हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 220 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 220 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

ऐ हो माधवी

—————

हर्यश्व

दिवोदास

उशीनर

और विश्वामित्र के

भोगाग्नि कुण्ड में

स्वयं को

कर हवन ।

किया गमन ।

तपोवन !

तपोवन की शांति में

तुम

रह सकोगी शांत?

कर सकोगी

मन को एकाग्र ?

नहीं, माधवी, नहीं।

तुम्हारी

आँखों के आगे

बारम्बार

उतरायेगा,

तैरेगा

पिता का चेहरा ।

प्रश्न पूछेगा

तुम्हारा स्त्रीत्व!

तुम्हारे

मन में बदलियों की तरह

उमड़ेंगी

घुमड़ेंगीं

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 220 – “जरा सम्हालो बेटी-…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत जरा सम्हालो बेटी-...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 220 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जरा सम्हालो बेटी-...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

माँ के आँचल में दुबकी

यह सोच रही मुनिया

जिसे निष्कपट समझी

थी वह जालसाज दुनिया

 

चौराहा चुपचाप

कनखियों से देखा करता

उसकी भी नजरें विचित्र

जो पहने है कुरता

 

फटी परदनी* वाला वह

मन-राखन पनवाड़ी

कहता- क्यों नाराज

दिखा करती है तू मुनिया

 

घर है बटा हुआ, पड़ौस

का सत्यशील लड़का

बँटी भीट से उचक-उचक

कर, घूरे है बड़का

 

“पाने की जिद में जो”

हर इक मावस -पूनम को

जादू – टोने करवाता वह

बदल – बदल गुनिया

 

नये – नये आरोप गढ़ा

करती सुशील भाभी

घर के विश्वासों की है

उसके हाथों चाभी

 

रोज दिया करती है

ताने अपनी सासू को

” जरा सम्हालो बेटी-

बड़ी हो गई चुनमुनिया”

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-12-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अजातशत्रु ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अजातशत्रु ? ?

उगते सूरज को

अर्घ्य देता हूँ;

पश्चिम रुष्ट हो जाता है,

डूबते सूरज को

नमन करता हूँ;

पूरब विरुद्ध हो जाता है,

मैं कितना भी चाहूँ

रखना समभाव,

कोई न कोई

पाल ही लेता है वैरभाव,

तब कालचक्र ने सिखाया,

अनुभव ने समझाया-

प्रथम या मध्यम पुरुष

निर्धारित नहीं कर सकता,

उत्तम पुरुष की आँख में

बसती है अजातशत्रुता!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ – ‘Echoes of Time…’ – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ ‘Echoes of Time…~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ ~ Echoes of Time…~? ☆

Many decades ago

a forebear of yours

brought me to existence,

The seasons of the life

unfolded like a river,

flowing with moments

of laughter and tears,

of whispers and tales,

of dawn’s promise and

the dusk’s surrender…!

Years vamoosed like

the autumn leaves,

rustling with mystic mysteries,

as I traversed through the

realms of childhood wonder,

youthful fervor, and the

twilight of introspection.

Diaries were penned, then torn,

their fragments flew away

by the winds of time…!

Yet, in this odyssey of moments,

I discovered that life is not a journey,

but a sacred circumambulation

– a spiraling path that weaves together

the smithereens of our souls.

With each passing year,

the canvas of experience expanded,

a kaleidoscope of colors blending into

the masterpiece of our existence…

Now, as the moment of your

departure draws near,

I implore you:

remember that every moment

we shared was a benediction,

-a gift from the universe!

May the wisdom distilled from

the time spent together be the compass

that guides us on the journey,

as we spread our wings to take

the flight into an unknown realm!

Echoes of Time

Many decades ago

a forebear of yours

brought me to existence,

The seasons of the life

unfolded like a river,

flowing with moments

of laughter and tears,

of whispers and tales,

of dawn’s promise and

the dusk’s surrender…!

Years vamoosed like

the autumn leaves,

rustling with mystic mysteries,

as I traversed through the

realms of childhood wonder,

youthful fervor, and the

twilight of introspection.

Diaries were penned, then torn,

their fragments flew away

by the winds of time…!

Yet, in this odyssey of moments,

I discovered that life is not a journey,

but a sacred circumambulation

– a spiraling path that weaves together

the smithereens of our souls.

With each passing year,

the canvas of experience expanded,

a kaleidoscope of colors blending into

the masterpiece of our existence…

Now, as the moment of your

departure draws near,

I implore you:

remember that every moment

we shared was a benediction,

-a gift from the universe!

May the wisdom distilled from

the time spent together be the compass

that guides us on the journey,

as we spread our wings to take

the flight into an unknown realm!

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

24 September 2024

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Weekly Column ☆ Witful Warmth # 32 – The Cookie Chronicles: A Health Revolution… ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Dr. Suresh Kumar Mishra, known for his wit and wisdom, is a prolific writer, renowned satirist, children’s literature author, and poet. He has undertaken the monumental task of writing, editing, and coordinating a total of 55 books for the Telangana government at the primary school, college, and university levels. His editorial endeavors also include online editions of works by Acharya Ramchandra Shukla.

As a celebrated satirist, Dr. Suresh Kumar Mishra has carved a niche for himself, with over eight million viewers, readers, and listeners tuning in to his literary musings on the demise of a teacher on the Sahitya AajTak channel. His contributions have earned him prestigious accolades such as the Telangana Hindi Academy’s Shreshtha Navyuva Rachnakaar Samman in 2021, presented by the honorable Chief Minister of Telangana, Mr. Chandrashekhar Rao. He has also been honored with the Vyangya Yatra Ravindranath Tyagi Stairway Award and the Sahitya Srijan Samman, alongside recognition from Prime Minister Narendra Modi and various other esteemed institutions.

Dr. Suresh Kumar Mishra’s journey is not merely one of literary accomplishments but also a testament to his unwavering dedication, creativity, and profound impact on society. His story inspires us to strive for excellence, to use our talents for the betterment of others, and to leave an indelible mark on the world. Today we present his Satire The Cookie Chronicles: A Health Revolution...

☆ Witful Warmth# 32 ☆

☆ Satire ☆ The Cookie Chronicles: A Health Revolution…  ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

The world had been wrong for centuries—nay, millennia. Nutritionists, doctors, mothers clutching kale smoothies—all of them had perpetuated a grand lie. Vegetables, they said, were good for you. Fruits were heralded as nature’s candy. But I, Harold T. Whittleman, had discovered the truth: health lies in sugar and grease, washed down with a caramel-colored river of fizz.

It started as all great revolutions do—with a stroke of inspiration. Mine came at a discount store, where the fluorescent lighting shone down upon the holy trinity of human survival: cookies, chips, and cola. Each product was adorned with bright, cheerful labels that promised joy, satisfaction, and the possibility of collecting reward points. “Why toil with salads,” I thought, “when the universe has already perfected flavor in powdered cheese and high-fructose corn syrup?”

Thus began my dietary odyssey.

The Breakfast of Champions

Each morning, I feasted upon a breakfast of chocolate chip cookies. Not the sad, homemade kind baked by well-meaning grandmothers who thought raisins were a suitable substitute for joy—no, these were mass-produced miracles, engineered to crumble at the perfect angle when dunked into cola. Milk, after all, was for calves and weaklings.

My mornings were radiant. The sugar hit my bloodstream like a marching band on parade. My hands trembled, yes, but who needs steady hands when wielding a keyboard? My boss once asked why my reports were written in a font size of 72 and filled with random letters. I explained that I was too busy blazing a trail into the future of health to care about mundane details like coherence. He muttered something about “termination,” but I heard “revolutionary.” The world was already catching on.

Lunch with a Crunch

Lunchtime was a sacred ritual: bags of chips stacked like ancient tomes, each one containing the wisdom of artificial flavoring. The crunch was symphonic—a crescendo of MSG and potato fragments. The air around me shimmered with an orange dust, so divine that I stopped using napkins entirely. Why waste such a gift? I merely licked my fingers clean, an act of efficiency that would have made Henry Ford weep with pride.

By now, the doubters had begun to emerge. “Harold, you’re turning orange,” my neighbor whispered one day, concern dripping from her celery-chewing mouth. I dismissed her ignorance. The glow of health was clearly too radiant for her leafy-green brain to comprehend.

Dinner of the Gods

Dinners were a cola symphony, punctuated by cookie intermissions. Each sip was a reminder that life is better when it fizzes. The burps that followed were not crass but celebratory—a salute to human ingenuity. I began experimenting with cookie-chip pairings, striving for that perfect bite that could bring tears to even the most hardened cynic. Dorito-dusted Oreos were a triumph. Lay’s and Fig Newtons? A disaster, but every visionary has their setbacks.

The Sorrow of Society

As with all prophets, I faced persecution. The grocery store banned me after an altercation in which I declared their vegetable aisle a “crime scene of taste.” My family staged an intervention, ambushing me with broccoli and earnest PowerPoint slides about “nutrition.” I wept—not for myself, but for their delusion. How tragic that they couldn’t see the light shining from my grease-stained fingertips.

When I refused to repent, they declared me lost. My mother sobbed into her organic quinoa salad, wailing about my cholesterol. My father simply shook his head and muttered, “At least he’s happy.” That was the last time I saw them, though they still send me pamphlets with titles like Kale: Your Liver’s Best Friend and Sugar: Sweet, Sweet Death.

The Scientific Backlash

My notoriety grew. Doctors began publishing studies condemning my lifestyle, claiming that my arteries resembled “petrified wood” and that I was “a walking public health crisis.” I laughed in the face of their fear-mongering, although laughing sometimes made me wheeze. Science, after all, is a matter of interpretation. One man’s heart disease is another’s calorie-powered engine.

When a journalist asked if I worried about my long-term health, I retorted, “What’s the point of a long life if it’s spent eating kale?” That quote made headlines, and I became an overnight sensation in certain circles—mainly snack forums and cola enthusiast subreddits.

The Bitter End

Inevitably, tragedy struck. My bathroom scale began emitting smoke when I stepped on it. My dentist staged a one-man protest outside my home, holding a sign that read, “Your teeth are a war zone.” My knees developed a curious habit of collapsing under my weight, usually while I carried a full tray of chips.

The end came during my annual health check-up. My doctor—pale, sweaty, and holding what appeared to be an exorcist’s toolkit—delivered the news: my blood had the viscosity of molasses, and my liver had unionized to demand better working conditions.

I nodded solemnly and asked if cola could be considered a health tonic if consumed with a straw. He fainted.

Epilogue: A Legacy of Crumbs

I write this tale from my hospital bed, hooked up to an IV that I’m assured contains neither sugar nor cheese dust. The world outside continues its delusion, clutching their carrots and sipping their herbal teas. But I remain steadfast.

The nurses scold me when they catch me sneaking chips, but they don’t understand—they can’t. I am not just a man; I am a movement, a martyr, a crumb-coated beacon of culinary truth.

One day, they will see. One day, the world will realize that health is not about vegetables, or exercise, or moderation—it is about living boldly, crunching loudly, and fizzing gloriously. Until then, I’ll be here, awaiting the moment when humanity wakes up and smells the cookies.

****

© Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Contact : Mo. +91 73 8657 8657, Email : [email protected]

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व. हीरालाल गुप्ता

☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ ☆

☆ “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

सबको  प्रोत्साहन और प्रकाशन देने वाले स्व. हीरालाल जी गुप्ता प्रदर्शन से परे गुप्त ही बने रहना चाहते थे। न तो उन्होंने अपने पत्रकार होने का कभी ढिंढोरा पीटा और न ही कभी किसी पर रौब गालिब किया। कलम को कभी कुल्हाड़ी नहीं बनने दिया। पद और अधिकार उनके व्यक्तित्व पर कभी हावी नहीं हो पाये।

उपरोक्त प्रतिक्रिया है सुप्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार श्रद्धेय डा. राजकुमार सुमित्र जी की, जो कि उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य के सशक्त स्तंभ श्रद्धेय स्व. श्री हीरालाल जी गुप्ता के व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करते हुए एक लेख में व्यक्त की थी। गुप्ता जी आत्म विज्ञापन और प्रचार से दूर रह कर सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत पर ही विश्वास करते थे। वे जीवन पर्यन्त सादगी से ही रहे और उन्होंने नाटकीयता, बनावटीपन और प्रदर्शन से दूर रह कर अपने व्यवहार और वाणी में भी सादगी और स्वाभाविकता को ही प्रमुखता दी। यही कारण है कि जहां पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने निर्भीकता और निष्पक्षता जैसे मानदंडों को अपनाया वहीं कविता के क्षेत्र में उन्होंने भावनात्मकता और हार्दिकता के साथ अपनी काव्यात्मक प्रतिभा का परिचय दिया।

बचपन में मेरे घर पर जो विशिष्ट व्यक्ति परिवार के मध्य सराहनात्मक रुप से चर्चा का विषय बनते उनमें श्रद्धेय श्री हीरालाल जी गुप्ता भी प्रमुख रुप से शामिल रहते। पूज्य पिता स्व. पं. भगवती प्रसाद जी पाठक के अभिन्न मित्र के रुप में चाहे जब गुप्ता जी के व्यक्तित्व की चर्चा होती। बाद में बड़े भाई श्री हर्षवर्धन, सर्वदमन और प्रियदर्शन ने भी “नवीन दुनिया” समाचार पत्र से पत्रकारिता प्रारंभ की और श्री गुप्ता जी ने मेरे तीनों भाइयों के पत्रकारिकता कार्य में संरक्षक और शिक्षक  की प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया। घर पर जब श्री गुप्ता जी की प्रखर लेखनी और प्रेरक व्यक्तित्व के बारे में बातचीत होती तो मैं बड़े ध्यान से बातें सुना करता। पिताजी द्वारा गणेश उत्सव पर आयोजित काव्य गोष्ठी में जब गुप्ता जी घर आते तो उनकी कविताएं सुनने का मुझे भी अवसर मिलता। उनकी कविताएं हम सभी को मंत्रमुग्ध कर जातीं। बड़े भाइयों के साथ मै भी उन्हें चाचा जी कहकर संबोधित और सम्मानित करता और गौरवान्वित होता।

महाविद्यालयीन अध्ययन के दौरान नवीन दुनिया प्रेस में मैं अक्सर आदरणीय श्री गुप्ता जी से मिलने जाया करता। वे मुझसे बड़े अपनेपन के साथ मेरे वर्तमान और भविष्य के संबंध में अनेक चर्चाएं करते और यथोचित मार्गदर्शन करते। उनका सोचना था कि व्यक्ति की जिस क्षेत्र में  रुचि हो, उसी क्षेत्र में उसे आगे बढ़ना चाहिए। वे मेरी रुचि को देखते हुए मुझे हमेशा लेखन के लिए प्रोत्साहित करते। उनका नजरिया था कि मुझे पत्रकारिता या अध्यापन के क्षेत्र में कार्य करना चाहिए। मैंने जब सहकारी  प्रशिक्षण के क्षेत्र में व्याख्याता और प्राचार्य के दायित्वों का निर्वाह करते हुए साहित्यिक लेखन भी जारी रखा  तो मुझे गुप्ता जी की सभी बातें बरबस याद आ गईं कि उनका मार्गदर्शन मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। एक मैं हूं जिसे गुप्ता जी का इतना प्यार मिला, प्रेरणा मिली, लेकिन मेरे जैसे न जाने कितने होंगे जिनके जीवन निर्माण में गुप्ता जी का मार्गदर्शन सहायक सिद्ध हुआ होगा।

कविता के क्षेत्र में गुप्ता जी का उपनाम “मधुकर” उनके जीवन में सदा अपनी सार्थकता प्रदर्शित करता रहा। उनकी सहजता और सरलता उनके जीवन की एक बड़ी विशेषता रही। तभी आदरणीय श्री श्याम सुन्दर शर्मा ने उनके बारे में लिखा था कि “श्री गुप्ता जी की एक और विशेषता थी, उनका वैष्णव स्वभाव। उनके व्यक्तित्व की सरलता और सहजता ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा। न तो उनकी वेषभूषा में बदलाव आया और न ही उनके व्यवहार में। आक्रामकता तो उन्हें छू तक नहीं गई थी लेकिन जो बात उन्हें सही लगती उस पर वे अडिग रहते थे और यही कारण था कि उन्हें पत्रकारिता के कार्य काल में अपने संपादकीय सहयोगियों का  भरपूर सहयोग मिला। गुप्ता जी अपने पत्रकारिता और सामाजिक जीवन में  अजातशत्रु  के रुप में सभी के मध्य सदा सम्मानित रहे। स्व. श्री हीरालाल जी गुप्ता आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां हमारे मानस पटल पर आज भी हमें प्रेरित और प्रभावित करतीं हैं। स्व. गुप्ता जी की स्मृति में जबलपुर की  अनेक  साहित्यिक संस्थाऐं 24 दिसंबर को स्व. हीरालाल गुप्ता जयंती समारोह आयोजित करती रही हैं, मेरे दृष्टिकोण से यह आयोजन युवा पीढ़ी को पत्रकारीय मूल्यों के साथ सकारात्मक दिशा दर्शन का  प्रेरक आयोजन होता था। इस आयोजन में स्वर्गीय गुप्ता जी के परिवार के सभी सदस्यों की सहभागिता रहती थी। स्व. गुप्ता जी को सादर नमन।        ‌‌

© श्री यशोवर्धन पाठक

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 569 ⇒ मेरे हिस्से की धूप ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरे हिस्से की धूप।)

?अभी अभी # 569 ⇒ मेरे हिस्से की धूप ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं नत-मस्तक हूँ, उस सर्व-शक्तिमान के प्रति, जिसने मुझे मेरे नसीब की रोटी, और मेरे हिस्से की धूप आसानी से उपलब्ध कराई। रोटी के लिए भले ही मुझे पुरुषार्थ करना पड़ा हो, लेकिन धूप तो अनायास ही मेरे द्वारे आ गई।

इंसान ने जंगलों को काट डाला, पहाड़ समतल कर डाले, नदियों को प्रदूषित कर दिया, यहाँ तक कि ग़रीब की रोटी तक उसकी गिद्ध दृष्टि चली गई, लेकिन पृथ्वी के हर प्राणी के हिस्से में आने वाली धूप को वह नहीं रोक सका।।

धूप का ठंड में धरती पर सीधा प्रसारण होता है। किसी उपकरण, टॉवर अथवा बैलेंस के बिना चींटी से लेकर हाथी, और मुकेश अम्बानी से लेकर झाबुआ के आदिवासी की झोपड़ी तक इस धूप की पहुँच है। धूप धरती पर फैल जाती है, एक जाजम की तरह, जिस पर सभी भू-लोकवासी कुनकुनी गर्माहट का आनंद लेते हैं।

आखिर सूर्य का ही अंश है यह पृथ्वी ! वह कैसे इस वसुंधरा का खयाल नहीं रखेगा। इस धरा को हरी-भरी, धन-धान्य से सम्पन्न रखना उसका भी तो कर्तव्य है। सूर्य का केवल कर्ण ही पुत्र नहीं, हर जीव में उस सूर्य का अंश है। वह कभी अस्त नहीं होता ! हमारी सुविधा के लिए अस्ताचल में चला जाता है, ताकि हम दिन भर के थके, विश्राम कर सकें। नई ऊर्जा के साथ वह फिर हमें एक नई सुबह प्रदान करता है।।

हर किसान, मज़दूर और एक गरीब की झोपड़ी तक सूर्य नारायण की पहुँच है। वे अपने विशाल पात्र में धूप लेकर आते हैं, जिससे ठंड में ठिठुरते बच्चे, महिला, पुरुष स्नान करते हैं। प्रकृति बारिश में जल से, और ठंड में धूप से हम धरती वासियों का अभिषेक करती है। लेकिन शहरों की धूप बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं, बहु-मंजिला इमारतें, और शॉपिंग मॉल्स रोक लेते हैं।

जब तक भगवान आदित्य पूरब दिशा में उदित नहीं होते, कोई स्कूल-दफ़्तर नहीं खुलता ! शहरों की मल्टीज़ से सुबह स्कूल जाते बच्चे धूप में अपनी स्कूल बस का इंतज़ार करते हैं, बसें आती हैं, और उन्हें धूप से जुदा कर देती हैं। लेकिन धूप है कि उनके साथ-साथ ही चलती है। धूप में प्रार्थना हो या व्यायाम, सब सूर्य नमस्कार ही तो है। कौन कृतज्ञ नहीं इस ठिठुरती ठंड में धूप का।।

मेरे हिस्से की धूप मुझे आज भी मिल रही है, भरपूर मिल रही है। गर्मी में जब जल-संकट होता है, पानी के टैंकर बुलाने पड़ते हैं, आज तक कभी हमने धूप का टैंकर नहीं बुलाया।

धूप पर कोई कर नहीं, कोई जीएसटी नहीं ! सिकंदर का एक किस्सा मशहूर है। एक फकीर के सामने अपनी महानता का प्रदर्शन करने लगा। तुम फ़क़ीर हो और मैं सिकन्दर महान ! मांगो जो माँगना है। फ़क़ीर ने उसकी तरफ देखे बिना कहा – तुम मेरी धूप रोके खड़े हो, बस वही छोड़ दो।।

अपने हिस्से की धूप हम सबको नसीब होती रहे। सूर्य के बारह नामों सहित सूर्य नमस्कार करें, ना करें, जब धूप का स्पर्श तन और मन से होता है, मन कह उठता है, ॐ सूर्याय नमः।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 203 ☆ # “नववर्ष की नई किरण…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता नववर्ष की नई किरण…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 203 ☆

☆ # “नववर्ष की नई किरण…” # ☆

नव वर्ष की पहली किरण

प्रेम का संदेश लाई है

गगन में सुरमई रंग की

घटा छाई है

पुलकित है हर लम्हा

उम्मीदों पर जवानी आई है

 

अब नई उमलती कलियाॅ होगी

अब फूलों से भरी डलियाॅ  होगी

महकती  बगिया होगी

भंवरों की रंगरलिया होगी

 

हर हाथ को काम होगा

हर हाथ में दाम होगा

हर घर में चूल्हा जलेगा

बेरोजगारी का ना नाम होगा

 

अब कोई न भूखा होगा

मौसम कितना भी रूखा होगा

फसलें खेतों में लहराएगी

बिन पानी के ना सूखा होगा

 

शिक्षा सुलभ सस्ती होगी

शिक्षित हर गांव हर बस्ती होगी

शिक्षा की जब धारा बहेगी

हर गांव से एक महान हस्ती होगी

 

महिलाओं को सम्मान मिलेगा

हर क्षेत्र में मान मिलेगा

नारी शक्ति का लोहा मानकर

वाह वाह करता हर इंसान मिलेगा

 

सब तरफ खुशियों का नजारा होगा

हर कमजोर का सहारा होगा

हर चेहरे पर खुशियां होगी

उम्मीदों से भरा नया साल हमारा होगा/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बनाव… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ बनाव ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

(जलौगवेगा)

भलेपणाचा प्रभाव आहे

तसाच येथे दबाव आहे

*

नवीन संधी लुटायची तर

तसाच केला सराव आहे

*

उगीच त्रागा करू नका ना

अशांत झाला जमाव आहे

*

विरोधकांच्या पराभवाचा

जमून केला ठराव आहे

*

दबून थोडे जपून वागा

बघून जेथे तणाव आहे

*

मिळेल ते तो नमून घेतो

मलूल ज्याचा स्वभाव आहे

*

सुखात नाही कुणीच येथे

सुधारणांचा अभाव आहे

*

फसाल तेव्हा कळेल सारे

कुणाकुणाचा बनाव आहे

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “नव्या युगाचे गीत…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “नव्या युगाचे गीत…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

नव्या युगाचे आता गीत गायचे आहे

नवचैतन्याचे आता तेज प्यायचे आहे.

*

स्वागतास नव वर्षाच्या निशा निमंत्रण तुम्हा

तेज प्राशण्या तुम्हा उषा निमंत्रण आहे.

*

हे धुंदी मधले नृत्य स्वार तमावर व्हावे

ही तेज शलाका पकडा हा मंत्र युगाचा आहे.

*

तेजाची धुंदी जेंव्हा रोम रोम फुलवील

तो सूर्य झेलण्यासाठी सज्ज व्हायचे आहे.

*

लाजून ईश्वरा पुढती पाण्याचे मद्य जहाले

तो प्रेषित चैतन्याचा तुम्हा व्हायचे आहे.

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares