(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सांसों की धड़कन…“।)
अभी अभी # 501 ⇒ सांसों की धड़कन श्री प्रदीप शर्मा
जड़ और चेतन से मिलकर यह सृष्टि बनी है, लेकिन कहीं कहीं जड़ में भी चेतनता है। हमारा शरीर भी तो जड़ ही है, अगर इसमें चेतना ना हो। पेड़ पौधों की मूल प्रवृत्ति जड़ ही तो है। जड़ रूट को भी कहते हैं। अगर किसी वृक्ष को जड़ से ही काट दिया जाए, तो उसकी चेतनता नष्ट हो जाएगी। जड़ को चेतन एक बीज बनाता है।
पांच तत्वों से बने हमारे इस शरीर के भी दो मुख्य भाग हैं, धड़ और सिर। हम नाक से सांस लेते हैं, तब हमारा दिल धड़कता है। जब फेफड़ों में हवा भरती है, तब ही तो दिल की धड़कन सुनाई देती है।।
अगर सांस चलना बंद हो जाए, तो दिल की धड़कन भी रुक जाए। एक मशीन की तरह अनवरत हमारी सांस चलती रहती है और दिल धड़कता रहता है।
हमें अपनी सांस चलने का आभास भी तब ही होता है, जब अधिक शारीरिक परिश्रम से हमारी सांस तेजी से चलने लगती है।
इधर सांस तेजी से चली, उधर दिल भी तेजी से धड़कना शुरू कर देता है। अजीब रिश्ता है सांसों का दिल से।
इधर सांस फूली, उधर दिल की धक धक शुरू। थोड़ा सुस्ताए, इधर सांस थमी, उधर दिल को भी सुकून मिला। वैसे तो सांस के आने जाने, और दिल के धड़कने को केवल महसूस ही किया जा सकता है, लेकिन वाह रे, दिल और सांस का रिश्ता।।
लोग जब किसी को अपने दिल में जगह दे देते हैं, यानी बिठा लेते हैं, तब वह उसकी सांसों में भी समा जाता है। दिल की ऐ धड़कन ठहर जा, मिल गई मंजिल मुझे। केवल दिल के मरीज का ही दिल धक धक नहीं करता, एक प्रेमी का भी करता है।
जिसको आप अपनी जान दे बैठे हो, वह आपके दिल और सांसों में समा गया है। हम दिल दे चुके सनम ;
दिल चीज क्या है
आप मेरी जान लीजिए।
बस एक बार मेरा कहा
मान लीजिए।।
धड़का तो होगा दिल, किया जब होगा तुमने प्यार। क्या किसी का नाम सांसों में भी लिखा जा सकता है। अजीब दुनिया है यह सांसों की और धड़कन की। अजी आप यकीन नहीं करोगे, हमारा दिल तो सोचता भी है। मुलाहिजा फरमाइए ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भक्ति और आराधना…“।)
अभी अभी # 500 ⇒ भक्ति और आराधना श्री प्रदीप शर्मा
शारदेय नवरात्रि माता की भक्ति और आराधना का पर्व है। भक्ति में शक्ति है और शक्ति में पुरुषार्थ !जप, तप, उपवास भी भक्ति का ही स्वरूप है, मन को सांसारिक विषयों से हटाकर अपने आराध्य में लीन होने का अभ्यास है। माता का वास पहाड़ों में है, गुफाओं में है। हमारी माता पहाड़ों वाली है, वह स्कूटी पर सवार नहीं, शेरां वाली है।
शेर की सवारी कोई निर्भय और निडर ही कर सकता है। पहाड़ों और गुफाओं में भक्ति है, विवेक है, वैराग्य है। हमारे जीवन में भी पहाड़ों की कमी नहीं। कभी मुसीबत का पहाड़ तो कभी अहंकार का पहाड़। शेर की सवारी तो छोड़िए, हम तो छिपकली से ही डर जाते हैं। माता की आराधना हमें विकारों से दूर करती है, हममें शक्ति का संचार करती है और हमें निर्भय और निडर बनाती है। एक अबोध बालक के लिए उसकी मां का आंचल ही दुनिया में सबसे सुरक्षित स्थान होता है।।
हमने अपनी जन्मदायिनी मां के साथ नौ महीने उसके उदर में बिताए, वहां भी हमारा पालन पोषण और भरण पोषण हुआ, मां के रक्त ने ही हमें सींचा और हम एक स्वस्थ जीवन प्राप्त कर इस धरा पर अवतरित हुए। एक मां ने अपना पुत्र धरती मां को सौंप दिया। तेरा तुझको अर्पण, और हमारी किलकारी शुरू। हम बड़े होते गए, मां से दूर होते गए, अपनी मातृभूमि को भी छोड़ प्रवासी हो गए।
जीवन में सभी भौतिक उपलब्धियां, फिर भी प्रेम और ममता का अभाव, स्वार्थ और आसक्ति का भाव, फिक्र, चिंता और डर का भाव। ऐसी परिस्थिति में क्यों न कुछ दिन गुजार दें मां के सत्संग, ध्यान और आराधना में। इस बार नौ महीने ना सही, नौ दिन ही सही। हम जब जन्म के पहले, अपनी मां में ही समाए थे, तब नौ महीने उनका ही तो सहारा था। क्या उसने कभी हमें भूखा, प्यासा रखा ? आपको याद नहीं, मां को सब याद है। वह तब भी मां थी, आज भी मां ही है। आप मानें, ना मानें, मां, मां ही होती है। सबकी अपनी अपनी मां होती है। मां सबकी होती है।।
शक्ति अर्थात् शारीरिक बल तो हमें, पौष्टिक भोजन से मिल ही जाता है। बादाम, बोर्नविटा, बूस्ट, और इतनी मल्टीविटामिन गोलियाँ उपलब्ध हैं बाज़ार में फिर मां से हमें कौन सी शक्ति चाहिए। क्यों रात्रि जागरण और माता का जगराता। हमारे अंदर शक्ति का भंडार है, वही शक्ति हमारे चित्त के साथ संयुक्त होकर काम करती है। अब आपका चित्त कैसा है, यह आप जानो। डाकू भी जय भवानी कहकर ही डाका डालते हैं और जिनमें कई सफेदपोश भी होते हैं। अज्ञान और अंधकार में जब हमारी चैतन्य शक्ति सोई पड़ी रहती है, तब आसुरी शक्ति प्रबल हो जाती है। हमारी सोई शक्ति को जगाना ही शक्ति का जागरण है, जगराता है। इसे ही ज्ञानवती कुंडलिनी शक्ति कहते हैं। मूलाधार निवासिनी यह चेतन शक्ति उर्ध्वमुखी हो, सभी चक्रों को भेदती हुई सहस्रार में प्रवेश कर जाती है। भक्ति, ज्ञान और विवेक के बिना शक्ति का जागरण संभव नहीं। हां, आसुरी शक्ति तो जगी जगाई है।
बस उसी मां की गोद में फिर से नौ दिन जाने का अवसर है यह नवरात्रि उत्सव। वह जैसा रखे, रह लीजिए, जो खिलाए, प्रेम से खा लीजिए। नौ दिन का तो यह अभ्यास है। मां ने जो नौ महीने आपको पाला है, उसका ऋण केवल नवरात्रि की आराधना और उपवास से नहीं चुकाया जा सकता। नवरात्रि पर्व शक्ति संचय और आराधना का ही सबब नहीं, मां के सद्गुणों को आत्मसात करने का भी पर्व है। मां अपने पुत्र को प्यार भी करती है और गलती करने पर दंडित भी करती है, लेकिन कभी किसी से नफरत नहीं करती। मां बलि देती है, कभी बलि लेती नहीं। अगर बलिदान देना ही है तो राग, द्वेष, निंदा, लोभ और मत्सर का दें। माता अति प्रसन्न होगी। हमें आशीर्वाद देगी। हमारी सभी मनोकामनाओं को पूरी करेगी। जय माता दी।।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख याद व विवाद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 253 ☆
☆ याद व विवाद ☆
“भूलने की सारी बातें याद हैं/ इसलिए ज़िंदगी में विवाद है।” इंसान लौट जाना चाहता/ अतीत में/ जीना चाहता उन पलों को/ जो स्वर्णिम थे, मनोहारी थे/ खो जाना चाहता/ अतीत की मधुर स्मृतियों में/ अवगाहन करना चाहता, क्योंकि उनसे हृदय को सुक़ून मिलता है और वह उन चंद लम्हों का स्मरण कर उन्हें भरपूर जी लेना चाहता है। जो गुज़र गया, वह सदैव मनभावन व मनोहारी होता है। वर्तमान, जो आज है/ मन को भाता नहीं, क्योंकि उसकी असीमित आशाएं व आकांक्षाएं हृदय को कचोटती हैं, आहत करती हैं और चैन से बैठने नहीं देती। इसका मूल कारण है भविष्य के सुंदर स्वप्न संजोना। सो! वह उन कल्पनाओं में डूब जाना चाहता है और जीवन को सुंदर बनाना चाहता है।
भविष्य अनिश्चित है। कल कैसा होगा, कोई नहीं जानता। अतीत लौट नहीं सकता। इसलिए मानव के लिए वर्तमान अर्थात् आज में जीना श्रेयस्कर है। यदि वर्तमान सुंदर है, मनोरम है, तो वह अतीत को स्मरण नहीं करता। वह कल्पनाओं के पंख लगा उन्मुक्त आकाश में विचरण करता है और उसका भविष्य स्वत: सुखद हो जाता है। परंतु ‘इंसान करता है प्रतीक्षा/ बीते पलों की/ अतीत के क्षणों की/ ढल चुकी सुरमई शामों की/ रंगीन बहारों की/ घर लौटते हुए परिंदों के चहचहाने की/ यह जानते हुए भी/ कि बीते पल/ लौट कर नहीं आते’– यह पंक्तियाँ ‘संसार दु:खालय है और ‘जीवन संध्या एक सिलसिला है/ आँसुओं का, दु:खों का, विषादों का/ अंतहीन सिसकियों का/ जहाँ इंसान को हर पल/ आंसुओं को पीकर/ मुस्कुराना पड़ता है/ मन सोचता है/ शायद लौट आएं/ वे मधुर क्षण/ होंठ फिर से/ प्रेम के मधुर तराने गुनगुनाएं/ वह हास-परिहास, माधुर्य/ साहचर्य व रमणीयता/ उसे दोबारा मिल जाए/ लौट आए सामंजस्यता/ उसके जीवन में/ परंतु सब प्रयास निष्फल व निरर्थक/ जो गुज़र गया/ उसे भूलना ही हितकर/ सदैव श्रेयस्कर/ यही सत्य है जीवन का, सृष्टि का। स्वरचित आँसू काव्य-संग्रह की उपरोक्त पंक्तियाँ इसी भाव को प्रेषित व पोषित करती हैं।
मानव अक्सर व्यर्थ की उन बातों का स्मरण करता है, जिन्हें याद करने से विवाद उत्पन्न होते हैं। न ही उनका कोई लाभ नहीं होता है, न ही प्रयोजन। वे तत्वहीन व सारहीन होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि मानव की प्रवृत्ति हंस की भांति नीर-क्षीर विवेकी होनी चाहिए। जो अच्छा मिले, उसे ग्रहण कर लें और जो आपके लिए अनुपयोगी है, उसका त्याग कर दीजिए। हमें चातक पक्षी की भांति स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदों को ग्रहण करना चाहिए, जो अनमोल मोती का रूपाकार ग्रहण कर लेती हैं। सो! जीवन में जो उपयोगी, लाभकारी व अनमोल है– उसे उसका ग्रहण कीजिए व अनमोल धरोहर की भांति संजो कर रखिए।
इसी प्रकार यदि मानव व्यर्थ की बातों में उलझा रहेगा; अपने मनो-मस्तिष्क में कचरा भर कर रखेगा, तो उसका शुभ व कल्याण कभी नहीं हो सकेगा, क्योंकि पुरानी, व्यर्थ व ऊल-ज़लूल बातों का स्मरण करने पर वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, जो तनाव का कारण होती है। इसलिए जो गुज़र गया, उसे भूलने का संदेश अनुकरणीय है।
हमने अक्सर बुज़ुर्गों को अतीत की बातों को दोहराते हुए देखा है, जिसे बार-बार सुनने पर कोफ़्त होती है और बच्चे-बड़े अक्सर झल्ला उठते हैं। परंतु बड़ी उम्र के लोग इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि सेवा-निवृत्ति के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं। भले ही वे अपने सेवा काल में कितने ही बड़े पद पर आसीन रहे हों। वे इस तथ्य को स्वीकारने को लेशमात्र भी तत्पर नहीं होते। जीवन की साँध्य वेला में मानव को सदैव प्रभु स्मरण करना चाहिए, क्योंकि अंतकाल केवल प्रभु नाम ही साथ जाता है। सो! मानव को विवाद की प्रवृत्ति को तज, संवाद की राह को अपनाना चाहिए। संवाद समन्वय, सामंजस्य व समरसता का संवाहक है और अनर्गल बातें अर्थात् विवाद पारस्परिक वैमनस्य को बढ़ावा देता है; दिलों में दरारें उत्पन्न करता है, जो समय के साथ दीवारों व विशालकाय दुर्ग का रूप धारण कर लेती हैं। एक अंतराल के पश्चात् मामला इतना बढ़ जाता है कि उस समस्या का समाधान ही नहीं निकल पाता। मानव सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है; हैरान-परेशान रहता है, जिसका अंत घातक की नहीं; जानलेवा भी हो सकता है। आइए! हम वर्तमान में जीना प्रारंभ करें, सुंदर स्वप्न संजोएं व भविष्य के प्रति आश्वस्त हों और उसे उज्ज्वल व सुंदर बनाएं। हम विवाद की राह को तज/ संवाद की राह अपनाएं/ भुला ग़िले-शिक़वे/ दिलों में क़रीबियाँ लाएं/ सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की/ राह पर चल/ धरा को स्वर्ग बनाएं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संकोच…“।)
अभी अभी # 499 ⇒ संकोच श्री प्रदीप शर्मा
संतोषी सदा सुखी तो हमने सुना है, लेकिन कभी किसी संकोची व्यक्ति को हमने सुखी नहीं देखा। संकोच व्यक्ति को अंतर्मुखी बना देता है, वह कम बोलता है, अपनी समस्या किसी को बताता नहीं, कभी किसी से दिल खोल कर बात नहीं करता।
कुछ लोगों का मामला बड़ा अलग होता है। उनका मानना होता है जिसने की शरम उसके फूटे करम। जो लोग, लोग क्या कहेंगे जैसी ग्रंथि से ग्रसित होते हैं, वे जीवन का हर काम फूंक फूंककर करते हैं।
ऐसे लोगों को नमस्ते भी करो तो वे शरमा कर अभिवादन स्वीकार करते हैं। उन्हें अपनी पत्नी तक को आई लव यू कहने में संकोच होता है। ।
संकोची व्यक्ति ना तो दिलदार होते हैं और ना ही दिलफैंक। एक कछुए की तरह वे गंभीरता ओढ़े रहते हैं, उनकी कभी हंसी नहीं छूटती। ऐसे संकोची प्राणियों के व्यक्तित्व का पूरा विकास ही नहीं हो पाता। शायर तो कह गया;
ये कली जब तलक
फूल बनकर खिले
इंतजार इंतजार
इंतजार करो ;
लेकिन यह संकोच रूपी कली, बड़ी मुश्किल से खिली है, कितना भी इंतजार करो, यह कली ना तो मुस्कुराएगी और ना ही कभी फूल बनकर खिलेगी, खिलखिलाएगी, बस कुछ ही देर में वापस अपने खोल में समा जाएगी।
ऐसे लोग भीड़, शोर और तड़क भड़क से भी बहुत घबराते हैं, ना तो कभी इनकी पत्नियां इन्हें अपनी उंगलियों पर नचा पाती और ना ही इन्हें पारिवारिक उत्सव के अवसर पर कहीं नाचने गाने का मन करता है। भोजन भी ऐसे करेंगे, मानो किसी पर अहसान कर रहे हैं। आप कुछ लेंगे, जी नहीं, बस हो गया। धन्यवाद। ।
ऐसे ही लोगों के लिए शायद इस तरह के गीतों की रचना की जाती है। फिल्म कन्हैया(1959) गायक मुकेश ;
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बिन माँगे मोती मिले…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
स्वदेश, परदेश, उपदेश का बहुत गहरा नाता है लोग चाहें या न चाहें ज्ञान बाँट देते हैं। जैसे ही पता चलता है कोई अनचाही समस्या से ग्रस्त है तो पर उपदेश कुशल बहुतेरे की कहावत को चरितार्थ करने हेतु दिग्गजों की लाइन लग जाती है। एक गया नहीं कि दूसरा हाजिर अब बेचारी घर की महिलाएँ तो चाय पानी में व्यस्त हो जातीं हैं।
दुःखी व्यक्ति सबकी सलाह सुनकर मन ही मन प्रण लेता है कि अब कुछ हो जाए किसी के सामने उदास नहीं होना वरना इतने सुझाव मिलते हैं कि कौन सा अपनाएँ यही समझ में नहीं आता। हर पल सकारात्मक रहिए, ऐसा व्यवहार कि आपसे मिलकर जो भी जाए वो मुस्कुराते हुए दिखना चाहिए। मधुर व्यवहार की कला जिसको आती है उसे सबको अपना बनाने में देर नहीं लगती है। चीजों को अपने अनुरूप करने के लिए खुले मन से
सबके विचारों का स्वागत करें, पहले जाँचे परखे फिर समाधान की ओर कदम बढ़ाइए। सुनिए सबकी करिए अपने मन की। बस बढ़े हुए कदम रुकने नहीं चाहिए।
पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र.
विशेष –
39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया।
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)
☆ आलेख ☆ ऐतिहासिक धरोहर – मां विंध्यवासिनी देवी धाम… ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆
ऐतिहासिक धरोहर – मां विंध्यवासिनी देवी धाम
जहां मनोकामनाएं होती हैं पूरी
ग्राम ‘पिपरहटा’ जिला ‘कटनी’ मध्यप्रदेश का ‘मां विंध्यवासिनी देवी धाम’ कटनी से 14 एवं जबलपुर से मात्र 112 कि.मी. दूर स्थित है। यहाँ पहुंचने का मार्ग पक्का, सीधा और सुगम है। मां ‘विंध्यवासिनी देवी धाम’ इन दिनों बड़ी चर्चा में है। बड़े भूखंड में निर्मित इस मंदिर में ध्यान-पूजन, अर्चन करने हेतु पर्याप्त स्थान है। धर्म, विज्ञान आस्था, आध्यात्म, सौहार्द की नींव पर खड़ा यह मां विंध्यवासिनी देवी धाम लोगों की अपार श्रद्धा और आकर्षण का केंद्र है। ग्राम वासियों के अनुसार मां विंध्यवासिनी की कृपा से भक्तों को जीवन में अनेक चमत्कारिक शुभ संकेत भी दिखाई देते हैं। प्रतिदिन भोर से पहले ही शंख, घण्टों-घण्टियों, मंत्रोच्चर से यहां का संपूर्ण परिसर उल्लास के साथ-साथ सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाता है। गोधूलि बेला में दीप प्रज्वलन, आरती भजन लोगों को आनंदित करते हैं। विंध्यवासिनी धाम में ग्रामीण महिलाओं द्वारा निरंतर श्रद्धापूर्ण भजन कीर्तन का आयोजन होता रहता है। मंदिर के कारण श्रद्धा और आध्यात्म के साथ साथ क्षेत्र में सद्भाव एवं सद्गुणों का संचार भी हो रहा है। यहां संपूर्ण नवरात्र के साथ-साथ दुर्गानवमीं, रामनवमीं पर विशेष पूजन-अर्चन, यज्ञ-हवन का आयोजन होता है। लोग अपनी आस्था-विश्वास और उम्मीद को लेकर मां के दरबार में आते हैं और आशीर्वाद से झोली भर कर जाते हैं। भक्ति संगीत की स्वर-लहरियां क्लांत मन को शान्ति प्रदान करती हैं।
मां विंध्यवासिनी के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। श्रीमद्भागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि असुरों का नाश करने हेतु पराशक्ति देवी योगमाया ने मां यशोदा के गर्भ से गोकुल में नंद बाबा के घर कन्या रूप में जन्म लिया था। इसी समय मथुरा के कारागार में मथुरा नरेश कंस की बहन देवकी ने भी आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण को जन्म दिया, जिसे पिता वासुदेव ने घनघोर बरसात वाली काली रात में मां यशोदा के पास सुरक्षित पहुंचा दिया तथा उनकी पुत्री योगमाया को अपने साथ ले आए। प्रातः जब कंस को देवकी की आठवीं संतान की सूचना प्राप्त हुई तो उसे कन्या जन्म पर आश्चर्य हुआ क्योंकि देवकी के आठवें पुत्र से कंस के वध की देववाणी हुई थी। जब कंस ने इस कन्या को पत्थर पर पटक कर मारना चाहा तो वह उसके हाथ से छूटकर दिव्य रूप में भविष्यवाणी करते हुए आकाश में समाहित हो गई कि उसका वध करने वाला पृथ्वी पर आ चुका है। कथा के अनुसार जब देवताओं ने योगमाया से पुनः देवलोक चलने का आग्रह किया तो उन्होंने असुरों का नाश करने पृथ्वी पर विंध्याचल पर्वत में रहने की इच्छा प्रकट की और यहीं वास करने लगीं चूँकि उन्होंने विंध्य पर्वत को अपना निवास बनाया था अतः उन्हें विंध्यवासिनी के नाम से जाना जाने लगा।
शिव पुराण के अनुसार माँ विंध्यवासिनी को सती का रूप माना गया है। कहा जाता है कि जिन-जिन स्थानों पर सती के शरीर के अंश गिरे वहां-वहां शक्ति पीठ स्थापित हुए, किंतु विंध्याचल के इस पर्वत में सती अपने पूर्ण रूप में विद्यमान है। इसीलिए इस स्थान की विशेष महत्ता है। मां विंध्यवासिनी को वनदुर्गा के नाम से भी जाना जाता है संभवतः विंध्य पर्वत के घने जंगल में रहने कारण उन्हें वनदुर्गा कहा जाने लगा। स्थानीय लोगों के अनुसार इनका बिंदुवासिनी नाम भी प्रचलित है। विद्वानों के अनुसार बिंदु का तात्पर्य उस बिंदु से है जिससे ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है। सृष्टि के आरंभ से ही विंध्यवासिनी देवी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके शुभाशीष का परिणाम है अतः उन्हें सृष्टि की कुलदेवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। माना जाता है कि सृष्टि के इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। ब्रह्मा, विष्णु, महेश स्वयं मां विंध्यवासिनी को मातृ तुल्य मानते हैं। एक कथा के अनुसार यह वही स्थान है जहां मां भगवती की कृपा से विष्णुजी को सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ था।
मां विंध्यवासिनी का प्रमुख मंदिर उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे मिर्जापुर से 8 किलोमीटर दूर विंध्याचल में स्थित है। ईश्वर की असीम अनुकम्पा है कि अब मां विंध्यवासिनी के भव्य एवं दिव्य दर्शन हमें मध्यप्रदेश के कटनी के निकट ग्राम पिपरहटा स्थित मंदिर में सहजता से हो रहे हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपने अपने दायरे…“।)
अभी अभी # 498 ⇒ अपने अपने दायरे श्री प्रदीप शर्मा
“A man is born free, but everywhere in chains”…
मनुष्य पैदा तो स्वतंत्र होता है, लेकिन हर जगह संबंधों के बंधनों से जकड़ा रहता है।
– दार्शनिक रूसो
वैसे तो संबंध शब्द से ही बंध का बोध भी होता है। हर व्यक्ति अपने आप में एक इकाई है और उसके अपने अपने दायरे हैं।
यही दायरा उसका अपना संसार है। बच्चा पैदा होता है और कुछ ही समय में बच्चों की दुनिया में चला जाता है। यह उसकी अपनी दुनिया है, आप बड़े हैं, आपकी दुनिया अलग है। आप अब बच्चे नहीं बन सकते।
बस इसी तरह बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हम अपने-अपने दायरे यानी अपने-अपने संसार में जीते रहते हैं। आप अपने दायरे का कितना भी विस्तार करें उसकी अपनी कुछ सीमाएं हैं। कहने को पूरी दुनिया आपकी है, आपका ही देश प्रदेश है, लेकिन दुनिया के इसी देश प्रदेश में आपका गांव शहर है जिसमें आपका भी एक अपना घर है। आपका अपना परिवार है, आपके सगे संबंधी, नाते रिश्तेदार और यार दोस्त भी हैं। दुनिया चल रही है और आप भी इसी दुनिया में अपना अलग संसार चला रहे हैं। बस यही आपका दायरा है।।
एक दूसरे से जुड़ना अपने दायरे को विस्तृत करना है। कुछ रिश्ते आपको जकड़ लेते हैं और कुछ रिश्तो को आप नहीं छोड़ पाते। कहने को प्रेम का रिश्ता सबसे बड़ा होता है, शायद इसीलिए कहा गया है सबसे ऊंची प्रेम सगाई। क्या प्रेम में सिर्फ सगाई ही होती है, शादी नहीं होती। और अगर किसी ने प्यार में धोखा खाया तो कितनी जल्दी वह कह उठता है ;
ये दुनिया, ये महफिल
मेरे काम की नहीं,
मेरे काम की नहीं…..
इधर प्रेम सगाई टूटी, और उधर पूरी दुनिया ही तितर बितर हो गई ;
साथी न कोई मंज़िल
दिया है न कोई महफ़िल चला मुझे लेके ऐ दिल, अकेला कहाँ…
हम सब जीवन में एक बार उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच जाते हैं जब हमारे दायरे सिमटने लगते हैं हमारी दुनिया छोटी होने लगती है हम एकाएक, अकेले पड़ने लगते हैं। इस अकेलेपन का एहसास आपको अपनी दुनिया के दायरे में रहते हुए भी हो सकता है।
ऐसा क्यों होता है कि अक्सर एक उम्र के बाद हर इंसान अपने दायरे में ही सिमटकर रह जाता है।
सिर्फ अपने बच्चे और अपना परिवार। एकाएक बच्चे विदेश क्या चले गए, मानो दुनिया ही चली गई। हम दो हमारे दो से अब केवल हम दो ही रह गए और उधर हमारे दो, दो से चार हो गए, और हम कहते रह गए ;
दुनिया बदल गई
मेरी दुनिया बदल गई।
टुकड़े हुए जिगर के
छुरी दिल पे चल गई। ।
अगर आपके दायरे में संगीत है, कला है, किताबें हैं, साहित्य है, सतगुरु का सत्संग है, स्वाध्याय है, तो आपकी दुनिया कभी अकेली नहीं हो सकती। आपने अपना दायरा अब इतना विस्तृत कर लिया है, जहां सुख चैन है, संतोष है और सिर्फ प्रेम नहीं दिव्य प्रेम है। इस अवस्था में कोई गिला, शिकवा, शिकायत नहीं, तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय। ।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – पुस्तक
तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबंधनात।
मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम्।।
पुस्तक की गुहार है, ‘तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरे बंधन (बाइंडिंग) शिथिल मत होने दो। मुझे मूर्ख के हाथ मत पड़ने दो।’
संदेश स्पष्ट है, पुस्तक संरक्षण के योग्य है। पुस्तक को बाँचना, गुनना, चिंतन करना, चैतन्य उत्पन्न करता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज पुस्तकों को लेकर सदा जागरूक रहे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इसका अनुपम उदाहरण रहा। पुस्तकों को जाग्रत देवता में बदलने के लिए पूर्वजों ने ग्रंथों के पारायण की परंपरा आरंभ की। कालांतर में पराधीनता के चलते समुदाय में हीनभावना घर करती गई। यही कारण है कि पठनीयता के संकट पर चर्चा करते हुए आधुनिक समाज धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले पाठक को गौण कर देता है। कहा जाता है, जब पग-पग पर होटलें हों किंतु ढूँढ़े से भी पुस्तकालय न मिले तो पेट फैलने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। वस्तुस्थिति यह है कि भारत के घर-घर में धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले जनसामान्य ने इस कहावत को धरातल पर उतरने नहीं दिया।
पुस्तकों के महत्व पर भाष्य करते हुए अमेरिकी इतिहासकार बारबरा तुचमैन ने लिखा,’पुस्तकों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है, विज्ञान अपंग है, विचार स्थिर है।’ बारबारा ने पुस्तक को समय के समुद्र में खड़ा दीपस्तम्भ भी कहा। समय साक्षी है कि पुस्तकरूपी दीपस्तंभ ने जाने कितने सामान्य जनो को महापुरुषों में बदल दिया। सफ़दर हाशमी के शब्दों में,
किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
किताबें तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
पुस्तकों के संग्रह में रुचि जगाएँ, पुस्तकों के अध्ययन का स्वभाव बनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शास्त्रीय भाषा…“।)
अभी अभी # 497 ⇒ शास्त्रीय भाषा श्री प्रदीप शर्मा
Classical language
मुझे जितना शास्त्रीय संगीत का शौक है उतना ही क्लासिकल लिटरेचर का भी। हमारी पुरानी फिल्में भी क्लासिक होती थी और उनके गीत भी।
मुझे संस्कृत नहीं आती फिर भी हमारे अधिकांश ग्रंथ संस्कृत भाषा में ही है। संस्कृत शास्त्र की भाषा है, फिर भले ही वह भगवद्गीता हो अथवा भागवत पुराण। महाकवि कालिदास तक ने अपनी सभी रचनाएं संस्कृत में ही लिखी हैं। संस्कृत तो वैसे ही देवों की भाषा है, अन्य कई भाषाओं की जननी है।
हाल ही में भारत सरकार ने फैसला किया है कि असमिया, बंगाली, मराठी, पाली और प्राकृत को शास्त्रीय भाषाओं का दर्जा दिया जाएगा। वैसे क्लासिक का अर्थ ही उत्कृष्ट होता है। क्लास, क्लासिक और क्लासिकल को आप हिंदी में शास्त्र, शास्त्रोक्त और शास्त्रीय भी कह सकते हैं। वैसे अंग्रेजी के शब्द क्लास का अर्थ श्रेणी अथवा कक्षा भी होता है।
ट्रेन के स्लीपर बर्थ की भी तीन क्लास होती है, अपर, मिडिल और लोअर। हम आप भी तो किसी क्लास अर्थात् श्रेणी में आते हैं, उच्च, मध्यम अथवा निम्न। ।
इसी तरह क्लासिकल को हम शास्त्रीय, प्राचीन, चिर प्रतिष्ठित, उत्कृष्ट, उच्च कोटि का, मनमोहक, श्रेष्ठ, और पारंपरिक भी कह सकते हैं। सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान राष्ट्र का सम्मान ही तो है। हाल ही में घोषित पांच शास्त्रीय भाषाएं देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाएं हैं। कितने बंगाली और मराठी उपन्यासों का अनुवाद हमने हिंदी में पढ़ा है। एक समय में तो हमारी पूरी फिल्म इंडस्ट्री बंगाली और मराठी कलाकारों से ही सुशोभित हो रही थी।
फिल्म संगीत के क्षेत्र में लता, आशा, सुमन ही नहीं, सहगल, मन्ना डे, किशोर कुमार, भप्पी लाहिड़ी और आज की श्रेया घोषाल भी शामिल हैं। कौन भूल सकता है सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋषिकेश मुखर्जी के योगदान को। असम के एक अकेले संगीतकार भूपेन हजारिका जैसे भारत रत्न, पूरे देश का गौरव हैं।
शास्त्रीय संगीत की तो पूछिए ही मत। भातखंडे, पलुस्कर से लगाकर पंडित भीमसेन जोशी और कुमार गंधर्व पर ही जाकर यह सूची रुकने वाली नहीं। जरा गंगूबाई हंगल और किशोरी अमोणकर को सुनकर तो देखिए। ।
देवों की इस भूमि पर जितनी भी प्रांतीय भाषाए हैं, उनकी अपनी संस्कृति है, अपनी विरासत है। सभी भाषाएं शास्त्रीय ही हैं, सिर्फ आवश्यकता है उनके प्रचार प्रसार की और उन्हें से देश की मुख्य धारा से जोड़ने की।
पांच राज्यों की जिन भाषाओं को हाल ही में शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है, यह तो एक तरह की शुरुआत ही है, सभी भारतीय भाषाओं को आपस में जोड़ने की।
हम केवल अपनी मातृभाषा का ही सम्मान नहीं करें, देश की हर भाषा हमें आपस में जोड़ती है, हर भारतीय भाषा शास्त्रीय भाषा है।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्त्री और इस्त्री…“।)
अभी अभी # 496 ⇒ स्त्री और इस्त्री… श्री प्रदीप शर्मा
जो लोग स्कूल को इस्कूल और स्मृति को इस्मृति कहते हैं, उनके लिए स्त्री और इस्त्री में कोई अंतर नहीं। वैसे देखा जाए तो स्त्री हाड़ मांस की होती है और उसमें जान होती है, जबकि एक इस्त्री लोहे की होती है और बेजान होती है। लोहे की इस्त्री की दो प्रकार की होती है, एक कोयले से जलने वाली और दूसरी बिजली से चलने वाली। जब कि एक स्त्री के तो चलने के लिए हाथ पांव तो होते ही हैं, लेकिन उसकी जबान भी बहुत चलती है।
जोत से जोत की तरह, एक इस्त्री, दूसरी इस्त्री से नहीं जलती, इस्त्री को तो जलाना पड़ता है, जब कि एक स्त्री दूसरी स्त्री को देखते ही जलने लगती है। इस्त्री से कपड़ों पर प्रेस की जाती है, जबकि स्त्री अपने आपको इंप्रेस करने के लिए आकर्षक कपड़े पहनती है।।
मेरे घर में स्त्री भी है और इस्त्री भी, लेकिन हम घर पर प्रेस नहीं करते। बरसों से एक धोबी आता था, जो रोज के पहनने के कपड़े कपड़ों और घर मोटी मोटी चादरों को ले जाता था। पहले कपड़े भट्टी में धोए जाते थे, फिर सुखाकर उन पर इस्तरी की जाती थी।
अधिक महंगी साड़ियां और पुरुषों के सूट लॉन्ड्री में दिए जाते थे, जहां उनकी पेट्रोल से धुलाई होती थी।
जब तक घर बड़ा था, घर में छोटे बड़े भाई बहन थे, कपड़े घर पर ही मोगरी से कूटे जाते थे, धोकर सुखाए जाते थे, और कपड़ों पर प्रेस भी घर पर ही होती थी। केवल आवश्यक कपड़े ही धोबी के यहां जाते थे।।
आज घर घर में वाशिंग मशीन है और वह भी सेमी ऑटोमेटिक और ऑटोमेटिक। सूती कपड़ों का स्थान अब टेरीकॉट ने ले लिया है। छोटे परिवार सुखी परिवार के सभी सदस्य कामकाज में व्यस्त रहते हैं, कुछ घरों में नियमित धोबी आता है, और कपड़े इस्त्री करवाने ले जाता है। चार चार आने से बढ़कर अब एक कपड़े की इस्त्री भी कम से कम पांच छ: रुपए की पड़ने लगी है। फिर भी आम आदमी आज भी इस्त्री वाले कपड़े पहनना ही पसंद करता है।
बाजार में रेडीमेड कपड़ों की बहार है, धोबी और दर्जी सब भूखे मर रहे हैं। जब से पहनने के कपड़ों में जींस का प्रवेश हुआ है क्या युवा और क्या युवती, घर-घर जींस का फैशन हो गया है। हमारे यहां जींस को सिर्फ धोया जाता है उस पर इस्त्री नहीं की जाती। विदेशों में इसे यूज एण्ड थ्रो वाला पहनावा माना जाता है।।
जब से फटी जींस का फैशन शुरू हुआ है, सिलाई, धुलाई और इस्त्री सबको अलविदा कह दिया गया है। कुछ संस्कारी घरों में आज भी स्त्री और इस्त्री दोनों की उतनी ही जरूरत है और उन्हें उतना ही सम्मान भी मिलता है।
मेरे घर में आज भी इस्त्री से अधिक उपयोगी मेरी स्त्री ही है। घर में जींस वाली कोई पीढ़ी नहीं। वह मेरे धुले कपड़े करीने से तह करके बिस्तरों के नीचे दबा देती है। इस तरह उन पर बिना इस्त्री किए ही प्रेस हो जाती है।।
एक हैप्पिली रिटायर्ड इंसान को और क्या चाहिए। वानप्रस्थ की उम्र भी गुजर रही है, अब तो तन से नहीं, केवल मन से सन्यास लेने का समय शुरू हो रहा है। सादा जीवन, संतुष्ट जीवन, बस विचार हमारे अभी इतनी ऊंचाईयों पर नहीं पहुंचे। साधारण लोग, साधारण पसंद।।