हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 128 ☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : दु:खों का कारण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 128 ☆

☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण

ग़लत सोच के लोगों से अच्छे व शुभ की अपेक्षा-आशा करना हमारे आधे दु:खों का कारण है, यह सार्वभौमिक सत्य है। ख़ुद को ग़लत स्वीकारना सही आदमी के लक्षण हैं, अन्यथा सृष्टि का हर प्राणी स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है। उसकी दृष्टि में सब मूर्ख हैं; विद्वत्ता में निकृष्ट हैं; हीन हैं और सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम हैं। ऐसा व्यक्ति अहंनिष्ठ व निपट स्वार्थी होता है। उसकी सोच नकारात्मक होती है और वह अपने परिवार से इतर कुछ नहीं सोचता, क्योंकि उसकी मनोवृत्ति संकुचित व सोच का दायरा छोटा होता है। उसकी दशा सावन के अंधे की भांति होती है, जिसे हर स्थान पर हरा ही हरा दिखाई देता है।

वास्तव में अपनी ग़लती को स्वीकारना दुनिया सबसे कठिन कार्य है तथा अहंवादी लोगों के लिए असंभव, क्योंकि दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है। वह हर अपराध के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है, क्योंकि वह स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझता। सो! वह ग़लती कर ही कैसे सकता है? ग़लती तो नासमझ लोग करते हैं। परंतु मेरे विचार से तो यह आत्म-विकास की सीढ़ी है और ऐसा व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। उसके रास्ते की बाधाएं स्वयं अपनी राह बदल लेती हैं और अवरोधक का कार्य नहीं करती, क्योंकि वह बनी-बनाई लीक पर चलने में विश्वास नहीं करता, बल्कि नवीन राहों का निर्माण करता है। अपनी ग़लती स्वीकारने के कारण सब उसके मुरीद बन जाते हैं और उसका अनुसरण करना प्रारंभ कर देते हैं।

ग़लत सोच के लोग किसी का हित कर सकते हैं तथा किसी के बारे में अच्छा सोच सकते हैं; सर्वथा ग़लत है। सो! ऐसे लोगों से शुभ की आशा करना स्वयं को दु:खों के सागर के अथाह जल में डुबोने के समान है, क्योंकि जब उसकी राह ही ठीक नहीं होगी; वे मंज़िल को कैसे प्राप्त कर सकेंगे? हमें मंज़िल तक पहुंचने के लिए सीधे-सपाट रास्ते को अपनाना होगा; कांटों भरी राह पर चलने से हमें बीच राह से लौटना पड़ेगा। उस स्थिति में हम हैरान-परेशान होकर निराशा का दामन थाम लेंगे और अपने भाग्य को कोसने लगेंगे। यह तो राह के कांटों को हटाने लिए पूरे क्षेत्र में रेड कारपेट बिछाने जैसा विकल्प होगा, जो असंभव है। यदि हम ग़लत लोगों की संगति करते हैं, तो उससे शुभ की प्राप्ति कैसे होगी ? वे तो हमें अपने साथ बुरी संगति में धकेल देंगे और हम लाख चाहने पर भी वहां से लौट नहीं पाएंगे। इंसान अपनी संगति से पहचाना जाता है। सो! हमें अच्छे लोगों के साथ रहना चाहिए, क्योंकि बुरे लोगों के साथ रहने से लोग हमसे भी कन्नी काटने लगते हैं तथा हमारी निंदा करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। ग़लती छोटी हो या बड़ी; हमें उपहास का पात्र बनाती है। यदि छोटी-छोटी ग़लतियां बड़ी समस्याओं के रूप में हमारे पथ में अवरोधक बन जाएं, तो उनका समाधान कर लेना चाहिए। जैसे एक कांटा चुभने पर मानव को बहुत कष्ट होता है और एक चींटी विशालकाय हाथी को अनियंत्रित कर देती है, उसी प्रकार हमें छोटी-छोटी ग़लतियों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इंसान छोटे-छोटे पत्थरों से फिसलता है; पर्वतों से नहीं।

‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ अक्सर यह संदेश हमें वाहनों पर लिखित दिखाई पड़ता है, जो हमें सतर्क व सावधान रहने की सीख देता है, क्योंकि हमारी एक छोटी-सी ग़लती प्राण-घातक सिद्ध हो सकती है। सो! हमें संबंधों की अहमियत समझनी चाहिए चाहिए, क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं तथा प्राणदायिनी शक्ति से भरपूर  होते हैं। वास्तव में रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं और भुने हुए पापड़ की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं। मानव के लिए अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियां अत्यंत घातक हैं, जो संबंधों को लील जाती हैं। यदि आप किसी उम्मीद रखते हैं और वह आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, तो संबंधों में दरारें पड़ जाती हैं; हृदय में गांठ पड़ जाती है, जिसे रहीम जी का यह दोहा बख़ूबी प्रकट करता है। ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै तो गांठ परि जाए।’ सो! रिश्तों को सावधानी-पूर्वक संजो कर व सहेज कर रखने में सबका हित है। दूसरी ओर किसी के प्रति उपेक्षा भाव उसके अहं को ललकारता है और वह प्राणी प्रतिशोध लेने व उसे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करता है। यहीं से प्रारंभ होता है द्वंद्व युद्ध, जो संघर्ष का जन्मदाता है। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। इसलिए हमें सबको यथायोग्य सम्मान ध्यान देना चाहिए। यदि हम किसी बच्चे को प्यार से आप कह कर बात करते हैं, तो वह भी उसी भाषा में प्रत्युत्तर देगा, अन्यथा वह अपनी प्रतिक्रिया तुरंत ज़ाहिर कर देगा। यह सब प्राणी-जगत् में भी घटित होता है। वैसे तो संपूर्ण विश्व में प्रेम का पसारा है और आप संसार में जो भी किसी को देते हो; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए अच्छा बोलो; अच्छा सुनने को मिलेगा। सो! असामान्य परिस्थितियों में ग़लत बातों को देख कर आंख मूंदना हितकर है, क्योंकि मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है।

संसार मिथ्या है और माया के कारण हमें सत्य भासता है। जीवन में सफल होने का यही मापदंड है। यदि आप बापू के तीन बंदरों की भांति व्यवहार करते हैं, तो आप स्टेपनी की भांति हर स्थान व हर परिस्थिति में स्वयं को उचित व ठीक पाते हैं और उस वातावरण में स्वयं को ढाल सकते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि ‘अपना व्यवहार पानी जैसा रखो, जो हर जगह, हर स्थिति में अपना स्थान बना लेता है। इसी प्रकार मानव भी अपना आपा खोकर घर -परिवार व समाज में सम्मान-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकता है। इसलिए हमें ग़लत लोगों का साथ कभी नहीं देना चाहिए, क्योंकि ग़लत व्यक्ति न तो अपनी ग़लती से स्वीकारता है; न ही अपनी अंतरात्मा में झांकता है और न ही उसके गुण-दोषों का मूल्यांकन करता है। इसलिए उससे सद्-व्यवहार की अपेक्षा मूर्खता है और समस्त दु:खों कारण है। सो! आत्मावलोकन कर अंतर्मन की वृत्तियों पर ध्यान दीजिए तथा अपने दोषों अथवा पंच-विकारों व नकारात्मक भावों पर अंकुश लगाइए तथा समूल नष्ट करने का प्रयास कीजिए। यही जीवन की सार्थकता व अमूल्य संदेश है, अन्यथा ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ वाली स्थिति हो जाएगी और हम सोचने पर विवश हो जाएंगे… ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ का सिद्धांत सर्वोपरि है, सर्वोत्तम है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजने का प्रयास कीजिए और जो ग़लत है, उसे कोटि शत्रुओं-सम त्याग दीजिए…इसी में सबका मंगल है और यही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 95 ☆ प्रायोजित प्रयोजन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “प्रायोजित प्रयोजन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 95 ☆

☆ प्रायोजित प्रयोजन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

समय बहुत तेजी से बदलता जा रहा है। आजकल सब कुछ प्रायोजित होने लगा है। पहले तो दूरदर्शन के कार्यक्रम, मैच या कोई बड़ा आयोजन ही इसके घेरे में आते थे किंतु आजकल बड़े सितारों के जन्मदिन, विवाह उत्सव या कोई विशेष कार्य भी प्रायोजित की श्रेणी में आ गए हैं । फेसबुक, यूट्यूब, आदि सोशल मीडिया पर तो बूस्ट पोस्ट होती है। मजे की बात अब त्योहार व उससे जुड़े  विवाद भी प्रायोजित की श्रेणी में आ खड़े

हुए हैं। एक साथ सारे देश में एक ही मुद्दे पर एक ही समय पर एक से विवाद, एक ही शैली में आ धमकते हैं।इसकी गूँज चारों ओर मानवता की पीड़ा के रूप में दृष्टिगोचर होने लगती है।

इसकी जिम्मेदारी किसकी है, कौन इस सूत्र को जोड़- जोड़ कर घसीट रहा है व कौन बेदर्दी से तोड़े जा रहा है। इसका चिंतन कौन करेगा? दोषारोपण करते हुए मूक दर्शक बनकर रहना भी आसान नहीं होता है। लेकिन जिम्मेदार लोग एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए एकतरफा निर्णय सुनाते जा रहे हैं। वैसे ऐसे विवादों से एक लाभ यह होता है कि देश के मूल मुद्दों से आम जनता का ध्यान भटक जाता है। जिससे राजनीतिक रोटियों को सेंकना और फिर उन्हें परोसना आसान होने लगता है।

कोई भी कार्य दो आधारों पर बाँटे जा सकते हैं – चुनाव से पूर्व के कार्य व चुनाव के बाद के कार्य।

चुनाव के  कुछ दिनों पूर्व सबसे अधिक चिंता हर दल को केवल गरीबों की होती है। ऐसा लगता है कि पाँच वर्ष पूरे होने के दो महीने पहले ही यह वर्ग  सामने आता है, इनका दुःख दर्द सभी को सालने लगता है । 

तरह – तरह के प्रलोभनों द्वारा इन्हें आकर्षित कर अपने दलों का महिमामंडन करते हुए लोग जाग्रत हो जाते हैं।

अरे भई इतने दिनों तक क्या ये इंसान नहीं थे,  क्या इनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर तब आपका ध्यान नहीं था, तब क्या ये पंछियो की तरह आकाश में विचरण कर घोसले बना कर रहते थे या धूल के गुबार बन बादलों में छिपे थे।

सच्चाई तो यही है कि कोई भी दल इनकी स्थिति में  सुधार चाहता ही नहीं तभी तो  इस वर्ग के लोगों में भारी इजाफा हो रहा है, इनकी मदद के लिए सभी आगे आते हैं किंतु कैसे गरीबी मिटे इस पर चिंतन बहुत कम लोग करते हैं। 

केवल  आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से  ये वर्ग दिनों दिन अमरबेल की तरह बढ़ता जायेगा।  अभी भी समय है बुद्धिजीवी वर्ग को चिंतन- मनन द्वारा कोई नया रास्ता खोजना चाहिए जिससे सबके लिए समान अवसर हो अपनी तरक्की के लिए।

अब चुनावों का दौर पूर्ण हो चुका है सो आगे की तैयारी हेतु  विकास पर विराम  लगाते हुए धार्मिक उन्मादों की ओर सारे राजनीतिक दलों की निगाहें टिकी हुई हैं। दुःख तो ये सब देख कर होता है कि ऐसे कार्यक्रमों को भी प्रायोजित  किया जाता है।  और हम सब मूक दर्शक बनें हुए केवल समाचारों की परिचर्चाओं का अघोषित हिस्सा बनें हुए हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆☆ भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर ☆☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी का विचारणीय आलेख भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर.)

(14 एप्रिल 1891 – 6 डिसेंबर 1956)

☆ आलेख – भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

भारत के राजनीतिक पटल में डाक्टर आंबेडकर का आगमन जाति प्रथा के खिलाफ संघर्ष से आरंभ हुआ और गोलमेज कांफ्रेंस से लेकर पूना पेक्ट, महात्मा गांधी से विरोध और संविधान निर्माण तक व्यापक है। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अहिंसक आंदोलनों के समय वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम से दूर रहे। कभी वे गांधीजी के प्रसंशक बने और कांग्रेस के निकट आए तो कभी जिन्ना से भी मुलाकात करी। ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी डाक्टर आंबेडकर के विचार आजादी के आंदोलन को लेकर क्या थे? यह सदैव चर्चा का विषय रहा है।

स्वराज को लेकर उनके विचारों का पता हमें 08 अगस्त 1930 को नागपुर दलित जाति कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में दिए गए भाषण से लगता है। डाक्टर आंबेडकर ने माना कि कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन से जन चेतना पैदा हुई है लेकिन वे इस आंदोलन के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि गांधीजी और कांग्रेस के प्रयासों से राजनैतिक सत्ता का हस्तांतरण तो हो जाएगा पर सामाजिक परिवर्तन नहीं आ सकेंगे। उनके अनुसार कांग्रेस ने छुआछूत उन्मूलन को अपना लक्ष्य नहीं बनाया और गांधीजी ने भी छूआछूत मिटाने के लिए कोई सत्याग्रह या उपवास नहीं किया, इसलिए वे चाहते थे कि दलित वर्ग सरकार, कांग्रेस और गांधीजी से स्वतंत्र रहे। काँग्रेस और देश का बहुमत प्रथम गोलमेज कांफ्रेस में भाग लेने के विरुद्ध था। गांधीजी समेत कांग्रेसी नमक सत्याग्रह के चलते जेलों में बंद थे। ऐसे में दलितों के हितों की पैरवी करने, डाक्टर आंबेडकर ने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होने ब्रिटिश सरकार के आमंत्रण को स्वीकार किया और इस कारण देश भर में उनकी आलोचना हुई। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश राज में दलितों के हक और उनकी सामाजिक स्थिति में किसी परिवर्तन के न होने पर दुख व्यक्त किया और यहाँ तक कहा कि भारत में अछूत ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हैं और ऐसी सरकार के पक्ष में हैं जो जनता के द्वारा बनाई गई हो। उन्होंने भारत को डोमिनियन राज्य का दर्जा दिए जाने की भी मांग सम्मेलन में रखी। गांधीजी ने भी प्रथम गोलमेज सम्मेलन में डाक्टर आंबेडकर के द्वारा दिए गए भाषण के आधार पर उन्हें महान देश भक्त कहा।

7 सितंबर 1931 से लंदन में प्रारंभ हुई द्वितीय गोलमेज सम्मेलन, में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में महात्मा गांधी शामिल हुए और उन्होंने अपने शुरुआती भाषण में ही यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस सभी भारतीयों यानि हिन्दूओं, अल्पसंख्यक मुसलमानों, सिखों व पारसियों के साथ साथ अछूतों का भी प्रतिनिधित्व करती है। अंग्रेजों ने इस सम्मेलन में राजनीतिक चाल चलते हुए अल्पसंख्यकों और अछूतों को एकजुट कर एक समझौता प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसके अनुसार अल्पसंख्यकों की भांति अछूतों को भी प्रथक निर्वाचन का अधिकार दिया जाना प्रस्तावित था। गांधीजी, अंग्रेजों की इस कुटिल चाल को समझ गए और उन्होंने इसका विरोध किया। जब डाक्टर आंबेडकर ने गांधीजी और कांग्रेस की कटु आलोचना करते हुए अखबारों में लेख लिखे तो इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें भी कांग्रेस समर्थकों की ओर से कठोर निंदा का सामना करना पड़ा। उन्हें सवर्ण हिंदुओं द्वारा घृणित व्यक्ति के रूप में देखा जाने लगा । उन्हें ब्रिटिश राज का पिच्छलग्गू, प्रतिक्रियावादी, देशद्रोही और हिन्दू धर्म विनाशक माना गया।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन असफलता के साथ समाप्त हुआ लेकिन अंग्रेजों की चालबाजी खत्म नहीं हुई। 20 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कम्यूनल अवार्ड की घोषणा कर दी और इसके अनुसार दलितों को अल्पसंख्यकों की ही तरह प्रथक निर्वाचन का अधिकार मिला। उन्हें दोहरे मतदान का अधिकार दिया गया और वे अपने प्रतिनिधियों को तो चुन ही सकते थे साथ ही अन्य प्रतिनिधियों के लिए भी मतदान कर सकते थे। गांधीजी ने ब्रिटिश चाल को ध्वस्त करने के लिए आमरण अनशन की घोषणा कर दी और यरवदा जेल में 20 सितंबर से उपवास पर बैठ गए। डाक्टर आंबेडकर और कांग्रेस के नेताओं के बीच बातचीत का दौर शुरू हुआ। अंतत: डाक्टर आंबेडकर ने भी अपनी जिद्द छोड़ी और वे राष्ट्रहित में महात्मा गांधी का जीवन बचाने सहमत हुए। इस प्रकार 26 सितंबर को पूना पेक्ट पर हस्ताक्षर होने व ब्रिटिश राज की मंजूरी मिलने के बाद गांधीजी का अनशन समाप्त हुआ। डाक्टर आंबेडकर के लिए यह दौर बड़े धर्म संकट का था। एक ओर उन्हें दलितों के हितों की रक्षा करने की चिंता थी तो दूसरी ओर भारत की स्वतंत्रता के लिए महात्मा गांधी के प्राण बचाने का दबाव भी उन पर था। उन्होंने जन दवाब और व्यापक राष्ट्रहित के सामने झुकने का निर्णय लिया और पूना पेक्ट पर अपनी सहमति दी। पूना पेक्ट पर निर्मित सहमति और देश हित महात्मा गांधी के प्राणों की रक्षा का सारा श्रेय कांग्रेस के सम्मानित नेता मदन मोहन मालवीय ने डाक्टर आंबेडकर को दिया। इस पेक्ट के फलस्वरूप कांग्रेस ने डाक्टर आंबेडकर को दलित नेता के रूप में मान्य किया। डाक्टर आंबेडकर के समर्थक विद्वान, दलितों के विषय को लेकर गांधीजी की कठोर आलोचना करते हुए भी यह मानते हैं कि पूना पेक्ट के जरिए गांधीजी ने न केवल कांग्रेस को बचाया वरन हिन्दू धर्म और समाज को भी सदैव के लिए विघटित होने से बचा लिया। पूना पेक्ट के कारण गांधीजी को भी सनातनी हिंदुओं के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा और यह विरोध प्रदर्शन तो उनकी हरिजन यात्रा के समय और भी उग्र हो उठते थे। गांधीजी की अस्पृश्यता निवारण संबंधी सार्वजनिक घोषणाओं की प्रशंसा डाक्टर आंबेडकर ने तृतीय गोलमेज सम्मेलन में नवंबर 1932 में जाते वक्त भी की थी।  

1920-30 के दशक और गोलमेज सम्मेलनों के दौरान डाक्टर आंबेडकर प्रखर राष्ट्रवादी दिखते हैं। उन्होने उस वक्त कभी भी स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध नहीं किया। वे गांधीजी और कांग्रेस की आलोचना में भी पर्याप्त सावधानी रखते थे और राष्ट्रीय एकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराते रहते थे। लेकिन बाद के वर्षों में डाक्टर आंबेडकर छूआछूत मिटाने, दलितों के मंदिर प्रवेश, मनुस्मृति जैसे सामाजिक भेदभाव पैदा करने वाले ग्रंथों को जलाने जैसे आंदोलन में सक्रिय रहे और इस दौरान उनकी महात्मा गांधीं से अनेक बार भेंट तो हुई पर वे मंदिर प्रवेश और जाति व्यवस्था को लेकर गांधीजी के विचारों का प्रबल विरोध करते रहे। गांधीजी चाहते थे कि डाक्टर आंबेडकर बंबई विधान सभा व केन्द्रीय असेंबली में कांग्रेस द्वारा प्रस्तुत दलितों के मंदिर प्रवेश की अनुमति देने संबंधी प्रस्ताव का समर्थन करें। लेकिन डाक्टर आंबेडकर इसके लिए तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि पहले जाति व्यवस्था खत्म हो, अन्तर्जातीय विवाह और भोज को मंजूरी मिले, प्रस्तावित बिल में छुआछूत की निंदा हो उसके बाद ही मंदिर प्रवेश की बात की जाए। डाक्टर आंबेडकर की दृष्टि में महात्मा गांधी अस्पृश्यता निवारण को लेकर धीमी गति से चल रहे थे तो दूसरी ओर गांधीजी का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति था और इसके लिए वे बहुसंख्यक हिंदुओं, दलितों और अल्पसंख्यकों के बीच संतुलन बनाए रखने के पक्षधर थे। 1933 के बाद तो वे गांधीजी से यह कहने में भी नहीं चूके कि अस्पृष्यों के पास कोई होमलेंड नहीं है। उन्होंने 1939 अपने इस मत को बंबई की विधानसभा में भी दोहराया कि ‘जब भी देश के हितों और अस्पृष्यों के हितों के बीच कोई टकराव होगा, तो मेरी नजर में अस्पृष्यों के हित देश के हितों से निश्चय ही ऊपर होंगे।‘ डाक्टर आंबेडकर का एक ओर कांग्रेस व गांधीजी से मोह भंग हो रहा था तो दूसरी ओर वे अंग्रेजों के काफी निकट आ गए थे। इन सबके बावजूद गांधीजी के मन में डाक्टर आंबेडकर के प्रति कोई कटुता नहीं थी और वे अक्सर उनके त्याग और बलिदान की प्रसंशा करते थे। वस्तुत: अस्पृश्यता निवारण को लेकर डाक्टर आंबेडकर का रुख लचीला नहीं था और इस कारण उनकी राष्ट्रीय राजनीति में दखल रखने वाले नेताओं चाहे वह आर्य समाजी हों, हिन्दू महासभाई हों या मुस्लिम लीगी ज्यादा पटी नहीं। वे अपने सिद्धांतों को लेकर विभिन्न विचारधाराओं के लोगों से मिलते अवश्य पर समझौता होने के पहले ही मनमुटाव हो जाता। 1940 में जब जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग उठाई तो डाक्टर आंबेडकर ने उनके इस विचार का समर्थन किया, जबकि गांधीजी और कांग्रेस भारत विभाजन के सख्त विरोध में थे। डाक्टर आंबेडकर ने तो बाद में यह अव्यवहारिक सुझाव भी दिया कि भारत विभाजन के बाद सारे मुसलमान पाकिस्तान चले जाएँ और वहाँ से हिन्दू भारत आ जाएँ। अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ और कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को हिरासत में लेकर दमन चक्र चलाया गया। इस दमनात्मक कारवाई के विरोध में, आगाखान पेलेस पूना में नजरबंद गांधीजी ने, 21 दिन का उपवास प्रारंभ कर दिया। गांधीजी से सहानुभूति दिखाते हुए अनेक नेताओं ने वाइसराय काउंसिल से त्यागपत्र दे दिया पर डाक्टर आंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसा करने से कोई लाभ नहीं होगा। वे इस राजनीतिक गतिरोध के लिए सरकार को दोषी ठहराने के पक्ष में भी नहीं थे। डाक्टर आंबेडकर के ऐसे व्यवहार के चलते कांग्रेसी नेताओं के साथ साथ महात्मा गांधी से भी उनकी दूरियाँ बढ़ती गई और गांधीजी ने उन्हें तवज्जो देना कम कर दिया। गांधीजी ने कुछ अन्य दलित नेताओं को डाक्टर आंबेडकर के समकक्ष खड़ा कर दिया उनमे जगजीवन राम का स्थान प्रमुख है।

1946 में जब धारा सभा के चुनाव हुए तो डाक्टर आंबेडकर के दल शैडूल्यड कास्ट फेडरेशन ने चुनाव में हिस्सा लिया। आम सभाओं में डाक्टर आंबेडकर ने कांग्रेस तथा गांधीजी की कटु आलोचना यह कहते हुए की कि वे अछूतों के हितों की सुरक्षा के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं और मुस्लिम मांगों की ओर बड़े उदार हैं। गांधीजी की अति आलोचना के परिणामस्वरूप चुनाव में डाक्टर आंबेडकर और उनके दल की घोर पराजय हुई। जबकि 1936 में बंबई विधानसभा के चुनावों में 17 आरक्षित सीटों में से 15 दलित उम्मीदवार डाक्टर आंबेडकर के समर्थन से चुनाव जीते थे। डाक्टर आंबेडकर का राजनीतिक सफर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी से शुरू हुआ, फिर उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का गठन 1942 में किया। स्वतंत्र भारत में उन्होंने अपने दल को नया नाम दिया, रिपब्लिक पार्टी आफ इंडिया। इसके बावजूद डाक्टर आंबेडकर अनुसूचित जातियों के मध्य अपनी पैठ बना पाने में खास सफल नहीं हुए। उनके द्वारा स्थापित दल अपना सांगठनिक आधार बनाने में भी विफल रहे। वे दलितों के उत्थान के लिए अपना योग्य उत्तराधिकारी भी नहीं बना पाए। कुल मिलाकर कांग्रेस और गांधीजी का अति विरोध करने के कारण वे नाकामयाबी के गहरे दलदल में लगभग फंस गए थे।

भारत की आजादी के बाद की कहानी में डाक्टर आंबेडकर एक नई भूमिका में आए। वे अपने ज्ञान और विलक्षण प्रतिभा के कारण एक बार पुन: प्रासंगिक बने। गांधीजी की सलाह पर कांग्रेस, जिसके वे आजीवन विरोधी रहे थे, ने उन्हें संविधान सभा में महती जिम्मेदारी सौंपी। पहले बंगाल से और फिर महाराष्ट्र से केन्द्रीय असेंबली में चुनाव जिताकर लाए गए और संविधान सभा के सदस्य बने। संविधान की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष बनाए गए, भारत सरकार में कानून मंत्री बने और हिन्दू कोड बिल के शिल्पी। लेकिन एक बार फिर वे कांग्रेस से दूर हो गए और उन्होंने मंत्रीमण्डल से त्याग पत्र दे दिया। अपने आखरी दिनों में वे राज्य सभा के सदस्य के रूप में हिन्दू कोड बिल को शांत भाव से पास होता देखते रहे।

(इस आलेख में उल्लेखित विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। )

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पनवाड़ी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “पनवाड़ी” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ पनवाड़ी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में ये शब्द खूब सुना था।  अब पान की दुकान के नाम से जाना जाता हैं। इनके भी अपने बड़े ठाठ होते थे। कुछ पनवाड़ी अभी भी आपने ठाट को बनाए हुए हैं।

घर से नाश्ता, खाना या चाय पीकर लोग पास की दुकान/ गुमटी/ टपरिया जो अधिकतर नुक्कड़ में हुआ करती थी, पहुंच जाते थे, अपनी पसंद का पान खाने के लिए। चलते हुए कह देना “लिख लेना” या आंखों ही आंखों में उधारी खूब चलती थी।

इनका कारोबार कभी भी मौसम से प्रभावित नहीं होता था। उस जमाने में गूगल भी नहीं था, रास्ता बताना या उस क्षेत्र के निवासियों की पूरी जानकारी प्रदान करने की सुविधा देर रात्रि तक निशुल्क प्रदान की जाती थी।

यदि आपको किसी से कोई काम करवाना हो या खुश करना हो, तो उसकी पसंदीदा पान की दुकान से उसका बीड़ा पार्सल पैक करवा कर ले जावे, फिर देखिए बड़े बड़े काम भी आसानी से हो जाते हैं।

पनवाड़ियों ने भी अपने कारोबार में वृद्धि करने के लिए श्वेत दंतिका का विक्रय भी अपने धंधे से जोड़ लिया था। मुफ्त माचिस और विद्युत से सिगरेट सुलगाने की सुविधा भी मुहैया करवाई जाती हैं।

ट्रिन ट्रिन, घर की घंटी बजी है। शायद खाद्य दूत (स्विगी) पान की डिलीवरी के लिए आया होगा। आगे की चर्चा पान खाने के बाद करेंगे। 👄

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा – अंतिम भाग☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा – अंतिम भाग ??

उपसंहार-

त्योहार हो, मेला या तीर्थयात्रा, वैदिक संस्कृति केवल उपदेश नहीं करती अपितु सार्थक क्रियान्वयन को महत्व देती है। यहाँ आत्मतत्व सर्वोच्च है। हर आत्मा को सम्यक भाव से देखना ही एकात्मता है। एकात्मता के बिना तो तीर्थ के लिए आनेवाले हरेक को तीर्थयात्रा का फल भी प्रदान नहीं होता। स्पष्ट निर्देश है-

अकोपमलोऽमलमति: सत्यवादी दृढ़व्रत:।

आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्रुते।।

जिसमें क्रोध नहीं, जिसकी बुद्धि निर्मल है, जो सत्यवादी है, व्रतपालन में दृढ़ है, सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान अनुभव करता है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त करता है।

 ‘आत्मोपमश्च’, सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान अनुभव करना, वैदिक दर्शन का प्राणतत्व है। सबमें अपनी आत्मा अर्थात एकात्म भाव।

इतना ही नहीं, अनेकानेक तीर्थों की यात्रा पर  आंतरिक शुचिता को वरीयता दी गई है।

तीर्थानामपि तत्तीर्थं विशुद्धिर्मनस: परा।

तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है अंत:करण की पूर्ण शुद्धता।

 त्यागकैनके अमृत्वमानशु:।

अर्थात त्याग द्वारा अमृत की प्राप्ति होती है। तीर्थ क्षेत्र पर जाकर उपभोग की एक वस्तु का त्याग करने की परंपरा है। द्वैत त्यागकर अद्वैत प्राप्त करने को वैदिकता, तीर्थ कहती है।

अद्वैत या एकात्मता मन को संकीर्णता से मुक्त कर अजातशत्रु होने का स्वर्णिम पथ है। इमानुएल क्लीवर का उद्धरण है, ‘ व्हेन देयर इज़.नो एनेमी विदिन, द एनेमीज़ आउटसाइड कैन नॉट हर्ट यू’  … एकात्म भाव शत्रुता की सारी आशंकाएँ नष्ट कर देता है।

एकात्म होने के लिए आत्मदर्शन होना अनिवार्य है। आदिशंकराचार्य से जब गुरु ने परिचय पूछा तो उन्होंने छह श्लोक कहे थे। ये श्लोक ‘निर्वाण षटकम्’ के नाम से जाने जाते हैं। संदर्भ के लिए केवल प्रथम एवं अंतिम श्वोक देखते हैं-

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं

न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |

न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:

चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो

विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |

सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:

चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

इसी आनंद को परमानंद तक ले जाना वैदिक संस्कृति का लक्ष्य है। आत्मा आनंद है, परमात्मा सच्चिदानंद है।

सत्, चित्, आनंद तक ले जानेवाले वैदिक में मूल शब्द ‘वेद’ है। वेद ‘विद्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है ज्ञान। वैदिक संस्कृति  ज्ञान का दर्शन है और ज्ञान निराकार, सर्वव्यापी एवं आनंदरूप होता है।

वेद हों, उपनिषद, वेदांग, या पुराण, स्मृतियाँ हों या ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक हों या प्रस्थानत्रयी, वैदिक संस्कृति में अंतर्भूत इस शाश्वत ज्ञान का अक्षर-अक्षर दर्शन होता है। वैदिकता ‘एकोऽहम् द्वितीय नास्ति’ का मनसा, वाचा, कर्मणा संदेश देती है। यह संदेश आत्मा और परमात्मा दोनों पर लागू होता है।

गायत्री मंत्र, वैदिक संस्कृति का अंत:करण है। यह महामंत्र आत्मा में परमात्मा को धारण करने की प्रार्थना है। परमात्मा सर्वत्र है। परमात्मा हर आत्मा में है। अत: सभी जन एकात्म हुए।

ॐ भूर्भूव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

समाप्त 

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 133 ☆ राम, राम-सा..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 133 ☆ राम, राम-सा..! ?

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे,

सहस्त्रनामतत्तुल्यं राम नाम वरानने।

राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं। राम राम-सा ही हैं, अन्य कोई उपमा उन्हें परिभाषित नहीं कर सकती।

विशेष बात यह कि अनन्य होकर भी राम सहज हैं, अतुल्य होकर भी राम सरल हैं, अद्वितीय होकर भी राम हरेक को उपलब्ध हैं। डाकू रत्नाकर ने मरा-मरा जपना शुरू किया और राम-राम तक आ पहुँचा। व्यक्ति जब सत्य भाव और करुण स्वर से मरा-मरा जपने लगे तो उसके भीतर करुणासागर राम आलोकित होने लगते हैं।

राम का शाब्दिक अर्थ  हृदय में रमण करने वाला है। रत्नाकर का अपने हृदय के राम से साक्षात्कार हुआ और जगत के पटल पर महर्षि वाल्मीकि का अवतरण हुआ। राम का विस्तार शब्दातीत है। यह विस्तार लोक के कण-कण तक पहुँचता है और राम अलौकिक हो उठते हैं। कहा गया है, ‘रमते कणे कणे, इति राम:’.. जो कण-कण में रमता है, वह राम है।

राम ने मनुष्य की देह धारण की। मनुष्य जीवन के सारे किंतु, परंतु, यद्यपि, तथापि, अरे, पर,  अथवा उन पर भी लागू थे।  फिर भी वे पुराण पुरुष सिद्ध हुए। 

वस्तुतः इस सिद्ध यात्रा को समझने के लिए उस सर्वसमावेशकता को समझना होगा जो राम के व्यक्तित्व में थी। राम अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे।  सिंहासन के लिए अपने भाइयों और पिता की हत्या की घटनाओं से संसार का इतिहास रक्तरंजित है। इस इतिहास में राम ऐसे अमृतपुत्र के रूप में उभरते हैं जो पिता द्वारा दिये वचन का पालन करने के लिए राज्याभिषेक से ठीक पहले राजपाट छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वनवास स्वीकार कर लेता है। यह अनन्य है, अतुल्य है, यही राम हैं।

भाई के रूप में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के लिए राघव अद्वितीय सिद्ध हुए। उनके भ्रातृप्रेम का अनूठा प्रसंग हनुमन्नाष्टक में वर्णित है। मेघनाद की शक्ति से मूर्च्छित हुए लक्ष्मण की चेतना लौटने पर हनुमान जी ने पूछा, ‘हे  लक्ष्मण, शक्ति के प्रहार से बहुत वेदना हुई होगी..!’  लक्ष्मण बोले, “नहीं महावीर,  मुझे तो केवल घाव हुआ,  वेदना तो भाई राम को हुई होगी..!’

यह वह समय था जब समाज में बहु पत्नी का चलन था। विशेषकर राज परिवारों में तो राजाओं की अनेक पत्नियाँ होना सामान्य बात थी। ऐसे समय में अवध का राजकुमार, भावी सम्राट एक पत्नीव्रत का आजीवन पालन करे, यह विलक्ष्ण है।

शूर्पनखा का प्रकरण हो या पार्वती जी द्वारा सीता मैया का वेश धारण कर उनकी परीक्षा लेने का प्रसंग, श्रीराम की महनीय शुद्धता 24 टंच सोने से भी आगे रही। सीता जी के रूप में पार्वती जी को देखते ही श्रीराम ने हाथ जोड़े और पूछा, “माता आप अकेली वन में विचरण क्यों कर रही हैं और भोलेनाथ कहाँ हैं? ”

इसी तरह हनुमान जी के साथ स्वामी भाव न रखते हुए भ्रातृ भाव रखना, राम के चरित्र को उत्तुंग करता है- ‘तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।’

समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना राम के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है। उनकी सेना में वानर, रीछ, सभी सम्मिलित हैं। गिद्धराज जटायु हों, वनवासी माता शबरी हों, नाविक केवट हो, निषादराज गुह अथवा अपने शरीर से रेत झाड़कर सेतु बनाने में सहायता करनेवाली गिलहरी,  सबको सम्यक दृष्टि से देखने वाला यह रामत्व केवल राम के पास ही हो सकता था। संदेश स्पष्ट है, जो तुम्हारे भीतर बसता है, वही सामने वाले के भीतर भी रमता है।…रमते कणे कणे…!  कण कण में राम को राम ने देखा, राम ने जिया।

राजस्थान में अभिवादन के लिए ‘राम राम-सा’ कहा जाता है। लोक के इस संबोधन में एक संदेश छिपा है। राम-सा केवल राम ही हो सकते हैं। सात्विकता से सुवासित जब कोई  ऐसा सर्वगुणसम्पन्न हो कि उसकी तुलना किसी से न की जा सके, अपने जैसा एकमेव आप हो तो राम से श्रीराम होने की यात्रा पूरी हो जाती है। यही राम नाम का महत्व है, राम नाम की गाथा है और रामनाम का अविराम भी है।

राम राम रघुनंदन राम राम,

राम-राम भरताग्रज राम राम।

राम-राम रणकर्कश राम राम,

राम राम शरणम् भव राम राम।।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #117 ☆ दरिद्रता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 117 ☆

☆ ‌दरिद्रता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

दरिद्रता शब्द के अनेक पर्याय वाची शब्द हैं जिनमें – दीन, अर्थहीन, अभाव ग्रस्त, गरीब, कंगाल, निर्धन आदि। जो दारिद्र्य के पर्याय माने जाते है।

प्राय: दरिद्रता का अर्थ निर्धनता से लगाया जाता है जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति तथा घर अन्न धन से खाली होता है विपन्नता की स्थिति में जीवन यापन करने वाले परिवार को ही दरिद्रता की श्रेणी में रखा जाता है ऐसे लोगों को प्राय: समाज के लोग हेय दृष्टि से देखते है,  यदि हमें अन्न तथा धन के महत्व को समझना है तो हमें पौराणिक कथाओं के तथ्य  को शबरी, सुदामा, महर्षि कणाद्, कबीर रविदास लालबहादुर शास्त्री के तथा द्रौपदी के अक्षयपात्र कथा और उनके जीवन दर्शन को समझना श्रवण करना तथा उनके जीवन शैली का अध्ययन करना होगा। दरिद्रता के अभिशाप से अभिशप्त प्राणी का कोई मान सम्मान नहीं, वह जीवन का प्रत्येक दिन त्रासद परिस्थितियों में बिताने के लिए बाध्य होता है।  ऐसे परिवार में दुख, हताशा, निराशा डेरा डाल देते हैं उससे खुशियों के पल रूठ जाते हैं। दुख और भूख की पीड़ा से बिलबिलाता परिवार  दया तथा करूणा का पात्र नजर आता है। कहा भी गया है कि-

विभुक्षितम् किं न करोति पापम्।

अर्थात् दरिद्रता की कोख से जन्मी भूख की पीड़ा से  पीड़ित मानव कौन जघन्यतम नहीं करने के लिए विवश होता।

लेकिन वहीं परिवार जब श्रद्धा  आत्मविश्वास और भरोसे के भावों को धारण कर लेता है और भक्ति तथा समर्पण उतर आता है  तो भगवान को भी मजबूर कर देता है  झुकने के लिए और भगवत पद धारण कर लेता है कम से कम सुदामा और कृष्ण का प्रसंग त़ो यही कहता है।

देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिके करुणानिधि रोए |

पानी परात को हाथ छुयो नहि नैनन के जल सो पग धोए।।

जो भगवान  भक्ति की पराकाष्ठा की परीक्षा लेने हेतु वामन की पीठ नाप लेते हैं वहीं भगवान दीन हीन सुदामा के पैर आंसुओं से धोते हैं।

भले ही इस कथा के तथ्य अतिशयोक्ति  के जान पड़ते हों, लेकिन भक्त के पांव पर गिरे मात्र एक बूंद प्रेमाश्रु  भक्त और भगवान के संबंधों की व्याख्या के लिए पर्याप्त है। यहां तुलना मात्रा से नहीं भाव की प्रबलता से की जानी चाहिए। पौराणिक मान्यता के अनुसार लक्ष्मी और दरिद्रा दोनों सगी बहन है दरिद्रता के मूल में अकर्मण्यता प्रमाद तथा आलस्य समाहित है जब कि संपन्नता के मूल में कठोर परिश्रम लगन कर्मनिष्ठा  समाहित है। कर्मनिष्ठ अपने श्रम की बदौलत अपने भाग्य की पटकथा लिखता है। दरिद्रता इंसान को आत्मसंतोषी बना देती है। जब की धन की भूख इंसान  में लोभ जगाती हैं।इस लिए कुछ मायनों में दरिद्रता  व्यक्ति के आत्मसंम्मान को मार देती है, उसमें स्वाभिमान  के भाव को जगाती भी है। इसी लिए सुदामा ने भीख मांगकर खाना स्वीकार किया लेकिन भगवान से उन्हें कुछ भी मांगना स्वीकार्य नहीं था।

और तो और संत कबीर दस जी  धनवान और निर्धन की अध्यात्मिक परिभाषा लिखते हुए कहते हैं कि

 कबीरा सब जग निर्धना, धनवंता न कोय ।

धनवंता सो जानिए, जिस पर रामनाम धन होय।।

इसीलिए रहीम दास जी ने लिखा

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दिनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।। 

अर्थात् दरिद्र की सेवा मानव को दीन बंधु दीनदयाल दीनानाथ जैसी उपाधियों से विभूषित कर देती है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 127 ☆ घर की तलाश ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख घर की तलाश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 127 ☆

☆ घर की तलाश

एक लम्बे अंतराल से उसे तलाश थी एक घर की, जहां स्नेह, सौहार्द, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव हो। परंतु पत्रकार को सदैव निराशा ही हाथ लगी।

आप हर रोज़ आते हैं और अब तक न जाने कितने घर देख चुके हैं। क्या आपको कोई घर पसंद नहीं आया?

–तुम्हारा प्रश्न वाज़िब है। मैंने बड़ी-बड़ी कोठियां देखी हैं–आलीशान बंगले देखे हैं–कंगूरे वाली ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं व हवेलियां भी देखी हैं;  जहां के बाशिंदे अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं और वहां व्याप्त रहता है अंतहीन मौन व सन्नाटा। यदि मैं उसे चहुंओर पसरी मरघट-सी ख़ामोशी कहूं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

–परंतु तुमने द्वार पर खड़ी चमचमाती कारें, द्वारपाल व जी-हज़ूरी करते गुलामों की भीड़ नहीं देखी, जो कठपुतली की भांति हर आदेश की अनुपालना करते हैं। परंतु मुझे तो वहां इंसान नहीं; चलते-फिरते पुतले नज़र आते हैं, जिनका संबंध-सरोकारों से दूर तक का कोई नाता नहीं होता। वहां सब जीते हैं अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी, जिसे वे सिगरेट के क़श व शराब के नशे में धुत्त होकर ढो रहे हैं।

आखिर तुम्हें कैसे घर की तलाश है?

–क्या तुम ईंट-पत्थर के मकान को घर की संज्ञा दे सकते हो,जहां शून्यता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। एक छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी-सम…कब, कौन, कहां, क्यों से दूर– समाधिस्थ।

–अरे विश्व तो ग्लोबल विलेज बन गया है; इंसानों के स्थान पर रोबोट अहर्निश कार्यरत हैं। मोबाइल ने सबको अपने शिकंजे में इस क़दर जकड़ रखा है, जिससे मुक्ति पाना सर्वथा असंभव है। आजकल सब रिश्ते-नातों पर ग्रहण लग गया है। हर घर के अहाते में दुर्योधन व दु:शासन घात लगाए बैठे हैं। सो! दो माह की बच्ची से लेकर नब्बे वर्ष की वृद्धा की अस्मिता भी सदैव दाँव पर लगी रहती है।

  • चलो छोड़ो! तुम्हारी तलाश तो कभी पूरी नहीं होगी, क्योंकि आजकल घरों का निर्माण बंद हो गया है। हम अपनी संस्कृति को नकार पाश्चात्य की जूठन ग्रहण कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं और बच्चों को सुसंस्कारित नहीं करते, क्योंकि हमारी भटकन अभी समाप्त नहीं हुई।
  • आओ! हम सब मिलकर आगामी पीढ़ी को घर-परिवार की परिभाषा से अवगत कराएं और दोस्ती व अपनत्व की महत्ता समझाएं, ताकि समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता स्थापित हो सके। हम अपने स्वर्णिम अतीत में लौटकर सुक़ून भरी ज़िंदगी जिएं, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का लेशमात्र भी स्थान न हो। संपूर्ण विश्व में अपनत्व का भाव दृष्टिगोचर हो और हम सब दिव्य, पावन निर्झरिणी में अवगाहन करें; जहां केवल ‘तेरा ही तेरा’ का बसेरा हो। हम अहं त्याग कर ‘मैं से हम’ बन जाएं और वहां कुछ भी ‘तेरा न मेरा’ हो।

●●●●●

30.3.2022

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 44 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 44 ??

अन्य-

ऊपर अति संक्षेप में कुछ ही तीर्थस्थानों की जानकारी दी जा सकी है। इन प्रतिनिधि तीर्थों के अलावा भी सनातन दृष्टि हर पग पर और हर रजकण में तीर्थ देखती है। इन तीर्थों में हरिद्वार, ऋषिकेश, जोशीमठ, गोमुख, हेमकुंड, नैना देवी, शुकताल, शाकंभरी, कुरुक्षेत्र, गढ़मुक्तेश्वर, मिथिला, सोनपुर, गया, बैद्यनाथ, वासुकिनाथ, गंगासागर, कामाख्या पीठ, नरसिंहपुर, कोल्हापुर, नागेश, परली वैजनाथ, आलंदी, देहू, नासिक, घृणेश्वर, शिरडी, त्र्यंबकेश्वर, महिसागर, सोमनाथ, अंबाजी, श्रीनाथद्वारा, एकलिंग जी, ओंकारेश्वर, महाकालेश्वर, करौली, अमरकंटक, श्रीशैलम, श्रीकूर्मम, भद्राचलम, पलक्का नृसिंह, तिरुवत्तियूर, तिरुक्कुलूकुंद्रम, महाबलीपुरम, कांची, कुंभकोणम, जनार्दन, गुरुवायूर, मीनाक्षी मंदिर आदि सम्मिलित हैं।

उनाकोटी हिल्स, त्रिपुरा में देवी-देवताओं की एक करोड़ से एक कम प्रतिमाएँ हैं। इस संख्या का कारण देने के लिए एक पौराणिक कथा भी प्रचलन में है। इसी प्रकार ‘न भूतो न भविष्यति’ का अनुपम उदाहरण है जम्मू का रघुनाथ मंदिर। इस मंदिर में 33 करोड़ देवी-देवताओं के नाम पढ़े जा सकते हैं। तथापि कुल मिलाकर यह सूची भी तीर्थों की संख्या का अत्यल्प अंश ही है।

सच तो यह है कि जहाँ मानसतीर्थ की संकल्पना हो, वहाँ कितने स्थावर तीर्थों की गणना की जा सकती है? यह ‘हरि अनंत, हरिकथा अनंता’ जैसी असीम यात्रा है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 94 ☆ समय के साथ बदलते रहें… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “समय के साथ बदलते रहें…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 94 ☆

☆ समय के साथ बदलते रहें… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

सभा कोई सी हो, बस विचारकों को ढूंढती रहती है। अब लोकसभा में न जीत पाएँ तो विधानसभा में जोर आजमाइश कीजिए। और यहाँ भी मुश्किल हो तो राज्यसभा या विधानपरिषद की सीट सुरक्षित कीजिए। बस कुछ न कुछ करते रहना है। कहते हैं राजनीति में कोई भी स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता है। बस कुर्सी ही सबकी माई- बाप है। कुर्सी बदलाव माँगती है, सो अधीरता दिखाते हुए उन्होंने विरोधियों को सूचीबद्ध कर दिया। मगर परिणाम उनकी आशा के विपरीत आया। अब गुस्से में ये लिस्ट उन्होंने बाहर फेंक दी। दूसरे दलों ने ये लिस्ट उठा कर सूची में शामिल लोगों को अपना विश्वास पात्र बना लिया क्योंकि दुश्मन का दुश्मन मित्र होता है। इन अनुभवी लोकोक्तियों ने जीने का अंदाज ही बदल दिया है। अब सब कुछ शॉर्टकट सेट हो रहा है। परिश्रम की बातें करना एक बात है, उसे अमल में लाना दूसरी बात है।

परिश्रम का प्रतिफल तभी सार्थक होता है जब नियत सच्ची हो। एक ही कार्य के दो पहलू हो सकते हैं। जल्दी-जल्दी कार्यकर्ताओं का परिवर्तन, जहाँ एक ओर ये सिद्ध करता है कि संगठन में कमीं हैं तो वहीं दूसरी ओर ये दर्शाता है कि समय-समय पर बदलाव होना चाहिए।

बुद्धिमान व्यक्ति वही होता है जो जिस पल मौका मिले अपने को सिद्ध कर सके क्योंकि समय व विचारधारा कब बदल जाए कहा नहीं जा सकता है। क्रमिक विकास के चरण में बच्चा पहले नर्सरी, प्री प्रायमरी, प्रायमरी, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक पढ़ते हुए विद्यालय से जुड़ जाता है किंतु आगे की पढ़ाई के लिए उसे  इंटर के बाद सब छोड़ कालेज जाना पड़ता है फिर वहाँ से डिग्री हासिल कर रोजी रोटी की तलाश में स्वयं को सिद्ध करना पड़ता है।

इस पूरी यात्रा का उद्देश्य यही है कि कितना भी लगाव हो उचित समय पर सब छोड़ आगे बढ़ना ही पड़ता है अतः केवल लक्ष्य पर केंद्रित हो हर पल को जीते चले क्योंकि भूत कभी आता नहीं भविष्य कहीं जाता नहीं। केवल वर्तमान पर ही आप अपने आप को निखार सकते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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