हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #89 ☆ चाहे जितना जोर लगा लो… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चाहे जितना जोर लगा लो…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
वादों के जुमलों से घिरे हुए मतदाता आखिरकार वोटिंग बूथ तक पहुँच ही गए। अब किस चुनाव चिन्ह का बटन दबाएंगे ये तो उनके विवेक पर निर्भर करता है। यहाँ तक आने से पहले उन्होंने वाद, विवाद, संवाद, प्रतिवाद सभी का सहारा लिया है। अंत में निर्विवाद रूप से जातिगत समीकरणों को धता देते हुए कार्यों की गुणवत्ता को ही आबाद करने का सामूहिक निर्णय नजरों ही नजरों में ले लिया है।
मजे की बात ये है कि इस बार रिपोर्टर ये नहीं पूछ रहे हैं कि आपने किसे वोट दिया बल्कि एक कदम आगे बढ़ते हुए ये पता लगाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं कि किन मुद्दों पर मतदान हुआ है। अक्सर ही ओपिनियन पोल चुनावी परिणामों से नहीं मिलता है जिससे उनके चैनल की प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाती है। जितनी मायूसी हारने वाले खेमे को होती है उससे कहीं ज्यादा चैनल के सी ई ओ को होती है। उसे बड़े दलों का जिम्मा आगे के चुनावों में नहीं दिया जाता है। यही तो समय है ये देखने का कि उन्होंने माहौल निर्मित करने में कितना जोर लगाया है। निष्पक्ष होने का दावा करने के बाद भी कौन किस दल के प्रचार में लगा हुआ ये साफ दिखता है।
जो दिखता है वही बिकता है। ये स्लोगन केवल वस्तुओं की बिक्री हेतु लागू नहीं होता है। इसका उपयोग सभी क्षेत्रों में बखूबी हो रहा है। एक- एक मतदाता को लुभाना उसे अपनी पार्टी की विचारधारा से जोड़ना; ये सब कुछ ही दिनों के भीतर करना कोई जादुई कार्य ही तो है।आँखों की नींद उनकी वाणी से साफ झलकती है। कोई मुखिया अपने प्रत्याशी को ही नहीं पहचानता क्योंकि उसने हाल में ही पार्टी की बागडोर संभाली है। उसके शुभचिंतक ही उसे बताते हैं कि आज आपको इनके लिए बोलना है। बोलने से याद आया, कुछ भी बोलो; बस अंत में चुनाव चिन्ह सही बोलना क्योंकि कोई कुछ भी ध्यान नहीं दे रहा है वो तो स्टार प्रचारक को नजदीक से देखना चाहता है सो यहाँ बैठा हुआ है।
कई लोग तो विवशता वश अपना ही प्रचार नहीं कर पा रहे हैं पर उन्हें व उनके समर्थकों को विश्वास है कि वे भारी बहुमत से जीतेंगे। कथनी और करनी का तालमेल तो चुनाव परिणाम वाले दिन ही पता चलेगा बस इंतजार है कि मतदाता किन बातों से प्रभावित हो रहा उसकी समीक्षा का क्योंकि अगले चुनावों की भी भूमिका इसी बात पर तो निर्भर करेगी।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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