मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ जागे होई सारे विश्व… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य ?️?

☆ जागे होई सारे विश्व ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के

रविराजाच्या रथाला

प्रकाशाचे शुभ्र अश्व

रथ जाई पुढे तसे

जागे होई सारे विश्व

*

गोपुरात घंटानाद

घराघरातून स्तोत्र

किरणात चमकते

सरितेचे शांत पात्र

*

कुणब्याचे पाय चाले

शेत वावराची वाट

झुळुझुळू वाहताती

पिकातुन जलपाट

*

सुवासिनी घालताती

माता तुळशीला पाणी

सुखसौख्य मागताती

 वैजयंतीच्या चरणी

*

 शुभ शकुनाने होई

 दिन सनातनी सुरू

 रविराजाला वंदता

 पंचमहाभूता स्मरू

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ “कहीं न कहीं हरे-भरे पेड़  अवश्य ही होंगे…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ जीवन यात्रा – कहीं न कहीं हरे-भरे पेड़  अवश्य ही होंगे☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(कथा बिम्ब में पांच साल पहले प्रकाशित मेरी आत्मकथा)

बहुत वर्ष पहले ‘कथा बिम्ब’ के भाई अरविंद  ने आत्मकथ्य लिखने का प्रेमपूर्वक आग्रह किया था । तब लिख नहीं पाया । पत्रकारिता ने बहुत कुछ पीछे ठेल रखा था । अब पूरी तरह सेवानिवृत्त और स्वतंत्र पत्रकारिता व लेखन का समय मिला तो अपने बारे में लिखने का अवसर भी मिल गया ।

मैं मूल रूप से पंजाब के नवांशहर दोआबा जिले से हूं । इसमें शहीद भगतसिंह का पैतृक गांव खटकड  कलां भी शामिल होने के कारण पंजाब सरकार ने अब इस जिले का नाम शहीद भगतसिंह नगर कर दिया है । मुझे बहुत गर्व है कि शहीद भगतसिंह की स्मृति में पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड द्वारा खोले गये गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में सन् 1979 में मुझे हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला । सन् 1985 में मुझे कार्यवाहक प्रिंसिपल बना दिया गया । इस तरह शहीद के परिवार सदस्यों से मुलाकातें भी होती रहीं । मेरा लेख ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुआ : शहीद भगतसिंह के पुरखों का गांव ।

खैर । पढाई से बात शुरू करता हूं । जो लडका बड़ा होकर स्कूल प्रिंसिपल बना और स्कूल को सर्वश्रेष्ठ स्कूल का पुरस्कार दिलाया , वही लड़का कभी पांचवीं कक्षा तक स्कूल का भगौड़ा लड़का था । पिता जी छोड़ कर जाते और कुछ समय बाद बेटे को देखने आते तो पता चलता कि बरखुरदार फट्टी बस्ता रख कर भाग चुके हैं । पिताजी का माथा ठनकता और उनकी छठी इंद्री बताती कि हो न हो , यह लड़का छोटी जाति के नौकर के घर जा छिपा है । वे वहां पहुंचते और थप्पडों से मुंह लाल कर घर ले आते । फिर ठिकाना बदलता और फिर खोजते । फिर वहीं थप्पडों से बेहाल । पिता जी , दादी और घर के लोग यह मानते कि यह बच्चा नहीं पढ़ेगा । दादा जी कहते कोई बात नहीं । गांव में तीन तीन भैंसे हैं । बस । कोई गम नहीं । खेतों में चराने चले जाना । मैं मन ही मन इस काम से भी कांप जाता । भैंस चराने का गुण आया ही नहीं।

थोड़ा बड़ा हुआ तो दादी को हमारे चचा के लडके शाम ने बताया कि दादी, एक बह्मीबूटी आती है । इसे रोज सुबह पिला दो । उसने पंसारी की दुकान से ला दी । दादी ने खूब घोट कर पिलाई । साथ में वृहस्पतिवार के व्रत ताकि देवता की कृपा हो जाए । पता नहीं , देवता खुश हुए या बूटी असर कर गयी कि मैं मिडल क्लास में सेकेंड डिवीजन में पास हो गया । दादी ने परात में लड्डू रखे और खुशी में मोहल्ले भर में बांटे ।

यह है मेरी पढ़ाई का हाल । ग्यारहवीं तक मेरे पिता,  दादा और दादी का निधन हो चुका था जो मुझे पढाई में सफल देखना चाहते थे । मैं इतना सफल हुआ कि तीनों वर्ष कॉलेज में प्रथम रहा । पर अफसोस अब कोई परात भर कर लडडू बांटने वाला नहीं था । मैं कमरा बंद कर खूब रोता अपनी ऐसी सफलता पर जिसे कोई देखने वाला नहीं था । महाविद्यालय की पत्रिका का छात्र संपादक भी रहा । यहीं से संपादन में रूचि बढ़ी । फिर बीएड में भी छात्र संपादक । इसी प्रकार गुरु नानक देव विश्वविद्यालय की प्रभाकर परीक्षा में स्वर्ण पदक पाया । हिंदी एम ए की हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में ।

बात साहित्य की करें । मेरे परिवार का साहित्य से दूर दूर तक नाता नहीं था लेकिन ‘हिंदी मिलाप’ अखबार प्रतिदिन घर में आता था , जिसे मैं जरूर पढता था । उसमें फिक्र तौंसवीं का व्यंग्य काॅलम ‘प्याज के छिलके’  बहुत पसंद आता । ‘वीर प्रताप’ अखबार ने मुझे नवांशहर का बालोद्यान का संयोजक बना रखा था । यह अखबार इस नाते फ्री घर में डाला जाता था । इस तरह दो अखबार पढने को मिलते । रेडियो खूब सुनता । बाल कहानियों को जरूर सुनता । दादी भी सर्दियों में अंगीठी के आसपास बिठा कर कहानियां सुनाती । वही राजकुमार,  राजकुमारियों के किस्से । पर हर राजकुमार किसी न किसी राजकुमारी को राक्षस की चंगुल से छुडाकर लाता । बस  । ‘दरवाजा कौन खोलेगा’ कथा संग्रह में मैंने भूमिका में यही लिखा कि हर जगह राक्षस है । राजकुमारी कैद है । राजकुमार का संघर्ष है । यही जीवन है ।

मेरी पहली रचना ‘नयी कमीज’ जनप्रदीप समाचार-पत्र में प्रकाशित हुई । पिता जी मेरी पुरानी कमीज नौकर के बेटे के लिए ले गये थे । वह गांव भर में नाचता फिरा और मन ही मन शर्मिंदा होकर सोचता रहा कि हमारी उतरन भी नौकर के बेटे की खुशी का कारण बन सकती है ? समाजसेवा का भाव जगा । मैं सन् 1979 से लेकर 1990 तक खटकड कलां में प्रिंसिपल रहा । साथ में चंडीगढ से प्रकाशित ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का आंशिक संवाददाता भी । मेरी रूचि साहित्य के साथ साथ पत्रकारिता में जुनून की हद तक बढती चली गयी । मेरे पत्रकारिता के अनुभवों के आधार पर लिखी : एक संवाददाता की डायरी कहानी को सारिका में तो नीले घोडे वाले सवारों के नाम’, कहानी को धर्मयुग ने जुलाई,  1982 के अंकों में प्रकाशित किया । पहली बार पता चला कि लेखक की फैन मेल क्या होती है । प्रतिदिन औसतन दो तीन पत्र इन कहानियों पर मिलते । तब मैंने सोचा कि कम लिखो और कोशिश कर अच्छा लिखो । इसी प्रकार ‘कथा बिम्ब’ में प्रकाशित कहानी : सूनी मांग का गीत पर भी अनेक पत्र मिले । कमलेश्वर, धर्मवीर भारती,   अज्ञेय व श्रीपत राय के संपादन में कहानियां प्रकाशित होने का सुख मिला । श्रीपत राय ने तो एक वर्ष में मेरी आठ कहानियां प्रकाशित कीं । मुलाकात के दौरान उलाहना दिया कि बारह कहानियां क्यों नहीं लिखीं ? इस प्रोत्साहन से ज्यादा क्या चाहिए ? ज्यादा लेखन का कोई तुक नहीं । मेरे कथा संग्रह बडे़ रचनाकारों के सुझावों पर प्रकाशित हुए । बिना कुछ रकम दिए ।

सन् 1975 में मैं केंद्रीय हिंदी निदेशालय की ओर से अहिंदी भाषी लेखकों के अहमदाबाद में एक सप्ताह के लिए लगने वाले लेखक शिविर के लिए चुना गया । तब राजी सेठ वहीं रहती थीं और उन्होने भी इस शिविर में भाग लिया और उनकी पहली कहानी ‘क्योंकर’ कहानी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी । राजन सेठ के नाम के नाम से । लड़कों जैसा नाम होने के कारण उन्होंने अपना नाम राजी सेठ कर लिया । विष्णु प्रभाकर  हमारी कहानी की क्लास लेते थे । इन दोनों से मेरा व्यक्तिगत परिचय तब से चला आ रहा है । विष्णु जी के बाद उनके परिवार से जुड़ा हुआ हूं । विष्णु जी के अनेक इंटरव्यूज प्रकाशित किए । तीन बार आमंत्रित भी किया क्योंकि संयोगवश हिसार पोस्टिंग हो जाने पर पता चला कि हिसार में अपने मामा के पास विष्णु जी ने पढ़ाई की । नौकरी की और साहित्यिक यात्रा शुरू की । बीस वर्ष यहीं गुजारे पर सीआईडी के पीछे लग जाने से दिल्ली चले गये और फिर नहीं लौटे । हां , हिसार के प्रति लगाव बहुत अधिक । आमंत्रण पर नंगे पाँव दौड़े आते । ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के कथा समारोह में आए । जब उन्हें मान सम्मान की राशि का लिफाफा सौंपा तो स्नेह से भावुक होकर बोले -तेरे जैसा शिष्य भी सौभाग्य से मिलता है ।

मेरे जीवन में कहानी लेखन में रमेश बतरा का बहुत बडा योगदान है । चंडीगढ हम लोग इकट्ठे होते और रमेश का कहना था कि यदि एक माह में एक कहानी नहीं लिखी तो मुंह मत दिखाना । लगातार नयी कहानी। फिर वह ‘सारिका’ में उपसंपादक बन कर चला गया । जहां भी संपादन किया मेरी रचनाएं आमंत्रित कीं ।  ‘कायर’ लघुकथा उसके दिल के बहुत करीब थी । वह कहता था कि यदि मैं विशव की श्रेषठ लघुकथाओं को भी चुनने लगूं तो भी इसे रखूंगा । वरिष्ठ कथाकार राकेश वत्स की चुनौती भी बडी काम आई । वे एक ही बार नवांशहर आए और  देर रात शराब के हल्के हल्के सरूर में जब चहलकदमी के लिए निकले तब वत्स ने मुझे और मुकेश सेठी को  कहा कि मैं आपको कहानीकार कैसे मान लूं ? आपकी कहानियां न सारिका में , न धर्मयुग और हिंदुस्तान में आई हैं । फिर रमेश को बताया । उसने भी कहा कि वत्स की इस बात को और  चुनौती को स्वीकार करो । फिर क्या था ? सारिका, नया प्रतीक,  कहानी में स्थान मिला । अनेक अन्य भाषाओं में कहानियां अनुवादित हुईं  । रमेश असमय चला गया । अब कोई दबाव नहीं । कोई चुनौती भी नहीं । कहानी भी नहीं । पहला कथा संग्रह ‘महक से ऊपर’ राजी सेठ के स्नेह से डाॅ महीप सिंह ने प्रकाशित किया : अभिव्यंजना प्रकाशन से । ‘महक से ऊपर’ । रॉयल्टी भी मिली और पंजाब भाषा विभाग से सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार भी । पहली कृति पर पुरस्कार और रॉयल्टी । नये कथाकार को और क्या चाहिए ?

सन् 1990 में ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के संपादक राधेश्याम शर्मा और समाचार संपादक सत्यानंद शाकिर दैनिक ट्रिब्यून में मुझे पूर्णकालिक चाहते थे । मार्च माह की पहली तारीख को प्रिंसिपल,  शिक्षण व अध्यापन को अलविदा कहने के बाद पत्रकारिता में आ गया । ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का कथा कहानी पन्ना संपादित करने का अवसर मिला । कश्मीर से दिल्ली तक के कथाकारों से काफी जानने और मिलने का मौका मिला । कथा व लघुकथा को विशेष स्थान दिया । इस बीच मेरे लघुकथा संग्रह मस्तराम जिंदाबाद,  इस बार तो कथा संग्रह मां और मिट्टी,  जादूगरनी , शो विंडो की गुडिया आदि प्रकाशित हुए । मजेदार बात है कि साहित्य में मुझे लघुकथाकार ही समझा जा रहा है जबकि मेरे छह कथा संग्रह हैं । जहां तक कि ग्रंथ अकादमी के लिए कथा संकलन संपादित करने वाले ज्ञान प्रकाश विवेक मेरा कथा संग्रह दरवाजा कौन खोलेगा पढ कर हैरान रह गये और फोन पर कहा कि यार , मुझे बहुत हैरानी हुई कि लोग आपको लघुथाकार ही क्यों मानते हैं ?

मुझे हिसार में ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के स्टाफ रिपोर्टर के रूप में अवसर मिला एक नये प्रदेश और संस्कृति को जानने का । इस दौरान डाॅ नरेंद्र कोहली के सुझाव पर मेरा कथा संग्रह ‘एक संवाददाता की डायरी’ तो डाॅ वीरेंद्र मेंहदीरता के सुझाव पर जादूगरनी , ‘शो विंडो की गुडिया’ कथा संग्रह चंडीगढ के अभिषेक प्रकाशन से आए । ऐसे थे तुम , इतनी सी बात , मां और मिट्टी,  दरवाजा कौन खोलेगा जैसे संकलन भी पाठकों तक पहुंचे ।

इस तरह अब तक मेरे सात कथा संग्रह और पांच लघुकथा संग्रह हैं । ‘एक संवाददाता की डायरी’ को अहिंदी भाषी लेखन पुरस्कार योजना में प्रथम पुरस्कार मिला और सबसे सुखद क्षण जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों यह पुरस्कार मिला । किसी रचनाकार के हाथों पुरस्कार मिलना आज भी पुलक से भर देता है । अटल जी ने वह संग्रह पढ़ने के लिए मंगवाया भी ।

काॅलेज छात्र के रूप में खुद की पत्रिकाएं प्रयास,  पूर्वा और प्रस्तुत प्रकाशित कीं । दैनिक ट्रिब्यून से त्यागपत्र दिलवा कर हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा मुझे नवगठित हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना कर ले गये । नयी अकादमी की कथा पत्रिका ‘कथा समय’ का संपादन किया । नये रचनाकारों को स्थान देना सदैव मुझे अच्छा लगता है । वरिष्ठ रचनाकारों की कहानियां भी दीं । नेहा शरद,  शेखर जोशी , अमरकांत,  नरेंद्र कोहली, राजी सेठ, वीरेंद्र मेंहदीरता,  निर्मल वर्मा, रविंद्र कालिया, ममता कालिया की चुनी हुई कहानियां दीं ।

अब अकादमी के पद से मुक्त हूं । हिसार के एक प्रतिष्ठित सांध्य दैनिक नभछोर में प्रतिदिन संपादकीय आलेख और साहित्य हिसार का देखता हूं । अनेक यात्राएं करता हूं । साहित्यिक संस्थाओं के आमंत्रण पर अलग अलग मित्र बनते हैं । सीखने की कोशिश करता हूं । पुरस्कारों की सूची से कोई लाभ नहीं होगा । जो मुझे पढ़ते हैं , वही मेरा पुरस्कार हैंं । मेरे लघुकथा संग्रह ‘इतनी सी बात’ का फगवाड़ा के कमला नेहरू काॅलेज की प्रिंसिपल डाॅ किरण वालिया ने ‘ऐनी कु गल्ल’ के रूप में पंजाबी में अनुवाद करवा कर प्रकाशित करवाया ।  इसी प्रकार मेरा कथा संग्रह ‘मां और मिट्टी’ नेपाली में अनुवाद हुआ । यह सुखद अनुभूति किसी पुरस्कार से कम नहीं । मैं एक बात महसूस करता हूं और कहता भी हूं कि मैंने कम लिखा क्योंकि सन् 1982 में मंत्र मिल गया लेकिन मुझे उससे ज्यादा सम्मान मिला ।  मेरी इंटरवयूज की पुस्तक : यादों की धरोहर जालंधर के आस्था प्रकाशन से आने के बिल तीन तीन संस्करण आ चुके हैं । इसमें एक पत्रकार के रूप में अच्छे , नामवर साहितयकारों , रंगकर्मियों , पत्रकारों व संस्कृति कर्मियों के इंटरव्यूज शामिल हैं जो समय समय पर ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के लिए किए गए थे । शीघ्र ही इंडियानेटबुक्स से महक से ऊपर का दूसरा संस्करण आयेगा । पत्रकारिता में भी ग्रामीण पत्रकारिता पर हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय से तो साहित्यिक पत्रकारिता पर हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिले । रामदरश मिश्र की ये पंक्तियां बहुत प्रिय हैं :

मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी

मोहब्बत मिली है मगर धीरे-धीरे

जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर

वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे, ,,

इसी प्रकार अज्ञेय जी की ये पंक्तियां भी बहुत हौंसला देती हैं :

कहीं न कहीं

हरे-भरे पेड़ अवश्य ही होंगे

नहीं तो थका हारा बटोही

अपनी यात्रा जारी क्यों रखता ,,,,,

सच साहित्य ने क्या नहीं दिया ? जब मेरी बडी बेटी रश्मि रोहतक के पीजीआई में ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही थी तब पुस्तक मेले से पुस्तकें लाकर उसके पास बैठ कर पढ़ता था । जब छोटी बेटी प्राची चंडीगढ़ के पीजीआई में तेइस दिन ज़िंदगी की लड़ाई लड़ रही थी तब मैने तीन कहानियां लिखी थीं । यह साहित्य ही है जो दुख के समय मेरे काम आता रहा है । जब पिता , दादा और दादी नहीं रहे थे तब एक चौदह वर्ष के बालक को साहित्य ने सहारा दिया ।

सच अज्ञेय जी सही लिखते हैं : दुख सबको मांझता है । अमोघ शक्ति है साहित्य । साहित्यकार का सपना होता है कि कुछ लिखकर समाज को संदेश दे ।

मुंशी प्रेमचंद का मंत्र है कि साहित्यकार सुलाने के लिए नहीं , समाज को जगाने के लिए है ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कालांतर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कालांतर ? ?

पहले तबीयत बिगड़ने पर

बहू काढ़ा पिलाती थी,

बेटा पाँव दबाता था,

पोती माथा सहलाती थी,

पोरों में बसी नेह की छुअन

बीमारी को भगा देती थी,

इन दिनों तबीयत बिगड़ने पर

दवाइयाँ हैं, एंटीबायोटिक हैं,

बहू, बेटा, पोती भी हैं,

बचा-खुचा नेह भी है

पर समय नहीं है किसीके पास,

अब बीमारी दब तो जाती है

पर जाने में समय लगाती है!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Spirit Unbroken: # 10 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Spirit Unbroken: # 10 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

In the heart of New Zealand’s verdant wilderness, where ancient trees stood as silent witnesses to the passage of time, we found ourselves meandering along a narrow trail in a serene reserve. The air was cool, rich with the fragrance of damp earth and blooming ferns. It was here that we met her—a lady of serene countenance, her silver hair gleaming like spun moonlight, and a smile that carried the warmth of a hundred summers.

“Are you visiting New Zealand?” she inquired, her tone bright and lilting.

“Yes,” we replied, pausing to reciprocate her kindness.

“And where are you from?”

When we told her we hailed from India, her eyes lit up with a spark of recognition. “Ah, India! I thought as much. I spent my childhood there, you know. It is a land that stays with you—its colours, its chaos, its soul.”

Her voice carried a peculiar blend of nostalgia and reverence, as though she spoke not merely of a place, but of an intimate companion. She must have been in her seventies, yet her vibrancy belied her years. It was then that her story began to unfurl, a tale that seemed plucked from the realm of miracles and destiny.

She was born in a small country in Western Europe, she explained, but her father’s profession had brought their family to India during the twilight of colonial rule. Her childhood in India had been a mosaic of vivid memories—the monsoon rains drumming against the tiled roofs, the scent of jasmine in the evening air, the call of distant temple bells. But as adulthood beckoned, her family returned to Europe, leaving behind the land that had cradled her earliest dreams.

Years passed, life took its turns, and she found herself yearning to revisit the land of her childhood. So one monsoon season, she arrived in Bombay, now Mumbai. The city was drenched in a torrential downpour, the streets awash with rainwater. As she navigated the chaos, she caught sight of something caught in the eddies of a small stream by the roadside. Her heart lurched—a tiny bundle, motionless and soaked.

Without hesitation, she waded into the water and retrieved the bundle. It was a newborn baby, abandoned and barely alive. As she cradled the child, a strange sensation rippled through her body—a warmth in her chest, an ache both physical and spiritual. She hurried to her lodging, where to her astonishment, she discovered she could breastfeed the infant. Though she had never borne children of her own, her body responded as though it had awaited this moment all its life.

The path that followed was arduous. She navigated a labyrinth of legalities to adopt the child, a process that demanded every ounce of her resolve and a significant sum of money. But she prevailed, returning to her homeland with the baby girl she now called her daughter.

Years later, compelled by an inexplicable pull, she returned to India once more. This time, her journey took her to an orphanage. As fate would have it, she arrived just as someone left a newborn in a cradle at the orphanage’s gate. Drawn to the tiny, wailing figure, she picked up the child—and again, the sensation returned. The mysterious flow of milk, the unbidden maternal bond.

“I couldn’t turn away,” she told us, her eyes shimmering with the memory. “It was as if the universe whispered, ‘They are yours.’” She adopted the second baby too, overcoming the same hurdles with unrelenting determination.

Life, however, was not without its trials. Her husband, unable to comprehend the depth of her choices, left her for another. Yet she pressed on, a woman unyielding, carrying her daughters to a distant Pacific island. There, she built a life from the ground up, working tirelessly to provide them with education and opportunities.

Today, her daughters thrived—women of strength and compassion, with families of their own. “My girls,” she said with a radiant smile, “are my greatest triumph.”

As she recounted her journey, we stood in awe of the woman before us—a tapestry of grit and grace, of wounds and wonders. Her story was not merely of survival, but of a spirit that embraced the extraordinary, transforming it into purpose.

“Do you ever wonder why it all happened?” we asked softly.

She paused, gazing into the emerald expanse of the forest. “Oh, I stopped questioning long ago. Some things are not for us to understand, only to live. Perhaps I was meant to be their mother. Perhaps they were meant to save me as much as I saved them.”

And with that, she bid us farewell, her steps light, her heart indomitable. As she disappeared into the dappled shade of the trees, we were left with a profound sense of awe—of destiny’s strange, wondrous design, and the boundless resilience of the human spirit.

#newzealand #india #mother

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ – ‘This January…’ – ☆ Ms. Setaluri Padmavathi ☆

Ms. Setaluri Padmavathi

(Setaluri Padmavathi is a creative artist, poetess, and writer. She is a Postgraduate in English Literature with a B.Ed., has been in education for more than three decades, and held various positions like Principal, the Head of the Department of English, Academic Coordinator, and teacher. Her teaching methodologies were highly appreciated, and she won special respect among her colleagues and enlivened the environment of the workplace.

She is a bilingual writer and a poet whose stories, articles, and poetry have been published in reputed anthologies, magazines, and e-journals. She writes in Telugu and English. Her much-appreciated poems and stories have been winning the hearts of readers of all age groups. She was the editor of Your Space, Muse India.)

We present her prize-winning entry in the Literary Warriors Group Contest ~ ‘This January…~. 

☆ ~ ‘This January…’ ~? ☆

(Prize winning entry in the Literary Warriors Group Contest. The prompt given was to start with the lines “This January”.)

This January opened a new page

Where I add a new wise visionary 

Who befriended me with an open heart

And filled my way with many hopes!

 *

The moment I open my eyelids 

Greenery warms my serene soul

The sunrays bring brightness,

A new day spreads wings ahead!

 *

It connects me with an old friend

Who pours down her feelings 

Being a keen and quiet listener, 

I lend my ears to her broken heart!

 *

Travelling an unknown pathway, 

fills my mind with new thoughts 

I change my changed challenges,

And begin my new story to tell…

 *

A new Parker pen amidst fingers 

Gleefully dance with a purpose

I ink new ideas on paper again

Giving the poem a catchy title!

 *

A new day, a new friend and a new view

Bring newness in my life

Awakening spirits every dawn,

My heart jumps with joy!

 *

The beginning of the new year 

Brings numerous dreams and goals

This January opened a new leaf,

Where I can paint my picture once again!

~ Ms. Setaluri Padmavathi

© Ms. Setaluri Padmavathi

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-९ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-९ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

बहमनी और विजयनगर साम्राज्यों की सीमा कृष्णा नदी निर्धारित करती थी। कृष्णा नदी के उत्तरी किनारे तक बहमनी साम्राज्य की सीमा थी और दक्षिणी किनारे से विजयनगर साम्राज्य आरम्भ होता था। कृष्णा नदी पश्चिमी घाट के महाराष्ट्र में महाबलेश्वर पर्वत की कंदराओं से निकलती है। जहाँ पर्यटक अक्सर घूमने जाते हैं। कृष्णा नदी की उपनदियों में कुडाळी, वेण्णा, कोयना, पंचगंगा, दूधगंगा, तुंगभद्रा, घटप्रभा, मलप्रभा, मूसी और भीमा प्रमुख हैं। कृष्णा नदी के किनारे विजयवाड़ा एंव मूसी नदी के किनारे हैदराबाद स्थित है। इसके मुहाने पर बहुत बड़ा डेल्टा है। इसका डेल्टा भारत के सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक है। कृष्णा महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश में बहती हुई बंगाल की खाड़ी में जाकर गिरती है। कृष्णा नदी 1400 किलोमीटर यात्रा तय करके हर मान सून में उपजाऊ डेल्टा प्रदान करती है। सबसे ऊँचा चिनाई नागार्जुन सागर बांध नरगुण्डा जिले में इसी नदी पर बना है। इस इलाक़े में दुनिया की सबसे तीखी मिर्च की खेती होती है। विजयनगर साम्राज्य की उन्नति से बहमनी साम्राज्य के विखंडन से पैदा हुए चारों मुस्लिम राज्यों को मिर्ची लगती थी।

दिल्ली के तुगलक वंश के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के खिलाफ़ इस्माइल मुख के विद्रोह से बहमनी सल्तनत (1347-1518) अस्तित्व में आया था। इसकी स्थापना 03 अगस्त 1347 को एक तुर्क-अफ़गान सूबेदार अलाउद्दीन बहमन शाह ने की थी। 1518 में इसका विघटन हो गया जिसके फलस्वरूप – गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बिरार और अहमदनगर के मुस्लिम राज्यों का उदय हुआ।

हिन्दू विजयनगर साम्राज्य इसका प्रतिद्वंदी था। कृष्णदेवराय ने बहमनी सुल्तान महमूदशाह को बुरी तरह परास्त किया। रायचूड़, गुलबर्गा और बीदर आदि दुर्गों पर विजयनगर की ध्वजा फहराने लगी। किंतु प्राचीन हिंदु राजाओं के आदर्श के अनुसार महमूदशाह को जीता हुआ इलाका लौटा दिया। इस प्रकार कृष्णदेवराय यवन राज्य स्थापनाचार्य की उपाधि धारण की।

तालीकोटा की लड़ाई के समय सदाशिव राय (1542-1570) का शासन चल रहा था। सदाशिव राय विजयनगर साम्राज्य के कठपुतली शासक थे। वास्तविक शक्ति उसके मंत्री राम राय के हाथ में थी।  सदाशिव राय दक्कन की इन सल्तनतों को पूरी तरह से कुचलने की योजना बना रहा था। इन सल्तनतों को विजयनगर के मंसूबे के बारे में पता चल गया। उन्होंने एकजुट होकर लड़ने की योजना बनाई। बीजापुर के अली आदिल शाह प्रथम, गोलकुंडा के इब्राहिम कुली क़ुतुब शाह, अहमदनगर के हुसैन निज़ाम शाह प्रथम और मराठा मुखिया राजा घोरपड़े की संयुक्त सेना ने एकजुट होकर एक गठबंधन का निर्माण कर विजयनगर साम्राज्य पर हमला बोल दिया था। विजयनगर साम्राज्य और दक्कन सल्तनत की सेनाओं के बीच भयानक लड़ाई हुई, जिसे ‘तालिकोटा की लड़ाई’ के नाम से जाना जाता है।

तालिकोटा का मैदान हम्पी से 200 किलोमीटर दूर कृष्णा नदी के किनारे था। कृष्णा  नदी के दक्षिणी किनारे पर राक्षस-तांगड़ी नामक दो गावं के बीच का खुला मैदान तालिकोटा के नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ यह लड़ाई हुई थी। सदाशिव राय साम्राज्य के प्रधान थे, उन्होंने तालीकोटा की लड़ाई में विजयनगर साम्राज्य की सेना का नेतृत्व किया था।

15 सितंबर 1564 को दशहरा के दिन राम राय ने दरबार में विचार-विमर्श के पश्चात आदेश दिया कि सभी दरबारी अपनी सेनाओं को लेकर तालीकोटा के मैदान में एकत्रित हों। 26 दिसंबर 1564 को संयुक्त मुस्लिम फ़ौज कृष्णा नदी के उत्तरी किनारे पर पहुँच गईं। दक्षिणी किनारे पर राम राय के सेनापतित्व में विजयनगर सेना उनका इंतज़ार कर रही थी। लड़ाई शुरू होने के पहले नदी पार करने को लेकर छुटपुट भिड़ंत होती रहीं। दोनों सेनाएँ एक महीने तक जासूसों के माध्यम से शक्ति संतुलन तौलती रहीं। निजाम शाह और क़ुतुब शाह ने नदी पार करके हमला करने की कोशिश में मार खाई और वे वैसा खेमे में लौट गए। मुस्लिम सेना ने बदली व्यूह रचना के मुताबिक़ युद्ध भूमि से हटकर दोनों तरफ़ से सशस्त्र घुड़सवार नदी पार करके दक्षिणी किनारे पर उतारे। उन्होंने बिच्छू डंक योजना के मुताबिक़ दोनों तरफ़ से विजयनगर सेना को घेरे में ले लिया।

23 जनवरी 1565 को कृष्णा नदी पर दोनों सेनाओं की भिड़ंत हुई। इतिहासकार स्वेल और फ़रिश्ता के अनुसार राम राय हुसैन निजाम शाह के आमने-सामने था और उनका भाई तिरुमला उनके दाहिनी तरफ़ बीजापुर फ़ौज के सामने, दूसरा भाई वेंकटद्रि अहमदाबाद-बिदर-गोलकुंडा के संयुक्त सेना के सामने से भिड़े। भयानक लड़ाई होने लगी। विजयनगर सेना का पड़ला भारी था। तभी दो घटनाओं में युद्ध का मुख मोड़ दिया। विजयनगर सेना के दो मुस्लिम सेनानायक जिहाद के नारे लगाते हुए, दगा करके मुस्लिम सेना के साथ हो गए। दूसरा, नदी पार करके आए घुड़सवारों ने विजयनगर सेना पर पीछे से घातक हमला कर दिया। विजयनगर की सेना तितर बितर हो गई। सैनिक जान बचा कर भागने लगे।

युद्ध के दौरान राम राय के जिन दो मुस्लिम सेना नायकों ने अचानक पक्ष बदल लिया था और वे मुस्लिम हमलावरों से जा मिले। इन दोनों ने राम राय को पकड़ लिया। निजाम शाह ने तलवार से राम राय का सर काट कर उसे भाले की नोक पर उठाकर युद्ध जीतने की घोषणा कर दी। राम राय का भाई तिरुमला किसी तरह हम्पी पहुँच खजाना और राज स्त्रियों को लेकर दक्षिण की तरफ़ पेनुगोंडा पहुँच राजा बनने की घोषणा कर सेना इकट्ठी करने लगा। लेकिन विजयनगर साम्राज्य इस हार से कभी उभर नहीं सका और धीरे-धीरे पतन की गर्त में चला गया।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साहिर और महेन्द्र कपूर।)

?अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो साहिर अपनी मर्जी के शायर थे और किसी खूंटे से बंधे नहीं थे, लेकिन फिल्म नया दौर से, वक्त तक, बी आर चोपड़ा से उनकी जोड़ी खूब जमी। नया दौर में अभिनेता दिलीपकुमार थे, और इस फिल्म के सभी हिट गीतों को जहां मोहम्मद रफी ने अपना स्वर दिया था, वहीं ओ पी नैय्यर ने इन्हें अपने मधुर संगीत में ढाला था।

लेकिन बी आर चोपड़ा, ओ पी नैय्यर और साहिर लुधीयानवी की तिकड़ी और रफी साहब की आवाज का यह करिश्मा आगे चल नहीं पाया। बी आर चोपड़ा चाहते थे कि मोहम्मद रफी केवल उनकी फिल्मों के लिए ही गीत गाएं, जो कि रफी साहब को मंजूर नहीं था। उनका मानना था कि उनकी आवाज सभी संगीतकारों के लिए बनी है, वे कोई दरबारी गायक नहीं हैं।।

बस यही बात चोपड़ा साहब को चुभ गई और उन्होंने प्रण कर लिया कि वे एक और मोहम्मद रफी खड़ा करेंगे और इसके लिए उन्होंने रफी साहब के ही शागिर्द महेन्द्र कपूर को चुना। वैसे भी मुकेश, किशोर कुमार और रफी साहब के चलते महेन्द्र कपूर साहब को फिल्में कम ही मिलती थी, फिर भी उपकार फेम मनोज कुमार भी उन पर पूरी तरह से मेहरबान थे, जिस कारण कल्याण जी आनंद जी के भी वे प्रिय हो चले थे। याद कीजिए, दिलीप कुमार की फिल्म गोपी के रफी साहब के एक भजन को छोड़कर, सभी गीत महेन्द्र कपूर ने ही गाये थे।

अधिक विषयांतर ना करते हुए हम साहिर और महेन्द्र कपूर के साथ के बारे में चर्चा करते हैं। फिल्म गुमराह के गीतों को ही ले लीजिए। चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों। यहां संगीतकार ओ पी नैय्यर नहीं हैं, रवि हैं। श्रोता को समझ भी नहीं आता, वह शब्दों में खो गया है, अथवा आवाज की मिठास में। इसी फिल्म के एक और गीत, इन हवाओं में, इन फिज़ाओं में, में आशा भोंसले का कंठ अधिक मधुर है अथवा महेन्द्र कपूर का, आप ही बताइए।।

गुमराह(1963) के बाद वक्त(1965) और हमराज(1967) गीत संगीत के हिसाब से सफल रही, जहां साहिर और महेन्द्र कपूर अपने जलवे बिखेरते नजर आए। इसके बाद की तीन फिल्में क्रमशः धुंध, (1973)इंसाफ का तराजू(1980) और निकाह(1982) बॉक्स ऑफिस पर चली जरूर लेकिन तब तक चोपड़ा साहब का एक और रफी तैयार करने का सपना चूर चूर हो चला था। फिल्म वक्त में थक हारकर उन्हें वापस रफी साहब की ही आवाज लेनी पड़ी। आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे, कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज़।।

फिल्म हमराज़ के तीनों गीत, नीले गगन के तले, तुम अगर साथ देने का वादा करो अथवा किसी पत्थर की मूरत से, जब मैं सुनता हूं, तो मुझे महेन्द्र कपूर की सूरत में साहिर की सीरत नजर आती है।

इतनी सॉफ्ट मखमली आवाज से वे शुरू करते हैं, लेकिन अपनी रेंज में रहते हुए खूबसूरत आलाप भी बखूबी ले लेते हैं। वे कहीं भी बेसुरे नजर नहीं आते। साहिर और महेन्द्र कपूर के सर्वश्रेष्ठ गीतों का एल्बम अगर बनेगा तो उसमें ये गीत अवश्य शामिल होंगे।

साहिर और महेंद्र कपूर की सबसे यारी रही। गुरुदत्त की प्यासा हो या कागज़ के फूल, साहिर ने अगर संगीतकार रवि के लिए गीत लिखे तो चित्रगुप्त और लक्ष्मी प्यारे के लिए भी। बस शायद नौशाद और शंकर जयकिशन को कभी साहिर की याद नहीं आई। एक के पास अगर शकील थे तो दूसरे के हाथ में दो दो लड्डू, शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी।।

साहिर और महेन्द्र कपूर का ही एक गीत है, संसार की हर शै का, इतना ही फसाना है, एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है। एक और शायर कैफ़ी आज़मी गुरुदत्त के लिए भी कह गए, जो हम सब पर लागू होता है,

देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी बारी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 143 ☆ मुक्तक – ।। ऐ जिंदगी तेरा अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 143 ☆

☆ मुक्तक ।। ऐ जिंदगी तेरा अभी कुछ कर्ज़ चुकाना बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

जिंदगी अभी चल कि प्रभु कर्ज चुकाना बाकी  है।

किसी पराए का भी कुछ दर्द     मिटाना बाकी है।।

रिश्तों की   तुरपाई  करनी है वैसी  ही मिल  कर।

ईश्वर के शुकराने में भी सिर    झुकाना बाकी है।।

=2=

किसी के उदर कीआग अभी बुझाना    बाकी है।

नई-नई पीढ़ी को भी सही राह सुझाना बाकी है।।

बहुत ही काम कर लिया जीवन के इस सफर में।

लेकिन फिर भी कुछ नया करके दिखाना बाकी है।।

=3=

जीवन की राहों में गाँठे अभी सुलझाना बाकी है।

हँसते-हँसते हुए अभी रूठना मनाना  बाकी है।।

छूट गया जो भी   जीवन   की लंबी सी दौड़ में।

तिनका-तिनका जोड़ कर उसको जुटाना बाकी है।।

=4=

दिल की अधूरी बात अभी सबको सुनाना बाकी है।

किसी रोते हुए को भी हमें अभी हँसाना बाकी है।।

जो मिली अनमोल वरदान  सी यह  एक  जिंदगी।

उस जिंदगी का रह गया फ़र्ज़ अभी निभाना बाकी है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 209 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 209 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये ।

औरों के कष्ट का सही अनुमान दीजिये ॥

*

दुनिया में भाई-भाई से हिलमिल के सब रहें

है द्वेष जड़ लड़ाई की – यह ज्ञान दीजिये ॥

*

होता नहीं लड़ाई से कुछ भी कभी भला

सुख-शांति के निर्माण का अरमान दीजिये ॥

*

निर्दोष मन औ’ शुद्ध भावनाओं के लिये

हर व्यक्ति को सबुद्धि औ’ सद्ज्ञान दीजिये ॥

*

दुनिया सिकुड़ के  आज हुई एक नीड़ सी

इस नीड़ के कल्याण का विज्ञान दीजिये ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “धुके…” ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “धुके…” ☆  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

झाली पहाट आली जाग हळूहळू साऱ्या सृष्टीला

थंडी गुलाबी लपेटलेल्या तरुण निसर्गाला… 

*

किलबिल चिवचिव करीत सारे पक्षीगण ते उठले

किलकिल डोळे करीत आणि जागी झाली फुले… 

*

पहाटवारा गाऊ लागला भूपाळी सुस्वर

पानांच्या त्या माना हलवीत दाद देती तरुवर… 

*

मिठी परी साखरझोपेची, निसर्गराजा त्यात गुंगला

गोड गुलाबी पहाटस्वप्ने जागेपणी अन पाहू लागला… 

*

बघता बघत चराचर आता धूसर सारे झाले

आपल्या जागी स्तब्ध जाहली वेली वृक्ष फुले… 

*

स्वप्नांचा तो मोहक पडदा धुके लेवुनी आला

कवेत घेऊन जग हे सारे डोलाया लागला… 

*

फिरून एकदा निरव जाहले वातावरणच सारे

धुके धुके अन धुके चहूकडे.. काही न उरले दुसरे… 

*

परी बघवेना दिनकरास हे जग ऐसे रमलेले

स्वप्नरंगी त्या रंगून जाता.. त्याला विसरून गेले… 

*

गोड कोवळे हासत.. परि तो लपवीत क्रोध मनात

आला दबकत पसरत आपले शतकिरणांचे हात… 

*

दुष्टच कुठला, मनात हसला, जागे केले या राजाला

बघता बघता आणि नकळत स्वप्नरंग उधळून टाकला… 

*

 स्वप्न भंगले, दु:खित झाला निसर्गराजा मनी

दवबिंदूंचे अश्रू झरले नकळत पानोपानी… 

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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