हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #192 – बालसाहित्य – आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है  आपका बालसाहित्य के अंतर्गत एक ज्ञानवर्धक आलेख आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 192 ☆

☆ बाल साहित्य – आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मेरा जन्म 1900 की शुरुआत में ओहियो के डेटन में एक छोटे से वर्कशॉप में हुआ था। मेरे निर्माता ऑरविल और विल्बर राइट नाम के दो भाई थे। वे पक्षी की उड़ान से प्रेरित थे। वे कई वर्षों से मेरे डिजाइन पर काम कर रहे थे।

मैं एक बहुत ही साधारण मशीन था। मेरे पास दो पंख थे, एक प्रोपेलर और एक छोटा इंजन। लेकिन मैं भी बहुत नवीन था। मैं पहला हवाई जहाज था जो कुछ सेकंड से अधिक समय तक उड़ान भरने में सक्षम था।

17 दिसंबर, 1903 को मैंने अपनी पहली उड़ान भरी। मैं ऑरविल के नियंत्रण में था। विल्बर मेरे साथ दौड़ रहा था। वह एक रस्सी पकड़े था। मैंने 12 सेकंड के लिए उड़ान भरी। 120 फीट की यात्रा की। यह एक छोटी उड़ान थी, लेकिन यह एक ऐतिहासिक थी।

मेरी उड़ान ने साबित कर दिया कि इंसान उड़ सकता है। इसने अन्य अन्वेषकों को नए और बेहतर हवाई जहाज बनाने के लिए प्रेरित किया। और इसने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया।

मैं अब 100 से अधिक वर्षों से उड़ रहा हूं। मैंने उस समय में काफी बदलाव देखे हैं। हवाई जहाज बड़े और तेज हो गए हैं। वे ऊंची और दूर तक उड़ सकते हैं। वे अधिक लोगों को ले जा सकते हैं।

लेकिन एक चीज नहीं बदली है: मैं अभी भी दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक मशीन हूं। मैं लोगों को नई जगहों और नए अनुभवों के साथ ले जा सकता हूं। मैं लोगों को एक-दूसरे से और उनके आसपास की दुनिया से जुड़ने में मदद कर सकता हूं। मैं दुनिया को एक छोटी जगह बना दिया है।

मुझे मेरे हवाई जहाज होने पर गर्व है। लोगों को यात्रा करने और अन्वेषण करने में मदद करने पर मुझे प्रसन्न्ता होती है। मुझे मेरी प्यारी दुनिया के भ्रमण करने पर गर्व है।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

24-05-2023

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नोबल पुरस्कार विजेता हान कांग ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

 

☆ आलेख ☆ नोबल पुरस्कार विजेता हान कांग ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

सुदूर पूर्व में बसा दक्षिण कोरिया एक खूबसूरत देश है, जिसने गत 25 वर्षों में आर्थिक दृष्टी से समृद्धी के चमत्कारपूर्ण शिखर छू लिए है। लगभग भारत के साथ साथ ही आजा़द हुआ यह देश भारतीय आर्थिक तंत्र से ही नहीं बल्कि अन्य कितने ही देशों से किस हद तक आगे बढा़ है इसका पता इस बात से चलता है कि आज कोरिया  की प्रति व्यक्ति आय 18000 अमेरिकी डालर है। यूँ तो भौगोलिक दृष्टी से दक्षिण कोरिया एक छोटासा देश है, पर इसका अपना एक गौरवशाली इतिहास और संस्कृति है। कोरिया में भारत की पहचान गांधी, बौद्ध और टैगोर के कारण रही है। जब मैं दक्षिण कोरिया में सरकार की ओर से अतिथि आचार्य के रूप में गई थी तो कोरियाई कवयित्री किम यांग शिक के घर गयी थी। वे टेगोर के नाम से कई साहित्यिक गतिविधियाँ चलाती है। वहाँ मैंने टैगोर की प्रतिमा देखी थी। एशिया के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अपने साहित्यकार की प्रतिमा को देखकर मैं गर्व से भर गयी थी। आज इस दक्षिण कोरिया का नाम साहित्य में नोबल पुरस्कार विजेताओं में दर्ज हो गया है, यह बात भी मेरे लिए उतनी ही गर्व की है।

‘गहन काव्यात्मक गद्य’ के लिए ख्यात 53 वर्षीय कोरियाई लेखिका हान कांग का 2024 के साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नाम जब सामने आया तो लेखिका के साथ साथ सभी चकित हुए थे। यह कोरियाई भाषा के लिए भी ऐतिहासिक क्षण है। साहित्य के लिए उनका यह पहला नोबेल पुरस्कार है। 10 अक्टूबर को साहित्य के क्षेत्र में नोबेल विजेता के नाम की घोषणा के पहले किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि कोरिया की चौवन साल की महिला साहित्यकार बड़े-बड़े महारथियों को पीछे छोड़कर वैश्विक स्वीकृति-सूचक इस सम्मान का हकदार होंगी। 10 अक्टूबर 2024 को नोबेल समिति ने हान कांग को ‘गहन काव्यात्मक गद्य में इतिहास के ज़ख्म, सामूहिक स्मृति की पीड़ा और मानव जीवन की अनिश्चितता और नश्वरता को पिरोने’ के कौशल के लिये पुरस्कृत किया गया। यह सम्मान कोरियाई जनता के लिये गर्व का विषय है, लेकिन हान कांग के पिता जो स्वयं सुप्रसिद्ध उपन्यासकार हैं उनको यह समाचार पहले तो झूठ ही लगा था। क्योंकि उन्हें लगा था कि कई सारे बड़े बड़े साहित्यकार इस रेस में हैं, मेरी बेटी को कैसे इतना बडा पुरस्कार मिल सकता है। जब लेखिका को यह पूछा गया कि आप इस क्षण का उत्सव कैसे मनाएंगी? तो उन्होंने कहा कि, ‘ऐसे तो मैं चाय नहीं पीती हूँ, लेकिन आज इस खुशी के मौके पर बेटे के साथ चाय पी लूंगी।’ कोरिया में क्योबो नाम से एक बहुत बडी दुकान है जिसमें लाखों किताबें हैं। हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार खाली थी। उस दीवार पर लिखा था ‘नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिये आरक्षित’ आज उस दीवार का खालीपन दूर हुआ।

हान कांग का जन्म 27.11.1970 को दक्षिण कोरिया के ग्वांगजू में हुआ था बाद में लगभग दस की उम्र में वे सिओल चली आयी थी। उनके घर में साहित्यिक वातावरण है। पिता स्वयं लेखक हैं और दोनों भाई भी कथा साहित्य और बाल साहित्य सृजन करने में रत हैं। हान कांग को बचपन से पुस्तकों से लगाव  रहा है। दोस्तों से पहले पुस्तकों से वे दोस्ती करती थी। उनके माता-पिता चाहते थे कि वह विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करे, लेकिन बेटी ने कोरियाई भाषा लेखक होना चाहा। माता-पिता ने बेटी पर अपनी इच्छा थोपी नहीं। कोरियाई साहित्य की छात्रा होने के बावजूद उन्होंने अंग्रेजी भाषा और साहित्य का अध्ययन किया। बाद में यूरोप और अमेरिका में कुछ महीने बिताने के बाद उन्होंने समकालीन विश्व साहित्य की ऊर्जा और उष्मा को अच्छी तरह जाना और समझा।

आरम्भ में हान कांग कविता लिखती थीं। उनके साहित्यिक जीवन का आरम्भ तेईस साल की अवस्था में हुआ जब ‘साहित्य और समाज’ नामक पत्रिका में उनकी पाँच कविताएं छपीं। हान कांग का साहित्यिक जीवन तब शुरू हुआ जब उन्होंने 1993 में लिटरेचर एंड सोसायटी के शीतकालीन अंक में ‘विंटर इन सियोल’ सहित पांच कविताएं प्रकाशित कीं। उनके उपन्यास लेखन की शुरुआत 1994 में हुई, जब उन्होंने अपनी रचना ‘रेड एंकर’ के लिए सियोल शिनमुन स्प्रिंग लिटरेरी कॉन्टेस्ट जीता। उनका पहला संग्रह, ‘लव ऑफ योसु’ 1995 में प्रकाशित हुआ था। कोरिया में प्रकाशित उनकी रचनाओं में ‘फ्रूट्स ऑफ माई वूमन’ (2000) शामिल हैं, उपन्यास जिनमें द ब्लैक डियर (1998), योर कोल्ड हैड (2002), द वेजिटेरियन (2007), बीथ फाइटिंग (2010), ग्रीक लेसन (2011), ह्युमन एक्ट आदि शामिल हैं। हान कांग एक कवयित्री, कथाकार और उपन्यासकार हैं। हान एक संगीतकार भी हैं। ‘द वेजिटेरियन’ हान कांग की पहली कृति थी जिस पर फीचर फिल्म बनाई गई थी और कुछ साल पहले जिसे बुकर अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।

यह उपन्यास उन्होंने 2007 में लिखा था, जो तीन भागों में विभाजित है और यह बहुचर्चित रहा। यह उपन्यास योंग व्हे नामक लडकी की कहानी पर आधारित है। जो एक कर्तव्यनिष्ठ पत्नी है, जिसका मांस न खाने का फैसला उसके सारे व्यक्तित्व को तहस नहस कर देता है। 1997 में हाग कांग ने  एक कहानी लिखी थी जिसका नाम था ‘एक महिला जो वास्तव में फल में बदल जाती है’ इस पर यह आधारित है। हान कांग ने कहा था कि वह बीस की उम्र तक शाकाहारी थी, किंतु बाद में उन्हें शारीरिक कारणों से मांस खाना पडा, पर मन में कहीं अपराध बोध रहता था। उन्होंने इसका जवाब बौद्ध धर्म में देखना चाहा। पर तीस की उम्र में आते आते उनको जोडों में दर्द शुरु हुआ। हाथ में अत्यधिक दर्द होने के कारण वे पेन से लिख नहीं पाती थी तो वे की-बोर्ड पर पेन से टाइप करती थी।

 हान कांग ने अपने समाज के जटिल यथार्थ की अन्तर्दृष्टि प्राप्त की, अपने उपन्यासों में ऐसे पात्र गढ़े जिन्हें राष्ट्रीय आख्यान का प्रतीक माना जा सकता है, और उस यथार्थ को इतनी सहजता और संवेदना के साथ चित्रित किया कि पाठकों में मन में यथार्थ का बोध उत्पन्न हो पाया। वे कहती है कि जिस तरह द वेजिटेरियन लोगों ने पढ़ा वैसे ही ‘वी डु नॉट पार्ट’ भी पढ़ें।

हान कांग निश्चित ही अद्वितीय है। समाज और व्यक्ति चेतना के प्रति उनकी प्रतिबद्धता हमें उनके साहित्य में निश्चित ही मिलती है।

वैसे टैगोर कभी कोरिया नहीं गए लेकिन उन्होंने उसे पूर्व का दीप कहा था। आज वह दीप साहित्य में भी प्रज्वलित हो रहा है। कोरिया के पॉप संगित, के ड्रामा, बीटीएस की लोकप्रियता सो तो सभी परिचित हैं, हान कांग के माध्यम से कोरियाई साहित्य भी विश्वपटल पर आ गया है। आज सचमुच दक्षिण कोरिया सांता क्लॉज बन गया है।

(गुगल पर आधारित सामग्री से उक्त लेख तैयार किया है।)

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©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

306/40, विमल विला, निसर्ग कॉलोनी, जयनगर, बेलगाम, कर्नाटक

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 510 ⇒ जलना और जंग लड़ना ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जलना और जंग लड़ना।)

?अभी अभी # 510 ⇒ जलना और जंग लड़ना ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे जीवन का भौतिक विज्ञान का पहला पाठ पदार्थ के जलने और जंग लगने, अर्थात् rusting and burning से हुआ था। प्रश्न भी कुछ इस तरह का रहता था, जलने और जंग लगने में अंतर बताओ। बही खाते में आय व्यय की तरह, पुस्तक में बायीं ओर जलना और दांयीं ओर जंग लगना, लिखा रहता था। जो आगे चलकर भौतिक जगत के व्यवहार में जलने और जंग लड़ने में अंतर करते करते गुजर गया।

जो जीवन कभी चलने का नाम था, वह कब जलने का नाम हो गया, कुछ पता ही नहीं चला। एकाएक जंग लगी इस जिंदगी में उबाल आया और जिंदगी की जंग शुरू हो गई। जीवन की इस प्रतिस्पर्था में यह जलन बहुत काम आई। महत्वाकांक्षा और आगे निकलने की इस दौड़ में, चलना और जलना साथ साथ चले, जिसके कारण अपने से आगे निकलने वाले को टांग मारकर गिराना, अथवा धक्का देकर आगे बढ़ना आम था। खास बनने के लिए आम से जलना भी पड़ता है। जलने और जंग लड़ने में सब जायज़ होता है। Everything is fair in jealousy and war.

बिना दीया जलाए भी कहीं रोशनी हुई है। सीने में जलन और आँखों में इतने समय से तूफान क्यूं था, और उस वक्त, हर शख्स परेशान सा क्यूं था, यह अब पता चला। जिंदगी के तूफान और दीये की यह जंग बहुत पुरानी है। जंग अभी जारी है, यह आग कब बुझेगी, कोई जाने ना ;

तेरा काम है परवाने जलने का।

चाहे शमा जले, या ना जले।।

जीवन में जंग लग जाने से बेहतर है, कुछ किया जाए ! क्यों न व्यर्थ जलने के बजाए उंगली कटाकर ही शहीद हुआ जाए। जब से इस इंसान ने आग का आविष्कार किया है, उसे जलने, जलाने में बड़ा आनंद आता है। उसके अंदर भी एक आग है, और बाहर भी एक आग। गुलजार बड़ी खूबसूरती से अपने जिगर की आग को पड़ोसी के चूल्हे की राख से, बीड़ी जलाकर और अधिक प्रज्वलित कर देते हैं और राखी को राखी सावंत बनते देर नहीं लगती।

प्रेम और इश्क में अगर ढाई अक्षर होते हैं तो जंग में भी ढाई आखर ही होते हैं। इसीलिए हम प्यार में जलने वालों को, चैन कहां, आराम कहां। हम भी अजीब हैं, कभी प्यार में जलते हैं, तो कभी किसी के प्यार से जलते हैं। और कई बार ऐसा मौका आया है जिंदगी में, कि दर्द छुपाए नहीं छुपता। आखिर जुबां पर आ ही जाता है ;

गुज़रे हैं आज इश्क के

हम उस मुकाम से।

नफ़रत सी हो गई है,

मोहब्बत के नाम से।।

ये नफरत मोहब्बत, ये प्यार मोहब्बत, ये जलना और जंग लड़ना लगता है, अब जीवन का एक आवश्यक अंग बन गया है, और जीवन का काफिया कुछ यूं बयां हो गया है ;

जीवन जलने का नाम

जलते रहो सुबहो शाम।

जिंदगी एक जंग है कर दो ये ऐलान। ये आग तब ही बुझेगी। ।

वैसे आज जलने का नहीं, केवल एक प्रेम का दीप जलाने का अवसर है। जब दीप जले आना, जब सांझ ढले आना। शुभ दीपावली। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 509 ⇒ सौन्दर्य बोध ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सौन्दर्य बोध।)

?अभी अभी # 509 ⇒ सौन्दर्य बोध ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(ASTHETIC SENSE)

जब भी सुंदरता की बात होती है, चंदन सा बदन, चंचल चितवन, से आगे बात ही नहीं बढ़ती। नारी सौंदर्य की मूरत है, बस यही बोध पर्याप्त है। सारे कवि और शायर भी घूम फिरकर यही कहना चाहते हैं लेकिन सौंदर्य का एक कला पक्ष भी होता है, जो कहीं ना कहीं उसे व्यक्ति परक नहीं, वस्तुपरक बनाता है। वस्तु के इस कलात्मक पक्ष को ही asthetic sense, यानी सौंदर्य बोध का नाम दिया गया है।

कला, सौंदर्य और सुरुचि का नाम ही सौंदर्य बोध है। जब हम किसी ऐसे घर में प्रवेश करते हैं, जहाँ सब कुछ व्यवस्थित, ठिकाने पर हो, घर की हर वस्तु आपको आकर्षित करती हो, जिसमें घर में रहने वाले का व्यवहार और पहनावा भी शामिल हो, चलने का तरीका, बोलने का तरीका, हँसने से लेकर खाते समय मुंह चलाने तक का तरीका आकर्षित करता हो, तो आप कह सकते हैं कि उस व्यक्ति में एस्थेटिक सेंस यानी सौंदर्य बोध है।।

आप सौंदर्य को सभ्यता और संस्कृति से अलग नहीं कर सकते। जिसे हम तहज़ीब, manner अथवा एटिकेट कहते हैं, उसकी तह में बोलने अथवा बात करने का लहजा भी मायने रखता है। किसी का सुरुचिपूर्ण व्यवहार यानी polished behaviour आपको कभी कभी कृत्रिम भी लगे, लेकिन जो लोग इसमें ढल जाते हैं, उनकी सहजता और सरलता उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा देती है।

आप मुझे अच्छे लगने लगे ! सौंदर्य बोध का इससे अच्छा उदाहरण और कोई नहीं हो सकता। यहाँ अनुभूति का स्तर, देह से बहुत ऊपर उठ गया है, जिसमें अगर एक अबोध बच्चे की खुशी भी शामिल है तो एक आत्मा का दूसरी आत्मा के प्रति अपनापन, जो कहीं कहीं परमात्मा के करीब है। क्योंकि जो वाकई अच्छा है, वही सत्य है, शिव है और सुंदर है।।

आपको भगवान मंदिर में नहीं मिलेंगे, इंसानों में ही मिलेंगे। खेत, खलिहानों, बाग बगीचों, हरी भरी वादियों, पहाड़ों और झरनों में ही उस विराट की प्रतीति ही सौंदर्य बोध है। संगीत, ध्यान, कला, नृत्य और अध्यात्म उसके विभिन्न अवयव हैं। यह गीता का वह ज्ञान है, कर्म की कुशलता जिसका पहला अध्याय है, तो निष्काम कर्म अंतिम।

अमीरी गरीबी से ऊपर, सुख दुःख के बीच, सरलता, सहजता, निष्पाप मन, निर्विकार चेष्टा, मानव मात्र के प्रति शुभ संकल्प का भाव, प्राणी मात्र के कल्याण की भावना और प्रकृति और पर्यावरण से प्रतीति ही सौंदर्य बोध है। अंदर और बाहर से व्यवस्थित होना ही व्यवस्था है। प्रकृति में जहाँ भी सौंदर्य है, वह व्यवस्थित और अनुशासित है। पक्षियों का उड़ना, शाम को अपने घर लौटना, फूल का खिलना, भौंरों का गुनगुनाना, नदियों का बहना, सभी इस व्यवस्था के अंग हैं, इसीलिए उनमें सौंदर्य बोध है। हमें कोई दूसरी दुनिया नहीं बसानी। इसी को व्यवस्थित करना है। हमारी दृष्टि बदलने से समष्टि बदल जाती है। दृष्टि में ही सौंदर्य बोध है। जब सृष्टि इतनी सुंदर है, तो इसका रचयिता कितना सुंदर होगा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 105 – देश-परदेश – ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 105 ☆ देश-परदेश – Who Ratan Tata? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज 11 अक्टूबर प्रातः काल के समय निकट के उद्यान में कुछ बच्चे खेलते हुए दिखे, तो अच्छा लगा कि प्रातः के समय बच्चे बिना किसी मोबाइल के सहारे खेल रहे हैं। उनकी आयु 13-14 वर्ष लग रही थी।

हम तीन साथी उनके पास जा कर प्रोहत्सहित करते हुए उनका मनोबल बढ़ाने लगे, बच्चे तो मन के सच्चे होते हैं, वो बोले आज स्कूल में अचानक अष्टमी का हॉलीडे हो गया, इसलिए सुबह उठ गए वर्ना छुट्टी के दिन तो दस बजे ही उठते हैं।

हमारे एक साथी ने पूछा रतन टाटा को जानते हो क्या? एक बच्चा जो आठवीं का छात्र था, तुरंत बोला who Ratan Tata? दूसरे बच्चे ने कहा हां, कल टीवी पर दिन भर कुछ ऐसा ही बोल रहे थे। तीसरा बच्चा बोला, क्या वो पुराने जमाने के हीरो थे? जैसे वो भुजिया का एड करने वाले अभिताभ बच्चन हैं। आज उनका जन्मदिन भी है, बहुत मज़ा आयेगा। एक अन्य बच्चा बोला उनका नाम तो कभी बिग बॉस के लोगों में भी नही सुना हैं, जैसे सिद्धू अंकल तो क्रिकेट भी खेलते थे, और बिग बॉस में भी खेले थे।

हमने बच्चों को बोला वो तो “रियल हीरो” हैं। एक बच्चा बोला क्या वो इंडिया के लिए क्रिकेट खेलते थे? जैसे सारा अली खान के दादा अपने जमाने में खेलते थे। दूसरा बच्चा बोला उनको टीवी या किसी विज्ञापन में भी कभी नहीं देखा है। यादि वो बड़े उद्योगपति थे, तो अंबानी अंकल के बेटे की शादी में भी नहीं दिखे, क्रूज की लिस्ट में भी उनका नाम नहीं था।

बच्चों को पास में रखी हुई बेंच पर बैठा कर उनको समझाया की वो बहुत बड़े दानवीर थे, समाज के जरूरतमंद लोगों की बहुत सहायता भी करते थे। उन्होंने देश को बहुत सारे उद्योग धंधे भी दिए हैं। उनमें से एक बच्चा बोला, वो सब तो ठीक है, आप लोगों ने किस किस जरूरतमंद की हेल्प करी है, कौन कौन से उद्योग धंधे लगाए है?

धूप में तेज़ी आने का बहाना कर हम तीनों साथी रूमाल से पसीना पोंछते हुए उद्यान से बाहर आ गए।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सेल्फमेड ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सेल्फमेड ? ?

बच्चों को उठाने के लिए माँ-बाप अलार्म लगाकर सोते हैं। जल्दी उठकर बच्चों को उठाते हैं। किसीको स्कूल जाना है, किसीको कॉलेज, किसीको नौकरी पर। किसी दिन दो-चार मिनट पहले उठा दिया तो बच्चे चिड़चिड़ाते हैं।  माँ-बाप मुस्कराते हैं, बचपना है, धीरे-धीरे समझेंगे।…धीरे-धीरे बच्चे ऊँचे उठते जाते हैं और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

सोचता हूँ कि माँ-बाप और परमात्मा में कितना साम्य है! जीवन में हर चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए जाग्रत और प्रवृत्त करता है ईश्वर। माँ-बाप की तरह हर बार जगाता, चाय पिलाता, नाश्ता कराता, टिफिन देता, चुनौती फ़तह कर लौटने की राह देखता है। हम फ़तह करते हैं चुनौतियाँ और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

कब समझेंगे हम? अनादिकाल से चला आ रहा बचपना आख़िर कब समाप्त होगा?

(प्रातः 6:52 बजे,28.8.19)

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 508 ⇒ तब और अब  ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तब और अब ।)

?अभी अभी # 508 ⇒ तब और अब  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आपने अख़बारों में विज्ञापन देखें होंगे – तब और अब ! एक तस्वीर में एक गंजे सज्जन खड़े हैं, और दूसरी में एक बाल वाले। यह हमारे तेल का कमाल है। कल जहां रेगिस्तान था, आज वहां फसल लहलहा रही है। फेयर एंड लवली के विज्ञापन में भी एक मुहांसे वाली और दूसरी ओर इटालियन टाइल्स जैसी चिकनी चुपड़ी सूरत। प्रकृति के सिद्धांत के विपरीत बूढ़े से जवान होइए। तब और अब में अंतर देखिए।

बुजुर्गों के किस्से कहानियों में तब का गुणगान होता था, और अब की आलोचना ! उनके लिए वह गर्व करने वाला अंग्रेजों का जमाना था। चीजें इतनी सस्ती थी कि क्या बताएं ! उनके परिवार में कोई न कोई रायबहादुर, जमींदार अथवा दीवान अवश्य निकल आता था। राजा साहब द्वारा दी गई तलवार दीवार पर लटकी रहती थी। शिकार के किस्से न हुए, तो किस्से ही क्या हुए। ।

मुझे भी यह अख्तियार है कि मैं तब और अब के किस्से सुनाऊं ! रात होती तो आप सो जाते। दिन में तो केवल चाय ही बोरियत दूर कर सकती है। तो पेश हैं मेरे तब और अब के बोरियत भरे किस्से।

मुझे तब और अब में ज़्यादा कुछ बदला नज़र नहीं आता ! तब भी मैं, मैं ही था, और आज भी मैं, मैं ही हूं। यह मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। लोग कल कुछ और थे, और आज कुछ और हैं।

जो समय के साथ बदला नहीं, वो इंसान नहीं। तो बताइए, मैं कौन हूं। ।

तब भी मेरे पास वे चीजें नहीं थीं, जो लोगों के पास थीं, और आज भी ऐसी कई चीजें, जो लोगों के पास है, मेरे पास नहीं है। तब हमारे पास फ्रिज नहीं था, लोगों के पास था। जिनके पास था, उनके फ्रिज के ऊपर एक डब्बा रखा रहता था, जिसे वोल्टेज स्टेबलाइजर कहते थे।

मैं उसकी कांपती सुई की ओर देखा करता। जब वोल्टेज कम ज़्यादा होता है तो स्टेबलाइजर उसे कंट्रोल कर लेता है। यही हाल तब के टीवी का था। बड़ी महंगी चीजें थीं, इसलिए स्टेबलाइजर भी जरूरी था।

मेरे घर जब तक फ्रिज और टीवी आया, वोल्टेज स्टेबलाइजर इन बिल्ट हो चुके थे। मेरे यहां तब भी स्टेबलाइजर नहीं था, आज भी नहीं है। लाइट तब भी जाता था, आज भी जाता है। लोग इन्वर्टर और जेनरेटर रखने लगा गए हैं। मेरे पास तब भी इन्वर्टर नहीं था, आज भी नहीं है। ।

एक समय लूना जितनी कॉमन थी, आज कार उतनी कॉमन हो गई है। लोग लूना से कार पर आ गए। मेरे पास तब लूना ज़रूर थी, लेकिन अब मेरे पास न लूना है, न कार है। बस, कभी सिटी बस है, तो कभी ग्यारह नंबर की बस। अब तो मेरे पास मेट्रो भी आ रही है।

तब और अब में जो सबसे महत्वपूर्ण है और जिसके लिए मुझे गर्व है, अभिमान है, फख्र है, घमंडवा है, वह यह, कि मेरी मुट्ठी तब भी बंद थी, और आज भी बंद है। कहते हैं, बंधी मुठ्ठी लाख की होती है। और इसका श्रेय मैं अपने पिताजी को देता हूं। मैंने उन्हें अपने जीवन में कभी किसी के आगे हाथ पसारते नहीं देखा। अगर उनका हाथ खुला, तो किसी को देने के लिए ही, मांगने के लिए नहीं। ।

जो न नवीन हो, न पुरातन हो, तब भी वैसा ही हो, और अब भी वैसा ही हो, वह सनातन होता है। संसार चलता रहता है, इसलिए यह समय के साथ बदलता रहता है। मूल्य बदलते हैं, परिभाषाएं बदलती हैं, लोगों की फितरत बदलती है। जो आज जड़ दिखाई देता है, वह कभी चेतन था, जो आज चेतन है, वह कभी जड़ था।

सृष्टि के कुछ नियम है, कुछ मर्यादाएं हैं। सूरज पूरब से निकलता है, पश्चिम में अस्त होता है। ऋतुएं तीन हैं, सुर सात हैं। दो और दो चार होते हैं। जब दो और दो पांच होने लग जाएंगे, पूरब पश्चिम मिलने लग जाएंगे, रात रानी दिन में खिलने लगेगी, नियम टूट जाएंगे, मर्यादाएं भंग हो जाएंगी। तब और अब में फर्क मिट जाएगा। सनातन पर संकट छा जाएगा। ।

एक वो भी दीवाली थी, एक ये भी दीवाली है। तब दस रुपए के पटाखों के लिए थैला ले जाना पड़ता था, अब ठेले भर पटाखे, सिर्फ paytm से आ जाते हैं। तब दीयों से रोशनी होती थी, अब बिजली की झालर से मॉल और भवन सजाए जाते हैं।

मिठाई तब भी बनती थी, आज भी बनती है। घर की सफाई तब भी होती थी, आज भी होती है। खुशियां कम ज़्यादा हो जाएं, कमरतोड़ महंगाई क्यों न हो जाए, खुशियों को गले लगाना मनुष्य का स्वभाव तब भी था, आज भी है। सुख दुख सनातन हैं। हम तब भी खुश थे, आज भी खुश हैं।

सूरज का रोज सुबह उगना, फूलों का सुबह खिलना, झरनों का निरंतर बहना, पक्षियों का चहचहाना क्या खुशियों का सबब नहीं ? हम क्यों सुबह के अभिवादन में सुप्रभात अथवा गुड मॉर्निंग ही कहते हैं, bad morning अथवा एक मनहूस सुबह नहीं कहते। हम जानते हैं, खुशियां ही जीवन की सकारात्मकता है। तब भी थी आज भी है। खुशियां बांटने से बढ़ती है। दीपावली की शुभकामनाएं। खुशियों से आपका जीवन जगमगाए। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 262 – को जागर्ति? ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 262 ☆ को जागर्ति? ?

इसी सप्ताह शरद पूर्णिमा सम्पन्न हुई। इसे कौमुदी पूर्णिमा अथवा कोजागरी के नाम से भी जाना जाता है।

अश्विन मास की पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा कहलाती है। शरद पूर्णिमा अर्थात द्वापर में रासरचैया द्वारा राधारानी एवं गोपिकाओं सहित महारास की रात्रि, जिसे देखकर आनंद विभोर चांद ने धरती पर अमृतवर्षा की थी।

चंद्रमा की कला की तरह घटता-बढ़ता-बदलता रहता है मनुष्य का मन भी। यही कारण है कि कहा गया, ‘चंद्रमा मनसो जात:।’

यह समुद्र मंथन से लक्ष्मी जी के प्रकट होने की रात्रि भी है। समुद्र को मथना कोई साधारण कार्य नहीं था। मदरांचल पर्वत की मथानी और नागराज वासुकि की रस्सी या नेती, कल्पनातीत है। सार यह कि लक्ष्मी के अर्जन के लिए कठोर परिश्रम के अलावा कोई विकल्प नहीं।

लोकमान्यता है कि कोजागरी की रात्रि लक्ष्मी जी धरती का विचरण करती हैं और पूछती हैं, ‘को जागर्ति?’.. कौन जग रहा है?..जगना याने ध्येयनिष्ठ और विवेकजनित कर्म।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान का उवाच है,

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

                                                (2.69)

सब प्राणियोंके लिए जो रात्रि के समान है, उसमें स्थितप्रज्ञ संयमी जागता है और जिन विषयोंमें सब प्राणी जाग्रत होते हैं, वह मुनिके लिए रात्रि के समान है ।

सब प्राणियों के लिए रात क्या है? मद में चूर होकर अपने उद्गम को बिसराना,अपनी यात्रा के उद्देश्य को भूलना ही रात है। इस अंधेरी भूल-भुलैया में बिरले ही सजग होते हैं, जाग्रत होते हैं। वे निरंतर स्मरण रखते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, हर क्षण परमात्म तत्व को समर्पित करना ही लक्ष्य है। इन्हें ही स्थितप्रज्ञ कहा गया है।

साधारण प्राणियों का जागना क्या है? उनका जागना भोग और लोभ में लिप्त रहना है।  मुनियों के लिए दैहिकता कर्तव्य है। वह पर कर्तव्यपरायण तो होता है पर अति से अर्थात भोग और लोभ से दूर रहता है। साधारण प्राणियों का दिन, मुनियों की रात है।

अब प्रश्न उठता है कि सर्वसाधारण मनुष्य क्या सब त्यागकर मुनि हो जाए? इसके लिए मुनि शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। मुनि अर्थात मनन करनेवाला, मननशील। मननशील कोई भी हो सकता है। साधु-संत से लेकर साधारण गृहस्थ तक।

मनन से ही विवेक उत्पन्न होता है। दिवस एवं रात्रि की अवस्था में भेद देख पाने का नाम है विवेक। विवेक से जीवन में चेतना का प्रादुर्भाव होता है। फिर चेतना तो साक्षात ईश्वर है। ..और यह किसी संजय का नहीं स्वयं योगेश्वर का उवाच है।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः। इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

(10.22)

श्रीमद्भगवद्गीता में ही भगवान कहते हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना हूँ।

जिसने भीतर की चेतना को जगा लिया, वह शाश्वत जागृति के पथ पर चल पड़ा। ‘को जागर्ति’ के सर्वेक्षण में ऐसे साधक सदैव दिव्य स्थितप्रज्ञों की सूची में रखे गए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नींद क्यों रात भर नहीं आती? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ नींद क्यों रात भर नहीं आती? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

यह एक उम्र का बहुत बड़ा सवाल बन जाता है कि नींद क्यों रात भर नहीं आती ? और अगर पूरी नींद ले भी ली और फिर भी उठने के बाद आप फ्रेश महसूस नहीं करते तो यह भी एक समस्या से कम नहीं है! आठ घंटे की भरपूर नींद के बाद भी थके थके से क्यों? इसे ताज़गी न देने वाली नींद कहा जाता है। यदि अक्सर आप ऐसा ही महसूस करते हैं तो यह खतरे की घंटी से कम नहीं! आपको अलर्ट होने की जरूरत है।

न्यूरोलोजिस्ट डाॅ सोनजा कहती हैं कि हर सुबह थका हुआ जागना निराशाजनक है आपके लिए! यह आपकी पूरी दिनचर्या को बिगाड़ सकता है। नींद की गुणवत्ता में सुधार  लाने और सुबह तरोताज़ा होने पर विचार कीजिये, कोई उपाय कीजिये! यदि आप लगातार नींद कम आने से जूझ रहे हैं तो अपनी आदतों की ओर ध्यान दीजिये और एक ही समय पर सोना, दिन के समय भरपूर काम और खानपान की ओर ध्यान दीजिये! लक्ष्य रखे़ं और उन्हें पूरा करने पर ध्यान केंद्रित रखिये! प्रतिदिन सुबह कम से कम बीस मिनट की सैर अपनी सुबह में शामिल कर लीजिए! अपनी दिनचर्या पहले से निर्धारित कर लीजिए तो और बेहतर रहेगा! देर रात  जागना या रात का खाना देरी से खाना भी नींद में बाधा बन सकता है। नींद की ज्यादा दवाइयां लेने से बचिये तो बेहतर रहेगा आपके लिए! पानी बीच बीच में पीते रहिये! निष्क्रिय न रहिये, कुछ न कुछ काम ढूंढते रहिये तो अच्छा रहेगा!

बाकी कहते हैं कि धीमा धीमा संगीत और बहुत डिम सी रोशनी में भी नींद आपको अपनी आगोश में लेते देर नहीं लगाती। अच्छा साहित्य भी साथ दे सकता है नींद लाने में। मनपसंद संगीत सुनिये और फिर मस्त मस्त नींद ही नहीं ख्बाब लीजिए! सपनों में वे भी आयेंगे, जिनको आप दिनभर याद करते रहे हैं! बस, यह शिकायत न कीजिये:

नींद क्यों रात भर आती नहीं?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #254 ☆ नीयत और नियति ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नीयत और नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 253 ☆

☆ नीयत और नियति 

“जिसकी नीयत अच्छी नहीं होती, उससे कोई महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होता” जेम्स एलन का उक्त वाक्य अत्यंत कारग़र है, जो नीयत व नियति का संबंध प्रेषित करता है। इंसान की नीयत के अनुसार नियति अपना कार्य करती है और उससे परिणाम प्रभावित होता है। जिस भावना से आप कार्य करते हैं, वैसा ही कर्म फल आपको प्राप्त होता है। ‘कर भला, हो भला’, ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ व ‘जैसा करोगे वैसा भरोगे’ अर्थात् ‘जैसा कर्म करेगा, वैसा ही पल पाएगा इंसान’ पर प्रकाश डाला गया है। आप जो भी करते हैं, वही आपके पास लौट कर आता है – यह सृष्टि का अकाट्य सत्य है तथा इससे श्रेष्ठ कर्म करने का संदेश प्रेषित है। यह आकर्षण का सिद्धांत अर्थात् ‘लॉ आफ अट्रैक्शन’ है। जिसकी नीयत में खोट होता है, उससे किसी महत्वपूर्ण कार्य की अपेक्षा करना व्यर्थ है, क्योंकि वह कभी भी, किसी का अच्छा व हित करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। लाओटर्स का यह कथन “ज्ञानी संचय नहीं करता। वह ज्यों-ज्यों देता है, त्यों-त्यों पाता है” अत्यंत सार्थक है। जितना आप सृष्टि अर्थात् यूनिवर्स में देते हैं, उससे कई गुना आपके पास लौट कर आता है। सो! ज्ञानी के भांति संचय मत कीजिए तथा प्रभु से प्रतिदिन प्रार्थना कीजिए कि प्रभु आपको दाता बनाए तथा आप निरंतर निष्काम कर्म करते रहें।

“जिस परिमाण में हम में ज्ञान, प्रेम तथा कर्म का मिलन होता है, उसी परिमाण में हमारे अंदर पूर्णता आती है।” टैगोर का यह कथन श्लाघनीय है। संपूर्णता पाने के लिए ज्ञान, प्रेम व कर्म का सामंजस्य आवश्यक है। प्रसाद जी “ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/  इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल ना सके/ यह विडम्बना है जीवन की” में वे ज्ञान की महत्ता को दर्शाते हैं। यदि बिना पूर्व जानकारी के किसी कार्य को अंजाम दिया जाता है, तो हृदय की इच्छा कैसे पूर्ण हो सकती है? एकदूसरे की भावनाओं के विपरीत आचरण करना ही जीवन की विडम्बना है। टैगोर भी ज्ञान, प्रेम व कर्म के व्याकरण के संबंध में प्रकाश डालते हैं तथा इसे आत्मिक शांति पाने का साधन बताते हैं। डॉ• विद्यासागर “सच्चा सम्मान पद या धन से नहीं, मानवता व करुणा से आता है” के माध्यम से वे बुद्ध की करुणा व मानवतावादी भावना प्रकाश डालते हैं। मानव मात्र के प्रति करुणा, दया व सहानुभूति का भाव वह दैवीय गुण है, जो स्व-पर, राग-द्वेष व अपने-पराये के संकीर्ण भाव से ऊपर उठ जाता है, जो स्नेह, अपनत्व व सौहार्द का प्रतीक है; जिसमें सामीप्य व सायुज्य भाव निहित है। सत्कर्म मानव की नियति को बदलने की क्षमता रखते हैं।

मानव स्वयं अपना भाग्य विधाता है, क्योंकि हम निरंतर परिश्रम, लगन, दृढ़ निश्चय व आत्मविश्वास द्वारा अपनी तक़दीर अर्थात् भाग्य-रेखाओं को बदलने का सामर्थ्य रखते हैं। इंसान नियति को बदल सकता है, बशर्ते उसकी नीयत अच्छी व सोच सकारात्मक हो। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ अर्थात् जो हम देखते हैं, सोचते-विचारते हैं, वैसा ही हमें संसार दिखाई पड़ता है। इसलिए मानव को नकारात्मकता को त्यागने का संदेश प्रेषित किया गया है। यदि हम ऐसी सोच वाले लोगों के मध्य रहेंगे, तो सदैव तनाव में रहेंगे और एक दिन अवसाद-ग्रस्त हो जाएंगे। यदि हम  कूड़े के ढेर के पास से गुजरेंगे, तो दुर्गंध आपकी मन:स्थिति को दूषित कर देगी और इसके विपरीत बगिया के मलय वायु के झोंके आपका हृदय को हर्षोल्लास से आप्लावित कर देंगे।

‘बुरी संगति से मानव अकेला भला’ के माधयम से मानव को सदैव अच्छे लोगों, मित्रों व पुस्तकों की संगति में रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि यह सब मानव को सुसंस्कृत करते हैं; हृदय की दूषित भावनाओं का निष्कासन कर सद्भावों, व सत्कर्मों करने को प्रेरित करते हैं। इसलिए मानव को बुरा देखने, सुनने व करने से दूर रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि मन बहुत चंचल है तथा दुष्कर्मों की ओर शीघ्रता से प्रभावित होता है। बुराइयाँ मनमोहक रूप धारण कर मानव को आकर्षित व पथ-विचलित करती हैं।

‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात ब्रह्म सत्य है। हमारे लिए प्रभु पर विश्वास कर, उस राह पर चलना दुष्कर है, क्योंकि उसमें अनगिनत काँटे व अवरोध हैं; जिन्हें पार करना अत्यंत कठिन है। परंतु जगत् मिथ्या है और माया के प्रभाव से यह सत्य भासता है। इंसान आजीवन माया महाठगिनी के जाल से मुक्त नहीं हो पाता और सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाओं के जाल में उलझा उनकी पूर्ति में मग्न रहता है। अंत में वह इस दुनिया को अलविदा कह रुख़्सत हो जाता है और यह उसकी नियति बन जाती है, जो उसे उम्र-भर छलती रहती है। मानव इसके जंजाल व प्रभाव से लाख प्रयत्न करने पर भी मुक्त नहीं हो पाता।

सो! नीयत अच्छी रखिए। अच्छा सोचिए, अच्छे कर्म कीजिए। नियति सदैव आपकी संगिनी बन साथ चलेगी; आपको निविड़ तम से बाहर निकाल सत्यावलोकन कराएगी तथा मंज़िल तक पहुँचाएगी। आप पंक में कमलवत् रह पाने में समर्थ हो सकेंगे। आगामी आपदाएं व बाधाएं आपकी राह को नहीं रोक पाएंगी और आप निष्कंटक मार्ग से गुज़रते हुए अपनी मंज़िल अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य ख़ुशी पा जाएगा’  स्वरचित गीत की पंक्तियाँ मानव में एकांत में तन्हाई संग जीने का संदेश देती हैं, जो जीवन का शाश्वत् सत्य है। आपकी सोच, भावनाएं व मनोदशा सृष्टि में यथावत् प्रतिफलित होती है और नियति तदानुरूप कार्य करती है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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