आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

 

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।।9।।

 

पृथ्वी की शुभ गंध हूँ, तेज सूर्य का जान

तपस्वियों की तपस्या ,सकल विश्व का प्राण।।9।।

 

भावार्थ :  मैं पृथ्वी में पवित्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध से इस प्रसंग में इनके कारण रूप तन्मात्राओं का ग्रहण है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए उनके साथ पवित्र शब्द जोड़ा गया है।) गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ।।9।।

 

I am the sweet fragrance in earth and the brilliance in fire, the life in all beings; and I am  austerity in ascetics.।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (8) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

 

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।।8।।

 

जल में रस, शशि सूर्य में प्रभा,वेद ओंकार

हूँ नभ में , मैं शब्द नर में पौरूष आधार।।8।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।।8।।

 

I am the sapidity in water, O Arjuna! I am the light in the moon and the sun; I am the syllable Om in all the Vedas, sound in ether, and virility in men.।।8।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (7) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।7।।

 

मुझसे बढकर कहीं कुछ और नही हे पार्थ

मुझ धागों में गुथा है मणि सा जग सर्वार्थ।।7।।

 

भावार्थ :  हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है।।7।।

 

There is nothing whatsoever higher than Me, O Arjuna! All this is strung on me as clusters of gems on a string.।।7।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (6) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।

अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ।।6।।

 

भूलमात्र के सृजन का यही एक स्थान

स्व के जीवन मरण का कारण मुझ को जान।।6।।

      

भावार्थ :  हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात्‌ सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ।।6।।

 

Know that these two (My higher and lower Natures) are the womb of all beings. So, I am  the source and dissolution of the whole universe.।।6।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (4-5) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।

अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।4।।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ।।5।।

 

भूमि,अनल ,जल वायु नभ अंहकार ,मन बुद्धि

इन आठों में है बॅटी,प्रकृति सकल संमृद्धि।।4।।

किन्तु पार्थ! यह प्रकृति जो कारक है संसार

मेरा जीवन रूप है सच में एक प्रकार।।5।।

 

भावार्थ :  पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान।।4-5।।

 

Earth, water, fire, air, ether, mind, intellect and egoism-thus is My Nature divided  eight fold.।।4।।

 

This is the inferior Prakriti, O mighty-armed (Arjuna)! Know thou as different from it my higher Prakriti (Nature), the very life-element by which this world is upheld.।।4।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (3) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ।।3।।

 

लोग सहस्त्रों में कोई करता एक प्रयत्न

मुझे जानता तत्वतः कोई किंतु नर रत्न।।3।।

 

भावार्थ :  हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है।।3।।

 

Among thousands  of  men,  one  perchance  strives  for  perfection;  even  among  those successful strivers, only one perchance knows me in essence.।।3।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (2) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।2।।

 

बतलाता विज्ञान सह तुझको वह सब ज्ञान

शेष न रहता जानना,उसे पूर्णतः जान।।2।।

 

भावार्थ :  मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।।2।।

 

I shall  declare  to  thee  in  full  this  knowledge  combined  with  direct  realisation,  after knowing which nothing more here remains to be known.।।2।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (1) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

(विज्ञान सहित ज्ञान का विषय)

 

श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।1।।

 

श्री कृष्ण ने कहा-

मुझ में अपना मन रमा,मेरे आश्रय आन

पार्थ! मुझे पहचानने का सुन पूरा ज्ञान।।1।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन॥1॥

 

O Arjuna, hear how you shall without doubt know Me fully, with the mind intent on me, practicing Yoga and taking refuge in Me!।।1।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (47) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ।।47।।

 

सभी योगियों में रमे,जिनके मुझमे प्राण

मेरे मत से श्रेष्ठ वह जो है श्रद्धावान।।47।।

 

भावार्थ :  सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।।47।।

 

And among all the Yogis, he who, full of faith and with his inner self merged in Me, worships Me, he is deemed by Me to be the most devout.।।47।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥6॥

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (46) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।।46।।

 

योगी तपसी से बड़ा ज्ञानियों से भी महान

योगी हो अर्जुन ! जो है कर्मीयों से विद्धान।।46।।

 

भावार्थ :  योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो।।46।।

 

The Yogi is thought to be superior to the ascetics and even superior to men of knowledge (obtained through the study of scriptures); he is also superior to men of action; therefore, be thou a Yogi, O Arjuna! ।।46।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)