हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 513 ⇒ भूले बिसरे मित्र ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भूले बिसरे मित्र।)

?अभी अभी # 513 ⇒ भूले बिसरे मित्र ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मित्र को मीत भी कहते हैं और सखा भी। एक पुराना दोस्त एक भूले बिसरे गीत की तरह होता है। यह शिकायत नहीं, हकीकत है, नए रिश्तों ने तोड़ा नाता पुराना, मैं खुश हूं मेरी आंसुओं पे ना जाना। जीवन भी तो एक संगीत ही है, लेकिन क्या केवल पुकारने से ही हमारा पुराना मीत, बचपन का सखा, यार और दोस्त वापस आ जाता है।

होता है, कभी कभी ऐसा भी होता है, जब हमारी पुकार सुन ली जाती है, और कोई भूला बिसरा बचपन के मित्र का, अचानक हमारे जीवन में फिर से प्रवेश हो जाता है।।

जरा इस गीत में पुराने मित्र का दर्द तो देखिए, मानो कोई बुला बिसरा गीत अचानक याद आ गया हो। डीजे और पॉप म्यूजिक की दुनिया में अगर कहीं से लता और शमशाद का गीत बज उठे, दूर कोई गाये, धुन ये सुनाए, तो मन भी यही कह उठता है ;

आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं।

मेरा सुना पड़ा रे संगीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं।।

लेकिन ना तो कभी बचपन वापस आता है और ना ही बचपन के मित्र, यार दोस्त। बचपन के स्कूल और कॉलेज के दोस्त सूखे पत्तों की तरह होते हैं ;

पत्ता टूटा डाल से

ले गई पवन उड़ाय।

अब के बिछड़े कब मिलेंगे

दूर पड़ेंगे जाय।।

लेकिन हवा का क्या है, अगर समय का रुख हमारी ओर हुआ तो किसी भूले बिसरे गीत की तरह, किसी भूले बिसरे मित्र का भी फिर से जीवन में प्रवेश हो जाता है। समय का असर और समय की मार किस इंसान पर नहीं पड़ती। मिलने की खुशी के साथ वो भूली दास्तान भी याद आ ही जाती है। पूछो न कैसे मैने रैन बिताई।

कोई भूला बिसरा गीत भले ही अमर हो जाए, हर भूला बिसरा मित्र वापस जीवन में लौटकर नहीं आता। कुछ तो वक्त के साथ बहकर बहुत दूर निकल जाते हैं, तो कुछ इस दुनिया से ही किनारा कर लेते हैं। कुछ हो सकता है, हमारे आसपास ही हों लेकिन प्यार की बीन कभी अकेली नहीं बजती, क्या करें, कोई मित्र साथ ही नहीं देता ;

मजबूर हम, मजबूर तुम।

दिल मिलने को तरसे।।

हाय रे इंसान की मजबूरियां।

पास रहते भी हैं कितनी दूरियां ;

याद आते हैं वे दिन, उठाई साइकिल और निकल पड़े अपने दोस्त के घर की ओर। जब तक कार, स्कूटर ने साथ दिया, शादी ब्याह और कॉफ़ी हाउस तक भी आना जाना हुआ करता था। फिर उम्र का वह पड़ाव भी आ ही गया, जब इंसान गणेश जी की तरह बस अपने बाल बच्चों और सगे संबंधियों की ही परिक्रमा करने पर मजबूर हो जाता है। सभी मित्रों की दौड़ भी विदेशों और बड़े बड़े शहरों में नौकरी कर रहे अपने बच्चों तक ही सीमित हो जाती है।

कितना अच्छा है, भले ही कोई भूला बिसरा मित्र हमसे नहीं मिल पाता, लेकिन वह अपने परिवार के साथ तो खुश है। वह इतना बदनसीब तो नहीं कि उसे वृद्धाश्रम में अपना बुढ़ापा गुजारना पड़े। कभी भूले भटके फोन पर बात हो जाए, अथवा किसी शादी ब्याह/शोक प्रसंग में कुछ पल बातें हो जाएं, वही बहुत है आज की इस अस्त व्यस्त जिंदगी में।।

ज्यादा की नहीं आदत हमें, थोड़े दोस्तों में गुजारा होता है। आज के दोस्त नए फिल्मी गीतों जैसे हैं, इधर सुना, उधर भूले। हां वैसे कुछ आभासी रिश्तों में पुराने गीतों जैसी खनक आज भी मौजूद है।

जगजीत की तरह मन को जीतने वाले मनमीतों की आज भी इस दुनिया में कमी नहीं।

कभी किताबों से यारी की, फिर घबराकर हमने भी मुखपोथी को माथे लगा ही लिया। साहित्य, संगीत, अध्यात्म और मित्रों का ढेर सारा प्यार यहां मिल ही रहा है। अपनों की कमी नहीं जहान में, बस दिल का दरवाजा खुला रहे। मित्रता की प्यार की बीन यूं ही कानों में गूंजती रहे। सलामत रहे दोस्ताना हमारा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 512 ⇒ आनंद मार्ग ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आनंद मार्ग ।)

?अभी अभी # 512 ⇒ आनंद मार्ग ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं तो चला, जिधर चले रस्ता ! लो जी, ये भी कोई बात हुई। हम रास्ते पर चलते हैं, रास्ता भी कहीं चलता है। जिसे देखो, वह किसी रास्ते पर चल रहा है, कोई सच्चाई के रास्ते पर, तो कोई धर्म और ईमानदारी के रास्ते पर। किसी को शांति की तलाश है तो किसी को सुख की। और रास्तों के नाम तो हमने ऐसे दे दिए हैं कि बस पूछो ही मत। हम रास्ते बदलें, उसके पहले उन रास्तों के ही नाम बदल जाते हैं। जो कभी जेलरोड था, उसे देवी अहिल्या मार्ग बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। यह गली आगे मुड़ती है। हमारे आदर्श भी आजकल बच्चों के खिलौने के समान हो गए हैं, आज कुछ, तो कल कुछ और।

घर से चले थे हम तो,

खुशी की तलाश में।

गम राह में खड़े थे,

वो भी साथ हो लिए।।

एक मार्ग आनंद का भी होता है, जिस पर मुसाफिर चलता हुआ यह गीत आसानी से गा सकता है ; मस्ती में छेड़ के तराना कोई दिल का, आज लुटाएगा खजाना कोई दिल का। आज की पीढ़ी जिस मस्ती और आनंद के मार्ग पर चल रही है, यहां आज हम उसका जिक्र नहीं कर रहे हैं, हम बात कर रहे हैं एक ऐसी संस्था की, जिसका नाम ही आनंद मार्ग था। आनंद मठ का आपने नाम सुना होगा और बंकिम बाबू का भी, लेकिन कितने लोग प्रभात रंजन सरकार को जानते हैं, जिन्होंने सन् 1955 में आनंद मार्ग की स्थापना की थी।।

हर मार्ग की स्थापना किसी आदर्श अथवा उद्देश्य को लेकर ही होती है। जल्द ही लोग उस मार्ग पर चलना भी शुरू कर देते हैं। अगर यह रास्ता ठीक है तो ठीक, वर्ना भटकना तो है ही।

बंगाल का जादू हमेशा सर चढ़कर बोलता है। फिर चाहे वह संगीत हो अथवा साहित्य। बंगाल में आजादी के बाद अधिकतर मार्क्सवादी सरकार रही। आनंद मार्ग एक ऐसा ही सामाजिक और आध्यात्मिक संगठन था जिसका गठन ही कांग्रेसी और मार्क्सवादी विचारधारा से लोहा लेने के लिए किया गया था। लोग नक्सलवाद को आज भी नहीं भूले, लेकिन आनंद मार्ग का आज कोई नाम लेने वाला नहीं बचा।

हम भी अजीब हैं। अहिंसा के रास्ते पर चलते हैं और क्रांति की बात करते हैं। जब सत्ता किसी और के हाथों में होती है, तो तख्ता पलटने की बात करते हैं और जब खुद सरकार बन जाते हैं, तो वही मार्ग आनंद मार्ग हो जाता है। आपातकाल में अन्य राजनीतिक संगठनों के साथ आनंद मार्ग पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था और इनके गुरु आनंदमूर्ति उर्फ प्रभात रंजन सरकार सहित सभी अनुयायी जेल में बंद थे। कथित रूप से इन्हें हिंसक गतिविधियों में शामिल होने के कारण जेल में रखा गया और इन्हें जहर देकर मारने की भी साजिश की गई।।

सन् 1982 में आनंद मार्ग के 17 सन्यासी, जिन्हें अवधूत कहा जाता है, की हत्या कर दी गई जिसके बाद से इनकी गतिविधियां सीमित हो गई और सन् 1990 में इनके तारक ब्रह्म आनंद मूर्ति, जिन्हें इनके भक्त बाबा कहकर भी संबोधित करते थे, के निधन के बाद आनंद मार्ग में कोई आनंद नहीं रहा।

मार्ग आनंद का हो, अथवा राजनीति का, चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ता है। कभी विरोध तो कभी समर्थन, कभी जीत तो कभी हार। सत्ता के गलियारे में जो सुख और आनंद की तलाश करना चाहता है, उसका मार्ग बड़ा कांटों भरा होता है। एक समय था, जब राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं आमने सामने थी। खालिस्तानी आंदोलन, मार्क्सवाद, नक्सलवाद, आनंद मार्ग और अपना ही रक्तबीज भिंडरावाला इंदिरा गांधी की मौत का कारण बना।।

हिंसा का मार्ग कभी आनंद मार्ग नहीं हो सकता। हिटलर और सुभाष के मार्ग में अंतर है। अशोक पहले सम्राट बना उसके बाद बुद्ध की शरण में गया। हमें भी आज किसी शुक्राचार्य अथवा द्रोणाचार्य की नहीं, आचार्य चाणक्य और भीष्म पितामह की तलाश है। हिंसा और आतंक का मुकाबला कभी अहिंसा से नहीं होता।

एक मार्ग, एक विचारधारा, एक नेता पैदा करती है, और फिर उसके कई अनुयायी पैदा हो जाते हैं। एक जलप्रपात कई धाराओं के मिलने से बनता है। विचारों का प्रवाह अगर जारी रहे, तो झरना कभी सूखता नहीं। विचारों का नवनीत ही आनद मार्ग है। सत चित आनंद ही सच्चा आनंद मार्ग है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #255 ☆ अंतर्मन की शांति… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नीयत और नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 254 ☆

अंतर्मन की शांति…

हम बाहरी दुनिया में शांति नहीं प्राप्त कर सकते, जब तक हम भीतर से शांत न हों–धर्मगुरु दलाईलामा का यह कथन दर्शाता है कि संसार मिथ्या है, मायाजाल है; जो हमें आजीवन उलझा कर रखता है। जब तक हमारा मन शांत नहीं होगा, हम सांसारिक मायाजाल में उलझे रहेंगे। परंतु जब हम एकाग्रचित्त होकर ध्यान-स्मरण करेंगे; हम इस भौतिक संसार से ऊपर उठ जाएंगे। हमें अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ेंगे और अलौकिक आनंदानुभूति होगी। हम उस ध्वनि में इतने लीन हो जाएंगे कि हमें किसी बात की खबर नहीं होगी। मन ऊर्जस्वित रहेगा। इसका दूसरा अर्थ यह है कि जब तक हम सांसारिक विषय-वासनाओं पर विजय नहीं पा लेते; हमारा मन शांत नहीं रह सकता। एक के बाद दूसरी इच्छा सिर उठाए खड़ी रहेगी और हम उस जंजाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकेंगे। हमारी यही इच्छाएं ही हमारी सबसे बड़ी शत्रु हैं, जो हमें आजीवन उलझाए रखती हैं।

कठिनाई के समय में कायर बहाना ढूंढते हैं और बहादुर व्यक्ति रास्ता खोजते हैं। सरदार पटेल जी आलसी लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि उनकी दशा ‘नाच ना जाने, आंगन टेढ़ा’ जैसी हो जाती है। उनमें किसी कार्य को अंजाम देने की क्षमता तो होती ही नहीं, वे तो बहाना ढूंढते हैं। परंतु वीर व्यक्ति अपनी राह का निर्माण स्वयं करते हैं, क्योंकि पुरानी, बनी-बनाई लीक पर चलना उन्हें पसंद नहीं होता। सो! वे दुनिया के सामने नया उदाहरण पेश करते हैं। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रही हैं अब्दुल कलाम जी की पंक्तियां ‘जो लोग ज़िम्मेदार, सरल, ईमानदार व मेहनती होते हैं, उन्हें ईश्वर द्वारा विशेष सम्मान मिलता है, क्योंकि वे धरती पर ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना होते हैं।’ जिस कार्य को भी वे प्रारंभ करते हैं, उसे पूरा करने के पश्चात् ही चैन से बैठते हैं। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा संसार में ईमानदार, ज़िम्मेदार व मेहनती इंसानों को ही महत्व प्राप्त होता है। वे बीच राह से लौटने में विश्वास नहीं रखते, क्योंकि वे असफलता को सफलता के मार्ग में श्रेष्ठ कदम स्वीकारते हैं। ऐसे महानुभाव विश्व के लोगों के लिए श्रद्धेय व पूजनीय होते हैं तथा उनका पथ-प्रदर्शन कर सम्मान पाते हैं।

दार्शनिक जॉन हार्ट को एकांत प्रिय है और वे कहते हैं ‘यह तो आपका भ्रम ही है, जो आप मुझे एकांत में अकेला समझ रहे हैं, मैं तो अब तक अपने साथ था तथा मुझे अपना साथ सदा प्रिय है। मगर आपने आकर मुझे अकेला कर दिया’ अर्थात् मन एकांत में अलौकिक आनंदानुभूति करता है और यदि कोई उसके काम में बाधा बनता है तो वह उसकी ध्यान-समाधि में विक्षेप होता है और उसे बहुत दु:ख होता है। सो! मानव को सदैव अपनी संगति में रहना चाहिए। परंतु ओशो का चिंतन सर्वथा भिन्न है। ‘जब प्यार और नफ़रत दोनों ही ना हों, तो हर चीज़ साफ और स्पष्ट दिखाई देती है।’ यह निर्लेप अवस्था है, जब मानव का मन शून्यावस्था में  घृणा व प्रेम से ऊपर उठ जाता है। उस स्थिति में स्व-पर व राग-द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता और ना ही भाव-लहरियां उसके हृदय को उद्वेलित करती हैं। वह परमात्म-सत्ता उसे प्रकृति के कण-कण में दिखाई पड़ती है और वह उसके प्रति श्रद्धा भाव से समर्पित होता है। यह संसार उसे मायाजाल भासता है और मानव उसमें न जाने कितने जन्मों तक उलझा रहता है। इसलिए मानव को सदैव निष्काम कर्म करने का संदेश दिया गया है, क्योंकि फलासक्ति दु:खों का मूल कारण है। महात्मा बुद्ध ने संसार को दु:खालय कहा है। सुख-दु:ख मेहमान हैं, आते-जाते रहते हैं और इनका चोली दामन का साथ है। वैसे एक के रुख़्सत होने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। तो किसी भी विषम परिस्थिति में घबराना व घुटने टेकना कारग़र नही

‘जो मुसीबत बंदे को रब्ब से दूर कर दे वह सज़ा/ जो ख़ुदा के क़रीब ला दे आज़माइश/ अर्थात् मुसीबतें मानव को प्रभु के क़रीब लाती हैं। इसलिए द्रौपदी ने प्रभु से यह वरदान मांगा था कि तुम मुझे कष्ट देते रहना, ताकि तुम्हारी स्मृति बनी रहे। मानव सुख में सब कुछ भूल जाता है। कबीरदास जी मानव को संदेश देते हुए कहते हैं कि ‘जो सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे को होय।’ तुलसीदास जी विद्या, विनय व विवेक को दु:ख के साथी तथा मानव के सच्चे हितैषी स्वीकारते हैं। वे मानव के प्रेरक हैं; उसका सही मार्गदर्शन करते हैं और सभी आपदाओं से मुक्त कराते हैं। सो! मानव को इनका दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। संबंध व संपत्ति को समान इज़्ज़त दीजिए, क्योंकि दोनों को बनाना अत्यंत कठिन है और खोना आसान है। सो! अच्छे लोगों की संगति कीजिए तथा संबंधों को लंबे समय तक बनाए रखिए, क्योंकि हर कदम पर हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। इसलिए सकारात्मक सोच रखिए। ‘चूम लेता हूं/ हर मुश्किलों को मैं/ अपना मान कर/ ज़िंदगी जैसी भी है/ आखिर है तो मेरी ही’ गुलज़ार की यह पंक्तियां सुख-दु:ख में सम रहने का संदेश देती हैं, क्योंकि मुश्किलें व ज़िंदगी दोनों मेरी स्वयं की हैं। इसलिए इनसे ग़िला-शिक़वा क्यों?

हर मुसीबत अभिशाप नहीं होती, समय के साथ आशीर्वाद सिद्ध होती है। सो! मुसीबतों से घबराना कैसा? ‘है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है’ हमें अपनी सोच को सकारात्मक बनाए रखने का संदेश देता है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार ‘संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ, जो आशाओं का पेट भर सके।’ इसी संदर्भ में यह तथ्य उल्लेखनीय है, ‘एक इच्छा से कुछ नहीं बदलता/ एक निर्णय से थोड़ा कुछ बदलता है/ लेकिन एक निश्चय से सब कुछ बदल जाता है।’ सो! दृढ-निश्चय कीजिए और अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर पदार्पण कीजिए; आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। आप वह सब कुछ कर सकते हैं, जो आप सोच सकते हैं। सो! निरंतर परिश्रम करते रहिए, मंज़िल अवश्य प्राप्त होगी। परंतु इसके लिए एकाग्रचित होने की दरक़ार है। यदि मन शांत होगा; तो आपको मनचाहा प्राप्त होगा। चित्त की एकाग्रता में ईश्वर से तादात्म्य कराने की क्षमता है। शांत रहने से आप अलौकिक आनंदानुभूति करते हैं। सांसारिक विषय-वासनाएं आपका कुछ बिगाड़ नहीं पातीं। आइए! अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा चित्त को एकाग्र करें और अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हों; आत्मा-परमात्मा का भेद मिट जाएगा और पूरी सृष्टि में तू ही तू नज़र आएगा।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 511 ⇒ सुबह का तारा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सुबह का तारा।)

?अभी अभी # 511 ⇒ सुबह का तारा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गया अंधेरा, हुआ उजारा

चमका चमका, सुबह का तारा

अंधेरे को रात का मेहमां कहा गया है। किसी के रोके भी क्या कभी सवेरा रुका है। कई बार ऐसे अवसर आते हैं जीवन में, जब ज़िन्दगी की सुबह ही नहीं होती। ग़म की अंधेरी रात बहुत लंबी हो जाती है। ऐसे में मन को तसल्ली कुछ इस तरह दी जाती है ;

ग़म की अंधेरी रात में

दिल को न बेकरार कर।

सुबह ज़रूर आएगी

सुबह का इंतज़ार कर।।

तारा उम्मीद का आकाश है। एक तारे के सहारे तम का मातम नष्ट किया जा सकता है। उम्मीद की एक किरण ही काफी है, एक खुशहाल जिंदगी जीने के लिए।

दीपावली की रात यूं तो अमावस्या की काली रात होती है, लेकिन जब अरमान अंगड़ाइयां लेते हैं, मन में अनार और फुलझडियां फूटने लगती है, तो मन का आकाश भी सितारों सा टिमटिमाता आकाश बन जाता है और कह उठता है ;

टिम टिम टिम

तारों के दीप जले।

नीले आकाश तले

हम दोनों की प्रीत पले।।

एक सूरज हमारे दिन को दिन बना देता है लेकिन रात में हमें दीया और बाती, आसमां के चांद और तारों के साथ ही काटनी पड़ती है। सुख और दुख को दिन और रात की तरह परिभाषित किया गया है। लेकिन जहां चिराग है, वहां रोशनी है, और जहां रोशनी है, वहां ज़िन्दगी है, ज़िंदादिली है।

कभी कभी परिस्थितियां हमारे जीवन में अंधेरा ला देती हैं, जिजीविषा क्षीण हो जाती है। मन के आसमां में गम के बादल छा जाते हैं, हम अवसाद में बुरी तरह डूब जाते हैं। ऐसे में सुबह का तारा उम्मीद की एक नई किरण लेकर हमारे जीवन में सुबह का आग़ाज़ करता है।।

शुक्र को सुबह का तारा कहा गया है। यह पृथ्वी के सबसे करीब है। सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के पश्चात यह कुछ समय के लिए अपनी रोशनी अधिकतम बढ़ाता है। आज का सुबह का तारा एक नई सुबह लेकर आया है।

इस दीपावली के पर्व पर हमने तारे ज़मीन पर भी देखे। जब आसमां में तारे और ज़मीन पर भी तारे हों तो मन के तार भी छिड़ ही जाते हैं। ज़िन्दगी करवट लेने लगती है। एक बच्चे की किलकारी किसी सुबह के तारे से कम नहीं।

सुबह का तारा शुक्र है। हम शुक्रगुजार हैं इस सुबह के तारे के, जो हमारी सुबह को भी चमकाता है और शाम को भी। खुशियों का यह पर्व हमारे जीवन में उत्साह और उमंग की सौगात लेकर आवे। दीपावली पर्व की बधाई एवं शुभकामनाएं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 218 ☆ जगमग ज्योति जले… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जगमग ज्योति जले। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 218 ☆ जगमग ज्योति जले 🪔 ☆

संस्कार भारतीयता में समाहित हैं, जितने भी त्योहार हम मनाते हैं सभी में दान की परम्परा को ही महत्व दिया जाता है। हर व्यक्ति यही चाहता है कि उसके हाथ माँगने के लिए नहीं, देने के लिए उठें, शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जब दायाँ हाथ किसी को कुछ दे तो बाएँ हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए।

हमारी जरूरतें तो कभी कम नहीं होंगी पर हमें अपने खर्चों में कमीं करते हुए स्वविवेक से कुछ न कुछ जरूरतमंदों को अवश्य देना चाहिए जिससे आपमें उत्साह व सकारात्मकता का भाव विकसित होगा और यही संस्कार आप अगली पीढ़ी को देंगे जो उनकी उन्नति का मार्ग निर्धारित करेगा।

कोशिश कीजिए कि जन्म सार्थक हो, किसी का भला कर सकें इससे बड़ी बात कुछ हो ही नहीं सकती।

दीपोत्सव 🪔 की शुभकामनाओं के साथ-

भावों के दीपक जलाते चलो।

ज्योतित जहाँ को बनाते चलो।।

*

फूलों की खुशबू से महकेगा मन।

बगिया जतन से सजाते चलो।।

*

गंगा सी पावन नदियाँ जहाँ।

प्यासों की प्यास मिटाते चलो।।

*

गायत्री मंत्रों से गूँजे गगन।

बच्चों ये सब सिखाते चलो।।

*

साहित्य पढ़ना जो सच्चा रहे।

हिंदी की बिंदी लगाते चलो।।

*

संगम विचारों का अनमोल जो।

छाया घनी नित बढ़ाते चलो।।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 511 ⇒ घर बैठे कामकाज (Work from home) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घर बैठे कामकाज ।)

?अभी अभी # 511 घर बैठे कामकाज ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Work from home)

कोरोना काल के पहले घर बैठे कामकाज वे लोग ही करते थे जिनके पास कोई स्थायी नौकरी अथवा काम धंधा नहीं होता था । अगर आपको कोई स्थायी नौकरी अथवा काम धंधा करना है,तो आपको घर से बाहर तो जाना ही होगा । अब आप अपने घर में सरकारी दफ्तर खोलने से तो रहे । प्रायवेट नौकरी धंधों में तो घर बार छोड़ बाहर गांव क्या, अपना देश प्रदेश छोड़, सात समन्दर पार तक जाना पड़ सकता है, आखिर पापी पेट का सवाल जो है ।

बचपन में बड़े बूढ़ों से महामारी के बारे में सुना था और 70 वसंत पर करने के बाद कोरोना वायरस का तांडव हमने आंखों से देख भी लिया । क्या कोई हड़ताल करवाएगा, चक्का जाम करेगा, और कर्फ्यू लगाएगा, एक मौत का डर इंसान से सब कुछ करवा लेता है । स्कूल, दफ्तर, और बाजारों की रौनक को मानो सांप सूंघ गया । फूंक फूंक कर कदम रखते हुए, ऑनलाइन बिजनेस शुरू हुआ, हर घर स्कूल और दफ्तर में तब्दील होता चला गया ।।

बड़े बड़े शहरों की आईटी कंपनीज़ में ताले लग गए,बच्चों के हॉस्टल खाली करवा लिए गए और मजबूरी में जो जहां था,वह वहीं स्टेच्यू बनकर रह गया । बड़ी बड़ी आइटी कंपनीज ने भी सुरक्षा और सुविधा की दृष्टि से यही निर्णय लिया कि अधिकांश कर्मचारी घर बैठकर ऑनलाइन ही ड्यूटी देते रहे । घाटे में चल रही कंपनीज ने भी अपने रख रखाव और स्थापना (एस्टेब्लिशमेंट) के खर्चे में कटौती शुरू कर दी ।

आज बच्चे छुट्टियों में भी घर आते हैं,तो उनका ऑफिस भी साथ ही रहता है । अगर बेटे बहू/बेटी दामाद दोनों आईटी वाले हैं ,तो छुट्टियों में भी उनका दफ्तर घर से ही चलता रहता है । कुछ बच्चे तो कोरोना के बाद से ही वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं । बस बीच बीच में कुछ समय के लिए कंपनी उन्हें बुला लेती है ।।

बच्चे जब बड़े,समझदार और जिम्मेदार हो जाते हैं,तो उनके रहते हुए भी घर में शांति और अनुशासन कायम रहता है । वर्क फ्रॉम होम में शैतानी और मक्कारी नहीं चलती । यह कोई सरकारी दफ्तर नहीं है ।

शादियों की फिजूलखर्ची इन्हें रास नहीं आती । घर से दूर रहने के कारण खाना भी ऑनलाइन ही आ जाता है । शादी भी अपनी पसंद से ही होती है, इसलिए दोनों पति पत्नी काम काजी होने के कारण एक दूसरे की समस्या अधिक अच्छी तरह से समझते हैं ।।

अगर आज की पीढ़ी का वर्क फ्रॉम होम आगे भी इसी तरह जारी रहा, तो वह दिन दूर नहीं, जब शादी के बाद हनीमून की छुट्टियों में भी इनका वर्क फ्रॉम होम जारी रहेगा । क्यों महीने भर की छुट्टी बिगाड़ें । दिन भर वर्क फ्रॉम होटेल और रात में होम वर्क । वैसे वीक एंड है ही घूमने फिरने और सैर सपाटे के लिए ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 310 ☆ आलेख – स्त्री के प्रति अपराध रोकने में धार्मिक आस्थाओ का महत्व… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 310 ☆

?आलेखस्त्री के प्रति अपराध रोकने में धार्मिक आस्थाओ का महत्व…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

भारत की पहचान एक धर्म प्रधान, अहिंसा व आध्यात्मिकता के प्रेमी और नारी गौरव-गरिमा का देश होने की रही है, फिर क्या कारण है कि इस शिक्षित युग में भी बेटियो की यह स्थिति हुई है कि कन्या भ्रूण बचाने के लिये सरकारी अभियान चलाने पड रहे हैं. कानून का सहारा लेना पड़ रहा है.

एक ओर कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स जैसी बेटियां अंतरिक्ष में भी नाम रोशन कर रही हैं, महिलायें राजनीति के सर्वोच्च पदो पर हैं, पर्वतारोहण, खेल, कला,संस्कृति, व्यापार,जीवन के हर क्षेत्र में लड़कियो ने सफलता की कहानियां गढ़कर सिद्ध कर दिखाया है कि “का नहिं अबला करि सकै का नहि समुद्र समाय” तो दूसरी ओर बलात्कार, दहेज हत्या, कार्यस्थलों में स्त्री असुरक्षा, जन्म से पहले ही भ्रूण हत्या बंदनहीं हो रही. ये विरोधाभासी स्थिति मौलिक मानवाधिकारो का हनन तथा समाज की मानसिक विकृति की सूचक है.

पुरुषो की तुलना में निरंतर गिरते स्त्री अनुपात के चलते इन दिनो देश में “बेटी बचाओ अभियान” की आवश्यकता आन पड़ी है. नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से समाज ग्रस्त है. तमाम स्त्री विमर्श के बाद भी नारी से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमें आत्ममंथन व चिंतन के लिये विवश कर रही है. एक ओर नारी स्वातंत्र्य की लहर चल रही है तो दूसरी ओर स्त्री के प्रति निरंतर बढ़ते अपराध दुखद हैं. “नारी के अधिकार “, “नारी वस्तु नही व्यक्ति है”,वह केवल “भोग्या नही समाज में बराबरी की भागीदार है”, जैसे वैचारिक मुद्दो पर लेखन और सृजन हो रहा है, पर फिर भी नारी के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में वांछित सकारात्मक बदलाव का अभाव है. “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ नारियो की पूजा होती है वहां देवताओ का वास होता है यह उद्घोष, हिन्दू समाज से कन्या भ्रूण हत्या ही नही, नारी के प्रति समस्त अपराधो को समूल समाप्त करने की क्षमता रखता है, जरूरत है कि इस उद्घोष में व्यापक आस्था पैदा हो. नौ दुर्गा उत्सवो पर कन्या पूजन, हवन हेतु अग्नि प्रदान करने वाली कन्या का पूजन हमारी संस्कृति में कन्या के महत्व को रेखांकित करता है, आज पुनः इस भावना को बलवती बनाने की आवश्यकता है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ छोटी दिवाली या यम चतुर्दशी… ☆ सुश्री रजनी प्रभा ☆

सुश्री रजनी प्रभा

?आलेख – छोटी दिवाली या यम चतुर्दशी…  🪔 सुश्री रजनी प्रभा

भारतीय सनातनी संस्कृति में प्रत्येक दिवस की एक विशेष महता होती है। यहां हर दिन विशेष होता है। किसी न किसी पर्व को लेकर लोगों द्वारा हरसोल्लास का वातावरण विद्यमान होता है। हिंदू सभ्यता और संस्कृति में व्रत और त्योहार का विशेष महत्व होता है। हम 33 करोड़(कोटि) देवी_देवता के अस्तित्व को स्वीकारते और उनको  पूजते हैं। 33 कोटि देवी-देवताओं में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल हैं। कुछ शास्त्रों में इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनी कुमारों को 33 कोटि देवताओं में शामिल किया गया है।

आस्था की इसी कड़ी में नरक चतुर्दशी एक मात्र ऐसा दिवस है जिस दिन मृत्यु के देवता यमराज की पूजा अर्चना पुरे विधि_विधान से की जाती है। इसे यम दिवाली,छोटी दिवाली,रूप चौदस,नरक चतुर्दशी आदि नामों से भी जानते हैं। कार्तिक मास कृष्ण पक्ष के पंचदिवसीय पर्व की चतुर्दशी तिथि पुरे वर्ष में एक मात्र यही ऐसा दिन होता है, जब मृत्यु के देवता यमराज की पूजा की जाती है। मान्यताओं के अनुसार यम का दीपक दक्षिण दिशा में जलाना चाहिए। दरअसल दक्षिण दिशा को यमराज की दिशा माना जाता है। नरक चतुर्दशी या छोटी दिवाली जब पर घर के मुख्य द्वार पर सरसों के तेल का दीपक जलाएं और हनुमान चालीसा का पाठ करें। दिए को सतंजा यानी सात प्रकार के अनाज के ऊपर रखा जाता है। खाने में प्याज-लहसुन न खाएं और देर तक सोने से बचें। कथाओं के अनुसार जो जातक दक्षिण दिशा में यम का दीपक जलाते हैं उन्हें अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता। दीप जलाए समय निम्न मंत्र पढ़ा जाता है_

 मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन श्यामया सह |

त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम

||

छोटी दिवाली पर यमराज की पूजा करने से घर का वातावरण शुद्ध और सकारात्मक बना रहता है। दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस दिन लोग प्रदोष काल के दौरान चार मुखी दीया सरसो के तेल में जलाते हैं जो यम देव को समर्पित होता है। घर में गंगाजल का छिड़काव करते हैं। कुछ लोग दिए को घर से बाहर दक्षिम दिशा में नाली के पास भी जलाते हैं। दीपक जलाने के बाद पूरे समर्पण, विश्वास और भाव के साथ भगवान से प्रार्थना करते और अपने परिवार की खुशहाली के लिए आशीर्वाद मांगते हैं।

इस दिन किसी भी शुभ कार्य को करना वर्जित होता है। दक्षिण दिशा को यमराज की दिशा मानी जाती है। कथाओं के अनुसार जो जातक दक्षिण दिशा में यम का दीपक जलाते हैं उन्हें अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता। यमराज की कृपा दृष्टि प्राप्त करने हेतु छोटी दिवाली उन्हें समर्पित है।

© सुश्री रजनी प्रभा

द्वारा, श्री कुंदन कुमार, जारंग डीह, गायघाट, मुजफ्फरपुर, बिहार – 843118

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #192 – बालसाहित्य – आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है  आपका बालसाहित्य के अंतर्गत एक ज्ञानवर्धक आलेख आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 192 ☆

☆ बाल साहित्य – आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मेरा जन्म 1900 की शुरुआत में ओहियो के डेटन में एक छोटे से वर्कशॉप में हुआ था। मेरे निर्माता ऑरविल और विल्बर राइट नाम के दो भाई थे। वे पक्षी की उड़ान से प्रेरित थे। वे कई वर्षों से मेरे डिजाइन पर काम कर रहे थे।

मैं एक बहुत ही साधारण मशीन था। मेरे पास दो पंख थे, एक प्रोपेलर और एक छोटा इंजन। लेकिन मैं भी बहुत नवीन था। मैं पहला हवाई जहाज था जो कुछ सेकंड से अधिक समय तक उड़ान भरने में सक्षम था।

17 दिसंबर, 1903 को मैंने अपनी पहली उड़ान भरी। मैं ऑरविल के नियंत्रण में था। विल्बर मेरे साथ दौड़ रहा था। वह एक रस्सी पकड़े था। मैंने 12 सेकंड के लिए उड़ान भरी। 120 फीट की यात्रा की। यह एक छोटी उड़ान थी, लेकिन यह एक ऐतिहासिक थी।

मेरी उड़ान ने साबित कर दिया कि इंसान उड़ सकता है। इसने अन्य अन्वेषकों को नए और बेहतर हवाई जहाज बनाने के लिए प्रेरित किया। और इसने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया।

मैं अब 100 से अधिक वर्षों से उड़ रहा हूं। मैंने उस समय में काफी बदलाव देखे हैं। हवाई जहाज बड़े और तेज हो गए हैं। वे ऊंची और दूर तक उड़ सकते हैं। वे अधिक लोगों को ले जा सकते हैं।

लेकिन एक चीज नहीं बदली है: मैं अभी भी दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक मशीन हूं। मैं लोगों को नई जगहों और नए अनुभवों के साथ ले जा सकता हूं। मैं लोगों को एक-दूसरे से और उनके आसपास की दुनिया से जुड़ने में मदद कर सकता हूं। मैं दुनिया को एक छोटी जगह बना दिया है।

मुझे मेरे हवाई जहाज होने पर गर्व है। लोगों को यात्रा करने और अन्वेषण करने में मदद करने पर मुझे प्रसन्न्ता होती है। मुझे मेरी प्यारी दुनिया के भ्रमण करने पर गर्व है।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

24-05-2023

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नोबल पुरस्कार विजेता हान कांग ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

 

☆ आलेख ☆ नोबल पुरस्कार विजेता हान कांग ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

सुदूर पूर्व में बसा दक्षिण कोरिया एक खूबसूरत देश है, जिसने गत 25 वर्षों में आर्थिक दृष्टी से समृद्धी के चमत्कारपूर्ण शिखर छू लिए है। लगभग भारत के साथ साथ ही आजा़द हुआ यह देश भारतीय आर्थिक तंत्र से ही नहीं बल्कि अन्य कितने ही देशों से किस हद तक आगे बढा़ है इसका पता इस बात से चलता है कि आज कोरिया  की प्रति व्यक्ति आय 18000 अमेरिकी डालर है। यूँ तो भौगोलिक दृष्टी से दक्षिण कोरिया एक छोटासा देश है, पर इसका अपना एक गौरवशाली इतिहास और संस्कृति है। कोरिया में भारत की पहचान गांधी, बौद्ध और टैगोर के कारण रही है। जब मैं दक्षिण कोरिया में सरकार की ओर से अतिथि आचार्य के रूप में गई थी तो कोरियाई कवयित्री किम यांग शिक के घर गयी थी। वे टेगोर के नाम से कई साहित्यिक गतिविधियाँ चलाती है। वहाँ मैंने टैगोर की प्रतिमा देखी थी। एशिया के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अपने साहित्यकार की प्रतिमा को देखकर मैं गर्व से भर गयी थी। आज इस दक्षिण कोरिया का नाम साहित्य में नोबल पुरस्कार विजेताओं में दर्ज हो गया है, यह बात भी मेरे लिए उतनी ही गर्व की है।

‘गहन काव्यात्मक गद्य’ के लिए ख्यात 53 वर्षीय कोरियाई लेखिका हान कांग का 2024 के साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नाम जब सामने आया तो लेखिका के साथ साथ सभी चकित हुए थे। यह कोरियाई भाषा के लिए भी ऐतिहासिक क्षण है। साहित्य के लिए उनका यह पहला नोबेल पुरस्कार है। 10 अक्टूबर को साहित्य के क्षेत्र में नोबेल विजेता के नाम की घोषणा के पहले किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि कोरिया की चौवन साल की महिला साहित्यकार बड़े-बड़े महारथियों को पीछे छोड़कर वैश्विक स्वीकृति-सूचक इस सम्मान का हकदार होंगी। 10 अक्टूबर 2024 को नोबेल समिति ने हान कांग को ‘गहन काव्यात्मक गद्य में इतिहास के ज़ख्म, सामूहिक स्मृति की पीड़ा और मानव जीवन की अनिश्चितता और नश्वरता को पिरोने’ के कौशल के लिये पुरस्कृत किया गया। यह सम्मान कोरियाई जनता के लिये गर्व का विषय है, लेकिन हान कांग के पिता जो स्वयं सुप्रसिद्ध उपन्यासकार हैं उनको यह समाचार पहले तो झूठ ही लगा था। क्योंकि उन्हें लगा था कि कई सारे बड़े बड़े साहित्यकार इस रेस में हैं, मेरी बेटी को कैसे इतना बडा पुरस्कार मिल सकता है। जब लेखिका को यह पूछा गया कि आप इस क्षण का उत्सव कैसे मनाएंगी? तो उन्होंने कहा कि, ‘ऐसे तो मैं चाय नहीं पीती हूँ, लेकिन आज इस खुशी के मौके पर बेटे के साथ चाय पी लूंगी।’ कोरिया में क्योबो नाम से एक बहुत बडी दुकान है जिसमें लाखों किताबें हैं। हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार खाली थी। उस दीवार पर लिखा था ‘नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिये आरक्षित’ आज उस दीवार का खालीपन दूर हुआ।

हान कांग का जन्म 27.11.1970 को दक्षिण कोरिया के ग्वांगजू में हुआ था बाद में लगभग दस की उम्र में वे सिओल चली आयी थी। उनके घर में साहित्यिक वातावरण है। पिता स्वयं लेखक हैं और दोनों भाई भी कथा साहित्य और बाल साहित्य सृजन करने में रत हैं। हान कांग को बचपन से पुस्तकों से लगाव  रहा है। दोस्तों से पहले पुस्तकों से वे दोस्ती करती थी। उनके माता-पिता चाहते थे कि वह विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करे, लेकिन बेटी ने कोरियाई भाषा लेखक होना चाहा। माता-पिता ने बेटी पर अपनी इच्छा थोपी नहीं। कोरियाई साहित्य की छात्रा होने के बावजूद उन्होंने अंग्रेजी भाषा और साहित्य का अध्ययन किया। बाद में यूरोप और अमेरिका में कुछ महीने बिताने के बाद उन्होंने समकालीन विश्व साहित्य की ऊर्जा और उष्मा को अच्छी तरह जाना और समझा।

आरम्भ में हान कांग कविता लिखती थीं। उनके साहित्यिक जीवन का आरम्भ तेईस साल की अवस्था में हुआ जब ‘साहित्य और समाज’ नामक पत्रिका में उनकी पाँच कविताएं छपीं। हान कांग का साहित्यिक जीवन तब शुरू हुआ जब उन्होंने 1993 में लिटरेचर एंड सोसायटी के शीतकालीन अंक में ‘विंटर इन सियोल’ सहित पांच कविताएं प्रकाशित कीं। उनके उपन्यास लेखन की शुरुआत 1994 में हुई, जब उन्होंने अपनी रचना ‘रेड एंकर’ के लिए सियोल शिनमुन स्प्रिंग लिटरेरी कॉन्टेस्ट जीता। उनका पहला संग्रह, ‘लव ऑफ योसु’ 1995 में प्रकाशित हुआ था। कोरिया में प्रकाशित उनकी रचनाओं में ‘फ्रूट्स ऑफ माई वूमन’ (2000) शामिल हैं, उपन्यास जिनमें द ब्लैक डियर (1998), योर कोल्ड हैड (2002), द वेजिटेरियन (2007), बीथ फाइटिंग (2010), ग्रीक लेसन (2011), ह्युमन एक्ट आदि शामिल हैं। हान कांग एक कवयित्री, कथाकार और उपन्यासकार हैं। हान एक संगीतकार भी हैं। ‘द वेजिटेरियन’ हान कांग की पहली कृति थी जिस पर फीचर फिल्म बनाई गई थी और कुछ साल पहले जिसे बुकर अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।

यह उपन्यास उन्होंने 2007 में लिखा था, जो तीन भागों में विभाजित है और यह बहुचर्चित रहा। यह उपन्यास योंग व्हे नामक लडकी की कहानी पर आधारित है। जो एक कर्तव्यनिष्ठ पत्नी है, जिसका मांस न खाने का फैसला उसके सारे व्यक्तित्व को तहस नहस कर देता है। 1997 में हाग कांग ने  एक कहानी लिखी थी जिसका नाम था ‘एक महिला जो वास्तव में फल में बदल जाती है’ इस पर यह आधारित है। हान कांग ने कहा था कि वह बीस की उम्र तक शाकाहारी थी, किंतु बाद में उन्हें शारीरिक कारणों से मांस खाना पडा, पर मन में कहीं अपराध बोध रहता था। उन्होंने इसका जवाब बौद्ध धर्म में देखना चाहा। पर तीस की उम्र में आते आते उनको जोडों में दर्द शुरु हुआ। हाथ में अत्यधिक दर्द होने के कारण वे पेन से लिख नहीं पाती थी तो वे की-बोर्ड पर पेन से टाइप करती थी।

 हान कांग ने अपने समाज के जटिल यथार्थ की अन्तर्दृष्टि प्राप्त की, अपने उपन्यासों में ऐसे पात्र गढ़े जिन्हें राष्ट्रीय आख्यान का प्रतीक माना जा सकता है, और उस यथार्थ को इतनी सहजता और संवेदना के साथ चित्रित किया कि पाठकों में मन में यथार्थ का बोध उत्पन्न हो पाया। वे कहती है कि जिस तरह द वेजिटेरियन लोगों ने पढ़ा वैसे ही ‘वी डु नॉट पार्ट’ भी पढ़ें।

हान कांग निश्चित ही अद्वितीय है। समाज और व्यक्ति चेतना के प्रति उनकी प्रतिबद्धता हमें उनके साहित्य में निश्चित ही मिलती है।

वैसे टैगोर कभी कोरिया नहीं गए लेकिन उन्होंने उसे पूर्व का दीप कहा था। आज वह दीप साहित्य में भी प्रज्वलित हो रहा है। कोरिया के पॉप संगित, के ड्रामा, बीटीएस की लोकप्रियता सो तो सभी परिचित हैं, हान कांग के माध्यम से कोरियाई साहित्य भी विश्वपटल पर आ गया है। आज सचमुच दक्षिण कोरिया सांता क्लॉज बन गया है।

(गुगल पर आधारित सामग्री से उक्त लेख तैयार किया है।)

*********                          

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

306/40, विमल विला, निसर्ग कॉलोनी, जयनगर, बेलगाम, कर्नाटक

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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