आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ।।26।।

 

अज्ञानी की लिप्ति बुद्धि में ज्ञानी कभी न भेद करें

स्वतः समत्तव बुद्धि से अपने निश्चित सारे कर्म करें।।26।।

 

भावार्थ :  परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए।।26।।

 

Let no wise man unsettle the minds of ignorant people who are attached to action; he should engage them in all actions, himself fulfilling them with devotion. ।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (25) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।25।।

 

हे भारत! आसक्त भाव से ज्यों अज्ञानी करते है

वैसे ही आसक्ति छोडकर ज्ञानी कर्म बरतते है।।25।।

      

भावार्थ :  हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे।।25।।

 

As the ignorant men act from attachment to action, O Bharata (Arjuna), so should the wise act without attachment, wishing the welfare of the world! ।।25।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥

मेरे कर्म न करने से यह जग विनष्ट हो जायेगा

मुझे दोष देगी यह दुनियाँ,सिर्फ बुरा कहलाउॅगा।।24।।

भावार्थ :  इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ।।24।।

These worlds  would  perish  if  I  did  not  perform  action;  I  should  be  the  author  of confusion of castes and destruction of these beings. ।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (23) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

 

यदि मैं शायद आलस करके, कर्म रहित हो जाउॅगा

तो मेरे ही पथ पर सारे जग को चलता पाउॅगा।।23।।

      

भावार्थ :  क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित्‌मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।।23।।

 

For, should I not ever engage Myself in action, unwearied, men would in every way follow My path, O Arjuna! ।।23।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥

 

पार्थ ! मुझे कुछ भी करने का जग में कोई न कारण है

फिर भी कर्म किया करता हूँ,यह मेरा संधारण है।।22।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ ।।22।।

 

There is nothing in the three worlds, O Arjuna, that should be done by Me, nor is there anything unattainable that should be attained; yet I engage Myself in action!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।

 

जो करते है श्रेष्ठ लोग छोटे भी वैसा करते हैं

सदा बडों के किये हुये को जग में सब अनुसरते है।।21।।

 

भावार्थ :  श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु ‘लोक’ शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।)।।21।।

 

Whatsoever a  great  man  does,  that  other  men  also  do;  whatever  he  sets  up  as  the standard, that the world follows. ।।21।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (20) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।

लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।।20।।

 

जनक आदि ने कर्मो से ही सिद्धि सफलता पाई है

जनहितकारी शुभ कर्मो ने सच में ख्याति दिलाई है।।20।।

 

भावार्थ :  जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है।।20।।

 

Janaka and others attained perfection verily by action only; even with a view to the protection of the masses thou shouldst perform action. ।।20।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ।।19।।

 

अतः काम कर तू अंसग हो,करता रह कर्तव्य मगर

कर विरक्त हो सदा आचरण, चाह परम पद की है गर।।19।।

      

भावार्थ :  इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।।19।।

 

Therefore, without attachment, do thou always perform action which should be done; for, by performing action without attachment man reaches the Supreme. ।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (18) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

संजय उवाच:

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।18।।

संजय उवाच:

कर्मो के करने न करने में कुछ स्वार्थ नहीं होता

वैसे ही उसके जीवन में उसका स्वार्थ नही होता।।18।।

भावार्थ : उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।18।।

 

For him there is no interest whatsoever in what is done or what is not done; nor does he depend on any being for any object. ।18।।

 

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ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (17) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

 

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।17।।

जो आत्मा में ही रमता है, आत्म तुष्टि ही  पाता है

उसके लिये काम कोई भी शेष नहीं रह जाता है।।17।।

      

भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।।17।।

 

But for that man who rejoices only in the Self, who is satisfied in the Self, who is content in the Self alone, verily there is nothing to do. ।।17।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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