आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (36) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

( काम के निरोध का विषय )

 

अर्जुन उवाचः

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥

 

अर्जुन ने पूछा-

इच्छा विपरीत मनुज क्यों पाप आचरण करता है ?

लगता है कोई करा रहा है,वृत्ति ये कैसे धरता है।।36।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ।।36।।

 

But impelled by what does man commit sin, though against his wishes, O Varshneya (Krishna), constrained, as it were, by force? ।।36।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (35) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।35।।

 

अपना कर्म गुण रहित हो तो भी अपना हितकारी है

औरों का तो धर्म भयंकर , निज में मरण सुखारी है।।35।।

 

भावार्थ :  अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।।35।।

 

Better is  one’s  own  duty,  though  devoid  of  merit,  than  the  duty  of  another  well discharged. Better is death in one’s own duty; the duty of another is fraught with fear. ।।35।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (34) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।34।।

 

इंद्रिय के इंद्रिय हित प्रायःराग द्वेष स्वाभाविक है

इंद्रिय के वश व्यक्ति न हो ये शत्रुरूप से भावित है।।34।।

 

भावार्थ :  इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌शत्रु हैं।।34।।

 

Attachment and aversion for the objects of the senses abide in the senses; let none come under their sway, for they are his foes. ।।34।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (33) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ।।33।।

 

अपनी प्रकृति अनुसार कर्म सब ज्ञानी जन भी करते है

हठ क्या करेगा सारे प्राणी प्रकृति भाँति ही चलते है।।33।।

      

भावार्थ :  सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान्‌भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा ।।33।।

 

Even a wise man acts in accordance with his own nature; beings will follow nature; what can restraint do? ।।33।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (32) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌।

सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ।।32।।

मेरे मत अनुसार लोग वे द्वेष द्वंद जो रखते है

वे ही मूढ सफल न होते समझ स्वयं से डरते है।।32।।

भावार्थ :  परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥32॥

 

But those who carp at My teaching and do not practice it, deluded in all knowledge and devoid of discrimination, know them to be doomed to destruction. ।।32।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (31) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ।।31।।

 

श्रद्धा रख जो ,दोष दृष्टि तज,सदा कर्म निज करते है

मेरे मत से दोष मुक्त हो वे निश्चिंत बरतते हैं।।31।।

      

भावार्थ :  जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं।।31।।

 

Those men  who  constantly  practise  this  teaching  of  Mine  with  faith  and  without caviling, they too are freed from actions. ।।31।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (30) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।30।।

 

मुझमें हो अध्यात्म चित्त तू कर्म सभी मम अर्पण कर

आशा,ममता त्याग दुःख तज युद्ध के लिेये समर्पण कर।।30।।

 

भावार्थ :  मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर॥30॥

 

Renouncing all actions in Me, with the mind centred in the Self, free from hope and egoism, and from (mental) fever, do thou fight.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (29) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।

तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ।।29।।

 

प्रकृति गुण जो नहीं समझते वही लिप्ति वश होते है

मंद बुद्धि अज्ञानी जन को,समझदार सह ढोते है।।29।।

      

भावार्थ :  प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे।।29।।

 

Those deluded by the qualities of Nature are attached to the functions of the qualities. A man of perfect knowledge should not unsettle the foolish one of imperfect knowledge. ।।29।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।28।।

गुण कर्मो के तत्व जानने वाले, न्यारे रहते है

निरासक्त रह, प्रकृति कार्य करती है ऐसा कहते हैं।।28।।

भावार्थ :  परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम ‘गुण विभाग’ है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम ‘कर्म विभाग’ है।) के तत्व (उपर्युक्त ‘गुण विभाग’ और ‘कर्म विभाग’ से आत्मा को पृथक अर्थात्‌निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ।।28।।

 

But he who knows the truth, O mighty-armed Arjuna, about the divisions of the qualities and their functions, knowing that the Gunas as senses move amidst the Gunas as the sense-objects,  is not attached. ।।28।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (27) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।27।।

प्राकृत गुण सूत्रों के द्वारा कर्म सभी खुद होते है

किंतु मूढ़ जन अंहकार से कहते वे यह करते हैं।।27।।

 

 

भावार्थ :  वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है ।।27।।

 

All actions are wrought in all cases by the qualities of Nature only. He whose mind is deluded by egoism thinks: “I am the doer” ।।27।।

 

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