(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।।16।।
इस प्रकार इस यज्ञ चक्र को जो न सतत चलाते है
वे इंदिय सुख के अनुयायी केवल पाप कमाते है।।16।।
भावार्थ : हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥
He who does not follow the wheel thus set revolving, who is of sinful life, rejoicing in the senses, he lives in vain, O Arjuna! ।।16।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
भावार्थ : सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥14-15॥
From food come forth beings, and from rain food is produced; from sacrifice arises rain, and sacrifice is born of action. ।।14।।
Know thou that action comes from Brahma, and Brahma proceeds from the Imperishable. Therefore, the all-pervading (Brahma) ever rests in sacrifice. ।।15।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।13।।
यज्ञ से बचे का ही करें लोग सभी उपयोग
आत्म हेतु ही जो लगे वे है पापी लोग।।13।।
भावार्थ : यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं।।13।।
The righteous, who eat of the remnants of the sacrifice, are freed from all sins; but those sinful ones who cook food (only) for their own sake, verily eat sin. ।।13।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ।।12।।
यज्ञ तृप्ति से देव दे तुमको वांछित दान
केवल खुद जो भोगता वह है चोर समान।।12।।
भावार्थ : यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है।।12।।
The gods, nourished by the sacrifice, will give you the desired objects. So, he who enjoys the objects given by the gods without offering (in return) to them, is verily a thief. ।।12।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।11।।
देवो को संतोष दो,देव तुम्हें दें तृप्ति
पारस्परिक प्रभाव से मिले सभी संतुष्टि।।11।।
भावार्थ : तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।।11।।
With this do ye nourish the gods, and may the gods nourish you; thus nourishing one another, ye shall attain to the highest good. ।।11।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।10।।
यज्ञ सहित सर्जित किया ब्रम्हा ने संसार
कहा यज्ञ से वृद्धि हो,कामनाये हो पार ।।10।।
भावार्थ : प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो।।10।।
The Creator, having in the beginning of creation created mankind together with sacrifice, said: “By this shall ye propagate; let this be the milch cow of your desires (the cow which yields the desired objects)”. ।।10।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
Are you stressed, sad or depressed? Do you want to add more joy and laughter to your life? Try Laughter Yoga. It is simple to learn and a lot of fun.
Laughter Yoga is the latest health craze sweeping the globe where anyone can laugh without any reason. It has been a life changing experience for millions including me and my wife.
The Laughter Clubs Movement started with just five persons in a Mumbai park in the year 1995. At the outset, it was envisaged to combine laughter exercises based on yogic breathing and stretching techniques to provide the benefits of laughter to people in a structured way. But soon after, a whole new significance of laughter was discovered.
According to Dr Madan Kataria, the Founder of Laughter Clubs Movement, “We realized that laughter is not about amusement and entertainment, giggling or chuckling; instead it has a great deal to do with our inner self – it has to come from deep within, straight from the soul, and one can experience this laughter from the soul only when the heart is pure, full of love, compassion and kindness.
“Laughter becomes more meaningful when it is intended not only to make ourselves happy but also to make others happy. This in Laughter Clubs is known as the Inner Spirit of Laughter.”
Laughter Clubs are instrumental in bringing about attitudinal changes in people and provide an ideal platform to help people connect through love and laughter. During the course of my journey of Laughter Yoga, I have seen a lady who was always full of anger become a warm, jovial person; I have been a witness to an introvert converting to a full fledged extrovert and a quarrelsome person change to a caring and sharing one.
Laughter Yoga goes beyond just the physical and physiological dimension of laughing. It not only fosters a feeling of physical well being by generating endorphins in the body, it also enhances the spirit and touches the emotional core. It cultivates positive thinking and promotes understanding.
Many of the laughter exercises focus on forgiveness, appreciation, anger management, gratitude and helpfulness. Laughter Yoga provides an opportunity to the practitioners to actively enhance the life of others.
Those who practice Laughter Yoga on a regular basis understand that it has the power to change the selfish state of mind to an altruistic state of mind. It has been proven that people who laugh are likely to be more generous and have more empathy than those who don’t laugh.
This inner spirit of laughter becomes apparent to the seekers as they develop a state of internal peace – the worries and intense goals that have driven their lives become less important. These people become aware that true happiness comes from giving unconditional love, caring for others and sharing with each other.
Laughter Yoga inspires members to make the world a better place not only for themselves but for everyone. Dr Kataria goes beyond this in his book ‘Laugh for no reason’ to say that the ultimate objective of Laughter Yoga is to spread good health, joy and achieve world peace through laughter.
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
( यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण )
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।।9।।
यज्ञ कर्म के बिना सब कर्म बंध आधार
इससे तू सब कर्मकर यज्ञ धर्म अनुसार।।9।।
भावार्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर।।9।।
The world is bound by actions other than those performed for the sake of sacrifice; do thou, therefore, O son of Kunti, perform action for that sake (for sacrifice) alone, free from attachment! ।।9।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ।।8।।
अतःनियत सब कर्म कर कर्म अकर्म से श्रेष्ठ
बिना कर्म जीवन भी तो अनुचित और अनिष्ट।।8।।
भावार्थ : तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ।।8।।
Do thou perform thy bounden duty, for action is superior to inaction and even the maintenance of the body would not be possible for thee by inaction. ।।8।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।7।।
मन संयम कर इंद्रियों पर रखना अधिकार
अनुष्ठान यह ही है सव से श्रेष्ठ प्रकार।।7।।
भावार्थ : किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है ।।7।।
But whosoever, controlling the senses by the mind, O Arjuna, engages himself in Karma Yoga with the organs of action, without attachment, he excels! ।।7।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)