हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ वसुधैव कुटुंबकम् एक कदम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वसुधैव कुटुंबकम् एक कदम”।)  

? अभी अभी ⇒ वसुधैव कुटुंबकम् एक कदम? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय ।

मैं भी भूखा ना रहूं, साधु ना भूखा जाय ।।

कबीर भी शायद हम दो, हमारे दो ,वाले ही होंगे, इसलिए आप कह सकते हैं, कमाल की सोच !

संतोषी सदा सुखी । अपने परिवार का पेट पल गया,और अतिथि देवो भव भी हो गया ।

लेकिन कबीर इतने सीधे सादे और भोले भाले भी नहीं थे । उन्होंने अपना कुटुंब बढ़ाना शुरू कर दिया । साधु संतों को ही अपना कुटुंब मान लिया ।
बेचारे घर वाले तो ताने बाने में उलझे रहते, और साधु भरपेट भोजन करते ।

एक जुलाहा बिना इंटरनेट और वाई फाई के ग्लोबल होता चला गया । कबीर की साखी और बीजक ने उसे विश्वगुरु बना दिया ।।

कल तक जो कबीर कुटुंब की बात करता था, वह अचानक कहने लगा ;

कबीरा चला बाजार में लिए लकुटी हाथ ।
जो फूंके घर आपना, चले हमारे साथ ।।

ताजी ताजी, उलटबासी लेकर आते थे कबीर !

लेकिन हम लोग इसे सीधा करना भी जानते हैं । हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले के डूबेंगे इसलिए ऐ कबीरा, तू चल अकेला, चल अकेला । भूख लगे, तो खा लेना एक दो केला ।

हम कोई संत नहीं, कबीर नहीं, बाल बच्चे वाले सद्गृहस्थ ! हमेशा कुटुंब की ही बात की, वसुधैव कुटुंबकम् की नहीं । अगर नौकरी धंधा अथवा कोई कामकाज नहीं होता, तो कोई दो कौड़ी के लिए भी नहीं पूछता । हैप्पिली रिटायर हो गए, अपन भले अपनी पेंशन भली ।

अचानक सैम अंकल संचार क्रांति कर गए और ओल्ड एज होम की जगह हमारे हाथ में मुखपोथी पकड़ा गए । व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में हमने भी दाखला ले लिया । और अचानक, लो जी, हम भी ग्लोबल हो गए । हमने भी धर्मवीर भारती का दामन छोड़ विश्व भारती का हाथ थाम लिया । कल जन्मदिन के अवसर पर हमने भी व्हाट्सएप पर विदेशों में बैठे लोगों से बात की ।।

हुआ न यह एक कदम towards वसुधैव कुटुंबकम् ! बचपन से हमें स्वदेशी में विदेशी का तड़का पसंद था । पहले सादी खिचड़ी बनाओ और बाद में उसमें मस्त घी वाले नमकीन मसाले का तड़का लगाओ । पहले मोटी रोटी में माल भरते थे, अब चीज़ वाला, चार मंजिला बर्गर और पिज्जा खाते हैं।

Be Indian, buy Indian Chinese Food. Know Your Customer KFC.

खेल खेल में हम कहां से कहां पहुंच गए ! आज दुनिया के हर कोने में भारतीय ही छाए हुए हैं।

हर क्षेत्र में भारतीय ही तो अपना परचम लहरा रहे हैं ! 1983 के वर्ल्ड कप से आरंभ, T-20 से G-20 तक का यह सुहाना सफर हम सबने मिल जुलकर ही तो तय किया है ।

जोक्स अपार्ट, हमारा फेसबुक परिवार भी बुद्धू बक्से के किसी स्टार परिवार से कम नहीं । हम यहां लोगों से मिलते हैं, जुड़ते हैं, लेकिन बिछड़ने के लिए नहीं । हमारा यह अपना स्वदेशी तरीका है वसुधैव कुटुंबकम् का । इस कदम में आप भी हमारे साथ कदम से कदम मिलाकर चल ही रहे हैं ।

कभी हमारे कदम बहक जाएं, तो ब्लॉक अथवा अनफ्रेंड मत कर देना । संभाल लेना । आपको विश्व भारती की सौगंध ;

आपके साथ अभी अभी का एक कदम …

वसुधैव कुटुंबकम् ..!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 19 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 19 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥

अन्त काल रघुबर पुर जा, जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥

अर्थ :– आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है।

अपने अंतिम समय में आपकी शरण में जो जाता है वह मृत्यु के बाद भगवान श्री राम के धाम यानि बैकुंठ को जाता है और हरि भक्त कहलाता है। इसलिए सभी सुखों के द्वार केवल आपके नाम जपने से ही खुल जाते है।

भावार्थ:- भजन का अर्थ होता है ईश्वर की स्तुति करना। भजन सकाम भी हो सकता है और निष्काम भी। हनुमान जी और उन के माध्यम से श्री रामचंद्र जी को प्राप्त करने के लिए निष्काम भक्ति आवश्यक है। भजन कामनाओं से परे होना चाहिए। अगर आप कामनाओं से रहित निस्वार्थ रह कर हनुमान जी या श्री रामचंद्र जी का भजन करेंगे तो वे आपको निश्चित रूप से प्राप्त होंगे।

अगर आप उपरोक्त अनुसार भजन करेंगे मृत्यु के उपरांत रघुवर पुर अर्थात बैकुंठ या अयोध्या पहुंचेंगे और वहां पर आपको हरि भक्त कहा जाएगा। यहां पर गोस्वामी जी ने रघुवरपुर कहां है यह नहीं बताया है। रघुवरपुर बैकुंठ भी हो सकता है और अयोध्या भी। दोनों स्थलों में से किसी जगह पर मृत्यु के बाद पहुंचना एक वरदान है।

संदेश:-  जीवन में अच्छे कर्म करो, अच्छी चीजों को स्मरण करों। इससे व्यक्ति का अंतिम समय आने पर उसे किसी भी बात का पछतावा नहीं रहता है और उसे रघुनाथ जी के धाम में शरण मिलती है।

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-

1-तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥

2-अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥

इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से हनुमत कृपा प्राप्त होती है। यह सभी दुखों का नाश करती है और आपका बुढ़ापा और परलोक दोनो सुधारती है।

विवेचना:-

पहली चौपाई है “तुम्हारे भजन राम को पावै,जनम जनम के दुख विसरावें”।।

इस चौपाई का अर्थ है आपका भजन करने से श्रीरामजी प्राप्त होते हैं और जन्म जन्म के दुख समाप्त हो जाते हैं। पहली बात तो यह है की भजन क्या होता है और दूसरी बात यह है कि हनुमान जी का भजन कैसे किया जाए जिससे हमें श्री राम चंद्र जी प्राप्त हो जाए।

भजन संगीत की एक विशेष विधा है। इस समय दो तरह के संगीत भारत में प्रचलित है। पहला पश्चिमी संगीत और दूसरा भारतीय संगीत। सनातन धर्म के भजन भारतीय संगीत के अंतर्गत आते हैं। भारतीय संगीत के तीन मुख्य भेद हैं शास्त्रीय संगीत,सुगम संगीत और लोक संगीत।भजन का आधार इन तीनों में से कोई एक हो सकता है। देवी और देवताओं को प्रसन्न करने के लिए गाए जाने वाले गीतों को भजन कहते हैं।

अगर संगीत बहुत अच्छा है तो सामान्यतः उसको अच्छा भजन कहेंगे। परंतु भगवान के लिए इस संगीत का महत्व नहीं है। उनके लिए संगीत से ज्यादा आपके भाव महत्वपूर्ण हैं। संगीत, वादन, स्वर इनका जो माधुर्य होगा उससे श्रोता व गायक खुश होंगे, भगवान खुश नहीं होंगे।

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठे अध्याय के पहले श्लोक में प्रहलाद जी द्वारा असुर बालकों को उपदेश दिया गया है:-

प्रह्लाद उवाच

कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह।

दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ १ ॥

प्रह्लादजीने कहा—मित्रो ! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।

इस प्रकार समस्त योनियों में से केवल मानव योनि ही ऐसी है जोकि परमात्मा के पास पहुंच सकती है। यह योनि अत्यंत दुर्लभ है।

परमात्मा तक पहुंचने के लिए नियम संयम और भजन का उपयोग करना पड़ता है। आपका जीवन पवित्र होना चाहिए। पवित्र का अर्थ स्वच्छता नहीं है। मानव जीवन का मूल आत्मा है। आत्मा ने इस शरीर को धारण किया हुआ है। यह शरीर कितना साफ सुथरा है इससे आत्मा की पवित्रता पर कोई असर नहीं पड़ता है। अगर कोई भी व्यभिचारी दुराचारी साफ-सुथरे कपड़े पहन ले तो उसको हम स्वच्छ नहीं कहेंगे। हमारी मां के कपड़े अगर घर के काम करते समय गंदे भी हैं तो भी वे कपड़े हमारे लिए सबसे ज्यादा साफ कपड़े हैं। किसी भी दुराचारी के कपड़ों से ज्यादा साफ है। मां के कपड़ों में हमारी श्रद्धा है। हम उस कपड़ों को सहेज कर रखेंगे। मां के बच्चे के लिए यह कपड़ा पवित्र है। भगवान की दृष्टि में यह जीव पवित्र कब बनेगा? जीव जब धर्म के मार्ग पर चलेगा और निष्काम भक्ति रखेगा तब वह भगवान की दृष्टि से मैं पवित्र होगा।

संगीत के सात सुर हैं। सा रे ग म प ध नि सा इन्हीं सात सुरों पर पूरा संगीत टिका हुआ है। सा और रे यानी स्रोत। ग से अर्थ है हमारा गांव। अर्थात सा रे गा संगीत के तीन स्वर गांव की निश्चल धरती पर ही पाए जाएंगे। शहर की भीड़ भाड़ में जहां पर पैसे की दुकान चल रही है वहां पर संगीत के निश्चल स्वर हमें प्राप्त नहीं होंगे।

इन तीन सुरों के बाद अगला सुर “म” है। “म” का अर्थ है मानव। अब हम मनुष्य हो गए। गांव की निश्चल धरती पर संगीत के स्वर प्राप्त करने लायक हो गए। परंतु अब हमें “प” यानी पवित्र और पराक्रमी बनना है। पवित्र होने के बाद हम अब अपने देवता हनुमान जी को जानने के लायक हो गए। अगर आप “ध” धन के चक्कर में फंसे तो आप फंस गए। आप गांव के निश्चल मानव नहीं रहे। आपको तो कोई भी खरीद सकता है। थोड़ा सा वेतन, थोड़ी ज्यादा लालच देकर कोई भी आपके हृदय में परिवर्तन कर सकता है। अगर आपको ऋषियों के दिखाए हुए मार्ग से चलकर पवित्र बनना है तो आपको धन से बचना है और दूसरे “ध” यानी धर्म को अपनाना है। आपको अपना धर्म और जीवात्मा का धर्म दोनों धर्म को निभाना है। आपका अपना धर्म जैसे कि अगर आप पुत्र हैं तो पिता की आज्ञा को मानना,अगर आप सैनिक हैं तो अपने कमांडर की बात को मानना आपका धर्म है। आपके जीवात्मा का धर्म है पवित्र रास्ते पर चलकर परमात्मा से एकाकार होना।

परंतु यह कैसे होगा। आपको पवित्र रास्ते पर चलने के “नि” अर्थात नियमों को मानना पड़ेगा। पवित्र रास्ते के अंत में हमारा हनुमान बैठा हुआ है। अब हम अपने हनुमान से “सा” साक्षात्कार कर सकते हैं।

हे पवन पुत्र अब मैं आपका हूं। मैं आपके साथ जुडा हुआ हूँ। आपका हूँ अतः माँगना हो तो आप से ही माँगूँगा। अगर परिवार का कोई भी व्यक्ति पडोसी के पास माँगने जाता है तो पातकी कहलाता है और घर की बेआबरु होती है। आप तो सीताराम के दास हैं। अब श्रीराम से कुछ भी मांगना आपका काम है। मुझे कुछ भी दिलाना आपका काम है। इस प्रकार अपने को और हनुमान जी को पहचानकर जीव सब बंधनों से मुक्त होता है। इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है :-

 ‘तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दु:ख बिसरावै।’

पवित्र संगीत की एक बहुत अच्छी कहानी है। अकबर के दरबार में तानसेन जो एक महान संगीतज्ञ थे,रहा करते थे। एक बार उन्होंने अकबर को एक बहुत सुंदर तान सुनाई। इस तान को सुनकर अकबर अत्यंत प्रसन्न हो गया। उसने कहा तानसेन जी आप विश्व के सबसे बड़े संगीतज्ञ हो। तानसेन ने उत्तर दिया कि जी नहीं, मेरे गुरु जी मुझसे अत्यंत उच्च कोटि के संगीतकार हैं। अकबर इस बात को मानने को तैयार नहीं था।अकबर ने कहा अपने गुरु जी को मेरे पास बुलाओ। तानसेन ने जवाब दिया यह संभव नहीं है। मेरे गुरु जी अपने कुटिया को छोड़कर और कहीं नहीं जाते हैं। अगर आपको उनका संगीत सुनना है तो उनके पास जाना पड़ेगा और इस बात का इंतजार करना होगा कि कब उनकी इच्छा संगीत सुनाने को होती है। अकबर तैयार हो गया।

अकबर और तानसेन दोनो वेष बदलकर गए। वहां पर जाकर इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि गुरुदेव कब अपना संगीत सुनाते हैं। एक दिन प्रात:काल के समय सूर्य भगवान का उदय हो रहा था। सूर्य भगवान अपनी लालीमा बिखेर रहे थे। पक्षियों की किलबिलाहट चल रही थी और गुरुजी भगवान गोपालकृष्ण के मंदिर में, भगवान को रिझाने के लिए तान छेड दिए थे। शुद्ध आध्यात्मिक संगीत बज रहा था। तानसेन और अकबर दोनो छुपकर गुरुजी के संगीत का आनंद लिया। बादशहा अकबर गुरुजी का संगीत सुनकर मंत्रमुग्ध हो गया। उसने तानसेन से कहा कि आप बिल्कुल सही कह रहे थे। गुरुदेव का संगीत सुनने के उपरांत आपका संगीत थोड़ा कच्चा लग रहा है। अकबर ने तानसेन से पूछा इतना अच्छा गुरु मिलने के बाद भी आपके संगीत में कमी क्यों है।

तानसेन ने जो जवाब दिया वह सुनने लायक है। उसने कहा बादशाह, “मेरा जो संगीत है वह दिल्ली के बादशहा को खुश करने के लिए है, और गुरुदेव का जो संगीत है वह इस जगत के बादशाह (भगवान ) को प्रसन्न करने के लिए है। इसीलिए यह फर्क है।” अतः भजन सामने बैठी जनता की प्रसन्नता के लिए नहीं गाना चाहिए।अगर आपको हनुमान जी से लो लगाना है तो आप को पवित्र होकर हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए भजन गाना चाहिए।

इसके बाद इस चौपाई के आखरी कुछ शब्द हैं “जनम जनम के दुख विसरावें” जन्म जन्म को पुनर्जन्म भी कहते हैं।

पुनर्जन्म एक भारतीय सिद्धांत है जिसमें जीवात्मा के वर्तमान शरीर के समाप्त होने के बाद उसके पुनः जन्म लेने की बात की जाती है। इसमें मृत्यु के बाद पुनर्जन्म की मान्यता को स्थापित किया गया है। विश्व के सब से प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर वेद, दर्शनशास्त्र, पुराण, गीता, योग आदि ग्रंथों में पूर्वजन्म की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार शरीर का मृत्यु ही जीवन का अंत नहीं है परंतु जन्म जन्मांतर की श्रृंखला है। 84 लाख या 84 लाख प्रकार की योनियों में जीवात्मा जन्म लेता है और अपने कर्मों को भोगता है। आत्मज्ञान होने के बाद जन्म की श्रृंखला रुकती है; फिर भी आत्मा स्वयं के निर्णय, लोकसेवा, संसारी जीवों को मुक्त कराने की उदात्त भावना से भी जन्म धारण करता है। इन ग्रंथों में ईश्वर के अवतारों का भी वर्णन किया गया है। पुराण से लेकर आधुनिक समय में भी पुनर्जन्म के विविध प्रसंगों का उल्लेख मिलता है।

श्रीमद्भगवद्गीता के कर्म योग में भगवान श्री कृष्ण भगवान ने पूर्व जन्म के संबंध में विस्तृत विवेचना की है। कर्म योग का ज्ञान देते समय भगवान श्री कृष्ण ने,अर्जुन से कहा, “तुमसे पहले यह ज्ञान मैंने सृष्टि के प्रारंभ में केवल सूर्य को दिया है और आज तुम्हें दे रहा हूं।” अर्जुन आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने कहा कि आपका जन्म अभी कुछ वर्ष पहले हुआ है। सूर्य देव तो सृष्टि के प्रारंभ से हैं। आप उस समय जब पैदा ही नहीं हुए थे तो सूर्य देव को यह ज्ञान कैसे दे सकते हैं। कृष्ण ने कहा कि, ‘तेरे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, तुम भूल चुके हो किन्तु मुझे याद है। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से यह कहा :-

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५ ॥

अर्थात:- श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, किंतु हे परंतप ! तू (उन्हें) नहीं जानता।

गीता का यह श्लोक तो निश्चित रूप से आप सभी को मालूम ही होगा :-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

 -श्रीभगवद्गीता 2.22

जैसे मनुष्य जगत में पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नवीन शरीरों को प्राप्त करती है।

अब हम इस जन्म में जो कुछ भोग रहे हैं वह केवल आपकी इसी जन्म के कर्मों का फल नहीं है। आत्मा ने जो पिछले जन्म में कर्म किए हैं उनकी फल भी इस जन्म में भी आत्मा को प्राप्त होते हैं। हम यह देखते हैं कि कुछ लोग अत्यंत निंदनीय कार्य करते हैं परंतु उनको फल बहुत अच्छे अच्छे मिलते हैं। इसका क्या कारण है। ज्योतिष में इसको राजयोग बोला जाता है। यह भी देखा गया है किसी व्यक्ति को कुछ भी ज्ञान नहीं है। वह कई कॉलेजों के गवर्निंग बॉडी में चेयरमैन। जिस को विज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं है वह विज्ञान के संस्थानों का नियंत्रक होता है। यह क्या है ? इसी को पूर्व जन्म का का फल कहते हैं। अब अगर आप यह चाहते हैं कि पूर्व जन्मों मैं आप द्वारा किए गए कुकर्मों का फल आपको इस जन्म में ना मिले तो आपको शुद्ध चित्त से महावीर दयालु हनुमान जी का भजन करना होगा। इस भजन के लिए आपके कंठ का बहुत अच्छा होना आवश्यक नहीं है। भाषा का अद्भुत ज्ञान होना आवश्यक नहीं है। आवश्यक है तो तो सिर्फ यह कि आप पूरे एकाग्र होकर मन वचन ध्यान से हनुमान जी का भजन गाएं। हनुमान जी और राम जी की कृपा आप पर हो और पूर्व जन्म के पाप से आप बच सके।

अगली लाइन में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है “अन्त काल रघुबर पुर जाई | जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ||”

यह लाइन पूरी तरह से इसके पहले की लाइन तुम्हारे भजन राम को पावै जनम जनम के दुख विसरावें” से जुड़ी हुई है।

अगर कोई व्यक्ति एकाग्र होकर मन क्रम वचन से हनुमान जी की आराधना करेगा तो उस व्यक्ति के जनम जनम के दुख समाप्त हो जाएंगे। इसके ही आगे हैं की अंत में वह रघुवर पुर में पहुंचेगा वहां उसको हरि का भक्त कहा जाएगा। इस प्रकार मानव का मुख्य कार्य हनुमान जी का एकाग्र होकर भजन करना है। तभी उसके दुख समाप्त होंगे।जन्मों का बंधन समाप्त होगा। अंत काल में रघुवरपुर पहुंचेंगा और वहां पर उनको हरि भक्त का दर्जा मिलेगा। यहां पर समझने लायक बात यह है रघुवरपुर और हरिभक्त का पद क्या है।

अक्सर लोग इस बात को कहते हैं कि मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा क्योंकि मुझे ऊपर जाकर जवाब देना होगा। ऊपर जाकर जवाब देने वाली बात क्या है ? हिंदू धर्म के अनुसार तो आप जो भी गलत या सही करते हैं उसका पूरा हिसाब होता है। आपकी आत्मा जब यमलोक पहुंचती है तो वहां पर आपके कर्मों का हिसाब किताब होता है। मृत्यु के 13 दिन के उपरांत आप पुनः कोई दूसरा शरीर पाते हैं या हरिपद मिलता है। आप के जितने अच्छे काम या खराब काम होते हैं उसके हिसाब से आपको पृथ्वी पर नए शरीर में प्रवेश मिलता है। अगर आपके कार्य अत्यधिक अच्छे हैं,जैसा कि पुराने ऋषि मुनियों का है,तो आपको गोलोक या रघुवरपुर में हरिपद मिलेगा। हमारे यहां ऊपर जाकर आपको जवाब नहीं देना है। रघुवर पुर को तुलसीदास जी ने स्पष्ट नहीं किया है। रघुवर पुर बैकुंठ लोक को भी कहा जा सकता और अयोध्या को भी। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने बैकुंठ और अयोध्या जी दोनों को प्रतिष्ठित माना है।

रामचरितमानस में अयोध्या जी का वर्णन करते हुए कहा गया है:-

बंदउ अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।

यद्यपि सब बैकुंठ बखाना, वेद-पुराण विदित जग जाना।।

इस प्रकार अयोध्या जी को वैकुंठ से श्रेष्ठ कहा गया है। अगले स्थान पर अयोध्या जी में रहने वालों को भी सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।

अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।

अति प्रिय मोहि इहां के बासी, मम धामदा पुरी सुख रासी।।

भगवान श्रीराम भी कहते हैं कि अवधपुरी के समान मुझे अन्य कोई भी नगरी प्रिय नहीं है। यहां के वासी मुझे अति प्रिय हैं।

इस प्रकार रामचंद्र जी ने अयोध्या जी को बैकुंठ से भी श्रेष्ठ बताया है। अतः राम भक्तों के लिए मृत्यु के बाद अयोध्या में वापस जन्म लेना और हरि भक्त कहलाना सबसे बड़ा वरदान है।

अब्राहम धर्म जिसमें ईसाई धर्म और मुस्लिम धर्म आदि आते हैं इनमें मृत्यु के बाद शव को जमीन के अंदर कब्र में दफन किया जाता है। ईसाई धर्म के धर्मगुरु कहते हैं कि  Last Judgment Day के दिन God हर किसी से उसके द्वारा किए गए गलत कामों का उत्तर मांगेगा। इसी प्रकार मुस्लिम धर्मगुरु कहते हैं कि कयामत के दिन यह सभी मुर्दे कब्र के बाहर आएंगे और उनसे अल्लाह मियां उनके द्वारा किए गए कामों का कारण पूछेगा।

बाइबल के अनुसार Last Judgment Day या आखिरी दिन सभी मरे हुए ज़िंदा किए जाएँगे। उनकी आत्माएं फिर से उन्हीं शरीरों से मिल जाएंगी जो मरने से पहले उनके पास थीं। बुरा काम करने वालों को खराब शरीर दिया जाएगा और अच्छे काम करने वालों को अच्छे शरीर दिए जाएंगे। अच्छे काम करने वालों की उस दिन तारीफ होगी और बुरे काम करने वालों को दंड मिलेगा।

 लेकिन हिंदू धर्म में स्थिति भिन्न है। मृत्यु के 13 दिन बाद आत्मा दूसरे शरीर को धारण करती है। यह शरीर उसको उसके पहले के जन्म में किए गए कार्यों के आधार पर मिलता है। जैसे कि उसने अच्छा काम किया है उसको सुंदर शरीर जिसने खराब काम किया है उसको बदसूरत शरीर जिसने अच्छा काम किया है उसको अमीर शरीर जिसने खराब काम किया है उसको गरीब शरीर आदि आदि।

इस प्रकार यह सब कुछ आप पर निर्भर है। आप इस जन्म में कितनी एकाग्रता के साथ मन क्रम वचन से हनुमान जी की विनती करते हैं, उनका भजन करते हैं,उनका पूजन करते हैं। उसी हिसाब से आपका अगला जन्म निर्धारित होगा।

जय श्री राम। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #177 ☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 177 ☆

☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द 

‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… एहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।

‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।

‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’… अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।

‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं… आप सबके प्रेरणा-स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।

‘सपने देखो, ज़िद्द करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग-दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद्द है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।

आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण… कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को  रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।

‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।

मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद्द होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ ईमानदारी का तावीज… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ईमानदारी का तावीज”।)  

? अभी अभी ⇒ ईमानदारी का तावीज? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

ईमानदारी का कोई कॉपीराइट नहीं होता। सबको ईमानदार बनने का हक है। किताबों के शीर्षक और फिल्मों के शीर्षकों का भी कॉपीराइट होता है, फिर भी एक अवधि के पश्चात देवदास और दीवाना दुबारा बन ही जाती है। ईमानदारी के तावीज पर किसी और का कॉपीराइट सही,मेरी ईमानदारी मौलिक है।

गंडा-तावीज एक टोटका भी हो सकता है, मन्नत भी हो सकती है। हर तरह की बला से सुरक्षा भी हो सकती है। तावीज भूत-प्रेतों से भी रक्षा करता है। यह गले में एक इन-बिल्ट  हनुमान चालीसा है, अपने आप में संकट-मोचक है।।

मनमोहन देसाई की फिल्मों में हीरो के गले में बंधा एक तावीज उसकी आजीवन रक्षा करता है, छाती पर बरसती गोली तक को वह आसानी से झेल लेता है लेकिन जब वह तावीज अपनी जगह छोड़ देता है,कयामत आ ही जाती है।

आप अपना काम कीजिए, तावीज अपना काम करेगा। उस्तादों और पहलवानों से गंडा बंधवाया जाता है। आप सिर्फ रियाज कीजिये,गंडा अपना काम करेगा। संगीत की तरह ही अब राजनीति,और साहित्य में भी गंडा-प्रथा ने अपने पाँव जमा लिए हैं।।

जब से मैंने ईमानदारी का तावीज पहना है,मेरे सभी काम आसानी से होने लग गए हैं। लोग मेरा चेहरा और आधार कार्ड तक नहीं देखते,जब ईमानदारी का इतना बड़ा चरित्र प्रमाण-पत्र गले में किसी विश्वविद्यालय की डिग्री की तरह सुशोभित है,तो फिर कैसी औपचारिकता।

जिस तरह एक ड्राइविंग लाइसेंस आपको गाड़ी चलाने की छूट प्रदान करता है,ईमानदारी का तावीज हमेशा बेईमानी और भ्रष्टाचार के लांछन से मेरा बचाव करता है। मेरी नीयत पर कोई शक नहीं करता। दुनिया मुझे दूध से धुला हुआ समझती है।।

पर हाय रे इंसान का नसीब !

मेरी पत्नी को ही मेरी ईमानदारी पर शक है। घर में हमेशा एक ही राग, और एक ही गाना गाया करती है। जा जा रे जा, बालमा ! उसे मेरे ईमानदारी के तावीज पर रत्ती भर विश्वास नहीं। वह इन ढकोसलों को नहीं मानती। उसका मानना है कि ईमानदारी व्यवहार में होनी चाहिए, दिखावे में नहीं।

आस्था और संस्कार में द्वंद्व पैदा हो गया है। वह रूढ़ि और अंध-विश्वास के खिलाफ है। गंडे तावीज लटकाने से कोई ईमानदार नहीं हो जाता ! ईमानदारी आचरण में उतारने की चीज है,गले में तमगे की तरह लटकाने की नहीं। पत्नी की बात में दम है। मैंने आव देखा न ताव ! बजरंग बली का नाम,और पत्नी की प्रेरणा से ईमानदारी का तावीज तोड़ ही डाला।ईमानदारी की देवी, जहाँ भी कहीं हो, मुझे क्षमा करे।।

मेरी पत्नी चतुर सुजान है ! मैंने कभी उसके इरादों पर शक नहीं किया। लेकिन जब रात को ही ईमानदारी का तावीज उतरवाया और सुबह एक दूसरा तावीज पहनने का आग्रह किया,तो मैं कुछ समझा नहीं !

वह बोली, कोई प्रश्न मत करो ! चुपचाप यह तावीज पहन लो।यह देशभक्ति का तावीज है। चुनाव में बहुत काम आएगा ! और उसने अपने कोमल हाथों से मुझे देशभक्ति का तावीज पहना दिया। पत्नी-भक्त तो में था ही, आज से देशभक्त भी हो गया।।

तावीज गवाह है..!!!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ ढाई आखर हम्म का … ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ढाई आखर हम्म का “।)  

? अभी अभी  ⇒ ढाई आखर हम्म का ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमारे अक्षर ज्ञान में हमने कई ढाई आखर प्रेम से और जबरदस्ती भी सीखे हैं,विद्या,ज्ञान और शिक्षा की दीक्षा हमें ढाई आखर वाले, वर्मा, शर्मा, व्यास और मिश्रा जैसे गुरुओं से ही प्राप्त हुई है,लेकिन ढाई आखर का हम्म हमें आज तक किसी बाल भारती अथवा शब्दकोश में नजर नहीं आया।

दो अक्षर की कथा, तीन अक्षर की कहानी, और ढाई आखर की अंग्रेजी की स्टोरी भी हमने ख़ूब पढ़ी, लेकिन मजाल है कि रानी केतकी की कहानी से लेकर उसकी रोटी तक कहीं भी हमें, हम्म शब्द नजर आया हो । हमारी पूरी जिंदगी भी हम, हमारे और हमारी जैसे शब्दों से ही गुजर गई, लेकिन किसी अंग्रेजी स्टोरी में भी Hmm शब्द नजर नहीं आया ।।

आखिर आज की कथा, कहानियों और ब्लॉग में यह हम्म वाला वायरस कहां से चला आया। चावल में कंकर और रास्ते में स्पीड ब्रेकर की तरह जब किसी वाक्य में हमें हम्म पड़ा नज़र आता है,तो हम उसे उलांघकर नहीं निकल सकते । हम भी मन में एक मंत्र की तरह हम्म, गुनगुना ही लेते हैं, मानो हम्म्म, कोई टोटका हो ।

हमें बार बार बस यही खयाल आता है कि हम्म, इसकी जरूरत क्या है । हमने आज तक अपनी भाषा में इसका प्रयोग क्यों नहीं किया। क्या अवचेतन में, बोलचाल में, गलती से भी, हमारे मुंह से भी, यह ढाई आखर प्रकट हुआ है । तो जवाब यही आता है, हुंह! हम क्या जानें ।।

हमारा गूगल ज्ञान तो यह कहता है कि, हम्म Hmm का मतलब हां, हूं, yes कुछ भी हो सकता है । Hmmm एक ऐसा शब्द है जिसे हम अपने expressions को व्यक्त करने के लिए प्रयोग करते हैं। पहला कवि वियोगी कहलाता है, उसी तर्ज पर कोई तो पहला लेखक होगा, जिसने सबसे पहले पहल इस ढाई अक्षर के हम्म जैसे हथौड़े का प्रयोग किया होगा ।

जहां चाह है वहां राह है, लेकिन हम राह में इतना भी नहीं भटकना चाहते कि अर्थ का अनर्थ ही हो जाए । एक ज्ञान तो यह भी कहता है कि जब इसका प्रयोग HMM की तरह होता है तो आप इसे hug me more भी समझ सकते हैं। हम HMM के इस तरह के दुरुपयोग से पूरी तरह असहमत हैं ।।

हम अपने लेखन और व्यंग्य में ढाई आखर के इस हम्म की प्रयोग की संभावनाओं पर शोध कर रहे हैं । डा.कामिल बुल्के, भोलानाथ तिवारी अथवा डा.हरदेव बाहरी के शब्दकोश तो खैर हमारे मार्गदर्शक हैं ही, वरिष्ठ मनीषी, विद्वान एवं साहित्यविद् भी हमें आशीर्वाद और सहयोग प्रदान करेंगे, ऐसी आशा है । हम्म पे बड़ी जिम्मेदारी, देख रही दुनिया सारी ।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ कुआं और बावड़ी ००० Well & Step Well… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

?अभी अभी  – कुआं और बावड़ी ००० Well & Step Well… ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जिन्होंने दिल्ली देखी है,उन्होंने धौला कुआं और खारी बावली का नाम भी सुना होगा । मेरे शहर में भी एक ढक्कन वाला कुआं है,जहां आज न तो कोई ढक्कन है और न ही कोई कुआं,बस एक प्राइवेट बस अड्डा है,जहां से बसें आती जाती रहती हैं ।

कभी कुएं बावड़ी बनवाना और तालाब खुदवाना परमार्थ का कार्य माना जाता था। सेठ साहूकार अपने नाम से राहगीरों के लिए धर्मशालाएं,औषधालय और प्याऊ का निर्माण करते थे । आदमी पहले कुआं खुदवाता था और उसके बाद ही घर बनवाता था । गांव के किसान के खेत में भी कुआं उसकी पहली जरूरत थी । जहां नदी तालाब नहीं होते थे,वहां बावड़ियां  बनवाई जाती थी ।।

हमारी देवी अहिल्या की नगरी तो पुण्य और परमार्थ की नगरी है । एक समय यहां कितने धर्मार्थ औषधालय,धर्मशालाएं, चिकित्सालय, स्कूल कॉलेज,शीतल जल की प्याऊ और सार्वजनिक वाचनालय थे ।

आज जिसे सराफा चौराहा कहते हैं,वहां कोने पर कभी वैद्य ख्यालीराम जी द्विवेदी का पारमार्थिक औषधालय तो था ही,उसी से लगी हुई एक शीतल जल की प्याऊ भी थी ।

हर चार कदम पर जहां प्यासे को पानी मिल जाए उस नगर में कभी पिपल्या पाला,सिरपुर,बिलावली और यशवंत सागर जैसे तालाब थे । आज तो बस नर्मदे हर ।।

कुएं और बावड़ी में अंतर है । कुएं में से पानी रस्सी  बाल्टी से निकाला जाता था ,जब कि बावड़ी में नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां होती थीं । शायद इसीलिए कुएं को अंग्रेजी में well और बावड़ी को step well कहते थे ।  जब इंसान ने सीढ़ियां चढ़ना उतरना ही बंद कर दिया तो बेचारी बावड़ी भी क्या करे ।

आम आदमी के लिए अगर कुआं था,तो महलों में बावड़ियां होती थीं । एक मंजिल नहीं,कई मंजिल गहरी ,सीढ़ियों वाली बावड़ियां । इंसान का बस चलता तो वह पाताल तक सीढियां बनाकर पानी ले आता ।।

जब उसका बस नहीं चला तो उसने कुएं और बावड़ियों में मोटर लगवा ली । बढ़ती जनसंख्या और घटते जल स्तर के कारण जब कुएं सूखने लगे,तब इंसान आसमान में सूराख करने से तो रहा,उसने धरती में ही सूराख करना शुरू कर दिया । पहली स्टेप,well और step well की जगह पहले हैंड पंप और बाद में ,

घर घर धड़ल्ले से ट्यूबवेल खुदने लगे ।

जो इंसान पहले सीढ़ियों से

चढ़ता उतरता था,उसने अपने चढ़ने के लिए तो लिफ्ट लगा ली और जमीन के अंदर से पानी ऊपर लाने के लिए सबमर्सिबल पंप । हमारी धरती माता के प्रति सब mercy एक तरफ,पहले bore well तत्पश्चात् सबमर्सिबल ।।

होगा कभी किसी कुएं का पानी मीठा,आज का ट्यूबवेल का पानी तो बर्तन भी खराब करता है और पीने लायक नहीं रहता ।

कहीं pure it तो कहीं प्यूरीफायर,कहीं एक्वागार्ड तो कहीं हेमा मालिनी का

KENT. शुद्ध पानी,सेंट परसेंट ।

आज शहरों के अधिकांश पुराने कुएं और बावड़ियां जमींदोज़ हो चुकी हैं । हमारे रामबाग के एक घर के कुएं को मिट्टी में मिलाने का पाप हमारे भी सर है ।

कितनी बावड़ियों पर हमने बाद में मकान और भवन बनते देखे हैं । गोराकुंड पहले क्या था,सब जानते हैं ।।

हमारे शहर में, ऐन रामनवमी के पर्व पर जो हृदय विदारक हादसा हुआ है,वहां भी दुर्भाग्य से एक जीती जागती,पानी से भरी बावड़ी ही थी ।

इंसान अपने सोर्स ऑफ़ इनकम को बढ़ाने के लिए लालच के अंधे कुएं में भी जाने को तैयार है । वह परमार्थ की सीढ़ियां तो नहीं चढ़ना चाहता लेकिन पाप की सीढ़ियां अगर पाताल तक जा रही हों,तो वहां तक भी उतरने को आमादा है ।।

कुएं,बावड़ी,तालाब हमारी प्राकृतिक धरोहर हैं,नगर महानगर बनते की होड़ में आसपास के गांवों में भी अतिक्रमण करने लगे हैं ।

हमारे भू माफिया गांव के नियम कायदों का गलत फायदा उठाकर प्रशासन की आंखों में धूल झोंककर वहां भी आधुनिक आलीशान महल तैयार करते चले जा रहे हैं । लोकतंत्र में राजसी जीवन तो संभव है,लेकिन कहीं परमार्थ का अता पता नहीं । इसे ही शायद हमारी मालवी भाषा में कुएं में भांग और हरियाणवी में बावली बूच कहते हों ।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 28 – चलते फिरते ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 28 – चलते फिरते ☆ श्री राकेश कुमार ☆

समय ऑनलाइन का है, घर बैठे खाद्य सामग्री, कपड़े, विद्युत उपकरण, दैनिक उपयोग का प्रायः सभी समान कुछ मिनट में आपके द्वार पहुंच जाता हैं।

अभी भी कुछ वस्तुएं जैसे पेट्रोल, बैंक से नक़द राशि आदि आपको स्वयं प्राप्त करने के लिए जाना पड़ता है। यहां विदेश में कुछ वस्तुएं “Drive thru” (चलते फिरते) के नाम से उपलब्ध करवाई जाती हैं। इसकी शुरुआत “मैकडोनाल्ड” नामक खाद्य प्रतिष्ठान ने किया था।

बैंक के एटीएम से भी आप अपनी कार में बैठे हुए ही राशि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक स्थान पर एक साथ पांच कार चालक राशि निकाल सकते हैं।

यहां पर सुबह के नाश्ते के लिए प्रातः छः बजे से “Dunken Donald” नाम के प्रतिष्ठान से कॉफी, नाश्ता और पानी इत्यादि कार में बैठ कर मशीन में आदेश देकर आगे खाद्य खिड़की से प्राप्त कर बिना कार से बाहर निकले प्राप्त कर अपनी यात्रा जारी रख सकते हैं। यहां के लोग कॉफी के बड़े बड़े ग्लास जिसका मुंह बंद रहता है, से पीते रहते हैं। एक दो मील की दूरी पर ये दुकान मिल जाती हैं। हमारे यहां भी किसी ना किसी कोने या गली के नुक्कड़ पर चाय की गुमटी/टपरी दिख जाती हैं। जहां पर टपरी में कार्यरत छोटू आपकी चाय बाइक या कार में पेश कर देता हैं। हमारे यहां तो कट या एक के दो कप चाय का प्रावधान हैं।

यहां पर कुछ दवा दुकानें भी ऑनलाइन ऑर्डर की डिलीवरी कार में बैठे बैठे ही निर्धारित खिड़की से कर देती हैं।

पेट्रोल पंप पर आपको कार से बाहर निकलना ही पड़ता है,और पेट्रोल पाइप को स्वयं कार में लगाना पड़ता है। पेट्रोल पम्प प्रांगण पर कोई भी कर्मचारी नहीं होता है। अंदर केबिन में कुछ व्यक्ति अवश्य बैठे हुए दिख जाते हैं। वाहन में हवा सुविधा के लिए डेढ़ डॉलर भुगतान कर स्वयं ही हवा भरनी पड़ती हैं।

सत्तर के आरंभिक दशक में हमारे यहां साइकिल के एक चक्के में हवा भरने के लिए पांच पैसे शुल्क था, बाद में इसे दस पैसे कर दिया गया था, तो हमारे जैसे साइकिल प्रेमियों ने इस बात को लेकर विरोध किया था कि सौ प्रतिशत की वृद्धि बहुत अधिक है। कुछ दुकानें मुफ्त में हवा भरने के पंप उपलब्द करवाती थी, वहां उस समय भीड़ बढ़ गई थी।

कार में बैठे बैठे सिनेमा का आनंद तो हमारे देश में भी विगत कुछ वर्ष से लिया जा सकता हैं। यहां तो विवाह भी अब Drive thru सुविधा के तहत होने लगे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 18 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 18 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥

अर्थ:- आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।

भावार्थ:- यहां पर रसायन शब्द का अर्थ दवा है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के पास में राम नाम का रसायन है। इसका अर्थ हुआ हनुमान जी के पास राम नाम रूपी दवा है। आप श्री रामचंद्र जी के सेवक हैं इसलिए आपके पास नामरूपी दवा है। इस दवा का उपयोग हर प्रकार के रोग में किया जा सकता है। सभी रोग इस दवा से ठीक हो जाते हैं।

संदेश:- ताकतवर होने के बावजूद आपको सहनशील होना चाहिए।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई के बार बार पाठ करने से होने वाले लाभ:-

राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥

 इस चौपाई का बार बार पाठ करने से रहस्यों की प्राप्ति होती है।

विवेचना:- मेरा यह परम विश्वास है कि अगर आप बजरंगबली के सानिध्य में हैं,बजरंगबली के ध्यान में है तो किसी भी तरह की व्याधि और, विपत्ति आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती हैं। क्योंकि बजरंगबली के पास राम नाम का रसायन है। अज्ञेय कवि ने कहा है:-

क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी?

क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी? व्यर्थ जिसको मापने में हैं विधाता की भुजाएँ— वह पुरुष मैं, मर्त्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

मैं हनुमान जी के ध्यान में हूं तो मैं मृत्यु से भी क्यों डरूं। मैं अपने आप को छोटा क्यों समझूं। हमारे हनुमान जी के पास तो राम नाम का रसायन है।

यह राम नाम का रसायन क्या है। पहले इस चौपाई के एक एक शब्द की चर्चा करते हैं।

राम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है रम् + घम। रम् का अर्थ है रमना या निहित होना। घम का अर्थ है ब्रह्मांड का खाली स्थान। इस प्रकार राम शब्द का अर्थ हुआ जो पूरे ब्रह्मांड में रम रहा है वह राम है। अर्थात जो पूरे ब्रह्मांड में जो हर जगह है वह राम है।

 राम हमारे आराध्य के आराध्य का नाम भी है। पहले हम यह विचार लेते हैं कि हम श्री राम को अपने आराध्य का आराध्य क्यों कहते हैं। हमारे आराध्य हनुमान जी हैं और हनुमान जी के आराध्य श्री राम जी हैं। इसलिए श्री राम जी हमारे आराध्य के आराध्य हैं। हनुमान जी स्वयं को, अपने आप को श्री राम का दास कहते हैं। यह भी सत्य है कि सीता जी ने भी हनुमान जी को श्री राम जी के दास के रूप में स्वीकार किया है।:-

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास

जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥13॥

(रामचरितमानस/ सुंदरकांड/ दोहा क्र 13)

अर्थ:- हनुमान जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥

हनुमान जी के सभी भक्तों को यह ज्ञात है श्री राम जी हनुमान जी की आराध्य हैं। फिर भी हनुमानजी के भक्त सीधे श्री राम जी के भक्त बनना क्यों नहीं पसंद करते हैं।

बुद्धिमान लोग इसके बहुत सारे कारण बताएंगे परंतु हम ज्ञानहीन लोगों के पास ज्ञान की कमी है।इसके कारण हम बुद्धिमान लोगों की बातों को कम समझ पाते हैं। मैं तो सीधी साधी बात जानता हूं। हम सभी हनुमान जी के पुत्र समान है और हनुमान जी अपने आप को रामचंद्र जी के पुत्र के बराबर मानते हैं। इस प्रकार हम सभी श्री राम जी के पौत्र हुए। यह बात जगत विख्यात है कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है या यह कहें पुत्र से ज्यादा पौत्र प्यारा होता है। इस प्रकार हनुमान जी के भक्तों को श्री रामचंद्र जी अपने भक्तों से ज्यादा चाहते हैं। इसलिए ज्यादातर लोग पहले हनुमान जी से लगन लगाना ज्यादा पसंद करते हैं।

हम पुर्व में बता चुके हैं श्रीराम का अर्थ है सकल ब्रह्मांड में रमा हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं परमब्रह्म।

शास्त्रों में लिखा है, “रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं।

भारतीय समाज में राम शब्द का एक और उपयोग है। जब हम किसी से मिलते हैं तो आपस में अभिवादन करते हैं। कुछ लोग नमस्कार करतें हैं। कुछ लोग प्रणाम करतें हैं और कुछ लोग राम-राम कहते हैं। यहां पर दो बार राम नाम का उच्चारण होता है जबकि नमस्कार या प्रणाम का उच्चारण एक ही बार किया जाता है। हमारे वैदिक ऋषि-मुनियों ने जो भी क्रियाकलाप तय किया उसमें एक विशेष साइंस छुपा हुआ है। राम राम शब्द में भी एक विज्ञान है। आइए राम शब्द को दो बार बोलने पर चर्चा करते हैं।

एक सामान्य व्यक्ति 1 मिनट में 15 बार सांस लेता छोड़ता है। इस प्रकार 24 घंटे में वह 21600 बार सांस लेगा और छोड़ेगा। इसमें से अगर हम ज्योतिष के अनुसार रात्रि मान के औसत 12 घंटे का तो दिनमान के 12 घंटों में वाह 10800 बार सांस लेगा और छोड़ेगा। क्योंकि किसी देवता का नाम पूरे दिन में 10800 बार लेना संभव नहीं है।इसलिए अंत के दो शुन्य हम काट देते हैं। इस तरह से यह संख्या 108 आती है। इसीलिए सभी तरह के जाप के लिए माला में मनको की संख्या 108 रखी जाती है। यही 108 वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार पूर्ण ब्रह्म का मात्रिक गुणांक भी है। हिंदी वर्णमाला में क से गिनने पर र अक्षर 27 वें नंबर पर आता है। आ की मात्रा दूसरा अक्षर है और  “म” अक्षर 25 वें नंबर पर आएगा। इस प्रकार राम शब्द का महत्व 27+2+25=54 होता है अगर हम राम राम दो बार कहेंगे तो यह 108 का अंक हो जाता है जो कि परम ब्रह्म परमात्मा का अंक है। इस प्रकार दो बार राम राम कहने से हम ईश्वर को 108 बार याद कर लेते हैं,।

 मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति राम नाम की महिमा का गुणगान कहां कर पाएगा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :-

करऊँ कहा लगि नाम बड़ाई।

राम न सकहि नाम गुण गाई।।

स्वयं राम भी ‘राम’ शब्द की विवेचना नहीं कर सकते। ‘राम’ विश्व संस्कृति के नायक है। वे सभी सद्गुणों से युक्त है। अगर सामाजिक जीवन में देखें तो- राम आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श शिष्य के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। अर्थात् समस्त आदर्शों के एक मात्र न्यायादर्श ‘राम’ है।

क्योंकि राम शब्द की पूर्ण विवेचना करना मेरे जैसे  तुच्छ व्यक्ति के सामर्थ्य के बाहर है अतः इस कार्य को यहीं विराम दिया जाता है।

इस चौपाई का अगला शब्द रसायन जिसका शाब्दिक अर्थ कई हैं। जैसे :-

  1. पदार्थ का तत्व-गत ज्ञान
  2. लोहा से सोना बनाने का एक योग
  3. जरा व्याधिनाशक औषधि। वैद्यक के अनुसार वह औषध जो मनुष्य को सदा स्वस्थ और पुष्ट बनाये रखती है।

अगर हम रसायन शब्द का इस्तेमाल पदार्थ के तत्व ज्ञान के बारे में करते हैं यह कह सकते हैं के हनुमान जी के पास राम नाम का पूरा ज्ञान है। पूर्ण ज्ञान होने के कारण हनुमान जी रामचंद्र जी के पास पहुंचने के एक सुगम सोपान है। अगर आपने हनुमान जी को पकड़ लिया तो रामजी तक पहुंचना आपके लिए काफी आसान हो जाएगा।अगर आप सीधे रामजी के पास पहुंचना चाहोगे यह काफी मुश्किल कार्य होगा। अगर हम लोकाचार की बात करें तो यह उसी प्रकार है जिस प्रकार प्रधानमंत्री से मिलने के लिए हमें किसी सांसद का सहारा लेना चाहिए। मां पार्वती से मिलने के लिए गणेश जी का सहारा, गणेश जी की अनुमति लेना चाहिए। इस चौपाई से तुलसीदास जी कहना चाहते हैं रामजी तक आसानी से पहुंचने के लिए हमें पहले हनुमान जी के पास तक पहुंचना पड़ेगा।

अर्थ क्रमांक 2 में बताया गया है लोहा से सोना बनाने का जो योग होता है उसको भी रसायन कहा जाता है। अब यहां लोहा कौन है ? हम साधारण प्राणी लोहा हैं और अगर हमारे ऊपर पवन पुत्र हनुमान जी की कृपा हो जाए तो हम सोने में बदल जाएंगे। हनुमान जी के पास रामचंद जी का दिया हुआ लोहे को सोना बनाने वाला रसायन है।

अब हम तीसरे बिंदू पर आते हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के अनुसार किसी भी रोग, ताप, व्याधि को नष्ट करने के लिए विभिन्न रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इन रसायनों का पूरा स्टॉक हमारे महाबली हनुमान जी के पास राम जी की कृपा से है। अगर हनुमान जी की कृपा हमारे ऊपर रही तो हमें कभी भी रोग या व्याधि से परेशान नहीं होना पड़ेगा। हमारा शरीर और मन सदैव स्वस्थ रहेगा। मन के स्वस्थ रहने के कारण हमारे ऊपर पवन पुत्र की और श्री रामचंद्र जी की कृपा बढ़ती ही जाएगी।

यहां पर यह ध्यान देने वाली बात है कि ब्याधि का अर्थ केवल शारीरिक बीमारी नहीं है। बरन मानसिक परेशानियां भी व्याधि के अंतर्गत आती है। यह संस्कृत का शब्द है और यह साहित्य में एक भाव भी है। किसी भी प्रकार के  कष्ट पहुंचाने वाली वस्तु को भी व्याधि कहते हैं।

आयुर्वेद में इन सभी प्रकार की व्याधियों को दूर करने के लिए रसायनों का प्रयोग होता है। इसके अलावा आयुर्वेद के अनुसार वह औषध जो जरा और व्याधि का नाश करनेवाली हो। वह दवा जिसके खाने से आदमी बुड़ढ़ा या बीमार न हो उसको भी हम रसायन कहेंगे। ऐसी औषधों से शरीर का बल, आँखों की ज्योति और वीर्य आदि बढ़ता है। इनके खाने का विधान युवावस्था के आरंभ और अंत में है। कुछ प्रसिद्ध रसायनों के नाम इस प्रकार है। – विड़ग रसायन, ब्राह्मी रसायन, हरीतकी रसायन, नागवला रसायन, आमलक रसायन आदि। प्रत्येक रसायन में कोई एक मुख्य ओषधि होता है ; और उसके साथ दूसरी अनेक ओषधियाँ मिली हुई होती हैं।

परंतु राम रसायन एक ऐसी औषधि है जिनमें हर प्रकार की व्याधियों को दूर करने की क्षमता है। यह राम रसायन हमारे पवन पुत्र के पास है।

इस चौपाई का अगला वाक्यांश है “सदा रहो रघुपति के दासा”। जिसका सीधा साधा अर्थ भी है की हनुमान जी सदैव रामचंद्र जी के सेवा मैं प्रस्तुत रहे। रघुनाथ जी के शरण में रहे। हनुमान जी ने सदैव मनसा वाचा कर्मणा श्री रामचंद्र की सेवा की और और इसी बात का श्री रामचंद्र जी से आशीर्वाद भी मांगा।

बचपन में एक बार परमवीर हनुमान जी ने भगवान शिव के साथ अयोध्या के राजमहल में भगवान श्री राम को देखा था। बाद में सीता हरण के उपरांत जब श्री रामचंद्र जी ऋषिमुक पर्वत के पास पहुंचे तब वहां पर हनुमान जी सुग्रीव जी के आदेश से ब्राम्हण रुप में श्रीरामचंद्र जी के पास गये। हनुमान जी श्री रामचंद्र जी को पहचान नहीं पाए। बाद में श्री राम जी द्वारा बताने पर वे श्री रामचंद्र जी को पहचान गये। उन्होंने श्री रामचंद्र जी को अपना प्रभु बताते हुए कहा मैं मूर्ख वानर हूं। अज्ञानता बस आपको पहचान नहीं पाया परंतु आप तो तीन लोक के स्वामी हैं आप तो मुझे पहचान सकते थे।

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥

मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥

(रामचरितमानस /किष्किंधा कांड/1/4)

अर्थ:- फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से उनके हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्‌जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में। मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका। अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥

जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥

नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥

 (रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड/ 2/1)

अर्थ:- हे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े। (आप उसे न भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है॥1॥

ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥

सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥

(रामचरितमानस /किष्किंधा कांड/2/2)

अर्थ:- उस पर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)॥

श्री रामचंद्र जी का अयोध्या में राजतिलक हो चुका था। रामराज्य अयोध्या में आ गया था। रामचंद्र जी ने तय किया पुराने साथियों को उनके घर जाने दिया जाए। पहली मुलाकात के बाद से ही सुग्रीव, जामवंत, हनुमान जी, अंगद जी, विभीषण जी, सभी उनके साथ अब तक लगातार थे। अब आवश्यक हो गया था कि इन लोगों को घर जाने की अनुमति दी जाए। जिससे यह सभी लोग अपने परिवार जनों के साथ मिल सकें। विभीषण और सुग्रीव जी अपने-अपने राज्य में जाकर रामराज लाने का प्रयास करें। वहां की शासन व्यवस्था को ठीक करें। जाते समय श्री रामचंद्र जी सभी लोगों को कुछ ना कुछ उपहार दे रहे थे। जब सभी लोगों को श्री रामचंद्र जी ने विदा कर दिया उसके बाद हनुमान जी से पूछा कि उनको क्या उपहार दिया जाए। हनुमान जी ने कहा कि आपने सभी को कुछ ना कुछ पद दिया है। मुझे भी एक पद दे दीजिए। उसके उपरांत उन्होंने श्री रामचंद्र जी के पैर पकड़ लिए।

अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।

सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥16॥

(रामचरितमानस /उत्तरकांड /दोहा क्रमांक 16)

अर्थ:- हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यंत प्रेम करना॥

हनुमान जी द्वारा वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं-

यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले।

तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।

(वाल्मीकि रामायण /उत्तरकांड 40 / 17)

अर्थ : – ‘हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।’

जिसके बाद श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं-

‘एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:।

चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका

तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा।

लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।।’

(बाल्मीकि रामायण /उत्तरकांड/40/21-22)

अर्थात् :- ‘हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण रहेंगे। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।

एक दिन, विभीषण जी ने समुद्र की दी हुई एक उत्तम कोटि का अति सुंदर माला सीता मां को भेंट की। सीता मां ने माला ग्रहण करने के उपरांत श्री राम जी की तरफ देखा। रामजी ने कहा कि तुम यह माला उसको दो जिस पर तुम्हारी सबसे ज्यादा अनुकंपा है। सीता मैया ने हनुमान जी को मोतीयों की यह माला भेट दी। हनुमान जी ने माला को बड़े प्रेम से ग्रहण किया। उसके उपरांत हनुमान जी एक एक मोती को दांतोसे तोड़ कर कान के पास ले जाते और फिर फेंक देते। अपने भेंट की इस प्रकार बेइज्जती होते देख विभीषण जी काफी कुपित हो गए। उन्होंने हनुमान जी से पूछा कि आपने यह माला तोड़ कर क्यों फेंक दी। इस पर हनुमान जी ने कहा कि हे विभीषण जी मैं तो इस माला की मणियों में सीताराम नाम ढूंढ रहा हूं। परंतु वह नाम इनमें नहीं है। अतः मेरे लिए यह माला पत्थर का एक टुकड़ा है। इस पर किसी राजा ने कहा कि आप हर समय आप हर जगह सीताराम को ढूंढते हो। आप ने जो यह शरीर धारण किए हैं क्या उसमें भी सीता राम हैं और उनकी आवाज आती है। इतना सुनते ही हनुमान जी ने पहले अपना एक बाल तोड़ा और उसे उन्हीं राजा के कान में लगाया। बाल से सीताराम की आवाज आ रही थी। उसके बाद उन्होंने अपनी छाती चीर डाली। उनके ह्रदय में श्रीराम और सीता की छवि दिखाई पडी साथ ही वहां से भी सीताराम की आवाज आ रही थी।

अपनी अनन्य भक्ति के कारण हनुमान जी के हृदय में श्रीराम और सीता के अलावा संसार की किसी भी वस्तु की अभिलाषा नहीं थी।

इस प्रकार यह स्पष्ट है की हनुमान जी सदैव ही श्री राम जी के दास रहे और श्री रामचंद्र जी सदैव ही हनुमान जी के प्रभु रहे।

जय श्री राम। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 184 ☆ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 184 सुगंध ?

सिग्नल खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। एक व्यक्ति गुलाब के पुष्पगुच्छ और पंखुड़ियों की माला बेच रहा है। सौदा लेकर मेरे पास भी आता है। खरीदने का कोई कारण नहीं है तथापि चिंता और चिंतन का कारण अवश्य है। माला हो या पुष्पगुच्छ, दोनों में से किसी तरह की कोई सुगंध नहीं आ रही। एकाएक नथुने लगभग चार दशक पीछे लौटते हैं और तन-मन सुगंधित हो उठते हैं।

स्मरण आता है कि उन दिनों महाविद्यालय में कोई युवक किसी युवती को देने के लिए अपने बैग में छिपाकर गुलाब का एक पुष्प ले आता तो सारी कक्षा महक उठती। पुष्प किसके लिए लाया गया, यह तो पता नहीं चलता पर कक्षा में किसीके पास गुलाब है, इसकी जानकारी हर एक को हो जाती। गुलाब की गंध ही उसका सबसे बड़ा परिचय थी।

तब और अब का मंथन हुआ, विचार जन्मा। पिछले कुछ दशकों से पुष्पों की भाँति ही जीवन से भी सुगंध कहीं दूर हो चली है। सारे हाइब्रीड पुष्प अब एक जैसे, बड़े आकार के और अधिक सुंदर दिखने लगे हैं। विचार की परिधि में मनुष्य भी आया। पैसे और पद के अहंकार से हाइब्रीड-सा एलिट मनुष्य पर भीतर से सद्गुणों को डिलीट कर चुका मनुष्य। प्रदर्शन के भाव का मारा मनुष्य, भीतरी सुगंध के अभाव से हारा मनुष्य।

प्रदर्शन के समय में दर्शन की बात करना बहुधा हास्यास्पद हो सकता है किंतु विचारणीय है कि प्रदर्शन में मूल शब्द दर्शन ही है। दर्शन बचा रहेगा तो अन्य संभावनाएँ भी बची रहेंगी। मूल नष्ट हुआ तो अन्य सभी के नष्ट होने की आशंका भी बनी रहेगी।

संत कबीर लिखते हैं,

शीलवंत सबसे बड़ा, सब रत्नन की खान।

तीन लोक की संपदा, रही शील में आन।।

शील अर्थात सद्गुण ही सबसे बड़ी सम्पदा और रत्नों की खान है। शील में ही तीनों लोकों की संपत्ति अंतर्निहित है।

भौतिक संपदा के साथ-साथ यह आंतरिक त्रिलोकी भी व्यक्ति पा ले तो व्यक्तित्व को सुगंधित होने में समय नहीं लगेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 17- अध्याय – 2 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

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(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

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☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 17- अध्याय – 2 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

आइए अब हम नव निधियों के बारे में बात करते हैं।

1-पद्म निधि, 2. महापद्म निधि, 3. नील निधि, 4. मुकुंद निधि, 5. नंद निधि, 6. मकर निधि, 7. कच्छप निधि, 8. शंख निधि और 9. खर्व या मिश्र निधि। माना जाता है कि नव निधियों में केवल खर्व निधि को छोड़कर शेष 8 निधियां पद्मिनी नामक विद्या के सिद्ध होने पर प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन इन्हें प्राप्त करना इतना भी सरल नहीं है।

पद्म निधि:-

पद्म निधि के लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक गुण युक्त होता है। उसकी कमाई गई संपदा भी सात्विक होती है।सात्विक तरीके से कमाई गई संपदा से कई पीढ़ियों को धन-धान्य की कमी नहीं रहती है। ये लोग उदारता से दान भी करते हैं।

महापद्म निधि:-

महापद्म निधि भी पद्म निधि की तरह सात्विक है। हालांकि इसका प्रभाव 7 पीढ़ियों के बाद नहीं रहता। इस निधि से संपन्न व्यक्ति भी दानी होता है।वह और उसकी 7 पीढियों तक सुख ऐश्वर्य भोगा जाता है।

नील निधि:-

नील निधि उनके पास होती है जो कि धन सत्व और रज गुण दोनों ही से अर्जित करते हैं।सामान्यतया ऐसी निधि व्यापार द्वारा ही प्राप्त होती है।इसलिए इस निधि से संपन्न व्यक्ति में दोनों ही गुणों की प्रधानता रहती है। इस निधि का प्रभाव तीन पीढ़ियों तक ही रहता है।

मुकुंद निधि:-

मुकुंद निधि में रजोगुण की प्रधानता रहती है।इसलिए इसे राजसी स्वभाव वाली निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति या साधक का मन भोगादि में लगा रहता है। ऐसे व्यक्ति स्वयं निधि अर्जित करते हैं और स्वयं उसको खा पीकर समाप्त कर देते हैं।इसका एक उदाहरण नोएडा के पास रहने वाले मेरे मित्र के भाई साहब।भाई साहब किसान हैं और उनके पास बहुत ज्यादा जमीन है।इस जमीन को शासन ने एक्वायर की थी। उसके उपरांत मुआवजा दिया था।उस समय के हिसाब से मुआवजा की रकम काफी बड़ी थी।भाई साहब ने जमीन का मुआवजा पाने के उपरांत 10 साल तक लगातार ु के साथ पार्टी करने में व्यस्त रहे।उनका लिवर खराब हो गया जो कुछ बचा था वह दवा में खर्च हो गया और अंत में पूरी निधि समाप्त हो गई।मुकुंद निधि पहली पीढ़ी बाद खत्म हो जाती है।

नंद निधि:-

नंद निधि में रज और तम गुणों का मिश्रण होता है। माना जाता है कि यह निधि साधक को लंबी आयु व निरंतर तरक्की प्रदान करती है। ऐसी निधि से संपन्न व्यक्ति अपनी प्रशंसा की सुनना चाहता है।अगर आप उसको उसकी अवगुणों के बारे में बताएं तो वह अत्यंत नाराज हो जाएगा।ऐसे व्यक्ति आपके आसपास काफी मात्रा में मिलेंगे जैसे कि आपके अपने अधिकारी।उनको अपने पिछले जन्म में किए गए कार्यों के कारण अधिकार मिले। इस जन्म में वे इस अधिकार में इतने गरूर में आ गए कि अगर उनको कोई उनकी बुराई बताएं तो वे अत्यंत नाराज हो जाएंगे।

मकर निधि:-

मकर निधि को तामसी निधि कहा गया है। तमस हम अंधकार को कहते हैं।राक्षस और निशाचर तामसिक वृत्ति के होते हैं।इस निधि से संपन्न साधक अस्त्र और शस्त्र को संग्रह करने वाला होता है। आज के बाहुबली राजनीतिज्ञ इसी निधि के उदाहरण है।ऐसे व्यक्ति का राज्य और शासन में दखल होता है। वह शत्रुओं पर भारी पड़ता है और मारपीट के लिए तैयार रहता है।।इनकी मृत्यु भी अस्त्र-शस्त्र या दुर्घटना में होती है। आतंकी घुसपैठिए मकर निधि के स्वामी होते हैं।डाकू भी इसी निधि के वाहक होते हैं।

शंख निधि:-

शंख निधि को प्राप्त व्यक्ति स्वयं की ही चिंता और स्वयं के ही भोग की इच्छा करता है। वह कमाता तो बहुत है, लेकिन उसके परिवार और यहां तक की अपने पत्नी और बच्चों को भी नहीं देता है। शंख निधि के परिवार वाले भी गरीबी में ही जीते हैं। ऐसा व्यक्ति धन का उपयोग स्वयं के सुख-भोग के लिए करता है,। उसका परिवार गरीबी में जीवन गुजारता है।

कच्छप निधि:-

कच्छप निधि का साधक अपनी संपत्ति को छुपाकर रखता है। न तो स्वयं उसका उपयोग करता है, न करने देता है। वह सांप की तरह उसकी रक्षा करता है। जिस प्रकार एक कछुआ अपने सभी अंगों को अपने अंदर समेट लेता है,और उसके ऊपर एक काफी मजबूत कवच रहता है,ऐसे ही कच्छप निधि वाले व्यक्ति धन होते हुए भी उसका उपभोग नहीं कर करते हैं और ना किसी को करने देते हैं।आप बहुत सारे ऐसे भिखारी देखोगे जिनके पास पैसा तो बहुत रहा है परंतु उन्होंने कुछ भी सुख नहीं होगा और उनके मरने के बाद उनके सामान में से लाखों रुपए बरामद हुए।

खर्व निधि:-

खर्व निधि को मिश्रत निधि कहते हैं। नाम के अनुरुप ही इस निधि से संपन्न व्यक्ति में अन्य आठों निधियों का सम्मिश्रण होती है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति को मिश्रित स्वभाव का कहा गया है। उसके कार्यों और स्वभाव के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। माना जाता है कि इस निधि को प्राप्त व्यक्ति घमंडी भी होता हैं,। यह मौके मिलने पर दूसरों का पैसा छीन सकता है। इसके पास तामसिक वृत्ति ज्यादा होती है।

अब इनमें से आप जो भी सिद्धि और निधि चाहते हो उसको देने के लिए हमारे आराध्य श्री हनुमान जी समर्थ है।आपको मन क्रम वचन को एकाग्र करके शुद्ध सात्विक मन से केवल स्मरण करना है। आपके लिए जो भी उपयुक्त होगा वह वे स्वयं प्रदान कर देंगे।

जय श्री राम। जय हनुमान। 

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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