हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -4 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 4 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

प्रातः भ्रमण

हमारे देश में उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रातः काल के भ्रमण को सर्वोत्तम बताया जाता हैं। इसी मान्यता का पालन करने के लिए हम भी दशकों से प्रयास रत हैं। पूर्ण रूप से अभी तक सफलता प्राप्त नहीं हुई हैं। इसी क्रम में विदेश में कोशिश जारी हैं।

घड़ी के हिसाब से भोर की बेला में तैयार होकर जब घर से बाहर प्रस्थान किया तो देखा सूर्य देवता तो कब से अपनी रोशनी से धरती को ओतप्रोत कर चुके हैं। घड़ी को दुबारा चेक किया तो भी लगा की अलसुबह सूर्य के प्रकाश का तेज तो दोपहर जैसा प्रतीत हो रहा था। हवा ठंडी और सुहानी थी, इसलिए मेज़बान की सलाह से पतली जैकेट जिसको अंग्रेजी मे विंड चीटर का नाम दिया गया, पहनकर चल पड़े, सड़कें नापने के लिए। हमें लगा यहां के लोग तो बहुत धनवान हैं, इसलिए  देर रात्रि तक जाग कर सुबह देरी से उठते होंगे, परंतु ये तो हमारा भ्रम निकला। सड़क पर बहुत सारे युवा, वृद्ध प्रातः भ्रमण कर रहें थे। कुछ ने हमारा अभिवादन भी किया। अच्छा लगा कि यहां भी संस्कारी लोग रहते हैं। हमारे देश में तो अनजान व्यक्ति को तो अब लोग अच्छी दृष्टि से देखते भी नहीं हैं, अभिवादन तो इतिहास की बात हो गई हैं। हम लोग तो अपने पूर्वजों के संस्कारों को तिलांजलि दे चुके हैं।

सड़कें इतनी साफ और स्वच्छ थी, हमें लगा, हमारे चलने से कहीं गंदी ना हो जाएं। कहीं पर भी कोई कागज़, गुटके के खाली पैकेट भी नहीं दिखाई दे रहे थे। विदेश की सफाई और स्वच्छता के बारे में सुना और पढ़ा था, आज अपनी आँखों से देखा तब जाकर विश्वास हुआ की इतनी स्वच्छता भी हमारे ब्रह्मांड पर हो सकती हैं।

यहां के अधिकतर नागरिक सैर के समय अपने श्वान को साथ लेकर चल रहे थे, अगले भाग में श्वान चर्चा करेंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 157 ☆ नवरात्रि विशेष – नौ संकल्प ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

सोमवार, 26 सितम्बर से नवरात्र साधना आरम्भ होगी।

इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे।

अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे।

मंगल भव। 💥

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 157 ☆ नवरात्रि विशेष – नौ संकल्प ?

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

भारतीय संस्कृति नारी को पूजनीय मानती रही है। यही कारण है कि नवरात्रि एवं अन्यान्य पर्व-त्योहारों में कुमारिका एवं विवाहिता का पूजन-सम्मान होता रहा है। तथापि इस सत्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि कालांतर में स्त्री को शरीर की परिधि तक सीमित कर दिया गया। इस परिधि को तोड़ कर बाहर आने का स्त्री का संघर्ष अनवरत जारी है। इन पंक्तियों के लेखक की ‘वह’ शृंखला की एक कविता में यह संघर्ष कुछ यूँ अभिव्यक्त हुआ है-

वह जानती है

बोलते  ही ‘देह’,

हर आँख में उभरता है

उसका ही आकार,

इस आकार को, मनुष्य

सिद्ध करने के मिशन में

सदियों से जुटी है वह !

वस्तुत: स्त्री के इस मिशन को सफल करने की दृष्टि से नवरात्रि अर्थात शक्तिपर्व महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। कल से आरंभ हो रहे इस पर्व में शास्त्रोक्त एवं परंपरागत पद्धति से उपासना अवश्य करें। अनुरोध है कि साथ ही निम्नलिखित नौ संकल्पों की सिद्धि का व्रत भी ले सकें तो निश्चय ही दैवीय आनंद की प्राप्ति होगी।

  1. अपने बेटे में बचपन से ही स्त्री का सम्मान करने का संस्कार डालना देवी की उपासना है।
  2. घर में उपस्थित माँ, बहन, पत्नी, बेटी के प्रति आदरभाव देवी की उपासना है।
  3. दहेज की मांग रखनेवाले घर और वर तथा घरेलू हिंसा के अपराधी का सामाजिक बहिष्कार करना देवी की उपासना है।
  4. स्त्री-पुरुष, सृष्टि के लिए अनिवार्य पूरक तत्व हैं। पूरक न्यून या अधिक, छोटा या बड़ा नहीं अपितु समान होता है। पूरकता के सनातन तत्व को अंगीकार करना देवी की उपासना है।
  5. स्त्री को केवल देह मानने की मानसिकता वाले मनोरुग्णों की समुचित चिकित्सा करना / कराना भी देवी की उपासना है।
  6. हर बेटी किसीकी बहू और हर बहू किसीकी बेटी है। इस अद्वैत का दर्शन देवी की उपासना है।
  7. किसीके देहांत से कोई जीवित व्यक्ति शुभ या अशुभ नहीं होता। मंगल कामों में विधवा स्त्री को शामिल नहीं करना सबसे बड़ा अमंगल है। इस अमंगल को मंगल करना देवी की उपासना है।
  8. गृहिणी 24 क्ष 7 अर्थात पूर्णकालिक सेवाकार्य है। इस अखंड सेवा का सम्मान करना तथा घर के कामकाज में स्त्री का बराबरी से या अपेक्षाकृत अधिक हाथ बँटाना, देवी की उपासना है।
  9. स्त्री प्रकृति के विभिन्न रंगों का समुच्चय है। इन रंगों की विविध छटाओं के विकास में स्त्री के सहयोगी की भूमिका का निर्वहन, देवी की उपासना है।

या देवि सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।

💐 शारदीय नवरात्रि की हार्दिक मंगलकामनाएँ 💐

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #151 ☆ नींद और निंदा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख नींद और निंदा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 151 ☆

☆ नींद और निंदा 

‘नींद और निंदा पर जो विजय पा लेते हैं, वे सदा के लिए अपना जीवन सुखी बना लेते हैं’ अकाट्य सत्य है। नींद एक ओर आलस्य का प्रतीक है, तो दूसरी ओर अहं का। प्रथम में मानव आलस्य के कारण कुछ भी करना नहीं चाहता और अंत में भाग्यवादी हो जाता है। वह उसमें विश्वास करने लग जाता है कि समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! वह परिश्रम करने से ग़ुरेज़ करने लगता है। ऐसे व्यक्ति पर किसी की सीख का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, परंतु जागते हुए को जगाना कठिन ही नहीं, असंभव होता है। ऐसा व्यक्ति तर्क-वितर्क व विवाद के माध्यम से स्वयं को व अपनी बात को ठीक सिद्ध करने का प्रयास करता है, क्योंकि वह परिश्रम में नहीं, भाग्य में विश्वास रखता है। सो! वह अकारण दु:खों से घिरा रहता है और उसे कदम-कदम पर पराजय का मुख देखना पड़ता है, क्योंकि आलस्य इसका मूल कारण है।

निंदा आत्मघाती भाव है, जिसमें व्यक्ति निंदा करते हुए भूल जाता है कि वह छिद्रान्वेषण कर अपने समय की हानि व आत्मिक शक्तियों का ह्रास कर रहा है। इस प्रकार परदोष दर्शन उसका स्वभाव बन जाता है। इसके विपरीत वह व्यक्ति अपने दोषों से अवगत हो जाता है और उनसे मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करता है, जिससे उसके जीवन में चामत्कारिक परिवर्तन हो जाता है। तदोपरांत वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। शायद! इसीलिए ही कबीरदास जी ने निंदक को अपने घर-आँगन व उसके आसपास रखने का सुझाव दिया है, क्योंकि ऐसे लोग नि:स्वार्थ भाव से आपके हित में कर्मशील रहते हैं तथा अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। दूसरे शब्दों में वे आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं।

मालवीय जी के मतानुसार ‘जो व्यक्ति अपनी निंदा सुन लेता है; संपूर्ण जगत् पर विजय प्राप्त कर लेता है।’ परंतु जो अपनी निंदा सुनकर अपना आपा खो बैठता है, अपने समय व शक्ति का ह्रास करता है। अक्सर वह तुरंत प्रतिक्रिया देता है, जो प्रज्ज्वलित अग्नि में घी का काम करता है। दूसरी और जो व्यक्ति निंदा सुन कर आत्मावलोकन करता है; अपने अंतर्मन में झांकने के पश्चात् दोषों से मुक्ति पाने का प्रयास करता है; वह जीवन में उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘सबसे उत्तम वह है, जो स्वयं को वश में रखे और किसी बात पर उत्तेजित ना हो।’ वास्तव में अहंकार व क्रोध मानव के सबसे बड़े शत्रु हैं। वैसे तो अहं व वहम दोनों मानव की उन्नति में अवरोधक होते हैं। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे परिश्रम नहीं करने देता, क्योंकि उसे वहम हो जाता है कि उससे अच्छा काम कोई कर ही नहीं सकता। सो! वह कभी भी अहं के मायाजाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। ऐसा व्यक्ति आत्मघाती होता है, जो अपने पाँवों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारता है और आत्मविश्वास को खो बैठता है।

विलियम जेम्स के शब्दों में ‘विश्वास उन शक्तियों में से एक है, जो मनुष्य को जीवित रखती हैं। विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है। आत्मविश्वास मानव की सर्वोत्तम धरोहर है, जिसके बल पर वह असाध्य कार्य कर गुज़रता है।’ वह दाना मांझी की तरह वर्षों के कठिन परिश्रम के पश्चात् पर्वतों को काटकर सड़क का अकेले निर्माण कर सकता है। यही है सफलता का सर्वोत्तम सोपान। ‘जीवन चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम’ गीत की पंक्तियाँ जीवन में निरंतर गतिशील रहने को प्रेरित करती हैं और मन में यह विश्वास जाग्रत करती हैं कि घने बादल व विशालकाय पर्वत भी मानव के पथ की बाधा नहीं बन सकते। वहीं संतोषानंद जी के गीत के बोल इस भाव को पुष्ट करते हैं– ‘तुम साथ ना दो यारो/ चलना मुझे आता है/ हर आग से वाक़िफ हूं/ जलना मुझे आता है’  इस तथ्य को उजागर करता है कि मानव आत्मविश्वास के बल पर बड़ी से बड़ी आपदा का सामना करने में समर्थ है। परंतु शर्त यही है कि वह निंदा से पथ-विचलित न हो, बल्कि उससे सीख लेकर आत्म-परिष्कार कर निरंतर आगे बढ़ता जाए, क्योंकि बीच राह से लौट जाना कारग़र नहीं है। आत्मविश्वासी व्यक्ति सदैव सफलता प्राप्त कर विजयी होते हैं और कहते हैं ‘देखना है ग़र मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊँचा कर दो आसमान को।’ वे पक्षियों की भांति आकाश की बुलंदियों को छूने का जज़्बा रखते हैं। परंतु इसके लिए आवश्यक है सकारात्मक सोच का होना और स्व-पर व राग-द्वेष को तज निष्काम भाव से परहितार्थ कर्म करना।

स्वेट मार्टेन के मतानुसार ‘जिस प्रकार वनस्पतियों को सूर्य से जीवन प्राप्त होता है, उसी प्रकार आशा भाव से अपनों में जीवन संचरित होता है।’ निरंतर सफलता हमें संसार का एक पहलू दर्शाती है और विपत्ति हमें चित्र का दूसरा पहलू  दिखाती है। कोल्टन मानव को विपत्तियों में अडिग रहने का संदेश देते हैं। मुझे स्मरण हो रही है मेरे प्रथम काव्य-संग्रह शब्द नहीं मिलते की पंक्तियाँ ‘दु:ख से ना घबरा मानव/ सुख का सूरज निकलता रहेगा।’ सुख-दु:ख, पूनम-अमावस, वसंत-पतझड़ व दिन-रात क्रमानुसार अनुसार आते-जाते रहते हैं। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए, अन्यथा वह हमें तनाव व अवसाद की स्थिति में ले जाता है, जहाँ उसे कोई भी अपना नहीं भासता और वह दु:खों के सागर के अथाह जल में डूबता-उतराता रहता है। उसे जीवन में आशा की किरण तक दिखाई नहीं पड़ती और उसका जीवन नरक-तुल्य बन जाता है। ‘प्रभु सुमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा।’ ऐसी स्थिति से उबरने का एकमात्र साधन प्रभु का नाम-स्मरण है, जो उसे भव से पार उतार सकता है। इसलिए मानव के लिए अधिक नींद व निंदा दोनों स्थितियाँ घातक होती है और वे दोनों रास्ते का पत्थर बन अवरोध उत्पन्न कर सकती हैं। ऐसी स्थिति में मानव कभी भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता।

© डा. मुक्ता

31.8.22

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हिन्दी के कुछ साहित्यकारों के वास्तविक नाम  ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? हिन्दी के कुछ साहित्यकारों के वास्तविक नाम  ?  प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे☆

(प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि यदि उनके पास और ऐसी जानकारी है तो वे हमसे साझा कर सकते हैं जिन्हें हम पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे।)

प्रेमचंद –धनपत राय

राहुल सांकृत्यान –केदारनाथ पाण्डे

रांगेय राघव –कृष्णाचार्य रंगाचार्य

सुमित्रा नंदन पंत – गुसांई दत पंत

त्रिलोचन – वासुदेव सिंह

नागार्जुन- वैद्मनाथ मिश्र

जैनेन्द्र कुमार –आनंदी लाल जैन

शैलेश मटियानी –रमेश चंद्र सिंह मटियानी

धूमिल – सुदामा प्रसाद पाण्डे

अमरकांत – श्री राम वर्मा

इब्बार रब्बी – रविन्द्र प्रसाद

मोहन राकेश – मदन मोहन गुगलानी

वेणुगोपाल –नंद किशोर शर्मा

चंचल चौहान- हरवीर सिंह चौहान

पंकज बिष्ट – प्रताप सिंह बिष्ट

से रा यात्री – सेवा राम गुप्ता 

विमल कुमार – अरविंद कुमार

अरुण कमल – अरुण कुमार

कुमार अंबुज – पुरुषोत्तम सक्सेना

राजेश जोशी- राजेश नारायण जोशी

बटरोही – लक्ष्मण सिंह बिष्ट

बोधिसत्त्व – अखिलेश मिश्र

पानू खोलिया – पान सिंह खोलिया

कमलेश्वर – कैलास प्रसाद सक्सेना

शानी- गुलशेर खान

वीरेन डंगवाल – वीरेंद्र डंगवाल

शिवानी- गौरा पंत

संजीव- राम सजीवन प्रसाद

गुलजार- संपूर्ण सिंह

आलोक धन्वा – नित्यानंद सिंह

मुद्राराक्षस – सुभाष चन्द्र गुप्ता

माया मृग – संदीप कुमार

उर्मिल कुमार थपलियाल – सोहन लाल थपलियाल

मोहन वर्मा- बद्री नाथ वर्मा

नरेंद्र पुंडरीक- नारायण दास मिश्र

शैलेश पंडित –भागवत मिश्र

गीता श्री – गीता कुमारी

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला‘-  सुर्जु कुमार

उदय प्रकाश – उदयराज सिंह

पहाड़ी – रमा प्रसाद घिल्डियाल

अभिज्ञात – ह्रदय नारायण सिंह

जितेंद्र जितांशु – जितेन्द्र नाथ शर्मा

उषा प्रियवंदा- – उषा सक्सेना

गीतांजलि श्री – गीतांजलि पांडेय

 

संग्राहिका : मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

Cycle Thief                   

सत्तर के दशक में इस शीर्षक से अंग्रेजी फिल्म देखी थी। फिल्म श्याम और श्वेत काल खंड की थी।  

विश्व के सबसे समृद्ध कहे जाने वाले देश अमेरिका में एक साइकिल को सांकल से बांध कर रखा हुआ देखा तो मानस पटल में ये विचार आया की यहां भी लोग अभी तक साइकिल की चोरी/ उठाई गिरी करते हैं। ऐसी संपन्न अर्थव्यवस्था वाले देश की स्थिति भी हमारे देश जैसी ही है।

यहां साइकिल को मेट्रो ट्रेन और बस में लेकर जाने की भी सुविधा हैं। हमारे देश में भी तो दूध विक्रेता ट्रेन की खिड़की में साइकिल और दूध के भरे डिब्बे लटकाकर एक गांव से दूसरे गांव ले जाते हैं। ये उनकी रोजी-रोटी अर्जित करने का साधन हैं।

स्थानीय जानकारी प्राप्त हुई की यहां पर अधिकतर लोग साइकिल को स्वयं ही कसते (असेंबल) हैं, क्योंकि दुकान में इस कार्य के लिए बहुत अधिक शुल्क लिया जाता है।

साइकिल के दाम अधिक होने से यहां पर भी पुरानी साइकिल का बाज़ार हैं। किराये की साइकिल को एक स्थान से लेने के पश्चात किसी अन्य स्थान पर भी छोड़ा जा सकता है।

(भारत में भी अब कुछ मेट्रो शहरों में साइकिल रेंट सेवाएं उपलब्ध हैं। आप अपने नजदीक उपलब्ध ऑन लाइन साइकिल सेवाएं मोबाईल अप्प की मदद से ले सकते हैं।)

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 156 ☆ मेरी भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

समूह को कुछ दिनों का अवकाश रहेगा।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 156 ☆ मेरी भाषा ?

भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। कूटनीति का एक सूत्र कहता है कि किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा और संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की।

असली मुद्दा स्वाधीनता के बाद का है। राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की  प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं।

यूरोपीय भाषा समूह के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक  अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’, ‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो गया है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय, अर्थ का अनर्थ कर रहा है। ‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट खास तौर पर फेसबुक, ट्विटर, वॉट्सएप पर देवनागरी को रोमन में लिखने का चलन भी है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की  पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति संकोच अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके वैचारिक वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

हिंदी पखवाड़ा, सप्ताह या दिवस मना लेने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो जाती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। नयी शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं का प्रवेश हो चुका है,  यह सराहनीय है।

केदारनाथ सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है, जिसमें वे कहते हैं,

जैसे चींटियाँ लौटती हैं/ बिलों में,

कठफोड़वा लौटता है/ काठ के पास,

वायुयान लौटते हैं/ एक के बाद एक,

लाल आसमान में डैने पसारे हुए/

हवाई-अड्डे की ओर/

ओ मेरी भाषा/ मैं लौटता हूँ तुम में,

जब चुप रहते-रहते/

अकड़ जाती है मेरी जीभ/

दुखने लगती है/ मेरी आत्मा..!

अपनी भाषाओं के अरुणोदय की संभावनाएँ तो बन रही हैं। नागरिकों से अपेक्षित है कि वे इस अरुण की रश्मियाँ बनें।

 © संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #141 ☆ प्रेरणा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 141 ☆

☆ ‌ आलेख ☆ ‌प्रेरणा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

वैसे तो प्रेरणा शब्द हिन्दी साहित्य के आम शब्दों जैसा ही है, लेकिन यह है बहुत महत्वपूर्ण,  इसका बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक महत्व है तथा इसका संबंध मानव मन की उर्जा से है, यह मानव के जीवन में उत्साह तथा उमंग का संचार करता है, उत्साहहीन मानव के जीवन से खुशियों के पल रूठ जाते हैं, और जीवन उद्देश्यविहीन हो जाता है। जब कि प्रेरित मानव जीवन में ऐसे-ऐसे काम कर जाता है, जिसकी उससे आप अपेक्षा नहीं किए होंगे।

इसका महत्व समझने के लिए हमें कुछ पौराणिक घटना क्रम पर विचार मंथन करना होगा।प्रेरक ही कार्य संचालन हेतु हृदय में प्रेरणा पैदा करता है प्रेरणा के गर्भ में उत्साह पलता है इसे हम पौराणिक काल में घटे कुछ घटना क्रम से समझते हैं।

उदाहरण नं १ – जरा उस समय की कल्पना कीजिये जब रामायण कथा लिखी जा रही थी। सीता हरण भी हो चुका था, उनका कुछ भी पता नहीं चल रहा था, सीता का पता लगाने के लिए, वानर राज सुग्रीव ने धमकी भरा चुनौती पूर्ण कार्य समस्त वानर समूहों को सौंपा गया था। और सुग्रीव द्वारा मधुवन में बिना कार्य सिद्धि के फल खाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। तथा बिना लक्ष्य पूरा किए असफल हो कर लौटने पर जान गंवाने का भय था।

उस समूह के संरक्षक जामवंत तथा तथा नायक श्री हनुमान जी महाराज को बनाया गया था, सारे वानर समूह भूख प्रयास से थके हारे उत्साह हीन हो समुद्र किनारे बैठ कर पश्चाताप कर रहे थे। उनकी प्रेरणा मर चुकी थी, सीताहरण की ख़बर मिल चुकी थी पता भी चल चुका था कि माता सीता सौ योजन दूर समुद्र के भीतर रावण की स्वर्ण नगरी लंका में कैद है। लेकिन प्रश्न यह था कि आखिर लंका जाएगा कौन। इसी पर सबकी क्षमताओं का आकलन हो रहा था कोई चार कोई छ कोई दस योजन जाने की बात कर रहा था युवराज अंगद ने भी अपनी क्षमता का वर्णन कर दिया था। स्पष्ट बता भी दिया था कि-

अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।

जियँ संसय कछु फिरती बारा॥

अर्थात्- मैं जा तो सकता हूं। लेकिन लौट कर आने में संदेह प्रकट किया था। वहीं समूह के नायक वीर हनुमान मौन हो सिर झुकाए बैठे थे। ऋषि के श्राप के कारण उनका हृदय प्रेरणा हीन था। बल और बुद्धि भूल गए थे। एक किनारे बैठे थे उनकी हालत उस मनुष्य जैसी थी  कि जो धन की गठरी पर बैठा धन  न होने की चिंता में पड़ा हुआ हो। उसे इसका ज्ञान ही नहीं है वह अपार धन-संपदा का मालिक है। आखिर में चिंता ग्रस्त हनुमान जी को उनकी बल बुद्धि की याद जामवंत जी को दिलाना ही पड़ा-

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।

का चुप साधि रहेहु बलवाना।।

पवन तनय बल पवन समाना।

बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।

और उस प्रेरक वचन के सुनते ही हनुमान जी का बल पौरुष जाग उठा था और शक्ति प्रदर्शन का मूल श्रोत बना जय श्री राम का उद्घोष।  फिर क्या था- 

जेहि गिरि चरन देइ हनुमंता|

चलेउ सो गा पाताल तुरंता||

उदाहरण नं २ – उस दृश्य की कल्पना कीजिये जब गांडीवधारी अर्जुन युद्ध क्षेत्र में मोह ग्रस्त खड़ा है, उसे युद्ध क्षेत्र में मृत्यु के पदचाप की आहट सुनाई दे रही है लेकिन प्रेरणा हीन अर्जुन भीख मांग कर खाने की बातें कर रहा है लेकिन, युद्ध करने से भाग रहा है क्यों कि हताशा निराशा ने उसे घेर रखा है जो बार-बार उसे कर्त्तव्य पथ से विमुख कर रहा है लेकिन भगवान श्री कृष्ण के प्रेरक वचनों ने अर्जुन के हृदय में प्रेरणा जगाई, और परिणाम महाभारत युद्ध में उसकी विजय। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सफलता का प्रयास प्रेरणा के गर्भ में पलता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #150 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 150 ☆

☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा 

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’  कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता  है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/  जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें। 

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं।  लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 179 ☆ अभियंता दिवस विशेष – स्मार्ट इंजीनियरिंग के हाल के कुछ उदाहरण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – ”हिन्दी: वैधानिक स्थितियां…”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 179 ☆  

? आलेख – अभियंता दिवस विशेष – स्मार्ट इंजीनियरिंग के हाल के कुछ उदाहरण… ?

प्रति वर्ष १५ सितम्बर को भारत रत्न सर मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया का जन्म दिन इंजीनियर्स डे के रूप में मनाया जाता है.उन्हें नये भारत का विश्वकर्मा कहा जाता है. जब वर्ष १८८३ में विश्वेश्वरैया जी ने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की तब अंगुलियों पर गिने जाने वाले इंजीनियर्स थे, औद्योगिकीकरण का प्रारंभ हो रहा था.  बांध, नहरें, रेल लाइन, सड़कें, जल प्रदाय, भवन, विद्युतीकरण आदि   अनंत विकास कार्य किये जाने थे. अपनी प्रतिभा और अथक मेहनत से विश्वेश्वरैया जी ने अपनी समर्पित कार्यकारी छबि बनाई और देश को जाने कितने ही सफल प्रोजेक्टस दिये.

पंडित नेहरू ने कल कारखानो को नये भारत के तीर्थ कहा था, इन्ही तीर्थौ के पुजारी, निर्माता इंजीनियर्स को आज अभियंता दिवस पर बधाई.

आज दुनियां में भी भारतीय इंजीनियर्स ने अपनी विद्वता और मेहनत से यही छबि बनाने में सफलता पा ली है. भारत के आई आई टी जैसे संस्थानो के इंजीनियर्स ने विश्व में अपनी कार्य प्रणाली से  भारतीय बुद्धि की श्रेष्ठता का समीकरण अपने पक्ष में कर दिखाया है.

नोएडा के ट्विन टावर्स का ध्वस्त किया जाना…

जहाँ भ्रष्टाचार और घोलमाल से, राजनैतिक शह पर नोयडा में सुपरटेक के गगन छूते ट्विन टावर्स तान दिये गये थे वहीं न्यायालय के आदेश पर कुछ सेकेंड में सघन आबादी में बिना और कहीं नुकसान के इन ट्विन टावर्स को धूल धूसरित करने के इंजीनियरिंग के स्मार्ट करिश्में भी हैं. जिस पर गर्व किया जाना चाहिये. 28 अगस्त 2022 को दोपहर 2 बजे का समय निर्धारित किया गया, एडिफिस कंपनी को इन टावर्स को गिराने का जिम्मा दिया गया था.  टावर सोक ट्यूब सिस्टम के तहत ध्वस्त किए गये.  इस तकनीक में मलबा पानी के झरने की तरह सीधे नीचे गिरता है.  टावर को गिराने के लिए सेकेंड दर सेकेंड अलग अलग हिस्सों में नियंत्रित विस्फोट किए गये टावर गिरने की शुरुआत बेसमेंट से की गई. फिर एक-एक कर स्लैब ढ़हा दिये गये.  दोनों टावर का पहला फ्लोर पहले सेकेंड और अंतिम फ्लोर सातवें सेकेंड में ध्वस्त हो गया. एमरॉल्ड कोर्ट में बने 97 मीटर ऊंचे 29 मंजिला सियान टावर में पहले धमाका किया गया. कुछ पल बाद  103 मीटर ऊंचा, 32 मंजिला एपेक्स टावर धराशायी किया गया. ध्वस्त किये गये टावर्स से केवल नौ मीटर की दूरी पर स्थित सोसायटी में लोग रह रहे हैं यह महत्वपूर्ण बात है. इस सदी ने प्रारंभ में ही आतंकी गतिविधि में न्यूयार्क के ट्विन टावर्स से हवाई जहाजों को टकराते और उन्हें हजारों लोगों की मृत्यु के दुखद हादसे के रूप में देखा था. उस दुखद घटना के बाद सारी दुनियां ने नोएडा के ट्विन टावर्स को कंट्रोल्ड स्मार्ट इंजीनियरिंग के साथ पल भर में गिराये जाते देखा.

ओंकारेश्वर बांध के जलाशय पर दुनियां का सबसे बड़ा तैरता सोलर बिजली घर…

मध्य प्रदेश में दुनिया में सबसे बड़ा फ्लोटिंग सोलर पावर प्लांट नर्मदा नदी पर स्थित ओंकारेश्वर बांध में बनाया जा रहा है. परियोजना के अनुसार ओंकारेश्वर बांध पर तैरते हुये सोलर पैनल लगाए जाने हैं. दुनिया में अब तक केवल 10 इस तरह के फ्लोटिंग पावर प्लांट हैं. ओंकारेश्वर में निर्माणाधीन यह प्लांट दुनिया का सबसे बड़ा, तैरता सोलर प्लांट होगा, क्योंकि पूर्ण हो जाने पर इसकी क्षमता 600 मेगावाट होगी. इस परियोजना का निर्माण दो चरणों में पूरा किया जायेगा.   पहले चरण में 278 मेगावाट की परियोजना पर काम शुरू हो चुका है.   अब तक, सौर परियोजनाएं आम तौर पर भूमि पर विकसित की जाती थीं जिससे ढ़ेर सारी जमीन बेकार हो जाती थी. बांध के वाष्पीकृत होते पानी की भी बचत इन पैनल्स के लग जाने से होगी. इस सोलर पार्क परियोजना की स्थापना से  प्रति वर्ष 1200 मिलियन यूनिट सौर ऊर्जा बिजली के रूप में प्राप्त होगी. बिना आबादी के विस्थापन हुये, बांध में फैले जल संग्रहण पर तैरती परियोजना स्मार्ट इंजीनियरिंग का नमूना है.

आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस के वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में स्मार्ट इंजीनियरिंग लगातार विकसित हो रही प्रणालियों, उत्पादों और अनुप्रयोगों के लिए अपरिहार्य होती जा रही है. इंजीनियरिंग हार्डवेयर सिस्टम और सॉफ्टवेयर का  अधिकाधिक समन्वित प्रयोग  हितधारकों, विकास, परिनियोजन, निर्माण और संचालन में विभिन्न भूमिकाओं के साथ विस्तार प्राप्त कर रहा है. समय की मांग है कि इंजीनियरिंग के  एनालिटिकल  समाधान, सामाजिक उद्देश्य के साथ साथ व्यापार, और विकास में तालमेल बनाये रखा जाये.   डेटा निर्भर ए आई सिस्टम के  सिमुलेशन और सॉफ्टवेयर, इंजीनियरिंग लागत को तथा परियोजना निर्माण के प्रभावी समय को कम करने वाले विकल्प प्रदान करते हैं.  वर्तमान में प्रत्येक परियोजना के स्मार्ट इंजीनियरिंग समाधानों की आवश्यकता है एवं इस क्षेत्र में विकास के अभूतपूर्व नये नये अवसर तथा संभावनायें हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 फेलो आफ इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजनियर्स

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ राजभाषा दिवस विशेष – राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

माधव साधना सम्पन्न हुई। दो दिन समूह को अवकाश रहेगा। बुधवार 31 अगस्त से विनायक साधना आरम्भ होगी।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  राजभाषा दिवस विशेष – राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य  ??

(विकिबुक्स ने हिंदी भाषा सम्बंधी लेखों के संकलन में इस लेख को प्रथम क्रमांक पर रखा है। लेख का शीर्षक ही संकलन को भी दिया है।)

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

यहाँ तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी कूटनीति और स्वार्थ के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था किंतुु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए फिरंगी अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का ‘लॉलीपॉप’ जरुर दिया गया। धीरे-धीरे ‘लॉलीपॉप’ भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया।

राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।

राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर अपभ्रंश बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस़्कृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।

सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया गया- ‘सीता वॉज़ स्वीटहार्ट ऑफ रामा।’ ठीक इसके विपरीत श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मण जी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मण जी का कहना कि मैने सदैव भाभी माँ के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में ‘चार भिंतीत नाचली’ ( शादीशुदा बेटी का मायके आने पर आनंद विभोर होना) का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

कटु सत्य यह है कि भाषाई प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर वर्तमान में भयावह उदासीनता दिखाई देती है। समृद्ध परंपराओं के स्वर्णमहल खंडहर हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से बेदखल किया जाना। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है, अंग्रेजी माध्यम का अध्ययन यूरोपीय संस्कृति का आयात कर रहा है। एक भव्य धरोहर डकारी जा रही है और हम दर्शक-से खड़े हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने सदा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें वर्षों कूड़े-दानों में पड़ी रहीं। नई शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। यह सराहनीय है।

यूरोपीय भाषा समूह की अंग्रेजी के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’,‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘ शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो चला है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय अर्थ का अनर्थ कर रहा है।‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट पर खास तौर पर फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर जैसी साइट्स पर देवनागरी को रोमन में लिखा जा रहा है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है। मृत्यु की अपरिहार्यता को लिपि पर लागू करनेवाले भूल जाते हैं कि मृत्यु प्राकृतिक हो तब भी प्राण बचाने की चेष्टा की जाती है। ऐसे लोगों को याद दिलाया जाना चाहिये कि यहाँ तो लिपि की सुनियोजित हत्या हो रही है और हत्या के लिए भारतीय दंडसंहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड का प्रावधान है।

सारी विसंगतियों के बीच अपना प्रभामंडल बढ़ाती भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के विरुद्ध ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इन दिनों  हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की गलाकाट प्रतियोगिता शुरु हो चुकी है। खास तौर पर गत जनगणना के समय इंटरनेट के जरिये इस बात का जोरदार प्रचार किया गया कि हम हिंदी की बजाय उसकी बोलियों को अपनी मातृभाषा के रूप में पंजीकृत करायें। संबंधित बोली को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के सब्जबाग दिखाकर, हिंदी की व्यापकता को कागज़ों पर कम दिखाकर आंकड़ो के युद्ध में उसे परास्त करने के वीभत्स षड्यंत्र से क्या हम लोग अनजान हैं? राजनीतिक इच्छाओं की नाव पर सवार बोलियों को भाषा में बदलने के आंदोलनों के प्रणेताओं (!) को समझना होगा कि यह नाव उन्हें घातक भाषाई षड्यंत्र की सुनामी के केंद्र की ओर ले जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने और अपनी रोटी सेंकनेवालों के हाथ फंसा नागरिक संभवतः समझ नहीं पा रहा है कि यह भाषाई बंदरबाँट है। रोटी किसीके हिस्से आने की बजाय बंदर के पेट में जायेगी। बेहतर होता कि मूलभाषा-हिंदी और उपभाषा के रूप में बोली की बात की जाती।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की ये पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति लज्जा अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके भारतीय वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाना एक अक्षम्य भूल रही। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।

साहित्यकारों के साथ भी समस्या है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बड़े वर्ग में  भाषाई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। इनमें से अधिकांश ने भाषा को साधन बनाया, साध्य नहीं। यही स्थिति हिंदी की रोटी खानेवाले प्राध्यापकों, अधिकारियों और हिंदी फिल्म के कलाकारों की भी है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। ऐसे सारे वर्गों के लिए वर्तमान दुर्दशा पर अनिवार्य आत्मपरीक्षण का समय आ चुका है।

भाषा के साथ-साथ भारतीयता के विनाश का जो षडयंत्र रचा गया, वह अब आकार ले चुका है। भारत में दी जा रही तथाकथित आधुनिक शिक्षा में रोल मॉडेल भी यूरोपीय चेहरे ही हैं। नया भारतीय अन्वेषण अपवादस्वरूप ही दिखता है। डूबते सूरज के भूखंड से आती हवाएँ, उगते सूरज की भूमि को उष्माहीन कर रही हैं।

छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में ‘हर-हर महादेव’ और ‘पीरबाबा सलामत रहें’ जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासित समाज जन्म लेता हो तो भावुकता देश की अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।

हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वे सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।

भारतीय भाषाओं के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए छात्रों से अपेक्षित है कि वे अपनी भाषा में उच्च शिक्षा पाने के अधिकार को यथार्थ में बदलने के लिए पहल करें। स्वाधीनता के सत्तर वर्ष बाद भी न्यायव्यवस्था के निर्णय विदेशी भाषा में आते हों तो संविधान की पंक्ति-‘भारत एक सार्वभौम गणतंत्र है’ अपना अर्थ खोने लगती है।

भारतीय युवाओं से वांछित है कि दुनिया की हर तकनीक को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करा दें। आधुनिक तकनीक और संचार के अधुनातन साधनों से अपनी बात दुनिया तक पहुँचाना तुलनात्मक रूप से बेहद आसान हो गया है। भारतीय भाषाओं में अंतरजाल पर इतनी सामग्री अपलोड कर दें कि ज्ञान के इस महासागर में डुबकी लगाने के लिए अन्य भाषा भाषी भी हमारी  भाषाएँ सीखने को  विवश  हो जाएँ।

सरकार से अपेक्षित है कि हिंदी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए क्रैश कोर्सेस शुरू करे। भारत आनेवाले  सैलानियों के लिए ये कोर्सेस अनिवार्य हों। वीसा के लिए आवश्यक नियमावली में इसे समाविष्ट किया जा सकता है।

बढ़ते विदेशी पूँजीनिवेश के साथ भारतीय भाषाओं और भारतीयता का संघर्ष ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’की स्थिति में आ खड़ा हुआ है। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ। प्रादेशिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के नारे को बुलंद करना होगा। ‘अंधाधुंध अंग्रेजी’के विरुद्ध ये एकता अनिवार्य है।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। मंत्री तो मंत्री रक्षा और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं। नई शिक्षानीति भारतीय भाषाओं की उन्नति की दृष्टि से दूरगामी सिद्ध होगी। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो,च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम हो या उच्चस्तर पर आधुनिक भारतीय भाषाओं का अध्ययन, अरुणोदय की संभावनाएँ तो बन रही हैं। आशा है कि इन किरणों के आलोक में ‘इंडिया’की केंचुली उतारकर ‘भारत’ शीघ्रतिशीघ्र बाहर आएगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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