(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 125 ☆ देश-परदेश – नज़र बट्टू ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे देश में “नज़र बट्टू” विशेषकर उत्तर भारत के भागों में प्रमुखता से उपयोग किया जाता हैं। नए घर, संस्थान, वाहन या उस स्थान पर लगाया जाता है, जो सुंदर और आकर्षण होता हैं।
छोटे बच्चे को भी काजल का टीका लगा कर ये कवायत की जाती हैं। वाहन में विशेष रूप से ट्रक आदि पर काले रंग से भूत जैसी आकृति बना दी जाती हैं। कुछ वाहन चालक काले रंग की नकली बनी हुई चोटी भी लटका देते हैं।
ट्रक पर शेरो शायरी लिखने के साथ ही साथ “बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला” लिखने का रिवाज़ कई दशकों से चल रहा हैं। हमारे मित्र ने कुछ वर्ष पूर्व नई बाइक खरीदने के पश्चात उसकी पेट्रोल टंकी पर सिक्के से एक लाइन बना दी थी। पूछने पर बोला नज़र नहीं लगेगी और कोई दूसरा ये करता तो बुरा लगता है, इसलिए स्वयं ही इसे अंजाम दे दिया।
आज प्रातः काल भ्रमण के समय ऊपर लिखा हुआ दिखा तो क्लिक कर दिया हैं। पहले तो हमें लगा कि कहीं अंधेरा होने के कारण कोई ट्रक तो नहीं हैं। वैसे मकान दिखने में भी कोई विशेष खूबसूरत नहीं प्रतीत हो रहा हैं, परंतु ये लगा हुआ बोर्ड बहुत चमक रहा हैं। हमें तो ये डर लग रहा है कहीं इस बोर्ड को ही ना नजर लग जाए। एक पुराना गीत भी है, ना, “नज़र लगी राजा तोरे बंगले पर”।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 281 ☆ परिवर्तन का संवत्सर…
नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास, हर तरफ होता है हर्ष।
भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढी पाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है।
स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला। गुढीपाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला ज़रीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।
माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है, “हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।
प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। ज़री के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढी पाडवा।
कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है। बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’ यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।
तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर में भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।
सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-
न राग बदला, न लोभ, न मत्सर,
बदला तो बदला केवल संवत्सर।
परिवर्तन का संवत्सर केवल काग़ज़ों तक सीमित न रहे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है
प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक चिड़िया, अनेक चिड़िया…“।)
अभी अभी # 641 ⇒ एक चिड़िया, अनेक चिड़िया श्री प्रदीप शर्मा
चिड़िया अगर एक पक्षी है, तो मैं एक इंसान। दोनों की अपनी अपनी मजबूरियां, अपनी अपनी जबान ! वह बोल नहीं सकती, मैं उड़ नहीं सकता। हमारे बीच एक अपरिचय का रिश्ता है। उसका एक ही नाम रूप है, मेरा भी एक ही नाम और एक ही रूप है। भाषा से संवाद संभव होता है। मैं तो सिर्फ उसकी बोली ही नहीं समझता, वह तो मुझे कुछ भी नहीं समझती। न कभी मेरे पास आती है, न मुझको कभी अपने पास आने देती है।
फिर भी, तेरे मेरे बीच में, कैसा है ये बंधन अनजाना। मैने नहीं जाना। तेरी तू जान बहना। तुझे और किस नाम से संबोधित करूं। छुई मुई, लाजवंती सी, मेरे सामने, लेकिन मुझसे दूर, कभी फुदकती हुई, तो कभी चहचहाती और ललचाती हुई, कभी हाथ ना आती हुई, एक चिड़िया, अनेक चिड़िया।।
रोज सुबह की अजान और मुर्गे की बांग से भी पहले, मंदिर की बजने वाली घंटियों से भी पहले, जिसे अमृत वेला कहा जाता है, मेरे कानों में अनायास किसी चिड़िया की आवाज मिश्री की तरह घुल जाती है। मेरे घर के दरवाजे, खिड़कियां बंद हैं, फिर भी उसकी वह चहचहाहट, मन के द्वारे, मेरे अंदर प्रवेश कर ही जाती है। यह एक ऐसा अलार्म है जो मुझे अलर्ट नहीं करता, आनंदित और आंदोलित करता है। मेरा यह मानना है कि जहां तक इस चिड़िया की आवाज पहुंचती है, वही स्वर्ग की सीमा है, जन्नत का द्वार है।
अभी कुछ दिन पहले, संयोगवश, एक मित्र के यहां, आयोजित कथा में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। हॉल में ही कथा चल रही थी, लेकिन मेरा ध्यान घर के अंदर से आती पक्षियों की आवाज की ओर था। बाहर पंडित जी की कथा और अंदर मानो शुक -सारिका संवाद। एक जहाज के पंछी की तरह, मेरा मन बार बार पक्षियों की आवाज की ओर ही लौटे। और मैं बार बार अपने आप को आगाह करूं, पलट, तेरा ध्यान किधर है।।
कथा समाप्त होते ही, मेरी जिज्ञासा भी शांत हुई। घर के अंदर एक पिंजरे में एक चिड़ा – चिड़ी का जोड़ा विराजमान था। लव बर्ड शायद उनका ही नाम होगा। उनके संवाद को ही मैं शुक सारिका संवाद समझ बैठा था।
खैर साहब, श्रोता की फरमाइश पर उन्हें पिंजरे सहित बाहर लाया गया। हमने उस पंछी के जोड़े के पास से दीदार किए। कुछ समय वे संकुचित, शांत बैठे रहे, लेकिन शीघ्र ही आश्वस्त हो, चोंच से चोंच लड़ाने लगे, अर्थात् उनकी भाषा में वार्तालाप करने लगे। बिल्कुल वही आवाज, वही अंदाज, वही कर्णप्रिय संगीत, जो मैं रोज अमृत वेला में सुनता हूं।।
अमृत वेला अभी भी जारी है। संवाद कभी एक में नहीं होता। एक अगर बोलने वाला होता है, तो कहीं एक सुनने वाला भी होता है। पक्षियों का संवाद ही उनका जीवन है। क्या एक पक्षी का जोड़ा आत्मा और परमात्मा का प्रतीक नहीं। परम पुरुष तो वैसे भी एकमात्र परमात्मा ही है, और आत्मा जन्म जन्म से परमात्मा से मिलने को आतुर। इनका मिलन ही तो परमानंद सहोदर है।
बाहर पक्षियों का संवाद जारी है। मेरे मन, प्राण कहीं भी हों, लेकिन मेरे कान उस अक्षर संगीत की ओर ही लगे हैं। लगता है पक्षियों का यह मधुर संगीत मेरे अंदर के आकाश में प्रवेश कर गया है जिसमें मीरा द्वारा अनुभव की गई सभी राग रागिनियां शामिल हैं। वही शब्द रसाल और पायल की झंकार है। शायद चिदाकाश में यही अनहद नाद है।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुख सौभाग्य…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 236 ☆सुख सौभाग्य… ☆
प्रकृति ने पूरी सृष्टि को नियमों के दायरे में रखा है, जब इनका उल्लंघन होता है तभी आकस्मिक घटनाएँ देखने को मिलती हैं। अक्सर किसी को कुछ सिखाने के लिए हम स्वयं भी वही गलती करते हैं जिससे सामने वाले को अहसास हो और वो सुधर जाए किन्तु परिणाम इसके विपरीत होता है। जैसे ही हमने जानबूझकर गलती की वैसे ही दूसरे लोग अनुगामी बन वही करने लगते हैं। इस प्रक्रिया से बात बनने के बजाय बिगड़ जाती है।
सर्वसुलभ यदि कुछ है, तो वो केवल सलाहकार होता है, जो बिन माँगे अपने अनुभवों की पिटारी से नुस्खे देता जाता है। भले ही वो अपनी समस्याओं का हल खोजने में अक्षम हो पर आपकी उलझन चुटकियों में सुलझा सकता है ऐसा उसका दावा है।
सबसे सहज और सरल मार्ग शुभाशीष का है, जिसके ऊपर गुरुजनों का आशीर्वाद होता उसे सौभाग्य अर्थात अच्छा भाग्य, कुशल, मंगल जीवन, सुख, प्रसन्नता, खुशहाली का वातावरण सहजता से मिलने लगता है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – “सुनीता विलियम्स की धरती पर वापसी यात्रा…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 343 ☆
आलेख – सुनीता विलियम्स की धरती पर वापसी यात्रा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
भारतीय मूल की अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स ने अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में अदभुत रिकॉर्ड बनाए हैं। उनकी अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) की यात्रा, जो मूल रूप से 10 दिनों की थी, तकनीकी जटिलताओं के कारण नौ महीने तक बढ़ गई। अंततोगत्वा 19 मार्च 2025 को, सुनीता विलियम्स और उनके साथी नासा अंतरिक्ष यात्री बैरी “बुच” विल्मोर सफलतापूर्वक धरती पर लौट आए। उनकी वापसी की यह यात्रा न केवल एक मानवीय उपलब्धि थी, बल्कि अंतरिक्ष तकनीक और सहनशक्ति की एक जटिल, प्रेरक कहानी भी है।
सुनीता विलियम्स और बुच विल्मोर ने 5 जून 2024 को बोइंग के स्टारलाइनर अंतरिक्ष यान के पहले मानवयुक्त परीक्षण उड़ान (क्रू फ्लाइट टेस्ट) के तहत आईएसएस के लिए उड़ान भरी थी। यह मिशन नासा के कमर्शियल क्रू प्रोग्राम का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य बोइंग के स्टारलाइनर को नियमित मानव अंतरिक्ष उड़ानों के लिए प्रमाणित करना था। मूल योजना के अनुसार, यह मिशन 8 से 10 दिनों का होना था, लेकिन स्टारलाइनर के साथ तकनीकी समस्याओं ने इसे एक लंबी मानवीय और तकनीक की परीक्षा में बदल दिया।
आईएसएस पर पहुंचने के बाद, स्टारलाइनर में हीलियम रिसाव और थ्रस्टर (प्रणोदन प्रणाली) की खराबी की समस्याएं सामने आईं। हीलियम रिसाव अंतरिक्ष यान के प्रणोदन तंत्र को प्रभावित कर सकता था, जो इसकी कक्षा को नियंत्रित करने और सुरक्षित वापसी के लिए आवश्यक है। इसके अलावा, कई थ्रस्टर्स के अप्रत्याशित रूप से बंद होने से नासा और बोइंग के वैज्ञानिकों के समक्ष एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई। इन समस्याओं के कारण स्टारलाइनर को अंतरिक्ष यात्रियों के साथ वापस लाने को जोखिम भरा माना गया तथा नासा ने फैसला किया कि स्टारलाइनर को बिना चालक दल के धरती पर वापस लाया जाए, जो सितंबर 2024 में न्यू मैक्सिको में सफलतापूर्वक उतरा।
स्पेसएक्स की भूमिका और क्रू ड्रैगन
स्टारलाइनर के असफल होने के बाद, सुनीता और बुच की वापसी के लिए नासा ने स्पेसएक्स के क्रू ड्रैगन अंतरिक्ष यान पर भरोसा किया। स्पेसएक्स, जो पहले से ही नासा के लिए नियमित क्रू रोटेशन मिशन संचालित कर रहा था, इस स्थिति में एक विश्वसनीय विकल्प साबित हुआ। क्रू-9 मिशन, जो सितंबर 2024 में शुरू हुआ, में केवल दो अंतरिक्ष यात्री- नासा के निक हेग और रूस के रोस्कोस्मोस के अलेक्जेंडर गोर्बुनोव- शामिल थे, ताकि सुनीता और बुच के लिए वापसी की जगह बनाई जा सके। हालांकि, उनकी वापसी को फरवरी 2025 में निर्धारित किया गया था, लेकिन क्रू-10 मिशन की तैयारी में देरी के कारण यह मार्च 2025 तक टल गया।
क्रू-10 मिशन 12 मार्च 2025 को फ्लोरिडा के कैनेडी स्पेस सेंटर से फाल्कन 9 रॉकेट के जरिए लॉन्च हुआ। इसमें चार अंतरिक्ष यात्री- नासा की ऐनी मैकक्लेन और निकोल आयर्स, जापान के तकुया ओनिशी, और रूस के किरिल पेस्कोव- शामिल थे। यह टीम आईएसएस पर क्रू-9 की जगह लेने के लिए पहुंची। क्रू ड्रैगन “एंड्योरेंस” ने 16 मार्च को आईएसएस के हार्मनी मॉड्यूल से सफलतापूर्वक जुड़ाव किया। इसके बाद, दो दिनों के हैंडओवर पीरियड के दौरान, सुनीता और बुच ने अपनी जिम्मेदारियों को नए क्रू को सौंपा।
सुनीता विलियम्स और बुच विल्मोर की वापसी क्रू ड्रैगन “फ्रीडम” अंतरिक्ष यान के जरिए हुई, जो क्रू-9 मिशन का हिस्सा था। यह अंतरिक्ष यान 18 मार्च 2025 को आईएसएस से अलग हुआ और 19 मार्च को फ्लोरिडा के तट पर अटलांटिक महासागर में पैराशूट की सहायता से सुरक्षित रूप से उतरा। वापसी की प्रक्रिया में अनडॉकिंग के बाद क्रू ड्रैगन ने आईएसएस से अलग होने के बाद अपनी कक्षा को धीरे-धीरे कम करने के लिए कई नियंत्रित “बर्न” किए। यह प्रक्रिया अंतरिक्ष यान को पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश के लिए सही स्थिति में लाने के लिए आवश्यक होती है।
पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश के दौरान अंतरिक्ष यान ने लगभग 3, 000 डिग्री फारेनहाइट (1, 650 डिग्री सेल्सियस) के तापमान का सामना किया। इसका हीट शील्ड, जो सिरेमिक सामग्री से बना था, इस भीषण गर्मी से चालक दल की रक्षा करने में सक्षम था। आपको याद होगा कि कल्पना चावला को लेकर लौट रहा यान इसी प्रक्रिया में जलकर राख हो गया था।
पुनर्प्रवेश के बाद, क्रू ड्रैगन ने चार पैराशूट सफलता पूर्वक खोल दिए जिससे इस कैप्सूल की गति को धीमा कर नियंत्रित किया। इसके बाद यह फ्लोरिडा के तट पर समुद्र में उतरा, जहां नासा और स्पेसएक्स की रिकवरी टीमों ने अंतरिक्ष यात्रियों को सुरक्षित बाहर निकाला।
इस पूरी प्रक्रिया में लगभग 17 घंटे लगे, जो रूस के सोयुज अंतरिक्ष यान की तुलना में अधिक समय था, जो केवल 3। 5 घंटे में वापसी करता है। क्रू ड्रैगन की डिजाइन में सुरक्षा और आराम पर जोर दिया गया था, जिसके कारण यह धीमी और नियंत्रित प्रक्रिया अपनाई गई।
सुनीता विलियम्स की वापसी में कई तकनीकी चुनौतियां थीं। पहली चुनौती स्टारलाइनर की असफलता थी, जिसने नासा को एक वैकल्पिक योजना अपनाने के लिए मजबूर किया। दूसरी चुनौती क्रू रोटेशन का समयबद्ध समन्वय था। क्रू-10 के नए ड्रैगन अंतरिक्ष यान की तैयारी में देरी के कारण लॉन्च को स्थगित करना पड़ा, जिसने सुनीता और बुच की वापसी को प्रभावित किया। इसके अलावा, मौसम की स्थिति और समुद्री परिस्थितियों ने स्प्लैशडाउन के लिए सही समय का चयन करना आवश्यक बना दिया।
नासा और स्पेसएक्स ने इन चुनौतियों का समाधान सावधानी पूर्वक तकनीकी विशेषज्ञता के साथ किया। क्रू ड्रैगन की विश्वसनीयता, जो पहले नौ मानवयुक्त मिशनों को सफलतापूर्वक पूरा कर चुका था, ने इस वापसी मिशन को संभव बनाया।
सुनीता विलियम्स की अंतरिक्ष से वापसी की यह यात्रा तकनीकी दृष्टिकोण से जितनी महत्वपूर्ण थी, उतनी ही मानवीय दृष्टि से भी प्रेरणादायक रही। लगभग 286 दिनों तक अंतरिक्ष में रहने के बाद, उन्हें और बुच को अब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में फिर से ढलने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में लंबे समय तक रहने से हड्डियों का घनत्व कम होना, मांसपेशियों का क्षय, और संतुलन की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। नासा की चिकित्सा टीम उनकी रिकवरी में सहायता कर रही है।
इस मिशन ने अंतरिक्ष यात्रा में बैकअप योजनाओं की महत्ता को रेखांकित किया। बोइंग के स्टारलाइनर की असफलता ने यह दिखाया कि अंतरिक्ष मिशनों में अप्रत्याशित जोखिमों से निपटने के लिए लचीलापन और विविधता आवश्यक है। स्पेसएक्स की सफलता ने निजी अंतरिक्ष कंपनियों की बढ़ती भूमिका को भी स्थापित किया।
सुनीता विलियम्स की धरती पर वापसी एक तकनीकी चमत्कार और मानव संकल्प की जीत सिद्ध हुई। यह यात्रा नासा, स्पेसएक्स, और अंतरिक्ष यात्रियों की टीमवर्क का परिणाम थी। भविष्य में, यह अनुभव अंतरिक्ष मिशनों को और सुरक्षित और कुशल बनाने में मदद करेगा। सुनीता की यह कहानी न केवल विज्ञान की प्रगति को दर्शाती है, बल्कि मानव की जिज्ञासा और साहस को भी प्रेरित करती है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुलदस्ता …“।)
अभी अभी # 639 ⇒ गुलदस्ता श्री प्रदीप शर्मा
गुलदस्ता (BOUQUET)
गुलदस्ता कहें, बुके कहें, अथवा पुष्प गुच्छ, बात तो एक ही है। गुलशन से कुछ फूल चुन लिए, उनका गुलदस्ता बनाया, और पेश कर दिया। खुशी का इज़हार है गुलदस्ता, प्रेम का उपहार है गुलदस्ता। जहां आमंत्रण में स्पष्ट हिदायत होती है, प्रेम ही उपहार है, वहां खाली हाथ तो नहीं जाया जा सकता।
हमारे शहर में एक पद्मश्री समाजसेवी थे, बाबूलाल जी पाटोदी, उनकी तो केवल उपस्थिति और आशीर्वाद ही मंगल प्रसंग की गरिमा में चार चांद लगा देता था। वे कभी खाली हाथ आशीर्वाद नहीं देते थे, एक, दो रुपए का कड़क नोट उस जमाने में किसी अमूल्य निधि से कम नहीं था। हर अमीर गरीब उनका मुरीद था, एक एक दिन में दर्जनों विवाह प्रसंग और स्वागत समारोह। लेकिन उन्होंने कभी किसी को निराश नहीं किया।।
वैसे भी वह जमाना दो, पांच, और ग्यारह रुपए का ही था। तब अधिकांश समाजों में दो रुपए का ही रिवाज था। लिफाफा देते वक्त अपनी ही नहीं, सामने वाले की हैसियत का भी ख्याल रखना पड़ता था। ग्यारह, इक्कीस, इक्कावन और अधिकतम एक सौ एक तक आते आते, हमारी हैसियत जवाब दे जाती थी।
कुछ लोग उपहार में नकद के बजाए गिफ्ट देना पसंद करते हैं। रंगीन गिफ्ट पैक में लिपटा हुआ उपहार जितना बड़ा और भारी भरकम होता, उतना ही सामने वाले पर अधिक प्रभाव पड़ता। अंदर क्या है, की जिज्ञासा हमेशा बनी रहती थी। बड़ी बड़ी वाटर बॉटल और किचन कैसरोल अथवा मिल्टन के टिफिन बॉक्स का बड़ी तादाद में लेन देन होता था। तेरा तुझको अर्पण। सस्ती, कम बजट की क्वार्ट्ज दीवार घड़ियां समस्या को आसान कर देती थी। अब किसने क्या टिकाया, ये अंदर की बात है।।
हम सामाजिक प्राणी हैं, जन्मदिन, शादी की सालगिरह, गोल्डन और सिल्वर जुबली, सगाई हो अथवा शादी, समारोह तो धूमधाम से ही होता है।
करीबी रिश्तेदार, अड़ोस पड़ोस और इष्ट मित्रों, सहयोगियों से ही तो आयोजन की शोभा बढ़ती है। गृह प्रवेश तो ठीक, आजकल शासकीय सेवा निवृत्ति के अवसर पर भी शादियों जैसा भव्य समारोह संपन्न होता है।
नकद और उपहारों को तो बड़े करीने से सहेज लिया जाता है, लेकिन बेचारे गुलदस्तों और हार फूलों की तो चार दिन की भी चांदनी नहीं होती। कुछ गुलाब की पंखुड़ियां पांव तले बिछाई जा रही हैं, और उन पर चरण पादुका सहित चलकर मानो उनका उद्धार किया जा रहा हो।।
करीने से पारदर्शी कवर में लपेटा खूबसूरत गुलदस्ता कब तक अपनी किस्मत पर इतराएगा। इस हाथ से उस हाथ जाएगा, तस्वीर में भी कैद हो जाएगा, शायद एक दो दिन किसी के ड्राइंग रूम की शोभा भी बढ़ाएगा, लेकिन उसके बाद तो वह सिर्फ सूखा और गीला कचरा ही रह जाएगा।
जब तक एक फूल गुलशन में खिल रहा है, उसे इतराने का अधिकार है। भंवरे और तितलियां उसके आसपास मंडराएंगी, लेकिन जहां किसी माली ने उसे तोड़ा, उसकी किस्मत बदल जाएगी। कोई नेहरू उसे जैकेट में लगाएगा तो कोई वैजयंतीमाला उसे अपने जूड़े में सजा इतराएगी। वही फूल किसी गुलदस्ते का हिस्सा भी बनेगा, लेकिन कब तक, जब तक वह मुरझाता नहीं। यह खुदगर्ज जमाना तो उसे सूंघकर, सजाकर बाद में फेंक देगा, कुचल देगा। शायद यही इस दुनिया का दस्तूर है। फूल हो या कोई गुलदस्ता, तुम्हारा जीवन, कितना सस्ता।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचारक और प्रचारक…“।)
अभी अभी # 638 ⇒ विचारक और प्रचारक श्री प्रदीप शर्मा
विचारक और प्रचारक का रिश्ता भी कुछ कुछ लेखक और पाठक जैसा ही होता है, बस अंतर यह है कि हर पाठक लेखक का प्रशंसक नहीं होता, जब कि हर प्रचारक, विचारक का प्रशंसक भी होता है।
पहले विचार आया, फिर विचार का प्रचार आया। आप चाहें तो विचारक को चिंतक भी कह सकते हैं, लेकिन चिंतक इतना अंतर्मुखी होता है कि उसे अपने विचार से ही फुर्सत नहीं मिलती। हमारी श्रुति, स्मृति और पुराण उसी विचार, गूढ़ चिंतन मनन का प्रकटीकरण ही तो है। जिस तरह वायु, गंध और महक को अपने साथ साथ ले जाकर वातावरण को सुगंधित करती है, ज्ञान का भी प्रचार प्रसार विभिन्न माध्यमों से होता चला आया है।।
चिंतन सामाजिक मूल्यों का भी हो सकता है और मानवीय मूल्यों का भी। विचारक जहां सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा होता है, एक दार्शनिक जीवन के मानवीय और भावनात्मक पहलुओं पर अपनी निगाह रखता है। विचार और दर्शन हमेशा साथ साथ चले हैं। विचार ने ही क्रांतियां की हैं, और विचारों के प्रदूषण ने ही इस दुनिया को नर्क बनाया है। ऐसा क्या है बुद्ध, महावीर, राम और कृष्ण में कि वे आज भी किसी के आदर्श हैं, पथ प्रदर्शक हैं, कोई उन्हें पूजता है तो कोई उन्हें अवतार समझता है। मार्क्स, लेनिन आज क्यों दुनिया की आंख में खटक रहे हैं। विचार ही हमें देव बना रहा है, और विचार ही हमें असुर। देवासुर संग्राम अभी थमा नहीं।
एक अनार सौ बीमार तो ठीक, पर एक विचारक और इतने प्रचारक ! अगर सुविचार हुआ तो सबका कल्याण और अगर मति भ्रष्ट हुई तो दुनिया तबाह। देश, दुनिया, सभ्यता, संस्कृति विचारों से ही बनती, बिगड़ती चली आ रही है। मेरा विचार, मेरी सभ्यता, मेरी संस्कृति सर्वश्रेष्ठ, हमारा नेता कैसा हो, इसके आगे हम कभी बढ़ ही नहीं पाए। जो विचार भारी, जनता उसकी आभारी।।
आज सबके अपने अपने फॉलोअर हैं, प्रशंसक हैं, आदर्श हैं। सोशल मीडिया और प्रचार तंत्र जन मानस पर इतना हावी है कि आम आदमी की विचारों की मौलिकता को ग्रहण लग गया है। एक भेड़ चाल है, जिससे अलग वह चाहकर भी नहीं चल सकता। आज हमारे पास अच्छे विचारक भले ही नहीं हों, अच्छे प्रचारक जरूर हैं।।
आज का युग विचार का नहीं, प्रचार का युग है। अच्छाई एक ब्रांड है, जो बिना अच्छे पैकिंग, विज्ञापन और ब्रांड एंबेसेडर के नहीं बेची जा सकती। धर्म, राजनीति, आदर्श, नैतिकता और समाज सेवा बिना प्रचार और प्रचारक के संभव ही नहीं। कोई सेवक है, कोई स्वयंसेवक, कोई गुरु है कोई चेला, कोई स्वामी है कोई शिष्य, कोई भगवान बना बैठा है तो कोई शैतान। सबकी दुकान खुली हुई है, मंडी में बोलियां लगवा रही हैं समाजवाद, पूंजीवाद, वंशवाद और राष्ट्रवाद की। सबके आदर्श, सबके अपने अपने विचारक, प्रचारक और डंडे झंडे। मंडे टू संडे। जिसका ज्यादा गल्ला, उसका बहुमत। लोकतंत्र जिंदाबाद।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अहसान और स्वाभिमान…“।)
अभी अभी # 637 ⇒ अहसान और स्वाभिमान श्री प्रदीप शर्मा
हम जब से पैदा हुए हैं, हम पर कितनों के अहसान हैं, हम नहीं जानते ! अगर गिनना चाहें, तो गिनती भूल जाएं ! लेकिन बड़े होते होते, हम इन अहसानों को भूलते चले जाते हैं। हम इतने खुदगर्ज होते चले जाते हैं, कि अपने अभिमान और दर्प को ही स्वाभिमान मान बैठते हैं। मैंने कभी किसी का अहसान नहीं लिया। मैं अपने पाँव पर खड़ा हुआ, आज कहाँ से कहाँ पहुँच गया हूँ।
स्वाभिमानी खुदगर्ज नहीं होता ! वह किये हुए अहसानों के प्रति कृतज्ञ होता है, कृतघ्न नहीं ! हम पर किसके कितने अहसान हैं, उसका लेखा-जोखा रखना संभव नहीं। जब हमारा जन्म ही ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा है, मेहरबानी है, तो मात-पिता, भाई बंधु, मित्र-परिवार समाज, देश और गुरुजन के अहसान की तो बात ही क्या है।।
प्रकृति हमारी सबसे बड़ी पालनकर्ता है। सर्दी, गर्मी, बरसात के मौसम हमें वर्ष भर स्वस्थ रहने में सहयोग करते हैं। मौसम अनुसार फल, सब्ज़ी, तरकारी हमारे शरीर को पुष्ट बनाये रखते हैं। खेतों में अनाज, नदियों में पानी, निरंतर बहती पवन और सूर्य देव की रोशनी अगर न हो, तो हमारा तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। किस किस के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन किया जाए। हमने कब प्रकृति की स्तुति की।
हम प्रतिदिन आपस में सुप्रभात, good morning और राम राम करते हैं, हमें जीवन देने वाले सूर्य को क्या हमें रोज नमस्कार नहीं करना चाहिए? अग्निदेव हमारा भोजन पकाते हैं, ठंड में नहाने के लिए गर्म पानी की व्यवस्था करते हैं। शाम होते ही, केवल स्विच दबाते ही घर में रोशनी हो जाती है। हम किस किसके अहसान मंद हैं, हम ही नहीं जानते। फिर भी हम अभिमानी नहीं, स्वाभिमानी हैं।।
बिना गैस के हमारी रसोई नहीं बनती। बिना पेट्रोल के हमारी गाड़ी नहीं चलती। बिना तनख्वाह के हमारा घर नहीं चलता। बिना चार्जर के हमारा मोबाइल नहीं चलता। कितने आत्म-निर्भर हैं हम। फिर भी कितने खुद्दार हैं।
मैं अपने पाँवों पर खड़ा हूँ ! मैंने जीवन में कितना संघर्ष किया है, मैं ही जानता हूँ। मैं न होता तो इतने बड़े परिवार को कौन सँभालता। आज समाज में मेरी इतनी प्रतिष्ठा है, मान है, सब मेरा ही पुरुषार्थ है। मान मेरा अहसान, अरे नादान। फिर भी कभी नहीं किया अभिमान। और न कभी खोया अपना स्वाभिमान।
जब हम बीमार पड़ते हैं, शरीर वृद्ध हो जाता है, इन्द्रियाँ काम नहीं करती, घुटने काम नहीं करते, आँखों से कम दिखाई देता है, कानों से कम सुनाई देता है, हमें किसी के सहारे की सतत आवश्यकता होती है। गर्म खून ठंडा हो जाता है। फिर भी क्रोध पर काबू नहीं रहता। जो आपकी सेवा करता है, उसके प्रति तक कृतज्ञता का भाव तक नहीं रहता। क्या कहें इसे खुदगर्ज़ी, अभिमान या स्वाभिमान।।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है अप्रतिम आलेख “भक्ति रस”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 221 ☆
🌻आलेख🌻 🪔भक्ति रस 🪔
क्षिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम शरीरा।।
यही हमारे शरीर की संरचना है। इसी शरीर को स्वस्थ निरोगी और विद्यमान रखने के लिए अनेकों प्रकार के संसाधन किए जाते हैं। सृष्टि विधाता ने अपने विधान से इस चार युगों में बाँटे हैं – सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलयुग।
सतयुग ऋषि मुनि संतों का युग जहाँ वचन से श्राप और उन्नति का माप हो जाता था। बड़े से बड़े कार्य सिर्फ वचन के आधार पर ही स्थापित और विध्वंस हो जाते थे। इसे देवों का काल भी कहा जाता है।
त्रेता युग प्रभु श्री राम का अवतार और जहाँ मर्यादा का पाठ सर्वोपरि माना गया। इस युग में नारायण श्री हरि स्वयं धरा पर आए। सत्य, निष्ठा, वचन, धर्म – कर्म, मर्यादा का पालन करना सीखा गए। ऐसी लीला प्रभु की जो स्थान भगवान राम को मिला अन्यत्र किसी को दुर्लभ हुआ।
द्वापर युग में प्रभु नारायण अपने ही रूप को मानव के समूल चरित्र को अंगीकृत करते और लीला रचते श्री कृष्ण के रूप में जगत में आए। बाल लीला और छलिया अंतर केवल ब्रह्म ऋषि और वेद शास्त्र ने जाना। वरन सृष्टि में सांसारिक लीला रचते मानवीय मूल्यों का अपने और पराय धर्म और धर्म का ज्ञान सीख गए। युग परिवर्तन होता गया।
कलयुग का आरंभ हुआ जिसे हम वर्तमान में कलयुग चल रहा कहते हैं।
सभी युगों में भगवान की प्रति निष्ठा, श्रद्धा, सेवा, आस्था, साकार निराकार और भक्ति से हमारे पूर्वजों ने अपने-अपने मन को शांत किया। किसी ने तप, किसी ने जप, किसी ने यज्ञ हवन और किसी ने संगीत किसी ने मन के भावों को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रदर्शित कर प्रभु की आराधना करते चले गए।
वेदव्यास जी के द्वारा महान ग्रथों की स्थापना हुई। चार वेद असंख्य ग्रंथ और तुलसी रचित रामायण ने अखंड अमित श्री राम चरित्र रामायण की रचना की।
वर्तमान काल, भूतकाल, भविष्य काल, आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल, वीरगाथा काल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल इन सभी में समय परिवर्तन धीरे-धीरे होता गया और इन सभी में समानता सामान्य यह रही की सभी ने अपने-अपने मन के भावों को उजागर किया।
आधुनिक काल में गद्य और पद्य दो विधाओं का विकास हुआ। काव्य धारा बहती गई। छाया युग, प्रगति युग, प्रयोग युग, यथार्थ युग।
गद्य में भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, रामचंद्र शुक्ल युग, प्रेमचंद युग, अघतन युग।
डॉ रामचंद्र शुक्ल ने वीरगाथा काल भक्ति, काल रीतिकाल, और आधुनिक काल का विभाजन किया। जिसे आज भी सर्वोपरि माना जाता है। आधुनिक डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल का विभाजन किया।
डॉक्टर नाम वर सिंह ने आदिकाल, भक्ति काल, रीतिकाल, और उत्तर रीतिकाल, आधुनिक काल, को विभाजित किया।
भक्ति काल संपूर्ण सृष्टि में हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग रहा। इसकी सीमा कल 1375 से 1700 मानी जाती है। इसमें भक्ति के जरिए समाज का सुधार उध्दार और एक नई दिशा प्रदान करने का सामर्थ बढा।
जनमानस तक पहुंचाने का मार्ग माध्यम बना। इस कल में निर्गुण उपासना और सगुण उपासना दोनों तरह के भक्त और साहित्यकार हुए।
भक्ति काल में मुख्य रूप से तुलसीदास, कबीर दास, रहीम, मीरा, रसखान मलिक, मोहम्मद जायसी, सूरदास, आदि महान संत हुए।
भक्ति काल के मुख्य मार्ग सगुण भक्ति मार्ग राम भक्ति एवं कृष्ण भक्ति।
दूसरा निर्गुण भक्ति मार्ग ज्ञानमार्गी एवं प्रेम मार्गी।
भक्ति काल पूर्ण रूप से प्रभु के प्रति भक्ति की भावना से प्रेरित रहा। भक्ति काल में भक्त प्रेम और भक्ति की प्रधानता रही।
” एक राधा एक मीरा दोनों ने श्याम को चाहा”
“चाह मीरा थी गिरधर दीवानी बनी।
चाह राधा श्री मोहन की प्यारी बनी”।।
इस भाव से भी हम इसे ज्यादा समझ सकते हैं। संसार में राधा कृष्ण की जोड़ी सिर्फ निश्छल प्रेम को स्थापित करती है। वहीं पर राजघराने की मीरा केवल भक्ति रूप में कृष्ण को मानसिक पति के रूप में पूजती रही।
उन्हें पाने या आत्मसमर्पण की भावना कभी भी विद्यमान नहीं दिखती। संत समागम और गुरु की महत्ता भी कूट-कूट कर भक्ति काल में समाहित हुई।
कबीर और सूरदास की रचनाओं में आज भी मनुष्य डूब कर प्रभु के साकार रूप के दर्शन करता है। जहाँ सूरदास जी काव्य संरचना में भगवान के श्रृंगार सहित सभी अंग आभूषण का वर्णन करते हैं।
वही कबीर दास जी पत्थर की चक्की को पूजने की बात कहतेहैं।
जिससे जीवन जीने की कला और मानव के भूख पेट की शांति होती है।
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार।
इससे तो चाकी भली पीस खाए संसार।।
जहाँ कबीर दास जी की चक्की का वर्णन वही आज भी लोगों की धारणा है कि मीरा की भक्ति की वजह से प्रभु कृष्ण जी पत्थर की मूर्ति में स्वयं मीरा समा गई थी।
“जा की रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तीन तैसी”
भक्ति काल में प्रभु नाम संस्मरण को प्रथम उपाय माना गया। प्रभु भगवन प्राप्ति का महर्षि वाल्मीकि जी ने राम का नाम उल्टा जपा और स्वयं ब्रह्मा के समान हुए। पहले रत्नाकर दास नाम के डाकू थे जो केवल छीन झपट मार काट कर खाना जानते थे।
उल्टा नाम जपा जग जाना।
बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।।
भक्ति काल में राधा और मीरा भगवान कृष्ण की अन्नय भक्त है। एक नारी जब नर नारायण को चाहती पूजा करती या प्रेम समर्पण की भावना रखती है। तो वह किसी न किसी रूप में उसे पाना चाहती है।
राधा ने प्रभु कृष्ण को प्रेम की परिभाषा में रंगी। वही मीरा ने प्रेम को ही कृष्ण के रूप में स्वीकार किया था।
जहाँ पर किसी प्रकार का कोई भेद नहीं सिर्फ प्रेम और प्रेम भक्ति का ही एक रूप है होता है।
राधा जानती थी कि कृष्णा मेरा है परंतु वह भक्ति समाहित प्रेम नहीं था वह सिर्फ चाह रही थी भगवान को और समय-समय पर प्रतिपल उनके साथ भी रहना चाहती थी कि कृष्ण भी उन्हें चाहे, प्रेम करें, परंतु मीरा ने जो भक्त की वह सिर्फ प्रेम भक्ति थी उसे न तो पति के रूप में उन्हें जीवन की भौतिक सुख चाहिए था और ना ही उन्हें सांसारिक माया मोह।
पति प्रेम में ही वह डूबती चली थी। साम्राज्य और लोकनाज से कोसों दूर व सिर्फ पति प्रेम जिसे वह दे रही थी उसे मिले या ना मिले इसका भी उसे कोई सरोकार नहीं था।
परंतु भक्ति ऐसी की आज के समय में तो शायद सिर्फ ग्रंथ और किताबों में ही है। साहित्यकार इसे अपने-अपने तरीके से आज भी सुंदर और अपने भावों की रचनाओं से सुशोभित करते हैं।
राधा रानी की चाहत को लिए महारास और राधा के अनगिनत प्रेम प्रसंग से सराबोर हमारे भक्ति काल में राधा को ही सर्वोपरि माना गया। भगवान ने एक बार परीक्षा ली कि शरीर में छाले पड़ गए हैं। यदि कोई सखी अपनी चरण धूलि दे दे तो ज्वर और छाले ठीक हो जाएंगे। कहते हैं श्री कृष्ण की भक्ति में लीन कोई भी सखी ऐसा नहीं मिली जो चरण धूलि दे। परंतु बात राधा के कानों तक पहुंची। राधा श्री ने तुरंत अपने पाँव से निकलकर चरण राज दे दिया। रानी पट रानी सभी ने हार मानी।
राधा का प्रेम सिर्फ प्रेम ही नहीं वक्त पढ़ने पर भारी संकटों को अपने ऊपर लेकर अपने भगवान प्रेमी को मुक्त करना होता है। कहा गया था जो चरण रज देगी उसे अनंत कोटि वर्षों तक रैरव नरख निवास मिलेगा।
परंतु राधा जी ने कृष्ण के लिए अनंत कोटि रैरव नरक स्वीकार किया। इस पल मेरे श्याम ठीक हो जाए यह भक्ति प्रेम की सर्वोपरि प्रकाष्ठा है।
तुलसीदास ने जी ने भी प्रेम से लिप्त जब पत्नी के पास पहुंचे पत्नी की कठोर कटाक्ष बातों से आत्मा को तार – तार होते देखा।
भगवान प्राप्ति के लिए अपने आप को दास मानते तप, संयम, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, प्रभु कृपा और शरणागति को ही अपना साधन बनाया। और आदि अनंत तक जीवंत हो गए।
दास के रूप में तुलसीदास जी ने प्रभु भक्ति का मार्ग निर्मल और साकार बताया।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी जान…“।)
अभी अभी # 636 ⇒ मेरी जान… श्री प्रदीप शर्मा
जी हां, मैं मेरी जान की ही बात कर रहा हूं। कभी मैं और मेरी मां, एक जिस्म दो जान थे, फिर एक समय ऐसा आया, जब मेरा भी जिस्म इस जहान में आया। दो जिस्म, एक जान, यानी एक नन्हीं सी जान, जिसे मेरी मां हमेशा अपने सीने से लगाकर रखती थी।
धीरे धीरे मैं बड़ा होने लगा, अपने आपको, और इस दुनिया को जानने लगा। जब मैं छोटा था, तो लोग मुझे जान से ज्यादा चाहते थे, हमेशा अपने गले से लगाए रहते थे। कहते थे, कितना प्यारा बच्चा है।।
खैर, मुझे बड़ा तो होना ही था, पढ़ लिखकर अपने पांव पर खड़ा तो होना ही था। मैं भी जी जान से मन लगाकर पढ़ता, क्योंकि मैं भी जानता था कि पढ़ लिखकर ही आदमी बड़ा बनता है, अगर वह नहीं पढ़ता, तो छोटा ही रह जाता है, अर्थात् जीवन में पिछड़ जाता है।
स्कूल हो, कॉलेज हो, अथवा घर, तब तक पूरे समाज में एक आवश्यक बुराई घर कर गई थी, फिल्म और फिल्मी गाने। घर में भी रेडियो बजता था और घर से बाहर निकलो तो रास्ते में जगह जगह सिनेमाघर, जिन्हें चलचित्र गृह भी कहते थे। अखबार में भी एक कॉलम आता था, आज के छविगृहों में।।
आप फिल्म देखें ना देखें, फिल्म के पोस्टर तो दिखाई दे ही जाते थे और फिल्मी गानों से भला कौन बच सकता था। हम भाई बहन भी गाते रहते थे, इचक दाना, बिचक दाना, दाने ऊपर दाना। और जब आवारा हूं जैसे गाने जबान पर चढ़ जाते, तो पिताजी नाराज भी होते थे, यह क्या सीख रहे हो आजकल ?
कॉलेज का माहौल तो बिल्कुल फिल्मी ही था।
लड़के लड़कियां सज धजकर कॉलेज आते, कोई पढ़ने तो कोई मौज मस्ती मारने। कॉलेज में कुछ के दोस्त बने तो कुछ की गर्ल फ्रेंड भी। लेकिन अपनी जान हमेशा अकेले ही रहे क्योंकि हमें कुड़ियों को दाना डालना नहीं आता था।।
एक नन्हा सा दिल तो खैर हमारी जान में भी था, जो हमेशा धड़कता रहता था। अक्सर फिल्मी गानों में मेरी जान का जिक्र होता रहता था। वो देखो, मुझसे रूठकर मेरी जान जा रही है। कहीं यही जान जिया बन जाती थी। जिया ले गयो रे, मोरा सांवरिया। कहीं अनाड़ी बलमा तो कहीं जुल्मी सांवरिया।
हम भी जानते थे, यह केवल फिल्मों में होता है, असली जिंदगी कुछ अलग ही होती है। खैर, नौकरी लगते ही हमारी शादी भी तय हो गई। हमारी एक जान थी, अब दो हो गई। मैं और मेरी जान। आप अपने होने वाली जान को चाहे जानें अथवा ना जानें, वह तो अब आपकी जान हो ही गई। जान ना जान, मैं तेरी सात जन्मों की मेहमान।।
अब पिछले ५० वर्षों से हम एक दूसरे को जान रहे हैं।
वह मुझे जान से ज्यादा चाहती है, मेरा मुझे नहीं पता। मुझे अपनी जान की चिंता ज्यादा है। मेरी जान और अपनी जान, यानी फिर पहले की तरह हम दो जिस्म एक जान हो गए। लेकिन इस बार जिस्म भले ही अलग हो, जान तो एक ही है। मेरी जान।।