(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी की राजभाषा दिवस पर आधारित एक विशेष रचना “हिंदी दिवस”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । )
☆राजभाषा दिवस विशेष – हिंदी दिवस ☆
दृश्य एक –
“साथियों, हिंदी को हमारी व्यवस्था ने राजभाषा बना दिया राष्ट्रभाषा नहीं, इसलिये आज भी देश भर में उसे दूसरा दर्जा मिला हुआ है। आज भी हम अंग्रेजी बोलकर अपने आप को शिक्षित एवं विकसित दिखाते हैं इसलिये हमें अपनी इस मानसिक गुलामी को तोड़ कर हिंदी को अपने दिल से स्वीकारना होगा।”
इस भाषण को सुनकर श्रोताओं ने तालियों की गड़गड़ाहट बरसा दी। आज के हिंदी दिवस पर राजेश को विद्यालय में भाषण में पहला पुरस्कार दिया गया।
ख़ुशी से झूमता हुआ राजेश अपने घर पहुंचा और माँ पिताजी को अपनी उपलब्धि बताई जिससे वे भी खूब खुश हुये।
दृश्य दो –
राजेश ने शहर के नामांकित महाविद्यालय में स्नातक के प्रवेश के लिये साक्षात्कार दिया और वह असफल रहा, साक्षात्कार मंडल ने उससे कहा – सॉरी यंग बॉय, तुम्हारी इंग्लिश बड़ी पूअर है तुम यहाँ फेल हो जाओगे।
मुँह लटका कर राजेश घर आ गया।
दृश्य तीन –
एक छोटे से निजी महाविद्यालय से वाणिज्य में स्नातक करके राजेश ने सरकारी बैंक में बाबू के पद के लिये आवेदन दिया। प्रबंधन मंडल से आमना सामना होने पर उसे दो टूक जवाब दिया गया – वेरी बैड मैन, तुम तो इंग्लिश में एकदम जीरो हो, हमारे सारे कस्टमर तो हाई क्लास हैं उनसे क्या हिंदी में बात करोगे ? वी आर सॉरी ।
मुंह लटका कर राजेश घर आ गया।
दृश्य चार –
अपने पिता की पहचान से एक बडे वकील के कार्यालय में निम्न श्रेणी लिपिक का काम कर रहे राजेश के लिये आज विवाह का प्रस्ताव आया है। घर भर के लोग लड़की देखने के लिये लड़की वालों के यहाँ गये। चाय पानी के बाद जब लड़का लड़की अकेले बात करने के लिये बैठे तो चार बातें करने के बाद ही लड़की ने तमक कर कहा – व्हॉट,….. यू डोंट स्पीक इंग्लिश एंड यूज हिंडी? मैं तो थ्रू आउट कांन्वेंट स्टूडेंट हूं, नो – नो- नो – सारी, नॉट पॉसिबल ।
मुंह लटका कर राजेश घर आ गया।
अंतिम दृश्य –
राजेश के कार्यालय में एक खादीधारी सज्जन आये और राजेश से मिले। वे बोले कि अगले हफ्ते हिंदी दिवस है, हमारे यहाँ तो किसी टीचर को हिंदी आती नहीं है इसलिए हम चाहते हैं कि आप हमारे कांन्वेंट स्कूल में स्टूडेंटस् को मोटिवेट करने के लिये हिंदी पर भाषण देने आयें। हम आपको इसके लिये कैश रिवार्ड भी देंगे।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
शिकागो शहर को अमेरिका के नक्शे में देखा तो उसकी स्थिति वहां के मध्य भाग में मिली, जैसे हमारे देश में नागपुर शहर की हैं।
शहर के बारे में जब जानकारी मिली की यहां तो पांच बड़ी झीलें हैं। सबसे बड़ी मिशिगन झील है, जिसका क्षेत्रफल ही बाईस हज़ार वर्ग मील से भी अधिक हैं। उसकी अपनी चौपाटी (Beach) भी है। उसमें बड़े बड़े जहाज भी चलते हैं। हमारे देश में उदयपुर को झीलों की नगरी कहा जाता है। लेकिन वहां की झीलें इतनी विशाल नहीं है, जितनी शिकागो शहर की हैं। हमारे भोपाल शहर के तालाब भी कम नहीं है, और उसकी स्थिति भी देश के मध्य भाग में हैं, तो क्यों ना इस शहर को “अमेरिका का भोपाल” शीर्षक से नवाज दिया जाय।
शहर में प्रवेश के समय से ही शीतल हवा के झोंके महसूस हो रहें थे। जैसे हमारे देश में सावन माह की पूर्वैयां हवाएं चलती हैं। मेज़बान ने इसकी पुष्टि करते हुए बताया की शिकागो शहर को windy city का खिताब भी मिला हुआ हैं। जहां बड़ी बड़ी झीलें होंगी वहां ठंडी हवाऐं तो चलेंगी और मौसम को भी सुहाना बनाएं रखेंगीं।
शहर में सब तरफ हरियाली ही हरियाली हैं। आधा वर्ष तो भीषण शीत लहर/ बर्फबारी में निकल जाता हैं। जून माह से सितंबर तक गर्मी या यों कह ले सुहाना मौसम रहता है।
हमारे जैसे राजस्थान के भीषण गर्म प्रदेश के निवासियों को तो गर्मी के मौसम में भी ठंड जैसा महसुस हो रहा है। पता नही ठंड में क्या हाल होता होगा।
इस शहर की एक कमी है, कि चाय बहुत ही कम स्थानों पर मिलती हैं, हमारे जैसे चाय प्रेमियों को जब घूमने जाते हैं, तो चाय की बहुत तलब लगती है, तो कॉफी से ही काम चलाना पड़ता हैं। अगला भाग एक कप चाय के बाद ही पेश कर पाऊंगा।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
आज की साधना
माधव साधना सम्पन्न हुई। दो दिन समूह को अवकाश रहेगा। बुधवार 31 अगस्त से विनायक साधना आरम्भ होगी।
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 155 ☆ श्राद्ध पक्ष के निमित्त☆
पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे तृप्तिपर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता सनातन दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।
इस अनुष्ठान के निमित्त प्राय: हम संबंधित तिथि को संबंधित दिवंगत का श्राद्ध कर इति कर लेते हैं। अधिकांशत: सभी अपने घर में पूर्वजों के फोटो लगाते हैं। नियमित रूप से दीया-बाती भी करते हैं।
दैहिक रूप से अपने माता-पिता या पूर्वजों का अंश होने के नाते उनके प्रति श्रद्धावनत होना सहज है। यह भी स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने दिवंगत परिजन के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उनके गुणों का स्मरण करे। प्रश्न है कि क्या हम दिवंगत के गुणों में से किसी एक या दो को आत्मसात कर पाते हैं?
बहुधा सुनने को मिलता है कि मेरी माँ परिश्रमी थी पर मैं बहुत आलसी हूँ।…क्या शेष जीवन यही कहकर बीतेगा या दिवंगत के परिश्रम को अपनाकर उन्हें चैतन्य रखने में अपनी भूमिका निभाई जाएगी?… मेरे पिता समय का पालन करते थे, वह पंक्चुअल थे।…इधर सवारी किसी को दिये समय से आधे घंटे बाद घर से निकलती है। विदेह स्वरूप में पिता की स्मृति को जीवंत रखने के लिए क्या किया? कहा गया है,
यद्यष्टाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो: जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी का अनुसरण करते हैं। भावार्थ है कि अपने पूर्वजों के गुणों को अपनाना, उनके श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
विधि विधान और लोकाचार से पूर्वजों का श्राद्ध करते हुए अपने पूर्वजों के गुणों को आत्मसात करने का संकल्प भी अवश्य लें। पूर्वजों की आत्मा को इससे सच्चा आनंद प्राप्त होगा।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोशिश–नहीं नाक़ामी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 149 ☆
☆ कोशिश–नहीं नाक़ामी☆
‘कोशिश करो और नाक़ाम हो जाओ; तो भी नाक़ामी से घबराओ नहीं; फिर कोशिश करो। अच्छी नाक़ामी सबके हिस्से में नहीं आती,’ सैमुअल बैकेट मानव को निरंतर कर्मशीलता का संदेश देते हैं। मानव को तब तक प्रयासरत रहना चाहिए; जब तक उसे सफलता प्राप्त नहीं हो जाती। कबीरदास जी के ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ के संदर्भ में रामानुजम् जी का कथन भी द्रष्टव्य है–’अपने गुणों की मदद से अपना हुनर निखारते चलो। एक दिन हर कोई तुम पर, तुम्हारे गुणों और क़ाबिलियत पर बात करेगा।’ सो! मानव को अपनी योग्यता पर भरोसा होना चाहिए और उसे अपने गुणों व अपने हुनर में निखार लाना चाहिए। दूसरे शब्दों में मानव को निरंतर अभ्यास करना चाहिए तथा अपना दिन इन तीन शब्दों से शुरू करना चाहिए– कोशिश, सत्य व विश्वास। कोशिश बेहतर भविष्य के लिए, सच अपने काम की गुणवत्ता के साथ और विश्वास भगवान की सत्ता में रखें; सफलता तुम्हारे कदमों में होगी। मानव को परमात्म-सत्ता में विश्वास रखते हुए पूर्ण ईमानदारी व निष्ठा से अपना कार्य करते रहना चाहिए।
‘वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल। बेशक़ जवाब देर से मिलेंगे, पर लाजवाब मिलेंगे।’ भगवद्गीता में भी यही संदेश प्रेषित किया गया है कि मानव को सदैव निष्काम कर्म करना चाहिए; फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। यही जीवन जीने का सही अंदाज़ है, क्योंकि ‘होता वही है, जो मंज़ूरे ख़ुदा होता है।’ सो! हमें परमात्म-सत्ता में विश्वास रखते हुए सत्कर्म करने चाहिए, क्योंकि यदि ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ अर्थात् बुरे कार्य का परिणाम सदैव बुरा ही होता है।
आत्मविश्वास व धैर्य वे अजातशत्रु हैं, जिनके साथ रहते मानव का पतन नहीं हो सकता और न ही उसे असफलता का मुख देखना पड़ सकता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। पेड़ हमेशा अपनी पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं।’ वे मानव को तीसरे विकल्प की ओर ध्यान देने का संदेश देते हैं तथा उससे आग्रह करते हैं कि मानव को हताश-निराश होकर अपना लक्ष्य परिवर्तित नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार पतझड़ में पुराने पीले पत्ते झड़ने के पश्चात् नये पत्ते आते हैं और वसंत के आगमन पर पूरी सृष्टि लहलहा उठती है; ठीक उसी प्रकार मानव को विश्वास रखना चाहिए कि अमावस की अंधेरी रात के पश्चात् पूनम की चांदनी रात का आना निश्चित है। समय नदी की भांति निरंतर गतिशील रहता है; कभी ठहरता नहीं। ‘आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही एक पल है’ मानव को सचेत करता है कि भविष्य अनिश्चित है और अतीत कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए मानव के लिए वर्तमान में जीना सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि वही पल सार्थक है।
जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन केवल हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसी क़ायनात अर्थात् जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। शेक्सपियर के अनुसार ‘सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है।’ इसलिए संसार हमें हमारी मन:स्थिति के अनुकूल भासता है। सो! हमें मन को समझने की सीख दी गयी है और उसे दर्पण की संज्ञा से अभिहित किया गया है। मन व्यक्ति का आईना होता है। इसलिए नमन व मनन दोनों स्थितियों को श्रेष्ठ स्वीकारा गया है। दूसरे शब्दों में यह एक सुरक्षा-चक्र है, जो सभी आपदाओं से हमारी रक्षा करता है। मनन ‘पहले सोचो, फिर बोलो’ का संदेशवाहक है और नमन ‘विनम्रता का’, जिसमें अहं का लेशमात्र भी स्थान नहीं है। यदि मानव अहं का त्याग कर देता है, तो संबंध शाश्वत बन जाते हैं। अहं संबंधों को दीमक की भांति चाट जाता है और सुनामी की भांति लील जाता है। इसलिए कहा जाता है ‘घमंड मत कर दोस्त! सुना ही होगा/ अंगारे राख ही बनते हैं।’ सो! मानव को अर्श से फ़र्श पर आने में पल भर भी नहीं लगता। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। जो आज शिखर पर है, उसे एक अंतराल के पश्चात् लौटकर धरा पर ही आना पड़ता है; जैसे तपते अंगारे भी थोड़े समय के बाद राख बन जाते हैं। इसलिए ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ लेकिन ‘गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ यदि अपनों का साथ हो, तो कोई रास्ता भी कठिन व लंबा नहीं होता। स्वर्ग-नरक की सीमाएं निश्चित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य- व्यवहार ही उनका निर्माण करते हैं। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है।
’यदि आप किसी से सच्चे संबंध बनाए रखना चाहते हैं, तो उसके बारे में जो आप जानते हैं, उस पर विश्वास रखिए; न कि उसके बारे में जो आपने सुना है’ अब्दुल कलाम जी की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। ‘दोस्ती के मायने कभी ख़ुदा से कम नहीं होते/ अगर ख़ुदा क़रिश्मा है, तो दोस्त भी जन्नत से कम नहीं होते।’ सो! आवश्यकता से अधिक सोचना दु:खों का कारण होता है। महात्मा बुद्ध अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाने का संदेश देते हैं कि मानव की सोच अच्छी होनी चाहिए, क्योंकि नज़र का इलाज तो दुनिया में मुमक़िन है, परंतु नज़रिए का नहीं। वास्तव में इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा दे जाती हैं, जो वह दूसरों से करता है। इसलिए उम्मीद न ही दूसरों से रखें, न ही ख़ुद से, क्योंकि आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं, ख़्वाहिशें नहीं। इसके साथ ही मानव को तुलना के खेल में नहीं उलझना चाहिए, क्योंकि जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद समाप्त हो जाता है। उस स्थिति में इंसान एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हो जाता है। मुझे याद आ रही हैं वे स्वरचित पंक्तियाँ, जो आज भी समसामयिक हैं। ‘बाहर रिश्तों का मेला है/ भीतर हर शख़्स अकेला है/ यही ज़िंदगी का झमेला है।’ आजकल बच्चे हों, युवा हों या वृद्ध; पति-पत्नी हों या परिवारजन– सब अपने-अपने द्वीप में कैद हैं। सो! संसार को नहीं, ख़ुद को बदलने का प्रयास करें, अन्यथा माया मिली न राम वाली स्थिति हो जाएगी, क्योंकि जिसने संसार को बदलने की चेष्टा की; वह पराजित ही हुआ है।
मानव को हर पल मालिक की रहमतों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। वह सृष्टि-नियंता सबको कठपुतली की भांति नचाता हैं, क्योंकि सबकी डोर उसके हाथ में है। ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ लेकिन यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ ईश्वर आक्सीजन की तरह है, जिसे हम देख नहीं सकते और उसके बिना ज़िंदा रह भी नहीं सकते। ईश्वर अदृश्य है, अगम्य है, अगोचर है; परंतु वह सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है।
अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि तुम में अदम्य साहस है और तुम जो चाहो, कर सकते हो। निरंतर प्रयासरत रहें और आत्मविश्वास व धैर्य रूपी धरोहर को थामे रखें। प्यार व विश्वास वे तोहफ़े हैं, जो मानव को कभी पराजय का मुख नहीं देखने देते। इसके साथ ही वाणी-संयम की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए मौन की महत्ता को दर्शाया गया है तथा गुलज़ार जी द्वारा लफ़्ज़ों को चखकर बोलने की सलाह दी गयी है। रहीम जी के शब्दों में ‘ऐसी बानी बोलिए, मनवा शीतल होय’ यथासमय व अवसरानुकूल सार्थक वचन बोलने की ओर इंगित करता है। सदैव कर्मशील बने रहें, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। वे अपनी नाक़ामी से सीख लेकर बहुत ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचते हैं और उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित होता है। एक अंतराल के पश्चात् ख़ुदा भी उसकी रज़ा जानने को विवश हो जाता है। ‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ दुष्यंत की यह पंक्तियां इसी भाव को दर्शाती हैं कि यदि आपकी इच्छा-शक्ति प्रबल है, तो संसार में असंभव कुछ भी नहीं।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की प्रथम कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
पराए देश अमेरिका जिसको बोलचाल की भाषा में यू एस कहा जाने लगा है,के तीसरे बड़े शहर शिकागो पहुंचे तो विमानतल पर बाहर जाने वालों की करीब एक मील की लंबी कतार थी।
हमें मुम्बई के लाल बाग के राजा” गणपति” दर्शन की याद आ गई। वहां भी भीड़ नियंत्रण करने के लिया जिकजैक करके थोड़े स्थान में भीड़ की व्यवस्था बनाई जाती हैं। यहां प्रतिदिन दो हज़ार पांच सौ से अधिक विमानों का आगमन /प्रस्थान होता हैं।
इमिग्रेशन के लिए ढेर सारे केबिन हैं, इसलिए अधिक समय नहीं लगा। फोटू खींच और कुछ प्रश्न पूछ कर अपना सामान समेट कर सकुशल बाहर आ गए। विमानतल पर अपना सामान खोजना भी थोड़ा कठिन होता है। श्रीमतीजी ने सभी सूटकेस पर लाल रंग के रिब्बन बांध दिए थे, परंतु बहुत सारे अन्य सूटकेस पर भी लाल रंग के रिब्बन थे।स्कूल के दिनों में रिब्बन के रंग से पहचान हो जाती की लड़कियां किस स्कूल की हैं।
सुना है, कभी कभी वीज़ा होते हुए भी अमेरिका में विमानतल से ही यात्री को उसके देश की रवानगी कर दी जाती हैं।
बचपन में जब उजूल फिजूल बातें करते थे, तो घर के बुजुर्ग कहा करते थे, इसको शिकागो भेज दो, इसका दिमाग़ ठीक नहीं हैं। यहां का पागल खाना प्रसिद्ध था, जैसा हमारे देश में आगरा शहर का है।
जब बड़े हुए और विवेकानंद जी के बारे में जाना तो पता चला था, उनका धर्म संसद में दिया गया ऐतिहासिक भाषण भी शिकागो में ही दिया गया था। आने वाले दिनों में यहां की और जानकारियां उपलब्ध करवाने का प्रयास करेंगे।
(खरीप जोमात असला की शेतकऱ्याच्या पदरात भरभरून माप पडे.) इथून पुढे —
दिवाळी झाली की बैलांना जरा विश्रांती मिळायची. रब्बीसाठी शेत गहू, शाळू, हरभरा, करडा, जवस आदींची जुळवाजुळव व्हायची. बी राखेतच असायचे, कोण उधार उसणवार आणायचे. रब्बीसाठी कुणी कुणी बेवड राखायचे. बेवड म्हणजे शेतीत कोणतेच पीक सहा महिने घ्यायचे नाही. सारखी पिके घेतल्याने जमीन थकते, निकस होते, मरगळते म्हणून तिला विश्रांती द्यायची म्हणजे पुढचे पीक जोमात येते.
फाल्गुनाच्या मध्यावर किंवा शेवटी रब्बीचे धान्य घरात येऊन पडे आणि शेतकरी सुस्कारा टाकत, जरा निवांतपणा येई. शेते ओस पडत जत्रा, यात्रा, उरूस यामध्ये शेतकरी हरवून जाई.
सन ९०-९५पर्यंत तर सुगीचे दिवस, शेतातील ती लगबग, पारंपरिक शेती चालू होती. त्यापूर्वी ७२-७३मोठा दुष्काळ पडला होता. तरीही माणुसकीचे मळे मात्र हिरवेगार होते. शेतीला प्रतिष्ठा होती त्यामुळं शेतीवर प्रेम तर होतेच पण निष्ठाही होती. यामुळं लोक शेतीत कसून कष्ट करायचे. पीक कमी जास्त झाले तरी गुरांच्या वैरणीचा तर प्रश्न मिटत होता. निसर्गाचे चक्र कधी सरळ फिरते, कधी उलटे. निसर्ग कधी कृपा करतो, कधी अवकृपा. प्रचंड प्रमाणातील वृक्षतोडीने हळू हळू पाऊस ओढ देऊ लागला. शेतीची प्रतिष्ठा, निष्ठा कमी झाली. निसर्गातील बारकावे, निरीक्षण, अनुभव सगळं मागं पडलं. शिकलेल्या मुला-मुलींना स्वतःच्या शेतात काम करायला लाज वाटू लागली. जनावरांना चारा पाणी करण्याची लाज वाटू लागली. लोकांच्या गरजा वाढल्या, शेतीचे स्वरूप बदलले. नगदी पिके घेण्याकडे कल वाढला. कडधान्यावर कीड पडू लागली शेतकऱ्यांनी देशी वाण मोडले. बेभरवशाची शेती झाली. न परवडणारी मजुरी आणि मजुरांची कमतरता यामुळं शेतीचे यांत्रिकीकरण झाले. गुरे कमी झाली. नांगर गेले, बैलगाड्या मोडल्या. ट्रॅक्टर आले, गावाशेजारील जमिनी भरारा प्लॉट पाडून विकल्या गेल्या. कीटकनाशकांचा वापर वाढला. त्यामुळं जैवसाखळीतील विशिष्ट प्रकारची झुडपे, गवत, भाज्या लुप्त झाल्या पर्यायाने त्या त्या झाडाझुडपावरील, गवतावर पोसणारी, अंडी घालणारी शेतीसाठी उपयुक्त कीटकांची, फुलपाखरांची मांदियाळी नामशेष झाली.
निसर्ग बिघडायला दुसरं तिसरं कोणी कारणीभूत नसून आपणच आहोत. निसर्गाच्या विरुद्ध आपण वागू लागलो, प्लास्टिकचा अति वापर, बेसुमार लोकसंख्या, बदलती भोग विलासी चैनवृत्ती निसर्गाचा ऱ्हास करत आहे इतका की त्याचे अस्तित्वच धोक्यात आलेय. जास्त उत्पन्न देणारे हायब्रीड आले आणि गुरांना आवडणारा आणि सकस असणारा देशी जोंधळ्याचा वाण संपुष्टात आला. क्वचित क्वचित भागातच आता मोत्यासारखा देशी जोंधळा पिकतो अन्यथा हायब्रीड आणि शाळूच पिकवण्याकडे त्या त्या भागातील लोकांचा कल वाढला. पारंपरिक शेती संपल्याने विकतची वैरण आणून जनावरे पाळणे परवडेना. त्यामुळं धष्ट- पुष्ट जनावरांचे गोठे मोडले. घरातले दूध-दुभते, दही, ताक, लोणी, चीक असलं अस्सल नैसर्गिक सकस पदार्थ शेतकऱ्याच्या ताटातून हद्दपार झाले आणि खाऊन पिऊन समृद्ध असणारी पिढी सम्पली. याचबरोबर शेजारधर्म, आपुलकी परोपकार, एकमेकांच्या शेतात हुरडा खायला जाणे, एकमेकांच्या शेतातले पसामूठ आपापसांत घेणे देणे बंद झाले. मिळून मिसळून कामे करणे, मिळून मिसळून रानात नेलेल्या फडक्यावरील भाजीभाकरी एकत्र खाणे शेतीचे अनुभव, ज्ञान परस्परात वाटणे, ऐकणे, अनुकरण करणे संपले.
शेतातल्या सुगीबरोबरच मानवतेच्या सुगीचाही आताशा दुष्काळ पडू लागला आहे, कदाचित पृथ्वीवरील माणसाचे पिकच कधीतरी नष्ट होईल आणि निसर्गाचे चक्र मात्र पुन्हा नव्याने जन्म घेईल. . . . .
आत्मा कोई वस्तु नहीं शक्ति है जिसका न कोई रूप है न रंग न आकार जैसे बिजली। एक ऊर्जा है, एक चेतना हे जो विशेष परिस्थिति में पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होती है और परिस्थितियों के विघटन पर समाप्त हो जाती है। जब तक संचालित होती है हर प्रकार के संभव कार्य संपादित करती है। क्षमतायें अनेकों हैं, पर जिस कार्य में, जिस दिशा में लगाई जाती है वहीं संचालक की इच्छानुसार कार्य करती है। जैसे बिजली उत्पन्न करने के लिये विद्युत तापग्रह, जल विद्युत गृह या परमाणु विद्युत गृह हैं। वैसे ही विभिन्न शरीरों में वह उत्पन्न होती और विघटित होती है।
न कहीं से आती है न कहीं जाती है। केवल कार्य संपादिनी ऊर्जा है, जो व्यक्ति को जन्म के साथ ईश्वर से मिलती है और मृत्यु के साथ लुप्त हो जाती है या ऐसा भी कह सकते हैं कि जब लुप्त हो जाती है तो ही मृत्यु होती है। यह अवधारणा कि आत्मा शरीर छोडक़र जाती है। मेरी दृष्टि से भ्रामक है, उसका विनाश नहीं विलोप होता है जैसे किसी टार्च के सेल से शक्ति का विलोप हो जाता है या जैसे माचिस की तीली से एक बार अग्नि प्रज्वलित कर देने के बाद उसकी ज्वलन शक्ति लुप्त हो जाती है। अगर इस धारणा को सत्य माना जाता है तो फिर आत्मा की उध्र्वक्रिया हेतु पिण्डदान आदि की मान्यतायें बेईमानी है। सारे कर्मकाण्ड तो हमारी मान्यताओं पर आधारित हैं। ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभुमूरत देखी तिन्ह तैसी’। जीवन में बहुत से कार्य मान्यताओं के अनुसार ही संपादित किये जाते हैं। विभिन्न धर्मावलंबियों की विभिन्न धारणायें हैं। इसीलिये धारणाओं के भेद के कारण टकराव हैं। अलग धर्मों की तो बात क्या एक ही धर्म में अलग-अलग मत, विचार और धारणायें हैं। इसीलिये कभी भी चार व्यक्तियों के मनोभाव और विचार एक समान नहीं पाये जाते। जिसे एक धर्म सही मानता है, दूसरा उसे गलत मानता और उसका खण्डन करता है। आत्मा, रूह और सोलर की सत्ता को तो सभी मानते हैं क्योंकि वह एक सत्य है और उसकी शक्ति या सत्ता क्या है इसका अनुभव तो किया जाता है, परन्तु देखा नहीं जाता। उसके स्वरूप को समझने की कोशिश की जाती है। जब से सृष्टि है तब से उसे जानने के निरन्तर प्रयास जारी हैं और आगे भी रहेंगे। किन्तु उसकी पहेली अनसुलझी है। वह ऐसा सूक्ष्म तत्व है जो परम तत्व में एकाकार हो सकता है। इसीलिये इसको मोक्ष या निर्वाण नाम दिया गया है। गीता की मान्यता है कि-
आत्मा एक ऐसा सूक्ष्म दैवी तत्व है जिसका कभी नाश नहीं होता, किन्तु उसका पुनर्जन्म होता है और मृत्यु के उपरांत वह एक शरीर को वैसे ही त्याग देती है जेसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र धारण कर लेता है। पुराना इसलिये छोड़ देता है क्योंकि वह खराब हो जाता है। आत्मा भी इसी प्रकार पुराने शरीर को जो खराब हो गया होता है त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है। मृत्यु के उपरांत आत्मा को कहीं नया शरीर मिल जाता है और उसकी जीवन यात्रा निरन्तर चलती रहती है। मरणोपरांत विभिन्न धर्मावलंबियों द्वारा जो मृत व्यक्ति की अंतिम धार्मिक क्रियायें कराई जाती हैं वे समस्त रीतियां शांति प्राप्त हेतु कराई जाती हैं।
आत्मा अदृश्य है परन्तु ईश्वर के समान सक्षम तथा चेतन है। इसीलिये आत्मा को ईश्वर (परमात्मा) का अंश कहा जाता है। आत्मा और परमात्मा दोनों के अस्तित्व का आभास तो होता है पर ऊर्जा की भांति अदृश्य होने से देखा नहीं जा सकता।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
आज की साधना
श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।
इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः
साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।
अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 154 ☆ समझ समझकर ☆
प्रातः भ्रमण कर रहा हूँ। देखता हूँ कि लगभग दस वर्षीय एक बालक साइकिल चला रहा है। पीछे से उसी की आयु की एक बिटिया बहुत गति से साइकिल चलाते आई। उसे आवाज़ देकर बोली, ‘देख, मैं तेरे से आगे!’ इतनी-सी आयु के लड़के के ‘मेल ईगो’ को ठेस पहुँची। ‘..मुझे चैलेंज?… तू मुझसे आगे?’ बिटिया ने उतने ही आत्मविश्वास से कहा, ‘हाँ, मैं तुझसे आगे।’ लड़के ने साइकिल की गति बढ़ाई,.. और बढ़ाई..और बढ़ाई पर बिटिया किसी हवाई परी-सी.., ये गई, वो गई। जहाँ तक मैं देख पाया, बिटिया आगे ही नहीं है बल्कि उसके और लड़के के बीच का अंतर भी निरंतर बढ़ाती जा रही है। बहुत आगे निकल चुकी है वह।
कर्मनिष्ठा, निरंतर अभ्यास और परिश्रम से लड़कियाँ लगभग हर क्षेत्र में आगे निकल चुकी हैं। यूँ भी जन्म देने का वरदान पानेवाली का, जन्म पानेवाले से आगे होना स्वाभाविक है। ‘वह’ शृंखला की अपनी एक रचना स्मृति में कौंध रही है,
वह माँ, वह बेटी,
वह प्रेयसी, वह पत्नी,
वह दादी-नानी,
वह बुआ-मौसी,
चाची-मामी वह..,
शिक्षिका, श्रमिक,
अधिकारी, राजनेता,
पायलट, ड्राइवर,
डॉक्टर, इंजीनियर,
सैनिक, शांतिदूत,
क्या नहीं है वह..,
योगेश्वर के
विराट रूप की
जननी है वह..!
हमारी शिक्षा व्यवस्था लड़के का विलोम लड़की पढ़ाती है। लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष विलोम नहीं अपितु पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। महादेव यूँ ही अर्द्धनारीश्वर नहीं कहलाए। कठिनाई है कि फुरसत किसे है आँखें खोलने की।
कोई और आँखें खोले, न खोले, विवाह की वेदी पर लड़की की तुला में दहेज का बाट रखकर कथित संतुलन साधनेवाले अवश्य जाग जाएँ। आँखें खोलें, मानसिकता बदलें, पूरक का अर्थ समझें अन्यथा लड़कों की तुला में दहेज का बाट रखने को रोक नहीं सकेंगे।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ ॥ आत्मविश्वास॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
जहां न साधन साथ निभाते, फीकी पड़ जाती हर आश।
वहां अडिग चट्टान सरीखा, आता काम आत्मविश्वास॥
जिसमें आत्मविश्वास प्रबल है उसकी विजय प्राय: सुनिश्चित होती है। कोई भी कार्य छोटा हो या बड़ा, सरल हो या कठिन काम करने वाले के मन में सफलता पाने का आत्मविश्वास का होना बहुत जरूरी है। विश्व इतिहास के पन्ने, आत्मविश्वासी की विजयों से भरे पड़े हैं। क्षेत्र राजनीति का हो या विज्ञान का, व्यक्ति के आत्मविश्वास ने समस्याओं का सदा समाधान कराया है। चन्द्रगुप्त के आत्मविश्वास ने भारत में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। यूरोप में नेपोलिय बोनापार्ट की हर जीत का रहस्य उस का आत्मविश्वास ही था। विज्ञान के क्षेत्र में किसी भी नये अविष्कार के लिये वैज्ञानिक की लगन, परिश्रम और सूझबूझ के साथ ही आत्मविश्वास और धैर्य के बल पर ही सफलता प्राप्त होती है। आत्मविश्वासी वीरों ने ही हिमालय की सर्वोच्च ऊंची चोटी गौरीशंकर जिसे एवरेस्ट भी कहा जाता है तक पहुंचकर अपने अदम्य साहस का परिचय दिया है। आत्मविश्वास व्यक्ति को निडर, उत्साही और धैर्यवान बनाता है।
सामान्य जीवन में भी जिनमें आत्मविश्वास होता है वे किसी भी कार्य को करने से न तो हिचकिचाते हैं और न पीछे हटते हैं। विद्यार्थी जीवन में देखें तो परीक्षा देना तो अनिवार्य है। बिना परीक्षा पास किये कोई आगे नहीं बढ़ सकता। उसे वांछित लक्ष्य नहीं मिल सकता पर कई छात्र परीक्षा के नाम से घबराते हैं। क्योंकि उन्हें अपने अध्ययन और अभ्यास पर पूरा पूरा विश्वास नहीं होता। डर लगता है कि कहीं परीक्षा में फेल न हो जाये। किन्तु जिस छात्र के मन में अपने पर पूरा विश्वास होता है उसे परीक्षा न केवल आसान लगती है बल्कि उसे परीक्षा देना और विशेष योग्यता प्रदर्शित कर पास होना एक खेल सा सरल काम लगता है। वह तो चाहता है कि परीक्षा का अवसर हो और वह उसमें सफल होकर यश अर्जित करे। आत्मविश्वास एक ऐसा गुण है जो जीवन को सहज और सुखद बनाता है। सफलता उसके लिये प्रसन्नता का कारण होती है। आत्मविश्वास हिम्मत बढ़ाता है। आत्मविश्वास का अभाव शंकाओं को जनम देता है और कार्यसिद्धि में व्यवधान बनता है। प्राय: समझा जाता है कि नारी जाति में समस्याओं से जूझने का आत्मविश्वास नहीं होता परन्तु यह बात पूर्णत: सही नहीं है भारत में ही गोंडवाना की रानी दुर्गावती ने सम्राट अकबर से टक्कर लेने का साहस दिखाया था। सन् 1856 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में वीरता से लड़ते हुये झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने एक वीर सैनिक के वेश में युद्ध कर अंग्रेज सेना के दांत खट्टे कर दिखाया। आज कल बोर्ड और यूनीवर्सिटी की परीक्षाओं में लड़कियां अच्छे अंक प्राप्त कर मेरिट लिस्ट में अपने समकक्ष लडक़ों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर पुरस्कार की हकदार बन रही हैं। यह उनके आत्मविश्वास से कार्य करने का प्रमाण है।
प्रकृति ने हर व्यक्ति को आत्मविश्वास का वरदान दिया है। व्यक्ति उसे समझकर हमेशा दृढ़ता से काम करे। उस गुण को बढ़ाने की आवश्यकता है। व्यक्ति खुद को कमजोर या हीन न समझे। अपनी पूरी सामथ्र्य से कार्य हेतु खुद को समर्पित कर लक्ष्य को पाने की भावना मन में जगा ले, तो आत्मविश्वास बढ़ता जाता है। मार्ग की कठिनाइयां अपने आप समाप्त होती दिखती हैं। रुचि व उत्साह से कार्य में जुट जाने की आदत बन जाती है। दूसरों से अनुमोदन या प्रशंसा पाकर भी आत्मविश्वास बढ़ता है। उत्साह जागता है। कार्य में रुचि उत्पन्न होती है इसीलिये शिक्षकों द्वारा कक्षा में योग्य छात्रों की प्रशंसा करना उचित है। यह नये-नये गुणों के विकास में सहायक होता है। समाज में अच्छे कार्यकर्ताओं को पुरस्कारों की व्यवस्था भी इसीलिये की जाती है कि पुरस्कार पाकर उनमें आत्मविश्वास बढ़े और वह पुरस्कार उन्हें ही नहीं दूसरों को भी प्रोत्साहित कर सके।
प्रोत्साहन से कार्यक्षमता बढ़ती है, रुचि और उत्साह जागृत होते हैं और सफलता पाना सरल हो जाता है। प्रोत्साहन बाहरी आवश्यकता है परन्तु अपने गुणों को प्रखर करने में आत्मविश्वास की बड़ी भूमिका है और जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है। आत्मविश्वास से जीवन को हर क्षेत्र में बढऩा आसान हो जाता है। किसी भी काम को पूरे विश्वास के साथ करके सफलता पाने की मनोभावना को आत्मविश्वास कहा जाता है जो बुद्धिमान और परिश्रमी व्यक्ति के लिये अपने खुद में जगाना कठिन नहीं है।
आज हमारा समाज जिस दौर से गुजर रहा है उसका चित्र प्रत्येक दिन अखबारों व टीवी के समाचारों द्वारा दिखाया जा रहा है। लोग ईमानदारी और सदाचार का मार्ग छोडक़र छोटे-छोटे लालचों में फंसे दिखते हैं। लालच प्रमुखत: धन प्राप्ति का है परन्तु साथ ही कामचोरी का भी दिखाई देता है। धन प्राप्ति के लिये लांच-घूंस, भ्रष्टाचार, लूट के मामले सामने आते हैं। छोटे व्यक्तियों की बात तो क्या ऊंचे पदों पर आसीन व्यक्ति भी नियम-कायदों की घोर उपेक्षा कर मन माफिक धन संचय के लिये कुछ भी गलत करने में नहीं हिचकिचाते। बड़ों में राजनेता और उच्च पदस्थ वे अधिकारी भी हैं जिन्हेें समाज को मार्गदर्शन देना चाहिये। चूंकि बड़ों का अनुकरण समाज प्राचीन काल से करता आया है इसलिये आज समाज का छोटा वर्ग भी इसी चारित्रिक गिरावट में दिखाई देता है। भ्रष्टाचरण हर जगह सामान्य हो चला है, जिसे जहां मौका मिलता है वहीं वह गबन कर बैठता है। घूंस स्वीकार कर नियम विरुद्ध कार्य करने को तैयार है। अपने कर्तव्यों और अपने उत्तरदायित्वों के प्रति लोगों की निष्ठा जैसे समाप्त हो चली है। आये दिन खबरें छपती हैं, शिक्षक अपने छात्रों को शिक्षित करने में रुचि न लेकर कार्यस्थल से ड्यूटी की अवधि में अनुपस्थित रहते हैं। डॉक्टर समय पर अस्पतालों में नहीं पहुंचते, मरीजों के दुख तकलीफों को दूर करने में रुचि नहीं लेते। अस्पताल से जल्दी घर चले जाते हैं। घरों में प्रायवेट प्रेक्टिस करते हैं। अस्पताल में आये हुये गरीब मरीजों की प्रार्थनाओं पर न तो ध्यान देते हैं न रहम करते हैं। अस्पताल में आये हुये गरीब मरीजों की प्रार्थनाओं पर न तो ध्यान देते और न दवा करते, केवल पैसों पर और अपनी कमाई पर ध्यान रखते हैं। गांव से बड़े शहरों तक के प्राय: सभी जन सेवक जनसेवा नहीं धन सेवा में मस्त हैं। अधिकारी वर्ग तक जो ऊंची तनख्वाह पाते हैं कर्तव्य के प्रति लापरवाह हैं। अपने परिवार की सुख सुविधाओं को प्राथम्य देते हैं। अपने आराम को दुखियों के दुखों से अधिक महत्व देकर सब कार्य कर रहे हैं। केवल स्वत: ही नहीं अपने पुत्र-पुत्रियों से रिश्तेदारों तक को नियमों के विपरीत सुविधायें उपलब्ध कराने में अपना बड़प्पन समझते हैं, जबकि ऐसे प्रसंगों में उन्हें और उनके संबंधियों को शर्म आनी चाहिये। क्योंकि वे जनसेवा में व्यवधान उत्पन्न कर गरीबों के हकों पर डाका डाल रहे हैं। प्रादेशिक असेम्बिलियों तथा लोकसभा तक के सदस्य राजनेता समय और धन का दुरुपयोग कर अपने निर्धारित कर्तव्यों की उपेक्षा कर शासकीय धन का अपव्यय कर रहे हैं।
धन के अपव्यय या गबन के प्रसंग उजागर होने पर जांच कमीशन नियुक्त कर दिया जाता है, जो स्वत: समय और धन के व्यय के बाद भी शायद वांछित परिणाम विभिन्न कारणों से नहीं दे पाता है। जिस देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन में स्वेच्छा से कर्तव्यनिष्ठ लोगों ने अपने प्राणों की आहुति हँसते-हँसते दी थी, उन्हें क्या मालूम था कि आजादी के बाद उन्हीं के देशवासी स्वार्थ के लिये देशवासियों के प्राणों की आहुति लेने में भी संकोच नहीं करेंगे। जगह-जगह आतंकवादी निरपराधियों को बिना किसी डर और संकोच के मार रहे हैं। बलात्कारी राक्षस तुल्य व्यवहार कर अबोध बालिकाओं का, निडर हो पशुवत शिकार कर रहे हैं। निरीह जन साधारण अपने अधिकारों से वंचित किये जा रहे हैं। बेरहमी देश में ताण्डव नृत्य कर रही है। वे लोग जो सुरक्षा के लिये तैनात है स्वत: भक्षक सा व्यवहार करते देखे जाते हैं। सामाजिक पूज्य संबंधों की मान्यताओं को मानने से अपने कर्तव्यों को भुला अनुचित शोषण किया जा रहा है। यह सब क्या हो रहा है?
इन सबका सबसे बड़ा कारण धार्मिक मान्यताओं की घोर उपेक्षा और शासन के कानूनों की निडरता से अव्हेलना है। धार्मिक मान्यतायें ही नैतिक चरित्र का निर्माण और परिपालन करती हैं जिनसे मनुष्य स्वानुशासित होता है। समाज में शांति, सुरक्षा और व्यवस्था स्वत: ही बनी रहती है। किन्तु आज सब प्राचीन ताना-बाना विभिन्न कारणों से छिन्न-भिन्न हो गया है। शासन भी व्यवस्था बनाये रखने में लगता है, अलग हो गया है। एक बहुत बड़ा कारण राजनीति का अमर्यादित हो धर्म मर्यादा से निर्भीक होकर कार्य करना है जिसने पूरे देश को अपने शिकंजे में जकड़ लिया है। लोगोंं ने धर्म और ईश्वर की उपेक्षा करके अपने को क्रांतिकारी वीर बताना सीख लिया है।
अव्यवस्थित, अमर्यादित और अनैतिक समाज या देश सही अर्थ में प्रगति और वास्तविक विकास नहीं कर सकता। सारा प्रदर्शन केवल एक आडम्बर मात्र रह जाता है। अत: हमें नैतिक और कर्तव्यनिष्ठ बनने की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। नैतिकता से जीवन में शुचिता पवित्रता आती है और समाज में परिस्परिक विश्वास, व्यवहारों में पारदर्शिता और सुख समृद्धि तथा निर्भीकता प्राप्त होती है। सब कार्य सरलता से चलते हैं। नैतिक पतन समाज के नये नये दुखों और समस्याओं की जड़ है।