श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी “मैं” की यात्रा का पथिक…1”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…1 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
अन्य सभी समूहों की तरह यह समूह भी बौद्धिक, भावुक, भौतिक, आध्यात्मिक में से किसी एक या दो मौलिक प्रवृत्तियों से प्रधानतः परिचालित मनुष्यों का समूह है। यह लेख आध्यात्मिक रुझान के व्यक्तियों के लिए महत्व का हो सकता है। धार्मिकता और आध्यात्मिकता में बहुत अंतर होता है। आध्यात्मिक ज्ञान की खोज आत्मचिंतन से आरम्भ होकर प्रज्ञा पर जाकर खुलती है। जिसमें बाहरी अवयवों को छोड़ना होता है। यानि मोह की सत्ता को नकारना। धन, व्यक्ति, स्थान, ईश्वर मोह से बाँधते हैं। पत्नी, संतान, भौतिक वस्तुएँ मुझसे अलग हैं। यहाँ तक कि मेरे अंदर पार्थिव देह भी मुझसे विलग है। “मैं” नितांत अकेला है, जैसा जन्म के समय था, जैसा मृत्यु के समय होगा।
इन्हें त्यागकर गृह त्यागने वाला सन्यासी होता है। जो घर में रहकर ही अभ्यास करता है वह गृहस्थ सन्यासी।
हम सब उम्र के जिस पड़ाव पर हैं उसमें “मैं की यात्रा” पर चिंतन-मनन आनंददायक और बहुत राहत देने वाला अभ्यास हो सकता है। कभी हमने काग़ज़-पेन लेकर शांति से बैठकर सोचा ही नहीं कि जन्म से लेकर अब तक “मैं की यात्रा” किन पड़ावों से होकर गुजरी है। यह यात्रा नितांत अकेली है। कोई संगी-साथी नहीं। मैं और मेरी चेतना, परमात्मा से अलग भी और जुड़ी भी।
“मैं की यात्रा” के चार आयाम होते हैं- मेरी बौद्धिक यात्रा, मेरी भावनात्मक यात्रा, मेरी दैहिक यात्रा और मेरी आध्यात्मिक यात्रा। हम क्यों न इन चार यात्राओं पर चिंतन-मनन करें। इसके दो लाभ हो सकते हैं-
एक-यादों के रेचन से राहत महसूस होगी,
दूसरा- वर्तमान से आगे आनंददायक समय गुज़ारने के बारे में हमारा नज़रिया खुलेगा।
हो सकता है कुछ लोगों को यह महज़ बकवास लगे लेकिन पिछले छै महीनों में मैंने इस धारणा पर काम किया है। उसका सबसे बड़ा फ़ायदा हुआ कि “मैं क्या चाहता हूँ” यह अच्छी तरह से स्पष्ट होने लगा। मेरा आनंददायक समय का दायरा बढ़ने लगा है। समय आनंद से गुजरे, इस उम्र में इससे बड़ा वरदान कुछ और नहीं हो सकता।
महान दार्शनिक बर्ट्रेन्ड रसल की पुस्तक “Conquest of Happiness” में बताया गया है कि “अक्सर हम अपने से बात ही नहीं करते हैं। दूसरों से बातें करके अपना मापदंड तय करके समय गुज़ारते रहते हैं।”
भारतीय संदर्भ में कहें तो “आत्म चिंतन” नहीं करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हमारा नियंत्रण दूसरों के जैसे अख़बार, देश, समाज, रिश्तेदार, मीडिया, के हाथों में रहता हैं। हमारी खुद की चाहत नज़रअन्दाज़ होती जाती है। हम बेवजह परेशान होते रहते हैं।
जीवन का समय या तो यूँ ही गुजरता है, या चिंता व्याधि से बीतता है या इंद्रिय सुख-दुःख की अल्टा पलटी में गुजरता है। जीवन का आनंद और उस आनंद से मिलती राहत की अनुभूति कहीं गुम हो जाती है क्योंकि हम क्या चाहते हैं हमें इसका पता ही नहीं चलता।
खुद से बात के लिए हमें सबसे अलग होना होता है। आत्म तत्व को देह तत्व से विलग करना होता है। तब “मैं की यात्रा” शुरू होती है। सोचिए समझिए ठीक लगे तो अभ्यास कीजिए अन्यथा बकवास समझ कर दुनियावी बीन पर नाचते रहिए।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈