आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (10) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

 

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌।।10।।

 

यज्ञ सहित सर्जित किया ब्रम्हा ने संसार

कहा यज्ञ से वृद्धि हो,कामनाये हो पार ।।10।।

 

भावार्थ :   प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो।।10।।

 

The Creator,  having  in  the  beginning  of  creation  created  mankind  together  with sacrifice, said: “By this shall ye propagate; let this be the milch cow of your desires (the cow which yields the desired objects)”. ।।10।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Inner Spirit of Laughter ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Inner Spirit of Laughter 

Are you stressed, sad or depressed? Do you want to add more joy and laughter to your life? Try Laughter Yoga. It is simple to learn and a lot of fun.

Laughter Yoga is the latest health craze sweeping the globe where anyone can laugh without any reason. It has been a life changing experience for millions including me and my wife.

The Laughter Clubs Movement started with just five persons in a Mumbai park in the year 1995. At the outset, it was envisaged to combine laughter exercises based on yogic breathing and stretching techniques to provide the benefits of laughter to people in a structured way. But soon after, a whole new significance of laughter was discovered.

According to Dr Madan Kataria, the Founder of Laughter Clubs Movement, “We realized that laughter is not about amusement and entertainment, giggling or chuckling; instead it has a great deal to do with our inner self – it has to come from deep within, straight from the soul, and one can experience this laughter from the soul only when the heart is pure, full of love, compassion and kindness.

“Laughter becomes more meaningful when it is intended not only to make ourselves happy but also to make others happy. This in Laughter Clubs is known as the Inner Spirit of Laughter.”

Laughter Clubs are instrumental in bringing about attitudinal changes in people and provide an ideal platform to help people connect through love and laughter. During the course of my journey of Laughter Yoga, I have seen a lady who was always full of anger become a warm, jovial person; I have been a witness to an introvert converting to a full fledged extrovert and a quarrelsome person change to a caring and sharing one.

Laughter Yoga goes beyond just the physical and physiological dimension of laughing. It not only fosters a feeling of physical well being by generating endorphins in the body, it also enhances the spirit and touches the emotional core. It cultivates positive thinking and promotes understanding.

Many of the laughter exercises focus on forgiveness, appreciation, anger management, gratitude and helpfulness. Laughter Yoga provides an opportunity to the practitioners to actively enhance the life of others.

Those who practice Laughter Yoga on a regular basis understand that it has the power to change the selfish state of mind to an altruistic state of mind. It has been proven that people who laugh are likely to be more generous and have more empathy than those who don’t laugh.

This inner spirit of laughter becomes apparent to the seekers as they develop a state of internal peace – the worries and intense goals that have driven their lives become less important. These people become aware that true happiness comes from giving unconditional love, caring for others and sharing with each other.

Laughter Yoga inspires members to make the world a better place not only for themselves but for everyone. Dr Kataria goes beyond this in his book ‘Laugh for no reason’ to say that the ultimate objective of Laughter Yoga is to spread good health, joy and achieve world peace through laughter.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

( यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण )

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।।9।।

यज्ञ कर्म के बिना सब कर्म बंध आधार

इससे तू सब कर्मकर यज्ञ धर्म अनुसार।।9।।

      

भावार्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर।।9।।

 

The world is bound by actions other than those performed for the sake of sacrifice; do thou,  therefore,  O  son  of  Kunti,  perform  action  for  that  sake  (for  sacrifice)  alone,  free  from attachment! ।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (8) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ।।8।।

अतःनियत सब कर्म कर कर्म अकर्म से श्रेष्ठ

बिना कर्म जीवन भी तो अनुचित और अनिष्ट।।8।।

 

भावार्थ :   तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ।।8।।

 

Do thou  perform  thy  bounden  duty,  for  action  is  superior  to  inaction  and  even  the maintenance of the body would not be possible for thee by inaction. ।।8।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (7) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

 

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।7।।

मन संयम कर इंद्रियों पर रखना अधिकार

अनुष्ठान यह ही है सव से श्रेष्ठ प्रकार।।7।।

भावार्थ :  किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है ।।7।।

 

But whosoever, controlling the senses by the mind, O Arjuna, engages himself in Karma Yoga with the organs of action, without attachment, he excels! ।।7।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (6) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।6।।

कर्मेन्द्रिय निष्क्रिय मगर मन से है कोई व्यस्त

तो यह मिथ्याचार है, आडंबर मात्र समस्त।।6।।

 

भावार्थ :  जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है।।6।।

He who, restraining the organs of action, sits thinking of the sense-objects in mind, he, of deluded understanding, is called a hypocrite. ।।6।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (5) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।।5।।

 

बिना कर्म के एक क्षण, कभी न कोई व्यक्ति

प्रकृतिदत्त है कर्म के प्रति सबकी अनुरक्ति।।5।।

 

भावार्थ : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।।5।।

 

Verily none can ever remain for even a moment without performing action; for, everyone is made to act helplessly indeed by the qualities born of Nature. ।।5।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (4) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।

न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।4।।

कर्म न करने मात्र से निष्क्रियता मन जान

न ही कर्म के त्याग से सिद्धि का कर अनुमान।।4।।

भावार्थ :  मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम ‘निष्कर्मता’ है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है।।4।।

 

Not by  the  non-performance  of  actions  does  man  reach  actionlessness,  nor  by  mere renunciation does he attain to perfection. ।।4।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (3) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

श्रीभगवानुवाच –

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।

ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌।।3।।

 

भगवान ने कहा-

इस जग में निष्ठायें दो,प्रथम कहे अनुसार

सांख्यों की है ज्ञान में योगी कर्माधार।।3।।

      

भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम ‘निष्ठा’ है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम ‘ज्ञान योग’ है, इसी को ‘संन्यास’, ‘सांख्ययोग’ आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम ‘निष्काम कर्मयोग’ है, इसी को ‘समत्वयोग’, ‘बुद्धियोग’, ‘कर्मयोग’, ‘तदर्थकर्म’, ‘मदर्थकर्म’, ‘मत्कर्म’ आदि नामों से कहा गया है।) होती है।।3।।

 

In this  world  there  is  a  twofold  path,  as  I  said  before,  O  sinless  one,-the  path  of knowledge of the Sankhyas and the path of action of the Yogis! ।।3।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (2) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

 

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ।।2।।

 

उलझे उलझे वाक्य में मोहित सी मम बुद्धि

निश्चित एक बताये , हो जिससे मन की शुद्धि।।2।।

 

भावार्थ :   आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।।2।।

 

With these apparently perplexing words Thou confusest, as it were, my understanding; therefore, tell me that one way for certain by which I may attain bliss. ।।2।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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