☆ ॥ मन का तन पर प्रभाव॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ – यह पुरानी कहावत है। आशय है कि यदि मन प्रसन्न है तो गंगा का सुख घर में ही है। स्नान और शांति की खोज में गंगा जी तक किसी तीर्थस्थल तक जाने की आवश्यकता नहीं होती। जीवन में सभी का व्यक्तिगत अनुभव है कि मन जब खुश रहता है तो सारा वातावरण सुहाना दिखता है और मन की खिन्नता में कुछ भी अच्छा नहीं लगता। खाना, पीना, गाना, बोलना, बताना सभी के प्रति विरक्ति हो जाती है और एक उदासी घेर लेती है। मानव शरीर तो आत्मा का आवरण या वाहन मात्र है। प्रमुख तो वह चेतन आत्मा है जो व्यक्ति को संचालित करती है। सोचती-विचारती है, संकल्प करती है और फिर शरीर को काम के लिये प्रेरित करती है तथा इच्छानुसार कार्य संपादित कराती व फल प्राप्ति कराती है। मन की खुशी से ही तन की खुशी है, तन मन का अनुगमनकर्ता है। मानसिक भावनाओं का शारीरिक क्रियाकलापों पर गहरा असर होता है। यदि किसी ने वार्तालाप के प्रसंग में अपशब्द कहे तो मन उससे दुखी हो जाता है। परिणाम स्वरूप शरीर शिथिल होता है, किसी कार्य को करने से रुचि हट जाती है। व्यक्ति कहता है कि कुछ करने का मूड नहीं है। जीवन में हर क्षेत्र में हमेशा मन का तन से यही गहरा संबंध है, इसलिये एक की अस्वस्थता दूसरे को प्रभावित करती है। यदि शरीर को आकस्मिक चोट लग जाती है या बुखार हो जाता है तो मन की आकुलता बढ़ जाती है। किसी मानसिक कार्य को संपादित करने में मन नहीं लगता। व्यक्ति के दैनिक व्यवहार भी प्रभावित होते हैं।
मन का तन पर और तन का मन पर भारी प्रभाव पड़ता है। बड़े-बड़े कार्य यह तन, मन की खुशी के लिये प्रसन्नतापूर्वक उत्साह और उमंग से संपन्न कर डालता है और विपरीत परिस्थिति में कुछ भी करने में रुचि नहीं रखता। इसलिये कहा है ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ यदि मन किसी संकल्प को पूरा करने को तैयार हैं तो आत्मविश्वास बढ़ा रहता है और कठिनाइयों पर सरलता से विजय पा ली जाती है, परन्तु यदि मन का संकल्प कमजोर है, विचारों में ढीलापन है तो हर युद्ध में जीत मुश्किल है। हार का कारण मन के संकल्प की कमजोरी ही होती है। यदि मन सबल और स्वस्थ है तो कार्य संपादन में साधनों की कमी खटकती नहीं और यदि मन अस्वस्थ है तो सारे साधनों के रहते भी सफलता हाथ से फिसल जाती है। मनोभावों की छाया तन पर स्पष्ट दिखाई देती है। रंगमंच पर अभिनेता के मन में जो भाव प्रधान रूप से उत्पन्न होते हैं उसके चेहरे और हाव भावों में अभिनय के रूप में स्पष्ट झलकते हैं और दर्शक उनकी प्रशंसा करते हैं। अत: मन का तन पर भारी प्रभाव पड़ता है। अब तो भेषज विज्ञान भी यह मानने लगा है कि शरीर की रुग्णता को दूर करने में मन की आशावादिता और प्रसन्नता का बड़ा हाथ होता है। मन से स्वस्थ मरीज को डॉक्टरों द्वारा दी गई दवायें उसे जल्दी स्वस्थ कर देती हैं जबकि अन्यों को अधिक समय लगता है पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्ति में। मन और तन का पारस्परिक गहरा नाता है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 149 ☆ अतिलोभात्विनश्यति – 1 ☆
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
दैवासुरसम्पद्विभागयोग का वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के 16वें अध्याय के 21वें श्लोक में यह योगेश्वर का उवाच है। भावार्थ है कि काम, क्रोध तथा लोभ आत्मनाश कर नर्क में ढकेलने वाले तीन द्वार हैं। अतः इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए।
इनमें से लोभ के विषय में आज विचार करेंगे। विचार करो कि पेट तो भर गया है पर स्वादवश जिह्वा ‘थोड़ा और’, ‘थोड़ा और’ की रट लगाए बैठी है। पेट में जगह ना होने पर भी भोजन ठूँसने का जो परिणाम होता है, उससे लोभ को सरलता से समझा जा सकता है।
लोलुपता, लालच या अधिकाधिक लाभ लेने की वृत्ति धन, प्रसिद्धि, रूप आदि हर क्षेत्र में लागू है। आदमी की आवश्यकताएँ तो मुट्ठी भर हैं पर पर उसकी लोलुपता असीम है।
आवश्यकता और लोलुपता का एक पहलू यह है कि तुम अपने में फ्लैट में आराम से रह रहे हो। 800 स्क्वायर फीट का यह फ्लैट तुम्हारी आवश्यकता के अनुरूप है। इससे अधिक स्पेस नहीं चाहिए तुम्हें पर लोलुपता का आलम यह कि तुम किसी और के लिए कोई स्पेस छोड़ना ही नहीं चाहते। मन के एक कोने में तो बिल्डिंग के सारे फ्लैट अपने नाम कर लेने का लोभ दबा पड़ा है। ध्यान देना कि यह ‘तुम’ केवल तुम नहीं हो, इसमें ‘मैं’, ‘हम’ सभी समाहित हैं।
लोभ ऐसा राक्षस है जिसका पेट कभी नहीं भरता। स्मृति में एक दृष्टांत कौंध रहा है। किसी नगर में एक अत्यंत लोभी व्यक्ति रहा करता था। उसके पास आवश्यकता से अधिक संचय हो चुका था पर तृष्णा थी कि मिटती ही न थी। नित और अधिक धन कमाने की वासना मन में जन्मती और प्रति क्षण अधिक संचय के नये-नये तरीके खोजा करता। इसी उधेड़-बुन में एक दिन वह घोड़े पर सवार होकर जंगल से गुज़र रहा था। विश्राम के लिए एक घने पेड़ के नीचे रुका। घोड़ा घास चरने में लग गया और लोभी विश्राम के बजाय धन बढ़ाने की सोच में। तभी किसीके स्वर ने उसे बुरी तरह से चौंका दिया। स्वर पूछ रहा था- ‘क्या सोच रहे हो?’ घबराए लोभी ने यहाँ- वहाँ देखा तो कोई नहीं था। फिर समझ में आया कि वह वृक्ष ही उस से संवाद कर रहा था। वृक्ष बोला, ‘यदि रातों-रात बहुत अधिक धन पाना चाहते हो तो सुनो। मेरी याने इस पेड़ की जड़ के पास सात कलश गड़े हुए हैं। इनमें से छह औंधे मुँह गड़े हैं जबकि सातवाँ सीधा गड़ा हुआ है। छह कलशों में ऊपर तक सोना भरा है जबकि सातवाँ अभी आधा ही भरा है। यदि तुम सातवाँ कलश सोने से पूरा भर दो तो सारे कलश तुम्हारे हो जाएँगे। हाँ, ध्यान रहे कि यदि तुम कलश नहीं भर सके तो तुम अपने डाले सोने से हाथ धो बैठोगे क्योंकि इस कलश के पेट में जाने के बाद सोना वापस नहीं आता।’
लोभी खुशी से उछल पड़ा। घोड़ा दौड़ाता घर पहुँचा। पत्नी को सारा किस्सा सुनाया। फिर घर में रखा सारा सोना एक बड़ी पोटली में बांधकर जंगल ले आया। उसके पास बहुत सोना था। लोभी को विश्वास था कि इतने सोने से एक नहीं बल्कि दो कलश भी भर सकते हैं। थोड़ी-सी खुदाई के बाद ही उसे एक चमकदार कलश दिखाई देने लगा। घर से लाया सोना थोड़ा-थोड़ा कर उसमें उँड़ेलने लगा। हर बार सोना डालने के बाद झाँक कर देखने की कोशिश करता कि शायद इस बार भर गया हो। अंतत: कलश ने सारा सोना गड़प लिया पर भरा नहीं। लोभी रोने लगा। पेड़ से पूछा, ‘ इतना अधिक सोना था फिर भी यह कलश भरा क्यों नहीं?’ पेड़ ज़ोर- ज़ोर से हँस पड़ा और कहा,’नादान, यह लोभ का कलश है, जो कभी नहीं भरता।’
सच है, लोभ का कलश कभी नहीं भरता। सुभाषित में उतरा सनातन दर्शन कहता है,
लोभ मूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभातप्रवर्तते वैरम् अतिलोभात्विनश्यति।
लोभ विनाश का कारण बनता है। संभव हुआ तो आगे के आलेखों में ‘अतिलोभात्विनश्यति’ की विवेचना जारी रखेंगे।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
नाद शब्द का शाब्दिक अर्थ है, अव्यक्तशब्द, ध्वनि, आवाज, यह व्याकरणीय संरचना एवम् शब्द भेद के अनुसार पुल्लिंग है। इसके दो भेद हैं आहद और अनहद नाद यह ऐसी अव्यक्त ध्वनि है जो निरंतर अविराम अनंत अंतरिक्ष में गूंज रही है, जो अव्यक्त है जिसे गहन एकाग्रता और ध्यान में स्थित होने के बाद ही श्रवण किया जा सकता है। यह गीतों का भाव है। यह संगीतो का प्रभाव है। यह ब्रह्म स्वरूप है। इसमें स्तंभन शक्ति समाहित है। सम्मोहन इसका प्रभाव है।
हमारे भाषा साहित्य तथा संगीत की आत्मा नाद ही है। यही नहीं संस्कृत वांग्मय के उद्भट विद्वान महर्षि पाणिनि के चौदह सूत्रों के मूलाधार शिव के डमरू के नाद से ही तो प्रगट हुए हैं। तो वहीं पर मां सरस्वती की वीणा के तारों की झंकार तथा कृष्ण की मुरली अथवा बांसुरी के तानों के सम्मोहन से क्या पशु, क्या पंछी, क्या सारी सृष्टि का जीव जगत कोई भी बच पाया है क्या? क्या गीत और संगीत के सुमधुर सधे स्वर तथा वाद्ययंत्रों के ताल मेल आधारित कर्णपटल से टकराने वाली स्वर लहरी के संम्मोहन से कोई बच पाया है? आखिर ऋषियों मुनियों की शोध, तथा पशु पक्षियों की बोली का मूलाधार शब्द नाद ही तो है। हम तो कोयल तथा पपीहे की कूक में भी संगीत का लय ताल खोज लेते हैं। यह अव्यक्त ब्रह्म स्वरुप भी है वेदों की ऋचाओं में समाहित लयबद्ध सस्वर पाठ की आत्मा भी शब्द नाद ही तो है।
जब वो यज्ञ मंडपों में गूंजती है और उसकी प्रतिध्वनि कर्णपटल से टकराती है तो इसका अर्थ न समझने वाले के भी तन और मन को पवित्र कर देती है। आखिर सामवेद का गान भी तो नाद की ही कोख से पैदा हुआ है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाद का संबंध सृष्टि के समस्त जीव जगत से जुड़ा हुआ है। यह हमारी संस्कृति और सभ्यता की आत्मा है यह परमात्मा की देन है आखिर ॐ शब्द की ध्वनि में ऐसा क्या है जो मन को अपने आकर्षण से बांध कर स्तंभित कर देता है।
☆ ॥ मोक्ष या मुक्ति॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार मानव जीवन के चार पुरुषार्थ निर्धारित किये गये हैं। ये हैं अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। पुरुषार्थ से आशय है उन लक्ष्यों का जो व्यक्ति को अपने जीवन में परिश्रम करके प्राप्त करने चाहिये। अर्थ का अभिप्राय धन कमाना, धर्म का आशय धार्मिक मान्यताओं का परिपालन, काम का मतलब जीवन में धर्मानुसार इच्छाओं की पूर्ति करना, सांसारिक आवश्यकताओं और सुखद महत्वाकांक्षाओं की प्राप्ति कर परिवार में रह सुखोपभोग करना तथा अन्तिम मोक्ष का आशय है शरीर में स्थित जीवात्मा को जीवन यात्रा की समाप्ति पर जीवनदाता परमात्मा में एकाकार कर देना।
मोक्ष या मुक्ति क्या है और यह कैसे प्राप्त होता है, हर भारतीय के मन में यह प्रश्न सदा बना रहता है। अधिकांश विचारकों की मान्यता है कि धर्मपरायण पुण्य कार्य करने वाले परोपकारी व्यक्तियों की आत्माओं को मृत्यु के उपरांत मोक्ष मिलता है। इसीलिये लोग पूजा पाठ, दानपुण्य, तीर्थाटन और विभिन्न खर्चीले धार्मिक अनुष्ठान करते रहते हैं। परन्तु ऐसा सब करने से वास्तव में मोक्ष मिलता है या नहीं निश्चित रूप से कोई नहीं जानता। हां, ऋषियों की दृष्टि से देखा जाय तो मनीषा कहती है कि- मोह का क्षय ही मोक्ष है। जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा करना तथा तृष्णा वासना और अहंकार के बंधनों को काटकर सरल निर्बंध निर्बाध जीवन जीना ही मुक्ति पाना या मोक्ष है। जो इसी जीवनकाल में पुरुषार्थ से साध्य है।
इस मोक्ष देने वाले ज्ञान का स्वरूप भारतीय दर्शन की विभिन्न विधाओं में भिन्न हो सकता है, किन्तु लक्ष्य सभी का एक ही है- जीवन को सांसारिक माया के बंधनों से मुक्त करना। अध्यात्म ज्ञानियों का कथन है कि मानव जीवन मिला ही इसीलिये है कि व्यक्ति ज्ञान और कर्म की साधना से ऐसे कार्य करे जिससे वह मोक्ष बंधन से छूटकर अपने सृष्टिकर्ता परमात्मा को पा सके।
गीता में भगवान कृष्ण ने जीवन जीने की उस उच्चशैली का जो मोक्ष दिलाती है बड़ा सुन्दर और विशद वर्णन कर अर्जुन को समझाया है। उन्होंने कहा है कि संसार में रहते मनुष्य, जो भी कार्य संपन्न करे उसमें वह उसके कर्ता होने का अभिमान न रखे। जो कुछ संसार में व्यक्तियों के द्वारा समय समय पर संपादित होता है उसका कर्ता वह व्यक्ति नहीं कोई और है। व्यक्ति तो कार्य का एक साधन मात्र है। कर्ता कर्म करते हुये स्वत: अपने बंधनों को काटे। लोभ, मोह, अहंकार से खुद को अलग रखे। परमात्मा शक्ति के अनुग्रह से कार्य के सम्पादित होने की अनुभूति कर सफलता का श्रेय परमपिता के चरणें में समर्पित करे। यदि व्यक्ति ऐसा मन बनाकर जीवन जिये तो मोक्ष का तत्वज्ञान समझ कर वह जीवन में सफलतापूर्वक जी सकता है और दुष्प्रवृत्तियों से अलग रह जीवन में ही मुक्ति या मोक्ष पाने का अनुभव कर सकता है।
☆ ॥ विज्ञापन का युग ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
आज का युग विज्ञापन का युग है। हर वस्तु का महत्व उसके विज्ञापन से बढ़ जाता है। बिना विज्ञापन के अत्यन्त उपयोगी, महत्वपूर्ण व गुणकारी वस्तु भी अनजान और उपेक्षा के अंधकार में दबी रह जाती है। जो बात वस्तु के लिये लागू होती है वही व्यक्ति के लिये भी है। सुयोग्य गुणवान व्यक्तियों को समाज में वह उभार नहीं मिल पाता है जो किसी प्रचार या विज्ञापन से एक अयोग्य व्यक्ति में मिल जाता है और उसकी ख्याति दूर तक फैल जाती है। प्रभावी विज्ञापन से महत्वहीन वस्तु या व्यक्ति बाजार में चमकने लगते हैं। विपणन व्यवस्था की प्रखर नीति से वस्तु के वास्तविक मूल्य से बहुत अधिक उसका मूल्यांकन किया जाने लगता है और उसके भाव बढ़ जाते हैं। विज्ञापन लोगों के मन में एक रुझान या आकर्षण पैदा करता है और उसे पाने की लालसा जगाता है। पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापनों की भाषा और टीवी पर प्रदर्शित किये जाने वाले विज्ञापनों के प्रदर्शन से विज्ञापन के तत्व को समझा जा सकता है। शब्द थोड़े किन्तु आकर्षक और ध्वन्यातक होते हैं। दृश्य ऐसे जो बेधक और मनमोहक होते हैं। विपणन हेतु प्रकाशित की जाने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता को प्राय: फिल्म जगत के ऐसे अभिनेता के द्वारा वर्णित कर व्याख्यापित किया जाता है जो जनसाधारण के प्रिय मनबसे होते हैं। आजकल खेल जगत, राजनीति या नृत्य संगीत के क्षेत्र में विख्यात हीरो या हीरोईन का भी इस हेतु उपयोग में विज्ञापनों में रुझान देखा जा रहा है। मनोविज्ञान के तत्वों के आधार पर सुन्दर व आकर्षक विज्ञापन प्रस्तुत करना अब एक कला है जो विपणन की प्रभावी तकनीक के रूप में विकसित हो रही है। नई वस्तु के बाजार में आने के पहले उसके विज्ञापन प्रकाशित किये जाने लगे हैं, ताकि खरीददारों को लुभाकर अनका समुदाय तैयार कर लिया जाय। ऐसे करने से वस्तु के विपणन में सरलता होती है। हर उत्पाद जो बाजार में लाया जाता है, उससे उत्पादक लाभ कमाना चाहता है। यह लाभ वस्तु की बिक्री की मात्रा से संबंधित होता है। जितनी बिक्री बढ़ेगी उतना ही लाभ बढ़ेगा, इसलिये विज्ञापन के विभिन्न साधनों का दिनोंदिन अधिक उपयोग किया जाने लगा है। कहीं भी किसी रास्ते में निकल जाइये, बड़े-बड़े शहरों में प्रमुख भीड़ के स्थानों में बड़े-बड़े होर्डिंग्स देखने को मिलते हैं। ये शहर की सुंदरता और म्यु. कमेटी या कार्पोरेशन की आमदनी के भी स्रोत बन गये हैं। जिन वस्तुओं के विज्ञापन नहीं है उनकी बिक्री भी नहीं हो पाती और जिनके जितने अधिक स्रोतों से विज्ञापन हो रहे हैं उनकी उतनी ही अधिक बिक्री होती है और उनसे लाभ मिलता है। हर उत्पाद के समानान्तर अनेकों उत्पाद बाजार में अनेक विकल्प के रूप में उपलब्ध हैं किन्तु बिक्री उन्हीं की ज्यादा हो रही है जिनके विज्ञापनों ने उपभोक्ताओं का मन मोह लिया है और उत्पाद में गुणवत्ता है। अब तो विश्व-बाजार की संस्कृति का युग है। एक ही कंपनी अपने उत्पाद सारे विश्व में प्रस्तुत कर रही है। अत: विज्ञापन विपणन और भारी लाभ की संभावनायें तेजी से बढ़ी हैं परन्तु उतनी प्रतियोगिता भी बढ़ी है और उद्योगों में संघर्ष भी। बिना विज्ञापन व्यापार अब संभव नहीं।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सहनशक्ति बनाम दण्ड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 143 ☆
☆ सहनशक्ति बनाम दण्ड ☆
‘युगों -युगों से पुरुष स्त्री को उसकी सहनशीलता के लिए ही दण्डित करता आ रहा है, ‘ महादेवी जी का यह कथन कोटिश: सत्य है, जिसका प्रमाण हमें गीता के इस संदेश से भी मिलता है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है’, क्योंकि उसकी सहनशीलता उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। इसलिए एक सीमा तक तो सहनशक्ति की महत्ता स्वीकार्य है, परंतु उसे आदत बना लेना कारग़र नहीं है। इसलिए मानव में विरोध व प्रतिकार करने का सामर्थ्य होना आवश्यक है। वास्तव में वह व्यक्ति मृत के समान है, जो ग़लत बात को ग़लत ठहरा कर विरोध नहीं जताता। इसके प्रमुखत: दो कारण हो सकते हैं– आत्मविश्वास की कमी और असीम सहनशीलता। यह दोनों स्थितियां ही भयावह और मानव के लिए घातक हैं। आत्मविश्वास से विहीन मानव का जीवन पशु-तुल्य है, क्योंकि जो आत्मसम्मान की रक्षा नहीं कर सकता; वह परिवार, समाज व देश के लिए क्या करेगा? वह तो धरती पर बोझ है; न उसकी घर-परिवार में इज़्ज़त होती है, न ही समाज में उसे अहमियत प्राप्त होती है। अत्यधिक सहनशीलता के कारण वह शत्रु अर्थात् प्रतिपक्ष के हौसले बुलंद करता है। परिणामत: समाज में आलसी व कायर लोगों की संख्या में इज़ाफा होने लगता है। प्राय: ऐसे लोग संवेदनहीन होते हैं और उनमें साहस व पुरुषत्व का अभाव होता है।
नारी को सदैव दोयम दर्जे का प्राणी स्वीकारा जाता है, क्योंकि उसमें अपना पक्ष रखने का साहस नहीं होता और वह शांत भाव से समझौता करने में विश्वास रखती है। इसके पीछे कारण कुछ भी रहे हों; पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक या उसका समर्पण भाव– सभी नारी को उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देते हैं, जहां वह निरंतर ज़ुल्मों की शिकार होती रहती है। पुरुष दंभ के सम्मुख वह प्रतिकार व विरोध में अपनी आवाज़ नहीं उठा सकती। इस प्रकार पुरुष उस पर हावी होता जाता है और समझ बैठता है कि वह पराश्रिता है; उसमें साहस व आत्म-विश्वास की कमी है। सो! वह उसके साथ मनचाहा व्यवहार करने को स्वतंत्र है। इस प्रकार यह सिलसिला चल निकलता है। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार अर्थात् विवशता बन जाते हैं और उसके जीने का मक़सद व उपादान बन जाते हैं, जिसे वह नियति स्वीकार अपना जीवन बसर करती रहती है।
यदि हम उक्त तथ्य पर दृष्टिपात करें, तो नियति व स्वीकार्यता-बोध मात्र हमारी कल्पना है, जिसे हम सहजता व स्वेच्छा से अपना लेते हैं। यदि व्यक्ति प्रारंभ से ही ग़लत बात का प्रतिरोध करता है और अपने कर्म को अंजाम देने से पहले सोच-विचार करता है, उसके हर पहलू पर दृष्टिपात करता है– शत्रु के बुलंद हौसलों पर ब्रेक लग जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं, 2007 में प्रकाशित स्वरचित काव्य-संग्रह की अंतिम कविता की पंक्तियां– ‘बहुत ज़ुल्म कर चुके/ अनगिनत बंधनों में बाँध चुके/ मुझ में साहस ‘औ’ आत्म- विश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ जी हाँ! यह संदेश है नारी जाति के लिए कि वह सशक्त, सक्षम व समर्थ है। वह आगामी आपदाओं का सामना कर सकती है। परंतु वह पिता, पुत्र व पति के बंधनों में जकड़ी, ज़ुल्मों को मौन रहकर सहन करती रही, क्योंकि उसने अंतर्मन में संचित शक्तियों को पहचाना नहीं था। परंतु अब वह स्वयं को पहचान चुकी है और आकाश की बुलंदियों को छूने में समर्थ है। आज की नारी ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो/ आसमान को’ में झलकता है उसका अदम्य साहस व अटूट विश्वास, जिसके सहारे वह हर कठिन कार्य को कर गुज़रती है और ऐलान करती है कि ‘असंभव शब्द का उसके शब्दकोश में स्थान है ही नहीं; यह शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में पाया जाता है।’
परंतु 21वीं सदी में भी महिलाओं की दशा अत्यंत शोचनीय व दयनीय है। वे आज भी पिता, पति व पुत्र द्वारा प्रताड़ित होती है, क्योंकि तीनों का प्रारंभ ‘प’ से होता है। सो! वे उनके अंकुश से आजीवन मुक्त नहीं हो पाती। घरेलू हिंसा, अपनों द्वारा उसकी अस्मिता पर प्रहार, फ़िरौती, दुष्कर्म, तेज़ाब कांड व हत्या के सुरसा की भांति बढ़ते हादसे उनकी सहनशक्ति के ही दुष्परिणाम हैं। यदि बुराई को प्रारंभ में ही दबाकर समूल नष्ट कर दिया जाता तो परिदृश्य कुछ और ही होता। महिलाएं पहले भी दलित थीं, आज भी हैं और कल भी रहेंगी। उनके अतीत, वर्तमान व भविष्य में कोई परिवर्तन संभव नहीं हो सकता; जब तक वे साहस जुटाकर ज़ुल्म करने वालों का सामना नहीं करेंगी।
वैसे यह नियम बच्चों, युवाओं व वृद्धों सब पर लागू होता है। उन्हें आगामी आपदाओं, विषम व असामान्य परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए, क्योंकि हौसलों के सम्मुख कोई भी टिक नहीं सकता। ‘लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ सोहनलाल द्विवेदी जी इस कविता के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि यदि आप तूफ़ान से डर कर व लहरों के उफ़ान को देख कर अपनी नौका को बीच मंझधार नहीं ले जाओगे तो नौका कैसे पार उतर पाएगी? संघर्ष रूपी अग्नि में तप कर ही सोना कुंदन बनता है। इसलिए कठिन परिस्थितियों के सम्मुख कभी भी घुटने नहीं टेकने चाहिएं तथा मैदान-ए-जंग में मन में इस भाव को प्रबल रखने की दरक़ार है कि ‘तुम कर सकते हो।’ यदि निश्चय दृढ़ हो, हौसले बुलंद हों, दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। नैपोलियन बोनापार्ट भी यही कहते थे कि असंभव शब्द मूर्खों के शब्द कोश में होता है। इस नकारात्मक भाव को अपने ज़हन में प्रविष्ट न होने दें –’जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि तथा नज़रें बदलते ही नज़ारे बदल जाते हैं और नज़रिया बदलते ज़िंदगी।’ यदि नारी यह संकल्प कर ले कि वह अकारण प्रताड़ना सहन नहीं करेगी और उसका साहसपूर्वक विरोध करेगी, ‘तो क्या’ और अब मैं तुम्हें दिखाऊँगी कि ‘मैं क्या कर सकती हूं।’ उस स्थिति में पुरुष भयभीत हो जायेगा और अपने मिथ्या सम्मान की रक्षा हेतु मर्दांनगी नहीं दिखायेगा। धीरे-धीरे दु:ख भरे दिन बीत जायेंगे व खुशियों की भोर होगी, जहाँ समन्वय, सामंजस्य ही नहीं; समरसता भी होगी और ज़िंदगी रूपी गाड़ी के दोनों पहिए समान गति से दौड़ेंगे।
☆ ॥ सहयोग॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
संकल्प, बल और बुद्धि में एक दिन विवाद हो रहा था। प्रत्येक को अभिमान था कि उसके बिना सफलता की प्राप्ति असंभव है। विवाद समाप्त होने नहीं आ रहा था। बिना किसी योग्य निर्णायक के फैसला कैसे हो? खैर तीनों इस बात पर राजी हुये कि विवेक से इस विषय पर उसका अभिमत जाना जाय। जो वह कहे उसे मान लिया जाय। तीनों विवेक के पास जाकर उन्होंने उससे अपना निर्णय देने की प्रार्थना की। विवेक ने सोचा कि यदि वह किसी एक का नाम लेगा तो उस पर पक्षपात का आरोप लग सकता है और शेष दो आक्रोशित हो सकते हैं। इसलिये उसने प्रत्यक्ष प्रयोग विधि से सबको अपने निर्णय को मान्य कराने का सोचा। वह तीनों को साथ ले गांव में गया। गली में खेलते हुये बालक दिखे। विवेक ने एक को बुला उसे एक टेढ़ी छोटी लोहे की छड़ और वजनदार हथोड़ा दिखाकर जो उसने प्रयोग के लिये साथ रख लिया था, पूछा क्या वह हथौड़े से टेढ़ी छड़ को सीधी कर सकता है? बालक ने खेल समझकर कोशिश की। हथौड़ा वजनदार था इससे वह उसे उठा न सका। इच्छा होते भी बल या शक्ति की कमी के कारण काम न हो सका। आगे बढऩे पर एक श्रमिक एक पेड़ की छाया में लेटा हुआ दिखा। विवेक ने उसे वह टेढ़ी छड़ और हथौड़ा दिखाकर पूछा क्या वह उस छड़ को ठोंककर सीधी कर सकेगा। श्रमिक ने कहा- यह भी क्या कोई बड़ी बात है? पर चूंकि वह भोजन करके थोड़ा विश्राम कर रहा था इसलिये उसने कहा उसका उस समय परिश्रम करने का मन नहीं है। बाद में कर देगा। काम न होने से वे सब और आगे गये। खेत की ओर जाता हुआ एक हष्ट-पुष्ट किसान दिखा। उसके पास पहुंचकर विवेक ने तीनों के समक्ष उससे वह छड़ और हथौड़ा (धन) दिखाकर पूछा कया वह उस छड़ को सीधी कर सकने की कृपा करेगा। उसने कहा- भैया ये भी भला क्या कोई बड़ी बात है? उसने छड़ को वहीं जमीन पर रखकर, मन से उस पर पूरी ताकत से प्रहार किया पर छड़ सीधी न होकर जमीन में धंस गई और धूल उड़ी जो सहसा किसान की आंख में लगी। कार्य सम्पन्न न हो सका क्योंकि किसान ने कार्य संपादित करने के लिये बुद्धि का सही उपयोग नहीं किया। यदि कोई पत्थर या कड़े धरातल पर छड़ को रखकर पीटा जाता तो छड़ सीधी हो गई होती। तीनों प्रकरणों को दिखाकर विवेक ने बताया कि पहले प्रकरण में बालक में बल की कमी थी, दूसरे प्रकरण में श्रमिक में क्षमता तो थी पर संकल्प की कमी थी और तीसरे प्रकरण में किसान में सही बुद्धि की कमी थी। इससे छोटी सी छड़ सीधी नहीं हो सकी। तीनों घटनाओं की विवेचना से तीनों- संकल्प, बल और बुद्धि की समझ में आ गया कि सफलता पाने में किसी एक का विशेष महत्व नहीं है वरन् तीनों के सहयोग और समन्वय का महत्व है। न कोई बड़ा है न छोटा। सभी तीनों समान रूप से महान हैं। सभी को सम्मिलित रूप से श्रेय दिया जाना उचित है। किसी को अपना अभिमान नहीं होना चाहिये। निर्णय को तीनों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, विवाद समाप्त हो गया।
‘मनुष्य’ शब्द सामान्यत: मनुष्य शरीर की आकृति का बोध कराता है, परन्तु साथ ही इसी संदर्भ में उसके सामाजिक व्यवहारों की भी छवि उभरती है। शरीर द्वारा संपादित होने वाले सभी वैयक्तिक तथा सामाजिक व्यवहारों का परिचालन मन और बुद्धि के माध्यम से वह अदृश्य चेतना शक्ति करती है जिसे आत्मा कहते हैं। सम्पूर्ण जीवन भर सोच-विचारों और क्रिया कलापों की उधेड़बुन इसी चेतना का खेल है। यह चेतना सभी छोटे-बड़े प्राणियों में विद्यमान है। बिना इस चेतना या आत्मा के शरीर को शरीर नहीं शव कहा जाता है। मनुष्य तभी तक सक्रिय है जब तक उसके शरीर में आत्मा है। इससे यह बहुत स्पष्ट है कि मनुष्य केवल शरीर नहीं है, शरीर में स्थित अदृश्य आत्मा ही प्रधान है। मृत्यु क्यों होती है? और तब आत्मा इस शरीर को पुराने वस्त्र की भांति छोडक़र कहां और क्यों चली जाती है? यह प्रश्न आदिकाल से अब तक अनुत्तरित है और शायद आगे भी रहे। विभिन्न धर्मावलंबियों, मनीषियों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार इस रहस्य के भिन्न-भिन्न उत्तर देने के प्रयास किये हैं, किन्तु गुत्थी सुलझ नहीं पाई है। इसी अनसुलझी गुत्थी को बहुतों ने परमात्मा की माया कहा है। माया ही संसार में जन्म-मरण, सृजन और ध्वंस का चक्र चालू है और प्रत्येक प्राणी इस चक्र में फंसा ऊपर-नीचे घूम रहा है। जीवन यात्रा में शरीर और आत्मा उसके साथ हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं। आत्मा सक्षम शक्ति है जो जीवन पथ में आने वाली समस्याओं का निराकरण कर अभिनव मार्ग बना सकती है। शरीर उनका साधन है। जीवन में विविधता है। किन्हीं दो व्यक्तियों के जीवन में समानता से अधिक विभिन्नता है। एक सुखी है दूसरा दुखी, कोई बड़ा है कोई छोटा, एक विचारवान ज्ञानी है, दूसरा अज्ञानी तथा कोई सम्पन्न है तो कोई विपन्न। किन्तु अनेकों विरोधाभासों के बीच भी एक अनुपम समानता है कि संसार का प्रत्येक प्राणी आनंद व सुख की कामना करता है और निरंतर उसी की प्राप्ति के प्रयत्नों में रत दिखता है। सुख प्राप्ति के लिये सही प्रयत्न करने को स्वस्थ शरीर और स्वस्थ संतुलित आत्मा का होना आवश्यक है। शरीर के स्वास्थ्य के लिये तो जानकारी, चिकित्सक, चिकित्सालय और औषधियां उपलब्ध है, किन्तु आत्मा और उसकी रुग्णता की जानकारी बहुत कम को है। बारीकी से अवलोकन करने पर समझ में आता है कि बहुसंख्यक आत्मायें अस्वस्थ हैं। इसी का परिणाम समाज में बढ़ते अनाचार, अत्याचार, दुर्विचार और व्यभिचार हैं जो समाज के कष्टों को बढ़ा रहे हैं और मानवता के विकास में बाधक हैं। स्थिति में सुधार के लिये शरीर और आत्मा का उपचार साथ-साथ होना चाहिये। यही विकास के लिये शरीर को भौतिक स्वास्थ्य तथा सुख-सुविधायें जरूरी हैं, तो उसमें निवास करने वाली शक्ति सवरूपा आत्मा को आध्यात्मिक ज्ञान और पावनता की आवश्यकता है। आज इसी की कमी है। केवल भौतिक विकास के दृष्टिकोण ने आध्यात्मिक विज्ञान के क्षेत्र में आवश्यक रुझान में अवरोध उत्पन्न कर दिया है और जीवन को असंतुलित कर रखा है। भौतिक विचार वाले उदारमना, भ्रातत्वभाव रखने वाले नागरिक उपलब्ध हो सकेंगे तो अनाचारों पर रोक लगाने में सक्षम होंगे। इसलिये प्रत्येक घर परिवार में आध्यात्मिक चेतना का प्रकाश परम आवश्यक है।
☆ ॥ अप्पदीपो भव॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
‘अप्पदीपोभव’– यह उपदेश था महात्मा बुद्ध का अपने शिष्यों को। इस सूत्र वाक्य का अर्थ है- अपना दीपक आप बनो। संसार में जीवनपथ अज्ञात है, अंधकारपूर्ण है। कोई नहीं जानता कि कल क्या होगा। मनुष्य को यदि ऐसे अंधेरे मार्ग पर यात्रा करनी है, जो अनिवार्य है, तो उसे प्रकाश की बड़ी आवश्यकता है। प्रकाश दीपक से मिलता है। इसलिये उन्होंने उपदेश दिया कि अपना दीपक खुद बनो। किसी अन्य का सहारा चाहना उचित नहीं होगा। दूसरा तो थोड़ी दूर तक ही साथ दे सकेगा। अपने खुद के दीपक से सतत् संपूर्ण रास्ता प्रकाशित करने का भरोसा किया जा सकता है। खुद का प्रकाश होने पर आत्मविश्वास से चला जा सकता है। इस छोटे से गुरुमंत्र में बड़ा अर्थ भांभीर्य है। इस पर जितना चिंतन और इसका मंथन किया जाय उतना ही विस्तृत अर्थ निकलता है, उतना ही आनंद की अनुभूति होती है और आत्मविश्वास बढ़ता है। कार्यक्षेत्र कोई भी हो, काम करने वाले को स्वत: ही अपनी समझदारी से उस कार्य को संपन्न कर सफलता पानी होती है। दूसरे तो केवल दर्शक होते हैं। परिश्रम और आत्मविश्वास ही सफलता दिलाते हैं। इसके लिये काम की सारी तैयारी अपने ज्ञान के प्रकाश में खुद को ही करनी होती है। इसीलिये ज्ञान को प्रकाश का पर्याय कहा गया है। ज्ञान की साधना करना विवेचना कर वास्तविकता को समझना ही अपने ज्ञानदीप को प्रकाशित करना या जगाना है। इसी ज्ञान के प्रकाश में बढक़र जीवन यात्रा के लक्ष्य को पाना आनंददायी होता है। अपना रास्ता खोजने को, खुद ज्ञान प्राप्त करो और उसके प्रकाश में आगे निर्भीक रूप से बढ़ो। ज्ञान ही मुक्ति प्रदाता है। इसलिये आप स्वत: अपना दीपक जलाओ। ज्ञान के समान सहायक और कोई नहीं है। गीता में भी कहा गया है-
‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते।’
जो कुछ महात्मा बुद्ध ने अपने अनुभव से अपने शिष्यों को उपदेश में कहा है, प्रकारान्तर से गीता में भी वही बात स्पष्टत: कही गई है-
उद्धरेतात्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत्।
आत्मैव हि आत्मनो बन्धु: आत्मैव रिपु आत्मन:॥
अर्थ है- अपना उद्धार खुद करना चाहिये, खुद को पतन के गर्त में गिराना नहीं चाहिये। मनुष्य स्वत: ही अपना मित्र है और स्वत: ही अपना शत्रु है। कठिनाई में, जैसे मित्र अपने मित्र की सहायता कर उसका हित करता करता है वैसे ही अपनी सहायता हिम्मत के साथ खुद करें तो मनुष्य अपना मित्र है और इसके विपरीत, निराश हो कुछ न कर अपनी अवनति का कारण बने तो खुद का शत्रु है। समान परिस्थितियों में दो भिन्न व्यक्तियों के व्यवहारों में यह इस संसार में साफ दिखाई देता है। एक हिम्मत से काम ले सफलता या यश पाता है और दूसरा हिम्मतहार कर चुप बैठ जाता है और विफलता से अपयश का भागी होता है।
व्यक्ति की बुद्धि और कर्म ही उसे ऊंचा उठाते हैं या गिराते हैं। इसलिये मनुष्य को सही ज्ञान का सहारा ले आत्मविश्वास से सोच समझ कर जीवन पथ पर बढऩा चाहिये- अपना दीपक आप बनना चाहिये। ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार।’ मनस्वी अपने ज्ञान की ज्योति के प्रकाश में ही आगे बढ़ युग में नया इतिहास रचते हैं।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
पुराने समय में गर्मी की छुट्टियों में यात्रा करना बड़ा कठिन कार्य होता था। ट्रेन की नब्बे दिन अग्रिम टिकट सुविधा का लाभ लेकर टिकट किसी गर्म कोट की जेब में संभाल कर रखने के चक्कर में पच्चीस प्रतिशत राशि से डुप्लीकेट टिकट खरीदने पड़े थे। क्योंकि कोट ड्राई क्लीन करने के लिए, बिना जेब टटोलने पर देने के कारण हमारे हाथ मोटे वाले सोट्टे से पिताश्री द्वारा तोड़ ही डाले गए थे।
आज तो किसी भी पल टैक्सी, हवाई यात्रा की व्यवस्था ऑन लाइन उपलब्ध हों गई हैं।बस पैसा फेंको और तमाशा देखो। जयपुर से सबसे पहले टैक्सी (एक तरफ शुल्क) से दिल्ली की रवानगी की गई। नब्बे के दशक डिलक्स बस में यात्रा करना अमीर परिवार के लोग करते थे या बैंक / सरकारी कर्मचारी प्रशासनिक कारण से यात्रा कर रहे होते थे। विगत दिनों टैक्सी यात्रा के समय बसों का कम दिखना और टैक्सियों का अधिक चलन को हमारी प्रगति का पैमाना भी माना जा सकता हैं।
करीब तीन सौ किलोमीटर के रास्ते में दोनों तरफ सौ से अधिक अच्छे बड़े होटल खुल चुके हैं। इन होटलों में खाने के अलावा अनेक दुकानें भी हैं। जहां पर कपड़े, ग्रह सज्जा और अन्य आवश्यकताओं का सामान उपलब्ध हैं। बच्चों के मुफ्त झूले इत्यादि भी राहगीर को आकर्षित करते हैं। कई होटलों में दरबान आपकी कार का दरवाज़ा खोल/ बंद करने के बाद बक्शीश की उम्मीद से रहता हैं। मुफ्त कार की सफाई भी राहगीर को वहां रुकने की इच्छा प्रबल कर देती हैं। टैक्सी ड्राइवर को मुफ्त भोजन देकर होटल वाले इस खर्चे को यात्री द्वारा खरीदे गए भोजन के बिल में ही तो जोड़ कर अपनी लागत निकाल लेते हैं। सभी व्यापार करने वाले इस प्रकार की रणनीति अपना कर ही सफल होते हैं।
हमारे टैक्सी चालक ने भी तीव्र गति से हमें दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय विमानतल पर समय पूर्व पहुंचा दिया। अब लेखनी बंद कर रहा हूँ, सुरक्षा जांच के बाद अगले भाग में मिलेंगे।