आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (18) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌।।18।।

 

ये सब ही तो श्रेष्ठ हैं,ज्ञानी मेरे प्राण

योगी मेरे आसरे कर गति विधि अनुमान।।18।।

 

भावार्थ :  ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात्‌मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है।।18।।

 

Noble indeed are all these; but I deem the wise man as My very Self; for, steadfast in mind, he is established in Me alone as the supreme goal.।।18।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (17) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ।।17।।

 

इनमें ज्ञानी मुझे प्रिय,एक निष्ठ समज्ञान

नित्य भक्त जन को भी मैं,प्रिय हूँ उन्ही समान।।17।।

 

भावार्थ :  उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है॥17॥

 

Of them, the wise, ever steadfast and devoted to the One, excels (is the best); for, I am exceedingly dear to the wise and he is dear to Me.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (16) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।16।।

 

चार तरह के लोग हैं,करते मेरी भक्ति

आर्त,ज्ञानी जिज्ञासु औ” जो चाहें धन शक्ति।।16।।

 

भावार्थ :  हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला), आर्त (संकटनिवारण के लिए भजने वाला) जिज्ञासु (मेरे को यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजने वाला) और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं।।16।।

 

Four kinds of virtuous men worship Me, O Arjuna! They are the distressed, the seeker of  knowledge, the seeker of wealth, and the wise, O lord of the Bharatas!।।16।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (15) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ।।15।।

 

असुरभाव से नराधम,ज्ञान हीन बदनाम

पा सकते मुझको नहीं,उन्हें नही विश्राम।।15।।

 

भावार्थ :  माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते।।15।।

 

The evil-doers and the deluded, who are the lowest of men, do not seek Me; they whose knowledge is destroyed by illusion follow the ways of demons.।।15।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (14) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।14।।

 

मेरी दैवी गुणमयी माया अपरम्पार

पर मुझसे जो मिल गये,वे सब होते पार।।14।।

      

भावार्थ :  क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात्‌ संसार से तर जाते हैं।।14।।

 

Verily this divine illusion of Mine made up of the qualities (of Nature) is difficult to  cross over; those who take refuge in Me alone cross over this illusion.।।14।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा )

 

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ।।13।।

 

यह सारा संसार है तीन गुणों से युक्त

मै अविनाशी किन्तु नित उनसे परम विमुक्त।।13।।

 

भावार्थ :  गुणों के कार्य रूप सात्त्विक, राजस और तामस- इन तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसीलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता।।13।।

 

Deluded by these Natures (states or things) composed of the three qualities of Nature, all this world does not know Me as distinct from them and immutable.  ।।13।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (12) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

 

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।

मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ।।12।।

 

राजस,तामस,सात्विक,सभी भाव यह जान

ये  सब हैं मुझसे ही मैं उन रहित समान।।12।।

      

भावार्थ :  और भी जो सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजो गुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू ‘मुझसे ही होने वाले हैं’ ऐसा जान, परन्तु वास्तव में (गीता अ. 9 श्लोक 4-5 में देखना चाहिए) उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।।12।।

 

Whatever being (and objects) that are pure, active and inert, know that they proceed from Me. They are in Me, yet I am not in them.।।12।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।11।।

बलवानों में बल हूँ मैं,राग द्वेष प्रतिकूल

सब तत्वों में कामना धर्मभाव अनूकूल।।11।।

भावार्थ :  हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूँ।।11।।

 

Of the strong, I am the strength devoid of desire and attachment, and in (all) beings, I am the desire unopposed to Dharma, O Arjuna!।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (10) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

 

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्‌ ।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ।।10।।

 

बुद्धिमान की बुद्धि हूँ तेजस्वी का तेज

सब भूतों के जन्म हित, काम भाव अभिलेख।।10।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।।10।।

 

Know Me, O Arjuna, as the eternal seed of all beings; I am the intelligence of the intelligent; the splendour of the splendid objects am I!।।10।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 4. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  4.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

सहभागिता और साहचर्य का आरंभ बच्चे के जन्म से ही होता है। संतान को लेकर प्रसूता सबसे पहले कुआँ पूजन के लिए घर से निकलती है। पहला पूजा जलदेवता के स्रोत की। शरीर का पचहत्तर प्रतिशत जल से ही बना है। वह अपने दूध की धार कुएँ में छोड़ती है। प्रकृति से प्रार्थना करती है कि जैसे मेरा दूध पीकर मेरा बेटा/ बेटी स्वस्थ रहें, उसी भाव से मैं अपना दूध कुएँ के जल में डालती हूँ जिससे मेरा गाँव स्वस्थ रहे।

जन्म से आरंभ ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ का यह भाव, आजन्म चलता है। सधवा स्त्रियों द्वारा किया जानेवाला करवा चौथ का व्रत अकेली स्त्रियों द्वारा भी बड़ी संख्या में घर-परिवार- समाज  के लिए भी किया जाता है। यह व्रत करनेवाली ऐसी ही एक निराधार वृद्धा से एक सर्वेक्षक ने जब कारण जानना चाहा तो उसने कहा कि गाँवराम मेरा पालन-पोषण करता है, सो उसके लिए करती हूँ। मैं न रहूँ तब भी मेरा गाँवराम खुश रहे। अद्भुत दर्शन है ये।

इस घटना में गाँवराम को किसी व्यक्ति का नाम समझने वालों को पता हो कि गाँव से अर्थात पूरे समाज में ईश्वरीय तत्व देखने-जोड़ने की भावना के चलते गाँव को गाँवराम कहा गया। इसी श्रद्धाभाव के चलते बच्चे का नाम भी भी ‘राम’ नहीं अपितु ‘सियाराम’, ‘श्रीराम’, ‘रामजी’ रखा जाता है। ईश्वर के पर्यायवाची या देवी-देवताओं के नाम पर बच्चों का नामकरण लोक में पहली पसंद रहा।

इसी अनुक्रम में व्रत-त्योहारों की कहानियाँ लोकजीवन की अभिन्न कड़ी हैं। हर व्रत त्यौहार की कथा के अंत में एक वाक्य कहा जाता है, ‘ जैसे उसका अच्छा हुआ, सबका अच्छा हो।’ इस भाव का मूल है, ’ सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद्दुखभाग्भवेत।’ लोक उदात्तता पर चर्चा नहीं करता अपितु उदात्तता को जीता है।

भारत की लोकसंस्कृति की आँख में अद्वैत है। इसके रोम-रोम में समत्व बसता है। समय साक्षी है कि अनेक संस्कृतियाँ आक्रमणकारियों के रूप में यहाँ आईं और यहीं की होकर रह गईं। बुद्ध का धम्म, महावीर स्वामी का अस्तेय, गुरु नानक का ‘एक ओंकार’ हों या पारसी, यहूदी, ईसाईयत या इस्लाम या चारवाक का नास्तिकता का सिद्धांत, सब यहीं पनपे या पले-बढ़े या आत्मसात हुए। अथर्ववेद के ‘ माता भूमि पुत्रोअहम् पृथिव्या’ के साथ लोक का एकाकार है।

भारतीय लोक की इस गज़ब की एकात्मता को समझने के लिए सुदूर के कुछ गाँवों में चले जाइए। एक ही कच्चे मकान में अलग-अलग चूल्हा करते दो भाइयों का परिवार रहता है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि इनमें से एक परिवार हिंदू है और दूसरा मुसलमान। एक के पास रामायण-पुराण हैं, दूसरे के पास कुरान है। विविधता में एकात्मता देखने वाले सनातान भारतीय दर्शन का उद्घोष है-‘आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्/ सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रतिगच्छति।’ अर्थात जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतिमत: सागर में जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को मिलता है। इसी अर्थ में यह भी कहा गया है, ‘एक वर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धनुषु/ तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम्।’ अर्थात जिस प्रकार विविध रंग की गायें एक ही- सफेद रंग का दूध देती हैं, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्व की सीख देते हैं।’ एक ही मकान में रहते दो भिन्न धर्मावलंबी भाइयों का यह रूप ही भारतीय लोकसंस्कृति है। देश को धर्म की विभाजन की विभाजन रेखाओं में बाँटकर देखने वाले, असहिष्णुता का नारा बोने में असफल रहने पर उसे थोपने की कोशिश करने वाले इन कच्चे मकानों तक पहुँचने की राह अपनी सुविधा से भूल जाते हैं।

वस्तुत: इस्लाम के अनुयायी आक्रमणकारियों के देश में पैर जमाने के बाद भय, प्राणरक्षा और सत्तालिप्सा के चलते धर्म परिवर्तन बड़ी संख्या में हुआ। स्वाभाविक था कि इस्लाम के धार्मिक प्रतीक जैसे धर्मस्थान, दरगाह और मकबरे बने। आज भारत में स्थित दरगाहों पर आने वालों का डेटा तैयार कीजिए। यहाँ श्रद्धाभाव से माथा टेकने आने वालों में अधिक संख्या हिंदुओं की मिलेगी। जिन भागों में मुस्लिम बहुलता है, स्थानीय लोक-परंपरा के चलते वहाँ के इतर धर्मावलंबी, विशेषकर हिंदू बड़ी संख्या में रोज़े रखते हैं, ताज़िये सिलाते हैं। भारत के गाँव-गाँव में ताज़ियों के नीचे से निकलने और उन्हें सिलाने में मुस्लिमेतर समाज कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहता है। लोक से प्राणवान रहती इसी संस्कृति की छटा है कि अयोध्या हो या कोई हिंदुओं का कोई अन्य प्रसिद्ध मंदिर, वहाँ पूजन सामग्री बेचने वालों में बड़ी संख्या में मुस्लिम मिलेंगे। हर घट में राम देखने वाली संस्कृति श्रावण मास में कई मुस्लिमों से शिव जी का जलाभिषेक कराती है। अमरनाथ जी की पवित्र गुफा में दो पुजारियों में से एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम रखवाती है। गैर हिंदू घरों की अनेक महिलाएँ पारिवारिक समस्याओं के निदान के लिए हिंदू तीज त्यौहार प्रत्यक्ष या छिपे तरीके से मनाती हैं और मंत्र, श्लोक, सूक्त का पाठ करती हैं। भारत में दीपावली कमोबेश हर धर्मावलंबी मनाता है। यहाँ खचाखच भरी बस में भी नये यात्री के लिए जगह निकल ही आती है। ‘ यह जलेबी दूध में डुबोकर खानेवालों का समाज है जनाब, मिर्चा खाकर मथुरा पेड़े जमाने वालों का समाज है जनाब।’

इतिहास गवाह है कि धर्म-प्रचार का चोगा पहन कर आईं मिशनरियाँ, कालांतर में दुनिया भर में धर्म-परिवर्तन का ‘हिडन’ एजेंडा क्रियान्वित करने लगीं। प्रसिद्ध अफ्रीकी विचारक डेसमंड टूटू ने लिखा है, When the missionaries came to Africa, they had the Bible and we had the land. They said “let us close our eyes and pray.” When we opened them, we had the Bible, and they had the land.     भारत भी मिशनरियों के इसी एजेंडा का शिकार हुआ। अलबत्ता शिकारी को भी वत्सल्य प्रदान करने वाली भारतीय लोकसंस्कृति की सस्टेनिबिलिटी गज़ब की है। इतिहास डॉ. निर्मलकुमार लिखते हैं, ‘.इसके चलते जिस किसी आक्रमणकारी आँख ने इसे वासना की दृष्टि से देखा, उसे भी इसनी माँ जैसा वात्सल्य प्रदान किया। यही कारण था कि धार्मिक तौर पर जो पराया कर दिये गये, वे  भी  आत्मिक रूप से इसी नाल से जुड़े रहे। इसे बेहतर समझने के लिए झारखंड या बिहार के आदिवासी बहुल गाँव में चले जाइए। नवरात्र में देवी का विसर्जन ‘मेढ़ भसावन‘ कहलाता है। विसर्जन से घर लौटने के बाद बच्चों को घर के बुजुर्ग द्वारा मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देेने की परंपरा है। अगले दिन गाँव भर के घर जाकर बड़ों के चरणस्पर्श किए जाते हैं। आशीर्वाद स्वरूप बड़े उसी तरह मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देते हैं। उल्लेखनीय है कि यह प्रथा हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी हरेक पालता है। चरण छूकर आशीर्वाद पाती लोकसंस्कृति धार्मिक संस्कृति को गौण कर देती है। बुद्धिजीवियों(!) के स्पाँसर्ड टोटकों से देश नहीं चलता। प्रगतिशीलता के ढोल पीटने भर से दकियानूस, पक्षपाती एकांगी मानसिकता, लोक की समदर्शिता ग्रहण नहीं कर पाती। लोक को समझने के लिए चोले उतारकर फेंकना होता है।

क्रमशः…….5

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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