हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रीमहालक्ष्मी साधना 🌻

दीपावली निमित्त श्रीमहालक्ष्मी साधना, कल शनिवार 15 अक्टूबर को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी तदनुसार शनिवार 22 अक्टूबर तक चलेगी।इस साधना का मंत्र होगा-

ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – तूफान ??

वह प्याले में

उठे तूफान के

किस्से सुनाता रहा,

अपने भीतर,

एक समंदर लिए

मैं चुपचाप सुनता रहा..!

प्रातः 6:50 बजे, 17.10.18

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 122 ☆ जमीन से जुड़ाव ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जमीन से जुड़ाव। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 122 ☆

☆ जमीन से जुड़ाव ☆ 

प्रचार – प्रसार माध्यमों का उपयोग करते हुए रील / शार्ट वीडियो के माध्यम से अपनी बात कहना बहुत कारगर होता है। बात प्रभावी हो इसके लिए सुगम संगीत की धुन या कोई लोकप्रिय गीत की कुछ पंक्तियों को जोड़कर सबके मन की बात 60 सेकेंड में कह देना एक कला ही तो है। ज्यादा समय कोई देना नहीं चाहता। कम में अधिक की चाहत ने क्रिकेट को ट्वेंटी- ट्वेंटी का फॉर्मेट  व सोशल मीडिया में रील को जन्म दिया है। एक बार रील देखना शुरू करो तो पूरा दिन कैसे बीत जाएगा पता ही नहीं चलता।

समय को पूँजी की तरह उपयोग करना चाहिए , जैसे ही इससे सम्बंधित वीडियो देखा तो झट से मन आत्ममंथन करने लगा। अब ऊँची उड़ान भरते हुए दिन भर जो सीखा था उसे झटपट डायरी में लिख डाला और रात्रि 11 बजे एक मोटिवेशनल पेज बनाकर दिन भर की जानकारी को जोड़कर एक सुंदर पोस्टर, पोस्ट कर दिया। अब तो लाइक और कमेंट की चाहत में पूरा दिन चला गया। तब समझ में आया कि अभाषी मित्र झाँसे में आसानी से नहीं आयेंगे। बस दिमाग ने तय किया कि अब तो बूस्ट पोस्ट करना है। कुछ भी हो 10 K  से ऊपर लाइक होना चाहिए आखिर इतने वर्षों का तजुर्बा हार तो नहीं सकता था।बस देखते ही देखते प्रभु कृपा हो गयी अब तो उम्मीद से अधिक फालोअर होने लगे थे जिससे सेलिब्रिटी वाली फीलिंग आ रही थी। एक पोस्ट ने क्या से क्या कर दिया था। जहाँ भी निकलो लोग पहचान रहे थे। आभासी मित्रों को भी आभास होने लगा कि समय रहते इनसे दोस्ती बढ़ाई जाए अन्यथा आगे चलकर ये तो तो पहचानेंगे भी नहीं।

ऐसा क्यों होता है कि सारा समय व्यर्थ करने के बाद हम जागते हैं। दरसल किसी भी समय जागें पर जागना जरूर चाहिए। जो लोग कुछ करने के लिए निकल पड़ते हैं उनके साथ काफिला जुड़ता जाता है। यात्राओं का लाभ ये होता है कि इससे जमीनी तथ्यों की जानकारी के साथ ही लोगों से जुड़ाव भी बढ़ता है। जगह – जगह का पानी,भोजन, बोली, वातावरण व पहनावा ये सब अवचेतन मन को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति की सोच बदलती है वो धैर्यवान होकर केवल अधिकारों की नहीं कर्तव्यों की बातें भी करने लगता है। उसे समाज से जुड़कर उसका हिस्सा बनने में ज्यादा आनंद आने लगता है।  पाने और खोने का डर अब उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। धरती में इतनी ताकत है कि जिसने इसे माँ समझ कर उससे जुड़ने की कोशिश की उसे आकाश से भी अधिक मिलने लगा।

अपने को जमीन से जोड़िए फिर देखिए कैसे खुला आसमान आपके स्वागत में पलकें बिछा देता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 132 ☆ हिंदी, हिंदुस्तान रे! ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 133 ☆

☆ हिंदी, हिंदुस्तान रे! ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

भारत की गौरव गाथा है

हिंदी , हिंदुस्तान रे!

गर्व से बोलो हिंदी भाषा

युग की वेद पुराण रे!

 

आजादी की बनी सहेली

शब्द – शब्द है एक पहेली

संघर्षों में तपी कनक – सी

अनगिन पीड़ा इसने झेली।।

 

हिंदी सीखें सब ही मन से

सभी बढ़ाओ ज्ञान रे!

भारत की गौरव गाथा है

हिंदी , हिंदुस्तान रे!

 

तुलसी, सूर , कबीर पढ़ो तुम

आपस में मत कभी लड़ो तुम

हिंदी भाषाओं का सागर

सत्य बात पर सदा अड़ो तुम।।

 

हिंदी जग की अमरबेल है

हिंदी जग की शान रे!

भारत की गौरव गाथा है

हिंदी , हिंदुस्तान रे!

 

भाषाएँ सब ज्ञान बढ़ातीं

नहीं किसी को कभी लड़ातीं

जीवन जीने का गुरु देतीं

सही मार्ग का पाठ पढ़ातीं।।

 

हिंदी सबको एक कराए

भाषा श्रेष्ठ महान रे!

भारत की गौरव गाथा है

हिंदी , हिंदुस्तान रे!

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अंगण! ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

श्री मुबारक उमराणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अंगण!… ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

माझ्या अंगणाला

मेंदीचं कुंपण

माझी आई घालते

मायेचं शिंपण

 

अंगणात फुलते

मेंदीसंग तुळस

दारातूनच सर्वा दिसतं

विठुरायाचं कळस

 

सोनचाफा पिवळा

देई सुगंध

कपाळाला लावतो

भक्तभावाचा गंध

 

सांयकाळी बाबासंगे

म्हणतो रामरक्षा

ताई माझी सदा करे

माझी सुरक्षा

 

चिमणपाखराची येथे

सदा वर्दळ

कोप-यात फुलते

पिवळी, लाल कर्दळ

 

जाई जुई मोगरा, शेवंती

सदा फुलते

आईबाबासंगे माझ

बालमन झुलते

 

खारुताई उड्या मारी

माझ्यासह अंगणात

रोज नवे गाणे फुले

माझ्या मनात

 

मनीमाऊ पिल्यासंगे

येथे खेळते

ओवी गात माझी आई

दळण दळते

 

दारातच राखण करी

मोत्या माझा मित्र

दुरूनच शोभे माझ्या

अंगणाचे चित्र

 

कोप-यात फणस उभा

लेकराबाळासवे

आंबा चाखण्यासाठी

येती पक्ष्यांचे थवे

 

माझा मैतरं सांगतो

अंगण खूप सुंदर

अंध मी मनस्पर्शाने

अंगण समिंदर

 

खेळ दैवाचा असे

असा न्यारा

माझे अंगणच जग

असे मला प्यारा

 

© श्री मुबारक उमराणी

राजर्षी शाहू काॅलनी, शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #132 ☆ तुला पाहिले…!☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 132 ☆ तुला पाहिले…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

तुला पाहिले अन् काळजात गलका झाला

हसताच गाली जीव हलका हलका झाला .

 

रांगेत उभा केव्हाचा, प्रेमात मी झुरणारा

डोळ्याला भिडता डोळा, स्वप्नांचा जलसा झाला.

 

रंगांची असते भाषा, माहित नव्हते काही

गालावर येता लाली, गुलाब कळता झाला.

 

हातात हात प्रेमाचा, नजरेची झाली भाषा

प्रेमाचा रंग नशीला, ह्रदयी वळता झाला.

 

झाले रूसवे फुगवे, मन मनांचे झाले

विश्वास सोबती येता,प्रवास सरता झाला.

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ मी नाही मागत भिक्षा…☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?️?चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? मी नाही मागत भिक्षा…  ? ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ 

अंधार सोबती माझा

पण तमा न त्याची मजला

सजवून तेल,वातीने

घर तुमचे खुशाल उजळा

महाल,माड्या,गाड्या

लखलाभ तुम्हाला तुमचे

हासेल झोपडी माझी

मागते मोल कष्टाचे

मज नकोत उंची वस्त्रे

नकोच आतषबाजी

उदराच्या खळगीपुरती

मज मिळू दे भाकर भाजी

लेकरे घरी,दारात

अन् डोळे वाटेवरती

आणले काय आजीने

काय ठेवू त्यांच्या पुढती

ही विनवणी तुम्ही समजाहो

मी नाही मागत भिक्षा

कष्टाला मोल नसे का ?

का गरिबाला ही शिक्षा?

ही पणती माझ्या घरची

लखलखेल तुमचे घर

जमले तर दूर करा हो

मनी अंधार दाटला फार

चित्र सौजन्य – श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मला नाही मोठं व्हायचं… भाग २ (भावानुवाद) – डॉ हंसा दीप ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

☆ मला नाही मोठं व्हायचं… भाग २ (भावानुवाद) – डॉ हंसा दीप ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

( मागील भागात आपण पाहिले – परीला माहीत होतं, आजोबा घरात सगळ्यात मोठे आहेत. त्यांना मोठी मोठीच कामं आवडतात. पण त्यांच्या हे कसं लक्षात येत नाही, की प्रत्यक्षात अनेक लोक हे काम करतात. त्यांचे मम्मी-पप्पा, किंवा आजी-आजोबा कधी त्यांना नको म्हणत नाहीत. मी कुठलंही काम करायचं ठरवलं, तरी ते कुणालाच आवडत नाही. हा माझ्यावर अन्याय आहे. शी:! सगळंच कसं वैतागवाणं. सगळंच कसं निराशाजनक!….  आता इथून पुढे ) 

या सगळ्या उहापोहात एक आठवडा सरला. अजूनपर्यंत एखादं नवीन काम परीला सुचलेलं नाही. आज शनिवार आहे. सगळे जण बाहेर फिरायला जाणार आहेत. ‘रॉयल ओंटेरियो म्यूज़ियम’ बघायला जायचा त्यांचा विचार आहे आणि ते गेलेही.

ते आत पोचले, तेव्हा सारं काही भव्य-दिव्य होतं. मोठमोठ्या मूर्ती काचेच्या उभ्या पेटीत सुंदर तर्हेमने सजवून मांडलेल्या होत्या. परी मात्र त्या सुंदर, संग्रहित वस्तूंकडे बघत नव्हती. तिचं लक्ष होतं त्या गाईडकडे. ती मोठ्या मधुर आवाजात, अगदी चांगल्या रीतीने तिथल्या वस्तूंचा इतिहास सांगत होती आणि सगळे जण अगदी शांतपणे तिचं बोलणं ऐकत होते. त्या गाईडचे कपडेही खूप चांगले होते. काळा स्कर्ट. काळा ब्लेझर आणि गळ्यात लाल स्कार्फ. नेम टॅग गळ्यात घातलेला होता. एक नवा विचार परीच्या मनात वळवळू लागला. असेच हाय हीलचे बूट घालून आणि ‘परी’च्या नावाचा टॅग गळ्यात घालून ती गाईड बनेल.    

संध्याकाळी सगळे घरी परतले. दिवसभर परीने जे काही ऐकलं, पाहीलं, ते तिला नानीला, म्हणजे मम्माच्या ममाला फोनवर सांगायचं होतं. ही तिच्यासाठी एक चांगली संधी होती. तिने समोर टांगलेला मम्मीचा ब्लेझर काढून घातला. हाय हीलचे बूट घातले॰ लोकरीची दोरी बनवून त्यात एक कागद घातला. त्यावर मोठ्या मोठ्या अक्षरात ‘परी’ लिहीलं होतं. आपला नेम टॅग गळ्यात घालून तिने सगळा जामानिमा पूर्ण केला आणि फोनवर व्हिडिओ चालू करून ती नानीशी बोलू लागली. अगदी गाईडप्रमाणे. जे जे तिने तिथे बघितलं होतं, ते ते तिने नानीला सांगितलं आणि तिने हेही नानीला सांगितलं की ती मोठी झाल्यावर गाईड बनू इच्छिते. हे ऐकल्यावर नानी खूप हसली. म्हणाली, ‘परी … खूप छान…. पण तुला गाईड का बनायचय? तुझी नानी प्रोफेसर आहे. बनायचं तर प्रोफेसर बन ना! खूप पैसे मिळतील.’  .  

तिला अशी आशा होती, की तिची नानी तिला समजून घेईल. ती तिच्यावर खूप  प्रेम करते. पण नाही… तिला वाटलं आपण चुकीचा विचार केला. नानीला कसं समजावून सांगावं की तिला माहीतच नाही, की प्रोफेसर कसे शिकवतात? मुलांना ते आवडतात की नाही? जर काहीच माहीत नसेल, तर त्याबद्दल ती कसा विचार करणार? परीचा काम करण्याचा उत्साह तिच्यासाठी एक कोडं बनून राहिला आहे. कसं सोडवावं हे कोडं?

परी विचार करते आहे. विचार करता करताच तिचं लक्ष समोर टेबलावर पसरलेल्या वॉटर कलर आणि क्रेयॉन्सच्या रंगांकडे जातं. तिला चित्र काढायला, पेंटिंग करायला सगळ्यात जास्त आवडतं. अगदीच बुद्दू आहोत आपण. आधीच का नाही बरं आपल्याला हे सुचलं, तिला वाटतं. चला, अजूनही काही फारसा उशीर झालेला नाही आहे. आता तिला असं काम सापडलय, जे काम तिने करणं सगळ्यांनाच आवडेल. मम्मी-पप्पा, तिला आणि छोटूला ‘आर्ट गॅलरी ऑफ ऑन्टेरियो’ ला एकदा घेऊन गेले होते. तिथे मोठमोठ्या चित्रांचं प्रदर्शन लागलं होतं. तेव्हा तिचे पप्पा तिला म्हणाले होते, ‘बघ बेटा रंगांची कमाल! कलाकाराचं कौशल्य बघ रंगांना किती सुंदरपणे सजवतं! कल्पना आणि रंगांच्या उत्कृष्ट मिलाफातून जन्म घेते चित्रकला.

अखेर तिने एक चांगलं काम शोधून काढलच तर. या कामाबद्दल कुणाचीच कसली तक्रार असणार नव्हती.

तिने आपल्या रिकाम्या वेळात एकामागून एक अनेक चित्रे बनवली आणि मम्मी-पप्पांना सांगितलं, ‘मी चित्रकार बनेन. हा माझा शेवटचा निर्णय आहे.’ मम्मी-पप्पांनी एकमेकांकडे पाहीलं आणि मग परीकडे पाहीलं. ती एकटक मम्मी-पप्पांकडे बघत होती. मग दोघे एकदम बोलू लागले की त्यांच्यापैकी एकजण कुणी तरी, परीला काही कळलं नाही. तिच्या कानातं आवाज येत होता, ‘ तू कलाकार तर आहेसच, बेटा! खूप छान चित्र काढलीयस तू!  आम्हाला आवडली पण आपलं खास काम, फुल टाईम काम  काही तरी वेगळं असायला हवं. कलाकाराला पार्ट टाईम ठेव. हा एक छंद असू शकतो. आपलं मुख्य काम नव्हे. जे फुल टाईम कलाकार असतात ते भुकेने मरतात. 

फुल टाइम, पार्ट टाइम तिला काही कळलं नाही. भुकेने मरण्याची गोष्टही तिच्या गळ्याखाली उतरली नाही. कालपर्यंत तर ते त्या आर्ट गॅलरीत पाहिलेल्या मोठमोठ्या चित्रांची तारीफ करत होते. आज कशी भाषा बदलली?

परी उदास आहे. काम शोधण्याचा तिने खूप प्रयत्न केला. या मोठ्या लोकांचं बोलणं मोठं आहे. त्यांना कळतच नाही, की जे तिने बघितलय, जे तिला आवडलय, तेच काम ती करू शकेल नं? त्याचीच स्वप्नं ती बघू शकेल. जे तिने पाहीलंच नाही, किंवा पाहीलं, पण तिला आवडलं नाही, तर ते काम परी कशी करू शकेल? तिला पसंत असलेलं प्रत्येक काम हे लोक रिजेक्ट करतात.

आता परीने मोठं होण्याचा विचार डोक्यातून काढून टाकला. ती छोटी आहे, तेच ठीक आहे. आपला दुधाचा दात ती शोधते आहे, म्हणजे तो पुन्हा लावता येईल.

 – समाप्त –

मूळ हिंदी  कथा 👉 ‘बडों की दुनिया में’  भाग – २ – मूळ लेखक – डॉ हंसा दीप

अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद 👉 In the world of Elders Part – 2 – Translated by – Mrs. Rajni Mishra

अनुवाद –  सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ मराठी विलोमपदे – palindromes ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? इंद्रधनुष्य ?

मराठी विलोमपदे – palindromes ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे☆

लहानपणी Palindrome हा प्रकार आवडायचा. 

Palindrome म्हणजे असा शब्द, वाक्प्रचार , वाक्य किंवा कोणतीही अर्थपूर्ण अक्षररचना, जी शेवटाकडून सुरुवातीकडे वाचत गेलं तरी बदलत नाही.

इंग्रजीत Palindrome ची रेलचेल शेकड्याने आहे. पण मराठीत हाताच्या बोटावर मोजण्याइतकेच…. 

लहानपणी तर दोन तीनच माहित होते…. 

१) चिमा काय कामाची 

२) ती होडी जाडी होती. 

३) रामाला भाला मारा. 

आता अजून वेगळी विलोमपदे –

१) टेप आणा आपटे. 

२) तो कवी ईशाला शाई विकतो. 

३) भाऊ तळ्यात ऊभा. 

४) शिवाजी लढेल जीवाशी. 

५) सर जाताना प्या ना ताजा रस. 

६) हाच तो चहा 

वा वा ! हे ताजे मराठी पॉलिनड्रोम्स, आय मीन, विलोमपदे.  वाचून मजा आली. आणखी काही विलोमपदे, आय मीन, पॉलिनड्रोम्स माहित आहेत का कोणाला?

 Very Interesting

तं भूसुतामुक्तिमुदारहासं वन्दे यतो भव्यभवं दयाश्रीः ||१||

श्रीयादवं भव्यभतोयदेवं संहारदामुक्तिमुतासुभूतं ||२||

या श्लोकामध्ये पहिल्या चरणात श्रीरामाची स्तुती आहे आणि दुसऱ्या चरणात श्रीकृष्णाची .

या श्लोकाचे वैशिष्ट्य असे की, यातले दुसरे चरण पहिल्या चरणाच्या उलट्या क्रमात आहे . वाचून बघा …… 

संग्राहिका : मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈



मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆  पप्पाची मुलगी, मुलीचा पप्पा…अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. प्रज्ञा गाडेकर ☆

? वाचताना वेचलेले ?

⭐ पप्पाची मुलगी, मुलीचा पप्पा…अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. प्रज्ञा गाडेकर ⭐

माझी मुलगी मोठी झाली.

एके दिवशी सहज म्हणाली,

‘पप्पा,मी तुम्हाला कधी रडवलंय का?’

मी म्हटलं,

‘का रे पिल्लू, असं का विचारतेस?’

ती : ‘काही नाही असंच.’

मी : ‘नीट आठवत नाही. पण एकदा…’

ती : ‘कधी?’ तिनं अधीरतेने विचारलं.

मी म्हणालो, ‘तू एक वर्षाची असताना मी तुझ्यासमोर पैसे, पेन आणि खेळणं ठेवलं.

कारण मला बघायचं होतं की, तू काय उचलतेस?

तुझी निवड ठरविणार होती की, मोठेपणी तू कशाला जास्त महत्व देतेस.

जसे

पैसे म्हणजे संपत्ती,

पेन म्हणजे बुद्धी

आणि

खेळणं म्हणजे आनंद.

मी हे सर्व सहजच पण उत्सुकतेने करत होतो.

मला बघायची होती तुझी निवड.

तू एकाच ठिकाणी बसून आळीपाळीने सर्व गोष्टींकडे बघत होतीस

आणि

मी तुझ्या पुढ्यातच बसून शांततेने तुझ्याकडे पहात होतो.

तू रांगत-रांगत पुढे आलीस.

मी श्वास रोखून पहात होतो

आणि

क्षणार्धात तू त्या सगळ्या वस्तू बाजूला सारून माझ्या मिठीत शिरलीस.

माझ्या लक्षातच नाही आलं की,

‘या सगळ्यांबरोबर मीसुद्धा एक निवड असू शकतो.’

ती पहिली वेळ होती जेव्हा तू मला रडवलंस.

 

खास मुलींच्या पप्पांसाठी:

खरंच मुलगी पाहिजेच.

 

लेखक :अज्ञात

संग्राहिका :सौ. प्रज्ञा गाडेकर.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#154 ☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  “तन्मय के दोहे…”)

☆  तन्मय साहित्य # 154 ☆

☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

मिल बैठें सब प्रेम से, हों भी भिन्न विचार।

कहें, सुनें, सम्मान दें, बढ़े  परस्पर  प्यार।।

 

बीजगणित के सूत्र सम, जटिल जगत संबंध।

उत्तर   संशय  ग्रस्त  है,    प्रश्न सभी  निर्बन्ध।।

 

छलनी छाने  जो मिले,  शब्द तौल कर बोल।

वशीकरण के मंत्र सम, मधुर वचन अनमोल।।

 

धैर्य  धर्म का मूल  है, सच  इसके  सोपान।

पकड़ मूल सच थाम लें, वे सद्ग्रही महान।।

 

सच को सच समझें तभी, साहस का संचार।

तन-मन नित हर्षित रहे, उपजे निश्छल प्यार।।

 

भीतर  बाहर एक से,  हैं जिनके व्यवहार।

जीवन में उनके सदा, बहती सुखद बयार।।

 

जब होता बेचैन मन, सब कुछ लगे उदास।

ऐसे  में  परिहास  भी,  लगता है उपहास।।

 

रोज  रात  मरते  रहे,  प्रातः  जीवन दान।

फिर भी हैं भूले हुए, खुद की ही पहचान।।

 

बंजारों-सा  दिन  ढला, मेहमानों-सी  रात।

रैन-दिवस में कब कहाँ, काल करेगा घात।।

 

जीवन पथ में  है कई,  प्रतिगामी अवरोध।

संकल्पित जो लक्ष्य है, रहे सिर्फ यह बोध।।

 

दुख के दरवाजे  घुसे,  आशाओं की  बेल।

लिपटे हरित बबूल से, दूध-छाँछ का खेल।।

 

सपनों के बाजार में, बिकें नहीं बिन मोल।

राह बनाएँ  स्वयं की, अपनी आँखें खोल।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈