हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ डर के आगे जीत है- (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ डर के आगे जीत है – (2) ☆

उसे लगता इस समय बाहर मृत्यु खड़ी है। दरवाज़ा खुला कि उसका वरण हुआ। सो घंटों वह दरवाज़ा बंद रखती। स्नान करने जाती तो कई बार दो घंटे भीतर ही दुबकी रहती। वॉशरूम में रुके रहना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। मन जब प्रतीक्षारत मृत्यु के चले जाने की गवाही देता, वह चुपके से दरवाज़ा खोलकर बाहर आती।

आज फिर वह बाथरूम में थर-थर काँप रही थी। मौत मानो दरवाज़ा तोड़कर भीतर प्रवेश कर ही लेगी। एकाएक सारा साहस बटोरकर उसने दरवाज़ा खोल दिया और निकल आई मौत का सामने करने।

आश्चर्य! दूर-दूर तक कोई नहीं था। उसका भय काल के गाल में समा चुका था।

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पियाँ..(40) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ चुप्पियाँ..(40) ☆

भीतर का कोलाहल

धीरे-धीरे बढ़ा,

….और बढ़ा,

और अधिक बढ़ा,

चरम पर पहुँचा

और प्रसूत हुई

…………चुप्पी!

 

(प्रकाशनाधीन कवितासंग्रह ‘चुप्पियाँ’ से।)

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 8:04. 17.10.2018

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पराकाष्ठा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ पराकाष्ठा ☆

मिलन उनके लिए

प्रेम का उत्कर्ष था,

राधा-कृष्ण का

मेरे सामने आदर्श था!

 

©  संजय भारद्वाज 

30.11.2020, दोपहर 2:05 बजे।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ शेड्स ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ शेड्स☆

पहले आठ थे

फिर बारह हुए

सोलह, बत्तीस,

चौंसठ, एक सौ अट्ठाइस,

अब दो सौ चौंसठ होते हैं,

रंगों के इतने शेड

दुनिया में कहीं नहीं मिलते हैं,

रंगों की डिब्बी दिखाता

दुकानदार

सीना फूलाकर

बता रहा था..,

मेरी आँखों में

आदमी के प्रतिपल बदलते

अगनित रंगों का प्रतिबिम्ब

आ रहा था, जा रहा था…!

©  संजय भारद्वाज 

27.10. प्रातः 8:44 बजे।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – डर के आगे जीत है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – डर के आगे जीत है ☆

गिरकर निडरता से उठ खड़े होने के मेरे अखंड व्रत से बहुरूपिया संकट हताश हो चला था। क्रोध से आग-बबूला होकर उसने मेरे लिए मृत्यु का आह्वान किया। विकराल रूप लिए साक्षात मृत्यु सामने खड़ी थी।

संकट ने चिल्लाकर कहा, ‘ अरेे मूर्ख! ले मृत्यु आ गई। कुछ क्षण में तेरा किस्सा खत्म! अब तो डर।’ इस बार मैं हँसते-हँसते लोट गया। उठकर कहा,‘ अरे वज्रमूर्ख! मृत्यु क्या कर लेगी? बस देह ले जायेगी न..! दूसरी देह धारण कर मैं फिर लौटूँगा।’

साहस और मृत्यु से न डरने का अदम्य मंत्र काम कर गया। मृत्यु को अपनी सीमाओं का भान हुआ। आहूत थी, सो भक्ष्य के बिना लौट नहीं सकती थी। अजेय से लड़ने के बजाय वह संकट की ओर मुड़ी। थर-थर काँपता संकट भय से पीला पड़ चुका था।

भयभीत विलुप्त हुआ। उसकी राख से मैंने धरती की देह पर लिखा,‘ डर के आगे जीत है।’

©  संजय भारद्वाज 

प्रातः 4.11 बजे, 7.7.19

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 76 ☆ संघे शक्ति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 76 – संघे शक्ति ☆

कुछ घटनाएँ ऐसी घटती हैं जो नेत्रों को खारी बूँदों से भर देती हैं। उस सुबह भी कुछ ऐसा ही हुआ। कलेवर में छोटी पर प्रभाव में बड़ी घटना का साक्षी बना।

प्रात: भ्रमण से लौट रहा था। बस स्टॉप के पास वाले फुटपाथ पर एक पेड़ के नीचे दो-तीन वर्ष से एक फकीरनुमा भिक्षुक का बसेरा है। फुटपाथ के एक ओर पार्क की दीवार है, दूसरी ओर सड़क और सड़क के उस पार छोटी-सी टपरी। आते-जाते लोगों से फकीर की कभी चाय की मांग हो तो केवल पैसे देकर काम नहीं चलता। सड़क पार से एक प्याला चाय लाकर देना पड़ता है। शायद पैरों से लाचार से है यह वृद्ध क्योंकि उसे कभी चलते नहीं देखा।

सहसा दृष्टि पड़ी कि वृद्ध को घेरकर पास के उर्दू माध्यम के विद्यालय में पढ़नेवाली आठ-दस छात्राएँ खड़ी हैं। सिर पर स्कार्फ बाँधे, छठी-सातवीं में पढ़नेवाली बच्चियाँ। उत्सुकता के शमन के लिए अवलोकन किया तो नेत्र सजल हो उठे। भिक्षुक को पीने के लिए पानी चाहिए था और हर बच्ची अपने वॉटर बॉटल में से थोड़ा-थोड़ा पानी भिक्षुक के जलपात्र में डाल रही थी। अद्भुत, अलौकिक दृश्य! देखता ही रह गया मैं!

इच्छा हुई दौड़कर जाऊँ और इनके माथे पर हाथ रखकर कहूँ, “ वेल डन बेटियो! सबाब का काम किया।” फिर लगा इस कच्ची उम्र को पाप-पुण्य के जटिल समीकरण से मुक्त ही रहने दूँ, रहने दूँ इन्हें सहज। सहजता जो जानती है कि प्यास है तो पानी की व्यवस्था करनी चाहिए।

फकीर की पानी की ज़रूरत पूरी करने के लिए एक साथ बढ़े इन नन्हे हाथों ने एक बात और सिखाई कि प्रयास सामूहिक हों तो पानी का पात्र ही नहीं, सूखी नदियाँ और रूठी बावड़ियाँ भी भरी जा सकती हैं।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (78) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18

( श्रीगीताजी का माहात्म्य )

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥

 

जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं तथा धनुर्धर पार्थ

विजय सुनिष्चत वहाँ ही, मेरी मति निस्वार्थ। ।।78।।

 

भावार्थ :  हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है॥78॥

Wherever there is Krishna, the Lord of Yoga, wherever there is Arjuna, the archer, there are prosperity, happiness, victory and firm policy; such is my conviction.

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः॥18॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लेखन ☆

न दिन का भान, न रात का ठिकाना। न खाने की सुध न पहनने का शऊर।…किस चीज़ में डूबे हो ? ऐसा क्या कर रहे हो कि खुद को खुद का भी पता नहीं।

…कुछ नहीं कर रहा इन दिनों, लिखने के सिवा।

©  संजय भारद्वाज 

प्रातः 4.11 बजे, 7.7.19

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (77) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18

( श्रीगीताजी का माहात्म्य )

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।

विस्मयो मे महान्‌राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥

 

तथा हे राजन ! याद कर ,प्रभु का अद्भुत रूप

विस्मित, पुलकित गात हॅू, हर्षित साथ अनूप ।।77।।

 

भावार्थ :  हे राजन्‌! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है उसका नाम ‘हरि’ है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ॥77॥

And remembering again and again also that most wonderful form of Hari, great is my wonder, O King! And I rejoice again and again!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ प्रसव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

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☆ संजय दृष्टि  ☆ प्रसव ☆

सारी रात

बदलता हूँ करवट

अजीब बेचैनी से,

जैसे काटती है रात

प्रसव वेदना से

कराहती कोई स्त्री,

लगता है,

प्रसव की भोर आएगी

कुछ नया लिखा जाएगी!

©  संजय भारद्वाज 

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