English Literature – Poetry ☆ – ‘This January…’ – ☆ Ms. Setaluri Padmavathi ☆

Ms. Setaluri Padmavathi

(Setaluri Padmavathi is a creative artist, poetess, and writer. She is a Postgraduate in English Literature with a B.Ed., has been in education for more than three decades, and held various positions like Principal, the Head of the Department of English, Academic Coordinator, and teacher. Her teaching methodologies were highly appreciated, and she won special respect among her colleagues and enlivened the environment of the workplace.

She is a bilingual writer and a poet whose stories, articles, and poetry have been published in reputed anthologies, magazines, and e-journals. She writes in Telugu and English. Her much-appreciated poems and stories have been winning the hearts of readers of all age groups. She was the editor of Your Space, Muse India.)

We present her prize-winning entry in the Literary Warriors Group Contest ~ ‘This January…~. 

☆ ~ ‘This January…’ ~? ☆

(Prize winning entry in the Literary Warriors Group Contest. The prompt given was to start with the lines “This January”.)

This January opened a new page

Where I add a new wise visionary 

Who befriended me with an open heart

And filled my way with many hopes!

 *

The moment I open my eyelids 

Greenery warms my serene soul

The sunrays bring brightness,

A new day spreads wings ahead!

 *

It connects me with an old friend

Who pours down her feelings 

Being a keen and quiet listener, 

I lend my ears to her broken heart!

 *

Travelling an unknown pathway, 

fills my mind with new thoughts 

I change my changed challenges,

And begin my new story to tell…

 *

A new Parker pen amidst fingers 

Gleefully dance with a purpose

I ink new ideas on paper again

Giving the poem a catchy title!

 *

A new day, a new friend and a new view

Bring newness in my life

Awakening spirits every dawn,

My heart jumps with joy!

 *

The beginning of the new year 

Brings numerous dreams and goals

This January opened a new leaf,

Where I can paint my picture once again!

~ Ms. Setaluri Padmavathi

© Ms. Setaluri Padmavathi

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-९ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-९ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

बहमनी और विजयनगर साम्राज्यों की सीमा कृष्णा नदी निर्धारित करती थी। कृष्णा नदी के उत्तरी किनारे तक बहमनी साम्राज्य की सीमा थी और दक्षिणी किनारे से विजयनगर साम्राज्य आरम्भ होता था। कृष्णा नदी पश्चिमी घाट के महाराष्ट्र में महाबलेश्वर पर्वत की कंदराओं से निकलती है। जहाँ पर्यटक अक्सर घूमने जाते हैं। कृष्णा नदी की उपनदियों में कुडाळी, वेण्णा, कोयना, पंचगंगा, दूधगंगा, तुंगभद्रा, घटप्रभा, मलप्रभा, मूसी और भीमा प्रमुख हैं। कृष्णा नदी के किनारे विजयवाड़ा एंव मूसी नदी के किनारे हैदराबाद स्थित है। इसके मुहाने पर बहुत बड़ा डेल्टा है। इसका डेल्टा भारत के सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक है। कृष्णा महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश में बहती हुई बंगाल की खाड़ी में जाकर गिरती है। कृष्णा नदी 1400 किलोमीटर यात्रा तय करके हर मान सून में उपजाऊ डेल्टा प्रदान करती है। सबसे ऊँचा चिनाई नागार्जुन सागर बांध नरगुण्डा जिले में इसी नदी पर बना है। इस इलाक़े में दुनिया की सबसे तीखी मिर्च की खेती होती है। विजयनगर साम्राज्य की उन्नति से बहमनी साम्राज्य के विखंडन से पैदा हुए चारों मुस्लिम राज्यों को मिर्ची लगती थी।

दिल्ली के तुगलक वंश के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के खिलाफ़ इस्माइल मुख के विद्रोह से बहमनी सल्तनत (1347-1518) अस्तित्व में आया था। इसकी स्थापना 03 अगस्त 1347 को एक तुर्क-अफ़गान सूबेदार अलाउद्दीन बहमन शाह ने की थी। 1518 में इसका विघटन हो गया जिसके फलस्वरूप – गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बिरार और अहमदनगर के मुस्लिम राज्यों का उदय हुआ।

हिन्दू विजयनगर साम्राज्य इसका प्रतिद्वंदी था। कृष्णदेवराय ने बहमनी सुल्तान महमूदशाह को बुरी तरह परास्त किया। रायचूड़, गुलबर्गा और बीदर आदि दुर्गों पर विजयनगर की ध्वजा फहराने लगी। किंतु प्राचीन हिंदु राजाओं के आदर्श के अनुसार महमूदशाह को जीता हुआ इलाका लौटा दिया। इस प्रकार कृष्णदेवराय यवन राज्य स्थापनाचार्य की उपाधि धारण की।

तालीकोटा की लड़ाई के समय सदाशिव राय (1542-1570) का शासन चल रहा था। सदाशिव राय विजयनगर साम्राज्य के कठपुतली शासक थे। वास्तविक शक्ति उसके मंत्री राम राय के हाथ में थी।  सदाशिव राय दक्कन की इन सल्तनतों को पूरी तरह से कुचलने की योजना बना रहा था। इन सल्तनतों को विजयनगर के मंसूबे के बारे में पता चल गया। उन्होंने एकजुट होकर लड़ने की योजना बनाई। बीजापुर के अली आदिल शाह प्रथम, गोलकुंडा के इब्राहिम कुली क़ुतुब शाह, अहमदनगर के हुसैन निज़ाम शाह प्रथम और मराठा मुखिया राजा घोरपड़े की संयुक्त सेना ने एकजुट होकर एक गठबंधन का निर्माण कर विजयनगर साम्राज्य पर हमला बोल दिया था। विजयनगर साम्राज्य और दक्कन सल्तनत की सेनाओं के बीच भयानक लड़ाई हुई, जिसे ‘तालिकोटा की लड़ाई’ के नाम से जाना जाता है।

तालिकोटा का मैदान हम्पी से 200 किलोमीटर दूर कृष्णा नदी के किनारे था। कृष्णा  नदी के दक्षिणी किनारे पर राक्षस-तांगड़ी नामक दो गावं के बीच का खुला मैदान तालिकोटा के नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ यह लड़ाई हुई थी। सदाशिव राय साम्राज्य के प्रधान थे, उन्होंने तालीकोटा की लड़ाई में विजयनगर साम्राज्य की सेना का नेतृत्व किया था।

15 सितंबर 1564 को दशहरा के दिन राम राय ने दरबार में विचार-विमर्श के पश्चात आदेश दिया कि सभी दरबारी अपनी सेनाओं को लेकर तालीकोटा के मैदान में एकत्रित हों। 26 दिसंबर 1564 को संयुक्त मुस्लिम फ़ौज कृष्णा नदी के उत्तरी किनारे पर पहुँच गईं। दक्षिणी किनारे पर राम राय के सेनापतित्व में विजयनगर सेना उनका इंतज़ार कर रही थी। लड़ाई शुरू होने के पहले नदी पार करने को लेकर छुटपुट भिड़ंत होती रहीं। दोनों सेनाएँ एक महीने तक जासूसों के माध्यम से शक्ति संतुलन तौलती रहीं। निजाम शाह और क़ुतुब शाह ने नदी पार करके हमला करने की कोशिश में मार खाई और वे वैसा खेमे में लौट गए। मुस्लिम सेना ने बदली व्यूह रचना के मुताबिक़ युद्ध भूमि से हटकर दोनों तरफ़ से सशस्त्र घुड़सवार नदी पार करके दक्षिणी किनारे पर उतारे। उन्होंने बिच्छू डंक योजना के मुताबिक़ दोनों तरफ़ से विजयनगर सेना को घेरे में ले लिया।

23 जनवरी 1565 को कृष्णा नदी पर दोनों सेनाओं की भिड़ंत हुई। इतिहासकार स्वेल और फ़रिश्ता के अनुसार राम राय हुसैन निजाम शाह के आमने-सामने था और उनका भाई तिरुमला उनके दाहिनी तरफ़ बीजापुर फ़ौज के सामने, दूसरा भाई वेंकटद्रि अहमदाबाद-बिदर-गोलकुंडा के संयुक्त सेना के सामने से भिड़े। भयानक लड़ाई होने लगी। विजयनगर सेना का पड़ला भारी था। तभी दो घटनाओं में युद्ध का मुख मोड़ दिया। विजयनगर सेना के दो मुस्लिम सेनानायक जिहाद के नारे लगाते हुए, दगा करके मुस्लिम सेना के साथ हो गए। दूसरा, नदी पार करके आए घुड़सवारों ने विजयनगर सेना पर पीछे से घातक हमला कर दिया। विजयनगर की सेना तितर बितर हो गई। सैनिक जान बचा कर भागने लगे।

युद्ध के दौरान राम राय के जिन दो मुस्लिम सेना नायकों ने अचानक पक्ष बदल लिया था और वे मुस्लिम हमलावरों से जा मिले। इन दोनों ने राम राय को पकड़ लिया। निजाम शाह ने तलवार से राम राय का सर काट कर उसे भाले की नोक पर उठाकर युद्ध जीतने की घोषणा कर दी। राम राय का भाई तिरुमला किसी तरह हम्पी पहुँच खजाना और राज स्त्रियों को लेकर दक्षिण की तरफ़ पेनुगोंडा पहुँच राजा बनने की घोषणा कर सेना इकट्ठी करने लगा। लेकिन विजयनगर साम्राज्य इस हार से कभी उभर नहीं सका और धीरे-धीरे पतन की गर्त में चला गया।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साहिर और महेन्द्र कपूर।)

?अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो साहिर अपनी मर्जी के शायर थे और किसी खूंटे से बंधे नहीं थे, लेकिन फिल्म नया दौर से, वक्त तक, बी आर चोपड़ा से उनकी जोड़ी खूब जमी। नया दौर में अभिनेता दिलीपकुमार थे, और इस फिल्म के सभी हिट गीतों को जहां मोहम्मद रफी ने अपना स्वर दिया था, वहीं ओ पी नैय्यर ने इन्हें अपने मधुर संगीत में ढाला था।

लेकिन बी आर चोपड़ा, ओ पी नैय्यर और साहिर लुधीयानवी की तिकड़ी और रफी साहब की आवाज का यह करिश्मा आगे चल नहीं पाया। बी आर चोपड़ा चाहते थे कि मोहम्मद रफी केवल उनकी फिल्मों के लिए ही गीत गाएं, जो कि रफी साहब को मंजूर नहीं था। उनका मानना था कि उनकी आवाज सभी संगीतकारों के लिए बनी है, वे कोई दरबारी गायक नहीं हैं।।

बस यही बात चोपड़ा साहब को चुभ गई और उन्होंने प्रण कर लिया कि वे एक और मोहम्मद रफी खड़ा करेंगे और इसके लिए उन्होंने रफी साहब के ही शागिर्द महेन्द्र कपूर को चुना। वैसे भी मुकेश, किशोर कुमार और रफी साहब के चलते महेन्द्र कपूर साहब को फिल्में कम ही मिलती थी, फिर भी उपकार फेम मनोज कुमार भी उन पर पूरी तरह से मेहरबान थे, जिस कारण कल्याण जी आनंद जी के भी वे प्रिय हो चले थे। याद कीजिए, दिलीप कुमार की फिल्म गोपी के रफी साहब के एक भजन को छोड़कर, सभी गीत महेन्द्र कपूर ने ही गाये थे।

अधिक विषयांतर ना करते हुए हम साहिर और महेन्द्र कपूर के साथ के बारे में चर्चा करते हैं। फिल्म गुमराह के गीतों को ही ले लीजिए। चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों। यहां संगीतकार ओ पी नैय्यर नहीं हैं, रवि हैं। श्रोता को समझ भी नहीं आता, वह शब्दों में खो गया है, अथवा आवाज की मिठास में। इसी फिल्म के एक और गीत, इन हवाओं में, इन फिज़ाओं में, में आशा भोंसले का कंठ अधिक मधुर है अथवा महेन्द्र कपूर का, आप ही बताइए।।

गुमराह(1963) के बाद वक्त(1965) और हमराज(1967) गीत संगीत के हिसाब से सफल रही, जहां साहिर और महेन्द्र कपूर अपने जलवे बिखेरते नजर आए। इसके बाद की तीन फिल्में क्रमशः धुंध, (1973)इंसाफ का तराजू(1980) और निकाह(1982) बॉक्स ऑफिस पर चली जरूर लेकिन तब तक चोपड़ा साहब का एक और रफी तैयार करने का सपना चूर चूर हो चला था। फिल्म वक्त में थक हारकर उन्हें वापस रफी साहब की ही आवाज लेनी पड़ी। आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे, कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज़।।

फिल्म हमराज़ के तीनों गीत, नीले गगन के तले, तुम अगर साथ देने का वादा करो अथवा किसी पत्थर की मूरत से, जब मैं सुनता हूं, तो मुझे महेन्द्र कपूर की सूरत में साहिर की सीरत नजर आती है।

इतनी सॉफ्ट मखमली आवाज से वे शुरू करते हैं, लेकिन अपनी रेंज में रहते हुए खूबसूरत आलाप भी बखूबी ले लेते हैं। वे कहीं भी बेसुरे नजर नहीं आते। साहिर और महेन्द्र कपूर के सर्वश्रेष्ठ गीतों का एल्बम अगर बनेगा तो उसमें ये गीत अवश्य शामिल होंगे।

साहिर और महेंद्र कपूर की सबसे यारी रही। गुरुदत्त की प्यासा हो या कागज़ के फूल, साहिर ने अगर संगीतकार रवि के लिए गीत लिखे तो चित्रगुप्त और लक्ष्मी प्यारे के लिए भी। बस शायद नौशाद और शंकर जयकिशन को कभी साहिर की याद नहीं आई। एक के पास अगर शकील थे तो दूसरे के हाथ में दो दो लड्डू, शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी।।

साहिर और महेन्द्र कपूर का ही एक गीत है, संसार की हर शै का, इतना ही फसाना है, एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है। एक और शायर कैफ़ी आज़मी गुरुदत्त के लिए भी कह गए, जो हम सब पर लागू होता है,

देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी बारी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 143 ☆ मुक्तक – ।। ऐ जिंदगी तेरा अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 143 ☆

☆ मुक्तक ।। ऐ जिंदगी तेरा अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

जिंदगी अभी चल कि प्रभु कर्ज चुकाना बाकी  है।

किसी पराए का भी कुछ दर्द     मिटाना बाकी है।।

रिश्तों की   तुरपाई  करनी है वैसी  ही मिल  कर।

ईश्वर के शुकराने में भी सिर    झुकाना बाकी है।।

=2=

किसी के उदर कीआग अभी बुझाना    बाकी है।

नई-नई पीढ़ी को भी सही राह सुझाना बाकी है।।

बहुत ही काम कर लिया जीवन के इस सफर में।

लेकिन फिर भी कुछ नया करके दिखाना बाकी है।।

=3=

जीवन की राहों में गाँठे अभी सुलझाना बाकी है।

हँसते-हँसते हुए अभी रूठना मनाना  बाकी है।।

छूट गया जो भी   जीवन   की लंबी सी दौड़ में।

तिनका-तिनका जोड़ कर उसको जुटाना बाकी है।।

=4=

दिल की अधूरी बात अभी सबको सुनाना बाकी है।

किसी रोते हुए को भी हमें अभी हँसाना बाकी है।।

जो मिली अनमोल वरदान  सी यह  एक  जिंदगी।

उस जिंदगी का रह गया फ़र्ज़ अभी निभाना बाकी है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 209 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 209 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये ।

औरों के कष्ट का सही अनुमान दीजिये ॥

*

दुनिया में भाई-भाई से हिलमिल के सब रहें

है द्वेष जड़ लड़ाई की – यह ज्ञान दीजिये ॥

*

होता नहीं लड़ाई से कुछ भी कभी भला

सुख-शांति के निर्माण का अरमान दीजिये ॥

*

निर्दोष मन औ’ शुद्ध भावनाओं के लिये

हर व्यक्ति को सबुद्धि औ’ सद्ज्ञान दीजिये ॥

*

दुनिया सिकुड़ के  आज हुई एक नीड़ सी

इस नीड़ के कल्याण का विज्ञान दीजिये ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “धुके…” ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “धुके…” ☆  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

झाली पहाट आली जाग हळूहळू साऱ्या सृष्टीला

थंडी गुलाबी लपेटलेल्या तरुण निसर्गाला… 

*

किलबिल चिवचिव करीत सारे पक्षीगण ते उठले

किलकिल डोळे करीत आणि जागी झाली फुले… 

*

पहाटवारा गाऊ लागला भूपाळी सुस्वर

पानांच्या त्या माना हलवीत दाद देती तरुवर… 

*

मिठी परी साखरझोपेची, निसर्गराजा त्यात गुंगला

गोड गुलाबी पहाटस्वप्ने जागेपणी अन पाहू लागला… 

*

बघता बघत चराचर आता धूसर सारे झाले

आपल्या जागी स्तब्ध जाहली वेली वृक्ष फुले… 

*

स्वप्नांचा तो मोहक पडदा धुके लेवुनी आला

कवेत घेऊन जग हे सारे डोलाया लागला… 

*

फिरून एकदा निरव जाहले वातावरणच सारे

धुके धुके अन धुके चहूकडे.. काही न उरले दुसरे… 

*

परी बघवेना दिनकरास हे जग ऐसे रमलेले

स्वप्नरंगी त्या रंगून जाता.. त्याला विसरून गेले… 

*

गोड कोवळे हासत.. परि तो लपवीत क्रोध मनात

आला दबकत पसरत आपले शतकिरणांचे हात… 

*

दुष्टच कुठला, मनात हसला, जागे केले या राजाला

बघता बघता आणि नकळत स्वप्नरंग उधळून टाकला… 

*

 स्वप्न भंगले, दु:खित झाला निसर्गराजा मनी

दवबिंदूंचे अश्रू झरले नकळत पानोपानी… 

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ घडो ऐसे… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

श्री अनिल वामोरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ घडो ऐसे… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

विग्रहा समोर

बसता डोळे मिटून

येते अबोल उत्तर

तिच्या हृदयातून…

 

न लगे शब्द

नच स्पर्श वा खूण

मौनात मी, मौनात ती

संवाद तरी मौनातून…

 

न मागणे न देणे

व्यवहार नाहीच मुळी

मी तू गेले लया

जन्मलो तुझिया कुळी..

 

सुटली येरझार

चक्रव्यूही भेदला

आई तूझ्या कृपे

सार्थक जन्म झाला…

© श्री अनिल वामोरकर

अमरावती

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ गीता जशी समजली तशी… – मला आवडलेले गीतेतील पाच श्लोक – भाग – ४ ☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

☆ गीता जशी समजली तशी… – मला आवडलेले गीतेतील पाच श्लोक – भाग – ४ ☆ सौ शालिनी जोशी

मला आवडलेले गीतेतील पाच श्लोक

गीता हा अर्जुनाला पुढे करून सर्व मानव जातीला केलेला उपदेश आहे. ते आचरण शास्त्र आहे. त्यातील सर्वच श्लोक सारख्याच महत्त्वाचे आहेत. त्यामुळे त्यात सरस-निरस ठरवणे कठीण. तरीही ७०० श्लोकातून माझ्या दृष्टीने महत्त्वाचे वाटलेले पाच लोक निवडण्याचा प्रयत्न मी केला. त्यातील पहिला श्लोक म्हणजे उन्नतीचा मंत्रच व स्वावलंबनाचा धडा

 १) उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् l

 आत्मैव ह्यात्मनो बंन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:ll(६/५)

माणसाने स्वतः स्वतःचा उद्धार करावा. स्वत:च स्वतःच्या नाशाला कारण होऊ नये. प्रत्येक जण आपणच आपला बंधू (हित करणारा) आणि आपणच आपला शत्रू (अधोगती करणारा )असतो.

यातून लक्षात येते की प्रत्येकाने आपल्यातील दोषांकडे दुर्लक्ष न करता ते घालवण्याचा व सद्गुण जोपासण्याचा प्रयत्न करावा म्हणजेच बंधू व्हावे. ‘ जो दुसऱ्यावरी विसंबला त्याचा कार्यभाग बुडाला’ हेच येथे लक्षात ठेवावे. उच्च स्थितीला पोहोचावे व यशस्वी व्हावे.

अशा प्रकारे स्वतःच्या उद्धारासाठी कर्म करत असताना कोणते पथ्य पाळावे हे सांगणारा दुसरा श्लोक

 २) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन l

 मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते सङ्गोsस्त्वकर्मणी ll(२/४७)

कर्म करत असताना कर्त्याची भूमिका कशी असावी याची चार सूत्रे येथे सांगितली आहेत. कर्म करण्याचा तुला अधिकार आहे, त्याच्या फळाविषयी कधीही नाही. कर्मफलाच्या इच्छेने कर्म करणारा होऊ नको. तसेच ते न करण्याच्या आग्रहही नको.

कर्म केल्याशिवाय कोणीही राहू शकत नाही. म्हणून स्वधर्माने प्राप्त झालेले कर्म उत्तम प्रकारे आचरावे. पण त्याचे फळ मिळणे आपल्या हातात नसते. फळ मिळणे हा भविष्यकाळ आहे. त्यात रमून वर्तमानातील कर्मावर दुर्लक्ष करू नये. कामातील आनंद घ्यावा. कर्मफल काहीही मिळो, त्याला कारण मी असे समजून कर्तुत्व अभिमान घेऊ नये. येथे अकर्म म्हणजे कर्म न करणे. मी कर्मच करत नाही म्हणजे फळाचा प्रश्न नाही असा विचार करून कर्म त्यागणे अयोग्य आहे.

अशा प्रकारे केलेले कर्म ईश्वरार्पण कसे करावे हे पुढील श्लोकात.

 ३) यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्l

 यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्ll (९/२७)

भगवंत अर्जुनाला सांगतात तू जे कर्म करतोस, जे खातोस, जे हवन करतोस, जे दान देतोस, जे तप करतोस ते मलाच अर्पण कर. माणसाची कर्मे ही साधारणपणे चार प्रकारची असतात आहार, यज्ञ, दान आणि तप. कर्म अर्पण करणे म्हणजे त्यातील कर्तृत्व भाव अर्पण करणे व फळ प्रसाद रूपाने ग्रहण करणे. यज्ञ म्हणजे फळांचा काही भाग समाजासाठी अर्पण करणे. दान म्हणजे सत्पात्री व्यक्तीला योग्य काळी शक्य ती मदत करणे आणि तप म्हणजे शरीर, मन आणि वाणी यांनी केलेली साधना. या सर्व ज्यावेळी भगवंतासाठी होतात, निस्वार्थ बुद्धीने अपेक्षा रहित होतात, तेव्हा प्रत्येक कर्म म्हणजे त्याची पूजा होते. त्याची प्राप्ती करून देणारे होते. बंध निर्माण होत नाही. अशीही कर्मा मागची खूबी व भक्तीचे व्यापकपण.

अशाप्रकारे कर्म करण्याचा अधिकार कोणाकोणाला आहे भगवंत सांगतात

 ४) मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येsपि स्यु: पापयोनय: l

 स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेsपि यान्ति परां गतिम् ll(९/३२)

हे अर्जुना, स्त्रिया, वैश्य, शूद्र तसेच पापयोनी कुणीही असो माझ्या आश्रयाला आले असता परमगतीला प्राप्त होतात. म्हणजे भगवंत प्राप्तीचा अधिकार सर्वांना आहे. तेथे कोणताही भेदभाव नाही. म्हणून सर्व जातीत आणि स्त्रिया सुद्धा संत पदाला पोचल्या. त्यांनी भगवंताची प्राप्ती करून घेतली. जो त्याच्या आश्रयाला जातो तो त्याचाच होतो. वेदाने जे अधिकार नाकारले ते गीतेने मिळवून दिले. म्हणून शबरी अनन्य भक्तीने मुक्त झाली व वाल्याचा वाल्मिकी झाला. आपणही जातीपातीवरून भेदभाव करू नये. सर्वाभूती परमेश्वर लक्षात घ्यावे.

गीता ग्राह्य व अग्राह्य दोन्ही गोष्टी सांगते. कोणत्या गुणाचा त्याग करावा म्हणजे सत मार्ग सापडतो त्याचे मार्गदर्शन गीता करते.

 ५) त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:l

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तादेतत्त्रयं त्यजेत्ll(१६/२२)

काम क्रोध आणि लोभ ही तीन प्रकारची नरकाची द्वारे आहेत. आपला नाश करणारी आहेत. म्हणून या तिघांचा त्याग करावा.

हे तीनही तामसी गुण आहेत. माणसाच्या अधोगतीला कारण होणारे आहेत. मोठे मोठे विद्वानही यांच्या अधीन होऊन आपल्याच अपयशाला कारण झाले. उदाहरणार्थ विश्वामित्र (काम), दुर्वास (क्रोध). अतृप्त इच्छा क्रोधाला जन्म देतात. त्या कामना पूर्ण करण्यासाठी द्रव्यासक्ती निर्माण होते हाच लोभ. त्यासाठी अवैध मार्गाचाही अवलंब केला जातो. परिणामतः नरकासारख्या हीन अवस्थेत राहण्याची वेळ माणसावर येते. म्हणून योग्य वेळीच विवेक व वैराग यांच्या बळावर या तीनही टाळाव्या व मिळेल त्यात सुखी समाधानी राहावे.

अशा प्रकारे स्वतः स्वतःचे हित साधणे. फलेच्छारहित कर्म करणे. ते ईश्वरा अर्पण करणे. असे कर्म कोणीही करू शकतात. मात्र तेथे लोभ नको. हा मार्ग सुख समाधान देणारा. म्हणून मला हे पाच श्लोक आवडले. नित्य आचरणात आणण्यासारखे आहेत.

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘आभाळाला हात टेकवून जमिनीवर येणारा माणूस !’ – भाग – १ ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? जीवनरंग ?

आभाळाला हात टेकवून जमिनीवर येणारा माणूस !‘ – भाग – १ श्री संभाजी बबन गायके 

एक दिवसच कसाबसा टिकला तो वेदपाठशाळेत ! पण त्या एका दिवसात तो थेट गुरुजी दिसायला लागला होता! शेंडी वगळता डोईवरच्या उर्वरीत सर्व केसांना त्याला मुकावं लागलं होतं! तो वेदपाठशाळेतून घरी कसा परतला कुणास ठाऊक.. पण घरी आल्याबरोबर त्याच्या भावंडांनी त्याला “टक्कल! टक्कल!” म्हणून चिडवायला आरंभ केला. त्यावर या पठ्ठ्याने हाती काठी धरली… आणि तिचे दोन फटकारे लगावून त्या दोघा भावांना गावातल्या केशकर्तकाच्या समोर पोत्यावर नेऊन बसवले.. आणि ते दोघेही तंतोतंत आपल्या सारखे दिसावेत याची तजवीज केली! हा थोरला आणि ती बिचारी दोन लहान पोरं… करणार काय? 

छत्रपती शिवरायांच्या पदस्पर्शाने अक्षरश: पावन झालेल्या मातीत तो जन्माला. घरात उदरभरणाचे दोनच मार्ग… एक पौरोहित्य आणि भातशेती. पण पहिल्या मार्गावर त्याची पावले फारशी स्थिरावली नाहीत… मात्र भाताच्या खाचरांमध्ये तो उतरला की शेतक-याचं रुपडं पांघरलेला बळीराजा भासायचा. पंचक्रोशी हे जणू त्याचं खेळायचं अंगण… आणि गावातले सारे सख्खे मित्र. परंपरेने आलेले त्याला बुद्धीमत्तेचा वारसा त्याच्या वडिलांकडूनच लाभला होता.

शिक्षणासाठी गावापासून थोडे दूर पण एका सोयीच्या गावी सर्व भावंड कंपनी एकत्र वास्तव्यास असताना त्याच्या बाललीलांना केवळ बहरच आला होता. गुरुजींना चकवा देऊन बहिणीची गृहपाठाची वही स्वत:ची म्हणून तपासून घेण्यात त्याला सहजी यश मिळायचे.

तो त्याच्या काकांकडून मंडप बांधायला शिकला आणि स्पीकर लावायला सुद्धा. हा व्यवसाय मात्र त्याने अगदी गंमत म्हणूनच केला. त्यासाठी लागणारी सारी सामग्री त्याने जमवून ठेवली होतीच. आणि सोबतच अक्षरश: बारा बलुतेदारांना आवश्यक असतात अशी आयुधे त्याच्याकडे जमा झाली होती… त्यामुळे कोणतंही काम कधी अडून राहायचं नाही.. गावातल्या कुणाचंही.

जनसंग्रह करण्याची त्याची नैसर्गिक ओढ होती… त्याला सतत माणसं लागायची. आणि या माणसांच्या हृदयात प्रवेश करायला त्याला फारसे सायास लागत नसत. लाल मातीने माखलेल्या पायांनी तो कुणाच्याही घरी गेला तरी सर्वांना तो यायला हवा असायचा.

पण खोडकरपणा हा गुण त्याने जाणीवपूर्वक जोपासला होता की काय, अशी शंका यावी एवढी त्याने या अस्रावर हुकुमत मिळवली होती. ज्या व्यक्तीवर तो हे असले अचाट प्रयोग करी, त्यांना त्याचा कधी फार राग आला आहे, असे कधी व्हायचे नाही.

अंगणातल्या बाजेवर दिवसाउजेडी गाढ झोपी गेलेल्या माणसाच्या शेजारच्या भिंतीवरच्या खुंटीवर, कुठून तरी पैदा केलेल्या रिकाम्या सलाईनच्या बाटलीत पाणी भरून, ती बाटली टांगून ठेवणे आणि त्या बाटलीची नळी त्या माणसाच्या पायाजाम्याच्या खिशात अलगद घालून तिथून पोबारा करणे, असा अफाट उद्योग तोच करू जाणे! गरज नसेल त्यावेळी काथ्याच्या बाजेला बांधलेल्या, विणलेल्या दो-या लोक काढून ठेवत आणि गरज असेल तेंव्हा पुन्हा बांधत. अशा दो-या न बांधलेल्या बाजेवर सुंदर गोधडी अंथरूण, गावातल्या एका मित्राला मोठ्या आग्रहाने त्या बाजेवर त्याने बसायला भाग पाडले आणि तिथून पलायन केले!

वडिलांना शक्य नसेल अशा वेळी कुणाच्या घराचे कार्य अडून राहू नये म्हणून खांद्यावर पिशवी लटकावून रानावनातून, दोन-तीन डोंगर ओलांडून, चढून यजमानांच्या घरी काका म्हणून तंगडतोड करीत जाण्यात त्याने कधी कंटाळा नाही केला.

बारावी कॉमर्स उत्तीर्ण या एवढ्या शिदोरीवर त्याने शहरात येऊन सुरु केलेला प्रवास गेल्या काही वर्षांत एका अर्थाने आभाळाला हात टेकवू शकेल इतपत झाला.

मिळालेल्या संधीचा मनमोकळेपणाने स्वीकार करत त्याने मेहुण्यांच्या दुचाकीवर मागे बसून कामावर जाणे ते कंपनी मालकाच्या हेलिकॉप्टरमधून नियमित प्रवास करण्यापर्यंत मजल मारली. यात त्याला इथपर्यंत आणणा-या सहृदय माणसांचे श्रेय होते तेवढेच त्याच्या स्वकर्तृत्वाचे सुद्धा होते. लोक ज्या सहजतेने ‘ मी आताच एस. टी. तून उतरलो’ एवढ्या सहजतेने तो मी आताच हेलिकॉप्टरमधून उतरून घरी आलो’ असं सांगायचा. आणि हे सांगताना त्याच्या शब्दांत कोणताही बडेजाव मिरवण्याचा हेतू नसायचा.

औपचारिक व्यावसायिक शिक्षण पूर्ण करण्याआधीच त्याने त्या व्यवसायातील कित्येक कौशल्ये शिकून घेतली. कोणत्याही निमित्ताने इतरांशी आलेले संबंध सौहार्दाचे राखले. इतरांच्या घरांतील थेट स्वयंपाक घरापर्यंत तो सहजी पोहोचत असे, यातच त्याच्या निर्मळ मनाचे आणि वर्तनाचे सार होते.

मालकाचा प्रतिनिधी म्हणून देशभर वावरत असताना त्याने अत्यंत विश्वासाचे स्थान निर्माण केले होते. कोट्यवधी रुपयांच्या व्यवहारात कित्येक लाख कमावण्याची संधी असताना त्याने केवळ पगारात भागवले हे अगदी खरे. त्यामुळे त्याला कधी काही कमी पडले नाही. त्याच्या सर्व सामर्थ्याचा लाभ त्याच्या जवळच्या सर्वांनाच झाला. इतरांची आजारपणे, आर्थिक अडचणी, कायदेविषयक कटकटी, कौटुंबिक ताण त्याने स्वत:चे मानले. जबाबदारी ही गोष्ट प्रत्येकाच्या मानण्यावर असते. आणि समोर जर जबाबदारी बेवारस पडली असेल तर त्या जबाबदारीला हा गडी थेट आपलीच मानायचा… त्यामुळे त्यासोबत येणा-या सा-या साधका-बाधक गोष्टी त्याच्या खात्यावर डेबिट पडायच्या.

आणखी एक गोष्ट… त्याला वर्तमानपत्रातील शब्दकोडी सोडवायला आणि ती देखील अत्यंत वेगाने सोडवायला आवडायचे. पण एखादा तरी शब्द अडायाचाच.. मग जवळच्या लोकांना सकाळी सकाळी फोन लावणे आलेच. दर रविवारी तर महाशब्दकोडे हा प्रकार तो अत्यंत प्रतिष्ठेचा बनवून ठेवायचा. शिवाय शब्दकोडे सोडवण्यासाठी त्याने निवडलेली जागा अशी होती की त्याला कुणी तिथे त्रास द्यायला जाणार नाही! कुणी त्याला शब्द सांगायला थोडा अधिक वेळ लावला तर तो पर्यंत त्याला शब्द सुचलेला असायचा. बरं, फोनवर बोलताना तो समोरच्याला त्याच्या ख-या नावाने कधीच हाक मारायचा नाही. एखाद्याचे नाव प्रसन्न असेल तर तो त्याला गोपाळ संबोधणार हे ठरलेले. मित्रांच्या बायकांना तर तो नावे ठेवून म्हणजे नवी नावे देऊन अक्षरश: वात आणायचा… पण या सर्व बायाबापड्या वर्गाला हा म्हणजे हक्काचा माणूस वाटायचा…. निर्मळ दृष्टी, प्रेमाचे बोलणे, हिताचे बोलणे, आर्जवाचे बोलणे हे त्याचे वैशिष्ट्य. आपल्या सभ्य वागण्याने त्याने त्याच्या सहवासात येणा-या सा-याच महिलांचा आदर कमावला. त्या सा-या जणींना त्याच्या सहवासात सुरक्षित वाटायचे! 

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ स्मृतिगंध — लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? मनमंजुषेतून ?

☆ मोठ्या मनाचा छोटा सेल्समन ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

४ ) मनमंजुषा —

 “ स्मृतिगंध “ लेखक : अज्ञात प्रस्तुती : डॉ. ज्योती गोडबोले

स्मृतिगंध…..

 

मला आठवतंय,…

खूप मोठं होईपर्यंत आम्ही लहानच होतो !

सगळंच स्वस्त होतं तेव्हा, बालपण सुद्धा….

भरपूर उपभोगलं त्यामुळे…. उन्हापावसात, मातीत, दगडात, घराच्या अंगणात, गावाबाहेरच्या मैदानात… कुठेही गेलं तरी बालपणाची हरित तृणांची मखमल सर्वत्र पसरलेली असायची…

 

आता तसं नाही…

लहानपणीच खूप मोठी होतात मुलं ! 

खूप महाग झालंय बालपण…. !

 

पूर्वी आईसुद्धा खूप स्वस्त होती,

फुल टाईम ‘ आईच ‘ असायची तेव्हा ती…… !

 आम्हाला सकाळी झोपेतून उठवण्यापासून ते रात्री कुशीत घेऊन झोपवण्यापर्यंत सगळीकडे आईच आई असायची….

 

आता ‘मम्मी’ थोडी महाग झालीय 

जॉबला जातेयं हल्ली. संडेलाच अव्हेलेबल असते…. ! 

 

मामा चे गाव तर राहिलच नाही….

मामा ने सर्वाना मामाच बनवल….

प्रेमळ मामा आणि मामी आता राहिलेच नाहीत पूर्वीसारखे….

आधी मामा भाच्यांची वाट पहायचे….

आता सर्वाना कोणी नकोसे झालाय….

 हा परिस्थितीचा दोष आहे…

 

मित्र सुद्धा खूप स्वस्त होते तेव्हा…

हाताची दोन बोटं त्याच्या बोटांवर टेकवून नुसतं बट्टी म्हटलं की कायमची दोस्ती होऊन जायची…. शाळेच्या चड्डीत खोचलेला पांढरा सदरा बाहेर काढून त्यात ऑरेंज गोळी गुंडाळायची आणि दाताने तोडून अर्धी अर्धी वाटून खाल्ली की झाली पार्टी… !!!

 

आता मात्र घरातूनच वॉर्निंग असते,

“डोन्ट शेअर युअर टिफिन हं !” 

मैत्री बरीच महाग झालीय आता.

 

हेल्थला आरोग्य म्हणण्याचे दिवस होते ते…. !!! 

 

सायकलचा फाटका टायर आणि बांबूची हातभर काठी एवढ्या भांडवलावर अख्ख्या गावाला धावत फेरी घालताना तब्येत खूप स्वस्तात मस्त होत होती…..

 

घट्ट कापडी बॉलने आप्पाधाप्पी खेळताना पाठ इतकी स्वस्तात कडक झाली की पुढे कशीही परिस्थिती आली तरी कधी वाकली नाही ही पाठ…

इम्युनिटी बूस्टर औषधं हल्ली खूपच महाग झालीत म्हणे…. !!!

 

ज्ञान, शिक्षण वगैरे सुद्धा किती स्वस्त होतं…..

फक्त वरच्या वर्गातल्या मुलाशी सेटिंग लावलं की वार्षिक परीक्षेनंतर त्याची पुस्तकं निम्म्या किंमतीत मिळून जायची…..

वह्यांची उरलेली कोरी पानं काढून त्यातून एक रफ वही तर फुकटात तयार व्हायची….

 

आता मात्र पाटीची जागा टॅबने घेतलीय,

ऑनलाईन शिक्षण परवडत नाही आज !

 

एवढंच काय, तेव्हाचे 

आमचे संसार सुद्धा किती स्वस्तात पार पडले….

शंभर रुपये भाडं भरलं की महिनाभर बिनघोर व्हायचो…

सकाळी फोडणीचाभात/पोळी किंवा भात आणि मस्त चहा असा नाष्टा करून ऑफिसमध्ये जायचं, जेवणाच्या सुट्टीत (तेव्हा लंच ब्रेक नव्हता) डब्यातली भेंडी/बटाटा/गवारीची कोरडी भाजी, पोळी आणि फार तर एक लोणच्याची फोड… !!

 रात्री गरम खिचडी, की झाला संसार…

 ना बायको कधी काही मागायची ना पोरं तोंड उघडायची हिंमत करायची…..

 

आज सगळंच विचित्र दिसतंय भोवतीनं…. !! 

Live-in पासून ते Divorce, Suicide पर्यंत बातम्या बघतोय आपण…. , मुलं बोर्डिंगमधेच वाढतायत, सगळं जगणंच महाग झालेलं….. !! 

 

काल परवा पर्यंत मरण तरी स्वस्त होतं…..

पण आता….

 तेही आठ दहा लाखांचं बिल झाल्याशिवाय येईनासं झालंय….

 

म्हणून म्हणतोय… जीव आहे तोवर भेटत रहायचं.. आहोत तोवर आठवत रहायचं……

नाहीतर आठवणीत ठेवायला सुद्धा कोणी नसणार…. ही जाणीव पण झाली तर रडत बसण्याशिवाय दुसरा पर्याय नसेल हो..

म्हणून जमेल तेवढे नातेवाईक किंवा मित्र गोळा करून ठेवा….

नाहीतरी ह्या स्मृतीगंधा शिवाय आहे काय आपल्याजवळ.. हो ना….. !!!

लेखक : अज्ञात 

प्रस्तुती – डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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