हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मातृरेखा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – मातृरेखा ☆

उसके विश्वास के आगे

मेरी उम्र की रेखा

बचपन पर ठहरी रहती है,

मेरे बीमार पड़ने पर

‘बेटे को नज़र लग गई’

जब मेरी माँ कहती है!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 87 ☆ कालाय तस्मै नम: ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 87 ☆ कालाय तस्मै नम: ! ☆ 

संध्या समय प्राय: बालकनी में मालाजप या ध्यान के लिये बैठता हूँ। देखता हूँ कि एक बड़ी-सी छिपकली दीवार से चिपकी है। संभवत: उसे मनुष्य में काल दिखता है। मुझे देखते ही भाग खड़ी होती है। वह भागकर बालकनी के कोने में दीवार से टिकाकर रखी इस्त्री करने की पुरानी फोल्डिंग टेबल के पीछे छिप जाती है।

बालकनी यूँ तो घर में प्रकाश और हवा के लिए आरक्षित क्षेत्र है पर अधिकांश परिवारों की बालकनी का एक कोना पुराने सामान के लिये शनै:-शनै: आरक्षित हो जाता है। इसी कोने में रखी टेबल के पीछे छिपकर छिपकली को लगता होगा कि वह काल को मात दे आई है। काल अब उसे देख नहीं सकता।

यही भूल मनुष्य भी करता है। धन, मद, पद के पर्दे की ओट में स्वयं को सुरक्षित समझने की भूल। अपने कथित सुरक्षा क्षेत्र में काल को चकमा देकर जीने की भूल। काल की निगाहों में वह उतनी ही धूल झोंक सकता है जितना टेबल के पीछे छुपी छिपकली।

एक प्रसिद्ध मूर्तिकार अनन्य मूर्तियाँ बनाता था। ऐसी सजीव कि जिस किसीकी मूर्ति बनाये, वह भी मूर्ति के साथ खड़ा हो जाय तो मूल और मूर्ति में अंतर करना कठिन हो।  समय के साथ मूर्तिकार वृद्ध हो चला। ढलती साँसों ने काल को चकमा देने की युक्ति की। मूर्तिकार ने स्वयं की दर्जनों मूर्तियाँ गढ़ डाली। काल की आहट हुई कि स्वयं भी मूर्तियों के बीच खड़ा हो गया। मूल और मूर्ति के मिलाप से काल सचमुच चकरा गया। असली मूर्तिकार कौनसा है, यह जानना कठिन हो चला। अब युक्ति की बारी काल की थी। ऊँचे स्वर में कहा, ‘अद्भुत कलाकार है। ऐसी कलाकारी तो तीन लोक में देखने को नहीं मिलती। ऐसे प्रतिभाशाली कलाकार ने इतनी बड़ी भूल कैसे कर दी?” मूर्तिकार ने तुरंत बाहर निकल कर पूछा,” कौनसी भूल?”   काल हँसकर बोला,” स्वयं को कालजयी समझने की भूल।”

दाना चुगने से पहले चिड़िया अनेक बार चारों ओर देखती है कि किसी शिकारी की देह में काल तो नहीं आ धमका? …चिड़िया को भी काल का भान है, केवल मनुष्य बेभान है। सच तो यह है कि काल का कठफोड़वा तने में चोंच मारकर भीतर छिपे  कीटक का शिकार भी कर लेता है। अनेक प्राणी माटी खोदकर अंदर बसे कीड़े-मकोड़ों का भक्ष्ण कर लेते हैं। काल, हर काल में था, काल हर काल में है। काल हर हाल में रहा, काल हर हाल रहेगा।  काल से ही कालचक्र है,  काल ही कालातीत है। उससे बचा या भागा नहीं जा सकता।

थोड़े लिखे को अधिक बाँचना, बहुत अधिक गुनना।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अहं ब्रह्मास्मि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – अहं ब्रह्मास्मि  ☆

यात्रा में संचित

होते जाते हैं शून्य,

कभी छोटे, कभी विशाल,

कभी स्मित, कभी विकराल..,

विकल्प लागू होते हैं

सिक्के के दो पहलू होते हैं-

सारे शून्य मिलकर

ब्लैकहोल हो जाएँ

और गड़प जाएँ अस्तित्व

या मथे जा सकें

सभी निर्वात एकसाथ

पाए गर्भाधान नव कल्पित,

स्मरण रहे-

शून्य मथने से ही

उमगा था ब्रह्मांड

और सिरजा था

ब्रह्मा का अस्तित्व,

आदि या इति

स्रष्टा या सृष्टि

अपना निर्णय, अपने हाथ

अपना अस्तित्व, अपने साथ!

 

©  संजय भारद्वाज

( प्रात: 8.44 बजे, 12 जून 2019)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 96 ☆ कविता – बसन्त की बात ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  समसामयिक विषय पर आधारित एक भावप्रवण कविता  ‘बसन्त की बात’ इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 96☆

? बसन्त की बात ?

लो हम फिर आ गये

बसन्त की बात करने ,रचना गोष्ठी में

 

जैसे किसी महिला पत्रिका का

विवाह विशेषांक हों , बुक स्टाल पर

ये और बात है कि

बसन्त सा बसन्त ही नही आता अब

अब तक

बसन्त बौराया तो है , पर वैसे ही

जैसे ख़ुशहाली आती है गांवो में

जब तब कभी जभी

 

हर बार

जब जब

निकलते हैं हम

लांग ड्राइव पर शहर से बाहर

 

मेरा बेटा खुशियां मनाता है

मेरा अंतस भी भीग जाता है

और मेरा मन होता है एक नया गीत लिखने का

 

मौसम के  बदलते मिजाज का अहसास

हमारी बसन्त से जुड़ी खुशियां बहुगुणित कर देता है

 

किश्त दर किश्त मिल रही हैं हमें

बसन्त की सौगात

क्योकि बसंत वैसे ही बार बार प्रारंभ होने को ही होता है

कि फिर फिर किसी आंदोलन

की घटा घेर लेती है बसन्त को

 

बसन्त किसी कानून में उलझ कर

अटका रह जाता है

 

मुझे लगता है

अब किसान भी

नही करते

बरसात या बसन्त का इंतजार उस व्यग्र तन्मयता से

 

क्योंकि अब वे सींचतें है खेत , पंप से

और बढ़ा लेते हैं लौकी

आक्सीटोन के इंजेक्शन से

 

 

देश हमारा बहुत विशाल है

कहीं बाढ़ ,तो कहीं बरसात बिन

हाल बेहाल हैं

जो भी हो

पर

अब भी

पहली बरसात से

भीगी मिट्टी की सोंधी गंध,

और

बसन्त के पुष्पों से

प्रेमी मन में उमड़ा हुलास

और झरनो का कलकल नाद

उतना ही प्राकृतिक और शाश्वत है

जितना कालिदास के मेघदूत की रचना के समय था

 

और इसलिये तय है कि अगले बरस फिर

होगी रचना गोष्ठी

 

और हम फिर बैठेंगे

इसी तरह

नई रचनाओ के साथ .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 62 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वितीय अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है प्रथम अध्याय।

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 63 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वितीय अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए द्वितीय अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

धृतराष्ट्र के सारथी संजय ने धृतराष्ट्र से सैन्यस्थल का आँखों देखा हाल कुछ इस तरह कहा।

अर्जुन ने श्री कृष्ण से , किया शोक संवाद।

नेत्र सजल करुणामयी ,तन-मन भरे विषाद।। 1

 

श्री कृष्ण भगवान उवाच

प्रिय अर्जुन मेरी सुनो, सीधी सच्ची बात।

यदि कल्मष हो चित्त में, करता अपयश घात।। 2

 

तात नपुंसक भाव है, वीरों का अपमान।

उर दुर्बलता त्यागकर, अर्जुन बनो महान।। 3

 

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा

हे!मधुसूदन तुम सुनो, मेरे मन की बात।

पूज्य भीष्म,गुरु हनन से, उन पर करूँ न घात।। 4

 

पूज्य भीष्म,गुरु मारकर, भीख माँगना ठीक।

गुरुवर प्रियजन श्रेष्ठ हैं, ये हैं धर्म प्रतीक।। 5

 

ईश नहीं मैं जानता,क्या है जीत-अजीत।

स्वजन बांधव का हनन, क्या है नीक अतीत।। 6

 

कृपण निबलता ग्रहण कर, भूल गया कर्तव्य।

श्रेष्ठ कर्म बतलाइए, जो जीवन का हव्य।। 7

 

साधन अब दिखता नहीं, मिटे इन्द्रि दौर्बल्य।

भू का स्वामी यदि बनूँ, नहीं मिले कैवल्य।। 8

 

संजय ने धृतराष्ट्र से इस तरह भगवान कृष्ण और अर्जुन का संवाद सुनाया

मन की पीड़ा व्यक्त कर, अर्जुन अब है मौन।

युद्ध नहीं प्रियवर करूँ, ढूंढ़ रहा मैं कौन।। 9

 

सेनाओं के मध्य में, अर्जुन करता शोक।

महावीर की लख दशा, कृष्ण सुनाते श्लोक।। 10

 

श्री भगवान ने अर्जुन को समझाते हुए कहा

 

पंडित जैसे वचन कह, अर्जुन करता शोक।

जो होते विद्वान हैं, रहते सदा अशोक।। 11

 

तेरे-मेरे बीच में,जन्मातीत अनेक।

युद्ध भूमि में जो मरे, लेता जन्म हरेक।। 12

 

परिवर्तन तन के हुए, बाल वृद्ध ये होय।

जो भी मृत होते गए, नव तन पाए सोय।। 13

 

सुख-दुख जीवन में क्षणिक,ऋतुएँ जैसे आप।

पलते इन्द्रिय बोध में, धैर्यवान सुख- पाप।। 14

 

पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन सुनो, सुख-दुख एक समान।

जो रखता समभाव है, मानव वही महान।। 15

 

सार तत्व अर्जुन सुनो, तन का होय विनाश।

कभी न मरती आत्मा, देती सदा प्रकाश।। 16

 

अविनाशी है आत्मा, तन उसका आभास।

नष्ट न कोई कर सके, देती सदा उजास।। 17

 

भौतिकधारी तन सदा, नहीं अमर सुत बुद्ध।

अविनाशी है आत्मा, करो पार्थ तुम युद्ध।। 18

 

सदा अमर है आत्मा , सके न हमें लखाय।

वे अज्ञानी मूढ़ हैं, जो समझें मृतप्राय।। 19

 

जन्म-मृत्यु से हैं परे, सभी आत्मा मित्र।

नित्य अजन्मा शाश्वती, है ईश्वर का चित्र।। 20

 

जो जन हैं ये  जानते, आत्म अजन्मा सत्य।

अविनाशी है शाश्वत, कभी ना होती मर्त्य।। 21

 

जीर्ण वस्त्र हैं त्यागते, सभी यहाँ पर लोग।

उसी तरह ये आत्मा, बदले तन का योग।। 22

 

अग्नि जला सकती नहीं, मार सके न शस्त्र।

ना जल में ये भीगती, रहती नित्य अजस्र।। 23

 

खंडित आत्मा ही सदा, है ये अघुलनशील।

सर्वव्याप स्थिर रहे, डुबा न सकती झील।। 24

 

आत्मा सूक्ष्म अदृश्य है, नित्य कल्पनातीत।

शोक करो प्रियवर नहीं, भूलो तत्व अतीत।। 25

 

अगर सोचते आत्म है, साँस-मृत्यु का खेल।

नहीं शोक प्रियवर करो, यह भगवन से मेल।। 26

 

जन्म धरा पर जो लिए, सबका निश्चित काल।

पुनर्जन्म भी है सदा,ये नश्वर की चाल।। 27

 

जीव सदा अव्यक्त है, मध्य अवस्था व्यक्त।

जन्म-मरण होते रहे, क्यों होते आसक्त।। 28

 

अचरज से देखें सुनें, गूढ़ आत्मा तत्व।

नहीं समझ पाएं इसे, है ईश्वर का सत्व।। 29

 

सदा आत्मा है अमर, मार सके ना कोय।

नहीं शोक अर्जुन करो, सच पावन ये होय।। 30

 

तुम क्षत्रिय हो धनंजय, रक्षा करना धर्म।

युद्ध तुम्हारा धर्म है, यही तुम्हारा कर्म।। 31

 

क्षत्री वे ही हैं सुखी, नहीं सहें अन्याय।

युद्धभूमि में जो मरे, सदा स्वर्ग वे पाय।। 32

 

युद्ध तुम्हारा धर्म है, क्षत्रियनिष्ठा कर्म।

नहीं युद्ध यदि कर सके, मिले कुयश औ शर्म।। 33

 

अपयश बढ़कर मृत्यु से, करता दूषित धर्म।।

हर सम्मानित व्यक्ति के, धर्म परायण कर्म।। 34

 

नाम, यशोलिप्सा निहित, चिंतन कैसा मित्र।

युद्ध भूमि से जो डरे, वह योद्धा अपवित्र।। 35

 

करते हैं उपहास सब,निंदा औ’ अपमान।

प्रियवर इससे क्या बुरा, जाए उसका मान।।36

 

यदि तुम जीते युद्ध तो, करो धरा का भोग।

मिली वीरगति यदि तुम्हें, मिले स्वर्ग का योग।।37

 

सुख-दुख छोड़ो मित्र तुम, लाभ-हानि दो छोड़।

विजय-पराजय त्यागकर, कर्म करो उर ओढ़।।38

 

करी व्याख्या कर्म की, सांख्य योग अनुसार।

मित्र कर्म निष्काम हो, उसका सुनना सार।।39

 

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का महत्व बताया

कर्म करें निष्काम जो, हानि रहित मन होय।

बड़े-बड़े भय भागते, जीवन व्यर्थ न होय।।40

 

दृढ़प्रतिज्ञ जिनका हृदय, वे ही पाते लक्ष्य।

मन जिनका स्थिर नहीं, रहते सदा अलक्ष्य।।41

 

वेदों की आसक्ति में, करें सुधीजन पाठ।

जीवन चाहे योगमय, ऐसा जीवन काठ।।42

 

इन्द्रिय का ऐश्वर्य तो, नहीं कर्म का मूल।

करें कर्म निष्काम जो, मानव वे ही फूल।।43

 

सुविधाभोगी जो बनें, इन्द्रि भोग की आस।

ईश भक्त ना बन सकें, रहता दूर प्रकाश।।44

 

तीन प्रकृति के गुण सदा,करते वेद बखान।

इससे भी ऊँचे उठो, अर्जुन बनो महान।।45

 

बड़ा जलाशय दे रहा, कूप नीर भरपूर।

वेद सार जो जानते, वही जगत के शूर।।46

 

करो सदा शुभ कर्म तुम,फल पर ना अधिकार।

फलासक्ति से मुक्त उर, इस जीवन का सार।।47

 

त्यागो सब आसक्ति को , रखो सदा समभाव।

जीत-हार के चक्र में, कभी न दो प्रिय घाव।।48

 

ईश भक्ति ही श्रेष्ठ है, करो सदा शुभ काम।

जो रहते प्रभु शरण में, होता यश औ नाम।।49

 

भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, रहता जीवन मुक्त।

योग करे, शुभ कर्म भी, वह ही सच्चा भक्त।।50

 

ऋषि-मुनि सब ही तर गए, कर-कर प्रभु की भक्ति।

जनम-मरण छूटे सभी, कर्म फलों से मुक्ति।।51

 

मोह त्याग संसार से, तब ही सच्ची भक्ति।

कर्म-धर्म का चक्र भी, बन्धन से दे मुक्ति।।52

 

ज्ञान बढ़ा जब भक्ति में, करें न विचलित वेद।

हुए आत्म में लीन जब, मन में रहे न भेद।।53

 

श्रीकृष्ण भगवान के कर्मयोग के बताए नियमों को अर्जुन ने बड़े ध्यान से सुना और पूछा–

अर्जुन बोला कृष्ण से, कौन है स्थितप्रज्ञ।

वाणी, भाषा क्या दशा, मुझे बताओ सख्य।।54

 

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को फिर कर्म और भक्ति का मार्ग समझाया

मन होता जब शुद्ध है, मिटें कामना क्लेश।

मन को जोड़े आत्मा, स्थितप्रज्ञ नरेश।।55

 

त्रय तापों से मुक्त जो, सुख – दुख में समभाव।

वह ऋषि मुनि-सा श्रेष्ठ है, चिंतन मुक्त तनाव।।56

 

भौतिक इस संसार में, जो मुनि स्थितप्रज्ञ।

लाभ-हानि में सम दिखे , वह ज्ञानी सर्वज्ञ।।57

 

इन्द्रिय विषयों से विलग, होता जब मुनि भेष।

कछुवा के वह खोल-सा, जीवन करे विशेष।।58

 

दृढ़प्रतिज्ञ हैं जो मनुज, करे न इन्द्रिय भोग।

जन्म-जन्म की साधना, बढ़े निरंतर योग।।59

 

सभी इन्द्रियाँ हैं प्रबल, भागें मन के अश्व ।

ऋषि-मुनि भी बचते नहीं, यही तत्व सर्वस्व।।60

 

इन्द्रिय नियमन जो करें, वे ही स्थिर बुद्धि।

करें चेतना ईश में, तन-मन अंतर् शुद्धि।61

 

विषयेन्द्रिय चिंतन करें, जो भी विषयी लोग।

मन रमताआसक्ति में, बढ़े काम औ क्रोध।।62

 

क्रोध बढ़ाए मोह को, घटे स्मरण शक्ति।

भ्रम से बुद्धि विनष्ट हो, जीवन दुख आसक्ति।। 63

 

इन्द्रिय संयम जो करें , राग द्वेष हों दूर

भक्ति करें जो भी मनुज, ईश कृपा भरपूर।। 64

 

जो जन करते भक्ति हैं, ताप त्रयी मिट जायँ।

आत्म चेतना प्रबल हो, सन्मति थिर हो जाय।। 65

 

भक्ति रमे जब ईश में, बुद्धि दिव्य मन भव्य।

शांत चित्त मानस बने, शांति मिले सुख नव्य।। 66

 

यदि इंद्रिय वश में नहीं, बुद्धि होती है क्षीण।

अगर एक स्वच्छंद है, तन की बजती बीन।।67

 

इन्द्री वश में यदि रहें, वही श्रेष्ठ है जन्य।

और बुद्धि स्थिर रहे, मिले भक्ति का पुण्य।।68

 

आत्म संयमी है सजग, तम में करे प्रकाश।

आत्म निरीक्षक मुनि हृदय, मन हो शून्याकाश।।69

 

पुरुष बने सागर वही, नदी न जिसे डिगाय।

इच्छाओं से तुष्ट जो, वही ईश को पाय।। 70

 

इच्छा इंद्री तृप्ति की, करे भक्त परित्याग।

अहम, मोह को त्याग दे, मिले शांति का मार्ग।। 71

 

आध्यात्मिक जीवन वही, मानव करे न मोह।

अंत समय यदि जाग ले, मिले धाम ही मोक्ष।।72

 

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय ” गीता का सार” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ (समाप्त)।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सूची ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – सूची ☆

तय हैं कुछ नाम

जो मेरी अर्थी को

कांधा देंगे..,

कुछ मेरे समकालीन

कुछ मेरे अग्रज भी हैं

इस सूची में,

बशर्ते

वे मुझसे पहले न जाएँ,

पर मित्र

आज मैंने

वंचित

या यूँ समझो

मुक्त कर दिया तुम्हें

उस अधिकार से;

इसलिए नहीं कि

मैं तुम्हारे बाद भी रहूँ,

इसलिए कि तुमने

हड़बड़ी कर दी

और जीते-जी

मेरे.. शायद हमारे

विश्वास को

अर्थी पर लिटाने का

प्रयास कर,

छोटी सूची

और छोटी कर दी!

 

©  संजय भारद्वाज

(21.1.2016, प्रात: 9:11बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनुवादक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –  अनुवादक ☆

हर बार परिश्रम किया है

मूल के निकट पहुँचा है

मेरी रचनाओं का अनुवादक,

इस बार जीवट का परिचय दिया है

मेरे मौन का उसने अनुवाद किया है,

पाठक ने जितनी बार पढ़ा है

उतनी बार नया अर्थ मिला है,

पता नहीं

उसका अनुवाद बहुआयामी है

या मेरा मौन सर्वव्यापी है…!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 10.40 बजे, 19.01.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मंथन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –  लघुकथा – मंथन ☆

हलाहल निरखता हूँ

अचर हो जाता हूँ,

अमृत देखता हूँ

गोचर हो जाता हूँ,

जगत में विचरती देह

देह की असीम अभीप्सा,

जीवन-मरण, भय-मोह से

मुक्त जिज्ञासु अनिच्छा,

दृश्य और अदृश्य का

विपरीतगामी अंतर्प्रवाह हूँ,

स्थूल और सूक्ष्म के बीच

सोचता हूँ, मैं कहाँ हूँ..!

©  संजय भारद्वाज

3:33 रात्रि, 23.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 62 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – प्रथम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है प्रथम अध्याय।

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 62 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – प्रथम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए प्रथम अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।

डॉ राकेश चक्र

ईश्वर प्रार्थना

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

अथ श्रीमद्भगवतगीता

अथ प्रथम अध्याय

कोटि-कोटि वंदन करूँ, वीणावादिनि तोय।

ज्ञान, बुद्धि वरदायिनी, पूर्ण काम सब होय।।

परमपिता श्रीकृष्ण हैं, उनको कोटि प्रणाम।

ओम नाम में विश्व सब, अनगिन तेरे नाम।।

हे गणपति! होकर सखा, करना चिर कल्याण।

नितप्रति ही हरते रहो, जीवन के सब त्राण।।

 

कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण

धृतराष्ट्र उवाच

संजय से हैं पूछते ,धृतराष्ट्र कुरुराज।

कुरुक्षेत्र रण भूमि में, क्या गतिबिधियां आज।।1

 

संजय उवाच

राजन सुनिए आप तो, सेनाएँ तैयार।

दुर्योधन अब कह रहा, सुगुरु द्रोण से सार।। 2

 

पाण्डव सेना है बली, नायक धृष्टद्युम्न।

व्यूह- सृजन है अति विषम, दुर्योधन  अवसन्न ।। 3

 

बलशाली हैं भीम-से, अर्जुन से अतिवीर।

महारथी युयुधान हैं, द्रुपद, विराट सुवीर।। 4

 

धृष्टकेतु चेकितान हैं, पुरजित, कुंतीभोज।

शैव्य सबल से अतिरथी, बढ़ा रहे हैं ओज।। 5

 

उत्तमौजा सुवीर है, अभिमन्यु महावीर।

युधामन्यु सुपराक्रमी, पुत्र द्रोपदी वीर।।6

 

मेरी सेना इस तरह, सुनिए गुरुवर आप।

महाबली गुरु आप हैं, भीष्म पितामह नाथ।। 7

 

कर्ण-विकर्ण पराक्रमी, गुरुवर कृपाचार्य।

भूरिश्रवा महारथी, कभी न माने हार।। 8

 

अनगिन ऐसे वीर हैं, लिए हथेली जान।

अस्त्र-शस्त्र से लैस हैं, करते हैं संधान।। 9

 

शक्ति अपरिमित स्वयं की, भीष्म पिता हैं साथ।

पांडव सेना है निबल, दुर्योधन की बात।। 10

 

सेनानायक भीष्म के, बनें  सहायक आप।

महावीर हैं सब रथी , सेना व्यूह प्रताप।। 11

 

दुर्योधन ने भीष्म का, किया बहुत गुणगान।

बजा शंख जब भीष्म का, कौरव मुख मुस्कान।। 12

 

शंख, नगाड़े बज गए, औ’ तुरही, सिंग साथ।

कोलाहल इतना बढ़ा, खिले कौरवी गात।। 13

 

पांडव सेना ने सुना, भीष्म पितामह घोष।

अर्जुन, केशव ने किए , दिव्य शंख उद्घोष।। 14

 

कृष्ण ईश का शंख है, पाञ्चजन्य विकराल।

पार्थ का  है देवदत्त , भीम पौंड्र भूचाल।। 15

 

विजयी शंख अनन्त है, राज युधिष्ठिर धर्म।

नकुल शंख सुघोष है, सहदेव मणी पुष्प।। 16

 

परम् वीर धृष्टद्युम्न , जेय सात्यकि वीर।

शंखनाद सुन वीर के , कौरव हुए अधीर।। 17

 

शंखों की घन विजय-ध्वनि, गूँजी भू, आकाश।

दुर्योधन सेना हुई, उर में गहन हताश।। 18

 

शंखों की जब ध्वनि बजी, कोलाहल है पूर्ण।

दुर्योधन के भ्रात सब, उर में हुए विदीर्ण।।19

 

कपि-ध्वज- सज्जित रथ चढ़े, अर्जुन हुए प्रचेत।

धनुष बाण कर ले लिए, कहा कृष्ण समवेत। 20

 

अर्जुन उवाच

अर्जुन बोले कृष्ण प्रिय, तुम हो कृपानिधान।

सेनाओं के मध्य में, रथ को लें श्रीमान।। 21

 

अभिलाषी जो युद्ध के, कौरव सेना साथ।

लूँ उनको संज्ञान में, करने दो-दो हाथ।। 22

 

देखूँ सेना कौरवी, धृत के देखूँ पुत्र।

कौन- कौन दुर्बुद्धि हैं, कौन-कौन हैं शत्रु।। 23

 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा

संजय ने धृतराष्ट्र से, कहा सैन्य आख्यान।

माधव ने रथ को दिया,सैन्य मध्य स्थान ।। 24

 

पृथा पुत्र अर्जुन सुनें, ईश कृष्ण उपदेश।

योद्धा जग के देख लो, बचा न कोई शेष।। 25

 

सेनाओं के मध्य में, अर्जुन डाले दृष्टि।

संबंधी हैं सब खड़े , खड़े मित्र और शत्रु।। 26

 

सब अपनों को देखकर, अर्जुन है हैरान।

करुणा से अभिभूत है, कोमल हो गए प्राण।। 27

 

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से भावविभोर होकर इस तरह अपने भाव प्रकट किए

अर्जुन बोला हे सखे, सब ही मेरे प्राण।

अंग-अंग है कांपता,  मुख है मेरा म्लान ।। 28

 

रोम-रोम कम्पित हुआ, विचलित ह्रदय शरीर।

गाण्डीव भी हो रहा, कर में विकल अधीर।। 29

 

सिर मेरा चकरा रहा, तन भी छोड़े साथ।

सखे कृष्ण सब देखकर, हुआ अमंगल ताप।। 30

 

कृष्ण सुनो मेरी व्यथा, मुझे न भाए युद्ध।

राज्य विजय न चाहिए, जीवन बने अशुद्ध।। 31

 

गोविंदा मेरी सुनो, क्या सुख है,क्या लाभ।

सब ही मेरे मीत हैं, सब ही मेरे भ्रात।। 32

 

हे मधुसूदन आप ही, मुझे बताएँ बात।

गुरुजन, मामा, पौत्रगण, सब ही मेरे तात।। 33

 

कभी न वध इनका करूँ, सब ही अपने मीत।

मुझको चाहे मार दें, या लें मुझको जीत।। 34

 

तुम ही कृपानिधान हो,ना चाहूँ मैं लोक।

धरा- गगन नहिं चाहिए, भोगूँगा मैं शोक।। 35

 

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, यद्यपि सारे दुष्ट।

फिर भी पाप न सिर मढूं, जीवन हो जो क्लिष्ट।। 36

 

हे अच्युत!मेरी सुनो, यद्यपि सब ये मूढ़।

लोभ, पाप से ग्रस्त हैं, प्रश्न बड़ा ये गूढ़।। 37

 

हम पापी क्योंकर बनें, हम तो हैं निष्पाप।

वध करके भी क्या मिले, भोगें हम संताप।। 38

 

नाश हुआ कुल का अगर, दिखे न कोई लाभ।

धर्म लोप हो जाएगा, बढ़ें अधर्मी पाप।। 39

 

कृष्ण सखे सच है यही, कुल में बढ़ें अधर्म।

धर्म नाश हो जगत में, पाप दबाए धर्म।। 40

 

पाप बढ़ें कुल में अगर, नारी करें कुकर्म।

वर्णसंकरित कुल बने , क्षरित मान औ’ धर्म।। 41

 

कुलाघात यदि हम करें, हो जीवन नरकीय।

पितरों को भी कष्ट हो, पिंडदान दुखनीय।। 42

 

कुल परम्परा नष्ट हो, मिटें धर्म सदकर्म।

मनमानी सब ही करें, रहे लाज ना शर्म।। 43

 

कुलाघात यदि हम करें, मिट जाते कुल धर्म।

वर्णसंकरी दोष से, नष्ट जाति औ’ धर्म।। 43

 

गुरु परम्परा ये कहे, सुनो कृष्ण तुम बात।

जिसने छोड़ा धर्म है, मिले नरक- सौगात।। 44

 

घोर अचम्भा हो रहा, मुझको कृपानिधान।

राजभोग के वास्ते, क्या है युद्ध निदान।। 45

 

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, चाहे दें ये मार।

नहीं करूँ प्रतिरोध मैं, मानूँ अपनी हार।। 46

 

 महाराजा धृतराष्ट्र से ये सब वर्णन संजय सारथी ने कहकर सुनाया

बाण-धनुष अर्जुन तजे, शोकमना है चित्त।

केशव सम्मुख हो रहा, विकल भाव- अनुरक्त ।। 47

 

इति श्रीमद्भागवतरूपी उपनिषद एवं ब्रह्माविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ” अर्जुन विषादयोग ” नामक अध्याय 1 समाप्त

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दृष्टि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  दृष्टि ?

मौसम तो वही था,

यह बात अलग है

तुमने एकटक निहारा

स्याह पतझड़,

मेरी आँखों ने चितेरे

रंग-बिरंगे वसंत,

बुजुर्ग कहते हैं,

देखने में और

दृष्टि में

अंतर होता है।

 

(माँ सरस्वती का अनुग्रह हम सबमें देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता सदा जागृत रखे। शारदा पूजन एवं वसंतपंचमी का अभिवादन स्वीकार करें।)

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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