☆ – The Citizenship journey: A Memoir – ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆
Life has a way of presenting opportunities that shape not just our careers but also our inner selves. My journey with Citizen SBI was one such transformative experience. It began with my selection as faculty for the State Bank Academy, Gurgaon—a position I never assumed. Instead, I was posted as the head of the learning center at Indore, a role that coincided with my appointment as the intervention leader for the Citizen-SBI program.
Citizen SBI was more than a training program. Inspired by Swami Ranganathananda of the Ramakrishna Mission, it aimed to cultivate ‘enlightened citizenship.’ This concept transcended political citizenship—focused on rights and freedoms—and emphasized a deeper engagement with collective welfare and individual fulfillment. The program was the brainchild of our chairman, O.P. Bhatt, who envisioned its impact extending to 200,000 employees and, through them, to 140 million customers.
The foundation of this initiative was engagement—true, deep involvement in one’s work. As I immersed myself in its philosophy, I discovered the transformative power of meaningful contribution. No longer was work just a duty; it became a purpose-driven act of service. This shift in mindset was a spiritual awakening for me.
The journey began with workshops and pilots across locations, from Mumbai to Hyderabad and Gurgaon. I remember vividly my first interaction with V. Srinivas, the visionary CEO of Illumine Knowledge Resources. His conviction was palpable, though his ideas initially seemed abstract to many. Over time, through detailed workshops and apprenticeships, the abstract became tangible, and the facilitators, including myself, underwent a profound transformation.
The program’s influence extended beyond professional training. It created a rich network of facilitators, bonded by a shared purpose. The ‘facilitator gym’ sessions at the Bandra-Kurla Complex honed our skills and deepened our understanding of citizenship. These moments of camaraderie and collective learning were deeply fulfilling.
Back in Indore, I was tasked with implementing Citizen SBI in the State Bank of Indore. Initially, there was resistance—they did not yet see themselves as citizens of SBI. However, with the help of facilitators like Suresh Iyer, Harinaxi Sharma, and Arun Kalway, we gradually earned their trust. The program’s ethos resonated, bringing about a noticeable shift in their attitudes.
The essence of Citizen SBI was not about personal gain but about contributing positively to others. It wasn’t ‘swantah sukhai’—happiness for oneself—but a collective welfare-driven joy. This philosophy became my way of life, influencing not just my work but my personal ethos.
The program’s success was also a testament to the incredible people involved. Intervention leaders like Bijaya Dash, R. Natarajan, and Balachandra Bhat became cherished friends. Vasudha Sundararaman, our deputy general manager, coordinated the program with unmatched efficiency and warmth. Yashi Sinha, general manager, was an epitome of grace and wisdom. Above all, V. Srinivas, with his dedication to the cause, became a source of inspiration—a guru whose example I sought to follow in words and deeds.
As I reflect on this journey, I find myself deeply fulfilled. I have reaped not only the ‘outer fruits’ of professional growth and recognition but also the ‘inner fruits’ of spiritual evolution and the joy of contribution. My experiences as a behavioral science trainer and student of positive psychology further enriched this journey, grounding it in the principles of authentic happiness.
Citizen SBI was not merely a program; it was a movement, a way of life. It taught me that true citizenship is an internal transformation, a continuous journey of growth, contribution, and engagement. It is a journey I carry forward with pride and gratitude, knowing that it has shaped me into not just a professional but a better human being.
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मरने-जीने की शर्तें …“।)
अभी अभी # 554 ⇒ मरने-जीने की शर्तें श्री प्रदीप शर्मा
कुछ ही लोग ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जी पाते हैं। अधिकांश बीमारियों का तो शर्तिया इलाज हो सकता है, कुछ बीमारियाँ फिर भी लाइलाज भी रह ही जाती हैं। ज़िंदा रहने की कोई शर्त नहीं होती, समयावधि नहीं होती। चलो मान लिया, हम अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी नहीं जी सकते, तो क्या अपनी शर्तों पर हमें मरने का भी अधिकार नहीं।
हम ज़िन्दगी जीना कब शुरू करते हैं, सिर्फ हमारे अलावा कौन जानता है। जब तक इंसान ज़िन्दगी का मतलब समझे, मौत का बुलावा आ जाता है। ढंग से जीना शुरू भी नहीं किया, और ऊपर से बुलावा आ गया। मरना कौन चाहता है ! कुछ की जिजीविषा और आत्म-विश्वास उन्हें सौ साल तक जिंदा रखता है, तो कुछ कम उम्र में ही टूट जाते हैं।।
बहुत दुख होता है, किसी को असमय ज़िन्दगी को अलविदा कहते देख ! ज़िन्दगी के बाद बहुत कुछ होगा, लेकिन ज़िन्दगी नहीं। जब हमें मौत को गले ही लगाना है, तो क्यों न पहले से ही खरी-पक्की कर ली जाए। ज़िन्दगी भर तो पछताते रहे, कम से कम मौत तो अपनी शर्तों के अनुसार मिले।
क्या मौत से पहले एक चार्टर ऑफ डिमांड्स नहीं दिया जा सकता ! जिस तरह इंसान की जीने की कुछ मूल-भूत आवश्यकताएं हैं, क्या मरने के बाद नहीं हो सकती। चलो ! मान लिया, हम मर गए, लेकिन हमारा रखवाला, वह ऊपर वाला भगवान तो अभी नहीं मरा। जीते जी चलो हमारी नहीं सुनी, अब मरने के बाद तो सुनवाई कर लो।।
हमारा सिर्फ़ शरीर ही मरता है, आत्मा तो अमर है ही ! हमारी इच्छाएँ कहाँ मरती है। आज, ठंड में एक प्याला जो चाय हमें नसीब होती है, क्या मरने के बाद उस पर हमारा कोई अधिकार नहीं ! मानवाधिकार जैसा, क्या मृतकों का कोई अधिकार नहीं ? ईश्वर का विधान तो भारत के संविधान से भी ज़्यादा कड़क दिखाई देता है। क्या राइट टू इनफार्मेशन (RTI) के तहत हमें ईश्वर से यह जानने का अधिकार नहीं, कि हमें कहाँ, कौन से लोक में, स्वर्ग अथवा नर्क में भेजा जा रहा है।
न्याय का सिद्धांत यह भी दलील दे सकता है कि एक मृत व्यक्ति पर इस लोक का क्षेत्राधिकार, jurisdiction, लागू नहीं होता। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि मरने के बाद हमारी कोई नहीं सुनने वाला। ( जीते जी किसने सुन ली थी ) जितनी भी खरी-पक्की करना है, शर्तें रखना है, अब ही रख सकते हैं। ताकि सनद रहे, मृत्यु पश्चात वक्त ज़रूरत काम आवे।।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुखद संदेश…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 224 ☆सुखद संदेश… ☆
विनम्रता का भाव जीत का आधार बनता है। विकट समस्या भी एक समय के बाद स्वयं हल हो जाती है। जहाँ एक ओर लोग इसे सहजता से स्वीकार करते हैं तो वहीं दूसरी ओर लोग रो पीट कर, थक हार कर इसे ईश्वर की नियति मानकर अपनाते हैं। भाव कोई भी हो वक्त हर मरहम की दवा बन सबको जीने का पाठ पढ़ाता है। जिस वातावरण में हम रहते हैं वहाँ का असर पड़ना स्वाभाविक है, बुद्धिमानी तो इसमें है कि हमें अपनी संगति का सतत ध्यान रखना चाहिए, किसी कीमत पर इससे समझौता न हो। आध्यात्मिक शक्ति हमको जीवन मूल्यों के साथ अपने उद्देश्यों से भी परिचित कराती है इसलिए इसके साथ रहिए…अर्चना, वंदना, भक्ति की शक्ति को अपनी ताकत बना ब्रह्मांड से जुड़ें।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना बिल्ली का गाना।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 32 – बिल्ली का गाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
यह कहानी है एक ऐसे गांव की, जहां की हर चीज़ अनोखी थी। गांव का नाम था “गायबपुर”, जहां लोग अजीबोगरीब शौक रखते थे। इस गांव में एक बिल्ली थी, जिसका नाम था “म्याऊं-सर”। म्याऊं-सर का एक खास शौक था – वह हर सुबह बांग्ला गाने गाने का शौक रखती थी। अब सवाल यह था कि एक बिल्ली गाने गा सकती है? लेकिन गायबपुर के लोग तो अपने मजेदार शौक के लिए जाने जाते थे, इसलिए उन्होंने इसे गंभीरता से ले लिया।
गांव के लोग म्याऊं-सर के गाने को सुनने के लिए हर सुबह एकत्र होते। पहले तो गांव के लोग समझ नहीं पाए कि यह क्या हो रहा है, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें इसकी आदत हो गई। म्याऊं-सर जब गाना शुरू करती, तो गांव में हलचल मच जाती। अब यह तो तय था कि गाना किसी इंसान का नहीं था, लेकिन लोग इसे सुनने के लिए बेताब रहते थे।
गांव के कुछ लोग इस स्थिति पर चिंता कर रहे थे। “क्या यह बिल्ली सच में गाना गा रही है?” एक बुजुर्ग ने कहा। “क्या हमें इसे गायक का दर्जा देना चाहिए?” दूसरे ने कहा। सब लोग एक-दूसरे की तरफ देखते रहे। अंततः गांव के प्रधान ने यह तय किया कि म्याऊं-सर को एक पुरस्कार देना चाहिए। उन्होंने घोषणा की कि म्याऊं-सर को “सर्वश्रेष्ठ गायिका” का खिताब दिया जाएगा।
गांव के लोग इस फैसले से खुश थे, लेकिन कुछ लोग इसके खिलाफ थे। उन्होंने कहा, “यह सब बेतुकी बात है! एक बिल्ली को कैसे गायिका माना जा सकता है?” लेकिन प्रधान ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने म्याऊं-सर के लिए एक विशेष समारोह आयोजित किया, जिसमें गांव के सभी लोग शामिल हुए।
समारोह में म्याऊं-सर को एक स्वर्ण पदक और एक बड़ी सी मछली का तोहफा दिया गया। म्याऊं-सर ने गाने का काम जारी रखा और गांव के लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। लेकिन इसके साथ ही, गांव में कुछ नई समस्याएं भी आ गईं। अब गांव के लोग रोज म्याऊं-सर के गाने के लिए पैसे देने लगे थे। कुछ लोग तो म्याऊं-सर के गाने को सुनने के लिए अपनी जमीन तक बेचने लगे।
गायबपुर में यह स्थिति धीरे-धीरे बढ़ती गई। अब तो गांव के बच्चे भी म्याऊं-सर के गाने के दीवाने हो गए थे। वे उसके गाने को सुनने के लिए स्कूल नहीं जाते थे। लेकिन फिर एक दिन, म्याऊं-सर अचानक गायब हो गई। गांव में हड़कंप मच गया। सब लोग म्याऊं-सर की तलाश में निकल पड़े। कुछ लोगों ने कहा, “शायद म्याऊं-सर किसी बड़े संगीत कार्यक्रम में भाग लेने गई होगी!” जबकि दूसरों ने कहा, “शायद वह अब गाना नहीं गाना चाहती।”
गांव के लोगों ने बहुत कोशिश की, लेकिन म्याऊं-सर का कोई सुराग नहीं मिला। लोगों ने कई दिन तक उसके लिए पूजा-पाठ किया, लेकिन वह वापस नहीं आई। अंत में, गांव के लोग इस बात को मानने लगे कि शायद म्याऊं-सर गाने का शौक छोड़ चुकी है। उन्होंने अपने-अपने काम में लगना शुरू किया।
कुछ महीने बाद, एक नया शख्स गांव में आया। उसका नाम था “गायकीपुर”, और वह खुद एक गायक था। उसने गांव वालों को बताया कि वह म्याऊं-सर की गायकी के बारे में सुन चुका है और उसे जानने के लिए आया है। गांव वालों ने उसे म्याऊं-सर की कहानी सुनाई और बताया कि कैसे उसने उन्हें अपनी गायकी से प्रभावित किया।
गायकीपुर ने कहा, “यह तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि असली गायकी क्या होती है?” गांव वालों ने चौंकते हुए कहा, “क्या मतलब?” गायकीपुर ने उन्हें समझाया, “गायकी तो इंसानों का काम है। बिल्ली का गाना तो एक मजाक है।”
गांव के लोगों ने इस पर गंभीरता से विचार किया। उन्होंने महसूस किया कि वे एक बिल्ली की वजह से अपने जीवन की अहमियत को भूल गए थे। म्याऊं-सर की गायकी एक मजाक बनकर रह गई थी, जबकि असली गायकी और संगीत की महत्वता को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया था।
इस घटना के बाद, गांव के लोग म्याऊं-सर को भूल गए और अपने असली सपनों की ओर बढ़ने लगे। गायबपुर ने फिर से अपने असली रंगों में लौटने की कोशिश की। और इस बार, कोई भी बिल्ली के गाने की बात नहीं करता। म्याऊं-सर अब केवल एक याद बन गई थी, एक हास्यास्पद लेकिन महत्वपूर्ण कहानी, जो इस बात की याद दिलाती थी कि कभी-कभी हम बेतुके शौक और हास्यास्पद चीज़ों में अपने असली लक्ष्यों को भूल जाते हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा –“अँधा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 197 ☆
☆ लघुकथा- अँधा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
“अरे बाबा ! आप किधर जा रहे है ?,” जोर से चींखते हुए बच्चे ने बाबा को खींच लिया.
बाबा खुद को सम्हाल नहीं पाए. जमीन पर गिर गए. बोले ,” बेटा ! आखिर इस अंधे को गिरा दिया.”
“नहीं बाबा, ऐसा मत बोलिए ,”बच्चे ने बाबा को हाथ पकड़ कर उठाया ,” मगर , आप उधर क्या लेने जा रहे थे ?”
“मुझे मेरे बेटे ने बताया था, उधर खुदा का घर है. आप उधर इबादत करने चले जाइए .”
“बाबा ! आप को दिखाई नहीं देता है. उधर खुदा का घर नहीं, गहरी खाई है .”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यि क अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है भोपाल में रंगमंच के अंतर्गत एक रपट – “रंगशीर्ष भोपाल का लघु नाट्य प्रयोग…”।)
रंगमंच – रंगशीर्ष भोपाल का लघु नाट्य प्रयोग… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
रंगशीर्ष भोपाल, ने सुश्री रीना बिष्ट के निर्देशन में विगत दिवस दो कहानियां शीर्षक से स्व हरिशंकर परसाई की प्रसिद्ध कहानी “वह जो आदमी है ना” का नाट्य रूपांतरण तथा श्रीमती कांता राय की कहानी “मां की नजर” के नाटक रूपांतरण की लघु प्रस्तुतियां दुष्यंत संग्रहालय भोपाल के सभागार में आयोजित की।
“वो जो आदमी है ना” का प्रसिद्ध व्यंग्य है जिसमें वे लोगों के दोहरे चरित्र को उजागर करते हैं। रचना जीवन के विभिन्न पहलूओं निन्दा, स्वार्थ, स्वहित, चरित्रहीनता पर कटाक्ष करती है। कितने ही लोग है जो ‘चरित्रहीन’ होने के अवसर नहीं मिल पाने से ‘चरित्रवान’ बने रहते हैं।
निंदा में, अपने परिवेश में तांक झांक करने में लोग मजे लेते हैं। इसी कथानक को नाट्य संवाद शैली में मंच पर केवल पंद्रह मिनट में प्रस्तुत किया गया। कलाकार श्री बालक राम यादव तथा श्री सौरभ राजपूत ने संवाद के उतार चढ़ाव और निर्देशक के अनुरूप अभिनय से कहानी को दर्शकों के लिए सहज ग्राहय बना दिया।
नाटक पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्ध भाषाविद डा जवाहर कर्णावट ने कहा कि सीमित मंच साधनों के बिना भी प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी। नाट्य लेखक विवेक रंजन श्रीवास्तव ने कहा कि इस तरह की लघु एकांकी पूर्वरंग के अंतर्गत प्रस्तुति हेतु उपयुक्त हैं, उन्होंने रंगशीर्ष की टीम को उनके प्रयासों के लिए बधाई दी।
दूसरी प्रस्तुति भोपाल की लेखिका श्रीमति कांता राय की लघुकथा “माँ की नजर” की नाट्य रूपांतरण प्रस्तुति थी। पत्नि की खुशी और जरूरत का ख्याल रखने वालों को संयुक्त परिवार में जोरू का गुलाम समझा जाता है, इस विसंगति पर चोट करते कथ्य को संवाद शैली में मंच पर अभिनीत किया गया। सुश्री हिमांशी मालवीय एवं श्री सौरभ राजपूत ने अच्छा अभिनय और संवाद प्रस्तुत किया।
कुल मिलाकर रंगशीर्ष का यह प्रयास सराहनीय है। संस्था के श्री मेहता ने बताया कि जल्दी ही कविताएं भी मंच पर प्रस्तुत की जाएंगी।
रपट – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।