हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 24 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? त्रिकाल ?

कालजयी होने की लिप्सा में,

बूँद भर अमृत के लिए,

वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर,

महादेव, त्रिकाल भये! 

हलाहल की आशंका को पचाना, अमृत होने की संभावना को जगाना है। 

आप सभी मित्रों को महाशिवरात्रि की हार्दिक बधाई। महादेव की अनुकंपा आप सब पर बनी रहे। ? नम: शिवाय!

 – संजय भारद्वाज

 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 24 ??

श्री हरिगंगा मेला अधिकांश छोटे-बड़े मंदिरों में वार्षिक मेले की प्रथा और परंपरा है। तीर्थ क्षेत्र शूकरक्षेत्र सोरों कासगंज में भगवान का वराह अवतार लिया हुआ था। यहीं श्री हरिगंगा कुंड है। इस कुंड में डाली गई अस्थियाँ तीन दिन में जल में पूर्णत: विलीन हो जाती हैं। इस विषय को लेकर कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान भी हुए हैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सका है। वराह विग्रह ने अपनी काया भी यहीं तजी थी।

पुष्कर मेला- अजमेर से 11 किलोमीटर दूर स्थित पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा को यह मेला लगता है। मेले में पुष्कर झील में स्नान किया जाता है। श्रीरंग जी और अन्य मंदिरों के दर्शन की परंपरा है। इस अवसर पर लगने वाला पशु मेला विश्व भर में प्रसिद्ध है। इन पशुओं में भी विशेषकर ऊँट मेला खास आकर्षण का केंद्र होता है। इसी क्रम में अन्य अनेक स्थानों पर पशु मेला लगता है। इसी संदर्भ में कार्तिक पूर्णिमा से लगनेवाले पशु मेला उल्लेखनीय है। चीनी यात्री फाहियान ने चौथी सदी में की अपनी भारत यात्रा के संस्मरणों में इसका उल्लेख किया है। इनके अलावा भी देशभर में अनेक पशु मेला लगते हैं।

सूरजकुंड मेला-  समयानुकूल परिवर्तन एवं   मेले का आधुनिक रूप है हरियाणा का ‘सूरजकुंड मेला।’ यहाँ  शिल्पियों की हस्तकला के लिए पंद्रह  दिन हस्तशिल्प मेला लगाया जाता है।  यह मेला पिछले लगभग चार दशक से चल रहा है। हस्तशिल्पी, हथकरघा कारीगरों के लिए यह मेला एक अवसर होता है। विविध अंचलों के हस्तशिल्प, वस्त्रपरंपरा,  लोककला में रुचि रखनेवाले इस मेले में बड़ी संख्या में जुटते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”तीसरा विश्वयुद्ध!” ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आलेख – तीसरा विश्वयुद्ध!.)

☆ आलेख ☆ “तीसरा विश्वयुद्ध!☆ श्री राकेश कुमार ☆

(समसामयिक)

तीसरा विश्वयुद्ध! विगत अनेक वर्षों से इस शब्द को सुनते आ रहे हैं। कब होगा ?

पहला और दूसरा तो इतिहास बन चुके हैं। आने वाले विद्यार्थियों को एक विषय और इसकी तारीखें भी याद रखनी पढ़ेगी। हमारे सोशल मीडिया तो हमेशा से मज़े लेने में अग्रणी रहता ही हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी चौबीसों घंटे रक्षा विशेषज्ञों के मुंह में अपने शब्द डालकर उनको भी अपनी विचार-वार्ता का भाग बनाने में गुरेज़ नही करते। नए नए विश्व के राजनैतिक समीकरण और ना जाने अपनी कल्पना की उड़ान से सामरिक महत्व की बातों से मीडिया प्रतिदिन नई सामग्री परोस का अपनी टीआरपी को बढ़ा कर विज्ञापन की दरों से अपनी आय में वृद्धि कर रहे हैं।

केन्द्रीय सरकार के कुछ मंत्री यूक्रेन के पड़ोसी देश रवाना हो गए हैं। इसी प्रकार अनेक राज्य सरकारों ने भी अपने आला अधिकारियों को दिल्ली और मुंबई में वापिस आए हुए छात्राओं के स्वागत के लिए तैनात कर दिया हैं। संभवतः ……! 

हॉलीवुड और बॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं को भी एक विषय मिल गया है। उन्होंने भी अपने फिल्मी लेखकों को इस कार्य के लिए बयाना भी दे दिया होगा।सुनने में आया है,कुछ फिल्मों के टाइटल भी इस बाबत रजिस्टर्ड करवा लिए हैं।

हमारे भविष्य वक्ता अपनी पंचांग में छपी हुई भविष्य वाणी सच साबित बता कर अपने पंचांग की वृद्धि करने में लग गए हैं।हर कोई अपनी दुकान / व्यापार में यूक्रेन युद्ध को भंजा रहा हैं। दूसरों के घर में लगी हुई आग पर हर कोई रोटियां सेकने की कोशिश कर रहा हैं। टेंशन और खोफ का वातावरण बनाए जाने के प्रयास चारो दिशाओं में हो रहे हैं।

क्या यह आपदा में अवसर नहीं है?  

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 23 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 23 ??

नौचंदी मेला-  मेरठ में प्रतिवर्ष लगने वाला नौचंदी मेला हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक है। नवचंडी का अपभ्रंश कालांतर में नौचंदी हो गया।  नौचंदी देवी  एवं हजरत बाले मियाँ की दरगाह एक दूसरे के पास हैं। मंदिर में भजन और दरगाह पर कव्वाली का अद्भुत दृश्य इस मेले में देखने को मिलता है। घंटी और शंख के बीच अजान की आवाज़ और मंत्रों के उच्चारण का इंद्रधनुष इस मेले में खिलता है। नौचंदी मेला सामासिकता और एकात्मता का जीता जागता उदाहरण है। यह मेला चैत्र मास की नवरात्रि से एक सप्ताह पहले आरंभ होता है तथा एक माह तक चलता है।

शहीद मेला-  1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय की घटना है। 14 अगस्त 1942 को मैनपुरी के बेवर नामक स्थान पर कुछ छात्रों ने ध्वज यात्रा निकाली। छात्रों और देशप्रेमी जनसमुदाय ने थाने पर कब्जा कर लिया। अतिरिक्त पुलिस बल बुलाकर इन्हें वहाँ से हटाया गया। अगले दिन 15 अगस्त 1942 को थाने पर भीड़ ने भारत का झंडा फहरा दिया। पुलिस ने गोलियां चलाईं। इस कांड में 14 वर्षीय कृष्ण कुमार, 42 वर्षीय जमुना प्रसाद त्रिपाठी, 40 वर्षीय सीताराम गुप्त  शहीद हो गए।

शहीद अशफाकउल्ला का एक प्रसिद्ध शेर है,

शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले,

वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

संभवत: ऐसी ही कोई भावना रही होगी कि इस बलिदान की स्मृति में 1972 में स्वर्गीय जगदीश नारायण त्रिपाठी ने ‘शहीद मेला’ आरंभ किया। स्वाधीनता के युद्ध में शहीद हुए लोगों के स्मृति में यह मेला 19 दिनों तक चलता है। यहाँ शहीद मंदिर भी है। शहीदों की फोटो प्रदर्शनी, शहीदों के परिजनों का सम्मान ,स्वतंत्रता सेनानी सम्मान, रक्तदान , राष्ट्रीय एकता सम्मेलन इसे विशिष्ट बनाते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ महिनाअखेरचे पान – 2 ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? विविधा ?

महिनाअखेरचे पान – 2☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

महिनाअखेरचे  पान

पौषाचे काही दिवस आणि माघाचे काही दिवस घेऊन येतो फेब्रुवारी महिना. इंग्रजी कालगणनेतील वर्षाचा दुसरा महिना. बारा महिन्यांतील आकाराने सर्वात छोटा महिना. छोटा असला तरी एक मोठ काम त्याच्याकडे दिलं आहे. ते म्हणजे कालगणनेत सुसूत्रता आणण्याचे. दर तीन वर्षांनी येणारे ‘लीप इयर’ या महिन्यामुळेच साजरे होऊ शकते .

तीस आणि एकतीस तारीख बघण्याचे भाग्य फेब्रुवारीला लाभत नाही पण दर तीन वर्षांनी एकोणतीस तारीख या महिन्याला दर्शन देते आणि या दिवशी जन्मलेल्याना आपला खराखुरा वाढदिवस साजरा करण्याचे भाग्य लाभते.

अशा या फेब्रुवारी महिन्यात अनेक थोर व्यक्तींचा जन्म दिवस हा जयंती म्हणून साजरा केला जातो.  याच महिन्यात असते गणेश जयंती. हिंदवी स्वराज्य संस्थापक छ. शिवरायांची जयंती याच महिन्यात असते. तसेच ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज, संत रोहिदास, संत गाडगेबाबा, शेगावचे संत गजानन महाराज या सर्वांच्या जयंती समारोहांमुळे त्यांचे विचार, शिकवण यांचा विचार केला जातो. काही चांगले उपक्रम राबवले जातात. संत वाड्मयाचे वाचन होते.

माघ कृष्ण नवमी या दिवशी समर्थ रामदास स्वामी समाधीस्त झाले. हा दिवस दास नवमीचा. याच महिन्यात असते स्वा. सावरकर आणि वासुदेव बळवंत फडके या दोन क्रांतीकारकांची पुण्यतिथी. इतिहासातील क्रांतीकारक घटनांचे त्यानिमीत्ताने स्मरण होते. संतांची शिकवण आणि क्रांतिकारकांचे विचार आपल्या पुढील वाटचालीसाठी उपयुक्त ठरतात.      

माघ शुद्ध सप्तमी हा दिवस  रथसप्तमीचा.  भारतीय परंपरेप्रमाणे हा दिवस सूर्याचा जन्मदिवस मानला जातो. सूर्यनमस्काराचे महत्व लक्षात घेऊन  जागतिक सूर्यनमस्कार दिन याच दिवशी साजरा होतो.  या दिवसाला आरोग्य सप्तमी असेही म्हणतात.   पारंपारिक उत्सवांबरोबर अशा उपक्रमांमुळे आधुनिक, विज्ञानवादी विचारांना  चालना मिळते.

माघ शुक्ल पंचमी म्हणजे वसंत पंचमी. वसंत ऋतूचे आगमन झालेले असते. सृष्टीत वसंताचे वैभव फुलू लागलेले असते. या वसंताचे स्वागत करण्यासाठी वसंत पंचमी किंवा ऋषी पंचमी साजरी होते. या दिवशी सरस्वती देवीचे पूजन करण्याची प्रथा आहे.

मराठीतील ज्येष्ठ कवी, ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त,  कविवर्य कुसुमाग्रज यांचा जन्मदिन सत्तावीस फेब्रुवारीला असतो. हा दिवस मराठी भाषा गौरव दिन म्हणून साजरा केला जातो. या निमित्ताने मराठी भाषेचे जतन आणि संवर्धन करण्याच्या चळवळीला अधिक बळ प्राप्त होते.          

जोहान्स गटेनबर्ग या जर्मन लोहव्यावसायिकाने जगाला आधुनिक मुद्रण कलेची देणगी दिली. चोवीस फेब्रुवारी हा त्यांचा जन्मदिवस.  त्यामुळे हा दिवस जागतिक मुद्रण दिन म्हणूनसाजरा केला जातो.

थोर भारतीय भौतिकशास्त्रज्ञ चंद्रशेखर व्यंकटरामन् यांनी 28/02/1928  ला लावलेला शोध ‘रामन इफेक्ट’ या नावाने प्रसिद्ध आहे. समाजात विज्ञानरूची वाढावी व विज्ञानजागृती व्हावी या उद्देशाने हा दिवस राष्ट्रीय विज्ञान दिन म्हणून साजरा केला जातो.

असा हा फेब्रुवारी महिना. धार्मिक, सामाजिक, वैज्ञानिक अशा सर्वच घटनांनी गजबजलेला महिना खूप लवकर संपला असं वाटतं. काळ मात्र पुढे ‘मार्च’करत असतो. येणा-या मार्च महिन्याच्या दिशेने !

© सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 127 ☆ स्टैच्यू..! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 127 ☆ स्टैच्यू..! ?

संध्याकाल है। शब्दों का महात्म्य देखिए कि प्रत्येक व्यक्ति उनका अर्थ अपने संदर्भ से ग्रहण कर सकता है। संध्याकाल, दिन का अवसान हो सकता है तो जीवन की सांझ भी। इसके सिवा भी कई संदर्भ हो सकते हैं। इस महात्म्य की फिर कभी चर्चा करेंगे। संप्रति घटना और उससे घटित चिंतन पर मनन करते हैं।

सो अस्त हुए सूर्य की साक्षी में कुछ सौदा लेने बाज़ार निकला हूँ। बाज़ार सामान्यत: पैदल जाता हूँ। पदभ्रमण, निरीक्षण और तदनुसार अध्ययन का अवसर देता है। यूँ भी मुझे विशेषकर मनुष्य के अध्ययन में ख़ास रुचि है। संभवत: इसी कारण एक कविता ने मुझसे लिखवाया, ‘उसने पढ़ी आदमी पर लिखी किताबें/ मैं आदमी को पढ़ता रहा।’

आदमी को पढ़ने की यात्रा पुराने मकानों के बीच की एक गली से गुज़री। बच्चों का एक झुंड अपने कल्लोल में व्यस्त है। कोई क्या कह रहा है, समझ पाना कठिन है। तभी एक स्पष्ट स्वर सुनाई देता है, ‘गौरव स्टेच्यू!’ देखता हूँ एक लड़का बिना हिले-डुले बुत बनकर खड़ा हो गया है। . ‘ ऐ, जल्दी रिलीज़ कर। हमको खेलना है’, एक आवाज़ आती है। स्टैच्यू देनेवाली बच्ची खिलखिलाती है, रिलीज़ कर देती है और कल्लोल जस का तस।

भीतर कल्लोल करते विचारों को मानो दिशा मिल जाती है। जीवन में कब-कब ऐसा हुआ कि परिस्थितियों ने कहा ‘स्टैच्यू’ और अपनी सारी संभावनाओं को रोककर बुत बनकर खड़ा होना पड़ा! गिरना अपराध नहीं है पर गिरकर उठने का प्रयास न करना अपराध है। वैसे ही नियति के हाथों स्टैच्यू होना यात्रा का पड़ाव हो सकता है पर गंतव्य नहीं। ऐसे स्टैच्यू सबके जीवन में आते हैं। विलक्षण होते हैं जो स्टैच्यू से निकलकर जीवन की मैराथन को नये आयाम और नयी ऊँचाइयाँ देते हैं।

नये आयाम देनेवाला ऐसा एक नाम है अरुणिमा सिन्हा का। अरुणिमा, बॉलीबॉल और फुटबॉल की उदीयमान युवा खिलाड़ी रहीं। दोनों खेलों में अपने राज्य उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुकी थीं। सन 2011 में रेलयात्रा करते हुए बैग और सोने की चेन लुटेरों के हवाले न करने की एवज़ में उन्हें चलती रेल से नीचे फेंक दिया गया। इस बर्बर घटना में अरुणिमा को अपना एक पैर खोना पड़ा। केवल 23 वर्ष की आयु में नियति ने स्टैच्यू दे दिया।

युवा खिलाड़ी अब न फुटबॉल खेल सकती थी, न बॉलीबॉल। नियति अपना काम कर चुकी थी पर अनेक अवरोधक लगाकर सूर्य के आलोक को रोका जा सकता है क्या? कृत्रिम टांग लगवाकर अरुणिमा ने पर्वतारोहण का अभ्यास आरम्भ किया। नियति दाँतो तले उँगली दबाये देखती रह गयी जब 21 मई 2013 को अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट फतह कर लिया। अरुणिमा सिन्हा स्टैच्यू को झिंझोड़कर दुनिया की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचने वाली पहली भारतीय दिव्यांग महिला पर्वतारोही बनीं।

चकबस्त का एक शेर है,

कमाले बुज़दिली है, पस्त होना अपनी आँखों में
अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो क्या हो सकता नहीं।

स्टैच्यू को अपनी जिजीविषा से, अपने साहस से स्वयं रिलीज़ करके, अपनी ऊर्जा के सकारात्मक प्रवाह से अरुणिमा होनेवालों की अनगिनत अद्भुत कथाएँ हैं। अपनी आँख में विजय संजोने वाले कुछ असाधारण व्यक्तित्वों की प्रतिनिधि कथाओं की चर्चा उवाच के अगले अंकों में करने का यत्न रहेगा। प्रक्रिया तो चलती रहेगी पर कुँवर नारायण की पंक्तियाँ सदा स्मरण रहें, ‘हारा वही जो लड़ा नहीं।’..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 22 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 22 ??

भारत के प्रसिद्ध प्रतिनिधि मेला-

कुंभ मेला- संस्कृत शब्द ‘कुंभ’ का अर्थ घड़ा होता है। कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। 1989 में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में 5 फरवरी को प्रयागराज के मेले में डेढ़ करोड़ लोगों की उपस्थिति और स्नान की पुष्टि की जो एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी। 2001 में 24 जनवरी को प्रयागराज में अधिकृत रूप से तीन करोड़ लोग उपस्थित थे। अध्यात्म, संस्कृति, धर्म, व्यापार, परंपरा, हर दृष्टि से इसका अनन्य स्थान है। समय साक्षी है कि मानव ने जलस्रोतों के निकट बस्तियाँ बसाईं। यही कारण है कि कुंभ मेला विशाल जलराशि वाले  प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नाशिक, प्रत्येक नगर में बारह वर्ष के अंतराल से कुंभ होता है। प्रयागराज में छह वर्ष के अंतराल पर अर्द्धकुंभ भी होता है। हमारी परंपरा में नदियाँ अमृतकुंभ कहलाती हैं। अमृतकुंभ के किनारे जनकुंभ की साक्षी हरिद्वार में माँ गंगा बनती हैं। प्रयागराज में गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम इसका साक्षी होता है। उज्जैन और नासिक में क्रमश: क्षिप्रा और गोदावरी यह दायित्व वहन करती हैं।

मान्यता है कि क्षीरसागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश को लेकर देवराज इंद्र के पुत्र जयंत नभ में उड़ चले। पीछा करते दानवों ने धावा बोला तो जयंत के हाथ का कलश थोड़ा-सा छलक पड़ा।  इससे पृथ्वी पर उपरोक्त चार स्थानों पर अमृत की बूँदें गिरीं। इसी संदर्भ के कारण इन नगरों में कुंभ का आयोजन होता है।

कुंभ मेला मकर संक्रांति से आरंभ होता है। ज्योतिष के अनुसार इस समय बृहस्पति, कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तथा सूर्य का मेष राशि में प्रवेश होता है। ग्रहों की स्थिति उन दिनों हरिद्वार स्थित  हर की पौड़ी के गंगाजल को औषधीय प्रभाव से युक्त करती है। यही कारण है इस अवधि में यहाँ स्नान करना आरोग्य के लिए लाभदायक  माना गया है। गंगा माँ के तो दर्शनमात्र को मुक्ति का साधन.माना गया है। कहा गया है, ‘गंगे तवदर्शनात् मुक्ति!’

कुंभ में मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, एकादशी, मौनी अमावस्या के दिन स्नान करना विशेष फलदायी माना जाता है।

कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। जो कारण,  मेले के लिए आधार का काम करते हैं, वे सभी इसमें विस्तृत स्तर पर दृष्टिगोचर होते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हमारी संस्कृति हमारी पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ आलेख ☆ हमारी संस्कृति हमारी पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

“हमारी संस्कृति हमारी पहचान है।

भारतीय संस्कृति महत्वपूर्ण वरदान है।”

किसी भी राष्ट्र की पहचान के पहलूओं मे उसकी संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान  होता है।भारत सदियों से अपनी संस्कृति और विरासत के लिए विश्व धरातल पर जाना जाता है।परन्तु वर्तमान दौर मे हम इस संबंध मे पिछड़ते जा रहे है। आखिर क्यों?इसका मुख्य कारण है बदलता परिवेश।

भारतीय संस्कृति मे आये कुछ अहितकारी बदलाव इसके स्पष्ट संकेत है।हमारी संस्कृति सदैव “अतिथि देवो भव्” के लिए जानी जाती है परन्तु विगत कुछ वर्षो मे विदेशी सैलानियों मुख्यतः महिलाओ से अत्याचार, घिनौनी एवं शर्मनाक उत्पीड़ना ,यौन हिंसा ने इसे शर्मशार किया है। “वसुधैव कुटुम्बकम” का भाव सदैव से धारण किये हुए भारतीय समाज ने समग्र वसुधा को अपना परिवार माना है।परन्तु वर्तमान मे विश्व तो दूर सामूहिक परिवार मे ही कलह देखने को मिलते है। आखिर क्यों?

क्षेत्र,राज्य और समुदाय के नाम पर हुए बटवारे ने भारत को बाँट दिया है। “अनेकता मे एकता” के लिए विश्व विख्यात भारत आज धर्म के नाम पर विभाजित होता प्रतीत हो रहा है।कबीर दास जी ने कहा था “भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां हिन्दू व मुस्लिम एक ही घाट पर पानी भरते है ऐसे राष्ट्र मे जन्म लेना मेरा सौभाग्य है।

“होली, दिवाली, ईद हो, रमजान या अन्य त्यौहार जहाँ सभी भारतीय एक साथ मनाते थे। त्योहार किसी विशेष धर्म का ना होकर समग्र राष्ट्र का था, जहाँ मुस्लिम फटाके फोड़ते थे व हिन्दू ईद मुबारक कहते थे ऐसे राष्ट्र मे आज धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे हो रहे है! अनेकों निर्दोषो की जानें जा रही है ! जिसका उदाहरण हाल ही मे हुई कुछ घटनाओ से ज्ञात होता है। और तो और ऋषि, मुनियो की इस संस्कृति को कुछ ढोंगी पीर बाबाओ ने शर्मसार  किया है।

हिन्दी भाषा के कारण विश्व धरातल पर पहचान प्राप्त करने वाले भारतीय आज हिन्दी बोलने से कतराने लगे है।आज के समय में रामायण व गीता कुछ ही घरो मे मिलेगी। अगर मिलेगी भी तो धूल से धूमिल या गुम होती हुई।क्या यही है हमारी संस्कृति ?

अगर हम सभी भारतीय है और अपनी संस्कृति का संरक्षण और हिफाजत चाहते है तो प्रेम स्नेह ,सहयोग  सदभावना, बसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओत प्रोत क्यों नही कर देते ? क्यों नही है सभी एक साथ मिलकर भाईचारा ,सौहार्द प्रेम का बीज बो देते ?

क्यों हम पीछे हट जाते है विदेशी ताकत से?

क्यों नही है सभी अपनी भारत माता, अपनी प्रकृति की रक्षा कर सकते?

अगर हम सभी वैचारिक समभाव से आगे बढ़े, अपने देश के प्रति प्रेम, अपनी धरती माता की तड़पती पुकार को सुनें तो निश्चित ही हम सभी एक जुट होकर ये सब कर सकेंगे और महाराज श्री अग्रसेन के लाल कहलाने पर हम गर्व महसूस करेंगे।

धूमिल सी हो गई है वो यादें जब  गाँवो मे चौपालो पर बुजुर्गो की भीड़ मिलती थी, अब कही देखने को नही मिलती। यूं समझिए जैसे  पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करने की तो रीति रिवाज कही गुम सी हो गयी है।

“अहिंसा परमो धर्म्” के भाव वाले इस राष्ट्र मे विगत कुछ वर्षो मे हुई हिंसा ने समग्र विश्व को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या ये वही देश है जहाँ गांधी जैसे शांतिप्रिय दूत ने अहिंसा का संदेश दिया था? बेशक योग को विश्व धरातल पर लाकर भारत ने ये साबित भी किया कि वो आज भी विश्व गुरु है। हमारी भारतीय संस्कृति सदैव से अमर रही है।क्योंकि यह स्वयं मे सम्पूर्ण को समेटे हुए है। परन्तु इसकी पहचान कही खोती जा रही है।हमारी कुछ कमियों ने ,कुछ ऐसे कृत्यों ने इसे दागदार बना दिया है।भौतिकवादी इस युग मे हम इतना गुम हो गए हैं कि हम भूल गए हैं की अपनी संस्कृति ही अपनी पहचान है।

जरूरत है हमे जरूरत है भारतीय संस्कृति के संरक्षण और हिफाजत की हमें जरूरत है।

संरक्षण और हिफाजत करके इसे आगे बढ़ाने की हमें जरूरत है।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 122 ☆ कोरोना और भूख ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और भूख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 122 ☆

☆ कोरोना और भूख

कोरोना बाहर नहीं जाने देता और भूख भीतर नहीं रहने देती। आजकल हर इंसान दहशत के साये में जी रहा है। उसे कल क्या, अगले पल की भी खबर नहीं। अब तो कोरोना भी इतना शातिर हो गया है कि वह इंसान को अपनी उपस्थिति की खबर ही नहीं लगने देता। वह दबे पांव दस्तक देता है और मानव शरीर पर कब्ज़ा कर बैठ जाता है। उस स्थिति में मानव की दशा उस मृग के समान होती है, जो रेगिस्तान में सूर्य की चमकती किरणों को जल समझ कर दौड़ता चला जाता है और वह बावरा मानव परमात्मा की तलाश में इत-उत भटकता रहता है। अंत में उसके हाथ निराशा ही लगती है, क्योंकि परमात्मा तो आत्मा के भीतर बसता है। वह अजर, अमर, अविनाशी है। उसी प्रकार कोरोना भी शहंशाह की भांति हमारे शरीर में बसता है, जिससे सब अनभिज्ञ होते हैं। वह चुपचाप वार करता है और जब तक मानव को रोग की खबर मिलती है,वह लाइलाज घोषित कर दिया जाता है। घर से बाहर अस्पताल में क्वारेंटाइन कर दिया जाता है और आइसोलेशन में परिवारजनों को उससे मिलने भी नहीं दिया जाता। तक़दीर से यदि वह ठीक हो जाता है, तो उसकी घर-वापसी हो जाती है, अन्यथा उसका दाह-संस्कार करने का दारोमदार भी सरकार पर होता है। आपको उसके अंतिम दर्शन भी प्राप्त नहीं हो सकते। वास्तव में यही है– जीते जी मुक्ति। कोरोना आपको इस मायावी संसार ले दूर जाता है। उसके बाद कोई नहीं जानता कि क्या हो रहा है आपके साथ… कितनी आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है आपको… और अंत में किसी से मोह-ममता व लगाव नहीं; उसी परमात्मा का ख्याल … है न यह उस सृष्टि-नियंता तक पहुंचने का सुगम साधन व कारग़र उपाय। यदि कोई आपके प्रति प्रेम जताना भी चाहता है, तो वह भी संभव नहीं, क्योंकि आप उन सबसे दूर जा चुके होते हो।

परंतु भूख दो प्रकार की होती है… शारीरिक व मानसिक। जहां तक शारीरिक भूख का संबंध है, भ्रूण रूप से मानव उससे जुड़ जाता है और अंतिम सांस तक उसका पेट कभी नहीं भरता। मानव उदर-पूर्ति हेतु आजीवन ग़लत काम करता रहता है और चोरी-डकैती, फ़िरौती, लूटपाट, हत्या आदि करने से भी ग़ुरेज़ नहीं करता। बड़े-बड़े महल बनाता है, सुरक्षित रहने के लिए, परंतु मृत्यु उसे बड़े-बड़े किलों की ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे से भी ढूंढ निकालती है। सो! कोरोना भी काल के समान है, कहीं भी, किसी भी पल किसी को भी दबोच लेता है। फिर इससे घबराना व डरना कैसा? जिस अपरिहार्य परिस्थिति पर आपका अंकुश नहीं है, उसके सम्मुख नतमस्तक होना ही बेहतर है। सो! आत्मनिर्भर हो जाइए, डर-डर कर जीना भी कोई ज़िंदगी है। शत्रु को ललकारिए, परंतु सावधानी-पूर्वक। इसलिए एक-दूसरे से दो गज़ की दूरी बनाए रखिए, परंतु मन से दूरियां मत बनाइए। इसमें कठिनाई क्या है? वैसे भी तो आजकल सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं… एक छत के नीचे रहते हुए अजनबीपन का एहसास लिए…संबंध-सरोकारों से बहुत ऊपर। सो! कोरोना तो आपके लिए वरदान है। ख़ुद में ख़ुद को तलाशने व मुलाकात करने का स्वर्णिम अवसर है, जो आपको राग-द्वेष व स्व-पर के बंधनों से ऊपर उठाता है। इसलिए स्वयं को पहचानें व उत्सव मनाएं। कोरोना ने आपको अवसर प्रदान किया है, निस्पृह भाव से जीने का; अपने-पराये को समान समझने का… फिर देर किस बात की है। अपने परिवार के साथ प्रसन्नता से रहिए। मोबाइल व फोन के नियंत्रण से मुक्त रहिए, क्योंकि जब आप किसी के लिए कुछ कर नहीं सकते, तो चिन्ता किस बात की और तनाव क्यों? घर ही अब आपका मंदिर है, उसे स्वर्ग मान कर प्रसन्न रहिए। इसी में आप सबका हित है। यही है ‘ सर्वे भवंतु सुखिनः ‘ का मूल, जिसमें आप भरपूर योगदान दे सकते हैं। सो! अपने घर की लक्ष्मण-रेखा न पार कर के, अपने घर में ही अलौकिक सुख पाने का प्रयास कीजिए। लौट आइए! अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर…तनिक चिंतन कीजिए, कैसे ऋषि-मुनि वर्षों तक जप-तप करते थे। उन्हें न भूख सताती थी; न ही प्यास। आप भी तो ऋषियों की संतान हैं। ध्यान-समाधि लगाइए– शारीरिक भूख-प्यास आप के निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाएगी और आप मानसिक भूख पर स्वतः विजय प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे।

आधुनिक युग में आपके बुज़ुर्ग माता-पिता तो वैसे भी परिवार की धुरी में नहीं आते। बच्चों के साथ खुश रहिए। एक-दूसरे पर दोषारोपण कर घर की सुख-शांति में सेंध मत लगाइए। पत्नी और बच्चों पर क़हर मत बरसाइए, क्योंकि इस दशा के लिए दोषी वे नहीं हैं। कोरोना तो विश्वव्यापी समस्या है। उसका डटकर मुकाबला कीजिए। अपनी इच्छाओं को सीमित कर ‘दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ में मस्त रहिए। वैसे भी पत्नी तो सदैव बुद्धिहीन अथवा दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है। सो! उस निर्बल व मूर्ख पर अकारण क्रोध व प्रहार क्यों? बच्चे तो निश्छल व मासूम होते हैं। उन पर क्रोध करने से क्या लाभ? उनके साथ हंस-बोल कर अपने बचपन में लौट जाइए, क्योंकि यह सुहाना समय है…खुश रहने का; आनंदोत्सव मनाने का। ज़रा! देखो तो सदियों बाद कोरोना ने सबकी साध पूरी की है… ‘कितना अच्छा हो, घर बैठे तनख्वाह मिल जाए… रोज़ की भीड़ के धक्के खाने से  मुक्ति प्राप्त हो जाए…बॉस की डांट-फटकार का भी डर न हो और हम अपने घर में आनंद से रहें।’ लो! सदियों बाद आप सबको मनचाहा प्राप्त हो गया…परंतु बावरा मन कहां संतुष्ट रह पाता है, एक स्थिति में…वह तो चंचल है। परिवर्तनशीलता सृष्टि का नियम है। मानव अब तथाकथित स्थिति में छटपटाने लगा है और उस से तुरंत मुक्ति पाना चाहता है। परंतु आधुनिक परिस्थितियां मानव के नियंत्रण में नहीं हैं। अब तो समझौता करने में ही उसका हित है। सो! मोबाइल फोन को अपना साथी बनाइए और भावनाओं पर नियंत्रण रखिए, क्योंकि तुम असहाय हो और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। तुम्हारी आवाज़ तो  दीवारों से टकराकर लौट आएगी।

औरत की भांति हर विषम परिस्थिति में ओंठ सी कर व मौन रह कर खुश रहना सीखिए और सर्वस्व समर्पण कर सुक़ून की ज़िंदगी गुज़ारिए। यहां तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। अब सृष्टि-नियंता की कारगुज़ारियों को साक्षी भाव से देखिए, क्योंकि तुमने मनमानी कर धन की लालसा में प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है, यहां तक कि अब तो हवा भी सांस लेने योग्य नहीं रह गयी है। पोखर, तालाब नदी-नालों पर कब्ज़ा कर उस भूमि पर कंकरीट की इमारतें बना दी हैं। इसलिए मानव को बाढ़, तूफ़ान, सुनामी, भूकंप, भू-स्खलन आदि का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। जब इस पर भी मानव सचेत नहीं हुआ, तो प्रकृति ने कोरोना के रूप में दस्तक दी है।

इसलिए कोरोना, अब काहे का रोना। इसमें दोष तुम्हारा है। अब भी संभल जाओ, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब सृष्टि में पुनः प्रलय आ जाएगी और विनाश ही विनाश चहुंओर प्रतिभासित होगा। इसलिए गीता के संदेश को अपना कर निष्काम कर्म करें। मानव इस संसार में खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे जाना है। इस नश्वर संसार में अपना कुछ नहीं है। इसलिए प्रेम व नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करो। न जाने! कौन-सी सांस आखिरी सांस हो जाए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 21 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 21 ??

आजकल विवाह सम्बंधी ऑनलाइन ‘मैरिज साइट्स’ हैं। इन साइट्स के माध्यम से विवाहयोग्य लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे के बारे में जानते हैं। आवश्यकता पड़ने पर साइट्स दोनों के बीच वरचुअल मीटिंग की व्यवस्था भी करती हैं। जब तक तकनीक नहीं आई थी,  लड़का- लड़की  के ‘एक्चुअल’ देखने दिखाने के काम मेले में ही हो जाते थे। मेला अधिकृत ‘ऑफलाइन’ वर-वधू परिचय सम्मेलन स्थल थे। छोटे गाँवों-कस्बों में आज भी यह चलन बना हुआ है।

प्रेम जीवन की धुरी है। इसके बिना जीवन की संभावनाएँ प्रसूत नहीं होतीं। रसखान लिखते हैं,

प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।

जो आवत एहि ढिग, बहुरि, जात नाहिं रसखान।।

इस अगम, अनुपम, अमित प्रेम में मिलने की उत्कट भावना होती है। इस भावना को व्यक्त होने और मिलने का अवसर प्रदान करता है मेला। बहुत अधिक बंदिशों वाले समय में भी मेला, बेरोकटोक मिल सकने का सुरक्षित स्थान रहा।

पशु व्यापार, कृषि उपज, कृषि के औजार, वनौषधि आदि की दृष्टि से भी मेले उपयोगी व लाभदायी होते हैं। केवल उपयोगी और अनुपयोगी में विभाजित करनेवाली सांप्रतिक संकुचित वृत्ति के समय में ‘मेला’ की उपयोगिता और जनमानस में गहरी पैठ इस बात से ही समझी जा सकती है कि अब तो कॉर्पोरेट जगत अपनी व्यापारिक प्रदर्शनियों के लिए इसका धड़ल्ले से उपयोग करने लगा है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 20 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 20 ??

मेलों का महत्त्व-

मेला भीड़ से लगता है, भीड़ से सजता है। जहाँ भी समूह होगा, वहाँ संभावनाएँ भी बहुगुणित होती जाती हैं। इन संभावनाओं के मूल में धर्म, अर्थ, समाज, संस्कृति, नीति, राजनीति, व्यापार-व्यवसाय, सहयोग, दर्शन, प्रदर्शन, लाभ आदि सभी विद्यमान होते हैं। सामान्यत: मेला एक क्षेत्र विशेष में एक लक्ष्य, एक उद्देश्य विशेष को लेकर आयोजित करने की परंपरा यही है। यह  राजा से रंक तक सभी के लिए उपयोगी होता है।

मेलों में बड़े स्तर पर आर्थिक व्यवहार होता है। बड़े व्यापारियों/व्यवसायियों के साथ छोटे-छोटे दुकानदार भी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। ग्राहक के लिए भाँति-भाँति प्रकार की वस्तुएँ एक स्थान पर लेने का यह अवसर होता है। यह अलग बात है कि मॉल और ऑनलाइन क्रय-विक्रय के इस समय में मेला बहुत पीछे छूटता जा रहा है। तथापि इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि मॉल की संकल्पना के मूल में मेला ही रहा है।

मेलों में मनोरंजन के साधन और करतब का विशेष आकर्षण होता है। बाल-गोपालों की इसमें विशेष रुचि होती है। हर माता-पिता अपनी संतान को आनंद के अधिकाधिक क्षण देना चाहता है। इसके चलते मनोरंजन के आयोजनों का अच्छा कारोबार होता है।

लोक-कलाकारों, हस्त शिल्पकारों, गायक/गायिकाओं, विभिन्न कलाकारों के लिए मेला बड़ा मंच होता है। यहाँ वे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकते हैं। साथ ही यह आय का साधन भी बनता है।

धार्मिक कारणों से लगनेवाले मेलों में साधु-संत बड़ी संख्या में आते हैं। आम आदमी के लिए इन संतों के दर्शन का यह विशेष अवसर होता है। संत समाज के लिए भी यह जनता के बीच आने, उनकी समस्याएँ जानने की भवभूमि बनता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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