(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 25 – तिरंगा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे देश में सब तरफ तिरंगे की चर्चा हो रही है, होनी भी चाहिए। देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव जो मना रहा है।
यहां विदेश का झंडा भी तीन रंग का है। अमेरिका भी अंग्रेजों के चंगुल से स्वतंत्र हुआ था और हमारा देश भी पहले मुगल बादशाहों के नियंत्रण में था और अंत में अंग्रेजों से ही मुक्त हुआ था।
विगत दिन एक स्थानीय नागरिक से अमरीकी तिरंगे के बाबत बातचीत हुई थी। झंडे में लगे हुए पचास सितारे देश के पचास राज्यों के प्रतीक है। यहां के एक पुराने किले में अमरीकी झंडे में तेरह सितारे दर्शाए हुए थे। समय-समय पर इसके प्रारूप में परिवर्तन होते रहे । एक समय अतिरिक्त राज्य की मांग होने पर झंडे में इक्यावन वाँ सितारा लगा कर मांग की गई थी, परंतु वह अस्वीकार हो गई थी। यहां पर अनेक घरों में हमेशा विभिन्न आकार के झंडे लगे रहते हैं। कुछ तो जमीन से मात्र आधा फूट की ऊंचाई पर होते हैं। सब के सम्मान करने के अपने-अपने नियम होते हैं। यहां की केंद्रीय सरकार को “फेडरल“ के नाम से जाना जाता है। राज्यों के पास बहुत अधिकार भी होते हैं। प्रत्येक शहर और कस्बे की अपनी पुलिस व्यवस्था होती है। इसके अलावा राज्य पुलिस होती है। वैसे अमेरिका पूरी दुनिया में अपना रौब बनाए रखने और पूंजीवाद के विस्तार के लिए अनेक देशों में अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग करने में अग्रणी रहता है।
हमारे देश से यहां चार गुनी अधिक भूमि हैं और जनसंख्या एक चौथाई है। शायद, इस देश की संपन्ता का ये ही कारण हो सकता हैं।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 13 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
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सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डर ना।।
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आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हांक तें कांपै।।
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अर्थ:-
आपकी शरण में आए हुए को सब सुख मिल जाते हैं। आप जिसके रक्षक हैं उसे किसी का डर नहीं। हे महावीर जी अपने तेज को आप स्वयं ही संभाल सकते हैं। आपकी एक हुंकार से तीनो लोक कांपते हैं।
भावार्थ:-
आप सुखों की खान है, सुख निधान हैं, आप अपने भक्तों को सुख प्रदान करने वाले हैं। आपकी कृपा से सभी प्रकार के सुख सलभ हैं। आप की शरण में जाने से सभी सुख सुलभ हो जाते हैं। शाश्वत शांति प्राप्त होती है। अगर तुम हमारे रक्षक हो तो सभी प्रकार के दैहिक, दैविक और भौतिक भय समाप्त हो जाते हैं। आपके भक्तों के सभी प्रकार के डर से दूर हो जाते हैं और उनको किसी प्रकार का भय नहीं सताता है।
आप की तीव्रता, आपका ओज और आपकी ऊर्जा केवल आप ही संभाल सकते हैं। दूसरा कोई इसको रोक नहीं सकता है। अर्थात आप के बराबर किसी के भी पास तीव्रता, ओज, ऊर्जा और तेज नहीं है। आपके हुंकार से तीनो लोक में भय फैल जाता है।
संदेश:-
अगर आप ईश्वर में श्रद्धा रखते हैं तो किसी भी स्थिति में आपको डरने की आवश्यकता नहीं है।
इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
अगर आपको कोई डराने की कोशिश कर रहा है या आपके सुख में कमी आ रही है तो आपको इन चौपाइयों का बार बार पाठ करना चाहिए।
आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हांक तें कांपै।।
अगर आप ओज कीर्ति तथा अपना प्रभाव लोगों के बीच में जमाना चाहते हैं तो आप को इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए।
विवेचना:-
पहली चौपाई में तुलसीदासजी भगवान की शरणमें जाने के लिए कह रहें। शरणागति एक महान साधन है। किसी की शरण जाओ, किसी का बन जाओ। उसके बिना जीवन में आनंद नहीं है। भगवान आधार है। गलतियों को कहने का स्थान अर्थात् भगवान। शरणं यानी गति। भगवान हमारी गति हैं। दूसरे किसकी शरण जायँ ? एक कवि ने कहा है:-
जीवन नैया डगमग डोले तू है तारनहार, कन्हैया तेरा ही आधार।
शरणागति’ याने मेरा कुछ नहीं है, सब तुम्हारा है। मन बुद्धि और अहम् भी मेरे नहीं है। भक्त जो मन, बुद्धि,अहम् भाव से दे देता है, उसे समर्पण कहते है। ‘भगवान ! मन, बुद्धि, अहम् ये सब मेरे नहीं है, आपके हैं और आप मेरे हैं। अत: संपूर्ण विश्व मेरा है।’ मेरा कुछ नहीं है यह प्रथम बात है और आप मेरे हैं, अत: संपूर्ण विश्व मेरा है ऐसी स्थिति आती है, तब उसे हम ‘शरणागति’ कहते हैं।
प्रारब्ध, भाग्य, भविष्य, देखनेवाले लोग भी अहंकारी है। अर्थात् प्रारब्ध भाग्य नहीं होता है। ऐसा मैं नहीं कहता हूँ मगर उससे अहंकार आता है। भगवान का प्रसाद मानकर चलेंगे तो उसमें अलौकिक आनंद है।
प्रारब्ध का अर्थ क्या है? गत जन्म में कुछ कर्म किये, उससे जो जमा हुआ होगा उसीका नाम प्रारब्ध है। अन्त में भाग्य का अहंकार आता हैं।
हमारे पूर्वजों को पता था कि, भाग्य मानकर भी अहंकार आता है। इसीलिए पैसा मिलने पर वे कहते थे कि, बडों के आशीर्वाद से पैसे मिले। बडों के पुण्य से, आशीर्वाद से धन मिला, ऐसा बोलने से कर्म या भाग्य का अहंकार नहीं आता है। इसी वजह से अहंकार कम होता है। हम जब अपना अहंकार समाप्त करेंगे तभी हम शरणागत हो सकते हैं। ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर तभी हो पाएगी।
महावीर हनुमान जी द्वारा शरणागत की रक्षा के कई उदाहरण हैं। जैसे कि उन्होंने सुग्रीव की रक्षा की। सुग्रीव बाली से भयंकर भयभीत थे। सुग्रीव सूर्य पुत्र थे। सूर्य हनुमान जी के गुरु थे। गुरु दक्षिणा में उन्होंने सूर्य देव को विश्वास दिलवाया था कि वे सुग्रीव की रक्षा करेंगें। इस वचन को उन्होंने पूरी तरह से निभाया और सुग्रीव को श्री रामचंद्र जी से मिलवा कर राजगद्दी भी दिलवाई।
इसी प्रकार विभीषण की भी उन्होंने रक्षा की और विभीषण को लंका नरेश बनाया।
महावीर हनुमान जी ने मेघनाथ से श्री लक्ष्मण जी की दो बार और श्री रामचंद्र जी की एक बार रक्षा की है। पहली बार जब श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को मेघनाद ने नागपाश में बांधा था। तब महावीर हनुमान जी ने ही मेघनाद को भगाया था। गरुण जी को बुलाकर भगवान राम जी को तथा श्री लक्ष्मण जी को नागपाश से मुक्त करवाया था।
संकटमोचन हनुमान अष्टक में इस घटना का वर्णन किया गया है:-
रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग कि फाँस सबै सिर डारो ।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो ।।
आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।
को० – 6 ।।
इसी प्रकार जब मेघनाद ने शक्ति का प्रहार श्री लक्ष्मण जी के उपर किया और लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए थे। उस समय भी युद्ध भूमि से लक्ष्मण जी को श्री हनुमान ही बचा कर लाए थे।
व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥
(रामचरितमानस/ लंका कांड)
भावार्थ:- व्यापक, ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान श्री रामचंद्रजी ने पूछा- लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान् उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना॥3॥
इसके उपरांत वैद्य की आवश्यकता पड़ी तब सुषेण वैद्य को लंका जाकर श्री हनुमान जी ही ले कर आए थे।
जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता॥4॥
भावार्थ:- जाम्बवान् ने कहा- लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान्जी छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए॥4॥
सुषेण वैद्य द्वारा यह बताने पर की द्रोणागिरी पर स्थित संजीवनी बूटी से ही श्री लक्ष्मण जी के प्राण बचेंगे हनुमान जी तत्काल उस बूटी को लाने के लिए चल पड़े :-
राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥
भावार्थ:-श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्जी अपना बल बखानकर (अर्थात् मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) चले।
इसी प्रकार जब सभी वानरों की जान खतरे में पड़ी थी और सीता जी का पता नहीं चल रहा था तब हनुमानजी ही समुद्र को पार कर सीता जी का पता लगा कर लौटे थे। इस प्रकार की अनेक घटनाएं हैं जब श्री हनुमान जी ने अपने लोगों की जो उनके साथ थे उनके प्राण की रक्षा की।
शरणागत की सुरक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण है हनुमान जी द्वारा काशी नरेश की रक्षा के लिए श्री राम जी से युद्ध के लिए तैयार हो जाना। इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने श्री रामचंद्र जी से लड़ने के लिए श्री रामचंद्र जी की ही सौगंध ली थी।
यह कथा हनुमत पुराण के पृष्ठ क्रमांक 302 में “सुमिरि पवनसुत पावन नामू” शीर्षक से दिया हुआ है। एक बार काशी नरेश भगवान रामचंद्र जी से मिलने के लिए राजसभा में जा रहे थे। रास्ते में उनको नारद जी मिल गए। नारद जी ने काशी नरेश से अनुरोध किया की आप जब दरबार में जाएं तो भगवान के बगल में बैठे वयोवृद्ध तपस्वी विश्वामित्र जी की उपेक्षा कर देना। उन्हें प्रणाम मत करना। काशी नरेश ने पूछा ऐसा क्यों ? नारद जी ने कहा इसका जवाब तुम्हें बाद में मिल जाएगा। काशी नरेश राज सभा में पहुंचे। हनुमान जी राज सभा में नहीं थे। अपनी माता जी से मिलने गए थे। काशी नरेश ने नारद जी के कहे के अनुसार ही विश्वामित्र जी की उपेक्षा की। अपनी उपेक्षा के कारण विश्वामित्र जी अशांत हो गए। उन्होंने इस बात की शिकायत श्री रामचंद्र जी से की। शिकायत को सुनकर श्री रामचंद्र जी काशी नरेश से काफी नाराज हो गए। उन्होंने तीन वाण अलग से निकाल दिए और कहा कि इन्हीं बाणों से काशीराज को आज मार दिया जाएगा। यह बात जब काशी नरेश की जानकारी में आई तो काशी नरेश घबराकर नारद जी के पास पहुंचे। नारद जी ने अपना पल्ला झाड़ दिया और कहा कि तुम हनुमान जी की माता अंजना के समीप जाकर उनके चरण पकड़ लो। जब तक मां अंजना रक्षा का वचन न दें तब तक तुम छोड़ना नहीं। काशी नरेश ने ऐसा ही किया। अंजना एक सीधी-सादी जननी। उन्होंने प्राण रक्षा का वचन दे दिया। माता अंजना ने काशी नरेश के प्राण रक्षा का संकल्प श्री हनुमान जी से ले लिया। हनुमान जी के भोजन ग्रहण करने के बाद माता अंजना ने काशी नरेश से पूछा कि तुम्हें मारने की प्रतिज्ञा किसने की है। काशी नरेश ने बताया कि यह प्रतिज्ञा भगवान श्रीराम ने की है। श्री राम जी से लड़ने की बात हनुमान जी भी नहीं सोच सकते थे। उन्होंने काशी नरेश को सलाह दी कि तुम परम पावनी सरयू नदी में कमर तक जल में खड़े होकर अविराम राम नाम का जप करते रहो। अगर तुम जाप करते रहोगे तो तुम बच जाओगे। इसके बाद हनुमान जी प्रभु श्री राम के पास पहुंचे। दरबार में पहुंचने के उपरांत हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के चरण पकड़ कर कहा कि उन्हें वरदान चाहिए। श्री राम ने कहा मांग लो। तुमने तो आज तक हमसे कुछ भी नहीं मांगा है। श्री हनुमान जी ने कहा कि प्रभु मैं चाहता हूं आपके नाम का जाप करने वाले कि सदा मैं रक्षा किया करूं। मेरी उपस्थिति में आपके नाम जापक पर कभी कहीं से कोई प्रहार न करें। अगर गलती से कोई प्रहार करे तो उसका प्रहार व्यर्थ हो जाए। श्री रामचंद्र जी ने यह वरदान महावीर हनुमान जी को दे दिया।
श्री रामचंद्र जी ने दिन समाप्त होने के उपरांत काशी नरेश के ऊपर वाण छोड़ा। वाण अत्यंत तेजी के साथ काशी नरेश के पास पहुंचा। काशी नरेश उस समय रामनाम का जाप कर रहे थे। अतः वह उनके चुप होने की प्रतीक्षा करने लगा। राजा ने जब जाप बंद नहीं किया तो वाण वापस श्री रामचंद्र जी के पास आ गया। श्री रामचंद्र जी ने इसके बाद दूसरा और तीसरा बाण छोड़ा। परंतु वे वाण भी वापस आ गए। अब श्री रामचंद्र जी स्वयं सरयू नदी के तट पर काशी नरेश को दंड देने के लिए पहुंच गए। वशिष्ट जी ने देखा की इस प्रक्रिया में श्री रामचंद्र जी का कोई एक वचन झूठा जा सकता है। उन्होंने नरेश को सलाह दी कि तुम महर्षि विश्वामित्र के चरण पकड़ लो। वह सहज दयालु हैं। इसके उपरांत नरेश ने नाम जाप करते हुए महर्षि विश्वामित्र के पैर पकड़ लिए। महर्षि ने उन्हें क्षमा कर दिया। क्षमा करने के उपरांत महर्षि ने श्री राम को भी क्षमा करने हेतु कहा। क्योंकि महर्षि विश्वामित्र का क्रोध समाप्त हो गया था अतः श्री रामचंद्र जी भी शांत हो गए।माता अंजना की प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। शरणागत की रक्षा का एक बहुत बड़ा उदाहरण है।
उपरोक्त दृष्टांत से स्पष्ट है की श्री हनुमान जी की शरण में जो भी रहेगा उसको सभी तरह के सुख प्राप्त होंगे तथा उसको किसी भी तरह का डर व्याप्त नहीं रहेगा। वह हर तरह से सुरक्षित रहेगा।
रामचंद्र जी ने भी हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा ने कहा है कि यह हनुमान जी आप जैसा उपकारी इस विश्व में और कोई नहीं है :-
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
(रामचरितमानस /सुंदरकांड/ दोहा क्रमांक 31 /चौपाई क्रमांक 5,6)
भावार्थ:- रामचन्द्रजी ने कहा कि हे हनुमान! सुन, तेरे बराबर मेरा उपकार करनेवाला देवता, मनुष्य और मुनि कोई भी देहधारी नहीं है॥
हे हनुमान! मैं तेरा क्या प्रत्युपकार (बदले में उपकार) करूं; क्योंकि मेरा मन बदला देने के वास्ते सन्मुख ही (मेरा मन भी तेरे सामने) नहीं हो सकता।
अगली चौपाई है “आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै “।
इस चौपाई में चार महत्वपूर्ण वाक्यांश है। पहला है आपन तेज अर्थात श्री हनुमान जी का तेज दूसरा है सम्हारो आपे अर्थात श्री हनुमान जी ही अपना तेज संभाल सकते हैं। तीसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश तीनो लोक अर्थात स्वर्ग लोक,भूलोक और पाताल लोक और चौथा वाक्यांश है हांकते कांपे अर्थात आपके हुंकार से पूरा ब्रह्मांड कांप जाता है या डर जाता है।
अब हम पहले और दूसरे वाक्यांश की बात करते हैं।
तेज का अर्थ होता है दीप्ति, कांति, चमक, दमक, आभा, ओज,पराक्रम,, बल, शक्ति, वीर्य, गर्मी, नवनीत, मक्खन,सोना, स्वर्ण घोड़ों आदि के चलने की तेजी या वेग।
यहां पर तेज के कई अर्थ दिए गए हैं। इनमें से कई का अर्थ एक जैसा है जैसे दीप्ति, कांति, चमक, दमक,और आभा। यहां पर तेज का अर्थ चेहरे की चमक दमक से है। दूसरा है ओज पराक्रम बल शक्ति इनका आशय शारीरिक बल से है। तेज का तात्पर्य वीर्य, गर्मी, नवनीत, मक्खन भी होता है। सोने की तेज को अलग से माना जाता है। तेज का अर्थ वेग भी होता है। वैसे अगर हम कहें कि कि यह अश्व अत्यंत तेज है तो इसका अर्थ होगा अश्व का वेग अत्यधिक है। हनुमान जी के अगर हम बात करें तो उनका मुख्य मंडल अत्यंत दीप्तिमान चमक दमक वाला है बल और शक्ति के वे अपरममित भंडार हैं। उनके वीर्य में इतना तेज है उनके शरीर की गंध से ही मकरध्वज पैदा हुए और उनका आभामंडल सोने का है। महावीर हनुमान जी का वेग किसी स्थान पर अतिशीघ्र पहुंचने की शक्ति अकल्पनीय है।
हनुमान जी के तेज का बहुत अच्छा वर्णन वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के 46वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 18 और 19 में किया गया है:-
रश्मिमन्तमिवोद्यन्तं स्वतेजोरश्मिमालिनम्।
तोरणस्थं महोत्साहं महासत्त्वं महाबलम्।।(18)
महामतिं महावेगं महाकायं महाबलम्।
तं समीक्ष्यैव ते सर्वे दिक्षु सर्वास्ववस्थिताः।। (19)
इन दोनों श्लोंकों में कहा गया है महावीर हनुमान जी अशोक वाटिका के फाटक के ऊपर बैठे हुए हैं।उस समय उदित सूर्य की तरह दीप्तिमान महा बलवान महाविद्वान महावेगवान, महाविक्रमवान, महाबुद्धिमान, महा उत्साही महाकपि और महाभुज हनुमान जी को देखकर और उनसे डर सब राक्षस दूर-दूर ही खड़े हुए।
हनुमान जी के चेहरे के तेज का वर्णन वाल्मीकि रामायण में कई स्थानों पर मिलता है। सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 60, 61 और 62 में इसका बहुत सुंदर वर्णन किया गया है :-
महावीर हनुमान जी के दोनों नेत्र तो ऐसे दिख पड़ते हैं जैसे पर्वत पर दो ओर से दो दावानल लगा हो। उनकी बड़ी-बड़ी रोशनी वाली आंखें चंद्रमा और सूर्य की तरह चमक रही थी। लाल नाक और हनुमान जी का लाल-लाल मुख मंडल संध्याकालीन सूर्य की तरह शोभायमान हो रहा था। आकाश मार्ग से जाते समय हनुमान जी की हिलती हुई पूछ ऐसे शोभायमान हो रही थी जैसे आकाश में इंद्र ध्वज।
महावीर हनुमान जी के आवाज को सुनकर ही बहुत सारे राक्षसों की मृत्यु हो जाती थी। यह वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के 45 वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 13 में लिखा है :-
प्रममाथोरसा कांश्चिदूरुभ्यामपरान्कपिः।
केचित्तस्य निनादेन तत्रैव पतिता भुवि।।5.45.13।।
इस श्लोक के अनुसार हनुमान जी ने किसी को छाती की ढेर से और किसी को जन्घों के बीच रगड़ के मार डाला। कितने ही राक्षस तो हनुमान जी के सिंहनाद को सुनकर ही पृथ्वी पर गिर कर मर गए।
हनुमान जी की शक्ति और वेग का एक अच्छा उदाहरण रामचरितमानस में भी दिया हुआ है। हनुमान जी जब लंका जाने के लिए पहाड़ पर चढ़ते हैं तो उनके पैर रखते ही पहाड़ जमीन के अंदर पाताल पहुंच जाता है और उनके उड़ने की गति श्री रामचंद्र जी के वाण के समान है। :-
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना॥
भावार्थ:- कहते हैं जिस पहाड़ पर हनुमानजी ने पाँव रखकर ऊपर छलांग लगाई थी, वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है, इस प्रकार हनुमानजी वहां से चले दिये।
हनुमान जी के चेहरे का ओज, उनकी तीव्रतम वेग, उनका अतुलित शक्ति उनकी अपनी है। यह सब उनको रुद्रावतार होने से पवन पुत्र होने के कारण तथा सूर्य देव को आजाद करते समय देवताओं द्वारा दिए गए आशीर्वाद के कारण है। परंतु वे किसी भी कार्य का श्रेय नहीं लेते हैं। हर बात का श्रेय भगवान श्रीराम को देते हैं। जो लोग छोटी-छोटी बातों पर घमंड से भर जाते हैं उनको हनुमान जी का ध्यान करना चाहिए। एक पौराणिक कहानी है :-
एक बार भगवान विष्णु शिवजी को मिलने गये। विष्णु का वाहन गरूड है। विष्णु भगवान को मिलने के लिए शिवजी बाहर आये। शिवजी के गले में नाग बैठा था। वह गरूड को ललकारने लगा। यह देखकर गरूड ने उससे कहा:
‘तेरा प्रभाव कितना है मैं जानता हँ। तू शिवजी के गले में बैठा है इसीलिए गर्जना कर रहा है। स्थान पाने पर कायर पुरूष भी शूर बन जाता है। ’ सुभाषितकार कहते हैं:
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ता: केशा नखा: नरा:।
इति विज्ञाय मतिमान्स्वस्थानं न परित्यजेत्।।
( दान्त, बाल, नख और मनुष्य स्थानभ्रष्ट हाने के बाद शोभा नहीं देते। ऐसा समझकर समझदार व्यक्ति को स्थान नहीं छोडना चाहिए। )
स्थानभ्रष्ट की शोभा नष्ट हो जाती है। दांत स्थानपर हों तो वे शोभा देते हैं। बाल सिरपर हों तब तक शोभा देते हैं। रोज बाल हम कंघी से संवारते हैं। मगर हजामत करने के बाद हम काटे हुए बालों को छूते भी नहीं। इसका कारण बाल स्थानभ्रष्ट हुए। महावीर हनुमान जी के अंदर नाम मात्र का भी घमंड नहीं है। जबकि तीनों लोकों में उनके बराबर ओजवान, तेजवान, वीर्यवान, शक्तिवान, वेगवान कोई दूसरा नहीं है। हनुमान जी जैसा दूसरा कोई और नहीं है जिसने एक छलांग में समुद्र को पार किया हो और एक छलांग में ही सूर्यलोक जा पहुंचा हो।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर हनुमान के प्रसन्न होने से आपको सभी कुछ मिल जाता है और अगर वे आपके रक्षक हैं कोई आपका भक्षक नहीं हो सकता है।जय हनुमान।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – निठल्ला चिंतन
हर मनुष्य को चाहे वह कितना ही आलसी क्यों न हो, शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक प्रक्रियाओं द्वारा 24×7 कार्यरत रहना पड़ता है। जब हम ‘कुछ नहीं’ करना चाहते तो वास्तव में क्या करना चाहते हैं? अपने शून्य में उपजे अपने ‘कुछ नहीं’ में छिपी संभावना को खुद ही पढ़ना होता है। जिस किसीने इस ‘कुछ नहीं’ को पढ़ और समझ लिया, यकीन मानना वह जीवन में ‘बहुत कुछ’ करने की डगर पर निकल गया।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 179☆ शिवोऽहम्*…(4)
आदिगुरु शंकराचार्य महाराज के आत्मषटकम् को निर्वाणषटकम् क्यों कहा गया, इसकी प्रतीति चौथे श्लोक में होती है। यह श्लोक कहता है,
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञः।
अहम् भोजनं नैव भोज्यम् न भोक्ता
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।
मैं न पुण्य से बँधा हूँ और न ही पाप से। मैं सुख और दुख से भी विलग हूँ, इन सबसे मुक्त हूँ। अर्थ स्पष्ट है कि आत्मस्वरूप सद्कर्म या दुष्कर्म नहीं करता। इनसे उत्पन्न होनेवाले कर्मफल से भी कोई सम्बंध नहीं रखता।
मंत्रोच्चारण, तीर्थाटन, ज्ञानार्जन, यजन कर्म सभी को सामान्यतः आत्मस्वरूप का अधिष्ठान माना गया है। षटकम् की अगली पंक्ति सीमाबद्ध को असीम करती है। यह असीम, सीमित शब्दों में कुछ यूँ अभिव्यक्त होता है, ‘मैं न मंत्र हूँ, न तीर्थ, न ही ज्ञान या यज्ञ।’ भावार्थ है कि आत्मस्वरूप का प्रवास कर्म और कर्मानुभूति से आगे हो चुका है।
मंत्र, तीर्थ, ज्ञान, यज्ञ, पाप, पुण्य, सुख, दुखादि कर्मों पर चिंतन करें तो पाएँगे कि वैदिक दर्शन हर कर्म के नाना प्रकारों का वर्णन करता है। तथापि तत्सम्बंधी विस्तार में जाना इस लघु आलेख में संभव नहीं।
आगे आदिगुरु का कथन विस्तार पाता है, ‘मैं न भोजन हूँ, न भोग का आनंद, न ही भोक्ता।’ अर्थात साधन, साध्य और सिद्धि से ऊँचे उठ जाना। विचार के पार, उर्ध्वाधार। कुछ न होना पर सब कुछ होना का साक्षात्कार है यह। एक अर्थ में देखें तो यही निर्वाण है, यही शून्य है।
वस्तुत: शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी। शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाना होगा।… अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें। तत्पश्चात आकलन करें कि शून्य पाया या शून्य खोया?
शून्य अवगाहित करती सृष्टि,
शून्य उकेरने की टिटिहरी कृति,
शून्य के सम्मुख हाँफती सीमाएँ
अगाध शून्य की अशेष गाथाएँ,
साधो…!
अथाह की कुछ थाह मिली
या फिर शून्य ही हाथ लगा?
साधक एक बार शून्यावस्था में पहुँच जाए तो स्वत: कह उठता है, ‘मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, शिवोऽहम्..!’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 12 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।
अर्थ:-
भगवान राम के द्वारपाल आप ही हैं आपकी आज्ञा के बिना उनके दरबार में प्रवेश नहीं मिलता है।
भावार्थ:-
संसार में मनुष्य के बहुत सारी कामनाएं होती हैं परंतु अंतिम कामना होती है मोक्ष की। हनुमान जी राम जी के दरबार में बैठे हुए हैं। विभिन्न प्रकार की कामनाओं को लेकर आने वाले पहले हनुमान जी के पास जाते हैं। उसके बाद आगे श्री रामचंद्र जी के पास जाते हैं। हनुमान जी लोगों की मोक्ष को छोड़कर सभी तरह की कामनाओं की पूर्ति कर देते हैं। परंतु मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को श्री राम चंद्र जी के पास जाना पड़ता है। श्री रामचंद्र जी के पास जाने के लिए श्री हनुमान जी के पास से होकर जाना पड़ता है। इसीलिए कहा गया है हनुमान जी की आज्ञा के बगैर कोई भी रामचंद्र जी के पास नहीं जा सकता है।
संदेश:-
अगर आप ईश्वर में श्रद्धा रखते हैं तो किसी भी स्थिति में आपको डरने की आवश्यकता नहीं है।
इस चौपाई को बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।
ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए इस चौपाई का बार बार पाठ करना चाहिए।
विवेचना:-
अगर हम इसका जनसाधारण में फैला हुआ अर्थ माने तो इस चौपाई का अर्थ है कि आप रामचंद्र जी के द्वार के रखवाले हैं। आपकी आज्ञा के बिना रामचंद्र जी से मिलना संभव नहीं है। परन्तु क्या यह विचार सही है।
कहा गया है कि ईश्वर अनंत है और उनकी कथा भी अनंत प्रकार से कही गई है। :-
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
(रामचरितमानस/बालकांड)
हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते हैं।
एक तरफ तो कहते हैं पूरा ब्रह्मांड ही भगवान का घर है। दूसरी तरफ तुलसीदास जी कह रहे हैं श्री हनुमान जी रामचंद्र जी के महल के दरवाजे के रखवाले हैं। क्या रामचंद्र जी का अगर कोई घर है तो उसमें द्वार भी है। आइए हम इस पर चर्चा करते हैं।
कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि अगर ईश्वर को प्रसन्न करना है तो पहले संतो को, गुरु को, शास्त्रों के लिखने वालों को, अच्छे लोगों को प्रसन्न करो। अगर नई नवेली बहू को अपने पति को प्रसन्न करना है तो पहले सास-ससुर, जेठ-जेठानी को प्रसन्न करना पड़ेगा।
नए समय में कोई भी नवेली बहू सास ससुर जेठ जेठानी के चक्कर में नहीं पड़ती है। इसी प्रकार इस घोर कलयुग में अच्छे लोग या संत आदि का मिल पाना भी अत्यंत कठिन है। किसी ने इस पर पूरा गाना भी बना डाला :-
पार न लगोगे श्रीराम के बिना, राम न मिलेगे हनुमान के बिना |
परंतु क्या हनुमान जी की हैसियत द्वारपाल जैसी है। श्रीरामचंद्र जी जिनको अपना सखा, भरत जैसा भाई कहते हैं, क्या वे द्वारपाल हैं। क्या रुद्रावतार को हम द्वारपाल कह सकते हैं। क्या पवन पुत्र को हम दरवाजे का रखवाला कहेंगे। ऊपर में बता भी चुका हूं कि हनुमान जी की उत्पत्ति उसी खीर से हुई है जिस खीर को खाने से कौशल्या माता जी के गर्भ से श्री राम जी पैदा हुए हैं। यह सत्य है की हनुमान जी ने हमेशा अपने को श्री राम जी का दास कहा है ,परंतु श्री राम जी ने कभी भी उनको अपना दास नहीं माना है। अपना भाई माना है ,सखा माना है या संकटमोचक माना है। कहीं भी चाहे वह बाल्मीकि रामायण हो , रामचरितमानस हो या अन्य कोई रामायण हो किसी में भी श्रीरामचंद्र जी ने हनुमान जी को अपना दास नहीं कहा है। अब अगर श्री रामचंद्र जी ने को अपना दास नहीं माना है तो हम कलयुग के लोग हनुमान जी को द्वारपाल कैसे बना सकते हैं।
वास्तविकता यह है यहां पर द्वारपाल का अर्थ द्वारपाल नहीं है वरन लक्ष्य तक पहुंचने का एक सोपान है। अगर हमें किसी ऊंचाई पर आसानी से पहुंचना है तो हमें सीढ़ी या सोपान का उपयोग करना पड़ता है। हनुमान जी श्रीरामचंद्र जी तक पहुंचने की वहीं सीढ़ी या सोपान है। जिस प्रकार हम ब्रह्म तक पहुंचने के लिए पहले किसी देवता की मूर्ति पर ध्यान लगाते हैं। बाद में हम इसके काबिल हो जाते हैं कि हम बगैर मूर्ति के भी ब्रह्म के ध्यान में मग्न हो सकें। उसी प्रकार रामचंद्र जी का ध्यान लगाने के पहले आवश्यक है कि हनुमान जी का ध्यान लगाया जाये। हनुमान जी का ध्यान लगाना आसान है। हनुमानजी एक जीवंत देवता है।आज भी वह इस विश्व में निवास कर रहे हैं। उनकी मृत्यु नहीं हुई है।
सही बात तो यह है कि श्रीरामचंद्र जी की कल्पना बगैर हनुमान जी के संभव नहीं है। आप को श्री रामचंद्र जी के साथ नीचे बैठे हुए हनुमान जी अवश्य दिखाई देंगे। संभवत इसीलिए महर्षि तुलसीदास ने लिखा है “राम दुआरे तुम रखवारे”।
आइए अब हम इसका एक दूसरा विश्लेषण भी करते हैं।
राम पूर्वतापिन्युपनिषद में कहा गया है-
रमन्ते योगिनोअनन्ते नित्यानंदे चिदात्मनि।
इति रामपदेनासौ परंब्रह्मभिधीयते।
श्रीराम नाम के दो अक्षरों में ‘रा’ तथा ‘म‘ ताली की आवाज की तरह हैं, जो संदेह के पंछियों को हमसे दूर ले जाती हैं। ये हमें देवत्व शक्ति के प्रति विश्वास से ओत-प्रोत करते हैं। इस प्रकार वेदांत वैद्य जिस अनंत सच्चिदानंद तत्व में योगिवृंद रमण करते हैं उसी को परम ब्रह्म श्रीराम कहते हैं।
स्वयं गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में राम ग्रंथों के विस्तार का वर्णन किया है-
नाना भांति राम अवतारा। रामायण सत कोटि अपारा॥
मनुष्य के जीवन में आने वाले सभी संबंधों को पूर्ण तथा उत्तम रूप से निभाने की शिक्षा देने वाले प्रभु श्री रामचन्द्रजी के समान दूसरा कोई चरित्र नहीं है। श्रीराम सदैव कर्तव्यनिष्ठा के प्रति आस्थावान रहे हैं। उन्होंने कभी भी लोक-मर्यादा के प्रति दौर्बल्य प्रकट नहीं होने दिया। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में श्रीराम सर्वत्र व्याप्त हैं। कहा गया है-
एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में लेटा।
एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा।
अब आप बताइए कि जो राम घाट घाट में लेटा हुआ है, जो राम सब जगह फैला हुआ है उसके पास दरवाजा कहां होगा।
एक और वाणी है:-
हममें, तुममें, खड्ग, खंभ में, घट, घट व्यापत राम।।
इसे भक्त पहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यप से कहा था। इसका साफ-साफ अर्थ है की श्री राम हर जगह उपस्थित हैं। अतः यहां दरवाजा बनाने की आवश्यकता नहीं है। जब हर व्यक्ति के हृदय में श्री राम मौजूद हैं तो बीच में कोई और कैसे आ सकता है।
विभीषण जी की पहली मुलाकात हनुमान जी से श्रीलंका में हुई थी। विभीषण जी ने हनुमान जी को संत माना और कहा कि यह श्री रामचंद्र जी की कृपा है कि उनको हनुमान जी के दर्शन हुए। इसका अर्थ तो यह है की विभीषण जी मानते हैं अगर हनुमान जी का दर्शन होना है तो श्रीरामचंद्र जी की कृपा होनी चाहिए।
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥ २ ॥
मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है। परन्तु हे हनुमान्! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है; क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥२॥
जिस समय नल और नील समुद्र पर सेतु बना रहे थे उस समय वे हर पत्थर पर राम नाम लिखकर के समुद्र पर छोड़ देते थे। राम नाम लिखा हुआ पत्थर समुद्र पर तैरने लगता था। रामचंद्र जी ने भी एक पत्थर रखा परंतु वह डूब गया। रामचंद्र जी ने जब इसका कारण नल और नील से पूछा। उन्होंने जवाब दिया कि हम पत्थर पर आपका नाम लिख करके समुद्र मे छोड़ देते हैं। आपके नाम की महिमा से पत्थर तैरने लगता है। इस पत्थर आपका नाम नहीं लिखा इसलिए वह पत्थर डूब गया है।
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
भावार्थ:- मैं श्रीरघुनाथ जी के “राम” नाम की वंदना करता हूँ, जो कि अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा को प्रकाशित करने वाला है। “राम” नाम ब्रह्मा, विष्णु, महेश और समस्त वेदों का प्राण स्वरूप है, जो कि प्रकृति के तीनों गुणों से परे दिव्य गुणों का भंडार है।
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
भावार्थ:- “राम” नाम वह महामंत्र है जिसे श्रीशंकर जी निरन्तर जपते रहते हैं, जो कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के लिये सबसे आसान ज्ञान है। “राम” नाम की महिमा को श्रीगणेश जी जानते हैं, जो कि इस नाम के प्रभाव के कारण ही सर्वप्रथम पूजित होते हैं।
किसी ने यह भी कहा है की:-
राम से बड़ा राम का नाम।
राम नाम की महिमा अपरंपार है और यह वह महामंत्र है जो कि किसी को भी मुक्ति दिला सकता है। अतः यह कहना कि बगैर हनुमान जी को प्रसन्न किए हुए रामजी को प्रसन्न नहीं किया जा सकता है ,सही नहीं होगा।
अब प्रश्न यह उठता है की हनुमान चालीसा में “राम दुआरे तुम रखवारे | होत न आज्ञा बिनु पैसारे ” क्यों लिखा गया है।
किसी भी परिवार में एक मुखिया होता है। यह मुखिया पिता भी हो सकता है घर का बड़ा भाई भी हो सकता है कई घरों में माता भी मुखिया का कार्य करती हैं। घर के बाकी सभी सदस्य अपने अपने कार्य के लिए स्वतंत्र होते हैं और वह आवश्यकता पड़ने पर मुखिया के अधिकार का भी इस्तेमाल कर लेते हैं।
दुआरे अवधी बोली का शब्द है जो की मूल हिंदी शब्द द्वारे का अपभ्रंश है। द्वारे शब्द के तीन अर्थ होते हैं – दरवाज़े पर, दर तक, पास।
इसी प्रकार रखवारे शब्द का अर्थ होता है चौकीदार या रखने वाला।
यहां पर हम दोनों शब्दों के कम प्रचलित अर्थ को लेते हैं। जैसे कि द्वारे का अर्थ पास और रखवारे का अर्थ रखने वाला। अब अगर “राम दुआरे तुम रखवारे” का अर्थ लिया जाए तो कहा जायेगा कि तुमने अपने पास रामचंद्र जी को रखा हुआ है। अर्थात तुम्हारे हृदय में राम हैं। यह सत्य भी है। इस संबंध में यहां पर यह घटना की चर्चा करना उपयुक्त होगा।
लक्ष्मण जी को इस बात का ही अभिमान हो गया था कि वे श्री रामचंद्र जी के सबसे बड़े भक्त हैं। अकेले वे ही जो कि श्री रामचंद्र जी के साथ 14 वर्ष वन में रहे हैं। हर दुख दर्द में उन्होंने श्री राम जी का साथ दिया है। श्री राम जी को लक्ष्मण जी के अभिमान का आभास हो गया। और इसके उपरांत ही एक घटना घटी। घटना यू है :-
राम दरबार सजा हुआ था। चारों भाई, सीता जी हनुमान जी, गुरु वशिष्ट जी और सभी लोग अपने अपने आसनों पर विराजमान थे। श्री राम के राज्याभिषेक होने की प्रसन्नता में सीता मैया ने सभी को कुछ ना कुछ उपहार दिया। जिसमें श्री हनुमान जी को उन्होंने एक बहुमूल्य रत्नों की माला दी। हनुमान जी ने माला लेने के उपरांत उसके एक-एक मनके को तोड़कर के देखने लगे। फिर उन्होंने पूरी माला को तोड़ने के उपरांत फेंक दी।
सीता मैया के उपहार के अपमान को देखकर श्री लक्ष्मण जी बहुत क्रोधित हो गए। उन्होंने श्री हनुमान जी से पूछा कि आपको इन रत्नों के मूल्य के बारे में नहीं पता है। यह रत्न कितने कीमती हैं। इस पर हनुमानजी ने कहा, ‘ मैंने यह हार अमूल्य समझ कर लिया था। परंतु बाद में मैनें पाया कि इसमें कहीं भी राम- नाम नहीं है। मैं समझता हूं। कि कोई भी अमूल्य वस्तु राम के नाम के बिना अमूल्य नहीं हो सकती। अतः उसे त्याग देना चाहिए।’ लक्ष्मण जी ने पुनः हनुमान जी से कहा कि आपके बदन पर भी कहीं राम नाम नहीं लिखा है तो आपको अपना बदन भी तोड़ देना चाहिए।
लक्ष्मण की बात सुनकर हनुमानजी ने अपना वक्षस्थल तेज नाखूनों से फाड़ दिया और उसे लक्ष्मण जी को दिखाया।
हनुमान जी के फटे हुए वक्षस्थल में श्रीराम दिखाई दे रहे थे। लक्ष्मण जी इस बात को देखकर आश्चर्यचकित रह गए, और उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ।
यह कहानी एक दूसरे प्रकार से भी मिलती है। इसमें विभीषण एक रत्नों की माला मां सीता को भेंट की। उन्होंने यह माला अत्यंत मूल्यवान समझकर माता जानकी को भेंट की थी। उन्होंने यह भी सोचा था कि दूसरा कोई भी इतनी मूल्यवान माला मां को भेंट नहीं कर सकता है। श्री विभीषण जी के इस घमंड को माता सीता ने समझ लिया। माला पाने के उपरांत माता सीता ने श्री रामचंद्र जी से पूछा कि इस बहुमूल्य माला को मैं किसको दूं। श्री रामचंद्र जी ने कहा कि तुम सबसे ज्यादा जिसको मानती हो उसको यह माला दे दो। माता जानकी ने वह माला हनुमान जी को दे दी। इसके आगे की कहानी एक जैसी ही है।
इस प्रकार यह स्पष्ट श्री राम जी सदैव श्री हनुमान के साथ में रहते हैं अतः यह कहना कि श्री हनुमान जी ने अपने पास श्री राम जी को रख लिया है। हनुमान जी के ह्रदय के श्री रामचंद्र जी की मूर्ति से बगैर हनुमान जी की आज्ञा के मिल पाना असंभव है। अगर आपको हनुमान जी के हृदय में स्थित श्री राम जी से मिलना है तो आपको श्री हनुमान जी की आज्ञा लेनी पड़ेगी। अगर आपके अंदर वह सामर्थ्य है कि आप अपने हृदय के अंदर स्थित रामचंद्र जी को महसूस कर पा रहे हैं तो आप सीधे श्री रामचंद्र जी के पास पहुंच सकते हैं। जय हनुमान।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 173☆
☆ अनुभव और निर्णय☆
अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?
मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।
मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।
मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।
दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।
उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय है।
बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत् सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।
तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।
वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष –समग्र
“चर और अचर के, जीव और जीवन के हर आयाम का समग्रता से प्राप्त अनुभव ही ज्ञान कहलाता है,” एक वक्ता ज्ञान को परिभाषित कर रहे थे।
मेरी आँखों के आगे तैरने लगे वे असंख्य चेहरे, जो नारी से परे रहकर जगत की दृष्टि में ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुँचे थे। विचार उठा, आधी दुनिया को तजकर अधूरी दुनिया से प्राप्त अनुभव समग्र कैसे हो सकता है?
जिन्हें आधी दुनिया कहते हैं, शेष आधी दुनिया भी उन्हीं की कोख से जन्म लेती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना आज गुरुवार दि. 9 मार्च से आरम्भ होगी। यह श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को विराम लेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – रंगोत्सव
होली अर्थात विभिन्न रंगों का साथ आना। साथ आना, एकात्म होना। रंग लगाना अर्थात अपने रंग या अपनी सोच अथवा विचार में किसी को रँगना। विभिन्न रंगों से रँगा व्यक्ति जानता है कि उसका विचार ही अंतिम नहीं है। रंग लगानेवाला स्वयं भी सामासिकता और एकात्मता के रंग में रँगता चला जाता है। रँगना भी ऐसा कि रँगा सियार भी हृदय परिवर्तन के लिए विवश हो जाए। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
सारे विरोध उनके तिरोहित हुए,
भाव मेरे मन के पुरोहित हुए,
मतभेदों की समिधा,
संवाद के यज्ञ में,
सद्भाव के घृत से,
सत्य के पावक में होम हुई,
आर-पार अब
एक ही परिदृश्य बसता है,
मेरे मन के भावों का
उनके ह्रदय में,
उनके विचार का
मेरे मानसपटल पर
प्रतिबिंब दिखता है…!
होली या फाग हमारी सामासिकता का इंद्रधनुषी प्रतीक है। यही कारण है कि होली क्षमापना का भी पर्व है। क्षमापना अर्थात वर्षभर की ईर्ष्या मत्सर, शत्रुता को भूलकर सहयोग- समन्वय का नया पर्व आरंभ करना।
जाने-अनजाने विगत वर्षभर में किसी कृत्य से किसी का मन दुखा हो तो हृदय से क्षमायाचना। आइए, शेष जीवन में हिल-मिलकर अशेष रंगों का आनंद उठाएँ, होली मनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से आरम्भ होगी। यह श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को विराम लेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 24 – मित्रता की स्वर्ण जयंती ☆ श्री राकेश कुमार ☆
सन ’72 में गोविंद राम सक्सेरिया महाविद्यालय, जबलपुर में अध्यन के लिए प्रवेश लिया, तो कक्षा के सभी सहपाठी अनजान थे, क्योंकि पाठशाला में विज्ञान से उत्तीर्ण होकर वाणिज्य विषय चयनित किया था।
विगत दिनों जबलपुर के पुराने सहपाठी से विदेश में पचास घंटे साथ व्यतीत करने का अवसर प्राप्त हुआ। ये संयोग ही था कि मित्रता को भी पचास वर्ष पूरे हुए हैं।
महाविद्यालय में साथ बिताए हुए पांच वर्ष की स्मृतियों को मानस पटल पर आने में कुछ क्षण ही लगे। मानव प्रवृत्ति ऐसी ही होती हैं, जब कोई पुराना मित्र या पुराने स्थान से संबंधित कोई भी वस्तु सामने होती है, तो मन के विचार प्रकाश की गति से भी तीव्र गति से दिमाग में आकर स्फूर्ति प्रदान कर देते हैं। हम अपने आप को उस समय की आयु का समझ कर हाव भाव व्यक्त करते हैं। पुरानी यादें, पुराने मित्र या पुरानी शराब का नशा कुछ अलग प्रकार का होता है।
हम दोनों मित्रों ने अगस्त 88 में जबलपुर से विदा ली थी। मित्र अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में जीवकोपार्जन के लिए निकल गए थे, और हमें पदोन्नत होने पर इस्पात नगरी, भिलाई जाना पड़ा था।
मित्र के साथ बिताए हुए समय का केंद्र बिंदु तो जबलपुर ही था, परंतु उनके वर्तमान देश अमेरिका के बारे में भी चर्चाएं होना भी स्वाभाविक है। बातचीत में मित्र ने बताया कि- “US is land full of Golden opportunities and they want each and every one in US शुड 1. Be a homeowner and 2. Be a business owner.”
क्योंकि ये देश ही तो विश्व में पूंजीवाद का सिरमौर है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 178☆ शिवोऽहम्… (3)
निर्वाण षटकम् का हर शब्द मनुष्य के अस्तित्व पर हुए सारे अनुसंधानों से आगे की यात्रा कराता है। इसका सार मनुष्य को स्थूल और सूक्ष्म की अवधारणा के परे ले जाकर ऐसे स्थान पर खड़ा कर देता है जहाँ ओर से छोर तक केवल शुद्ध चैतन्य है। वस्तुत: लौकिक अनुभूति की सीमाएँ जहाँ समाप्त होती हैं, वहाँ से निर्वाण षटकम् जन्म लेता है।
तृतीय श्लोक के रूप में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का परिचय और विस्तृत होता है,
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।3।।
अर्थात न मुझे द्वेष है, न ही अनुराग। न मुझे लोभ है, न ही मोह। न मुझे अहंकार है, न ही मत्सर या ईर्ष्या की भावना। मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से परे हूँ। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ , मैं शिव हूँ।
राग मनुष्य को बाँधता है जबकि द्वेष दूरियाँ उत्पन्न करता है। राग-द्वेष चुंबक के दो विपरीत ध्रुव हैं। चुंबक का अपना चुंबकीय क्षेत्र है। अनेक लोग, समान और विपरीत ध्रुवों के निकट आने से उपजने वाले क्रमश: विकर्षण और आकर्षण तक ही अपना जीवन सीमित कर लेते हैं। यह मनुष्य की क्षमताओं की शोकांतिका है।
इसी तरह मोह ऐसा खूँटा होता है जिससे मनुष्य पहले स्वयं को बाँधता है और फिर मोह मनुष्य को बाँध लेता है। लोभ मनुष्य को सीढ़ी दर सीढ़ी मनुष्यता से नीचे उतारता जाता है। इनसे मुक्त हो पाना लौकिक से अलौकिक होने, तमो गुण से वाया रजो गुण, वाया सतो गुण, गुणातीत होने की यात्रा है।
एक दृष्टांत स्मरण हो आ रहा है। संन्यासी गुरुजी का एक नया-नया शिष्य बना। गुरुजी दैनिक भ्रमण पर निकलते तो उसे भी साथ रखते। कोई न कोई शिक्षा भी देते। आज भी मार्ग में गुरुजी शिष्य को अपरिग्रह की शिक्षा देते चल रहे थे। संन्यास और संचय का विरोधाभास समझा रहे थे। तभी शिष्य ने देखा कि गुरुजी एक छोटे-से गड्ढे के पास रुक गये, मानो गड्ढे में कुछ देख लिया हो। अब गुरुजी ने हाथ से मिट्टी उठा-उठाकर उस गड्ढे को भरना शुरू कर दिया। शिष्य ने झाँककर देखा तो पाया कि गड्ढे में कुछ स्वर्णमुद्राएँ पड़ी हैं और गुरुजी उन्हें मिट्टी से दबा रहे हैं। शिष्य के मन में विचार उठा कि अपरिग्रह की शिक्षा देनेवाले गुरुजी के मन में स्वर्णमुद्राओं को सुरक्षित रखने का विचार क्यों उठा? शिष्य का प्रश्न गुरुजी पढ़ चुके थे। हँसकर बोले, “पीछे आनेवाले किसी पथिक का मन न डोल जाए, इसलिए मैं मिट्टी पर मिट्टी डाल रहा हूँ।”
मिट्टी पर मिट्टी डालने की लौकिक गतिविधि में निहितार्थ गुणातीत होने की अलौकिकता है।
गतिविधि के संदर्भ में देखें तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन के चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से हर पुरुषार्थ की विवेचना अनेक खंडों के कम से कम एक ग्रंथ की मांग करती है। यदि इनके प्रचलित सामान्य अर्थ तक ही सीमित रहकर भी विचार करें तो धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष की लालसा न करना याने इन सब से ऊपर उठकर भीतर विशुद्ध भाव जगना। ‘विशुद्ध’, शब्द लिखना क्षण भर का काम है, विशुद्ध होना जन्म-जन्मांतर की तपस्या का परिणाम है।
परिणाम कहता है कि तुम अनादि हो पर आदि होकर रह जाते हो। तुम अनंत हो पर अपने अंत का साधन स्वयं जुटाते हो। तुम असीम हो पर तन और मन की सीमाओं में बँधे रहना चाहते हो। तुम असंतोष और क्षोभ ओढ़ते हो जबकि तुम परम आनंद हो।
राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन सब से हटकर अपने अस्तित्व पर ध्यान केंद्रित करो। तुम अनुभव करोगे अपना अनादि रूप, अनुभूति होगी अंतर्निहित ईश्वरीय अंश की, अपने भीतर के चेतन तत्व की। तब शव होने की आशंका समाप्त होने लगेगी, बचेगी केवल संभावना, जो प्रति पल कहेगी ‘शिवोऽहम्।‘
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 कृपया आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना जारी रखें। होली के बाद नयी साधना आरम्भ होगी 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈