हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…1”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…1 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

अन्य सभी समूहों की तरह यह समूह भी बौद्धिक, भावुक, भौतिक, आध्यात्मिक में से किसी एक या दो मौलिक प्रवृत्तियों से प्रधानतः परिचालित मनुष्यों का समूह है। यह लेख आध्यात्मिक रुझान के व्यक्तियों के लिए महत्व का हो सकता है। धार्मिकता और आध्यात्मिकता में बहुत अंतर होता है। आध्यात्मिक ज्ञान की खोज आत्मचिंतन से आरम्भ होकर प्रज्ञा पर जाकर खुलती है। जिसमें बाहरी अवयवों को छोड़ना होता है। यानि मोह की सत्ता को नकारना। धन, व्यक्ति, स्थान, ईश्वर मोह से बाँधते हैं। पत्नी, संतान, भौतिक वस्तुएँ मुझसे अलग हैं। यहाँ तक कि मेरे अंदर पार्थिव देह भी मुझसे विलग है। “मैं” नितांत अकेला है, जैसा जन्म के समय था, जैसा मृत्यु के समय होगा।

इन्हें त्यागकर गृह त्यागने वाला सन्यासी होता है। जो घर में रहकर ही अभ्यास करता है वह गृहस्थ सन्यासी।

हम सब उम्र के जिस पड़ाव पर हैं उसमें “मैं की यात्रा” पर चिंतन-मनन आनंददायक और बहुत राहत देने वाला अभ्यास हो सकता है। कभी हमने काग़ज़-पेन लेकर शांति से बैठकर सोचा ही नहीं कि जन्म से लेकर अब तक “मैं की यात्रा” किन पड़ावों से होकर गुजरी है। यह यात्रा नितांत अकेली है। कोई संगी-साथी नहीं। मैं और मेरी चेतना, परमात्मा से अलग भी और जुड़ी भी।

“मैं की यात्रा” के चार आयाम होते हैं- मेरी बौद्धिक यात्रा, मेरी भावनात्मक यात्रा, मेरी दैहिक यात्रा और मेरी आध्यात्मिक यात्रा। हम क्यों न इन चार यात्राओं पर चिंतन-मनन करें। इसके दो लाभ हो सकते हैं-

एक-यादों के रेचन से राहत महसूस होगी,

दूसरा- वर्तमान से आगे आनंददायक समय गुज़ारने के बारे में हमारा नज़रिया खुलेगा।

हो सकता है कुछ लोगों को यह महज़ बकवास लगे लेकिन पिछले छै महीनों में मैंने इस धारणा पर काम किया है। उसका सबसे बड़ा फ़ायदा हुआ कि “मैं क्या चाहता हूँ” यह अच्छी तरह से स्पष्ट होने लगा। मेरा आनंददायक समय का दायरा बढ़ने लगा है। समय आनंद से गुजरे, इस उम्र में इससे बड़ा वरदान कुछ और नहीं हो सकता।

महान दार्शनिक बर्ट्रेन्ड रसल की पुस्तक “Conquest of Happiness” में बताया गया है कि “अक्सर हम अपने से बात ही नहीं करते हैं। दूसरों से बातें करके अपना मापदंड तय करके समय गुज़ारते रहते हैं।”

भारतीय संदर्भ में कहें तो “आत्म चिंतन” नहीं करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हमारा नियंत्रण दूसरों के जैसे अख़बार, देश, समाज, रिश्तेदार, मीडिया, के हाथों में रहता हैं। हमारी खुद की चाहत नज़रअन्दाज़ होती जाती है। हम बेवजह परेशान होते रहते हैं।

जीवन का समय या तो यूँ ही गुजरता है, या चिंता व्याधि से बीतता है या इंद्रिय सुख-दुःख की अल्टा पलटी में गुजरता है। जीवन का आनंद और उस आनंद से मिलती राहत की अनुभूति कहीं गुम हो जाती है क्योंकि हम क्या चाहते हैं हमें इसका पता ही नहीं चलता।

खुद से बात के लिए हमें सबसे अलग होना होता है। आत्म तत्व को देह तत्व से विलग करना होता है। तब “मैं की यात्रा” शुरू होती है। सोचिए समझिए ठीक लगे तो अभ्यास कीजिए अन्यथा बकवास समझ कर दुनियावी बीन पर नाचते रहिए।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 99 ☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख स्वार्थ-नि:स्वार्थ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 99 ☆

☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆

‘बिना स्वार्थ आप किसी का भला करके देखिए; आपकी तमाम उलझनें ऊपर वाला सुलझा देगा।’ इस संसार में जो भी आप करते हैं; लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म करने की सलाह दी जाती है। परन्तु आजकल हर इंसान स्वार्थी हो गया है। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं तथा परिवार पति-पत्नी व बच्चों तक ही सीमित नहीं रहे; पति-पत्नी तक सिमट कर रह गये हैं। उनके अहम् परस्पर टकराते हैं, जिसका परिणाम अलगाव व तलाक़ की बढ़ती संख्या को देखकर लगाया जा सकता है। वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने व प्रतिशोध लेने हेतु कटघरे में खड़ा करने का भरसक प्रयास करते हैं। विवाह नामक संस्था चरमरा रही है और युवा पीढ़ी ‘तू नहीं, और सही’ में विश्वास करने लगी हैं, जिसका मूल कारण है अत्यधिक व्यस्तता। वैसे तो लड़के आजकल विवाह के नाम से भी कतराने लगे हैं, क्योंकि लड़कियों की बढ़ती लालसा व आकांक्षाओं के कारण वे दहेज के घिनौने इल्ज़ाम लगा पूरे परिवार को जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाने में तनिक भी संकोच नहीं करतीं। कई बार तो वे अपने माता-पिता की पैसे की बढ़ती हवस के कारण वह सब करने को विवश होती हैं।

स्वार्थ रक्तबीज की भांति समाज में सुरसा के मुख की भांति बढ़ता चला जा रहा है और समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है। इसका मूल कारण है हमारी बढ़ती हुई आकांक्षाएं, जिन की पूर्ति हेतु मानव उचित-अनुचित के भेद को नकार देता है। सिसरो के मतानुसार ‘इच्छा की प्यास कभी नहीं बझती, ना पूर्ण रूप से संतुष्ट होती है और उसका पेट भी आज तक कोई नहीं भर पाया।’ हमारी इच्छाएं ही समस्याओं के रूप में मुंह बाये खड़ी रहती हैं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है तथा समस्याओं का यह सिलसिला जीवन के समानांतर सतत् रूप से चलता रहता है और मानव आजीवन इनके अंत होने की प्रतीक्षा करता रहता है; उनसे लड़ता रहता है। परंतु जब वह समस्या का सामना करने पर स्वयं को पराजित व असमर्थ अनुभव करता है, तो नैराश्य भाव का जन्म होता है। ऐसी स्थिति में विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता होती है तथा समस्याओं को जीवन का अपरिहार्य अंग मानकर चलना ही वास्तव में जीवन है।

समस्याएं जीवन की दशा व दिशा को तय करती हैं और वे तो जीवन भर बनी रहती है। सो! उनके बावजूद जीवन का आनंद लेना सीखना कारग़र है। वास्तव में कुछ समस्याएं समय के अनुसार स्वयं समाप्त हो जाती हैं; कुछ को मानव अपने प्रयास से हल कर लेता है और कुछ समस्याएं कोशिश करने के बाद भी हल नहीं होती। ऐसी समस्याओं को समय पर छोड़ देना ही बेहतर है। उचित समय पर वे स्वत: समाप्त हो जाती हैं। इसलिए उनके बारे में सोचो मत और जीवन का आनंद लो। चैन की नींद सो जाओ; यथासमय उनका समाधान अवश्य निकल आएगा। इस संदर्भ में मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहती हूं कि जब तक हृदय में स्वार्थ भाव विद्यमान रहेगा; आप निश्चिंत जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते और कामना रूपी भंवर से कभी बाहर नहीं आ सकते। स्वार्थ व आत्मकेंद्रिता दोनों पर्यायवाची हैं। जो व्यक्ति केवल अपने सुखों के बारे में सोचता है, कभी दूसरे का हित नहीं कर सकता और उस व्यूह से मुक्त नहीं हो पाता। परंतु जो सुख देने में है, वह पाने में नहीं। इसलिए कहा जाता है कि जब आपका एक हाथ दान देने को उठे, तो दूसरे हाथ को उसकी खबर नहीं होनी चाहिए। ‘नेकी कर और कुएं में डाल’ यह सार्थक संदेश है, जिसका अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। यह प्रकृति का नियम है कि आप जितने बीज धरती में रोपते हैं; वे कई गुना होकर फसल के रूप में आपके पास आते हैं। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से किए गये कर्म असंख्य दुआओं के रूप में आपकी झोली में आते हैं। सो! परमात्मा स्वयं सभी समस्याओं व उलझनों को सुलझा देता है। इसलिए हमें समीक्षा नहीं, प्रतीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानता है तथा वही करता है; जो हमारे लिए बेहतर होता है।

‘अच्छे विचारों को यदि आचरण में न लाया जाए, तो वे सपनों से अधिक कुछ नहीं हैं’ एमर्सन की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। स्वीकारोक्ति अथवा प्रायश्चित सर्वोत्तम गुण है। हमें अपने दुष्कर्मों को  मात्र स्वीकारना ही नहीं चाहिए; प्रायश्चित करते हुए जीवन में दोबारा ना करने का मन बनाना चाहिए। वाल्मीकि जी के मतानुसार संत दूसरों को दु:ख से बचाने के लिए कष्ट सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने के लिए।’ सो! जिस व्यक्ति का आचरण अच्छा होता है, उसका तन व मन दोनों सुंदर होते हैं और वे संसार में अपने नाम की अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

दूसरी ओर दुष्ट लोग दूसरों को कष्ट में डालकर सुक़ून पाते हैं। परंतु हमें उनके सम्मुख झुकना अथवा पराजय स्वीकार नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वीर पुरुष युद्ध के मैदान को पीठ दिखा कर नहीं भागते, बल्कि सीने पर गोली खाकर अपनी वीरता का प्रमाण देते हैं। सो! मानव को हर विषम परिस्थिति का सामना साहस-पूर्वक करना चाहिए। ‘चलना ही ज़िंदगी है और निष्काम कर्म का फल सदैव मीठा होता है। ‘सहज पके, सो मीठा होय’ और ‘ऋतु आय फल होय’ पंक्तियां उक्त भाव की पोषक हैं। वैसे ‘हमारी वर्तमान प्रवृत्तियां हमारे पिछले विचार- पूर्वक किए गए कर्मों का परिणाम होती हैं।’ स्वामी विवेकानंद जन्म-जन्मांतर के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। सो! झूठ आत्मा के खेत में जंगली घास की तरह है। अगर उसे वक्त रहते उखाड़ न फेंका जाए, तो वह सारे खेत में फैल जाएगी और अच्छे बीज उगने की जगह भी ना रहेगी। इसलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में ही दबा दें। यदि आपने तनिक भी ढील छोड़ी, तो वह खरपतवार की भांति बढ़ती रहेगी और आपको उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देगी; जहां से लौटने का कोई मार्ग शेष नहीं बचेगा।

प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं, अगर देने लग जाओ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। सो! लफ़्ज़ों को सदैव चख कर व शब्द संभाल कर बोलिए। शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। शब्द यदि सार्थक हैं, तो प्राणवायु की तरह आपके हृदय को ऊर्जस्वित कर सकते हैं। यदि आप अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो दूसरों के हृदय को घायल भी कर सकते हैं। इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलिए। यह आप्त मन में आशा का संचरण करती है। निगाहें भी व्यक्ति को घायल करने का सामर्थ्य रखती हैं। दूसरी ओर जब कोई अनदेखा कर देता है, तो बहुत चोट लगती है। अक्सर रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं और जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बहुत तकलीफ़ होती है। परंतु जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है, तो उससे भी अधिक तकलीफ़ होती है। इसलिए जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकारें; संबंध लंबे समय तक बने रहेंगे। अपने दिल में जो है; उसे कहने का साहस और दूसरे के दिल में जो है; उसे समझने की कला यदि आप में है, तो रिश्ते टूटेंगे नहीं। हां इसके लिए आवश्यकता है कि आप वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें, क्योंकि ‘ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम/ वे फिर नहीं आते।’ इसलिए किसी से अपेक्षा मत करें, बल्कि यह भाव मन में रहे कि हमने किसी के लिए किया क्या है? ‘सो! जीवन में देना सीखें; केवल तेरा ही तेरा का जाप करें– जीवन में आपको कभी कोई अभाव नहीं खलेगा।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 51 ☆ गरीबों का विकास ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “गरीबों का विकास”.)

☆ किसलय की कलम से # 51 ☆

☆ गरीबों का विकास ☆

आज से साठ-सत्तर वर्ष पूर्व तक “दो जून की रोटी मिलना” समाज में एक संतुष्टिदायक मुहावरा माना जाता था। घर का मुखिया दिहाड़ी पर जाता था और पूरे घर के उदर-पोषण की जरूरतें पूरी कर लेता था। पूरा परिवार साधारण जीवनशैली से जीवन यापन कर लेता था। शनैःशनैः शिक्षा, प्रगति, फैशन, नई जरूरतें व महत्त्वाकांक्षाओं के चलते श्रमिक समुदाय इन सब के पीछे भागने लगा। मनोरंजन, व्यसन, सुख-सुविधाओं के संसाधन जुटाने को प्राथमिकता देने लगा। जरूरी जीवनोपयोगी आवश्यकताओं के बजाय बाह्याडंबर व गैर जरूरी चीजों हेतु कर्ज तक लेने लगा, तब दैनिक मजदूरी से उसकी ये सब जरूरतें पूरी होना भला कैसे संभव होगा। पहले घर की पत्नी थोड़ा-थोड़ा करके अच्छी खासी रकम बचत के रूप में अपने पास सुरक्षित रख लिया करती थी, जो घर की जरूरतों के अतिरिक्त घर जमीन, जेवर खरीदने, शादी, त्योहार व तीर्थाटन करने में बड़े काम आते थे।  इन परिवारों की बचत उनके सुख-दुख व भविष्य के लिए निश्चिंतता का मुख्य कारक हुआ करते थे। अनावश्यक खर्च, दिखावे, व ‘संतोषी परम सुखी’ की धारणा इनके जीवन को सुखमय बनाए रखने में बड़ी सहायक होती थी। परिवार के अन्य सदस्यों की कमाई और संतानों के नौकरी पेशा होने से परिवारों का उत्तरोत्तर संपन्न होना अक्सर दिखाई देता था।

आज की परिस्थितियाँ इसके एकदम विपरीत हो चली हैं।  हम भले ही गले तक कर्ज में डूब जाएँ लेकिन हमारे शौक व सुख सुविधाओं में कोई कमी नहीं होना चाहिए। वहीं जब आपके द्वारा लिए गए कर्ज के तगादे किए जाते हैं, आपके कर्ज न चुकाने पर धमकियाँ और गालियाँ मिलती हैं। सरेआम बेइज्जती होती है, तब आपका और आपके परिवार का क्या हाल होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। गरीब तबके की महत्वाकांक्षा एवं बाह्याडंबर उनको विकास नहीं विनाश के मार्ग पर ले जाता है।

चिंतन करने पर स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि आज का गरीब तबका प्रायः गरीब ही रहता है। इस तबके के लोग न चाहते हुए भी अपनी कमाई को झूठी प्रतिष्ठा के मोह में उन वस्तुओं को क्रय करने और उन सुविधाओं को भोगने में खर्च करते रहते हैं जिनके न रहने पर भी वे छोटी-मोटी परेशानियाँ सहकर सुखी रह सकते हैं। अपनी इन प्रवृत्तियों के कारण ही एक दिन वह उपरोक्त असहज स्थिति में पहुँच जाता है। आज हम देख रहे हैं कि दुनिया की समस्त सुख-सुविधाएँ होने पर भी कुछ लोग उनका उपभोग नहीं कर पाते। कार-हवाई जहाज होने पर भी स्वास्थ्य के  लिए लोग घंटों पैदल चलते हैं। काजू-बादाम और छप्पनभोग उपलब्ध होने पर भी लोग भुने चने और कच्ची सब्जियों का सेवन करने बाध्य होते हैं, फिर भी क्यों आज के लोग इतने ऐशोआराम और फिजूलखर्ची में अपना और अपने परिवार का चैन हराम करने पर तुले रहते हैं।

आज जब शिक्षा का प्रतिशत बढ़ रहा। रोजगार, नौकरियाँ, धंधों की कमी नहीं है, तब हम पहले सुख-समृद्धि को प्राप्त करने हेतु कटिबद्ध क्यों नहीं हो पाते। कुछ करने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। यदि आपको सुख-समृद्धि की चाह है तो पहले आपको शिक्षित होना होगा, परिश्रम करना होगा, प्रयास करने होंगे। कहा भी गया है कि ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ इसलिए हमें अपेक्षाएँ और महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं परिश्रम, लगन व प्रयास से अवसर तलाशने होंगे, एक-एक पल को सार्थक बनाने का संकल्प लेना होगा। समय के साथ चलने वाले ही आगे बढ़ते हैं, वैसे भी आज की परिस्थितियों में आपको पीछे मुड़कर कौन देखने वाला है।

गरीबों का विकास तभी संभव है जब वे अपना समय और अपनी कमाई को सत्कर्म तथा सत्मार्ग में लगाएँगे। समाज में लोग सत्कर्म, परिश्रम एवं सकारात्मक सोच से ही आगे बढ़ सकते हैं। केवल दो वक्त खाना खाकर तो पशु-पक्षी भी जीवन जी लेते हैं। मानव जीवन की सार्थकता तभी है जब हम सादगी और परमार्थ के मार्ग पर चलते हुए अपना परलोक सँवारें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हिंदी अपनाइए, न शरमाइए ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख  ☆ हिंदी अपनाइए, न शरमाइए ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

आज हिंदी दिवस है। सब तरफ कुछ दिन पहले से ही हिंदी की याद सताने लग जाती है हरबार, हर साल। यह मेरा सौभाग्य रहा कि मेरा जन्म ऐसे परिवार में हुआ जो हिंदी प्रेमी था और मेरे ननिहाल इससे भी बढ़कर आर्य समाज से जुड़े थे। आर्य समाज और हिंदी का नाता सब जानते हैं कि कितना मजबूत जोड़ है बिल्कुल फेविकोल जैसा। इस तरह अहिंदी भाषी प्रांत पंजाब से होते हुए भी मैं हिंदी के ज्यादा करीब आया और आता चला गया। जहां तक कि मेरी सारी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई। और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि जिस हिंदी की एम ए करते मुझे मेरे ही बी एड के प्राध्यापक ने डराया कि इसमें रोज़गार नहीं है, नौकरी नहीं है मेरा सौभाग्य कि उसी हिंदी ने मुझे एक दिन भी बेरोजगार न रहने दिया। आज भी आपके सामने सम्मान पूर्वक हिंदी के चलते ही खड़ा हूं। इस तरह हिंदी न केवल रोज़गार बल्कि साहित्य, मनोरंजन और राजनीति की भाषा है।

यह बात भी सभी जानते हैं कि हिंदी दिवस क्यों चौदह सितम्बर को मनाया जाता है -ठीक इसी दिन सन् 1949 में हमारे देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान मिला था। इसीलिए हर वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता है और अब तो हिंदी पखवाड़ा ही मनाया जाने लगा है यानी आज से हिंदी दिवस शुरू होकर तीस सितम्बर तक चलता रहेगा और मनाया जाता रहेगा। पर दुख की बात है कि आम तौर पर हिंदी पखवाड़े के साथ श्राद्ध पक्ष भी आ जाता है तो कहीं हम इसे सिर्फ श्रद्धा के रूप में ही तो नहीं मनाते? या इसे अपनाने के लिए मनाते हैं?

अब बात करते हैं कि स्वतंत्रता पूर्व हिंदी को किसने प्रोत्साहित किया? हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद जी ने। संयोग देखिए कि दोनों महानुभाव गुजरात से संबंध रखते थे। जहां महात्मा गांधी ने नवजीवन समाचार पत्र शुरू करवाया और हिंदी के सुधार के लिए अनेक प्रयत्न किये। वहीं आर्य समाज की ओर से स्वामी दयानंद के प्रयास भी कम नहीं रहे। उनका ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में ही है और आज भी प्रतिवर्ष लाखों प्रतियां लोगों तक पहुंचती हैं। इसी प्रकार महात्मा गांधी की आत्मकथा- सत्य के प्रयोग भी देश विदेश में लोकप्रिय है और हर वर्ष इसकी भी न जाने कितनी प्रतियां बिकती हैं। मैं खुद इसकी प्रति महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम से खरीद कर लाया था जब अहमदाबाद में एक लेखक शिविर लगाने गया था। वैसे एक और सुखद संयोग भी है कि इन दिनों देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात से हैं लेकिन वे भी हिंदी के प्रचारक हैं। हिंदी का इस देश में कितना महत्त्व है यह आप इस बयान से समझिये जो हमारे पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने दिया। उन्होंने कहा कि मैं राष्ट्रपति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बनना चाहता था लेकिन हिंदी भाषी न होना मेरी सबसे बड़ी रुकावट बन गया। ममता बनर्जी भी हिंदी को ज्यादा नहीं बोल पातीं।

स्वतंत्रता पूर्व लाला लाजपत राय,  मदन मोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरु  लोकमान्य तिलक, भगत सिंह, अशफाक, सुखदेव, आदि क्रांतिकारियों व नेताओं ने हिंदी को ही स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा। इस तरह हिंदी स्वतंत्रता आंदोलन की आधारभूमि बनी रही। भगत सिंह की अनेक पुस्तकें हिंदी में हैं। उनका परिवार भी आर्य समाज से जुड़ा था।

माखन लाल चतुर्वेदी, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद और सबसे बढ़कर भारतेंदु हरिश्चंद्र आदि ने हिंदी को जनमानस तक पहुंचाने में सब कुछ अर्पण कर दिया। भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने तो लेखक मंडली बनाई और घर का सारा पैसा हिंदी के प्रचार प्रसार में लगा दिया। नये समय में नरेंद्र कोहली के उपन्यासों ने भी काफी पाठक बनाये। हास्य कवियों काका हाथरसी और सुरेंद्र शर्मा आदि ने भी हिंदी को जन जन तक पहुंचाया।

अब आइए स्वतंत्रता के बाद हिंदी की स्थिति पर जब इसे राजभाषा घोषित कर दिया गया तब लगा कि अब हिंदी के दिन फिरेंगे लेकिन हुआ इसके विपरीत। हिंदी जन भावना और देश के स्वाभिमान व बलिदान देने वालों की भाषा न रही बल्कि इसकी जगह ले ली अंग्रेजी ने क्योंकि मैकाले महाशय यह षड्यंत्र रच गये थे कि रोज़गार अंग्रेजी पढ़ने पर ही मिलेगा और इस तरह अंग्रेज़ी ने हमारी हिंदी को दबाने का काम शुरू किया। हमारे अंग्रेजी स्कूलों की संख्या बढ़ती गयी और हिंदी माध्यम के स्कूलों की संख्या घटती चली गयी। इनकी संख्या घटने से साफ है कि हिंदी का प्रयोग भी कम होता गया। अब नयी पीढ़ी अंग्रेजीमय पीढ़ी है। अंग्रेजी बोलना शान की प्रतीक है। रोज़गार मिले या न मिले लेकिन अंग्रेजी आनी चाहिए। हाय, हैलो बोलना आना चाहिए। गरीब से गरीब परिवार हिंदी स्कूल में अपने बच्चों को न पढ़ा कर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने के इच्छुक हैं।  इस पीढ़ी के चलते ही हिंदी साहित्य के पाठक कम होने लगे हैं जिस पीढ़ी को हिंदी भी नहीं आती या कामचलाऊ हिंदी आती है तो वह पीढ़ी हिंदी साहित्य के प्रति उत्सुक कैसे होगी? हिंदी की पुस्तकों के नाम चाहे न आएं लेकिन हैरी पाॅटर का नाम आता है। स्पाइडर-मैन का काॅमिक्स पता है लेकिन शक्तिमान  या चाचा चौधरी का नहीं। 

हिंदी की सबसे बड़ी कमी यह बताई और गिनाई जाती है कि इससे रोज़गार  नहीं मिलता और न ही विज्ञान सीखा जा सकता है। क्या कल्पना चावला हिंदी पढ़कर ही अंतरिक्ष तक नहीं पहुंची थी? पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम बच्चों के बीच हिंदी बोलते थे। जहां तक रोज़गार की बात है तो हिंदी पत्रकारिता एक बड़ा रोज़गार देने वाली साबित हुई है। आज हिंदी के अखबार अंग्रेजी अखबारों से प्रसार संख्या में आगे निकल गये हैं और विश्वसनीय भी बन गये हैं। इनके चलते बड़ी संख्या में रोज़गार मिलने लगा है। दूरदर्शन, आकाशवाणी और मीडिया चैनल भी हिंदी के चलते ही लोकप्रिय होते हैं। यही क्यों हिंदी फिल्मों ने भी रोज़गार के द्वार खोले हैं। दक्षिण भारतीय अभिनेता अभिनेत्रियां भी हिंदी बोलने सीख कर करोड़ों करोड़ों रुपये कमाते हैं।  फिर कौन कहता है कि हिंदी मे रोज़गार नहीं? बड़ी बड़ी विदेशी कम्पनियों को हिंदी अपनानी पड़ रही है ताकि उनकी कम्पनी की जानकारी आम जनता तक पहुंच सके।

आप यह जानकर हैरान होंगे कि हिंदी सीखने के लिए एक समय चंद्रकांता संतति की सीरीज ने लोगों को मजबूर कर दिया था। ऐसे साहित्य की आज भी जरूरत है। फिल्मों में तो दूसरी भाषाओं मे रिमेक बनने लगे हैं।

आज फिर हिंदी दिवस है। आइए हिंदी आपनाइए, बिल्कुल न शरमाइए  । हिंदी हमारी है और हम हिंदी के। हिंदी के बिना हम अधूरे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सन्तान सप्तमी की परिपाटी ☆ श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

☆ आलेख – सन्तान सप्तमी की परिपाटी… – श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव ☆

संतान सप्तमी व्रत का यह व्रत पुत्र प्राप्ति, पुत्र रक्षा तथा पुत्र अभ्युदय के लिए भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को किया जाता है।  माताएँ शिव पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान माँगती हैं। इस व्रत को ‘मुक्ताभरण’ भी कहते हैं।

अब जब लड़कियां लड़को की बराबरी से समाज मे हिस्सेदारी कर रही हैं , तो यह व्रत लड़का लड़की भेद से परे सन्तान के सुखी जीवन के लिए किया जाता है ।

चूंकि व्रत कथा में कहा गया है कि रानी ईश्वरी व उसकी सखी भूषणा में से रानी यह व्रत करना विस्मृत कर गईं थीं , संभवतः इसीलिये सामान्य महिलाओ को व्रत का स्मरण बना रहे इस आशय से इस अवसर पर कोई गहना , कंगन आदि नियत किया जाता है , जिसे माता पार्वती को समर्पित किया जाता है व हर वर्ष उसमें कुछ मात्रा में गहने की मूल्यवान धातु का अंश बढ़ा कर उसे नया रूप दे दिया जाता है . इस तरह यह व्रत वर्ष दर वर्ष परिवार की संपन्नता  बढ़ते रहने के प्रतीक के रुप में व आर्थिक रूप से समृद्धि का द्योतक है . 

इस समय मौसम बरसाती गर्मी का रहता है शायद इसलिए पुआ दही खाने का रिवाज है । पुए में आटे व गुड़ का सम्मिश्रण होता है जो कम्पलीट इनर्जी फूड होता है ।

©  श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 103 ☆ मील का पत्थर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 103 ☆ मील का पत्थर ☆

संध्याकाल है, टहलने निकला हूँ। लगभग 750 मीटर लम्बा यह फुटपाथ सामान्य से अधिक चौड़ा है, साथ ही समतल और स्वच्छ। तुलनात्मक रूप से अधिक लोग इस पर टहल सकते हैं।

अवलोकन की दृष्टि टहलते लोगों के कदमों की गति मापने लगती है। देखता हूँ कि लगभग अस्सी वर्षीय एक वृद्ध टहलते हुए आ रहे हैं, एकदम धीमी गति, बहुत धीरे-धीरे बेहद संभलकर कदम रखते हुए, हर कदम के साथ शरीर का संतुलन बनाकर चल रहे हैं।

जिज्ञासा बढ़ती है, तुलनात्मक विवेचन जगता है, पचास-पचपन की आयु के कदमों को मापता है। उनके चलने की गति कुछ अधिक और शरीर का संतुलन  साधे रखने का प्रयास तुलनात्मक रूप से कम है। तीस-पैंतीस की आयु वालों के कदमों की गति और अधिक है, वे अधिक निश्चिंत भी हैं।  किशोर से युवावस्था के लोग हैं जो सायास टहलने की दृष्टि से नहीं अपितु  मित्रों के साथ हँसी मजाक करते हुए चल रहे हैं।  छह-सात साल की एक नन्ही है जो चलती कम, उछलती, कूदती, थिरकती, दौड़ती अधिक है। उसके माता-पिता आवाज़ लगाते हैं, उसी तरह दौड़ती-गाती आती है, माँ से कुछ कहती है, अगले ही क्षण फिर छूमंतर! मानो आनंद का एक अनवरत चक्र बना हुआ है।

इसी चक्र से प्रेरित होकर चिंतन का चक्र भी घूमने लगता है। अवलोकन में आए लोगों का आयुसमूह भिन्न है, दैहिक अवस्था और क्षमता भिन्न है। तथापि आनंद ग्रहण करने की क्षमता और मनीषा, यात्रा को सुकर अथवा दुष्कर करती हैं।

किसी गाँव में मंदिर बन रहा था। ठेकेदार के कुछ श्रमिक काम में लगे थे। एक बटोही उधर से निकला। सिर पर गारा ढो रहे एक मजदूर से पूछा, “क्या कर रहे हो?” उसने कहा पिछले जन्म में अच्छे कर्म नहीं किए थे सो इस जन्म में गारा ढो रहा हूँ।”  दूसरे से पूछा, उसने कहा, “अपने बच्चों का पेट पालने की कोशिश कर रहा हूँ।” तीसरे ने कहा, ” दिखता नहीं, मजदूरी करके गृहस्थी की गाड़ी खींच रहा हूँ।” चौथे श्रमिक के चेहरे पर आनंद का भाव था। सिर पर कितना वज़न है, इसका भी भान नहीं। पूछने पर पुलकित होकर बोला, “गाँव में सियाराम जी का मंदिर बन रहा है। मेरा भाग्य है कि मैं उसमें अपनी सेवा दे पा रहा हूँ।”

दृष्टि की समग्रता से जगत को देखो, सर्वत्र आनंद छलक रहा है। इसे  ग्रहण करना या न करना तुम्हारे हाथ में है। इतना स्मरण रहे कि परमानंद की यात्रा में आनंद मील का पत्थर सिद्ध होता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पूर्वजांचे अस्वस्थ आत्मे..…! ☆ संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित

? मनमंजुषेतून ?

☆ पूर्वजांचे अस्वस्थ आत्मे..…! ☆ संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित ☆

घरी आल्यावर हातपाय धुतलेस का? चल उठ आधी, तशीच बसलियेस घाणेरडी! अग जेवायला बसायचं ना, हात धुतलेस का स्वच्छ? संध्याकाळ झाली, आधी तोंड धू आणि नीट केस विंचरून वेणी घाल. तोंड पुसायचा टॉवेल हात पुसायला घेऊ नको ग, गलिच्छ कुठली!  बाथरूम मधून बाहेर येताना पाय कोरडे कर, ओले पाय घेऊन फिरू नको घरभर! केस स्वयंपाकघरात नको ग विंचरू, अन्नात जातील, शिळ्या भाताचा चमचा ताज्या भाताला वापरू नकोस, खराब होईल तो, दुधाची पातेली एकदम वरच्या खणात ग फ्रीजमध्ये, खालती नको ठेऊ! वाट्टेल त्या भांड्यात दुध नाही तापवायच ग. तुझ्या भांड्याने पाणी पी, माझं घेऊ नकोस, अग केस पुसायच्या पंचाने अंग नको पुसू, बेक्कार नुसती!!! खोकताना तोंडावर रुमाल घे, कितीवेळा सांगायचं, आणि तो रुमाल स्वतः धू, बाकीच्या कपड्यात टाकू नको धुवायला, दुसऱ्याशी बोलताना चांगलं हातभार अंतर ठेवून उभी रहा, थुंकी उडते कधीकधी ?. कशाला जाता येता मिठ्या मारायच्या एकमेकांना, घाम असतो, धूळ असते अंगाला ती लागेल ना! काहीतरी फ्याड एकेक, काय ते प्रेम लांबून करा!!! चप्पल घालून घरात आलीस तर याद राख, काढ आधी ती दारात. खजूर खल्लास, बी टाकून दे लगेच, तशीच ठेवायची नाही,तोंडातली आहे ना ती? नीट जेव, शीत तळहाताला कस लागतं ग तुझं? कसं जेवत्येस! ताट स्वच्छ कर, आणि पाणी घालून ठेव, करवडेल नाहीतर! तोंडात घास असताना बोलू नकोस, इतकं काय महत्वाचं सांगायचंय  ??

——–तात्पर्य काय? तुम्हाला जर असं वाढवलं गेलं असेल, तर कोरोना ची अजिबात चिंता करू नका, कारण आज सगळं मेडिकल सायन्स जे सांगतंय, ते आपल्या पितरांनी आपल्याला लहानपणीच शिकवलंय. तेव्हा जाच वाटला खरा, पण आज ह्याच सवयी आपलं कोरोना पासून रक्षण करतील. तेव्हा काळजी करू नका, जसे वागत आलायत तसेच वागत रहा .

——–एक शंका, आपल्या पूर्वजांचे अस्वस्थ आत्मे तर कोरोनाच्या रूपाने परत आले नाहीत जगाला स्वच्छता शिकवायला??? नाही म्हणजे, इंग्लंड चा राजा पण शेकहँड करायच्या ऐवजी नमस्कार करतोय म्हणे ??

 संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 98 ☆ बदलाव बनाम स्वीकार्यता ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख बदलाव बनाम स्वीकार्यता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 98 ☆

☆ बदलाव बनाम स्वीकार्यता ☆

‘जो बदला जा सके, उसे बदलिए; जो बदला न जा सके, उसे स्वीकार कीजिए; जो स्वीकारा न जा सके, उससे दूर हो जाइए। लेकिन ख़ुद को खुश रखिए’ ब्रह्माकुमारी शिवानी का यह सार्थक संदेश हमें जीवन जीने की कला सिखाता है; मानव को परिस्थितियों से समझौता करने का संदेश देता है कि उसे परिस्थितियों के अनुसार अपनी सोच को बदलना चाहिए, क्योंकि जिसे हम बदल सकते हैं; अपनी सूझबूझ से बदल देना चाहिए। परिवर्तन सृष्टि का नियम हैऔर समय का क्रम निरंतर चलता रहता है,कभी थमता नहीं है। इसलिए जिसे हम बदल नहीं सकते, उसे स्वीकारने में ही मानव का हित है। ऐसे संबंध जो जन्मजात होते हैं, उन संबंधियों व परिवारजनों से निबाह करना हमारी नियति बन जाती है। हमें चाहे-अनचाहे उन्हें स्वीकारना पड़ता है ।इसी प्रकार प्राकृतिक आपदाओं र भी हमारा वश नहीं है। हमें उनका पूर्ण मनोयोग से विश्लेषण करना चाहिए तथा उसके समाधान के निमित्त यथा-संभव प्रयास करने चाहिए। यदि हम उन्हें बदलने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, तो उन्हें स्वीकारना श्रेयस्कर है। इन विषम परिस्थितियों में हमें चिन्ता नहीं चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि चिंतन-मनन हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है। चिन्ता को चिता सम कहा गया है, जो मानव को इहलोक से परलोक तक पहुंचाने में सक्षम है।

बदलने व स्वीकारने पर चर्चा करने के पश्चात् आवश्कता है अस्वीकार्यता पर चिन्तन करने की अर्थात् जिसे स्वीकारना संभव न हो, उससे दूर हो जाना बेहतर है। जो परिस्थितियां आपके नियंत्रण में नहीं है तथा जिनसे, आप निबाह नहीं सकते; उनसे दूरी बना लेना ही श्रेयस्कर है। मुझे भी बचपन में यही सीख दी गयी थी;  जहां तनिक भी मनमुटाव की संभावना हो, अपना रास्ता बदलने में ही हित है अर्थात् जो आपको मनोनुकूल नहीं भासता, उसकी और मुड़कर कभी देखना नहीं चाहिए। यही है वह संदेश जिसने मेरे व्यक्तित्व निर्माण में प्रभावी भूमिका अदा की। इसी संदर्भ में मैं एक अन्य सीख का ज़िक्र करना चाहूंगी, जो मुझे अपनी माताश्री द्वारा मिली कि विपत्ति के समय पर इधर-उधर मत झांकें/ अपनी गाड़ी को ख़ुद हांकें’ में छिपा है गीता का कर्मशीलता का संदेश व जीवन-दर्शन–विपत्ति के समय स्वयं पर विश्वास रखें; दूसरों से सहायता की अपेक्षा मत रखें, क्योंकि अपेक्षा दु:खों की जनक है। जब हमें दूसरे पक्ष से सहयोग की प्राप्ति नहीं होती और मनोनुकूल अपेक्षित सहायता नहीं मिलती, तो हमारी जीवन नौका हमें दु:खों के अथाह सागर में हिचकोले खाने के लिए छोड़ जाती है। ऐसी स्थिति अत्यंत घातक बन जाती है। सो! ऐसे लोगों की कारस्तानियों को नजरांदाज़ करना ही बेहतर है। ये परिस्थितियां हमें निराशा के गर्त में भटकने के लिए छोड़ देती हैं और हम ऊहापोह की स्थिति में उचित निर्णय लेने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।

सो! जिन परिस्थितियों और मन:स्थितियों को बदलने में हम सक्षम हैं, उन्हें बदलने में हमें जी-जान से जुट जाना चाहिए; कोई कोर-कसर उठाकर नहीं रखनी चाहिए। हमें पराजय को कभी स्वीकारना नहीं चाहिए, निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए, क्योंकि ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ अर्थात् परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। हमें अंतिम सांस तक उन अप्रत्याशित परिस्थितियों से जूझना चाहिए, क्योंकि जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है तथा निरंतर चलने का नाम ही ज़िंदगी है।

‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!’ जहां हमें ऊर्जस्वि करता है, वहीं हमारे अंतर्मन में अलौकिक तरंगें भी संचरित करता है। यह हमें इस तथ्य से अववगत कराता है कि इस संसार में सब संभव है और असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है। सो! इसे तुरंत बाहर निकाल फेंकना चाहिए। हम अदम्य साहस व अथक प्रयासों द्वारा अपना मनचाहा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। यदि तमाम प्रयासों के बाद भी हम उन्हें बदलने में असमर्थ रहते हैं, तो उन्हें स्वीकार लेना चाहिए। व्यर्थ में अपनी शक्ति व ऊर्जा को नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। यह परिस्थितियां हमें अवसाद की स्थिति में लाकर छोड़ देती हैं, जिससे उबरने के लिए हमें वर्षों तक संघर्ष करना पड़ता है। हमें अपने जीवन से घृणा हो जाती है और जीने की तमन्ना शेष नहीं रहती। हमारे मनोमस्तिष्क में सदैव पराजय के विचार समय-असमय दस्तक ही नहीं देते; हमें पहुंचते कोंचते, कचोटते व आहत करते रहते हैं। इसलिए उन परिस्थितियों से समझौता करने व स्वीकारने में आपका मंगल है। उदाहरण बाढ़, भूचाल, सुनामी तथा असाध्य रोग आदि प्राकृतिक आपदाओं पर हमारा वश नहीं होता, तो उन्हें स्वीकारने में हमारा हित है। हमें तन-मन-धन से इनके समाधान तलाशने में जुट जाना चाहिए, पूर्ण प्रयास भी करने चाहिए, परंतु अंत में उनके सामने समर्पण करना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम विकल्प है। पर्वतों से टकराने व बीच भंवर में नौका ले जाने से हानि हमारी होगी। इससे किसी दूसरे को कोई फर्क़ पड़ने वाला नहीं है।

आजकल लोगों से किसी की उन्नति कहां बर्दाश्त होती है। इसलिए अक्सर लोग अपने दु:ख से कम, दूसरे के सुखों को देखकर अधिक दु:खी रहते हैं। उनका यह ईर्ष्या भाव उन्हें निकृष्टतम कार्य करने की ओर प्रवृत्त करता है। वे दूसरे को हानि पहुंचाने के लिए अपना घर जलाने को भी तत्पर रहते हैं। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य उन्हें अधिकतम हानि पहुंचाना होता है। इसलिए ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखने में जीवन की सार्थकता है। दूसरे शब्दों में स्वीकार्य नहीं है, उससे दूरी बनाए रखना ही हितकर है। यही है खुश रहने का मापदंड। इसलिए मानव को सदा खुश रहना चाहिए, क्योंकि प्रसन्न-चित्त मानव सबकी आंखों का तारा होता है, सबका प्रिय होता है। उसका साथ पाकर सब हर्षोल्लास अनुभव करते हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों से स्वयं को बचा कर रखना चाहिए; जानबूझकर आग में छलांग नहीं लगानी चाहिए।खुशी हमारे अंतर्मन में निहित रहती हैऔर हम उसे हम ज़र्रे-ज़र्रे में तलाश सकते हैं। हमारी मन:स्थिति ही हमारे भावों को आंदोलित व उद्वेलित करती है।हमारे भीतर नवीन भावनाओं को जागृत करती है, जिसके परिणाम-स्वरूप हम सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। वर्डस्वर्थ का यह कथन कि ‘सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में निवास करता है।’ इसलिए सौंदर्य के मापदंडों को निर्धारित करना असंभव है। वैसे ही खुशी भी प्रकृति की भांति पल-पल रंग बदलती है, क्योंकि जिस वस्तु या व्यक्ति को देखकर आपको प्रसन्नता प्राप्त होती है, चंद लम्हों बाद वह सुक़ून नहीं प्रदान करती, बल्कि आपके रोष का कारण बन जाती है। हमारी मन:स्थितियां परिस्थितियों व आसपास के वातावरण पर आधारित व  काल-सापेक्ष होती हैं। बचपन, युवावस्था व वृद्धावस्था में इनके मापदंड बदल जाते हैं। सो! हमें विपरीत परिस्थितियों में भी कभी निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि सदैव प्रसन्न रहने से ज़िंदगी का सफ़र आसानी से कट जाता है। आइए! छोटी-छोटी खुशियां अपने दामन में समेट लें, ताकि जीवन उमंग व उल्लास से आप्लावित रह सके। मन-मयूर सदैव मद-मस्त रहे, क्योंकि खुश रहना हमारा दायित्व है, जिसका हमें बखूबी वहन करना चाहिए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 50 ☆ बाल सखा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “बाल सखा”.)

☆ किसलय की कलम से # 50 ☆

☆ बाल सखा ☆

मिट्टी अर्थात वह पदार्थ जिसका साधारणतः मूल्यांकन कभी नहीं किया जाता, लेकिन इसके उपयोग से हम क्या-क्या नहीं बनाते। कुम्भकार जब मिट्टी गूँथकर उसे अपने हाथों में लेता है, तब तक सामने वाला समझ नहीं पाता कि यह कलाकार उसे कौन सा रूप देगा। उसका कौशल, उसका ज्ञान, उसका अनुभव और उसका विवेक उसे एक मूल्यवान वस्तु, खिलौना, मूर्ति, उपयोगी उपकरण में तब्दील कर देता है। शिशु भी एक गुँथी हुई मिट्टी जैसा जीता-जागता बुद्धि, विवेक, ज्ञान और अनुभव विहीन होता है। उसे एक श्रेष्ठ, विवेकशील और आदर्श बनाने के लिए दक्षता का सानिध्य बहुत जरूरी होता है।

जिस तरह कच्चे घड़े पर यथास्थान दबाव, थपकी और सहारे की जरूरत होती है ठीक उसी प्रकार एक शिशु के उत्तरोत्तर विकास हेतु भी इन सभी बातों की आवश्यकता होती है। धैर्य, शांति, स्नेह और उसके समकक्ष व्यवहार के साथ ही स्नेहिल वार्तालाप भी महत्त्वपूर्ण होता है। हमें समझना होता है कि एक बार की सीख या शिक्षा नन्हा शिशु स्मृत नहीं रख पाएगा। हमें उसको प्रायोगिक तौर तरीके से भले-बुरे का ज्ञान कराना होगा।

एक प्रौढ़ एवं शिशु के मध्य आयु का विशाल फासला होता है। आपकी सोच और अनुभव आपका पका-पकाया कहा जा सकता है, लेकिन शिशु के जीवन में, उसके कोरे मस्तिष्क में शिक्षा, संस्कार, संस्कृति एवं सामाजिक परंपराएँ  स्थापित करने के लिए आपको अपने स्तर से नीचे उसके समकक्ष आना होगा और उसके जैसा बनना भी होगा। उसे सत्कर्मों हेतु प्रोत्साहित करना होगा, उसकी प्रशंसा करनी होगी। उसकी त्रुटियों, उसकी असफलताओं तथा उसकी जिद पर नियंत्रित व्यवहार करना होगा। जिस तरह नन्हे शिशु आपस में गलत-सही का भेद किए बिना रूठकर, हँसकर व रोकर भी बार-बार साथ में खेलने लगते हैं। इसी तरह आपको भी बार-बार उनकी बात सुनना होगी। बार-बार उनके एक ही प्रश्न का उत्तर देना होगा। बार-बार उनकी जिज्ञासा शांत करना होगी।

माता-पिता अथवा अभिभावक जब तक संतानों के बालसखा नहीं बनेंगे, अपेक्षानुरूप शिशु का विकास संभव हो ही नहीं सकता। शिशु हतोत्साहित, भयभीत या ढीठ किस्म का भी बन सकता है। अपनी उपेक्षा से अपनों के स्नेह को पहचान ही नहीं पाएगा। यही कारण है कि आयाओं द्वारा पोषित बच्चे अक्सर माँ-बाप के महत्त्व एवं स्नेह से काफी हद तक अनभिज्ञ रह जाते हैं।

आज के बदलते परिवेश में हम अपना जीवन जी लेते हैं और बच्चों को उनकी किस्मत पर छोड़ देते हैं, यह कहाँ तक और कितना उचित है? बच्चे भला समाज और किताबों से कितना और क्या सीख पाएँगे। जब तक अपनों के बीच स्नेह, समर्पण, त्याग, सद्भावना और आदर का पाठ नहीं पढ़ेंगे, सामाजिक जीवन में इनको व्यवहृत कैसे कर पाएँगे।

आज के क्षरित होते मानवीय मूल्यों के बीच रिश्तों की टूटन और मानसिक घुटन की अजीबोगरीब परिस्थितियों में जब हम अपनों को ही महत्त्व नहीं देते तो क्या हमारी संतानें भविष्य में आपको महत्त्व दे पाएँगी?

हमें स्वीकारना होगा कि हम अपनी संतानों के कभी सखा नहीं बन पा रहे हैं। हम अर्थ एवं स्वार्थ तक ही सीमित होते जा रहे हैं। हम संतानों में आदर्श संस्कार के बजाय उनको दिखावटी आधुनिकता व कुबेर के खजाने का महत्त्व ही बताने को श्रेयष्कर मानने लगे हैं। जब संतान आपके द्वारा दिशादर्शित मार्ग पर चल पड़ता है और पीछे मुड़कर आपको भी नहीं देखता, तब जाकर आपको याद आता है कि हमने ही तो अपनी संतान को यही सब सिखाया था। हम ही थे जिनके पास अपने बच्चों के लिए कभी वक्त नहीं रहा। हम ही थे जो कभी अपनी संतानों के बालसखा नहीं बन पाए, लेकिन जब चिड़िया हाथ से उड़ जाए तो आपके पास बचता ही क्या है। हम बचपन से बुढ़ापे तक अपने धार्मिक ग्रंथों, अपने बुजुर्गों व महापुरुषों के उद्धरण पढ़ने-सुनने के बावजूद इन पर अमल न करने और अपनी संतानों को  इनसे दूर रखने का प्रतिफल ही तो भोग रहे हैं। निश्चित रूप से जिनके माँ-बाप अपनी संतानों के बालसखा बने थे और उन्होंने भी अपनी संतानों के बालसखा बनकर अपने बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण किया। उनकी बच्चे भी निश्चित रूप से अपने माँ-बाप के कृतज्ञ होंगे।

वक्त आदिकाल का रहा हो, वर्तमान का हो या भविष्य में आने वाला हो। मानव-मन, मानव-विवेक सदैव नीति-अनीति, सत्य-असत्य व प्रेम-घृणा में अंतर भलीभाँति समझता रहा है और समझेगा भी। इसीलिए समय या युगपरिवर्तन के बावजूद संतानों को आपके द्वारा दी गई सीख एवं आपके द्वारा प्रदत्त संस्कार कभी व्यर्थ नहीं होंगे यह हमें मानकर ही चलना चाहिए।

                       

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – चुराये हुए साहित्य की दुकानें ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – चुराये हुए साहित्य की दुकानें ?

ईश्वर ने मनुष्य को अभिव्यक्ति के जो साधन दिये, लेखन उनमें सारस्वत प्रकार है। श्रुति से आरम्भ हुई परम्परा पत्तों से होते हुए आज के पेपरलेस सोशल मीडिया तक आ पहुँची है। हर काल में लिखना, मनुष्य के कह सकने का एक मुख्य माध्यम रहा है। कोई लेखक हो न हो, अपनी बात कहने के बाद एक प्रकार का विरेचन अवश्य अनुभव करता है।

वस्तुत: विचार से कहन तक वाया चिंतन अपनी प्रक्रिया है। प्रक्रिया की अपनी पीड़ा है, प्रक्रिया का अपना आनंद है। यह बीजारोपण से प्रसव तक की कहानी है, हरेक की अपनी है, हरेक की ज़ुबानी है।

सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव के बाद अभिव्यक्ति के लिए विशाल मंच उपलब्ध हुआ। चूँकि यह इंटरएक्टिव किस्म का मंच है, पढ़े हुए पर लिखी हुई प्रतिक्रिया भी तुरंत आने लगी। स्वाभाविक था कि लेखकों को इसके तिलिस्म ने बेतहाशा अपनी ओर आकृष्ट किया। लेकिन जल्दी ही इसका श्याम पक्ष भी सामने आने लगा।

बड़ेे साहित्यकारों को पढ़ने-समझने की तुलना में येन-केन प्रकारेण परिदृश्य पर छा जाने का उतावलापन बढ़ा। इस प्रक्रिया में जो साहित्य पहले बाँचा जाता था, अब टीपा जाने लगा।

इसी मनोवृत्ति का परिणाम है-चुराये हुए साहित्य की दुकानें।

मनुष्य जीवन में गर्भावस्था के लिए सामन्यत: नौ महीने का प्राकृतिक विधान है। विज्ञान कितनी ही तरक्की कर ले, इसे कम नहीं कर सकता। अन्यान्य कारणों से आजकल सरोगेसी का मार्ग भी अपनाया जा रहा है। साहित्य के क्षेत्र में अनुसंधान इससे भी आगे पहुँच गया है। सोशल मीडिया पर उपलब्ध साहित्य की बहती गंगा में चर्चित रचना के कुछ शब्द हाथ की सफाई से अपहृत कर लीजिए, फिर उसमें अपने कुछ शब्द बलात ठूँसकर सर्जक हो जाइये। प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों के समानांतर कुछ लिखने का एक पिछला दरवाज़ा भी है। कुछ मामलों में लिखने के बजाय लिखवाने का चलन भी है।

प्रश्न इसके बाद जन्म लेता है। प्रश्न है कि क्या इन दाँव-पेंची अपहरणकर्ताओं को सृजन का सुख मिल सकता है? स्पष्ट उत्तर है-‘नहीं।’ क्या कभी वे अपनी रचना की प्रक्रिया पर चर्चा कर पाएँगे?..‘नहीं।’ चिंतन में फलां शब्द क्यों आया, बता पाएँगेे?..‘कभी नहीं।’ सारे ‘नहीं’ में इनके साहित्यकार होने को कैसे ‘हाँ’ कहा जा सकता है? ‘स’ हित में रचे गए शब्द साहित्य हैं। ऐसे में दूसरे के अहित को सामने रखकर जो जुगाड़ की गई हो, वह साहित्य नहीं हो सकती। फलत: ऐसी जुगाड़ करनेवाला साहित्यकार भी नहीं हो सकता।

ऐसा नहीं है कि ये स्थितियाँ आज से पहले नहीं थीं। निश्चित थीं और आगे भी रहेंगी। अलबत्ता सूचना क्रांति के विस्फोट से पहले संज्ञान में बहुत कम आती थीं। कालानुकूल चोले में मूलभूत समस्याएँ हर युग में कमोबेश एक-सी होती हैं। इनका हल हर युग को अपने समय की नीतिमत्ता और उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से तलाशना होता है।

वर्तमान समय में कथित लेखक जिस सोशल मीडिया का लाभ उठाकर चोरी के साहित्य की दुकानें खोले बैठे हैं, उसी मीडिया का उपयोग उनके विरुद्ध किया जाना चाहिए। वैधानिक मार्ग अपना काम करते रहेंगे पर साहित्यिक क्षेत्र में उनका बहिष्कार तो हो ही सकता है। एक मत है कि यों भी पाइरेटेड की उम्र नहीं होती। किंतु पाइरेसी से मूल को नुकसान हो रहा है। वाचन संस्कृति का आलेख अवरोही हो चला है। ऐसे में मात्रा के मुकाबले गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। पाठक जो पढ़े, जितना पढ़े, वह स्तरीय हो। स्तरीय को उस तक उसे पहुँचाने के लिए चोरी का साहित्य हटाना हमारा दायित्व बनता है। इस दायित्व की पूर्ति के लिए सजग साहित्यकार और जागरूक पाठक दोनों को साथ आना होगा। अस्तु!

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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