके होते

चोंच से करता सदा शिकार।

आधा धवल , शेष है काला

रोचक है इसका संसार।

 *

कई प्रजाति इसकी होतीं

अन्टार्कटिका है मुख्य स्थान।

बर्फ है इसकी जीवन साथी

पूँछ , पैर है इसकी शान।

 *

दुर्गम क्षेत्र ढके बर्फ से

वहीं बसाता सदा बस्तियाँ।

अधिक ठंड में झुंड में रहता

करता रहता खूब मस्तियाँ ।

 *

पच्चीस अप्रैल दिवस संरक्षण

अंतिम अक्षर उसके इन।

रोचक है पेंगु की दुनिया

जलवायु परिवर्तन से खिन।

 *

उत्तर – पेंगुइन पक्षी।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ खेळ नवा… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ खेळ नवा… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

वरवरचे हे वास्वत आहे, विस्तव सारा लपला आहे

फुंकर घालून पहा जरा तू भडका आता उडणे आहे

 *

मी सत्याची बाजू घेतो असे बोलणे सोपे आहे

जो तो जाणून आहे, बोलण्यातही गफलत आहे

 *

वचने देती तीच तीच अन् असे तीच ती मधाळ भाषा

मूर्ख जाहलो कितीदा तरी मनातील या सुटे न आशा

 *

चिखलफेकीचे खेळ चालता शिंतोड्यांना काय कमी

दिवसभराची नसता खात्री कशी द्यायची दीर्घ हमी

 *

सौदे जमती फिसकटती, शेंबड्यासही मुकुट हवा

सत्तेसाठी सत्य बदलती लोकशाहीचा खेळ नवा

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “२०२४ – २५“ ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

🙋२०२४ — 🤗२०२५ ☆ श्री सुहास सोहोनी

तीव्र उन्हाळे, ऊन कोवळे,

पूर राक्षसी, थेंब आगळे,

कंपित थंडी, सुखद गारवा,

दु:खापाठुन, सुख‌ शिडकावा..

*

सुख-दु:खांचे अनुभव देउन

वर्ष कालचे गेले वितळुन

नव वर्षाचे करु या स्वागत

नवी नवेली स्वप्ने घेऊन..

*

सौख्य सुखे द्यावी नववर्षा

रुचीपालटा थोडी दु:खे

असेच यावे हासत नाचत

रंग घेउनी इंद्रधनूचे

🌺

© श्री सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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