(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “चिंतनशीलता”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 133 ☆
☆ चिंतनशीलता☆
समय के साथ- साथ चलते हुए लोग अक्सर आगे निकल जाते हैं। जब निरंतरता हो तो कोई भी कार्य आसानी से होता है, ऐसा लगता है मानो चमत्कार हो रहा है। एक साथ इतने सारे रिकॉर्ड बनते जाना, सबको एक टीम में जोड़कर रखना, सबकी उन्नति के रास्ते खोलना, हर चेहरे पर मुस्कुराहट हो, इस सबका ध्यान जिसने रखा वो न सिर्फ स्वयं सफल होता है बल्कि औरों को भी अपनी बराबरी पर ला खड़ा करता है। ऐसा आजकल यूट्यूबरों द्वारा देखने में आ रहा है। सही भी है जो दोगे वही वापस मिलेगा अब तो इस बात को लोगों ने समझना शुरू कर दिया है।
नेटवर्क मार्केटिंग तो इसी सिद्धांत पर चलती है। एक चेन बनाओ फिर चक्र के रूप में सभी लाभान्वित होते रहिए। बस बात यहीं आकर रुकती है, कि परिश्रम की यात्रा का लक्ष्य किस हद तक पूरा हुआ है। जब आप अनुभवों के साथ जीना शुरू कर देते हैं तो राहें आसान हो जातीं हैं। इन सबमें संवाद का होना बहुत जरूरी होता है। नए बिंदुओं की खोज जब रोज होने लगे तो इतिहास रचना तय हो जाता है। ऐसा देखने में आता है कि मंजिल के पास ही भटकन का रास्ता भी होता है जिसनें लापरवाही की वो मुहँ के बल गिर जाता है,और करीबी उसे धक्का देने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं।
कुछ भी हो बस अच्छा कार्य करते रहिए। कब कौन से विचार मन को प्रभावित कर जाएँ कहा नहीं जा सकता है। गुटबाजी हर क्षेत्र में अपना प्रभाव रखती है। पक्ष और विपक्ष का वार केवल नेताओं तक सीमित नहीं रह गया है अब तो विचारधारा ने भी अपने आपको एक गुट में खड़ा कर दिया, जब ये लगता है कि मेरा पक्ष मजबूत है तभी हल्की सी चोट लगती है और सब धराशायी हो जाता है। दूसरा गुट विचारों को इतने टुकड़ों में बाँटता चला जाता है कि कहाँ से जोड़ा जाए समझ ही नहीं आता। इन सबमें मीडिया को एक ज्वलंत मुद्दा मिल जाता है और वो सम्बंधित लोगों को एकत्र कर चर्चा शुरू करवा देते हैं। नतीजा वही ढाक के तीन पात।
खैर इन सबमें इतना जरूर होता है कि हम चिंतनशील प्राणी बनते जाते हैं। कभी रंग, कभी धर्मग्रंथ, कभी विवादित बयान चलते ही रहेंगे, बस मानवता बची रहे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – आप बजट में देते हैं या लेते हैं?)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 194 ☆
आलेख – आप बजट में देते हैं या लेते हैं?
देश का बजट चर्चा में है। पक्ष विपक्ष अपनी अपनी लाइन पर मीडिया में प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं । इससे परे मेरा सवाल यह है कि न केवल आर्थिक रूप से बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर सोचना होगा कि हम आप राष्ट्रीय औसत में अपना योगदान दे रहे हैं या समाज पर बोझ बनकर सरकारों से ले रहे हैं ?
भारत की औसत आय से हमारी आय कम है या ज्यादा ? हम कितना डायरेक्ट टैक्स आयकर तथा अन्य सरकारी विभागो को देते हैं ? कितना इनडायरेक्ट टैक्स देकर हम राष्ट्रीय विकास में सहयोग करते हैं, समाज को हमारा योगदान क्या है ? क्या हम महज सब्सिडी, सरकारी सहायता लेने वाले पैरासाइट की तरह जी रहे हैं ?
न केवल आर्थिक रूप से बल्कि अन्य पहलुओं जैसे राष्ट्रीय औसत आयु, स्वास्थ्य, शिक्षा , जल, पर्यावरण एवं ऊर्जा संरक्षण, पौधारोपण, कार्बन उत्सर्जन, स्त्री शिक्षा, लड़कियों के सम्मान, औसत विवाह की उम्र, जैसे सूचकांको में व्यक्ति के रूप में हमारा योगदान सकारात्मक है या नकारात्मक, यह मनन करने तथा अपना योगदान बढ़ाने की जरूरत प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। देश नागरिकों का समूह ही तो होता है। राष्ट्रीय सुरक्षा, तथा विकास का पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर और रचनात्मक वातावरण देना शासन का काम होता है, बाकी सब नागरिकों को स्वयं करना चाहिए। जहां अकर्मण्य नागरिक केवल स्पून फीडिंग के लिए सरकारों के भरोसे बैठे रहते हैं, ऐसे देश और समाज कभी सच्ची प्रगति नहीं कर पाते । तो इस बजट के अवसर पर चिंता कीजिए कि आप कैसे नागरिक हैं ? समाज से लेने वाले या समाज को देने वाले ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – पाठको की तलाश।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 193 ☆
आलेख – पाठको की तलाश
पिछले जमाने की फिल्मो के मेलों में भले ही लोग बिछड़ते रहे हों पर आज के साहित्यिक परिवेश में मुझे पुस्तक मेलो में मेरे गुमशुदा पाठक की तलाश है, उस पाठक की जो धारावाहिक उपन्यास छापने वाली पत्रिकाओ के नये अंको की प्रतीक्षा करता हो, उस पाठक की जो खरीद कर किताब पढ़ता हो, जिसे मेरी तरह बिना पढ़े नींद न आती हो, उस पाठक की जो भले ही लेखक न हो पर पाठक तो हो, ऐसा पाठक जो साहित्य के लिये केवल अखबार के साहित्यिक परिशिष्ट तक ही सीमित न हो,उस पाठक की जो अपने ड्रांइग रूम की अल्मारी में किताबें सजा कर भर न रखे वह उनका पाठक भी बने, ऐसा पाठक आपको मिले तो जरूर बताइयेगा.
आज साहित्य जगत के पास लेखक हैं, किताबें हैं, प्रकाशक हैं चाहिये कुछ तो बस पाठक ।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 19 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
परदेश – महंगाई
जब से होश संभाला है, दिन में सैकड़ों बार “महंगाई” शब्द सुनते आ रहे हैं। ऐसा लगता है, इस शब्द के बहुत अधिक उपयोग से ही तो कहीं वस्तुओं और सेवाओं के दाम नहीं बढ़ जाते हैं।
बचपन में जब माता/ पिता कहते थे, बिजली बेकार मत चलाओ, महंगी हो कर चार आने यूनिट भाव हो गया है। हमने भी बच्चों को चार रुपए यूनिट की दुहाई देकर समझाया था। ये पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा।
अर्थशास्त्र के ज्ञानी मुद्रास्फीति को अपस्फीति से कहीं बेहतर मानते हैं।
यहां विदेश में भी बढ़ी हुई महंगाई के लक्षण प्रतीत हुए। सात वर्ष पूर्व गैस स्टेशन (पेट्रोल) के बाहर तीन अमरीकी रूपे और कुछ पैसे का भाव दिखाई देता था, अब पांच रूपे और पैसे दर्शाता है। पेट्रोल और अन्य तरल पदार्थ यहां पर गैलन प्रणाली में मापे जाते हैं।
यहां के गरीबों की एक दुकान “डॉलर स्टोर” के नाम से प्रसिद्ध है, उनके भाव भी अब सवा डॉलर कर दिया गया हैं। हमारे देश में भी हर माल एक रूपे में के नाम से चलती थी, अब दस रूपे से कम कुछ नहीं मिलता है। स्थानीय लोगों से जानकारी मिली कि यहां भी कोई ना कोई “महंगाई डायन” कार्यरत रहती है। वर्तमान में यूक्रेन की डायन चल रही है। जब हमने बताया की यहां तो यूक्रेन की सहयता के पोस्टर देखे हैं, और पास में एक चर्च भी यूक्रेन के नाम से ही है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, ये सिद्धांत यहां यूक्रेन पर भी लागू होता होगा।
हम जब एक माह पूर्व देश से आए तो पिछतर का पहाड़ा याद करके आए थे, लेकिन बेकार हो गया, और डॉलर अस्सी का जो हो गया है। किसी भी वस्तु का मूल्य भारतीय मुद्रा में परिवर्तित करके अपना अंकगणित जो सुधार रहे हैं।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 2 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
चौपाई :
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।
☆
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।
अर्थ-
हे हनुमान जी आप ज्ञान और गुण के सागर हैं। आप की जय जय कार होवे। हे वानर राज आपकी कीर्ति आकाश पाताल एवं भूलोक तीनों लोक में फैली हुई है।
आप रामचंद्र जी के दूत है, अतुलित बल के स्वामी हैं, अंजनी के पुत्र हैं और आप का एक नाम पवनसुत भी है।
भावार्थ-
यहां पर हनुमान जी की तुलना समुद्र से की गई है । समुद्र का यहां पर आशय है कि वह जगह जहां पर अथाह जल हो। जहां पर सभी जगह का जल आकर मिल जाता हो। इसी प्रकार हनुमान जी भी ज्ञान और गुण के सागर हैं। जिस प्रकार सागर से अधिक पानी कहीं नहीं है उसी प्रकार हनुमान जी से अधिक ज्ञान और कहीं नहीं है । इसके अलावा सब जगह का ज्ञान और गुण आकर के हनुमान जी में मिल जाता है।
हनुमान जी रूद्र अवतार हैं इसलिए कपीश भी हैं। वे जहां पर रहते हैं वहां पर सदैव प्रकाश रहता है अंधेरा वहां से बहुत दूर भाग जाता है।
हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए तुलसीदास जी पुनः कहते हैं कि आप रामचंद्र जी के दूत हैं। आप अतुलनीय बल के स्वामी हैं। अंजनी और पवन देव के पुत्र हैं।
संदेश-
श्री हनुमान जी से बलशाली कोई नहीं है। हनुमान जी प्रभु श्री राम के सेवक हैं । फिर उनके पास बहुत सी शक्तियां है, जो उन्होंने अपने परिश्रम और अच्छे कर्मों से अर्जित की हैं। इसलिए उनके पराक्रम की चर्चा हर ओर होती है। इससे संदेश मिलता है कि बल अपने पराक्रम से अर्जित किया जा सकता है। फिर चाहे राजा हो या सेवक।
चौपाई को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ-
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर।
राम दूत अतुलित बल धामा, अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।।
हनुमान चालीसा की इन दोनों चौपाइयों का बार बार पाठ करने से हनुमत कृपा तथा आत्मिक और शारीरिक बल की प्राप्ति होती है।
विवेचना-
हम सभी जानते हैं की बाहु बल, धन बल और बुद्धि बल तीन प्रकार के बल होते हैं। यह क्रमशः एक दूसरे से ज्यादा सशक्त होते हैं। ज्ञान बल को बाहुबल का ही एक अंग माना गया है। बुद्धि बल से आज का इन्सान नई-नई खोज करके मानव सभ्यता को श्रेष्ठतम ऊंचाइयों पर पहुंचाने की कोशिश में लगा है। उसका बुद्धि बल ही उसे साधारण मानव से महान बना रहा है। इसी बुद्धिबल से हम सब निकलकर समाज में व्याप्त बुराइयों को सरलता से दूर कर सकते हैं।
हनुमान जी बुद्धि बल में अत्यंत सशक्त है यह बात माता सीता ने भी अशोक वाटिका में उनको फल फूल खाने की अनुमति देने के पहले देखा था :-
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥17॥
हनुमान जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकी जी ने कहा- जाओ। हे तात! श्री रघुनाथ जी के चरणों को हृदय में धारण करके मधुर फल खाओ॥
हनुमान जी ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए सूर्य भगवान को अपना गुरु बनाया था। भगवान सूर्य की शर्त थी कि वह कभी रुकते नहीं है। हनुमान जी को भी उनके साथ साथ ही चलना होगा। हनुमान जी ने भगवान सूर्य के रथ के साथ चलकर सूर्य भगवान से सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया।
पृथ्वी पर निवासरत सभी प्राणियों को सबसे ज्यादा ऊर्जा सूर्य देव से प्राप्त होती है। भगवान सूर्य से ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत हनुमान जी की ऊर्जा भी सूर्य के समान हो गयी। इस प्रकार हनुमान जी इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा ऊर्जावान और ज्ञानवान हुए। जिस प्रकार सूर्य अपने ऊर्जा से सभी को ऊर्जावान करता है उसी प्रकार हनुमान जी के तेज से सभी प्रकाशमान होते हैं।
इस चौपाई में हनुमान जी के बारे में कई बातें बताई गई हैं। जिसमें पहला संदेश है कि हनुमान जी रामचंद्र जी के दूत हैं। केवल हनुमान जी को ही रामचंद्र जी का दूत माना गया है। अन्य किसी को यह अधिकार प्राप्त नहीं है। रामचंद्र जी जैसे अवतारी पुरुष के दूत के पास बहुत सारे गुण होने चाहिए। ये सभी गुण पृथ्वी पर हनुमान जी को छोड़कर और किसी के पास न थे और ना है। श्रीलंका में दूत बनकर जाते समय सबसे पहले उन्होंने महासागर को पार किया। यह सभी जानते हैं कि शत योजन समुद्र को पार करने के लिए हनुमान जी के पास ताकत थी। राम जी के प्रति उनकी अनुपम भक्ति ने उनके अतुलित बल को अक्षय ऊर्जा दी थी। हनुमान जी ने समुद्र को पार करने के पहले ही अपने आत्मविश्वास के कारण कार्य सिद्ध होने की भविष्यवाणी कर दी थी। रामचरितमानस में उन्होंने कहा है :-
“होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥”
समुद्र को पार करते समय उनके अनुपम बल का परिणाम था कि जिस पर्वत पर उन्होंने पांव रखा वह पाताल चला गया। रामचरितमानस में बताया गया है :-
“जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥”
हनुमान जी के जाने के बारे में रामायण में लिखा है :-
” जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।।”
इसके उपरांत उन्होंने श्रीलंका पहुंचकर अपने रूप को छोटा या छुपने योग्य बनाया। वहां पर उन्होंने लंकिनी को हराकर अपनी तरफ मिलाया। उन्होंने लंकिनी से अपने शर्तों पर संधि की। यह उनके शत्रु क्षेत्र में जाकर शत्रुओं के बीच में से एक प्रमुख योद्धा को अपनी तरफ मिलाने की कला को भी दर्शाता है।
श्रीलंका में घुसने के उपरांत उन्होंने विभीषण जी से संपर्क किया जिसके कारण वे सीता जी तक पहुंचने में सफल हुए। यह उनके विदेश में जाकर शासन से नाराज लोगों को अपनी तरफ मिलाने की कला को प्रदर्शित करता है।
श्री लंका में सीता जी के पास पहुंच कर वहां पर उन्होंने सीता जी के हृदय में रामचंद्र जी के सेना के प्रति विश्वास पैदा किया। यह उनकी तार्किक शक्ति को बताता है। अंत में अपने वाक् चातुर्य के कारण, रावण के दरबार को भ्रमित कर, उनसे संसाधन प्राप्त कर लंका को जलाया। यह उनके अतुल बुद्धि और अकल्पनीय शक्ति को दिखाता है।
लंका दहन के उपरांत हनुमान जी पहले मां जानकी से मिलने जाते हैं तथा उनको प्रणाम करने के उपरांत वे माता जानकी से श्री रामचंद्र जी के लिए संदेश मांगते हैं तथा कोई ऐसी वस्तु मानते हैं जिसको वह प्रमाण सहित रामचंद जी को सौंप सकें :-
हनुमान जी ने कहा- हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथ जी ने मुझे दिया था। तब सीता जी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥
इसके उपरांत सीता जी को प्रणाम कर वे श्री रामचंद्र जी के पास चलने को उद्धत हुए और और पर्वत पर चढ़ गए :-
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥
हनुमान जी ने जानकी जी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरण कमलों में सिर नवाकर श्री राम जी के पास चल दिए।।
हनुमान जी के बल की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है । बार-बार श्री रामचंद्र जी ने स्वयं हनुमान जी को सर्व शक्तिशाली बताया है । इसके अलावा अगस्त ऋषि सीता जी और अन्य ने भी उन्हें अति बलशाली माना है।
बाल्मीकि रामायण में उदाहरण आता है जिसमें भगवान राम ने अपने श्री मुख से हनुमान जी के गुणों का वर्णन अगस्त मुनि से किया है। जिसमें वे बताते हैं कि हनुमान जी के अंदर शूरता, दक्षता, बल, धैर्य, बुद्धि, नीति, पराक्रम और प्रभाव यह सभी गुण हैं। रामचंद्र जी ने यह भी कहा कि “मैंने तो हनुमान की पराक्रम से ही विभीषण के लिए लंका पर विजय प्राप्त किया और सीता, लक्ष्मण और अपने बंधुओं को भी हनुमान जी के पराक्रम की वजह से प्राप्त कर पाया।”
एतस्य बाहुवीर्यण लंका सीता च लक्ष्मण।
प्राप्त मया जयश्रेच्व राज्यम मित्राणि बांधेवाः।।
(वा रा/उ का /35/9)
बाल्मीकि रामायण के उत्तराखंड के 35 अध्याय के 15 श्लोक में अगस्त मुनि ने हनुमान जी के लिए कहा है:-
सत्यमेतद् रघुश्रेष्ठ यद् ब्रवीषि हनूमति।
न बले विद्यते तुल्यो न गतौ न मतौ परः ॥
(उत्तरकाण्डः ३५/१५)
हम सभी जानते हैं कि वे माता अंजनी के पुत्र हैं। हनुमान जी के जीवन में माता अंजनी के पुत्र के होने के क्या मायने हैं। माता अंजनी कौन है ? सभी जानते हैं कि माता अंजनी का विवाह वानर राज केसरी से हुआ था। फिर हनुमानजी पवनसुत कैसे कहलाते हैं ? आखिर क्या रहस्य है ?
यह पूरा रहस्य पौराणिक आख्यानों में छुपा हुआ है। माता अंजनी पहले पुंजिकास्थली नामक इंद्रदेव की दरबार की एक अप्सरा थीं। उनको अपने रूप का बड़ा घमंड था। पहली कहानी के अनुसार उन्होंने खेल खेल में तप कर रहे ऋषि का तप भंग कर दिया था। जिसके कारण ऋषिवर ने उनको वानरी अर्थात रूप विहीन होने का श्राप दे दिया था। दूसरी कहानी के अनुसार दुर्वासा ऋषि इंद्रदेव के सभा में आए थे। वहां पर पुंजिकास्थली नामक अप्सरा ने दुर्वासा ऋषि जी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए कुछ प्रयोग किए। जिस पर ऋषिवर क्रोधित हो गए और उनको वानरी अर्थात रूप विहीन होने का श्राप दिया। इसके उपरांत माता अंजना का विराज नामक वानर के घर जन्म हुआ। माता अंजनी को केसरी जी से प्रेम हुआ और दोनों का विवाह हुआ। हनुमान जी को आञ्जनेय, अंजनी पुत्र और केसरी नंदन भी कहा जाने लगा।
परंतु यहां तुलसीदास जी ने “अंजनी पुत्र पवनसुत नामा” कहा है। उन्होंने केसरी नंदन नहीं कहा। बाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड में हनुमान जी ने रावण को अपना परिचय देते हुए कहा- “मेरा नाम हनुमान है और मैं पवन देव का औरस पुत्र हूँ। “
अहम् तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।
( वा रा /सु का / 51/15-16)
अगर हम रामचरितमानस पर ध्यान दें तो उसमें एक प्रसंग आता है जो यों है।
रावण के मृत्यु के बाद रामचंद जी वापस अयोध्या लौटना प्रारंभ कर देते हैं तब उनको ख्याल आता है यह संदेश भरत जी के पास तत्काल पहुंच जाना चाहिए। उन्होंने यह कार्य हनुमान जी को सौंपा। पवन पुत्र ने पवन वेग से इस कार्य को तत्काल संपन्न किया।
इन दोनों चौपाइयों के समदृश्य राम रक्षा स्त्रोत का यह मंत्र है। :-
इस श्लोक में कहा गया है की मैं श्री हनुमान की शरण लेता हूँ जो मन से भी तेज है और जिनका वेग पवन देव के समान है। जिन्होंने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है अर्थात उनकी सभी इंद्रियां उनके बस में हैं वे इंद्रियों के स्वामी है। वे परम बुद्धिमान, और वानरों में मुख्य हैं। जो पवन देवता के पुत्र हैं (जो उनके अवतार के दौरान श्री राम की सेवा करने के लिए अवतरित भगवान शिव के अंश थे) मैं उनको दंडवत करके उनकी शरण लेता हूँ।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित आलेख – “लोढ़ा वाली पदमश्री जुधैया बाई”।)
☆ आलेख # 172 ☆ “लोढ़ा वाली पदमश्री जुधैया बाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
लुप्तप्राय बैगा जाति के उन्नयन और लोक संस्कृति से जुड़ी उमरिया जिले के पिछड़े गांव लोढ़ा निवासी श्रीमती जुधैया बाई बैगा को पदमश्री की बधाई ।
जुधैया बाई बैगा के गुरु प्रख्यात चित्रकार आशीष स्वामी समय समय पर चित्रों, कोलाज, पेन्टिंग, लोकनृत्य एवं रंगकर्म के माध्यम से बैगा संस्कृति को उकेरते रहे हैं।
प्रकृति – प्रेम भरा जीवन एवं वन्य – जीवों से प्रेम करने वाली बैगा जाति से उपजी कला को समझने के लिए बैगा जाति के मानस को समझकर रंग – कूची के संसार एवं रंगकर्म से जोड़ने की कला आशीष स्वामी ने उमरिया जिले के जनगण तस्वीरखाना से पाई थी। उनके मार्गदर्शन में लम्बे समय से बैगा संस्कृति पर काम कर रही 82 वर्षीय जुधैया बाई बैगा (लोढ़ा, उमरिया) को देश विदेश में आज ख्याति मिली है और आज उन्हें पद्मश्री मिल गई।
(पहली फोटो में नारी शक्ति सम्मान लेते हुए जुधैया बाई। दूसरी फोटो में उनके गुरु आशीष स्वामी। तीसरी फोटो में रंग और कूची के साथ जुधैया बाई।)
उल्लेखनीय है, उमरिया आरसेटी में डायरेक्टर के पद पर रहते हुए 2013 में श्रीमती जुधैया बाई बैगा और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी का सम्मान करने का गौरव हम लोगों को मिला था। आशीष स्वामी को कोरोना लील गया पर चित्रकार आशीष स्वामी ने अपने जीते जी 2019 से लगातार जुधैया भाई को पद्मश्री मिले इसके लिए प्रयास किए थे। एवं कलेक्टर उमरिया के माध्यम से सरकार को रिकंमनडेशन भिजवाया था।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
💥 माँ सरस्वती साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से हम आपको शीघ्र ही अवगत कराएँगे। 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 173☆ शेष.. विशेष…अशेष!
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
संत कबीर का यह दोहा अपने अर्थ में सरल और भावार्थ में असीम विस्तार लिए हुए है। जैसे वृक्ष से झड़ा पत्ता दोबारा डाल पर नहीं लगता, वैसे ही मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती अर्थात दुर्लभ है। जिसे पाना कठिन हो, स्वाभाविक है कि उसका जतन किया जाए। देह नश्वर है, अत: जतन का तात्पर्य सदुपयोग से है।
ऐसा भी नहीं कि मनुष्य इस सच को जानता नहीं पर जानते-बूझते भी अधिकांश का जीवन पल-पल रीत रहा है, निरर्थक-सा क्षण-क्षण बीत रहा है।
कोई हमारे निर्रथक समय का बोध करा दे या आत्मबोध उत्पन्न हो जाए तो प्राय: हम अतीत का पश्चाताप करने लगते हैं। जीवन में जो समय व्यतीत हो चुका, उसके लिए दुख मनाने लगते हैं। पत्थर की लकीर तो यह है कि जब हम अतीत का पश्चाताप कर रहे होते हैं, उसी समय तात्कालिक वर्तमान अतीत हो रहा होता है।
अतीतजीवी भूतकाल से बाहर नहीं आ पाता, वर्तमान तक आ नहीं पाता, भविष्य में पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपनी एक कविता स्मरण हो आ रही है,
हमेशा वर्तमान में जिया,
इसलिए अतीत से लड़ पाया,
तुम जीते रहे अतीत में,
खोया वर्तमान,
हारा अतीत
और भविष्य तो
तुमसे नितांत अपरिचित है,
क्योंकि भविष्य के खाते में
केवल वर्तमान तक पहुँचे
लोगों की नाम दर्ज़ होते हैं..!
अपने आप से दुखी एक अतीतजीवी के मन में बार-बार आत्महत्या का विचार आने लगा था। अपनी समस्या लेकर वह महर्षि रमण के पास पहुँचा। आश्रम में आनेवाले अतिथियों के लिए पत्तल बनाने में महर्षि और उनके शिष्य व्यस्त थे। पत्तल बनाते-बनाते महर्षि रमण ने उस व्यक्ति की समस्या सुनी और चुपचाप पत्तल बनाते रहे। उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते व्यक्ति खीझ गया। मनुष्य की विशेषता है जिन प्रश्नों का उत्तर स्वयं वर्षों नहीं खोज पाता, किसी अन्य से उनका उत्तर क्षण भर में पाने की अपेक्षा करता है।
वह चिढ़कर महर्षि से बोला, ‘आप पत्तल बनाने में मग्न हैं। एक बार इन पर भोजन परोस दिया गया, उसके बाद तो इन्हें फेंक ही दिया जाएगा न। फिर क्यों इन्हें इतनी बारीकी से बना रहे हैं, क्यों इसके लिए इतना समय दे रहे हैं?’
महर्षि मुस्कराकर शांत भाव से बोले, ‘यह सत्य है कि पत्तल उपयोग के बाद नष्ट हो जाएगी। मर्त्यलोक में नश्वरता अवश्यंभावी है तथापि मृत्यु से पहले जन्म का सदुपयोग करना ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सदुपयोग क्षण-क्षण का। अतीत बीत चुका, भविष्य आया नहीं। वर्तमान को जीने से ही जीवन को जिया जा सकता है, जन्म को सार्थक किया जा सकता है, दुर्लभ मनुज जन्म को भवसागर पार करने का माध्यम बनाया जा सकता है। इसका एक ही तरीका है, हर पल जियो, हर पल वर्तमान जियो।’
स्मरण रहे, व्यतीत हो गया, सो अतीत हो गया। अब जो शेष है, वही विशेष है। विशेष पर ध्यान दिया जाए, जीवन को सार्थक जिया जाए तो देह के जाने के बाद भी मनुष्य रहता अशेष है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ आलेख – उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
अगर सच कहा जाय तो सूर दास जी द्वारा रचित कृष्ण-चरित पर आधारित सूर सागर में जितना सुंदर कथानक प्रेम में संयोग श्रृंगार का है, उससे भी कहीं अनंत गुना अधिक आत्मस्पर्शी वर्णन उन्होंने वियोग श्रृंगार का किया है। कृष्ण जी की ब्रजमंडल में की गई बाल लीलाएं जहां मन को मुदित करती है, एक एक रचना का सौंदर्य, बाल लीला की घटनाएं जहां आनंदातिरेक में प्रवाहित कर देती है, वहीं प्रेम के वियोग श्रृंगार श्रृंखला की रचनाएं बहाती नहीं बल्कि पाठक वर्ग को करूणा रस में डुबा देती है। कृष्ण की स्मृतियों ने जहां ब्रज मंडल की गोपिकाओं तथा राधा को विक्षिप्तता की स्थिति में ला खड़ा किया है, वो कृष्ण की स्मृतियों में खोई कृष्णमयी हो गई है, जिसे पढ़ते हुए समस्त पाठक वर्ग को आत्मविभोरता की स्थिति में ला के खड़ा कर देती है।
इसका जीवंत उदाहरण कृष्ण उधव तथा उधव गोपियों के संवाद में दिखाई देता है तो वहीं दूसरी ओर कृष्ण जी मात्र गोपियों को ही नहीं याद करते बल्कि उनके स्मृतियों में तो पूरा का पूरा ब्रजमंडल ही समाया हुआ है, जो ईश्वरीय चिंतन के असीमित विस्तार को दिखाता है। जब कृष्ण जी कहते हैं कि – “उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं”।
तब- कालिंदी कुंज की यादें, यशोदा के साथ की गई बाल लीला प्रसंग ,गायों तथा गोपसमूहो के साथ बिताए गए दिन, तथा गोपियों और राधिका के साथ बिताए पलों को तथा ब्रज मंडल के महारास लीला को भूल नहीं पाते–
बिहारी जी के शब्दों में वे अनोखी घटनाएं –
बतरस लालच लाल की,
मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै, भौंहन हँसे,
देन कहै नटि जाय॥
तथा छछिया भर छांछ पर नाचना आज भी नहीं भूला है कृष्ण को साथ ही याद है मइया यशोदा के हाथ का माखन याद है ब्रज की गलियां। तभी तो अपने हृदय की बात कहते हुए अपने सखा उधव से अपने मन की बात कह ही देते हैं- “उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही”।
ऐसा भी नहीं है कि कृष्ण को ही मात्र ब्रज की यादें व्यथित किए हुए हो, बल्कि सारा ब्रजमंडल ही कृष्ण वियोग की यादों में पगलाया हुआ है। जिसकी झांकी जब ऊधव ब्रज की गोपियों को निराकार ब्रह्म का उपदेश देने जाते हैं तब रास्ते के कांटे भी ऊधव जी को प्रेम का अर्थ समझाते हुए प्रतीत होते हैं जिसका यथार्थ चित्रण बिंदु जी की रचनाओं में दृष्टि गोचर होता है।
चले मथुरा से दूर कुछ जब दूर वृन्दावन नज़र आया,
वहीं से प्रेम ने अपना अनोखा रंग दिखलाया,
उलझकर वस्त्र में काँटें लगे उधौ को समझाने,
तुम्हारे ज्ञान का पर्दा फाड़ देंगे यहाँ दीवाने।
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥
यह प्रेम की गहन अनुभूति ही नहीं कराता अपितु ऊधव को मजबूर कर प्रेम के सागर में डुबो देता है। फिर तो एक हाथ यशोदा का माखन तथा दूसरे में राधा द्वारा दी गई मुरली लिए राधे राधे गा उठते है। और लौट आते हैं अपने बाल सखा के पास। भला प्रेम के वियोग श्रृंगार का ऐसा उत्कृष्ट और अनूठा चित्रण सूरसागर के अलावा कहां मिलेगा।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 1 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
दोहा :
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।
अर्थ :- श्री गुरु के चरण कमल की पराग रूपी धूल से अपने मन रूपी दर्पण को निर्मल करके रघुवर की विमल यश गाथा का वृतांत कह रहा हूँ, जो चार प्रकार के फल देने वाला है।
बुद्धिहीन मैं, हनुमान जी का सुमिरन कर रहा हूँ। हनुमान जी से प्रार्थना है कि वे मुझे बल बुद्धि एवं विद्या प्रदान कर मेरे सारे क्लेश एवं विकारों का हरण करें।
भावार्थ :- मेरा मन एक मैले दर्पण की तरह है। इसके ऊपर माया मोह, मत्सर, लोभ, विषय वासना आदि की मैल लगी हुई है। यह साधारण साबुन और पानी से साफ होने वाली नहीं है। इसको साफ करने के लिए मैंने अपने गुरुदेव के चरण कमलों के पराग रूपी कणों को लिया है और उससे मैंने अब अपने मन को साफ कर लिया है।
अपने मन को साफ करने के उपरांत अब मैं भगवान शंकर और गुरुदेव की कृपा से रघुवर के सुयश का वर्णन करूंगा जो चारों प्रकार के फल अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष को देने वाली है।
संदेश – यह दोहा यही संदेश देता है कि जब आप हनुमान चालीसा का पाठ करने बैठें तो पहले अपने गुरुदेव को स्मरण कर मन को पूरी तरह से पवित्र कर लें। अपने इष्ट का स्मरण करें और मन को साफ रखें। भगवान श्री राम की महिमा का वर्णन करने पर आपको शुभ फल की प्राप्ति होगी, इसलिए खुद को राम भक्त हनुमान जी को समर्पित करते हुए उनकी कृपा से बल, बुद्धि और विद्या पाएं और अपने जीवन के हर कष्ट से मुक्ति पा लें।
दोहे को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-
दोहा क्र.-1
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।
हनुमान चालीसा के इस दोहे के पाठ से गुरु कृपा प्राप्त होती है।
दोहा क्र.- 2
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।
हनुमान चालीसा के इस दोहे के बार-बार पाठ से बुद्धि और विद्या की प्राप्ति होती है।
विवेचना:-
इस दोहे की सबसे पहली पंक्ति में महाकवि तुलसीदास जी ने सबसे पहले अपने गुरुवर की वंदना की है। तुलसीदास जी की इस कृति के अतिरिक्त उनकी किसी भी अन्य कृति के आरंभ में गुरु वंदना का उल्लेख नहीं मिलता है। उदाहरण स्वरूप रामचरितमानस के प्रारंभ में कवि ने सबसे पहले वाणी की देवी सरस्वती और गणेश जी की वंदना की है। उसके उपरांत शिव और पार्वती की वंदना की है। कवितावली दोहावली आदि अन्य ग्रंथों में भी सबसे पहले गुरु की वंदना नहीं है। प्रायः अन्य कवियों ने भी अपने ग्रंथों में सर्वप्रथम गणेश जी की वंदना की है। गुरु की सबसे पहले वंदना यह भी दर्शाती है कि हनुमान चालीसा लिखते समय तुलसीदास जी पर सबसे ज्यादा प्रभाव उनके गुरु का था। यह छात्र जीवन में ही संभव है। प्रथम पंक्ति से ही हम हनुमान चालीसा लिखने के समय के बारे में अनुमान लगा सकते हैं। इस पंक्ति से यह स्पष्ट है कि गोस्वामी जी ने यह रचना अपने छात्र जीवन अर्थात किशोरावस्था में की थी।
तुलसीदास जी लिखते हैं रघुवर के विमल यश के गायन से हमें चार फलों की प्राप्ति होगी। यह चार फल कौन से हैं उन्होंने यह नहीं बताया है। ऐसा मानना है कि सृष्टि के निर्माण में संख्या चार का बहुत योगदान है। आप ध्यान दें भगवान विष्णु की चार भुजाएं हैं, ब्रह्मा जी भी चतुर्भुज है। उनके चार मुख हैं जिससे चार वेदों की उत्पत्ति हुई है। विश्व के सभी प्राणियों को 4 वर्ग अंडज, जरायुज, स्वेदज एवं उद्भिज्ज में बांटा गया है। प्राणियों की जीवन की चार अवस्थाएं हैं जिन्हें जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय कहा जाता है। काल अर्थात समय को भी चार भागों में बांटा गया है, सतयुग, त्रेता, युग द्वापर युग और कलियुग। हमारे चार धाम है बद्रीनाथ, रामेश्वरम, द्वारका धाम और जगन्नाथ। उत्तराखंड में भी चार ही धाम कहे जाते हैं यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ। कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने चतुर्भुज रूप धारण कर भक्तों को चार तत्व धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे सनातन धर्म में चार का बड़ा महत्व है।
गुरुवाणी में भी इसी प्रकार का कुछ लिखा हुआ है।
चारि पदारथ लै जगि जनमिया सिव सकती घरि वासु धरे।
(गुरूवाणी-1/1013)
जिस समय एक बच्चा माता के उदर में आता है तो उसे चार पदार्थों का ज्ञान होता है किन्तु जन्म के पश्चात् वह ज्ञान भूल जाता है। पूर्ण सद्गुरु की कृपा से उसे पुनः ज्ञान की प्राप्ति होती है।
चार पदार्थों का वर्णन हमें कई स्थानों पर मिलता है परंतु वे चार पदार्थ कौन-से हैं इससे हम अनभिज्ञ हैं।
चार पदार्थों के बारे में कहा गया है-
संसार में जब जन्म लिया तो चारों पदार्थों को साथ लेकर आए तो विचार करना है कि क्या धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को साथ लाए हैं? वे कौन से चार पदार्थ हैं जिन्हें लेकर संसार में जन्म लिया है। और यदि धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष को ही हम चार पदार्थ मान लें तो इसका भाव है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हमारे साथ ही आए हैं। लेकिन फिर इनकी प्राप्ति के लिए क्यों कहा है कि-
सतिगुरु कै वसि चारि पदारथ। तीनि समाए एक क्रितारथ।
(गुरूवाणी-1/1345).
चारों पदार्थ सतगुरु के वश में हैं। जब यदि हम चारों पदार्थ साथ लेकर आए हैं तो वे सतगुरु के पास कैसे हैं? यही जानना है कि वे चारों पदार्थ वास्तव में कौन से हैं जिन्हें मीरा ने कहा-
गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलु कैसे जाय।
गलियाँ तो चारों ही बंद पड़ी हैं, मैं प्रभु से कैसे मिलूँ?
वास्तव में, ये तो- अभिव्यक्तिकराणि योगे – पूर्ण योग (ब्रह्मज्ञान) के सूचक और लक्षण हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि वहाँ प्रभु प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी को ‘चतुष्पदी भागवत’ का ज्ञान प्रदान किया।
बौद्ध धर्म में महात्मा गौतम बुद्ध ने जिन्हें ‘चार आर्य सत्य’ कहा है एवं महावीर ने जिन्हें ‘चार घाट’ कहा है, इस प्रकार ये कौन-सी चार उपलब्धियाँ हैं जिनकी चर्चा संत, महापुरुषों, ऋषि, गुरु, अवतारों ने अपनी वाणी में की है।
सभी धार्मिक ग्रंथ भी चार पदार्थों की महिमा गाते है। इन मुक्ति प्रदान करने वाले चारों पदार्थों को भक्त गुरु कृपा से ही प्राप्त कर पाते हैं, इसलिए हमें ज़रूरत है ऐसे सतगुरु की जो हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर चार पदार्थों का बोध करवा दें।
एक :-
क्या पहला पदार्थ ब्रह्म ज्ञान का प्रकाश है, दूसरा अनहद नाद है, तीसरा ईश्वर का नाम और और चौथा ब्रह्म ज्ञान का अमृत है। आइए इस पर भी विचार कर लेते हैं।
हम जो दीपक मंदिरों में प्रज्वलित करते है, वह इसी अर्थात ब्रह्म ज्ञान के प्रकाश की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बिना आँख वाला व्यक्ति भी देख सकता है।
गुरु वाणी में कहा गया है :-
कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढि कढीजै।
राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढि लईजै।।
(गुरवाणी-1/1323)
जिस प्रकार लकड़ी में आग छिपी हुई है जो युक्ति के द्वारा प्रकट होती है। ठीक उसी प्रकार सभी जीवों में प्रभु के नाम की ज्योति समाई हुई है। जरूरत है गुरु के द्वारा उस युक्ति को जानने की, जिससे हम परम् ज्योति (Divine Light) का दर्शन कर सकें।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्मतस: परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।
अर्थात् परमात्मा जो कि ज्योतियों की भी परम् ज्योति है जिसे अंधकार से परे कहा जाता है। वह परम ज्ञान (Divine Knowledge) के द्वारा ही जानने योग्य है। यह ज्ञान केवल गुरु ही प्रदान कर सकता है।
दो :-
क्या दूसरा फल या पदार्थ अनहद नाद है। हम मंदिरों में घंटियाँ बजाते है, वह इसी अनहद नाद की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बधिर भी सुन सकता है। जब अनहद नाद सुषुम्ना में प्रवेश कर ऊपर की ओर उठता है, तो इस प्रक्रिया में अनहद नाद का प्रकटीकरण होता है। इससे पहले साधक इस नाद को सुन या प्राप्त नहीं कर सकता। जिसे बजाया नहीं जाता, जो स्वतः अपने आप ही बजता है। लेकिन उस संगीत की प्राप्ति गुरु के द्वारा ही सम्भव है। उसके लिए गुरु वाणी में कहा गया है-
निरभउ कै घरि बजावहि तुर। अनहद बजहि सदा भरपूर।
(गुरूवाणी-971)
उस प्रभु के घर में अर्थात् इस मानव शरीर में वह संगीत बज रहा है जो अनहद है। जिसकी कोई सीमा नहीं है, वही अनहद है।
सत्य को जगाने वाली देदीप्यमान ध्वनि बधिर को भी सुनाई देती है। इसी प्रकार जैसे हम शिव के हाथों में डमरू देखते हैं, बिष्णु के हाथ में शंख और सरस्वती के हाथ में वीणा है। यह सब कुछ अनहद नाद के लिए ही है।
तीन:-
तीसरा पदार्थ है ईश्वर का नाम और उसका जाप करना। शास्त्रों में कहा गया है- जब एक शिशु माँ के गर्भ में होता है तो वह ईश्वर नाम का जाप करता है। फिर क्या है नाम-सुमिरन? जिससे मन वश में आए। कबीर जी कहते हैं –
सुमिरन सूरत लगाई के मुख से कछु न बोल।।
बाहर के पट देइ के अन्तर के पट खोल।।
सुमिरन ऐसा कीजिये कि शरीर के बाहरी पट या द्वार बंद कर मन के द्वार खुल जाएँ।
कबीर दास जी कहते है-
सतगुरु ऐसा कीजिए पड़े निशाने चोट।
सुमिरन ऐसा कीजिए जीभ हिले न होठ।।
सुमिरन वही करना है जिसे करने के लिए न जुबान हिलानी पड़े न ही होंठ।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।
भए नाम जपि जीव बिसोका।
(रा.च.मा.-1/27/1)
चारों युगों में, तीनों लोकों में और तीनों कालों में केवल ईश नाम का सुमिरन करने से ही जीव शोक से रहित हो जाता है।
जब पूर्ण सतगुरु मिलते हैं तो उस अव्यक्त अक्षर को बता देते हैं जो मनुष्य के ह्रदय में पहले से ही रमा हुआ है।
चार:-
क्या चौथा पदार्थ या फल अमृत है। सभी शास्त्रों में अमृत की चर्चा की गई है। यह अमृत कहां है। क्या यह चरणामृत में है। परंतु चरणामृत को हम अमृत कैसे कह सकते हैं। चरणामृत तो हमारे अधरों पर लगने के उपरांत अपवित्र हो जाता है। अमृत को तो सदैव पवित्र रहना चाहिए। शिवलिंग पर कलश से बूँद-बूँद जल निरंतर बरसता रहता है। यह एक गूढ़ आध्यात्मिक मर्म को समेटे हुए है। हमारे सूक्ष्म जगत में सिर के ऊपरी भाग याने शिरोभाग में एक स्थल है, जिसे सहस्त्रार चक्र, ब्रह्मरंध्र या सहस्त्रदल कमल कहते हैं।
गगन मंडल अमृत का कुआ तहाँ ब्रह्मा का वासा।
सगुरा होवे भर भर पीवे निगुरा मरत प्यासा।।
गगन में उल्टा कुँआ है, जहाँ वह परमात्मा स्वयं विराजमान है। अब यदि हम आकाश में खोजने लग जाएँ तो सारी जिंदगी यह कुआं नहीं मिलेगा। क्योंकि यहाँ सांसारिक कुएँ की नहीं बल्कि उस ‘कुएँ’ की बात की गई है जो शरीर के अंदर ही है।
उपनिषद् में इस स्थल की स्पष्ट व्याख्या की गई है-
अब्जपत्रमधः पुष्पमुर्ध्वनालमधोमुखम्।
अर्थात् ऊपर की ओर नाल वाला तथा अधोभाग (नीचे) की ओर मुख किए पुष्पित एक कमल ब्रह्मरंध्र में स्थित है।
एक अन्य सरस वाणी में संत दरिया ने गाया- ‘बुन्द अखंडा सो ब्रह्मंडा’ – हमारे सिर में व्याप्त अन्तर्गगन या ब्रह्माण्ड से निरंतर, अखण्ड रूप में अमृत की बूँदे टपकती रहती हैं।
पर इस अमृत की अनुभूति केवल ब्रह्मज्ञान की दीक्षा और उसकी साधना के द्वारा ही की जा सकती है। अमृत का यह रसमय पान ही जीवात्मा की जन्म-जन्मांतर की प्यास बुझाता है।
इस प्रकार इन चार फल का अर्थ अत्यंत गूढ़ है जो कि बगैर गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान के प्राप्त नहीं हो सकता है।
अंत में यह कहना उचित होगा कि आपको सबसे पहले गुरु का महत्व समझना है फिर गुरुवर की ही आज्ञा से उनके ही आशीर्वाद से आपको आगे बढ़ना है और ताकि हनुमान जी का स्मरण करने से आपको बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करेंगे और सभी कष्टों को दूर करेंगे।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 167 ☆
☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा ☆
‘शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा कर देते हैं वह काम/ हो जाता है जिससे इंसान का जग में नाम/ और ज़िंदगी हो जाती आसान।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– शिकायत स्वयं से हो या दूसरों से; दोनों का परिणाम विनाशकारी होता है। यदि आप दूसरों से शिकायत करते हैं, तो उनका नाराज़ होना लाज़िमी है और यदि शिकायत आपको ख़ुद से है, तो उसके अनापेक्षित प्रतिक्रिया व परिणाम कल्पनातीत घातक हैं। अक्सर ऐसा व्यक्ति तुरंत प्रतिक्रिया देकर अपने मन की भड़ास निकाल लेता है, जिससे आपके हृदय को ठेस ही नहीं लगती; आत्मसम्मान भी आहत होता है। कई बार अकारण राई का पहाड़ बन जाता है। तलवारें तक खिंच जाती हैं और दोनों एक-दूसरे की जान तक लेने को उतारू हो जाते हैं। यदि हम विपरीत स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो आपको शिकायत स्वयं रहती है और आप अकारण स्वयं को ही दोषी समझना प्रारंभ कर देते हैं उस कर्म या अपराध के लिए, जो आपने सायास या अनायास किया ही नहीं होता। परंतु आप वह सब सोचते रहते हैं और उसी उधेड़बुन में मग्न रहते हैं।
परंतु जिस व्यक्ति को शिक़ायतें कम होती हैं से तात्पर्य है कि वह आत्मकेंद्रित व आत्मसंतोषी प्राणी है तथा अपने इतर किसी के बारे में सोचता ही नहीं; आत्मलीन रहता है। ऐसा व्यक्ति हर बात का श्रेय दूसरों को देता है तथा विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँधता है। सो! उसके सब कार्य संपन्न हो जाते हैं और जग में उसके नाम का ही डंका बजता है। सब लोग उसके पीछे भी उसकी तारीफ़ करते हैं। वास्तव में प्रशंसा वही होती है, जो मानव की अनुपस्थिति में भी की जाए और वह सब आपके मित्र, स्नेही, सुहृद व दोस्त ही कर सकते हैं, क्योंकि वे आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। ऐसे लोग बहुत कठिनाई से मिलते हैं और उन्हें तलाशना पड़ता है। इतना ही नहीं, उन्हें सहेजना पड़ता है तथा उन पर ख़ुद से बढ़कर विश्वास करना पड़ता है, क्योंकि दोस्ती में शक़, संदेह, संशय व शंका का स्थान नहीं होता।
‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार का यह कथन संतुलित मानव की वैयक्तिक विशेषताओं पर प्रकाश डालता है कि परिस्थितियाँ ही मन:स्थितियों को निर्मित करती हैं। हालात ही मानव को सुनना व सहना सिखाते हैं, परंतु ऐसा विपरीत परिस्थितियों में होता है। यदि समय अनुकूल है, तो दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं, अन्यथा अपने भी अकारण पराए बनकर दुश्मनी निभाते हैं। अक्सर अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, क्योंकि वे उनके हर रहस्य से अवगत होते हैं और उनके क्रियाकलापों से परिचित होते हैं।
इसलिए हमें दूसरों से नहीं, अपनों से भयभीत रहना चाहिए। अपने ही, अपनों को सबसे अधिक हानि पहुंचाते हैं, क्योंकि दूसरों से आपसे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। सो! मानव को शिकायतें नहीं, शुक्रिया अदा करना चाहिए। ऐसे लोग विनम्र व संवेदनशील होते हैं। वे स्व-पर से ऊपर होते हैं; सबको समान दृष्टि से देखते हैं और उनके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं, क्योंकि सबकी डोर सृष्टि-नियंता के हाथ में होती है। हम सब तो उसके हाथों की कठपुतलियाँ हैं। ‘वही करता है, वही कराता है/ मूर्ख इंसान तो व्यर्थ ही स्वयं पर इतराता है।’ उस सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा के बिना तो पत्ता तक भी नहीं हिल सकता। सो! मानव को उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक होना पड़ता है, क्योंकि शिकायत करने व दूसरों पर दोषारोपण करने का कोई लाभ व औचित्य नहीं होता; वह निष्प्रयोजन होता है।
‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘क्यों देर लगा दी कान्हा, कब से राह निहारूँ’ अर्थात् जो व्यक्ति उस परम सत्ता में विश्वास कर निष्काम कर्म करता है, उसके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं। आस्था, विश्वास व निष्ठा मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। ‘तुलसी साथी विपद के, विद्या, विनय, विवेक’ अर्थात् जो व्यक्ति विपत्ति में विवेक से काम करता है; संतुलन बनाए रखता है; विनम्रता को धारण किए रखता है; निर्णय लेने से पहले उसके पक्ष-विपक्ष, उपयोगिता-अनुपयोगिता व लाभ-हानि के बारे में सोच-विचार करता है, उसे कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति अपने अहम् का त्याग कर देता है, वही व्यक्ति संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है व संसार में उसका नाम हो जाता है। सो! मानव को अहम् अर्थात् मैं, मैं और सिर्फ़ मैं के व्यूह से बाहर निकलना अपेक्षित है, क्योंकि व्यक्ति का अहम् ही सभी दु:खों का मूल कारण है। सुख की स्थिति में वह उसे सबसे अलग-थलग और कर देता है और दु:ख में कोई भी उसके निकट नहीं आना चाहता। इसलिए यह दोनों स्थितियाँ बहुत भयावह व घातक हैं।
चाणक्य के मतानुसार ‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। इसलिए अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।’ युधिष्ठर जीवन में काम, क्रोध व लोभ छोड़ने पर बल देते हुए कहते हैं कि ‘अहंकार का त्याग कर देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने से शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है।’ परंतु यदि हम आसन्न तूफ़ानों के प्रति सचेत रहते हैं, तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। सो! मानव को अपना व्यवहार सागर की भांति नहीं रखना चाहिए, क्योंकि सागर में भले ही अथाह जल का भंडार होता है, परंतु उसका खारा जल किसी के काम नहीं आता। उसका व्यक्तित्व व व्यवहार नदी के शीतल जल की भांति होना चाहिए, जो दूसरों के काम आता है तथा नदी में अहम् नहीं होता; वह निरंतर बहती रहती है और अंत में सागर में विलीन हो जाती है। मानव को अहंनिष्ठ नहीं होना चाहिए, ताकि वह विषम परिस्थितियों का सामना कर सके और सबके साथ मिलजुल कर रह सके।
‘आओ! मिल जाएं हम सुगंध और सुमन की तरह,’ मेरे गीत की पंक्तियाँ इस भाव को अभिव्यक्त करती हैं कि मानव का व्यवहार भी कोमल, विनम्र, मधुर व हर दिल अज़ीज़ होना चाहिए। वह जब तक वहाँ रहे, लोग उससे प्रेम करें और उसके जाने के पश्चात् उसका स्मरण करें। आप ऐसा क़िरदार प्रस्तुत करें कि आपके जाने के पश्चात् भी मंच पर तालियाँ बजती रहें अर्थात् आप जहाँ भी हैं–अपनी महक से सारे वातावरण को सुवासित करते रहें। सो! जीवन में विवाद नहीं; संवाद में विश्वास रखिए– सब आपके प्रिय बने रहेंगे। मानव को जीवन में सामंजस्यता की राह को अपनाना चाहिए; समन्वय रखना चाहिए। ज्ञान व क्रिया में समन्वय होने पर ही इच्छाओं की पूर्ति संभव है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा। जहां स्नेह, त्याग व समर्पण ‘होता है, वहां समभाव अर्थात् रामायण होती है और जहां इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, संघर्ष व महाभारत होता है।
मानव के लिए बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, ताकि जीवन में आत्मसंतोष बना रहे, क्योंकि उससे जीवन में आत्म-नियंत्रण होगा। फलत: आत्म-संतोष स्वत: आ जाएगा और जीवन में न संघर्ष न होगा; न ही ऊहापोह की स्थिति होगी। मानव अपेक्षा और उपेक्षा के न रहने पर स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाएगा। यही है जीने की सही राह व सर्वोत्तम कला। सो! मानव को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए; सुख-दु:ख में सम रहना चाहिए क्योंकि इनका चोली दामन का साथ है। मानव को हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए। समय सदैव एक-सा नहीं रहता। प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। जो इस संसार में आया है; उसका अंत अवश्यंभावी है। इंसान आया भी अकेला है और उसे अकेले ही जाना है। इसलिए ग़िले-शिक़वे व शिकायतों का अंबार लगाने से बेहतर है– जो मिला है मालिक का शुक्रिया अदा कीजिए तथा जीवन में सब के प्रति आभार व्यक्त कीजिए; ज़िंदगी खुशी से कटेगी, अन्यथा आप जीवन-भर दु:खी रहेंगे। कोई आपके सान्निध्य में रहना भी पसंद नहीं करेगा। इसलिए ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत का अनुसरण कीजिए, ज़िंदगी उत्सव बन जाएगी।