English Literature – Poetry ☆ – ‘Ephemeral Whispers…’ – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ ‘Ephemeral Whispers…~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ ~ Ephemeral Whispers…~? ☆

 In life’s ephemeral whispers, ignite

the flame of God’s embracing grace,

A cosmic spark reverberates; proclaiming

‘You’re divine, in sacred, infinite space.’

Surrender your vain and ego’s veil,

at the wisdom’s resplendent throne,

Let river of devotion flow within

Let love be your soul’s sweet tone

 *

In God’s unwavering presence, find the

solace on peaceful, shimmering shores,

With God, as your constant companion,

guiding you to life’s tranquil, mystic cores

 *

Nurture virtues’ garden, where peace,

harmony, truth, and love entwine,

And harvest wisdom’s fruits, that your

soul’s deepest, the divine joy may shine

 *

Embodied essence, blooming like a lotus

in God’s boundless, effulgent domain,

Radiate your true nature’s splendour in

every thought & act, where desires reign

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

24 September 2024

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 90 ☆ किस तरह की रोशनी है शहर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “किस तरह की रोशनी है शहर में“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 90 ☆

✍ किस तरह की रोशनी है शहर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सबको अपनी ही पड़ी है शहर में

हाय दिल की मुफ़लिसी है शहर में

*

रात पूनम सी कही पर तीरगी

किस तरह की रोशनी है शहर में

*

बिल्डिंगों के साथ फैलीं झोपडीं

साथ दौलत के कमी है शहर में

*

शानो-शौक़त का दिखावा बढ़ गया

सादगी बेहिस हुई है शहर में

*

हर गली में एक मयखाना खुला

मयकशी ही मयकशी है शहर में

*

जुत रहा दिन रात औसत आदमी

यूँ मशीनी ज़िंदगी है शहर में

*

नाम पर तालीम के सब लुट रहे

फीस आफ़त हो रही है शहर में

*

सभ्य वासी बन रहे पर सच यही

नाम की कब आज़ज़ी है शहर में

*

है अरुण सुविधा मयस्सर सब मगर

कब फ़ज़ा इक गाँव सी है शहर में

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 571 ⇒ तलत की लत ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सौन्दर्य बोध।)

?अभी अभी # 571 ⇒ तलत की लत ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आदत तो खैर अच्छी बुरी हो सकती है लेकिन किसी चीज की लत अच्छी नहीं।

जुआ, शराब, गुटका और सिगरेट, बहुत बुरी है इनकी लत, लेकिन अगर किसी दीवाने को लग जाए तलत की लत, तो वह क्या करे। एक ओर बदनाम लत और दूसरी ओर मशहूर तलत ;

क्या करूं मैं क्या करूं

ऐ गमे दिल क्या करूं।

तलत एक ऐसा गायक है, जो दिल से गाता है, और दिल भी किसका, एक वतनपरस्त गरीब का ;

मैं गरीबों का दिल हूं

वतन की जुबां।

उसे जिंदगी की तलाश है ;

ऐ मेरी जिंदगी तुझे ढूंढूं कहां

न तो मिल के गए

न ही छोड़ा निशान।

पसंद अपनी अपनी, प्यार अपना अपना। दीवानों का क्या, जो सहगल के दीवाने थे, उनके गले कोई दूसरा गायक उतरता ही नहीं था। अपना अपना नशा है भाई, अपना अपना ब्रांड। सबको झूमने की छूट है, क्योंकि यह संगीत की दुनिया है और गायकी यहां का इल्म है।।

तलत का मुसाफिर अपनी ही धुन में रहता है ;

चले जा रहे हैं किनारे किनारे, मोहब्बत के मारे।

उसकी मजबूरी तो देखिए बेचारा ;

तस्वीर बनाता हूं,

तस्वीर नहीं बनती।

एक ख्वाब सा देखा है

ताबीर नहीं बनती।

कितनी शिकायत है उसे जिंदगी देने वाले से ;

जिंदगी देने वाले सुन

तेरी दुनिया से दिल भर गया

मैं यहां जीते जी मर गया।

एक सच्चे कलाकार की भी यही त्रासदी होती है। केवल जिसे कला की पहचान है, जो तलत का कद्रदान है, वही तलत के दर्द को समझ सकता है;

शामे गम की कसम

आज गमगीन हैं हम

आ भी जा, आ भी जा

आज मेरे सनम।

आप इसे भले ही फुटपाथ की शायरी कहें, लेकिन हर कलाकार की जिंदगी फुटपाथ से ही शुरू होती है। उसकी आवाज फुटपाथ और हर गरीब के झोपड़े तक में गूंजती है। तलत ने कभी महलों के ख्वाब देखे ही नहीं।

ऐ मेरे दिल कहीं और चल

गम की दुनिया से दिल भर गया

ढूंढ लें, चल कोई घर नया

लेकिन एक आम इंसान की तरह वह भी जानता है ;

जाएं तो जाएं कहां

समझेगा कौन यहां

दिल की जुबां …

अगर आपको भी गलती से तलत की लत लग गई है, तो इसे छोड़िए मत। देखिए वे क्या कहते हैं ;

हैं सबसे मधुर वो गीत

जिन्हें हम दर्द के सुर में

गाते हैं।

जब हद से गुजर जाती है खुशी

आंसू भी छलकते आते हैं।।

उन्हें जब रफी साहब का साथ मिला तो वे भी आखिर गा ही उठे ;

गम की अंधेरी रात में

दिल को न बेकरार कर

सुबह जरूर आएगी

सुबह का इंतजार कर।

और देखिए ;

गया अंधेरा, हुआ उजाला

चमका चमका, सुबह का तारा ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 55 – खाली घरौंदा…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खाली घरौंदा।)

☆ लघुकथा # 55 – खाली घरौंदा  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मानसी बहुत दिन हो गया तुम मेरे साथ कहीं नहीं गईं?  मेरे ऑफिस में जो शर्मा अंकल  हैं। तुम्हें तो पता है, पिताजी की अचानक दिल का दौरा से मृत्यु गई थी जब कोई सहारा नहीं था। अंकल ने हमारी बहुत मदद की  है  ऑफिस और  मेरा बिजनेस अंकल के कारण चल रहा है। आज उनकी बेटी की शादी है तुम मेरे साथ चलो मुझे अच्छा लगेगा।

 फिर वह कुछ रुक  कर बोला – तुम अपना बर्तन प्लेट घर में अलग रखती  हो।  अपना सामान किसी को छूने नहीं देती। इतनी साफ सफाई से रहना  अच्छी बात  है। किन्तु, हमें  सबके साथ  मिलना जुलना चाहिए चलो खाना मत खाना? क्या ! तुम मेरी खुशी के लिए इतना नहीं कर सकती?

तुम्हें पता है कि  लोग कहीं से भी आकर छू देते हैं और गले मिलते हैं यह मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता?

तुम चिंता मत करो  हम जल्दी ही आ जाएंगे?

तुम अकेले जाओ मुझे इतना जोर मत दो मुझे ऑफिस लोगो के यहाॅं जाना अच्छा नहीं लगता है। तुम्हें तो मेरी आदत पता है, मुझे छोटे लोगों से मिलना जुलना बिल्कुल पसंद नहीं है।

ठीक है? तुम्हें नहीं जाना तो मत जाओ तुम्हारे पास  मैं बुआ जी को छोड़ देता हूं रात में मैं वही रहूंगा।

तुम्हारा मेरे लिए इतना प्यार मुझे अच्छा नहीं लगता। घर में नौकर भी तो है फिर बुआ जी को क्यों यहाॅं छोड़ना?

 अचानक रात में मानसी को बहुत दर्द होने लगा और वह कराहने लग गई।  तभी बुआ जी और उनका बेटा उसके कराहने की आवाज सुनकर मानसी के घर पहुंचे। अरुण ने उन्हें घर की चाबी पहले से ही दे रखी थी ।

क्या हुआ बेटा?

 बुआ जी मुझे बहुत दर्द हो रहा है। 

बिना देर किए वे लोग उसे अस्पताल जाते हैं तब पता चलता है कि अपेंडिक्स का दर्द है।

 बेटा डॉक्टर को तुम्हें छूना ही पड़ेगा और कुछ दिन अस्पताल में रहना ही पड़ेगा। 

इसी कारण तुम्हारा खाली घरौंदा है। थोड़ा वक्त के साथ चलो? अपने आप को थोड़ा परिवर्तित करो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 255 ☆ वाटा… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 254 ?

☆ वाटा… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

नकळतच आठवते….

आयुष्यात घडून गेलेली घटना,

या घटनेचा,

त्या घटनेशी काही संबंध ?

खरंतर नसतोच,

पण वाटतं उगाचच,

त्यावेळेस ही असंच घडलं होतं….

आपले आनंद,

शोधतच असतो की आपण,

फक्त वाटा बदलत

असतात!

एखादी वाट नसतेच रूचत,

तरीही पुन्हा पुन्हा,

त्या वाटेवरून जाणं,

नाही टाळता येत!

हा चकवा नसतोच,

वाटा अगदी स्वच्छ दिसतात,

पण चुकतोच वाट,

आणि घुटमळत राहतो

तिथल्या तिथे ,

इहलोकीचा प्रवास संपेपर्यंत!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नववर्ष– – – ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?  कवितेचा उत्सव ?

नववर्ष– – – ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

येणार ते जाणार हे कळायलाच हवं

गेल्यावरच तर येणार ना दुसरं काही नवं?

 *

नवं नवं नवलाईचं गुणगान गावं

गाता गाता नवलाईने भारावून जावं

नव्यामध्ये जुन्याच्या आठवणीत रमावं

जुनं ते सोनं हे तेव्हा समजावं

 *

म्हणूनच जुन्याचे बोट सोडायचं नाही

नव्याचे बोट पकडले तरी त्यात वाहून जायचं नाही

जुन्याच्या कडीत नव्याची कडी सांधायची

अशी साखळी गाठवून नव्याची कास धरायची

 *

नव्या वर्षाचा प्रत्येक क्षण खास व्हावा

आपला देह हर्षोल्हासाचा आस व्हावा

नव्यावर्षात नवं आव्हानांचा करण्या सामना

आपल्या सगळ्यांना खूप खूप शुभ कामना ||

 *

Happy new year 2025

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्रतोपासना – ६. वृष्टी करणाऱ्या पावसाची निंदा करु नये. ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

व्रतोपासना – ६. वृष्टी करणाऱ्या पावसाची निंदा करु नये. ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

 उन्हाळ्यातील उकड्याने हैराण झालेले आपण पावसाची वाट बघत असतो. मग येणाऱ्या एखाद्या पावसाच्या सरीने पण आनंदित होतो. पावसाचे स्वागत करतो. वर्षा सहली काढतो. गरम पदार्थांचा आस्वाद घेतो. असे करता करता काही दिवसातच पावसाला कंटाळतो. काहींना तर सुरुवातीचा पाऊस पण नको वाटतो. आणि सुंदर पावसाचे नकोशा पावसात रूपांतर होते. अर्थात पाऊस तोच असतो. पण आपलीच मन:स्थिती बदलत असते. त्यामुळे पावसाची निंदा सुरु होते. आणि पावसाचे तोटे सांगणारे वक्तव्य सुरु होते. तक्रारी सुरु होतात. कपडेच कसे वाळत नाहीत. दमट वास येतो. प्रवास कसा अवघड होतो. पाणी कसे साठते असे विषय चर्चिले जातात. त्यात घरी असणारी मंडळी फारच आघाडीवर असतात. कामावर जाणारे आपला बंदोबस्त ( पावसा पासून सुरक्षित राहण्याचा ) करुन आपले कर्तव्य करुन येतात. पण ज्यांना कुठेही जायचे असते अशी मंडळीच किती हा पाऊस असे म्हणून तक्रार करत असतात. एकूण काय पाऊस यावर सगळीकडे टीका सुरु होते. आणि आपल्यालाच हवासा असणारा आणि आवश्यक असणारा पाऊस आपण विसरतो.

पण आपण एक विचार करुन बघू या. ज्या काही अडचणी पावसामुळे येतात असे वाटते त्या खरंच पावसामुळे आल्या आहेत का? रस्त्यावर पाणी साठणे, खड्डे पडणे, पूर येणे अशी संकटे मानव निर्मित आहेत. या सगळ्यासाठी आपणच कुठेतरी जबाबदार आहोत. आणि हे आपण टाळू शकतो. हे पूर्ण आपल्या हातात आहे.

आपण हे लक्षात घ्यायला हवे, निसर्गाला सगळे जग सावरायचे असते. जगवायचे असते. पाऊस हा जीवसृष्टीचा आधार आहे. तो आला नाही तर जीवन अशक्यच आहे. गवत, धनधान्य, भाजीपाला उगवणार नाही. एवढेच नाही तर आपल्याला कोणालाच प्यायला पाणी सुद्धा मिळणार नाही. सगळे चराचर कोमेजून जाईल. म्हणून आपल्या संस्कृतीत वर्षा देवता म्हणतो. ही वर्षा देवता जीवनदायी आहे. म्हणून पूर्वपार तिची पूजा करतो. म्हणून अशा जीवनदायी वृष्टी करणाऱ्या पावसाची निंदा करु नये.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक, संगितोपचारक.

९/११/२०२४

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “रिकामेपण…” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

🔆 जीवनरंग 🔆

☆ “रिकामेपण…” ☆ श्री मंगेश मधुकर

आभाळ भरून आलेलं, संध्याकाळी चार वाजताच प्रचंड अंधार झाला होता. पांघरून घेऊन झोपलेले अप्पा जागे झाले.

रोजच्या सवयीने त्यांनी आवराआवर सुरु केली. तोंड धुतल्यानंतर दुधाचा चहा पिला.

गरम पाण्याने आंघोळ केल्यानंतर पूजा केली आणि पेपरची वाट पाहत बसले.

दुपारची झोप काढून रमेश हॉलमध्ये आला.

“अप्पा, कसली वाट पाहताय”

“पेपरची, ”

“पेपर, आत्ता???”रमेश अप्पांकडे पाहत विचारले.

“असं का विचारतो आहेस??”

“अप्पा, संध्याकाळचे पाच वाजले आहेत”

“काय!!” अप्पांच्या चेहऱ्यावर भलेमोठे प्रश्नचिन्ह??त्यांनी कपाळावर हात मारून घेतला. रडवेला चेहरा करून म्हणाले “मला वाटलं सकाळ झाली म्हणून नेहमीप्रमाणे…… सॉरी सॉरी”

“अप्पा, आज दोनदा आंघोळ आणि पूजा, भारी” राहीने अप्पांना चिडवले.

“अजून चिडव, चूक माझीच आहे, तुला काय बोलायचे??डोकं काम करत नाही, आता तर वेळ काळ सुद्धा कळत नाही. ”अप्पा

रमेश काही बोलला नाही पण रंजना, राही मोठमोठ्याने हसायला लागल्या. वाद नको म्हणून रमेशने त्यांना गप्प राहण्यास सांगितले.

चिडलेले अप्पा नेहमीप्रमाणे भिंतीकडे तोंड करून पडून राहिले. मनात विचारांचे काहूर उठले. सिगरेट पिण्याची अतिशय इच्छा झाली पण घरात सगळे होते आणि पावसामुळे बाहेर जाता येत नव्हते. तळमळत अप्पा पडून राहिले. टीव्ही चालू होता पण अप्पांना त्यात इंटरेस्ट नव्हता.

रात्री रंजनाने वाढून दिल्यावर जेवण करून, औषधे घेऊन पुन्हा अप्पा पांघरून घेऊन झोपले पण मनातील अस्वस्थता वाढली, झोपही येत नव्हती, काय करावे तेच सुचत नव्हते. सारखी सारखी कूस बदलून सुद्धा कंटाळा आला होता. घरातले सगळे झोपले तरी अप्पा मात्र टक्क जागे होते, मनातील खदखद बाहेर काढायची होती पण सोबत कोणी नव्हते. अचानक त्यांना कल्पना सुचली, अप्पा उठले. कपाटातून कागद काढला आणि लिहायला सुरवात केली…..

“ प्रिय अगं,

पत्रास कारण की,

तुला कधी नावाने हाक मारली नाही, कायम “अगं” म्हणायचा अवकाश की लगेच तू उत्तर द्यायची. म्हणून त्याच नावाने सुरवात केली. चाळीस वर्ष संसार केला आणि आज पहिल्यांदा तुला पत्र लिहितो आहे. सात वर्षापूर्वी तू गेलीस आणि संसार संपला. आधी स्वतःचाच विचार करताना तुला कायम गृहीत धरले आणि तुझ्यानंतर परावलंबी झालो. तडजोडी करताना खूप त्रास झाला पण आता सवय झाली. हे सगळं आजच लिहिण्याचे कारण, आज तुझी खूप खूप आठवण येते आहे. रिटायर होऊन आता पंधरा वर्षे झाली. परमेश्वराचा आशीर्वाद, उत्तम तब्येत, घरच्यांचे प्रेम आहे, सांभाळून घेतात, कसलच टेन्शन नाही, पेन्शनमुळे पैशाचीही काळजी नाही. स्वतःला जपण्याची सवय त्यामुळे वयानुसार झालेले आजार सोडले तर तब्येत उत्तम आहे. लौकिक अर्थाने सगळे व्यवस्थित आहे तरीसुद्धा काही दिवसांपासून फार एकटं एकटं वाटतयं, कसलीतरी हुरहूर वाटते, सारखी भीती वाटते. मन मोकळे करावे असे कोणीच नाही त्याला कारण सुद्धा मीच.

….. रिटायरमेंट नंतर आरामाच्या नावाखाली फक्त झोपाच काढल्या, बाकी काहीच केले नाही. आत्मकेंद्री स्वभाव, मुखदुर्बळ, कसलीच महत्वाकांक्षा नाही, स्वप्ने नाहीत वडिलांच्या ओळखीने मिळालेली सरकारी नोकरी आयुष्यभर केली. भरपूर कष्ट केले, तडजोडी केल्या त्यामुळे रिटायर झाल्यानंतर फक्त आराम करायचा हे मनाशी पक्के केले होते आणि तसेच केले. स्वतःला पाहिजे तसे वागलो, कधी दुसऱ्यांचा विचार केला नाही, प्रसंगी हेकेखोरपणाही केला. सकाळी लवकर उठायचे, आवराआवर करायची, तासभर पेपरवाचन, मग दोन तास बसस्टॉपच्या कट्ट्यावर गप्पा, एक वाजता जेवण, दुपारी झोप, संध्याकाळी चार वाजता दूध मग पुन्हा कट्ट्यावर गप्पा, सात वाजता घरात मग नऊ वाजेपर्यंत सिरियल्स मग पुन्हा झोप. गेली अनेक वर्षे हाच दिनक्रम ठरलेला.

पण………

वर्षानुवर्षे त्याच त्या रुटीनचा आता कंटाळलो आहे. दिवसेंदिवस बेचैनी वाढत आहे. सतत पडून राहणे आता नको वाटते आणि दुसरे काही करण्याची इच्छा नाही तसे कधी प्रयत्न केले नाहीत. खास आवड, छंद वैगरे नाही. दहा मिनिटांची देवपूजा आणि तासभर पेपरवाचन सोडले तर दिवसभरात फक्त आरामच केला. तू नेहमी सांगायचीस कशाततरी मन गुंतवून घ्या, फिरायला जा, मित्र जोडा पण ऐकले नाही. रिटायर झाल्यानंतर काय करायचे याचे नियोजन करायला पाहिजे होते असे आता वाटते पण खूप उशीर झाला आहे. नोकरी असताना घडयाळाकडे बघायला वेळ मिळत नव्हता आणि आता घड्याळाकडे पहायचीच इच्छा होत नाही कारण वेळ पुढे सरकतच नाही. आख्खा दिवस मोठठा आ करून समोर असतो, जसा शुक्रवार, शनिवार तसाच सोमवार, काहीच काम नाही त्यामुळे रविवारच्या सुट्टीचे कौतुक नाही. रोजचा दिवस एकसारखा, नवीन घडत नाही. सणांच्या बाबतीत तेच. घरातले आपापल्या व्यापात, एकमेकांशी संवाद होतो तो कामापुरता. कोणी जाणीवपूर्वक वागत नाही पण मीच कमी बोलतो त्यामुळे आपसूकच संवाद कमी आहे. कट्ट्यावर जावे तर जे सोबत आहेत त्यांची परिस्थितीसुद्धा फार वेगळी नाही. सगळ्यांचीच नजर शून्यात असते. वेळ खायला उठतो. मला खरंच आता नक्की काय करावे हे समजत नाही. सिगरेटचे प्रमाण वाढले आहे. घरातले सारखे सांगतात सिगरेट कमी करा पण माझाच स्वतःवर ताबा नाही. खूप अपराध्यासारखे वाटते पण मी हतबल आहे. खूप सारे प्रश्न पडले आहेत. आलेला दिवस ढकलणे एवढेच करतो आहे. ” डोळ्यातले थेंब कागदावर पडले. अप्पा लिहिण्याचे थांबले नंतर बराच वेळ छताकडे पाहत पडून राहिले. विचारांचे चक्र चालू असताना त्यांना झोप लागली.

पक्षांच्या किलबिलाटाने जाग आल्यावर अप्पांनी खिडकीबाहेर पाहिले तर उजाडायाला सुरवात झाली होती. घड्याळात वेळ पाहून सकाळ झाली आहे याची खात्री अप्पांनी करून घेतली आणि स्वतःवरच हसले. रेडिओ सुरु करून किचनमधून भांडे घेऊन दुधवाल्याची वाट बघत दारात उभे राहिले त्याचवेळी एफ एमवर भूपिंदर गात होते “दिन खाली खाली बर्तन है और रात अंधेरा कुवां, एक अकेला इस शहर में रात में और दोपहर में….. ” गाणे ऐकून अप्पांचे लक्ष सहज हातातल्या रिकाम्या भांड्याकडे पाहत भकासपणे हसले.

..

रोजच्या वेळेत दुधवाला येऊन गेला. अप्पांच्या हातातले रिकामे भांडे दुधाने भरून गेले. सहज लक्ष दारातल्या कुंडीकडे गेले. तिथल्या सुकलेल्या एका रोपट्याला नवीन पालवी फुटत होती. निराश अप्पांना दुधाने भरलेले भांडे आणि फुटत असलेली पालवी पाहून पडलेल्या अनेक प्रश्नांची उत्तरे मिळाली. स्वतःला बदलायला हवे, पुन्हा नवीन सुरवात करायची. आता रिटायरमेंट मधूनच रिटायर व्हायचे असे म्हणत अप्पा दिलखुलास हसले. भांड्यामधील थोडे दुध रोपट्यावर ओतले आणि नवीन उमेद घेऊन प्रसन्न, टवटवीत मनाने घरात गेले आणि पहिल्यांदाच सगळ्यांसाठी चहाचे आधण ठेवले त्याचवेळी एफएम वर किशोरदा गात होते..

“थोडा है.. थोडे की जरुरत है.. , जिंदगी फिर भी यहाँ खूबसूरत है…” 

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “आज नव्हे… आत्ताच !” ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

 

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“आज नव्हे… आत्ताच ! ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

कोणती भेट अखेरची असेल, कोणते शब्द अखेरचे असतील हे माहीत नसण्याच्या काळात आपण आजच्या, आताच्या गोष्टी उद्यावर का ढकलत असतो हे कळत नाही, हे नाकारता येणार नाही!

आपण महाभारतातील एक कथा निश्चित ऐकली असेल… ज्यात धर्मराज युधिष्ठीर एका याचकाला उद्या दक्षिणा घ्यायला ये! असे सांगतात. त्यावर बलभीम आश्चर्याने म्हणतात…. दादाला ते उद्या ती दक्षिणा द्यायला निश्चितपणे जिवंत असतील असा आत्मविश्वास आहे, असे दिसतं! या कथेतून घ्यायला पाहिजे तो बोध माणसं विसरून जातात…. किंबहुना तशी दैवाची योजनाच असावी किंवा आपले भोग!

 

परिचयातील एखादी व्यक्ती मरणासन्न अवस्थेत असते खूप दिवस. भेटीस जाण्याचं खूपदा ठरतं आणि राहून जातं! घरातली जाणती, म्हातारी माणसं सांगून सांगून थकतात… कर्त्यांना त्यांच्या व्यापातून सवड काढणं होत नाही… मग धावपळ करून अंतिम ‘दर्शना’चा सोपस्कार करावा लागतो… जो कितपत खरा असतो? कुणाचं दर्शन घेतो आपण? की आपण आल्याचं इतरांना दिसावं अशी योजना असते ती?

ज्या व्यक्तीबद्दल नंतर जे बोललं जातं… ते त्या व्यक्तीबद्दल असलं तरी त्या व्यक्तीला ऐकता येत असेल का? कोण जाणे? त्यापेक्षा त्या व्यक्तीच्या हयातीत त्याच्या कानावर हे शब्द पडले असते तर?

 

एखाद्या व्यक्तीचं कौतुक करायचं राहून जातं….. योग्य प्रसंगाची प्रतीक्षा करण्याच्या नादात. एखाद्याचं देणं द्यायचं राहून जातं…. देऊ की योग्य वेळी असं वाटल्यामुळे.

….. आपल्याकडे प्रेम शब्दांतून व्यक्त करण्याची पद्धत नाही…. पण कृतीतून व्यक्त करायला कुणाची आडकाठी आहे? पण हे सुचत नाही.

 मी हे जे काही सांगतो आहे ते आधी कुणी सांगितलं नाही असं नाही! बेकी हेम्स्ली नावाच्या एका ब्रिटीश कवयित्रीने हे तिच्या भाषेत सांगितलंय नुकतंच. तिच्या त्या इंग्लिश शब्दांचं स्वैर भाषांतर इथं दिलं आहे.. शक्य झाल्यास तुम्ही ती कविता स्वत: वाचावी म्हणून… उद्या किंवा आजच!

 

तुझं माझ्यावर किती प्रेम होतं हे सांगण्यासाठी मी कायमचे निघून जाईपर्यंत वाट पाहू नकोस !

तुझ्या आसवांमधून माझी कीर्ती तू सांगशीलही पण ती ऐकायला मी असायला तर पाहिजे ना?

तुझं माझ्यावरच्या प्रेमाचं गुपित असं राखून ठेवू नकोस…. उद्या सांग किंवा सांगून टाक आजच !

मग मी ही तुला सांगेन तुझ्यातलं चांगलं …. तू कसा आहेस आणि कसं तू मला प्रेरित करतोस ते!

तू ऐकत असतानाच मी तुला सारं सांगेन अगदी हृदयापासून

….. ‘तू होतास’ ऐवजी ‘तू आहेस’ असं म्हणायला आवडेल मला

‘असं आहे’ हे ‘असं असायचं’ पेक्षा कितीतरी सुंदर आहे, नाही?

 

 

तुझ्या अस्तित्वाच्या उजेडात मी बोलेन तुझ्याविषयी ….

….. नंतरच्या अंधारात प्रेमाचे शब्द मनालाही ऐकू येत नाहीत!

म्हणून फार तर उद्याच मला सांग जे तुला वाटतं ते, किंवा आजच, आत्ताच का नाही सांगत?

…. कारण … उद्या असेल का आपल्या नशिबात कुणास ठाऊक?

…. कुणीतरी आपलं आहे… हे आपण ऐकत असताना कुणीतरी सांगणं किती महत्त्वाचं आहे नाही?

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ☆ अभिजात मराठीपुढील आव्हाने… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले ☆

सौ अंजली दिलीप गोखले

? इंद्रधनुष्य ?

☆ अभिजात मराठीपुढील आव्हाने… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले

मिरज विद्यार्थी संघातर्फे “जागर मराठीचा २०२४”, सन २०२५ च्या १०० व्या वसंत व्याख्यानमालेच्या निमित्ताने विशेष व्याख्यानमाला झाली. या मध्ये सांगली येथील प्रा अविनाश सप्रे यांचे “अभिजात मराठी पुढील आव्हाने” या विषयावर अतिशय सुरेख व्याख्यान झाले. त्या व्याख्यानाचा मिरजेतील श्री मुकुंद दात्ये यांनी अत्यंत प्रभावी घेतलेला आढावा, आपणापर्यंत पोहोचवल्याशिवाय रहावले नाही.

सरांनी आपल्या सव्वा तासाच्या भाषणात अभिजात भाषेचा दर्जा म्हणजे काय? तो कसा मिळतो? याचे सविस्तर विवेचन केले. अभिजात भाषेचा दर्जा मिळाल्यावर काय होते? त्यामुळे काय आव्हाने उभी आहेत हे सांगितले. ते एका प्रकारे आपलेच कठोर परीक्षण होते.

भाषा म्हणजे संस्कृती. पुर्वी इंग्लंडमध्ये लॅटिन भाषा बोलली जात असे. इंग्रजीला गावंढळ भाषा समजली जात असे. अगदी शेक्सपीअरच्या नाटकातही दुय्यम पात्रे इंग्रजीत बोलत असत. पुढे इंग्रजी भाषेवर लेखकांनी व अनेकांनी खूप काम केले व तिला पुढे आणले.

अभिजात भाषेचा दर्जा मिळाल्याने भाषा मोठी होत नाही. ती मोठी असतेच. तिला तसा दर्जा शासनदरबारी दिला जातो. तिच्या मोठेपणावर एक शासकीय मुद्रा लावली जाते एवढेच.

शासनाने एखाद्या भाषेला अभिजात भाषेचा दर्जा देण्यासाठी ती कमीतकमी दोन हजार वर्षे पुरातन असली पाहिजे. ती सतत वापरली जात असली पाहिजे असे काही निकष ठरवले आहेत. अर्थात निकषांची पूर्तता होते की नाही हे अखिल भारतीय पातळीवरची समिती ठरवते. त्या समितीत तीन अमराठी भाषेतील लेखक सदस्य असतात.

दक्षिणेकडील राज्ये भाषेच्या बाबतीत फारच स्वाभिमानी आहेत. संवेदनशील आहेत. कोणत्याही पक्षाचे सरकार असो ते त्यांच्या भाषेबाबत अभिमानीच असतात. त्यामुळे भिजात भाषेच्या दर्जा देण्याचे ठरवल्यानंतर तसा दर्जा मिळविण्याचा पाहिला मान तामिळ भाषेने मिळवला.

त्यानंतर एक दोन वर्षच्या अंतराने तो मान मल्ल्याळम, कन्नड, उडीसी भाषेने मिळवला. त्यांनी अर्ज करायचा. पुरावे द्यायचे आणि दर्जा मिळवायचा असे घडत गेले. त्यासाठी दिल्लीत मोठे राजकीय पाठबळ, प्रश्न पूढे रेटण्याची ताकद असावी लागते. त्याबाबतीत आपले लोक फारच थंड असतात. त्यांना भाषेच्या प्रश्नाचे काहीच पडलेले नसते. ते आपले राजकारण आणि निवडणुका यात गर्क असतात.

यशवंतराव चव्हाण दिल्लीत असताना त्यांचे मराठी भाषा, मराठी लेखक यांच्याकडे लक्ष असे. लेखकांच्या वैयक्तिक कामातही ते मदत करत.

ना. धो. महानोर याचे दिल्लीत काही काम होते. ते त्या ठिकाणी पोचण्याच्या आधीच यशवंतरावांचा संबंधितांना फोन गेला होता. “उद्या तुमच्याकडे मराठीतील मोठे कवी येणार आहेत. त्यांचा योग्य सन्मान करा व त्यांचे काम पहा. ” महानोर ऑफीसात पोचण्यापूर्वी त्यांची ओळख पोचली होती. काम झाले.

इतर राज्य भाषांना अभिजात भाषेचा दर्जा मिळाल्यावर आपले लोक जागे झाले. सरकारने रंगनाथ पठारे यांस निमंत्रक करून एक समिती तयार केली. समितीने खूप तातडीने शोधकार्य सुरु केले.

शिलालेख, ज्ञानेश्वरी, तुकोबाचें अभंग, लीलाचरित्र वगैरे पुरावे पहिल्या शतकापासून मराठी होती आणि ती सलग वापरात आहे हे दाखवत होते. अहवाल सादर झाला. मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण यांनी त्यास संमती दिली आणि तो केंद्रीय समितीकडे पाठवला.

अनेक वर्षे तो तेथे पडूनच राहिला. दिल्लीत पुढाकार घेऊन अहवाल पुढे रेटण्यास कोणीच काही केले नाही. कोणी ते प्रकरण कोर्टातही नेले. तिथे काही वेळ गेला.

शेवटी अहवाल साहित्य अकॅडमीकडे आला. तेथे मराठी भाषेसाठी भालचंद्र नमाडे होते. अनेकांच्या प्रयत्नास यश आले आणि तेवीस ऑक्टोबर २०२४ ला मराठी भाषेला अभिजात भाषेचा दर्जा दिला गेला.

ज्ञानेश्वरी एकदम आकाशतुन उतरली नाही. त्यापुर्वीही मराठी होतीच. ती महाराष्ट्री प्राकृत अशा स्वरूपात होती.

आता अभिजात भाषेचा दर्जा मिळाला. त्या निमित्ते काही कोटी रुपये काही काम करण्यासाठी प्राप्त होतील. कामे होतील. पण तेवढ्याने भागणार आहे का हा प्रश्न आहे? प्रत्यक्षात मराठी भाषेसमोर अनेक प्रश्न उभे आहेत.

पालकच वाचन करेनासे झालेत. वाचनालये ओस नसतील पडली पण ओढ कमी झालीये. अनेक कपाटे उघडलीही जात नाहीत. इंग्रजी शाळांच्या प्रेमामुळे तिकडे ओढा वाढत आहेत. इतके इंग्रजी आल्यावर कित्ती मुले इंग्रजीत बोलणारी, पुढे जाणारी दिसली पाहिजेत. तसे काहीच दिसत नाही. मराठी शाळा व वर्ग बंद पडत चाललेत.

या शाळा काही वाईट नाहीत. कवी नामदेव माळी यांनी “शाळा भेट” हे पुस्तक लिहिले आहे. त्यात जिल्हा परिषदेच्या कित्येक शाळा किती चांगले काम करत आहेत ते दाखवले आहे. तरीही आपल्या मुलांना जिल्हा परिषदेच्या शाळेत घालण्यासाठी किती जण तयार होतील.

मराठी भाषा टिकवून, वाढविण्यासाठी ती ज्ञानभाषा होणे आवश्यक आहे. इंजिनिअरिंग, मेडिकल, पुस्तके मराठीत निघाली पाहिजेत. मातृभाषा मराठीत हे ज्ञान मिळाले तर तीचा फायदा होईल. हे सर्व क्षेत्रात व्हायला हवे. एकोणीसव्या शतकात हे काम मोठया प्रमाणात झाले होते. कोष वाङमय मराठी भाषेत सर्वात जास्त झाले आहे.

अनुवाद हे दुसरे आव्हान भाषेपूढे आहे. मराठीतील उत्तम साहित्य अन्य भाषात जाणे व त्या भाषांतील साहित्य मराठीत येणे आवश्यक असते.

टागोरांची कविता बंगालीतच होती. ती इंग्रजीत गेल्यावर जगाला माहिती झाली. दिलीप चित्रे यांनी तुकाराम “तुका सेज” ना नावाने इंग्रजीत नेला तेव्हा तुकाराम हे केवढे मोठे कवी आहेत, दार्शनिक आहेत हे समजले.

तामिळ, कन्नड, बंगाली या भाषात हे खूप होत असते. कन्नड मधील इंग्रजी शिकवणारे प्राध्यापक हे काम करतात. आपल्याकडील इंग्रजीचे प्राध्यापक, आपण इंग्रजी शिकवतो म्हणजे मोठेच आहोत या भ्रमात वावरतात. त्यांचे इंग्रजी सुद्धा चांगले नसते. गोकाक, मुगली हे इंग्रजीचे प्राध्यापक कन्नड साहित्य इंग्रजीत नेतात. कन्नड आवृत्तीबरोबर इंग्रजी आवृत्ती येते.

भैरप्पा यांचे कन्नड साहित्य उमा कुलकर्णी, वीरूपाक्ष कुलकर्णी यांनी मराठीत आणून मोठेच काम केले आहे. त्यांनी काही मराठी साहित्यही कन्नडमध्ये नेले आहे.

गेली पंचवीस वर्षे पुण्यात भाषांतर करण्याचे काम भाषांतरु आनंदे नावाने करत आहे.

साहित्य अकॅडमी मिळवताना साहित्य इंग्रजीत नसणे हा मोठाच अडसर होतो. कुसुमाग्रजांना ते देण्याच्या वेळेस हीच अडचण आली. काही घाई करून ते काम करावे लागले.

विकीपीडिया हे नवे माध्यम उपलब्ध झाले आहे. त्यात तामिळच्या सोळा हजार नोंदी झाल्या तर मराठीच्या सहाशे. त्या नोंदी करण्याची विशिष्ट पद्धत असते. जयंत नारळीकर यांनी त्यांची सर्व पुस्तके विकीपीडियाला दिलीत. ती वाचनासाठी मोफत उपलब्ध आहेत. पु. लं. ची काही पुस्तकं आहेत.

इकडे अभिजात राजभाषा म्हणून कौतुक करायचे आणि व्यवहारात तीला वापरायचेच नाही, तिच्याकडे दुर्लक्ष करायचे हा दुटप्पीपणा. दर साहित्य संमेलनात “मराठी भाषा जगेल का?” या विषयावर परिसंवाद घ्यायचे आणि करायचे काहीच नाही हे दुर्देव आहे.

राजकारण्यांनी भाषणांत मराठी भाषेला अत्यंत खालच्या स्तरावर नेली.

पुस्तकाचे रुप बदलेल, पण पुस्तक संपणार नाही या विषयावर “धिस ईझ नॉट द एन्ड ऑफ द बुक” असे पुस्तक लिहिले आहे. वेळ आहे काही विचार करण्याची आणि भाषेसाठी कृती करण्याची..

लेखक : अज्ञात 

संग्रहिका : अंजली दिलीप गोखले 

मोबाईल नंबर 8482939011

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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