हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 31 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 31 ??

नित्य तीर्थ में पवित्र कैलाश पर्वत, मानसरोवर, काशी,  गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी आदि का समावेश है। माना जाता है कि इन स्थानों पर सृष्टि की रचना के समय से ही ईश्वर का वास है। 

जिन स्थानों की रज पर भगवान के चरण पड़े, वे भगवदीय तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनमें ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ, अयोध्या, वृंदावन आदि समाविष्ट हैं‌।

संतों की जन्मभूमि, कर्मभूमि, निर्वाणभूमि को संत तीर्थ कहा गया है। ये क्षेत्र मनुष्य को दिव्य अनुभूति एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं।

प्रत्यक्ष जीवन में, नित्य के व्यवहार में निरंतर ईश्वरीय सत्ता का दर्शन करनेवाली वैदिक संस्कृति अद्भुत है। वह अपने आसपास साक्षात तीर्थ देखती, दिखाती और जीवन को धन्य बनाती चलती है। इसी विराट व्यापकता ने अगले  6 तीर्थों में भक्त, गुरु, माता, पिता, पति, पत्नी को स्थान दिया है। अपने साथ ही तीर्थ लेकर जीने की यह वैदिक शब्दातीत दिव्यता है।

वैदिक दर्शन में चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवनचक्र के लिए उद्दिष्ट माने गये हैं। तीर्थ का एक अर्थ तीन पुरुषार्थ धर्म, काम और मोक्ष का दाता भी माना गया है। एक अन्य मत के अनुसार सात्विक, रजोगुण या तमोगुण जिस प्रकार का जीवन  जिया है, उसी आधार पर तीर्थ का परिणाम भी मिलता है। समान कर्म में भी भाव महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ परमाणु ऊर्जा से एक वैज्ञानिक बिजली बनाने की सोचता है जबकि दूसरा मानवता के नाश का मानस रखकर परमाणु बम पर विचार करता है।

जिससे संसार समुद्र तीरा जाए, उसे भी तीर्थ कहा जाता है। अगस्त्य मुनि ने एक आचमन में समुद्र को पी लिया था। प्रभु श्रीराम के धनुष उठाने पर समुद्र ने रास्ता छोड़ा था। तीर्थयात्रा संसार समुद्र के पार जाने का सेतु बनाती है।

तीर्थ मृण्मय से चिन्मय की यात्रा है। मृण्मय का अर्थ है मृदा या मिट्टी से बना। चिन्मय, चैतन्य से जुड़ा है। देह से देहातीत होना, काया से आत्मा की यात्रा है तीर्थ। आत्मा के रूप में हम सब एक ही परमात्मा के अंश हैं, इस भाव को पुनर्जागृत और पुनर्स्थापित करता है तीर्थ। अनेक से एक, एक से एकात्म जगाता है तीर्थ।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 100 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 11 – …लरका रोबैं न्यारे खौं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 100 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 11 – …लरका रोबैं न्यारे खौं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (1)

पांडे रोबैं रोटी खौं, पांडेन रोबैं धोती खौं, लरका रोबैं न्यारे खौं।

शाब्दिक अर्थ :- विपन्नता की स्थिति में खान पान और रहन सहन पूरा अस्त व्यस्त हो जाता है।

कोपरा नदी के किनारे बसे खेजरा गाँव में सजीवन पाँडे अपनी पत्नी रुकमणी व पुत्र भोला के साथ शिव  मंदिर के बाड़े में छोटी सी कुटिया बनाकर रहते थे। सजीवन पाँडे बड़े भुनसारे उठते, झाड़े जाते, नित्य क्रिया से फुरसत हो कोपरा नदी में 5-6 डुबकी लगा स्नान करते। स्नान के पूर्व अपनी  धोती को धोकर सुखाने के लिए बगराना न भूलते। ऐसा नहीं था की सजीवन पाँडे के पास इकलौती धोती थी, उनके पास धोती, कुर्ता और गमछा एक और सेट था, जिसे वे बड़ा संभालकर रखते और जब कभी कोई बड़ा जजमान उन्हे कथा पूजन में बुलाता तो इन कपड़ों को पहन माथे पर बड़ा सा त्रिपुंड टीका लगाकर, काँख में पोथी पत्रा दबाकर बड़े ठाट से जजमानी करने जाते। जजमानी में जाते वक्त उनकी इच्छा होती की जजमान दान दक्षिणा में एक सदरी दे दे तो उनका कपड़ों का सेट पोरा हो जाय। लोधी पटेलों और काछियों की इस गरीब बसाहट में उनकी इच्छा न तो भगवान ही सुनते और न ही जजमान। यदाकदा सजीवन पाँडे अपने साथ पंडिताइन व एकलौते पुत्र भोला को भी ले जाते। पंडिताइन तो अपने बक्से में  से बड़ी सहेज कर रखी गई साफ सुथरी साड़ी निकाल कर पहन लेती।  पंडिताइन के जीवन में यही अवसर होता जब वे नारी श्रंगार का संपूर्ण सुख भोगती, साड़ी को पेटीकोट पोलका के साथ पहनती और माथे पर टिकली बिंदी पैरों में महावर लगाती। इस पूरे श्रंगार से पंडिताइन का गोरा मुख चमक उठता और सजीवन पाँडे भी उनके रूप की प्रशंसा कर उठते पर यह कहते हुये कि भोला की अम्मा तुम्हें कोई सुख न दे पाया उनकी आँखे गीली हो जाती गला रूँध जाता। ऐसे में पंडिताइन ही सजीवन पाँडे को ढाढ़स बँधाती और कहती भोला के दद्दा चिंता ना करों हमारे दिन भी बहुरेंगे, शंकर भगवान कृपा करेंगे, आखिर बारा बरस में घूरे के दिन भी फिरत हैंगे। अम्मा दद्दा तो साज सँवर जाते पर  भोला  के भाग में चड्डी बनियान ही थी उस दिन सुबह सबरे से अम्मा भोला के कपड़े उतार बड़े जतन से धोती और सूखा देती तब तक  भोला नंग धड़ंग रहते और घर से बाहर न निकलते। उगारे भोला कुटिया के एक कोने में बैठे बिसुरते रहते। जाने के ठीक पहले उन्हे भी नहला धुलाकर चड्डी बनियान में सुसज्जित कर दिया जाता। कुलमिलाकर शिवालय के शंकरजी की पिंडी की सेवा व आसपास के गाँवों की जजमानी से सजीवन पाँडे की घर ग्रहस्ती चल रही थी या कहें कि घिसट रही थी  और उन पर यह कहावत कि “पाँडे रोबैं रोटी खौं, पाँडेन रोबैं धोती खौं, लरका रोबैं न्यारे खौं” (विपन्नता की स्थिति में खान पान और रहन सहन पूरा अस्त व्यस्त हो जाता है) तो फिट ही बैठती।

समय चक्र चलता रहा, भोला पाँडे इन्ही विपन्न परिस्थितियों में, अपने बाप सजीवन पाँडे की पंडिताई में सहायता करते हुये, हिन्दी व संस्कृत का अल्प ज्ञान ले, किशोर हो चले। गाँव में कोई स्कूल न था और हटा अथवा दमोह जहाँ पढ़ाने लिखाने की अच्छी व्यवस्था थी वहाँ भोला को भेज पाने की न तो सजीवन पांडे की आर्थिक हैसियत थी और न ही कोई जजमान या रिश्तेदार का घर जहाँ भोला को रख अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाया जा सके। उनकी उम्र कोई 14-15 वर्ष रही होगी कि सजीवन पाँडे को पुत्र के ब्याह की चिंता होने लगी। घर में तो भारी विपन्नता थी अत: पंडिताइन ने भोला का ब्याह तय करने में पति को सलाह देते हुये कहा कि भोला के दद्दा लरका को ब्याव ऐसी जागा करिओ जो कुलीन घर के होयं और खात पियत मैं अपनी बरोबरी के होयं। हमाइ बऊ कैत हती कै “सुत ऐसे घर ब्याहिए, जो समता में होय। खान पान बेहार में मिलता –जुलता होय।।“ सजीवन पाँडे को पत्नी की सलाह भा गई और साथ ही उन्हे  पास ही के गाँव इमलिया  के एक उच्च कुल के गरीब  ब्राह्मण व अपने बाल सखा राम मिलन तिवारी की याद आई। फिर क्या था बजाय संदेसन खेती करने के सजीवन पांडे अपने मित्र से मिलने इमलिया चले गए और उनकी कन्या से अपने पुत्र के विवाह की चर्चा  घुमा फिरा कर छेड  घर वापस आ गये। राम मिलन तिवारी  अपने बाल सखा का मंतव्य न समझ सके पर उनकी धर्मपत्नी जो ओट में बैठी दोनों मित्रों की बात सुन रही थी सब समझ गई। सजीवन पाँडे के वापस जाते ही उसने राम मिलन तिवारी से उनके मित्र के घर आने का कारण बताया और पुत्री के विवाह की चर्चा आगे बढ़ाने ज़ोर डाला। दोनों मित्र एक बार फिर मिले और भोला पाण्डेय का ब्याह तय कर दिया। राम मिलन तिवारी  बड़े कुलीन ब्राह्मण थे अत: उनके घर लक्ष्मी कभी कभार ही आती, लेकिन गाँव के लोगों ने इमलिया के इस सुदामा पर बड़ी कृपा करी और लड़की का ब्याह भोला पाँडे से करवाने पूरी सहायता करी। लोधी पटेलों ने  अन्न चुन्न दे दिया तो काछी सब्जी भाजी लेता आया। बजाजी ने दो चार जोड़ी  कपड़ा लत्ता की व्यवस्था कर दी तो कचेर ने टिकली बिंदी चूड़ी और श्रंगार का समान दे दिया। गाँव भर के युवा बारात के सेवा टहल के लिए आगे आए। राम मिलन तिवारी मौड़ी के ब्याह में कुछ खास दहेज न दे पाये बस किसी तरह नेंग- दस्तूर पूरे कर दिये। सजीवन पाँडे भी यारी दोस्ती के फेर में पड़ गए और पंडिताइन के लाख समझाने- बुझाने पर भी अपने मित्र से कुछ माँग न सके। ब्याह की भावरें पड़ी, बारातियों ने पंगत में पूरी, सुहारी, आलू की रसीली सब्जी में डुबो डुबोकर खाये और पचमेर की जगह केवल लड्डू बर्फी का आनंद लिया। सब्जी में आलू के टुकड़े ढूंढने से मिलते पर बारातियों ने उफ्फ न करी, हाँ । पत्तल की भोजन सामग्री खतम होती कि उसके पहले ही दोनों में गौरस परस दिया गया फिर क्या था बारात में आए पंडित रिश्तेदारों और खेजरा के अन्य ग्रामीणों  ने चार चार पूरी मींजकर गौरस में डाली और 5 मिनिट में ही उसे सफाचट कर गए। पंगत को भोजन का आनंद लेते देख राम मिलन तिवारी  बड़े प्रसन्न हुये और हुलफुलाहट में पूछ बैठे और कुछ महराज। उनका इतना कहना था कि पंगत में से आवाज आई दो-दो पूरी शक्कर के साथ और हो जाती तो सोने में सुहागा हो जाता। चिंतित राम सजीवन कुछ कहते  या पंगत में बिलोरा होता उसके पहले ही इमलिया के घिनहा बनिया बोल पड़े जो आज्ञा महराज और धीरे से बाहर निकल अपनी दुकान से एक बोरी शक्कर उठा लाये। फिर क्या था इधर पंगत शक्कर  के साथ दो दो  पूरी और उदरस्त कर रही थी कि चुन्नु नाई ने यह बोलते हुये पंगत समाप्त करने की सोची “समदी माँगे दान दायजौ, लरका माँगै जोय.सबै बाराती जो चहें अच्छी पंगत होय॥“ उधर राम मिलन आखों मे कृतज्ञता का भाव लिए घिनहा बनिया की ओर ताक रहे थे और मन  ही मन सोच रहे थे कि लड़की को अच्छा वर मिला तो लड़के को सुंदर कन्या मिली बराती भी गाँव वालों के सहयोग से अच्छी पंगत पा गए बस समधी ही दान दहेज से वंचित रह गए। पर उनके बस में दान दहेज देना न था। घर की विपन्नता में दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जाता यही बहुत था। वे बारबार बांदकपुर के भोले शंकर जागेशवरनाथ और हटा की चंडी माता का सुमरन कर रहे थे कि सजीवन पाण्डेय उनके पास विदा लेने आ पहुँचे। अश्रुपूरित आखों से राममिलन तिवारी ने अपने बाल सखा की ओर देखा और फिर नए समधी और दामाद भोला पांडे  को साष्टांग दंडवत कर प्रणाम किया। रुँधे गले से उनके मुख से बस इतना ही निकला कि महराज हमाई स्थिति से आप परचित हो कोनौ कमी रै गई होय और अनुआ होय  तो क्षिमा करियों। इतना कह वे अपनी गरीबी के  दुर्भाग्य पर फूट फूट कर रो पड़े। सजीवन पांडे ने समधी को गले लगाया और दुरागमन की बात आगे कभी करने की कह विदा ली।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 30 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 29 ??

तीर्थ : व्याख्या और मीमांसा-

भारतीय दर्शन में तीर्थ के अनेक अर्थ मिलते हैं। ‘तरति पापादिकं तस्मात।’ अर्थात जिसके द्वारा मनुष्य दैहिक, दैविक एवं भौतिक, सभी प्रकार के पापों से तर जाए, वह तीर्थ है। इसीके समांतर भवसागर से पार उतारने वाला/ वैतरणी पार कराने वाला के अर्थ में भी तीर्थ को ग्रहण किया जाता है।

संभवत: इसी आधार पर स्कंदपुराण के काशी खंड में तीन प्रकार के तीर्थ बताये गए हैं- जंगम, स्थावर तथा मानस। संत, वेदज्ञ एवं गौ, जंगम यानि चलते-फिरते तीर्थ। सत्पुरुषों को जंगम तीर्थ कहा गया। सच्चे और परोपकारी भाव के सज्जनों का आशीर्वाद फलीभूत होने की सामुदायिक मान्यता भी जंगम तीर्थ को मिली है। कतिपय विशिष्ट स्थानों को स्थावर तीर्थ कहा गया। इन स्थानों का अपना महत्व होता है। यहाँ एक दैवीय सकारात्मकता का बोध होता है। अद्भुत प्रेरणादायी ऐसे तीर्थस्थान सामान्यत: जल या जलखंड के समीप स्थित होते हैं। ‘पद्मपुराण’ स्थावर तीर्थों को परिभाषित करते हुए लिखता है,

तस्मात् तीर्थेषु गंतव्यं नरै: संसार भिरूभि: पुण्योदकेषु सततं साधुश्रेणी विराजिषु।

पग-पग पर बुद्धिवाद को प्रधानता देनेवाली वैदिक संस्कृति ने समस्त तीर्थों में मानसतीर्थ को महत्व दिया है। मानसतीर्थ अर्थात मन की उर्ध्वमुखी प्रवृत्तियाँ। इनमें सत्य, क्षमा, इंद्रियनिग्रह, दया, दान, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, मधुरवचन, सरलता, संतोष सभी शामिल हैं।

अनेक मीमांसाकारों ने तीर्थों के 9 प्रकार बताते हैं। उन्होंने पहले तीन प्रकार का नामकरण नित्य, भगवदीय एवं संत तीर्थ किया है। ये तीर्थ ऐसे हैं जो अपने स्थान पर सदा के लिए स्थित हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆”शेरू” ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – “शेरू.)

☆ आलेख ☆ “शेरू☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज हमारे एक समूह में शेर पर लंबी चर्चा हुई, तो हमारा शेरू (पालतू कुत्ता) भी कहने लगा कि हम पर भी कभी चर्चा कर लिया करो, हम कोई धोबी के कुत्ते तो है नहीं, जो कि “ना घर के ना घाट के” कहलाये। हमे उसकी बात में दम लगा। शेरू फिर कहने लगा वैसे तो हर कुत्ता अपनी गली का शेर होता है, लेकिन चूंकि वो सोसाइटी के फ्लैट में रहता है इसलिए उसे अपने फ्लोर का शेर कह सकते हैं।

शेरू आजकल बहुत प्रसन्नचित्त रहता है, जबसे चुनाव आयोग ने मतदान की तिथियों की घोषणा की वो खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा है।

सूरज के ढलते ही वो टीवी के सामने अपना आसन लगा कर बैठ जाता हैं। जब तक टीवी चालू कर “राजनीतिक बहस” का चैनल नहीं लगता उसको चैन नहीं आती। जैसे जैसे बहस में तेज़ी आती है, वो भी अपनी वाणी से गुर्रा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देता है। कल हम टीवी चला कर वाट्स एप पर बिखरे हुए ज्ञान को समेटने लगे तो शेरू ने अपने पंजे से हमारा मोबाईल बिस्तर पर गिरा दिया। उसकी सोच भी सही है, जब इतनी बढ़िया बेवकूफी की बहस से मनोरंजन हो रहा है, तो उससे वंचित क्यों रहना चाहिए।

श्रीमती जी भी खुश हैं, टीवी देखते हुए शेरू को खाने में घर का बना हुआ कुछ भी परोस दो, वो बिना नखरे के खा लेता है। वरना शेरू को भी जब तक ऑनलाइन डॉग फूड ना मंगवा कर दो, वो भूखा रह लेता पर घर का बना भोजन नहीं खाता हैं। चलो टीवी की बहस सुनते हुए उसकी आदतों में सुधार आ रहा हैं। वैसे हम भी जब टीवी में मग्न होते हैं तो नापसंद वस्तुएं भी हज़म कर जाते हैं। शायद शेरू भी जाने अनजाने में हमसे ये सब सीख गया हो।                           कोविड की तीसरी लहर से पूर्व शेरू शाम को हमारे साथ बगीचे में सैर पर जाता था। वहाँ उसके समाज के लोग भी बड़ी संख्या में आते थे। वहाँ उनसे वो भी लंबी वार्तालाप कर लेता था।    

अब माहौल को देखते हुए जब सांयकालीन भ्रमण बंद है, तो शेरू को टीवी में बहस करते हुए लोग अपने समाज के ही लगते है। बिना किसी सार्थक विषय के एक दूसरे के कपड़े फाड़ने पर उतारू चंद लोग सड़क पर बिना किसी कारण के भौंकते हुए कुत्तों जैसा व्यवहार ही तो करते हैं।   

अब लेखनी को विराम देता हूँ, शेरू टीवी के सामने आसन लगा कर बैठ गया है। समय का बड़ा पाबंद है, हमारा शेरू।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 29 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 29 ??

एकात्म यात्रा- तीर्थयात्रा :

उत्सव, मनुष्य की रगों में रक्त बनकर दौड़ते हैं। प्रकृति ने भीतर सब कुछ दिया है पर उसे चलायमान करना पड़ता है। कुछ वैसे ही जैसे स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में बदलना पड़ता है। यह तो हुआ विज्ञान का पक्ष पर अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो जैसे प्रभु श्रीराम ने निष्प्राण अहिल्या में प्राण फूँके, इसी भांति अंतर्भूत उत्सवधर्मिता को पर्व जागृत करते हैं।

पर्व का केंद्र घर होता है। नाते-रिश्तेदार, पास-पड़ोस, मोहल्ला मिलकर पर्व का आनंद बढ़ा देते हैं। पर्व का विस्तार है मेला। मेल-मिलाप के लिए अनगिनत घर परिवार, बृहत्तर समूह संग आता है। एक से पाँच-छह दिन चलने वाला पर्व, मेला में बदलने पर एक सप्ताह से एकाध महीने की अवधि तक चलता है। पर्व से मेला के विस्तार का अगला संस्करण है तीर्थयात्रा।

पर्व घर पर मनाते जाते हैं। मेला घर से कुछ दूरी पर किसी खुले स्थान पर / कस्बा /शहर/कुछ घंटे की दूरी पर तहसील आदि में आयोजित होते हैं। अलबत्ता तीर्थ के लिए न्यूनाधिक पर अनिवार्य रूप से यात्रा करनी पड़ती है। इस यात्रा के कारण में भारतीय समाज मानता है कि अपने कष्टों को हरने की हरि से गुहार लगाने के लिए देह को कुछ कष्ट तो वहन करना ही चाहिए।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 129 ☆ मिलें होली, खेलें होली ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 129 ☆ मिलें होली, खेलें होली ?

क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य/

अपने भीतर देखो रंगों का इंद्रधनुष..,

जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में  हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।

फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत:  दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।

नेह की सरिता जब धाराप्रवाह बहती है तो धारा न रहकर राधा हो जाती है। शाश्वत प्रेम की शाश्वत प्रतीक हैं राधारानी। उनकी आँखों में, हृदय में, रोम-रोम में प्रेम है, श्वास-श्वास में राधारमण हैं।

सुनते हैं कि एक बार राधारमण गंभीर रूप से बीमार पड़े। सारे वैद्य हार गए। तब भगवान ने स्वयं अपना उपचार बताते हुए कहा कि उनकी कोई परमभक्त गोपी अपने चरणों को धो कर यदि वह जल उन्हें पिला दे तो वह ठीक हो सकते हैं। परमभक्त सिद्ध न हो पाने भय, श्रीकृष्ण को चरणामृत देने का संकोच जैसे अनेक कारणों से कोई गोपी सामने नहीं आई। राधारानी को ज्यों ही यह बात पता लगी, बिना एक क्षण विचार किए उन्होंने अपने चरण धो कर प्रयुक्त जल भगवान के प्राशन के लिए भेज दिया।

वस्तुत: प्रेम का अंकुरण भीतर से होना चाहिए। शब्दों को  वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर  जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।

प्रेम ना बाड़ी ऊपजै / प्रेम न हाट बिकाय/

राजा, परजा जेहि रुचै / सीस देइ ले जाय…

बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीश देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..!

इंद्रधनुष का सुलझा गणित / रंगी-बिरंगी छटाएँ अंतर्निहित / अंतस में पहले सद्भाव जगाएँ /नित-प्रति तब  होली मनाएँ।….

मिलें होली, खेलें होली! ..शुभ होली।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #113 ☆ स्पर्श एक क्रिया ही नहीं अनुभूतिकोश भी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 113 ☆

☆ ‌आलेख – ‌स्पर्श एक क्रिया ही नहीं अनुभूतिकोश भी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यूं तो स्पर्श शब्द का शाब्दिक अर्थ मात्र छूने से ही है, यह पढ़ने सुनने में अति साधारण सा शब्द होते हुए भी अपने आप में असाधारण अनुभव की अनुभूतियां समेटे हुए है. इसमें गजब का सम्मोहन समाया हुआ है. यह हृदय को सकारात्मक अनुभव प्रदान करता है. यह सामने खड़े सचेतन जीव जगत के उपर गहरा प्रभाव छोडता है, तथा अबोध बालक से लेकर अबोध जानवरों को भी सकारात्मक तथा नकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए उकसाता है ,आप ने भी अपने जीवन में कभी कभार स्पर्श की दिव्य अनुभूति की होगी. एक मां की लोरी और थपकी में ऐसी क्या अनुभूति है‌ जो अबोध बालक को गहरी नींद में सुला देती है.

हाथों के अंगुलियों का प्रेयसी के बालों को सहलाना जहां प्रेयसी को आपकी बांहों में आने तथा आलिंगन को बाध्य करता है तो वहीं कोमल स्पर्श जानवरों को भी सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए उत्साहित करता है.

यह स्पर्श ही है जो मात्र अलग-अलग ढंग से छूने मात्र से छूने वाले ब्यक्ति के उद्देश्य तथा हृदय की अभिव्यक्ति को दर्शाता है. यह ब्याकरणीय संरचना के अनुसार एक क्रिया है. जिसमें भावों के आदान-प्रदान का गुण गहराई से रचा बसा है आखिर क्या कारण है

कि हम जब किसी मूर्ति अथवा किसी सकारात्मक ऊर्जा वाले व्यक्ति के पैरों को छूकर आशीर्वाद लेते हैं , तो हृदय भावनाओं से ओत-प्रोत हो जाता है और इसकी अंतिम परिणति श्रद्धा भक्ति के रूप में दृष्टि गोचर होती है.  

इस प्रकार स्पर्श का अर्थ मात्र एक क्रियात्मक शब्द बोध ही नहीं, भावनात्मक बोध भी है.

– सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 28 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 28 ??

मेलों का महत्व-

मेले परम्पराओं और रीति-रिवाजों का जतन करते हैं। मेले सांस्कृतिक धरोहर का वहन करते हैं। सदियों से चले आ रहे पर अब लगभग समाप्तप्राय अनेक खेल, तमाशा, मेलों में देखने को मिलते हैं। अनेक लोककलाएँ केवल मेलों के दम पर टिकी हैं।

कभी-कभार जिनसे काम पड़ता हो, ऐसे अनेक शिल्पी, प्रशिक्षित कारीगर यहाँ अपनी कारीगरी की प्रदर्शनी करते हैं। लोग उनके सम्पर्क क्रमांक लेते हैं। इस तरह इन सधे हाथों को व्यापार मिलता है, वाणिज्यिक लेन-देन बढ़ता है, समाज की आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। साथ ही समाज में हर प्रतिभा को मंच एवं मान्यता मिलते हैं। कहा जा सकता है कि हर मेला समाज के विभिन्न घटकों के बीच सम्बन्धों को अधिक घनिष्ठ करता है।

हर समाज की अपनी कुछ  सार्वजनिक मान्यताएँ तथा वर्जनाएँ भी होती हैं। कुछ वर्जनाएँ तो अकारण ही समाज में घर किये बैठी होती हैं। समाज जब साथ आता है, एक-दूसरे से प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग करता है तो व्यवहारिकता की कसौटी पर वर्जनाएँ कसी जाती हैं। फलत: अनेक वर्जनाएँ समाप्त हो जाती हैं। अस्पृश्यता से लेकर भोजन के आदान-प्रदान तक अनेक वर्जनाओं को दुर्बल करने में मेलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

मराठी में एक कहावत है जिसका अर्थ है कि सारे स्वांग हो सकते हैं पर पैसे का स्वांग संभव नहीं होता। हाथ में पैसा होना समाज की रीढ़ होता है। मेले से होनेवाले आर्थिक लाभ से समुदाय को अपनी रोजी-रोटी जुटाने और टिकाने में सहायता मिलती है।

मनुष्य जंगल में रहा या नागरी जीवन में, मनोरंजन उसे दैहिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखने का बड़ा कारण रहा है। मेलों के माध्यम से होनेवाला मनोरंजन विशेषकर गाँव और कस्बाई जीवन को नये उत्साह एवं उमंग से भर देता है।

मेला देखने के लिए गाँव से निकला व्यक्ति प्राय:  आसपास के इलाके घूम भी लेता है। इससे पर्यटन और वित्तीय विनिमय को विस्तार मिलता है।

सबसे महत्वपूर्ण है मानव की मानवता का बचा रहना। सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक परंपराओं से जुड़ा होना कहीं न कहीं मनुष्य को अमनुष्य होने से बचाए रखता है। मेला मनुष्य और मनुष्यता के बीच सेतु की भूमिका का निर्वाह करता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 123 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 123 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 27 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 27 ??

घोटुल- हर आदिवासी और वनवासी समाज में मेलों के परंपरा बहुत पुरानी है। आदिवासी संस्कृति, खानपान, पहनावे को लेकर अनेक स्थानों पर छोटे-बड़े आदिवासी मेला लगते हैं। असम और पूर्वोत्तर में आज भी ‘घोटुल’ की परंपरा है जिसके माध्यम से विवाहेच्छुक को अपना जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता है।

पर्यटन मेला- गुजरात का कच्छ उत्सव, राजस्थान का मरुस्थल उत्सव आदि मूलरूप से पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से आयोजित मेला हैं। मरुस्थलीय संगीत, गारी नृत्य, लोक संगीत, लोक गीत, ऊँटों की कलाबाजी, दौड़, साज-सज्जा, पोलो, रस्साकशी अनेक प्रतियोगिताएँ यथा पगड़ी बांधना, मूँछ का प्रदर्शन सभी पर्यटकों की दृष्टि से विशेष रोचक होते हैं।  

अन्य-  भारत में प्राकट्य दिवस हो, संतों की जन्मतिथि हो, पुण्यतिथि अथवा ऋतु परिवर्तन, हर अवसर पर  मेले लगते हैं। हरिद्वार, वाराणसी तथा अन्य स्थानों पर होती गंगा जी की आरती भी एक प्रकार से मेला ही है। हर मंदिर में छोटे-बड़े स्तर पर एक मेला का आयोजन तो होता ही है। हरेक का विवरण व वर्णन संभव ही नहीं है। यह कुल जमा ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ जैसी स्थिति है। मेलों की अनंत यात्रा को यहाँ विराम देकर तीर्थों की असीम यात्रा पर निकला जाए।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares