हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 104 ☆ अहं, क्रोध, काम व लोभ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहं, क्रोध, काम व लोभ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 104 ☆

☆ अहं, क्रोध, काम व लोभ ☆

‘अहं त्याग देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने पर वह शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान हो जाता है और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है’– युधिष्ठिर की यह उक्ति विचारणीय है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है क्योंकि जब तक उसमें ‘मैं’ अथवा कर्त्ता का भाव रहेगा, तब तक उसके लिए उन्नति के सभी मार्ग बंद हो जाते हैं। जब तक उसमें यह भाव रहेगा कि मैंने ऐसा किया और इतने पुण्य कर्म किए हैं, तभी यह सब संभव हो सका है। ‘जब ‘मैं’ यानि अहंकार जाएगा, मानव स्वर्ग का अधिकारी बन पाएगा और उसे इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी’– प्रख्यात देवाचार्य महेंद्रनाथ का यह कथन अत्यंत सार्थक है। अहंनिष्ठ व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं हो सकता और कोई भी उससे बात तक करना पसंद नहीं करता। वह अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है, क्योंकि सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे सबसे दूर रहने पर विवश कर देता है।

वैसे तो किसी से उम्मीद रखना कारग़र नहीं है। ‘परंतु यदि आप किसी से उम्मीद रखते हैं, तो एक न एक दिन आपको दर्द ज़रूर होगा, क्योंकि उम्मीद एक न एक दिन अवश्य टूटेगी और जब यह टूटती है, तो बहुत दर्द होता है’– विलियम शेक्सपियर यह कथन अनुकरणीय है। जब मानव की इच्छाएं पूर्ण होती है, तो वह दूसरों से सहयोग की उम्मीद करता है, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं होती। उस स्थिति में जब हमें दूसरों से अपेक्षित सहयोग प्राप्त नहीं होता, तो मानव हैरान-परेशान हो जाता है और जब उम्मीद टूटती है तो बहुत दर्द होता है। सो! मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से करनी चाहिए और अपने परिश्रम पर भरोसा रखना चाहिए… उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है। इसलिए मानव तो खुली आंखों से सपने देखने का संदेश दिया गया है और उसे तब तक चैन से नहीं बैठना चाहिए; जब तक वे साकार न हो जाएं–अब्दुल कलाम की यह सोच अत्यंत सार्थक है। यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्म-विश्वासी है; कठिन परिश्रम करने में विश्वास करता है, तो वह भीषण पर्वतों से भी टकरा सकता है और अपनी मंज़िल पर पहुंच सकता है।

‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर समझते हो, तो तुम कमज़ोर हो जाओगे; अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो तुम ताकतवर हो जाओगे’– विवेकानंद की यह उक्ति इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि मन में अलौकिक शक्तियाँ विद्यमान है। वह जैसा सोचता है, वैसा बन जाता है और वह सब कर सकता है, जिसकी कल्पना भी उसने कभी नहीं की होती। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ दूसरे शब्दों में मानव स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। इसलिए कहा जाता है कि असंभव शब्द मूर्खों की शब्दकोश में होता है और बुद्धिमानों से उसका दूर का नाता भी नहीं होता। इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य पर प्रकाश डालना चाहूंगी कि प्रतिभा जन्मजात होती है उसका जात-पात, धर्म आदि से कोई संबंध नहीं होता। वास्तव में प्रतिभा बहुत दुर्लभ होती है और प्रभु-प्रदत्त होती है। दूसरी और शास्त्र ज्ञान व अभ्यास इसके पूरक हो सकते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् अभ्यास करने पर मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। जिस प्रकार पत्थर पर अत्यधिक पानी पड़ने से वे अपना रूपाकार खो देते हैं, उसी प्रकार शास्त्राध्ययन द्वारा मर्ख अर्थात् अल्पज्ञ व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। स्वामी रामतीर्थ जी के मतानुसार ‘जब चित्त में दुविधा नहीं होती, तब समस्त पदार्थ ज्ञान विश्राम पाता है और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।’ सो! संशय की स्थिति मानव के लिए घातक होती है और ऐसा व्यक्ति सदैव ऊहापोह की स्थिति में रहने के कारण अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता।

इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है हज़रत इब्राहिम का प्रसंग, जिन्होंने एक गुलाम खरीदा तथा उससे उसका नाम पूछा। गुलाम ने उत्तर दिया – ‘आप जिस नाम से पुकारें, वही मेरा नाम होगा मालिक।’ उन्होंने खाने व कपड़ों की पसंद पूछी, तो भी उसने उत्तर दिया ‘जो आप चाहें।’ राजा के उसके कार्य व इच्छा पूछने पर उसने उत्तर दिया–’गुलाम की कोई इच्छा नहीं होती।’ यह सुनते ही राजा ने अपने तख्त से उठ खड़ा हुआ और उसने कहा–’आज से तुम मेरे उस्ताद हो। तुमने मुझे सिखा दिया कि सेवक को कैसा होना चाहिए।’ सो! जो मनुष्य स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है, उसे ही दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।

क्रोध छोड़ देने पर मनुष्य शोक रहित हो जाता है। क्रोध वह अग्नि है, जो कर्त्ता को जलाती है, उसके सुख-चैन में सेंध लगाती है और प्रतिपक्ष उससे तनिक भी प्रभावित नहीं होता। वैसे ही तुरंत प्रतिक्रिया देने से भी क्रोध द्विगुणित हो जाता है। इसलिए मानव को तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए, क्योंकि क्रोध एक अंतराल के पश्चात् शांत हो जाता है। यह तो दूध के उफ़ान की भांति होता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। परंतु यह मानव के सुख, शांति व सुक़ून को मगर की भांति लील  जाता है। क्रोध का त्याग करने वाला व्यक्ति शांत रहता है और उसे कभी भी शोक अथवा दु:ख का सामना नहीं करना पड़ता। काम सभी बुराइयों की जड़ है। कामी व्यक्ति में सभी बुराइयां शराब, ड्रग्स, परस्त्री- गमन आदि बुराइयां स्वत: आ जाती हैं। उसका सारा धन परिवार के इतर इनमें नष्ट हो जाता है और वह अक्सर उपहास का पात्र बनता है। परंतु इन दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त होने पर वह शरीर से हृष्ट-पुष्ट, मन से बलवान् व धनी हो जाता है। सब उससे प्रेम करने लगते हैं और वह सबकी श्रद्धा का पात्र बन जाता है।

आइए! हम चिन्तन करें– क्या लोभ का त्याग कर देने के पश्चात् मानव सुखी हो जाता है? वैसे तो प्रेम की भांति सुख बाज़ार से खरीदा ही नहीं  जा सकता। लोभी व्यक्ति आत्म-केंद्रित होता है और अपने इतर किसी के बारे में नहीं सोचता। वह हर इच्छित वस्तु को संचित कर लेना चाहता है, क्योंकि वह केवल लेने में विश्वास रखता है; देने में नहीं। उसकी आकांक्षाएं सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं, जिनका खरपतवार की भांति कोई अंत नहीं होता। वैसे भी आवश्यकताएं तो पूरी की जा सकती हैं, इच्छाएं नहीं। इसलिए उन पर अंकुश लगाना आवश्यक  है। लोभ व संचय की प्रवृत्ति का त्याग कर देने पर वह आत्म-संतोषी जीव हो जाता है। दूसरे शब्दों में वह प्रभु द्वारा प्रदत्त वस्तुओं से संतुष्ट रहता है।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जो मनुष्य अहं, काम, क्रोध व लोभ पर विजय प्राप्त कर लेता है; वह सदैव सुखी रहता है। ज़माने भर की आपदाएं उसका रास्ता नहीं रोक सकतीं। वह सदैव प्रसन्न-चित्त रहता है। दु:ख, तनाव, चिंता, अवसाद आदि उसके निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाते। ख़लील ज़िब्रान के शब्दों में ‘प्यार के बिना जीवन फूल या फल के बिना पेड़ की तरह है।’ ‘प्यार बांटते चलो’ गीत भी इसी भाव को पुष्ट करता है। इसलिए जो कार्य- व्यवहार स्वयं को अच्छा न लगे; वैसा दूसरों के साथ न करना ही सर्वप्रिय मार्ग है–यह सिद्धांत चोर व सज्जन दोनों पर लागू होता है। महात्मा बुद्ध की भी यही सोच है। स्नेह, प्यार त्याग, समर्पण वे गुण हैं, जो मानव को सब का प्रिय बनाने की क्षमता रखते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 55 ☆ रिश्तों में खटास ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “रिश्तों में खटास”.)

☆ किसलय की कलम से # 55 ☆

☆ रिश्तों में खटास ☆

दुनिया का हर इन्सान रिश्तों में बँधा होता है। ये बन्धन आपसी सुख-दुख, त्याग-समर्पण व प्रेम-भाईचारे को मजबूती प्रदान करते हैं। खून के रिश्ते हों, प्रेम के रिश्ते हों अथवा वैवाहिक, व्यावसायिक, सामाजिक सरोकारों के हों, सभी में एकता और आदान-प्रदान का सकारात्मक ध्यान रखा जाता है। खून के रिश्ते सबसे सुदृढ होते हैं। इन रिश्तों में बँधे लोग एक-दूसरे का हर तरह से ध्यान रखते हैं। खून के रिश्तों के निर्वहन में लोग अपनी जान की बाजी तक लगा देते हैं। वैवाहिक रिश्ते भी दूध-शक्कर का मिला स्वरूप होते हैं। सामाजिक रिश्तों में भी वजन होता है। दोस्ती के रिश्तों की तो मिसालें दी जाती हैं।

दुनिया में रिश्तों की जहाँ अहमियत होती है वहीं रिश्तों में खटास के चर्चे भी कम नहीं होते। कभी वास्तविकता, कभी झूठ, कभी भ्रम अथवा अन्य कारणों से रिश्तों में खटास या दरारें पड़ जाती हैं। कभी कभी इनका अलगाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि पुनः आजीवन जुड़ाव नहीं होता। रिश्तों में खटास के विविध कारण हो सकते हैं। इस खटास की वजह से लड़ाई, झगड़े यहाँ तक कि हत्यायें भी हो जाती हैं। कभी कभी अलगाव की अवधि इतनी लंबी होती है कि लोगों को बहुत बड़ी क्षति भी उठाना पड़ती है। इन सबके अतिरिक्त रिश्तों के बीच ‘अहम’  भी इन अलगाव में अपनी  विशिष्ट भूमिका का निर्वहन करता है।

रिश्तों की खटास उभय पक्षों के लिए हानिकारक होती है। ये हानि व्यवहारिक, आर्थिक, व्यावसायिक होने के साथ-साथ मानसिक भी होती है। ये हानि कभी कभी तो आदमी का जीवन तक तबाह कर देती है। कुछ अप्रत्याशित हानि भी लोगों का संतुलन बिगाड़ती है। दुनिया में खून के रिश्ते एक बार ही जन्म लेते हैं। इन रिश्तों की टूटन बेहद पीड़ादायक होती है। दोनों पक्ष कभी कभी अहम के वशीभूत हो झुकना ही नहीं चाहते और सारी जिंदगी पीड़ा भोगते रहते हैं। ये ऐसी पीड़ा होती है जो आदमी की आखरी साँस तक साथ नहीं छोड़ती।

इंसान में बुद्धि व विवेक दोनों होते हैं लेकिन पता नहीं क्यों परिस्थितिजन्य खटास या अलगाव समाप्त करने की बात पर प्रायः उसका सदुपयोग नहीं करते। शायद इसके आड़े उनका अहम अथवा स्वार्थ ही आता होगा। कुछ भी हो एक इंसान को इसका निराकरण समय रहते अवश्य कर लेना चाहिए अन्यथा उसे इसकी पीड़ा जीवन भर भोगना पड़ सकती है।

हम इंसान हैं। ईश्वर की असीम कृपा से हमारा इस जग में जन्म हुआ है। इंसानियत के नाते हमें धैर्य, धर्म, संतोष, परोपकार व भाईचारे की राह पर चलना चाहिए। हमारे न रहने पर भी लोग हमारे सत्कर्मों की चर्चा करें, हमें ऐसे कर्म और व्यवहार के मानदण्ड स्थापित करना होंगे। लोगों के दुराचरण उनको पतन और अमानवीयता के रास्ते पर ले जाते हैं और आपके सदाचरण आपको श्रेष्ठ बनाते हैं। आपकी श्रेष्ठता, आपके परिवार, समाज और व्यवहारिक जीवन को सार्थक बनाती है। इसलिये कभी भी रिश्तों में खटास न आये, हमे सदैव सजग रहना होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 109 ☆ संभावना के बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 108 ☆ संभावना के बीज ☆

सीताफल की पिछले कुछ दिनों से बाज़ार में भारी आवक है। सोसायटी की सीढ़ियाँ उतरते हुए देखता हूँ  कि बच्चे सीताफल खा रहे हैं। फल के बीज निकालकर करीने से एक तरफ़ रख रहे हैं। फिर सारे बीज एक साथ उठाकर डस्टबिन में डाल दिए। स्वच्छता और सामाजिक अनुशासन की दृष्टि से यह उचित भी है।

यहीं से चिंतन जन्मा। सोचने लगा, हर बीज के पेट में एक पौधा  है, पौधे का बीज फेंका जा रहा है। फ्लैट में रहने की विवशता कितना कुछ नष्ट कराती है।

सर्वाधिक दुखद होता है संभावनाओं का नष्ट होना। वस्तुत: संभावना की हत्या महा पाप है। हर संभावना को अवसर मिलना चाहिए। पनपना, न पनपना उसके प्रारब्ध और प्रयास पर निर्भर करता है।

चिंतन बीज से मनुष्य तक पहुँचा। सही ज़मीन न मिलने पर जैसे बीज विकसित नहीं हो पाता, कुछ उसी तरह अपने क्षेत्र में काम करने का अवसर न पाना, संभावना का नष्ट होना है। साँस लेने और जीने में अंतर है। अपनी लघुकथा ‘निश्चय’ के संदर्भ से बात आगे बढ़ाता हूँ। कथा कुछ यूँ है,

“उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।

जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं  दर्शक यहीं, पर मैदान मानो निष्प्राण है।

एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने‌ लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग‌ वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।

दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।”

अँग्रेज़ी की एक कहावत है, ‘यू गेट लाइफ वन्स। लिव इट राइट। वन्स इज़ इनफ़।’ जीवन को सही जीना अर्थात अपनी संभावना को समझना, सहेजना और श्रमपूर्वक उस पर काम करना।

स्मरण रहे, आप जीवन के जिस भी मोड़ पर हों, जीने की संभावना हमेशा बनी रहती है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…5”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

“मैं” को संसार में बांधे रखने का काम मोह करता है परंतु यह जाने-अनजाने मन का एक विकार भी बन जाता है। जब लगाव गिने-चुने लोगों से होता है, हद में होता है, सीमित होता है, तब मोह सहायक रसों का नियामक होता है। जीवन में रस घोलता है। लेकिन हितों के अटलनीय संघर्ष में मोह घना होकर “मैं” को किंकर्तव्यविमूढ़ करके कर्तव्य पथ से विच्युत करता है।

जीवन के सबसे बड़े संघर्ष में अर्जुन की यही दशा है। अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने विरोध में खड़े सभी सगे-संबंधियों को देखकर हथियार डाल दिए हैं। उसका मोह ग्रसित “मैं” कर्मपथ पर अग्रसित हो उसे युद्ध नहीं करने दे रहा है। अर्जुन पितामह, गुरु, परिजनों को सामने देख मोहग्रस्त होकर अस्त्र डाल देता है। मूल्यों के संघर्ष में वह कुछ लोगों से सम्बंधों के वशीभूत मोहग्रस्त है। मानवता कल्याण हेतु नए मूल्यों की स्थापना में संघर्ष से हिचकिचाता है। नियत कर्तव्य से पीछा छुड़ाना चाहता है।

जब “मैं” को जीवन का पहला खिलौना मिलता है तब उसमें स्वामित्व का भाव आता है। “मैं” का मेरा निर्मित होता है। यह स्वामित्व भाव ही मोह की प्रथम सीढ़ी है। फिर वह वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थान सभी से मोहग्रस्त होने लगता है। मोह के संस्कार “मैं” के चित्त में इकट्ठा होते रहते है, जिससे इसकी जड़ें पक्की हो जाती हैं और कई बार चाहकर भी वह मोह को नहीं छोड़ पाता। वह मोह को ही प्रेम मान लेता है, जैसे युवक-युवती आपस में आसक्ति को प्रेम कहते हैं, जबकि वह प्रेम नहीं, मोह है।

मां-बाप जब अपने बच्चे को प्रेम करते हैं तो वह भी मोह कहलाता है। मोह का मतलब होता है आसक्ति, जो गिने-चुने उन लोगों या चीजों से होती है जिन्हें हम अपना बनाना चाहते हैं, जिनके पास हम ज्यादा-से-ज्यादा समय गुजारना चाहते हैं। अपना स्वामित्व स्थापित करके उनकी आज़ादी छीनना शुरू कर देते हैं। पति पत्नियों में भी अक्सर ऐसा होता है।

मोह भेद पैदा करता है। मोह वहां होता है जहां हमें सुख मिलने की उम्मीद हो या सुख मिलता हो। वहाँ मैं और मेरे की भावना प्रबल रहती है। एक होता है “लौकिक प्रेम” यानी सांसारिक प्रेम और दूसरा होता है “अलौकिक प्रेम” यानी ईश्वरीय प्रेम। सांसारिक प्रेम मोह कहलाता है और ईश्वरीय प्रेम साधना कहलाता है। संसारी प्रेम च्युइंग सा चिपकाव है, चबाते रहो तब भी मोह जैसा का तैसा बना रहता है। इसी मोह की वजह से व्यक्ति कभी सुखी, तो कभी दुखी होता रहता है। जबकि ईश्वरीय प्रेम समर्पण द्वारा “मैं” की पूर्ण स्वतंत्रता।

मोह से “मैं” में संग्रह की प्रवृत्ति आती है वही प्रवृत्ति धीरे-धीरे परिग्रह में बदलने लगती है। “मैं”  ज़रूरत से अधिक संग्रह के प्रपंच में पड़ने लगता है। इस तरह “मैं” आसक्ति के चक्रव्यूह में फँस जाता है। व्यग्र बेचैन अस्थिर चित्त “मैं” की मोहग्रस्त प्रकृति हो जाती है।

मोह जन्म-मरण का कारण है क्योंकि इसके संस्कार बनते हैं, लेकिन ईश्वरीय प्रेम के संस्कार नहीं बनते बल्कि वह तो चित्त में पड़े संस्कारों के विनाश के लिए होता है। ईश्वरीय प्रेम का अर्थ है मन में सबके लिए एक जैसा भाव। जो सामने आए, उसके लिए भी प्रेम, जिसका ख्याल भीतर आए, उसके लिए भी प्रेम। परमात्मा की बनाई हर वस्तु से एक जैसा प्रेम। जैसे सूर्य सबके लिए एक जैसा प्रकाश देता है, वह भेद नहीं करता। जैसे हवा भेद नहीं करती, नदी भेद नहीं करती, ऐसे ही हम भी भेद न करें। मेरा-तेरा छोड़कर सबके साथ सम भाव में आ जाएं। अपने स्नेह को बढ़ाते जाओ। इतना बढ़ाओ कि सबके लिए एक जैसा भाव भीतर से आने लगे। फिर वह कब ईश्वरीय प्रेम में बदल जाएगा, पता ही नहीं चलेगा। यही अध्यात्म का गूढ़ रहस्य है।

“मैं” के सामने प्रश्न उठता है कि मोह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ा है, जैसे स्वयं की देह, देह के दैहिक सुख, मानसिक सुख, बौद्धिक सुख, सम्मान के सुख, धन की कामना के सुख, व्यक्ति और स्थान की चाहत के सुख इत्यादि। क्या इन सारे सुखों में सन्निहित मोह से मुक्त होकर “मैं” की यात्रा का पथिक आगे के पड़ाव पर पहुँच सकता है।

जीवन निर्वाह हेतु इन सभी सुख कारक अवयवों की अनिवार्यता थी। मोह के बग़ैर जीवन सम्भव ही नहीं था। सनातन परम्परा में वानप्रस्थ मोह से निकलने की तैयारी का आश्रम होता है और सन्यास मोह को त्याग देने का।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 103 ☆ मौन : एक संजीवनी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख मौन : एक संजीवनी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 103 ☆

☆ मौन : एक संजीवनी ☆

‘व्यर्थ न कर अपने अल्फाज़, हर किसी के लिए/ बस ख़ामोश रह कर देख, तुझे समझता कौन है’… ओशो का यह कथन महात्मा बुद्ध की भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान कर शब्दबद्ध करता है, उजागर करता है कि हमारी समस्या का समाधान सिर्फ़ हमारे पास है; दूसरे के पास तो केवल सुझाव होते हैं। ओशो ने मानव से मौन रहने का आग्रह करते हुए कहा है कि किसी से संवाद व जिरह करने का औचित्य नहीं, क्योंकि सब आपकी भावनाओं को समझते नहीं। इसीलिए ऐ! मानव तू प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर; ख़ामोश रहकर उनके व्यवहार को देख, तुम्हें सब समझ में आ जाएगा अर्थात् तू इस तथ्य से अवगत हो जाएगा कि कौन अपना व पराया कौन है? सो! दूसरों के बारे में सोचना व उनके बारे में टीका-टिप्पणी करना व्यर्थ है, निरर्थक है। वे लोग आपके बारे में अनर्गल चर्चा करेंगे, दोषारोपण करेंगे और आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे। इसलिए प्रतीक्षा करना सदैव बेहतर है तथा सभी समस्याओं का समाधान इनमें ही निहित है।

मुझे यह स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि ख़ामोश रहने व प्रत्युत्तर न देने से समस्या जन्म ही नहीं लेती। सो! ‘न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी’ अर्थात् जब समस्या होगी ही नहीं, तो समाधान की अपेक्षा कहां रहेगी? इसके दूसरे पक्ष पर भी चर्चा करना यहां आवश्यक है…जब समस्या होगी ही नहीं, तो स्पष्टीकरण देने व अपना पक्ष रखने की ज़रूरत कहां महसूस होगी? वैसे भी सत्य का अनुसरण करने वाले को कभी भी स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह आपको जहां दुर्बल बनाता है; वहीं आप पर अंगुलियां भी उठने लगती हैं। वह आपको पथ-विचलित करता है और आपका ध्यान स्वत: भटक जाता है। लक्ष्य-पूर्ति न होने की स्थिति में जहां आपका अवसाद की स्थिति में पदार्पण करना निश्चित हो जाता है; वहीं आपको सावन के अंधे की भांति, सब हरा ही हरा दिखाई पड़ने लगता है। फलत: मानव इस भंवर से चाहकर भी नहीं निकल पाता और वह उसके जीवन की प्रमुख त्रासदी बन जाती है।

प्रश्न उठता है, जब हमारी समस्या का समाधान हमारे पास है, तो उद्वेलन व भटकाव क्यों … दूसरों से सहानुभूति की अपेक्षा क्यों… प्रशंसा पाने की दरक़ार क्यों? दूसरे तो आपको सलाह-सुझाव दे सकते हैं; समस्या का हल नहीं, क्योंकि ‘जाके पैर न फूटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’ अर्थात् जूता पहनने वाला ही जानता है कि जूता कहां काटता है? जिसे कांटा लगता है, वही दर्द महसूसता है। जो पीड़ित, दु:खी व परेशान होता है, वह अनुभव करता है कि उसका मूल स्त्रोत अर्थात् कारण क्या है? विज्ञान भी कार्य-कारण संबंध पर प्रकाश डाल कर ही परिणाम पर पहुंचता है। सो! हमें कभी भी हैरान-परेशान नहीं होना चाहिए…. न ही किसी से व्यर्थ की उम्मीद करनी चाहिए। जब आप सक्षम हैं और अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोज कर उसका निवारण करने में समर्थ हैं, तो विपत्ति काल में इधर-उधर झांकने व दूसरों से सहायता की भीख मांगने की दरक़ार क्यों?

यह सार्वभौमिक सत्य है कि विपदा के साथी होते हैं …विद्या, विनय, विवेक। सो! सबसे पहले ज़रूरत है, उसका उद्गम तलाशने की, क्योंकि जब हमें उसके मूल कारण के बारे में ज्ञान प्राप्त हो जाता है; समाधान स्वत: हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाता है। इसलिए हमें किसी भी परिस्थिति में अपना आपा नहीं खोना चाहिए अर्थात् ‘विद्या ददाति विनयम्’– विद्या हमें विनम्रता सिखाती है। वह मानव की सबसे बड़ी पूंजी है, जिसके माध्यम से हम जीवन की हर आपदा का सामना कर सकते हैं। विनम्रता करुणा की जनक है। करुणाशील व्यक्ति में स्नेह, प्रेम, सौहार्द, सहानुभूति, सहनशीलता आदि गुण स्वत: प्रकट हो जाते हैं। विनम्र व्यक्ति कभी किसी का बुरा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। बड़े से बड़े क्रूर, निर्दयी व आततायी भी उसका अहित व अमंगल नहीं कर सकते, क्योंकि जब उन्हें प्रत्युत्तर अथवा प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं होती, तो वे भी यही सोचने लगते हैं कि व्यर्थ में क्यों माथा फोड़ा जाए अर्थात् अपना समय नष्ट किया जाए? वे स्वयं उससे दरकिनार कर सुक़ून पाते हैं, क्योंकि उन्हें तो दूसरे को नीचा दिखा कर व प्रताड़ित करके ही आनंद की प्राप्ति होती है। परंतु जब तक विनम्र व्यक्ति शांत रहता है, निरुत्तर रहता है, तो उसे संघर्ष की सार्थकता ही अनुभव नहीं होती और समस्या का स्वत: अंत हो जाता है। विद्या से विवेक जाग्रत होता है, जिससे हमें मित्र-शत्रु, उचित-अनुचित, लाभ-हानि, उपयोगी-अनुपयोगी आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है और हम सच्चाई के मार्ग पर चलते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं। सत्य का मार्ग कल्याणकारी होता है; सुंदर होता है; सबका प्रिय होता है। इसलिए हम ख़ामोश रह कर ही अपने इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

यदि हम प्रतिपक्ष का अवलोकन करें, तो वह हमारे पथ में अवरोधक होता है; राह में कांटे बिछाता है;  निंदा कर हमें उलझाता है, ताकि हम अपनी मंज़िल पर न पहुंच सकें। सो! इन अप्रत्याशित परिस्थितियों में आवश्यकता होती है– विवेक से सोच-समझ कर कार्य को अंजाम देने की, ताकि हम अपनी मंज़िल पर पहुंच जाएं। विवेक हमें निंदा-स्तुति के व्यूह में नहीं उलझने देता। ज्ञानी व विवेकशील व्यक्ति सदैव समझौता करने विश्वास करता है.. मौन उसका आभूषण होता है और धैर्य सच्चा साथी; जिसका दामन वह कभी नहीं छोड़ता। आत्मकेंद्रितता व एकांत उसके लिए संजीवनी अर्थात् रामबाण होते हैं, जो उसकी तमाम कठिन व विकट समस्याओं का समाधान करते हैं। एकांत हमें आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करता है, तथा उस पावन-सलिला में अवगाहन कर हम श्रेय-प्रेय रूपी अनमोल रत्नों को प्राप्त करने में सक्षम हो सकते हैं। सो! हमें शांत भाव से परिस्थितियों का अवलोकन करना चाहिए। इसी संदर्भ में इस विषय पर भी चर्चा करना अहम् है कि ‘सब्र और सच्चाई एक ऐसी सवारी है, जो अपने शह़सवार को कभी नहीं गिरने देती… न किसी के कदमों में, न किसी की नज़रों में’ अर्थात् सब्र, संतोष  व संतुष्टि पर्यायवाची शब्द हैं। मझे याद आ रही है, रहीम जी के दोहे की वह पंक्ति ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ अर्थात् संतोष रूपी धन प्राप्त करने के पश्चात् जीवन में कोई तमन्ना शेष नहीं रह जाती। सांसारिक प्रलोभन व माया-मोह के बंधन मानव को उलझा नहीं सकते। सो! वह सदैव शांत भाव में रहता है, जहां केवल आनंद ही आनंद होता है। इसके लिए ज़रूरी है… सत्य की राह पर चलने की, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे से भी प्रकट होने की सामर्थ्य रखता है। सत्य का अनुयायी अकारण दूसरों की प्रशंसा व चाटुकारिता में विश्वास नहीं करता, क्योंकि उन्हें प्रसन्न करने के लिए व्यक्ति को तनाव, चिंता व अवसाद से गुज़रना पड़ता है।

यह कोटिशः सत्य है कि मन-चाहा न होने पर हम हताश-निराश व हैरान-परेशान रहते हैं और वह स्थिति तनाव की जनक व पोषक है। वह हमें गहन चिंता-रूपी सागर के अथाह जल में लाकर छोड़ देती है; जहां से निकल पाना मानव के लिए असंभव हो जाता है। अवसाद-ग्रस्त व्यक्ति आत्मविश्वास खो बैठता है और उसे समस्त संसार में अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़ता है। ऐसा व्यक्ति सदैव किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में रहता है; सब उसे शत्रु-सम भासते हैं, और वह स्वयं को असहाय, विवश व मजबूर अनुभव करता है। उस स्थिति से उबरने के लिए आवश्यकता होती है… मानव को नकारात्मक सोच को त्याग, सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की …जो आस्था व विश्वास से उपजता है। परमात्मा में आस्था व अंतर्मन में निहित दैवीय शक्तियों पर विश्वास रखने से ही वह आगामी आपदाओं से लोहा ले सकता है।

छोटी सोच, शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को। ‘सुनना सीख लो, सहना स्वत: सीख जाओगे।’ इसके निमित्त हमें अपनी सोच को बड़ा बनाना होगा; उदार-हृदय बनना होगा, क्योंकि छोटी सोच का दायरा बहुत संकुचित होता है और व्यक्ति कूप-मंडूक बन उसी भंवर में गोते लगाता रहता है और प्रसन्न रहता है। उसके अतिरिक्त न वह कुछ जानता है, न ही जानने की इच्छा रखता है। वह इसी भ्रम में जीता है कि उससे अधिक बुद्धिमान कोई है ही नहीं। सो! वह कभी भी दूसरे की सुनना पसंद नहीं करता; अपनी-अपनी डफली बजाने व राग अलापने में सुक़ून का अनुभव करता है। दूसरे शब्दों में वह केवल अपनी-अपनी हांकता है और शेखी बघारता है। उसे न किसी से कोई संबंध होता है, न ही सरोकार। परंतु समझदार व सफल मानव दूसरे की सुनता अधिक है, अपनी कहता कम है। सो! डींगें हांकने वाला व्यक्ति सदैव मूर्ख कहलाता है। उसे अभिमान होता है, अपनी विद्वत्ता पर और वह स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी समझता है। वह सारा जीवन उसी भ्रम में व्यर्थ नष्ट कर देता है। जीवन के अंतिम क्षणों में वह लख चौरासी से भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

ग़ौरतलब है कि हर समस्या के केवल दो विकल्प नहीं होते…परंतु मूर्ख व्यक्ति इसी भ्रम में रहता है और तीसरे विकल्प की ओर उसका ध्यान कदापि नहीं जाता। यदि उसकी सोच का दायरा विशाल होगा, तो समस्या का समाधान अवश्य निकल जाएगा। उसे आंसू नहीं बहाने पड़ेंगे, क्योंकि संसार दु:खालय नहीं, बल्कि सुख और दु:ख तो हमारे अतिथि हैं; आते-जाते रहते हैं। एक के जाने के पश्चात् दूसरा स्वयमेव प्रकट हो जाता है। उनमें से कोई भी स्थायी नहीं है। इसलिए वे कभी इकट्ठे नहीं आते। मानव को दु:ख, आपदा व विपत्ति में कभी भी घबराना नहीं चाहिए और न ही सुख में फूलने का कोई औचित्य है। दोनों स्थितियां भयावह हैं और घातक सिद्ध हो सकती हैं। इसलिए इनमें समन्वय व सामंजस्य रखना आवश्यक है। जो इनसे ऊपर उठ जाता है; उसका जीवन सफल हो जाता है; अनुकरणीय हो जाता है और वह महान् विभूति की संज्ञा प्राप्त कर विश्व में गौरवान्वित अनुभव करता है। उसे भौतिक व सांसारिक सुख, प्रलोभन आदि आकर्षित नहीं कर सकते, क्योंकि वे उसे नश्वर भासते हैं। ऐसा नीर-क्षीर विवेकी मानव हर स्थिति में सम रहता है, क्योंकि वह सृष्टि के परिवर्तनशीलता के सिद्धांत से अवगत होता है। वह जानता व समझता है कि ‘जो जन्मता है, मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है। इसलिए उसका शोक क्यों?’ ऐसे व्यक्ति के मित्र व शत्रु नहीं होते। वह अजातशत्रु कहलाता है। वह सबके हित व मंगल की कामना करता है; किसी के प्रति ईर्ष्या व द्वेष भाव नहीं रखता और स्व-पर से बहुत ऊपर उठ जाता है। सब उसकी प्रशंसा करते हैं तथा उसका साथ पाने को आकुल-व्याकुल रहते हैं। सो! वह सबकी आंखों का तारा हो जाता है और सब उससे स्नेह करते हैं; उसकी वाणी सुनने को लालायित व व्यग्र रहते हैं तथा उसका सान्निध्य पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं।

वह मौन को नव-निधि स्वीकारता है और इस तथ्य से अवगत रहता है कि नब्बे प्रतिशत समस्याओं का समाधान मौन रहने तथा तत्काल उत्तर देने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से हो जाता है। जीवन में समस्याओं से उसका दूर का नाता भी नहीं रहता। ‘एक चुप, सौ सुख’ बहुत पुरानी कहावत है, जो कल भी सत्य व सार्थक थी; आज भी है और कल भी रहेगी। इसलिए मानव को जो घटित हो रहा है; उसे साक्षी भाव से देखना चाहिए। उन परिस्थितियों में सहजता बनाए रखनी चाहिए तथा संबंधों की अहमियत स्वीकारनी चाहिए। रिश्ते हमारे जीवन को हर्ष, उल्लास, उमंग व उन्माद से आप्लावित व  ऊर्जस्वित करते हैं तथा मौन में वह संजीवनी है, जिसमें सभी असाध्य रोगों का शमन करने की शक्ति है, क्षमता है, सामर्थ्य है। सो! एकांत व ख़ामोशी को अपना साथी समझ मौन को जीवन में धारण करना श्रेयस्कर है, क्योंकि यही अलौकिक आनंद व जीते जी मुक्ति पाने का उपादान है, सोपान है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विजयदशमी पर्व विशेष – हरियाणा में जलता है सबसे ऊंचा रावण ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  का विजयदशमी पर्व पर आधारित एक विशेष आलेख बुराई पर अच्छाई का प्रतीक दशहरा महोत्सव – हरियाणा में जलता है सबसे ऊंचा रावण)

☆ बुराई पर अच्छाई का प्रतीक दशहरा महोत्सव ☆

☆ आलेख – विजयदशमी पर्व विशेष – हरियाणा में जलता है सबसे ऊंचा रावण ☆

विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले के निर्माण के लिए पूरे विश्व में हरियाणा के अम्बाला जिला का बराड़ा कस्बा चर्चित रहा है। इस वर्ष सबसे ऊंचा रावण का पुतला (ऊंचाई 211 फीट) चंडीगढ़ में जलाया जाएगा। विश्व के सबसे ऊंचे रावण का पुतला दहन का प्रसारण वैसे तो राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा प्रत्येक वर्ष किया जाता है। इस अवसर पर कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण करने हेतु कई टेलीविजन चैनल्स की ओ बी वैन भी आयोजन स्थल पर आती हैं।

श्री रामलीला क्लब, बराड़ा ;जिला अम्बालाद्ध के संस्थापक अध्यक्ष श्री राणा तेजिन्द्र सिंह चैहान द्वारा पिछले सात वर्षों से विश्व का सबसे ऊंचा रावण बनाने का निरंतर कीर्तिमान स्थापित किया जा रहा है। इस उपलब्धि का सम्मान करते हुए भारत की एकमात्र सर्व प्रतिष्ठित प्रीतिष्ठि  कीर्तिमान संकलन पुस्तक ‘लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड’ के (2011 से 2017 तक) छह वार्षिक संकलनों में बराड़ा में निर्मित होने वाले विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले को सम्मानपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। भारत के इतिहास में निर्मित होने वाला अब तक का यह सबसे पहला व अद्भुत रावण का पुतला है जिसने किसी प्रतिष्ठित राष्ट्रीय स्तर की कीर्तिमान पुस्तक में छह बार अपने नाम का उल्लेख कराया हो। बराड़ा के सबसे ऊंचे रावण के पुतले को छह बार लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड में स्थान प्राप्त होना वास्तव हरियाणावासियों के लिए गर्व का विषय है। इस उपलब्धि का श्रेय क्लब के सभी सदस्यों को, खासतौर पर क्लब के संस्थापक अध्यक्ष श्री राणा तेजिंद्र सिंह चैहान एवं उनके निर्देशन में काम करने वाले लगभग सौ मेहनतकश सदस्यों को जाता है।

श्री चैहान ने बताया कि उनके सहयोगी और वे हर वर्ष अप्रैल -मई  माह से ही रावण बनाने का कार्य आरंभ कर देते हैं। अथक परिश्रम के बाद इसे दशहरे से दो-तीन दिन पूर्व दशहरा ग्राउंड में दर्शकों के देखने के लिये खड़ा कर दिया जाता है।

छह बार लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड में नाम दर्ज करने के बाद रावण की ऊंचाई को प्रत्येक वर्ष बढ़ाते हुए अपने ही विश्व कीर्तिमान को तोड़ने का जो सिलसिला जारी था वह पिछले चार वर्षों से रोक दिया गया है। यह व्यवस्था तकनीकी कारणों से की गई है। दरअसल जिन क्रेनों की सहायता से रावण के विशाल पुतले को खड़ा किया जाता था उन क्रेन आपरेटर्स द्वारा 210 फुट ऊंचाई से अधिक ऊंचा पुतला न बनाए जाने की सलाह दी है। इस कारण पुतले की ऊंचाई 210 फुट ही निर्धारित की जा चुकी है।

राणा तेजिन्द्र सिंह चैहान के अनुसार विश्व कीर्तिमान स्थापित करने वाले इस रावण के निर्माण का मकसद समाज में फैली सभी बुराइयों को अहंकारी रावण रूपी पुतले में समाहित करना है। पुतले की 210 फुट की ऊंचाई सामाजिक बुराइयों एवं कुरीतियों जैसे अहंकार, आतंकवाद, कन्या भू्रण हत्या, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, बढ़ती जनसंख्या, दहेजप्रथा तथा जातिवाद आदि का प्रतीक है। रावण दहन के समय आतिशबाजी का भी एक उच्चस्तरीय आयोजन किया जाता है।

विजयदशमी के दिन दशहरा ग्राउंड में प्रत्येक वर्ष लाखों लोगों की उपस्थिति में रिमोट कंट्रोल का बटन दबाकर विश्व कीर्तिमान स्थापित करने वाले इस विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले को अग्नि को समर्पित किया जाता रहा है।

श्रीरामलीला क्लब, बराड़ा विश्वस्तरीय ख्याति अर्जित कर चुका है। सामाजिक बुराइयों के प्रतीक विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले का निर्माण किए जाने का कीर्तिमान इस क्लब ने स्थापित किया है। इसमें कोर्इ संदेह नहीं कि सहयोगियों व शुभचिंतकों के समर्थन व सहयोग के बिना किसी भी संस्था का शोहरत की बुलंदी पर पहुंचना संभव नहीं होता।

श्रीरामलीला क्लब द्वारा प्रत्येक वर्ष आयोजित की जाने वाली 14 दिवसीय शानदार रामलीला के उपरांत पांच दिवसीय दशहरा महोत्सव शुरू होता था। दशहरा महोत्सव में कवि सम्मेलन के अतिरक्त गीत-संगीत, गजल, सूफी गायन व कव्वाली जैसे आयोजन होते थे।

रावण को प्रकांड पंडित वरदानी राक्षस कहा जाता था। लेकिन कैसे वो, जिसके बल से त्रिलोक थर-थर कांपते थे, एक स्त्री के कारण समूल मारा गया? वो भी वानरों की सेना लिये एक मनुष्य से। इन बातों पर गौर करें तो ये मानना तर्क से परे होगा। लेकिन रावण के जीवन के कुछ ऐसे रहस्य हैं, जिनसे कम ही लोग परिचित होंगे। पुराणों के अनुसार  –

कैसे हुआ रावण का जन्म?

रावण एक ऐसा योग है जिसके बल से सारा ब्रह्माण्ड कांपता था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वो रावण जिसे राक्षसों का राजा कहा जाता था वो किस कुल की संतान था। रावण के जन्म के पीछे के क्या रहस्य हैं? इस तथ्य को शायद बहुत कम लोग जानते होंगे। रावण के पिता विश्वेश्रवा महान ज्ञानी ऋषि पुलस्त्य के पुत्र थे। विश्वेश्रवा भी महान ज्ञानी सन्त थे। ये उस समय की बात है जब देवासुर संग्राम में पराजित होने के बाद सुमाली माल्यवान जैसे राक्षस भगवान विष्णु के भय से रसातल में जा छुपे थे। वर्षों बीत गये लेकिन राक्षसों को देवताओं से जीतने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। एक दिन सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के साथ रसातल से बाहर आया, तभी उसने विश्वेश्रवा के पुत्र कुबेर को अपने पिता के पास जाते देखा। सुमाली कुबेर के भय से वापस रसातल में चला आया, लेकिन अब उसे रसातल से बाहर आने का मार्ग मिल चुका था। सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री वह उसके लिए सुयोग्य वर की तलाश नहीं कर सकता इसलिये उसे स्वयं ऋषि विश्वेश्रवा के पास जाना होगा और उनसे विवाह का प्रस्ताव रखना होगा। पिता की आज्ञा के अनुसार कैकसी ऋषि विश्वेश्रवा के आश्रम में पहुंच गई । ऋषि उस समय अपनी संध्या वंदन में लीन थे। आंखें खोलते ही दृष्टि ने अपने सामने उस सुंदर युवती को देखकर कहा कि वे जानते हैं कि उसके आने का क्या प्रयोजन है? लेकिन वो जिस समय उनके पास आई है वो बेहद दारुण वेला है जिसके कारण ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने के बाद भी उनका पुत्र राक्षसी प्रवृत्ति का होगा। इसके अलावा वे कुछ नहीं कर सकते। कुछ समय पश्चात् कैकसी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसके दस सिर थे। ऋषि ने दस शीश होने के कारण इस पुत्र का नाम दसग्रीव रखा। इसके बाद कुंभकर्ण का जन्म हुआ जिसका शरीर इतना विशाल था कि संसार में कोई भी उसके समकक्ष नहीं था। कुंभकर्ण के बाद पुत्री सूर्पणखा और फिर विभीषण का जन्म हुआ। इस तरह दसग्रीव और उसके दोनों भाई और बहन का जन्म हुआ।

रावण ने क्यों की ब्रह्मा की तपस्या?

ऋषि विश्वेश्रवा ने रावण को धर्म और पांडित्य की शिक्षा दी। दसग्रीव इतना ज्ञानी बना कि उसके ज्ञान का पूरे ब्रह्माण्ड में कोई सानी नहीं था। लेकिन दसग्रीव और कुंभकर्ण जैसे जैसे बड़े हुए उनके अत्याचार बढ़ने लगे। एक दिन कुबेर अपने पिता ऋषि विश्वेश्रवा से मिलने आश्रम पहुंचे तब कैकसी ने कुबेर के वैभव को देखकर अपने पुत्रों से कहा कि तुम्हें भी अपने भाई  के समान वैभवशाली बनना चाहिए। इसके लिए तुम भगवान ब्रह्मा की तपस्या करो। माता की आज्ञा मान तीनों पुत्र भगवान ब्रह्मा के तप के लिए निकल गए। विभीषण पहले से ही धर्मात्मा थे। उन्होंने पांच हजार वर्ष एक पैर पर खड़े होकर कठोर तप करके देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद पांच हजार वर्ष अपना मस्तक और हाथ ऊपर रखकर तप किया जिससे भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए और विभीषण ने भगवान से असीम भक्ति का वर मांगा।

क्यों सोता रहा कुंभकर्ण?

कुंभकर्ण ने अपनी इंद्रियों को वश में रखकर दस हजार वषो± तक कठोर तप किया। उसके कठोर तप से भयभीत होकर देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना की। तब भगवान से वर मांगते समय देवी सरस्वती कुंभकर्ण की जिह्ना पर विराजमान हो गईं और कुंभकर्ण ने इंद्रासन की जगह निंद्रासन मांग लिया।

रावण ने किससे छीनी लंका?

दसग्रीव अपने भाइयों से भी अधिक कठोर तप में लीन था। वो प्रत्येक हजारवें वर्ष में अपना एक शीश भगवान के चरणों में समर्पित कर देता। इस तरह उसने भी दस हजार साल में अपने दसों शीश भगवान को समर्पित कर दिये। उसके तप से प्रसन्न हो भगवान ने उसे वर मांगने को कहा तब दसग्रीव ने कहा कि देव दानव गंधर्व किन्नर कोई भी उसका वध न कर सकें। वो मनुष्यों और जानवरों को कीड़ों की भांति तुच्छ समझता था। इसलिये वरदान में उसने इनको छोड़ दिया। यही कारण था कि भगवान विष्णु को उसके वध के लिए मनुष्य अवतार में आना पड़ा। दसग्रीव स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगा था। रसातल में छिपे राक्षस भी बाहर आ गये। राक्षसों का आतंक बढ़ गया। राक्षसों के कहने पर लंका के राजा कुबेर से लंका और पुष्पक विमान छीनकर स्वयं बन गया लंका का राजा।

कैसे हुआ रावण का वध?

मां दुर्गा के प्रथम रूप शैलपुत्री की पूजा के साथ नवरात्र के नौ दिनों में मां दुर्गा के साथ ही साथ भगवान राम का भी ध्यान पूजन किया जाता है। क्योंकि इन्हीं नौ दिनों में भगवान राम ने रावण के साथ युद्ध करके दशहरे के दिन रावण का वध किया था जिसे ‘अधर्म पर धर्म की विजय’ के रूप में जाना जाता है।

भगवान राम का जन्म लेना और रावण का वध करना यह कोई सामान्य घटना नहीं है। इसके पीछे कई कारण थे जिसकी वजह से विष्णु को राम अवतार लेना पड़ा।

अपनी मौत का कारण सीता को जानता हुआ भी रावण सीता का हरण कर लंका ले गया। असल में यह सब एक अभिशाप के कारण हुआ था।

यह अभिशाप  रावण को भगवान राम के एक पूर्वज ने दिया था। इस संदर्भ में एक कथा है कि बल के अहंकार में रावण अनेक राजा-महाराजाओं को पराजित करता हुआ इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुंचा। राजा अनरण्य और रावण के बीच भीषण युद्ध हुआ। ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अनरण्य रावण के हाथों पराजित हुआ। रावण राजा अनरण्य का अपमान करने लगा।

अपने अपमान से क्रोध्त होकर राजा अनरण्य ने रावण को अभिशाप दिया कि तूने महात्मा इक्ष्वाकु के वंशजों का अपमान किया है इसलिए मेरा शाप है कि इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के पुत्र राम के हाथों तुम्हारा वध होगा।

ईश्वर विधान के अनुसार भगवान विष्णु ने राम रूप में अवतार लेकर इस अभ्िाशाप को फलीभूत किया और रावण राम के हाथों मारा गया।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 108 ☆ भाषाई अस्मिता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 107 ☆ भाषाई अस्मिता ☆

प्रश्नमंजूषा का एक कार्यक्रम चैनल पर चल रहा है। प्रश्न पूछा जाता है कि चौरानवे में से चौवन घटाने पर कितना शेष बचेगा? सुनने पर यह प्रश्न बहुत सरल लगता है पर प्रश्न के मूल में 94 – 54 = 40 है ही नहीं। प्रश्न के मूल में है कि उत्तरकर्ता को चौरानवे और चौवन का अर्थ पता है या नहीं।

हमारी धरती पर हमारी ही भाषा के अंक और शब्द जिस तरह से निरंतर हमसे दूर हो रहे हैं, उनके चलते संभव है कि भविष्य में किसी प्रश्नमंजूषा में पूछा जाए कि माँ और बेटा साथ जा रहे हैं, बताओ कि उम्र में दोनों में कौन बड़ा है? प्रश्न बचकाना लग सकता है पर केवल उनको जिन्हें माँ और बेटा का अर्थ पता होगा। बाकियों को तो उत्तर से पहले इन शब्दों के परदेसी अर्थ क्रमश: ‘मदर’ और ‘सन’ तक पहुँचना होगा। कुछ मित्रों की दृष्टि में यह अतिश्योक्ति हो सकती है पर अतिश्योक्ति होते तो हम रोज़ देख रहे हैं।

आज, हमारी भाषाओं के अंकों का उच्चारण न केवल कठिन मान लिया गया है, बल्कि मज़ाक का विषय भी बनने लगा है। भविष्य में शब्द समाप्त होने लगेंगे.., लेकिन ठहरिए, समय अधिक नहीं है। भविष्य दहलीज़ पर खड़ा है। कुछ शब्द तो उसने वहाँ खड़े-खड़े ही गड़प लिए हैं। बकौल डेविड क्रिस्टल, ‘एक शब्द की मृत्यु, एक व्यक्ति की मृत्यु के समान है।’

प्रश्न है कि हमारी भाषाई संपदा की अकाल मृत्यु के लिए उत्तरदायी कौन है? क्या केवल व्यवस्था पर इसका दोष मढ़ देना उचित है? निश्चित ही व्यवस्था, विशेषकर शिक्षा के माध्यम का इसमें बड़ा हाथ है। तथापि लोकतांत्रिक व्यवस्था की इकाई नागरिक होता है। इकाई की भूमिका क्या है? अब यह बहाना न तलाशा जाय कि दिन भर रोज़ी-रोटी के लिए खटने के बाद समय और शक्ति कहाँ बचती है कि कुछ और किया जाय? समाचार, क्रिकेट, फिल्में, सोशल मीडिया, शेयर मार्केट, सीरियल, ओ.टी.टी. सबके लिए समय है पर अपनी भाषा की साँसें बचाये रखने के नाम पर विवशता का रोना है।

कहा गया है, ‘धारयेत इति धर्म:।’ अनेक घरों में अकादमिक शिक्षा के अलावा निजी स्तर पर अनिवार्य धार्मिक शिक्षा का प्रावधान है। क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी भाषा और मातृभाषा में बच्चों को पारंगत करना हमारा धर्म नहीं होना चाहिए? इकाई यदि सुप्त होगी तो समुदाय भी सुप्त होगा और जो सुप्त है, उसका ह्रास और कालांतर में विनाश निश्चित है।

अपने पुत्रों की मृत्यु से आहत गांधारी ने महाभारत युद्ध की समाप्ति पर श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि यदुवंश का नाश हो जाएगा। माधव सारी स्थितियों से भली-भाँति परिचित थे। बोले, ‘जैसे आशीष, वैसे आपका श्राप भी सिर-माथे पर।..हाँ एक बात है, आप श्राप देती या न देती, यदुवंशी जिस प्रकार अपने कर्मों से दूर होकर सुप्त हुए जा रहे हैं, उसे देखते हुए उनका नाश तो यूँ भी निश्चित है।’

मुद्दा यही है। अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का श्राप तो है ही, प्रश्न हमारी अपनी सुप्त अवस्था का भी है। शब्दों का भाषा से दूर होते जाना एक तरह से भाषा का चीरहरण है। शनै: शनै: चीर और छोटा होता जाएगा। क्या हम भाषाई अस्मिता को इसी कुचक्र में फँसते देखना चाहते हैं?

अभी भी समय है। सामूहिक प्रयत्नों से हम सब मिलकर योगेश्वर की भूमिका में आ सकते हैं, ताकि चीर अपरिमित हो जाए और उतारने वालों के हाथ थक कर चूर हो जाएँ।

आइए साथ में जुटें। आपकी भाषा को आपकी प्रतीक्षा है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गणेशविद्या – भाग 1- प्रा. अनिल गोरे ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी

सौ कुंदा कुलकर्णी

? इंद्रधनुष्य ? 

☆ गणेशविद्या – भाग 1 – प्रा. अनिल गोरे ☆ प्रस्तुती – सौ कुंदा कुलकर्णी ☆ 

गणपतीने ज्या वर्णसंचातून महाभारत लिहिले असे मानतात त्या वर्णसंचात स्वर, व्यंजनांची वैशिष्ट्यपूर्ण मांडणी आहे. त्या  संचासाठी वेळोवेळी नवी चिन्हे निर्माण केली गेली. त्या चिन्हांच्या सध्याच्या संचाला देवनागरी लिपी म्हणतात. ही लिपी वेगाने तसेच उच्चारानुसार लिखाणासाठी अत्यंत सोयीची आहे.

यातील अ ते ज्ञ अक्षरे वळणदार, वैशिष्ट्यपूर्ण आहेत. ० ते ९ अंक देखणे आहेत. कोणताही देवनागरी अंक लिहिताना सुरुवातीला टेकवलेली लेखणी अंक लिहून होईपर्यंत उचलावी लागत नाही. या लिपीतील चिन्हे १८ स्वर, ३३ व्यंजने व ३ संयुक्त व्यंजने यांचे प्रतिनिधित्व करतात.

५२ मुळाक्षरांच्या परस्पर संयोगाने जोडाक्षरे, बाराखड्यांच्या स्वरुपात लाखो स्वतंत्र अक्षरसमूह चिन्हे लिहिता येतात. भारतीय भाषांसाठी योजलेल्या लिप्या वगळता जगातील इतर अनेक लिप्यांमध्ये अशी संपन्नता नाही. गणपतीने म्हणजे देवाने ही लिपी नागरिकांसाठी बनविली या समजुतीने तिला देवनागरी लिपी म्हणतात.

ही समजूत कशी झाली याबाबत एक आख्यायिका प्रचलित आहे.

महर्षी व्यासांनी महाभारत लिहिण्यासाठी गणपतीला पाचारण केले. गणपतीने त्यांना एक अट घातली की, व्यासांनी महाभारत इतक्या सलगपणे सांगावे की, लिहिताना खंड पडू नये. व्यासांनी ही अट मान्य करतानाच एक अपेक्षा व्यक्त केली की, गणपतीने ध्वनीवर आधारित तसेच उच्चार आणि लेखन यात संपूर्ण सुसंगती असेल अशा वर्णसंचात लेखन करावे. गणपतीने महाभारत लेखन करताना असा नवा वर्णसंच निर्माण केला. उच्चार मुखातून बाहेर पडत असले तरी उच्चाराचा संबंध  शरीरातील कोणत्या भागांशी आहे का याचा गणपतीने अगोदर वेध घेतला. वेगवेगळे ध्वनी उच्चारताना मानवी शरीरातील पाठीच्या वेगवेगळ्या मणक्यांत तसेच मुखात संवेदना जाणवतात असे गणपतीच्या लक्षात आले. प्रत्येक मणक्याशी अशा प्रकारे जोडल्या गेलेल्या प्रत्येक स्वतंत्र ध्वनीसाठी गणपतीने एक चिन्ह निर्माण केले. अशा प्रत्येक चिन्हाला एक वर्ण म्हणतात. मानवी मणक्यांची संख्या ३३ आहे म्हणूनच गणपतीने आरेखित केलेली मणक्यांशी संबंधित वर्ण चिन्हे देखील ३३ होती. या ३३ वर्णांनाच आपण सध्या व्यंजने म्हणतो. या व्यंजनांचा उच्चार होताना जीभ मुखात कोठे ना कोठे टेकते असे लक्षात आल्यामुळे व्यंजनांचे कंठ्य, तालव्य, मूर्धन्य, दंत्य, ओष्ठ्य असे पाच प्रकार गणपतीला आढळले. या शिवाय काही उच्चारांचा मणक्यांशी संबंध नसून मुखाशी असलेल्या संबंधातही एक वैशिष्ट्य आहे हे गणपतीच्या लक्षात आले. या उच्चारांच्या वेळेस जीभ मुखात कोठेही टेकत नाही असे गणपतीला आढळले. अशा वेगळ्या वैशिष्ट्यपूर्ण उच्चारांसाठी गणपतीने जी वेगळी चिन्हे निर्माण केली त्यांना आपण आता स्वर म्हणतो. हे स्वर १६ आहेत. गणपतीने अशा प्रकारे ३३ चिन्हे व्यंजनांसाठी आणि सोळा चिन्हे स्वरांसाठी निर्माण केली. या चिन्हांचे दृश्य रूप काळाच्या ओघात बदलत गेले. गणपतीने कल्पिलेल्या सर्व वर्णांसाठी त्यानेच आरेखित केलेल्या चिन्हांमध्ये अनेक वेळा बदल झाले आणि त्या ४९ चिन्हात पुढील काळात आणखी ३ चिन्हांची भर पडून सध्या आपण वापरत असलेल्या ५२ चिन्हांच्या सध्याच्या रूपाला आपण देवनागरी लिपी म्हणतो. वाचन आणि लेखन अधिक वेगाने होण्यासाठी गणपतीने या चिन्हांपैकी काही अर्धी आणि एक पूर्ण जोडून जोडाक्षर निर्मितीही केली. जोडाक्षर हे  देवनागरी लिपीचे महत्वाचे वैशिष्ट्य असून ते अनेक भारतीय लिप्यांमध्ये आढळते. मानवी शरीरातील भागांशी उच्चारांच्या असलेल्या घनिष्ठ संबंधांमुळे मानवी बोलणे ९९.९९% प्रमाणात अचूक व नेमके लिहिणे देवनागरी लिपीतून जमते.

ही लिपी खरेच देवाधिदेव गणपतीने बनविली का? यावर आस्तिक, नास्तिकांचा वाद सुरु आहे, पण ही जगातील अत्यंत उपयुक्त लिप्यांपैकी एक महत्वाची लिपी आहे याबाबत दुमत नाही. ही लिपी जगातील बहुतेक सर्व भाषांमधील आशय उमटवण्यासाठी वापरता येते. सुमारे दोनशे भाषांमधून त्या प्रत्येक भाषेतील दहा हजारांपेक्षा अधिक लोक ही लिपी दैनंदिन स्वरूपात वापरतात.

क्रमशः….

ले : प्रा. अनिल गोरे 

संग्राहक : कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये

क्यू 17,  मौर्य विहार, सहजानंद सोसायटी जवळ कोथरूड पुणे

मो. 9527460290

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कलास्वाद ☆ भेंडाच्या कलाकृती ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

? कलास्वाद ?

☆ भेंडाच्या कलाकृती ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते ☆

आपण घरी बरेच मसाल्याचे पदार्थ वापरत असतो.प्रत्येक पदार्थांचा आकार,रंग ,वास,चव वेगळी असते.ते नेहमी मला खुणावत असतात त्यांच्या आकारात नेहमी मला वेगळे आकार दिसतात.

मसाल्याच्या  पदार्थांचा वापर करून मी चित्रे, रांगोळ्या काढल्या आहेत.

एकदा घरात मंगल कार्य होत खुप वेलदोडे सोलले होते खुप साली निघालेल्या,त्या फेकून देणे मला पटेना.या सालीचा वापर करून  काही तरी केले पाहिजे असे वाटू लागले  म्हणून त्या साली मी वेगळ्या ठेवून दिल्या.मला प्रत्येक सालीत एक पाकळी दिसत होती.साली गोलाकार चिटकवून काही फुले तयार केली.त्यांने भेटकार्ट सजवली.दोन सालीना कात्रीने आकार दिला तर यातून छान पिसे तयार झाली. खुप पिसे तयार केली.पेपरवर वेलदोड्याच्या सालीतून एका चिमणी ने आकार घेतला.याच पध्दतीने एक मोर तयार झाला.सालींना आकार देणे जरा जिकिरीचे होते पण तयार झालेली कलाकृती पाहून श्रम विसरून गेले.कलेची दृष्टी विकसित झाली की कश्यात ही आकार दिसतो हेच खरे.

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

सांगली

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…4 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…4”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…4 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

“मैं” की यात्रा का पथिक राग-द्वेष का पहला पड़ाव पार करने के बाद दूसरे पड़ाव की यात्रा शुरू करता है। वह स्मृतियों के बियाबान में प्रवेश करता है और पाता है कि जब “मैं” कौशोर्य अवस्था पर था तब उसे बताया गया कि वह रंग, देह, जाति, नस्ल, बुद्धि, सामर्थ और धन में दूसरों से श्रेष्ठ है। वहीं से “मैं” के ऊपर सच्ची झूठी प्रशंसा का लेप चढ़ाया जाने लगा। उसके चारों तरफ़ श्रेष्ठता रूपी ईंटों की दीवार खड़ी कर पलस्तर चढ़ा कर रंग रोगन से पक्का कर दिया। उसका मौलिक स्वरुप उसे ही दिखना बंद हो गया।

“मैं” जब भी दुनिया से मिलता-जुलता, लड़ता-झगड़ता “मैं” के ऊपर का अहंकार भाव का कड़क आवरण न सिर्फ़ उसकी रक्षा करता अपितु जीतने में उसकी भरपूर मदद भी करता। उसे विश्वास होने लगता कि उसका अहंकार ही मौलिक “मैं” है, वह पूरी तरह बदल चुका है। सफलता दर सफलता उसका मन पूरी तरह अहंकार के खोल में पैबंद हो गया है। पथिक की राह में यह दूसरी बड़ी बाधा है।

जब  “मैं” को बचपन में बताया जाता है कि वह दूसरों से अधिक ज्ञानी है, सुंदर है, बलवान है, गोरा है, ऊँचा है, ताकतवर है, धनी है, विद्वान है, और इसलिए दूसरों से श्रेष्ठ है, तो यहीं से अहंकार का बीज व्यक्तित्व के धरातल पर अंकुरित होता है। आदमी के मस्तिष्क में रोपित श्रेष्ठताओं का अहम प्रत्येक सफलता से पुष्ट होता जाता है। अहंकार श्रेष्ठता के ऐसे कई अहमों का समुच्चय है। अहंकार स्थायी भाव तथा अकड़ संचारी भाव है। जब अकारण श्रेष्ठता के कीड़े दिमाग़ में घनघनाते हैं तब जो बाहर प्रकट होता है, वह घमंड है, और क्रोध उसका उच्छ्वास है।” 

अहंकार व्यक्ति के निर्माण के लिए आवश्यक होता है। अहंकार को शासक का आभूषण कहा गया है। उम्र के चौथे दौर में निर्माण से निर्वाण की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर अहंकार भाव तिरोहित होना चाहिए, अन्यथा व्यर्थ की बेचैनी पीछा नहीं छोड़ती है।

“मैं” निर्माण से निर्वाण की यात्रा में कई सोपान तय करता है। “मैं” को दुनियादारी से निभाव के लिए समुचित मात्रा में अहंकार की ज़रूरत होती है। एक बार निर्माण पूरा हो गया फिर अहंकार की अनिवार्यता समाप्त हो जाती है। अहंकार की प्रवृत्ति जूझने की है। वह धन, यश, मोह में जकड़ा अपनो के लिए दूसरों से लड़ता है। जब लड़ने को कोई पराया नहीं मिलता तो अपनो से लड़ता है। दुनियावी उपलब्धियों का संघर्ष समाप्त होते ही अहंकार “मैं” को ही प्रताड़ित करने लगता है।   

एक ओर हम राम के विवेकसम्मत परिमित अहंकार को देखते हैं जब वे इसी समुंदर को सुखा डालने की चेतावनी देते हैं:-

“विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत,

बोले राम  सकोप तब,  भय बिनु होय न प्रीत।”

दूसरी तरफ़ हम रावण के अविवेकी अपरिमित अहंकार को पाते हैं, जो दूसरे की पत्नी को बलात उठा लाकर भोग हेतु प्रपंच रचता है। दूसरों से लड़ता उसका अहंकार  स्वयं के नज़दीकी रिश्तेदारों से लड़ने लगता है। फिर उसकी लड़ाई ख़ुद की ज़िद से शुरू होती है। वहाँ अहंकार और वासना मिल गए हैं जो मनुष्य को अविवेकी क्रोधाग्नि में बदलकर मूढ़ता की स्थिति में यश, धन, यौवन, जीवन; सबकुछ हर लेते हैं।’

अहंकार “मैं” के पैरों में पड़ी लोहे की ज़ंजीर है जो उसे टस से मस नहीं होने देती। कर्ता का अहंकार छोड़े बग़ैर “मैं” की यात्रा का पथिक आगे नहीं बढ़ सकता।

“आपका व्यक्तित्व मकान की तरह सफलता की एक-एक ईंट से खड़ा होता है। एक बार मकान बन गया, फिर ईंटों की ज़रूरत नहीं रहती। क्या बने हुए भव्य भवन पर ईंटों का ढेर लगाना विवेक़ सम्मत है? यदि “मैं” को अहंकार भाव से मुक्त होना है तो विद्वता, अमीरी, जाति, धर्म, रंग, पद, प्रतिष्ठा इत्यादि की ईंटों को सजगता पूर्वक ध्यान क्रिया या आत्म चिंतन द्वारा मन से बाहर निकालना होगा। यही निर्माण से निर्वाण की यात्रा है।”

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print