आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (48) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।

सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।48।।

योगी हो कर कर्म कर,सकल लिप्ति को त्याग

सम दृष्टि ही योग है न कि जीतहार से राग।।48।।

भावार्थ :   हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम ‘समत्व’ है।) ही योग कहलाता है।।48।।

 

Perform action,  O  Arjuna,  being  steadfast  in  Yoga,  abandoning  attachment  and balanced in success and failure! Evenness of mind is called Yoga. ।।48।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (46) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

 

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।46।।

 

जो संभव है कुयें से वह ही दे तालाब

त्यों वेदों में जो सुलभ ब्रम्हज्ञान में आप।।46।।

 

भावार्थ :  सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।।46।।

 

To the Brahmana who has known the Self, all the Vedas are of as much use as is areservoir of water in a place where there is a flood.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (45) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌।।45।।

 

त्रिगुण विषय से युक्त है वेद तू त्रिगुणातीत

हो,अर्जुन निद्र्वन्द औ मन से भावातीत।।45।।

 

भावार्थ : हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो।।45।।

 

The Vedas deal with the three attributes (of Nature); be thou above these three attributes, O Arjuna! Free  yourself  from  the  pairs  of  opposites  and  ever  remain  in  the  quality  of  Sattwa (goodness), freed from the thought of acquisition and preservation, and be established in the Self. ।।45।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (42-44) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।।42।।

 

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌।

क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।।43।।

 

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।44।।

 

वेदों पर वार्तायें मधु करते जो विद्वान

उससे अधिक न और कुछ कर लेते अनुमान।।42।।

 

जन्मकर्म फलदायी ले स्वर्ग प्राप्ति की चाह

भोग-ऐश्वर्य क्रियाओे की करते है परवाह।।43।।

 

ऐसे भोगासक्त की कोई न स्थिर बात

 समय समय पर बेतुकी करते रहते बात।।44।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्‌दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती।।42 -44।।

 

Flowery speech is uttered by the unwise, who take pleasure in the eulogising words of the Vedas, O Arjuna, saying: “There is nothing else!” ।।42।।

 

Full of desires, having heaven as their goal, they utter speech which promises birth as the reward of one’s actions, and prescribe various specific actions for the attainment of pleasure and power. ।।43।।

 

For those who are much attached to pleasure and to power, whose minds are drawn away by such teaching, that determinate faculty is not manifest that is steadily bent on meditation and Samadhi (the state of Super consciousness). ।।44।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (41) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

 

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।

बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌।।41।।

 

शुद्ध कर्म की बुद्धि एक होती सुदृढ महान

अकर्मण्यता है पालती कई बुद्धि अज्ञान।।41।।

 

भावार्थ : हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।।41।।

 

Here, O joy of the Kurus, there is a single one-pointed determination! Many-branched and endless are the thoughts of the irresolute. ।।41।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (40) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

 

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌॥

किये गये हर कर्म का होता कभी न नाश

थोड़ा सा भी धर्म नित करता पाप विनाश ।।40।।

भावार्थ :   इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है।।40।।

 

In this there is no loss of effort, nor is there any harm (the production of contrary results or transgression). Even a little of this knowledge (even a little practice of this Yoga) protects one from great fear. ।।40।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (39) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

 

एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।

बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥

 

सांख्य योग यह,सुन जरा बुद्धियोग की बात

सुन अर्जुन! जिससे न हो तुझे कोई व्याघात।।39।।

 

भावार्थ :  हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥

 

This which  has  been  taught  to  thee,  is  wisdom  concerning  Sankhya.  Now  listen  to wisdom concerning Yoga, endowed with which, O Arjuna, thou shalt cast off the bonds of action!

 

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(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।38।।

 

सुख दुख को सम मान कर लाभ हानि सम जान

धर्म कार्य है युद्ध, उठ , हार औ” जीत समान।।38।।

 

भावार्थ :   जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।।38।।

 

Having made pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat the same, engage thou in battle for the sake of battle; thus thou shalt not incur sin. ।।38।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (37) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ।।37।।

उठ निश्चय कर जीतने का खोया साम्राज्य

मृत्यु हुई भी तो खुला तुझे स्वर्ग का राज्य।।37।।

भावार्थ : या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।।37।।

 

Slain, thou wilt obtain heaven; victorious, thou wilt enjoy the earth; therefore, stand up,O son of Kunti, resolved to fight!

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (36) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

अवाच्यवादांश्च बहून्‌वदिष्यन्ति तवाहिताः ।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌॥

शत्रु निन्द्य शब्दावली का कर घृणित प्रयोग

करने तव अपकीर्ति का पायेंगे संयोग।।36।।

भावार्थ :  तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?।।36।।

 

Thy enemies also, cavilling at thy power, will speak many abusive words. What is more painful than this! ।।36।।

 

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