श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 44 – रंगमंच और मुखौटे ☆
‘कोरोनावायरस और हम’ शृंखला का भाग-5
‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।
यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा।
जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं अपितु रंगमंच को जिया है, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थिएटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।
फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।
कोरोनावायरस से उपजे कोविड-19 ने पर्दे के सामने कृत्रिमता जीनेवालों को पर्दे के पीछे के मंच पर ला पटका है। यह आत्मविवेचन का समय है।
नाटक के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही। सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।
लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।
अब मुखौटे उतरने का समय है। ऐसे ही कुछ मुखौटे उतरे जब दिल्ली के एक मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल के डॉक्टर्स और मेडिकल स्टाफ को उनकी हाउसिंग सोसायटी ने इसलिए घर छोड़ने के लिए कह दिया क्योंकि अस्पताल में नोवेल कोरोना से संक्रमित मरीज़ के आने की बात सुनी गई थी।
बंगलुरू में एक परिवार के कुछ लोगों को होम क्वारंटीन करने पर सोसायटी के लोगों ने ऐसे बर्ताव किया मानो इस परिवार ने कोई पाप कर दिया हो। पाप, पुण्य वैसे भी सापेक्ष होता है लेकिन उसके चर्चा अभी प्रासंगिक नहीं है।
दिल्ली में आइटीबीपी के कैंप में विदेशों से आए भारतीयों को 14 दिन के लिए क्वारंटीन रखने के विरोध में पास रहने वाले नागरिकों ने प्रदर्शन किया।
समुदाय से सामुदायिकता नष्ट हो चली है। संक्रमित रुग्ण या एहतियातन क्वारंटीन में रखे लोगों से दुर्व्यवहार करनेवाले भूल रहे हैं कि इसका शिकार कोई भी हो सकता है। इस कोई में वे स्वयं भी समाविष्ट हैं। दुर्भाग्य से ऐसा कुछ हो गया तो जिन डॉक्टरों को उन्हीं के घर में जाने देने का विरोध कर रहे थे, अस्पताल में उन्हीं डॉक्टरों की शरण में जाना होगा। यदि क्वारंटीन में जाना पड़ा और विरोध करने मज़मा जुट गया तो स्थिति क्या होगी?
मुखौटे उतर रहे हैं लेकिन पर्दे के पीछे कुछ सच्चे रंगकर्मी भी बैठे हैं। ये रंगकर्मी आइटीबीपी में हैं, भारतीय सेना में हैं। विदेशियों को भारत लाने वाले विमानों के पायलट और क्रू के रूप में हैं। ये सच्चे रंगकर्मी डॉक्टर हैं, पैरामेडिकल स्टाफ हैं, नर्स हैं, सफाईकर्मी हैं, वार्डबॉय हैं। ये सच्चे रंगकर्मी पुलिस और होमगार्ड हैं। ये सब मुस्तैदी से जुटे हैं कोरोना के विरुद्ध।
सूत्रधार कह रहा है कि पर्दों में वायरस हो सकता है। अब पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया प्रेक्षागृह में पर्दों के आगे खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक नाट्य में। केवल तालियाँ न बजाएँ। अपनी भूमिका तय करें। तय भूमिका निभाएँ, दायित्व भी उठाएँ।
बिना मुखौटे के मंच पर लौटें। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।
© संजय भारद्वाज
(विश्व रंगमंच दिवस के एक दिन बाद, 28.3.2020, रात्रि 8.39 बजे)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆