(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 33
4) संग से संघ बनता है। तीर्थाटन में मनुष्य साथ आता है। इनमें वृद्धों की बड़ी संख्या होती है। सत्य यह है कि अधिकांश बुजुर्ग, घर-परिवार-समाज से स्वयं को कटा हुआ अनुभव करते हैं। परस्पर साथ आने से मानसिक विरेचन होता है, संवाद होता है। मनुष्य दुख-सुख बतियाना है, मनुष्य एकात्म होता है। पुनः अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ स्मरण आती हैं,
विवादों की चर्चा में
युग जमते देखे,
आओ संवाद करें,
युगों को
पल में पिघलते देखें..!
मेरे तुम्हारे चुप रहने से
बुढ़ाते रिश्ते देखे,
आओ संवाद करें,
रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें..!
बूढ़ी नसों में बचपन का चैतन्य फूँक देती है तीर्थयात्रा।
5) तीर्थाटन मनुष्य को बाहरी यात्रा के माध्यम से भीतरी यात्रा कराता है। मनुष्य इन स्थानों पर शांत चित्त से पवित्रता का अनुभव करता है। उसके भीतर एक चिंतन जन्म लेता है जो मनुष्य को चेतना के स्तर पर जागृत करता है। यह जागृति उसे संतृप्त की ओर मोड़ती है। अनेक तीर्थ कर चुके अधिकांश लोग शांत, निराभिमानी एवं परोपकारी होते हैं।
6) तीर्थाटन में साधु-संत, महात्मा, विद्वजन का सान्निध्य प्राप्त होता है। यह सान्निध्य मनुष्य की ज्ञानप्राप्ति की जिज्ञासा और पिपासा को न्यूनाधिक शांत करता है। व्यक्ति, सांसारिक और भौतिक विषयों से परे भी विचार करने लगता है।
7) किसी भी अन्य सामुदायिक उत्सव की भाँति तीर्थाटन में भी बड़े पैमाने पर वित्तीय विनिमय होता है, व्यापार बढ़ता है, आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। वित्त के साथ-साथ वैचारिक विनिमय, भजन, कीर्तन, प्रवचन, सभा, प्रदर्शनी आदि के माध्यम से मनुष्य समृद्ध एवं प्रगल्भ होता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – विश्व कविता दिवस विशेष – शिलालेख
आज विश्व कविता दिवस है। यह बात अलग है कि स्वतः संभूत का कोई समय ही निश्चित नहीं होता तो दिन कैसे होगा? तथापि तथ्य है कि आज यूनेस्को द्वारा मान्य विश्व कविता दिवस है।
बीते कल गौरैया दिवस था, आते कल जल दिवस होगा। लुप्त होते आकाशी और घटते जीवनदानी के बीच टिकी कविता की सनातन बानी! जीवन का सत्य है कि पंछी कितना ही ऊँचा उड़ ले, पानी पीने के लिए उसे धरती पर उतरना ही पड़ता है। आदमी तकनीक, विज्ञान, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में कितना ही आगे चला जाए, मनुष्यता बचाये रखने के लिए उसे लौटना पड़ता है बार-बार कविता की शरण में।
इसी संदर्भ में कविता की शाश्वत यात्रा का एक चित्र अपनी कविता ‘शिलालेख’ के माध्यम से प्रस्तुत है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।
आज से प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष आलेख “विश्व कविता दिवस…”।)
आलेख – “विश्व कविता दिवस…” ” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
विश्व कविता दिवस (World Poetry Day) प्रतिवर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है। यूनेस्को ने इस दिन को विश्व कविता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा वर्ष 1999 में की थी जिसका उद्देश्य कवियों और कविता की सृजनात्मक महिमा को सम्मान देते हुए पूरे विश्व के कवियों और कविताओं को करीब लाना है।
सम्पूर्ण श्रृष्टि ही किसी कवि की कविता है। काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो विधिवत छन्दों में बांधी जाती है। भारत की प्राचीनतम कविताएं संस्कृत भाषा में ऋग्वेद में हैं जिनमें प्रकृति की प्रशस्ति में लिखे गए छंदों का सुंदर संकलन हैं।
आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास लगभग 800 साल पुराना है और इसका प्रारंभ तेरहवीं शताब्दी से समझा जाता है। हर भाषा की तरह हिंदी कविता भी पहले इतिवृत्तात्मक थी। यानि किसी कहानी को लय के साथ छंद में बांध कर अलंकारों से सजा कर प्रस्तुत किया जाता था। भारतीय साहित्य के सभी प्राचीन ग्रंथ कविता में ही लिखे गए हैं। इसका विशेष कारण यह था कि लय और छंद के कारण कविता को याद कर लेना आसान था। जिस समय छापेखाने का आविष्कार नहीं हुआ था और दस्तावेज़ों की अनेक प्रतियां बनाना आसान नहीं था उस समय महत्वपूर्ण बातों को याद रख लेने का यह सर्वोत्तम साधन था। यही कारण है कि उस समय साहित्य के साथ-साथ राजनीति, विज्ञान और आयुर्वेद को भी पद्य (कविता) में ही लिखा गया। जीवन के अनेक अन्य विषयों को भी इन कविताओं में स्थान मिला है।
सम्पूर्ण विश्व ही किसी कवि की कविता है। ऐसा इसलिए कि ऋग्वेद में ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम “कवि” भी है। कविता सिर्फ कविता होती है। किसी भी भाषा या देश की कविता हो, उसके मूल भाव और प्रवृत्तियां लगभग एक जैसी होती हैं। लेकिन हम चूँकि भारतवासी हैं इसलिए भारत में कवि और कविता के विषय में अपनी ही परम्परा के आलोक में मुख्य रूप से चर्चा करेंगे।
भारत में सभी प्रकार के साहित्य को काव्य कहा गया है। साहित्य को समाज का दर्पण कहते हैं। किसी समाज को समझना हो तो उसमें कही जा रही कविता या साहित्य को पढ़ा जाए।
आइये, सबसे पहले यह देखते हैं कि हमारे देश में कविता किसे कहा गया है। उसे किस तरह परिभाषित किया गया है। जीवन की तरह कविता भी अनंत है, जिसे किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता। लेकिन इसे अनेक लोगों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। जहाँ तक भारतीय कविता का प्रश्न है, तो उसे समझने की शुरूआत हमें संस्कृत से ही समझना करनी होगी, क्योंकि यही सब भारतीय भाषाओं की जननी है।
हमारे देश में साहित्य के अनेक सम्प्रदाय हैं और हर सम्प्रदाय के आचार्यों ने कविता को अपने-अपने ढंग से निरूपित और परिभाषित किया है। किसीने अलंकार को कविता माना, तो किसीने रीति को; किसीने औचित्य को तो किसीने वक्रोक्ति को; किसीने ध्वनि को कविता माना तो किसीने रस को। लेकिन इसमें से कोई भी कविता के पूरे मर्म को अभिव्यक्त नहीं करता।
बहरहाल, कविराज विश्वनाथ की परिभाषा को लगभग सर्वमान्य कहा जा सकता है। उन्होंने कहा है कि “वाक्यं रसात्मक काव्यं”। यानी रसपूर्ण वाक्य की काव्य है। शब्द रूपी काव्य-शरीर में रस रूपी आत्मा होनी चाहिए, अन्यथा यह बिना आत्मा के शरीर के समान है। आचार्य भरत ने रस का प्रतिपादन करते हुए कहा कि रसो वैस: यानी, रस ही ब्रह्म व परमात्मा है। इस प्रकार कुल मिलाकर रस की निष्पत्ति करने वाला व्यवस्थित वाक्य ही काव्य है।
भारत के मनीषियों का हर विषय में चिन्तन सर्वोच्च स्तर का है। उन्होंने ईश्वर को कवि निरूपित करते हुए कहा कि-
कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू
अर्थात कवि मनीषी, परिभू यानी सर्वव्याप्त और स्वयंभू अर्थात अनादि है।
कवि को हमारे शास्त्रों ने साधारण मानव नहीं माना है। वह सामान्य व्यक्ति से ऊपर उठा होता है। अग्नि पुराण में कहा गया है कि-
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तितस्तत्र,
अर्थात मर्त्यलोक में मनुष्य जन्म दुर्लभ है। उसमें भी ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन है। ज्ञान में भी कवित्व दुर्लभ है। कविता करने की शक्ति अत्यंत दुर्लभ है और कठिनाई से प्राप्त होती है।
संभवत: इसी श्लोक से प्रेरित होकर कवि गोपालदास नीरज ने लिखा कि-
आत्मा के सौन्दर्य का शब्द रूप है काव्य
मानव होना है भाग्य
कवि होना सौभाग्य।
कविता के लिए क्या ज़रूरी? इस विषय में भारत और पाश्चात्य साहित्य मनीषियों का चिन्तन लगभग एक जैसा है। उन्होंने इसके लिए प्रतिभा को पहली और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता माना है, जिसके बिना कविता करना संभव नहीं है। अधिकतर मनीषियों का मत है कि काव्य-प्रतिभा जन्मजात होती है। हालाकि कुछ लोगों का मानना है कि प्रयास और अभ्यास से इसे अर्जित किया जा सकता है। ऐसे सज्जनों को भी कविता का रुझान ज़रूरी है।
प्रतिभा सिर्फ कविता करने वाले के लिए ही नहीं, उसे सुनने वाले के लिए भी आवश्यक बतायी गयी है। हमारे देश में दो प्रकार की प्रतिभाएँ कही गयी हैं- कारयत्री प्रतिभा और भावयत्री प्रतिभा। पहली का सम्बन्ध कवि से है और दूसरी का श्रोता या रसिक से। बहरहाल, अकेली प्रतिभा से बहुत प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। अभ्यास और निरंतर ज्ञान अर्जन की प्रवृत्ति से ही श्रेष्ठ कविता की रचना हो सकती है। कवि को दूसरे कवियों और साहित्य को निरंतर पढ़ते रहना चाहिए। भाषा, व्याकरण और काव्य के विभिन्न अंगों को परिष्कृत करते हुए अपनी शब्द-शक्ति को बढ़ाते रहना चाहिए। महाकवि तुलसीदास भले ही कहते हों कि-
कवित विवेक एक नहीं मोरे,
सत्य कहहुं लिखि कागद कोरे।
यानी मैं कोरे कागज़ पर यह बात लिखकर दे सकता हूँ कि मुझे कविता का बिल्कुल विवेक नहीं है। लेकिन इतनी बड़ी बात तो तुलसी जैसा महाकवि ही कह सकता है। उन्हें काव्यशास्त्र, छंद विधान, व्याकरण, भाषा और काव्य के सभी अंगों में असाधारण श्रेष्ठता हासिल थी।
अंग्रेजी कवि वर्ड्सवर्थ (Wordsworth) ने कहा है कि अनुभूति की प्रगाढ़ता कविता का प्रमुख तत्व है। सही बात है। केवल प्रतिभा, काव्यशास्त्र के नियमों और भाषा की श्रेष्ठता भर से श्रेष्ठ कविता नहीं हो सकती। श्रेष्ठ और शाश्वत कविता की रचना के लिए कवि की चेतना को इतना ऊंचा उठना पड़ता है कि व्यक्ति के रूप में कवि रह ही नहीं जाता सिर्फ कविता रह जाती है। दुनिया में जितने भी श्रेष्ठ कवि हुए हैं, उनकी चेतना इतनी ही ऊपर उठी थी। वे इतने भावाविष्ट हो जाते हैं कि उन्हें खुद ही पता नहीं होता कि वे क्या लिख रहे हैं। लिखने के बाद उन्हें खुद आश्चर्य होता है कि क्या यह मैंने लिखा है?
इस सन्दर्भ में महान अंग्रेज़ी कवि कॉलरिज से जुड़ा एक प्रसंग याद हो आता है। विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी साहित्य के एक प्रोफ़ेसर कॉलरिज की कोई कविता पढ़ा रहे थे। उन्हें एक पंक्ति का अर्थ समझ नहीं आ रहा था। उन्होंने स्टूडेंट्स से कहा कि यह पंक्ति मुझे समझ नहीं आ रही है। इसका अर्थ में कवि लिखते समय बता सकता है। वह शाम को कॉलरिज के घर गये। वह अपने घर के लॉन में बैठे थे। प्रोफ़ेसर ने उनसे उस पंक्ति का मतलब पूछा। कॉलरिज ने कहा कि इस पंक्ति का मतलब तो सिर्फ दो लोग जानते हैं- एक कवि और एक ईश्वर। प्रोफ़ेसर ने कहा कि ईश्वर को कहाँ तलाशूंगा, आपने उसकी रचना की है, लिहाजा खुद ही बता दीजिये। कॉलरिज ने कहा कि जिस कॉलरिज ने ये पंक्तियाँ, लिखीं वह तो लिखकर चला गया। मुझे खुद ही पता नहीं कि इन पंक्तियों का क्या मतलब है।
इसी तरह की बात महान कवि कीट्स के बारे में पढ़ने में आती है। उनकी अनेक कविताएँ अधूरी पड़ी रहीं। लोगों ने उनसे कहा के वह उन्हें पूरी कर दें। लेकिन कीट्स कवि उन्हें पूरी नहीं कर पाए। चेतना की जिस अवस्था में उन्होंने वे पंक्तियाँ लिखी थीं, वह चेतना कविता पूरी होने तक नहीं रह सकी। फिर कभी वैसी स्थिति नहीं बनी। उनके लाख प्रयास करने पर भी ये कविताएँ अधूरी ही रह गयीं। इसलिए हमें कुछ कविताओं के अर्थ समझ नहीं आते।
उर्दू में इसे ही आमद की शायरी कहा गया है। महान शायर ज़िगर मुरादाबाद शराब बहुत पीते थे। इसीके कारण उनका जीवन बर्बाद रहा। लेकिन उन्होंने एक बहुत चौंकाने वाली बात कही। उन्होंने कहा कि जब उन पर शेर नाज़िल होते हैं, तो वह महीनों शराब को छूते तक नहीं हैं।
संत तुलसीदास ने अपनी कालजयी कृति “रामचरितमानस” के बारे में कहा कि यह उनके भीतर से प्रकाशित हुयी है। इसीलिए महान ग्रंथों को अपौरुषेय कहा गया है। आमतौर पर इसका अर्थ यह लगाया जाता है कि इन्हें किसी व्यक्ति ने नहीं लिखा, लेकिन इसका मतलब सिर्फ इतना है कि चेतना की जिस अवस्था में उनकी रचना हुई, उस समय व्यक्ति के रूप में रचनाकार नहीं रह गया।
ईश्वर की तरह ही कविता का भी कोई अंत नहीं है। इस पर हज़ारों पुस्तकें लिखने पर भी बहुत कुछ अनकहा रह जाएगा। बहरहाल, कवि बनने की चाह रखने वालों को मनीषी की तरह चेतना प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 130 ☆ उड़ गई गौरैया… ☆
तोता उड़, मैना उड़, चिड़िया उड़.., सबको याद तो होगा बचपन का यह खेल। विडंबना देखिए कि खेल में गौरैया उड़ाने वाले मनुष्य ने खेल-खेल में चिड़िया को अनेक स्थानों से हमेशा के लिए उड़ा दिया।
आज विश्व गौरैया दिवस है। अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझती गौरैया पर औपचारिकतावश विमर्श नहीं अपितु यथासंभव जानकारी एवं जागृति इस आलेख का ध्येय है।
पर्यावरणविदों के अनुसार भारत में गोरैया की 5 प्रजातियाँ मिलती हैं। एक समय था कि गौरैया हर आँगन, हर पेड़, हर खेत में बसेरा किये मिलती थी। पिछले तीन दशकों में विशेषकर महानगरों में गौरैया की संख्या में 70% से 80% तक कमी आई है। महानगरों में बहुमंज़िला गगनचुंबी इमारतों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इन इमारतों की प्रति स्क्वेयर फीट की ऊँची कीमतों ने औसत 14 सेंटीमीटर की चिड़िया के लिए अपने पंजे टिकाने की जगह भी नहीं छोड़ी।
गौरैया फसलों पर लगने वाले कीड़ों को खाती हैं। अब खेती की ज़मीन बेतहाशा बिक रही है। जहाँ थोड़ी-बहुत बची है, वहाँ फसलों पर कीटनाशकों का छिड़काव हो रहा है। घास का बीज चिड़िया का प्रिय खाद्य रहा है। घास भी हमने कृत्रिम कर डाली। छोटे झाड़ीनुमा पेड़ चिड़िया के बसेरे थे, जो हमने काट दिए। सघन वृक्ष काटकर डेकोरेटिव पेड़ खड़े किए। हमने केवल अपने लिए उपयोगी या अनुपयोगी का विचार किया। हमारी स्वार्थांधता ने प्रकृति के अन्य घटकों को दरकिनार कर दिया।
सुपरमार्केट और मॉल के चलते पंसारी की दुकानों में भारी कमी आई है। खुला अनाज नहीं बिकने के कारण चिड़िया को दाना मिलना दूभर हो गया। चिड़िया जिये तो कैसे जिये? और फिर मोबाइल टॉवर आ गये। इन टॉवरों के चलते दिशा खोजने की गौरैया की प्रणाली प्रभावित होने लगी। साथ ही उनकी प्रजनन क्षमता पर भी घातक प्रभाव पड़ा। अधिक तापमान, प्रदूषण, वृक्षों की कटाई और मोबाइल टॉवर के विकिरण से गौरैया का सर्वनाश हो गया।
कदम-कदम पर दिखनेवाली गौरैया के विलुप्त होने के संकट का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अनेक महानगरों में इनकी संख्या दो अंकों तक सीमित रह गई है।
हमारे पारम्परिक जीवनदर्शन की उपेक्षा ने भी इस संकट को बढ़ाया है। हमारे पूर्वजों की रसोई में गाय, और कुत्ते की रोटी अनिवार्य रूप से बनती थी। हर आँगन में पंछियों के लिए दाना उपलब्ध था। हमने उनका भोजन छीना। हमने कुआँ, तालाब सब पाट कर अपने-अपने घर में नल ले लिये पर चिड़िया और सभी पंछियों के लिए पानी की व्यवस्था करना ज़रूरी नहीं समझा।
घर के घर होने की एक अनिवार्य शर्त है गौरैया का होना। गौरैया का होना अर्थात पंख का होना, परवाज़ का होना। गौरैया का होना जीवन के साज का होना, जीवन की आवाज़ का होना।
पंख, परवाज़, साज, आवाज़ के लिए सबका साथ वांछनीय है। अनुरोध है कि साल भर चिड़ियों के लिए अपनी बालकनी या टेरेस पर दाना-पानी की व्यवस्था करें। अपने परिसर में चिड़ियों के घोंसला बना सकने लायक वातावरण बनाएँ। यदि पौधारोपण संभव है तो भारतीय प्रजाति के पौधे लगाएँ।
स्मरण रहे कि गौरैया को उड़ाया हमने है तो उसे लौटा लाने का दायित्व भी हमारा ही है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 32
तीर्थाटन का महत्व-
1) सभी तीर्थ जलवायु की दृष्टि से बेहद उपयोगी स्थान हैं। इन सभी स्थानों पर नदी का जल स्वास्थ्यप्रद है। अनेक प्राकृतिक लवण पाए जाते हैं जिससे जल सुपाच्य और औषधि का काम करता है। विशेषकर गंगाजल को संजीवनी यों ही नहीं कहा गया। बढ़ती जनसंख्या, प्रदूषण, उचित रखरखाव के अभाव ने अनेक स्थानों पर तीर्थ की अवस्था पहले जैसी नहीं रहने दी है तथापि गंगा का अमृतवाहिनी स्वरूप आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है।
2) तीर्थयात्रा को पदयात्रा से जोड़ने की उदात्त दृष्टि हमारे पूर्वजों की रही। आयुर्वेद इसे प्रमेह चिकित्सा कहता है। पैदल चलने से विशेषकर कमर के नीचे के अंग पुष्ट होते हैं। पूरे शरीर में ऊर्जा का प्रवाह होता है। भूख अच्छी लगती है, पाचन संस्थान प्रभावी रूप से काम करता हो।
3) व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने की कुँजी है तीर्थाटन। लोकोक्ति है, ‘जिसके पैर फटे न बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई!’ तीर्थाटन में अच्छे-बुरे, अनुकूल-प्रतिकूल सभी तरह के अनुभव होते हैं। अनुभव से अर्जित ज्ञान, किताबी ज्ञान से अनेक गुना प्रभावी, सच्चा और सदा स्मरण रहनेवाला होता है। इस आलेख के लेखक की एक चर्चित कविता की पंक्तियाँ हैं,
उसने पढ़ी
आदमी पर लिखी किताबें,
मैं आदमी को पढ़ता रहा!
तीर्थाटन में नये लोग मिलते हैं। यह पढ़ना-पढ़ाना जीवन को स्थायी सीख देता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्तों की तपिश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 124 ☆
☆ रिश्तों की तपिश ☆
‘सर्द हवा चलती रही/ रात भर बुझते हुए रिश्तों को तापा किया हमने’– गुलज़ार की यह पंक्तियां समसामयिक हैं; आज भी शाश्वत हैं। रिश्ते कांच की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं, जिसका कारण है संबंधों में बढ़ता अजनबीपन का एहसास, जो मानसिक संत्रास व एकाकीपन के कारण पनपता है और उसका मूल कारण है…मानव का अहं, जो रिश्तों को दीमक की भांति चाट रहा है। संवादहीनता के कारण पनप रही आत्मकेंद्रितता और संवेदनहीनता मधुर संबंधों में सेंध लगाकर अपने भाग्य पर इतरा रही है। सो! आजकल रिश्तों में गर्माहट रही कहां है?
विश्व में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण मानव हर कीमत पर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। उसकी प्राप्ति के लिए उसे चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न जाना पड़े? रिश्ते आजकल बेमानी हैं; उनकी अहमियत रही नहीं। अहंनिष्ठ मानव अपने स्वार्थ-हित उनका उपयोग करता है। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘मुसीबत में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।’ आजकल रिश्ते स्वार्थ साधने का मात्र सोपान हैं और अपने ही, अपने बनकर अपनों को छल रहे हैं अर्थात् अपनों की पीठ में छुरा घोंपना सामान्य-सी बात हो गयी है।
प्राचीन काल में संबंधों का निर्वहन अपने प्राणों की आहुति देकर किया जाता था… कृष्ण व सुदामा की दोस्ती का उदाहरण सबके समक्ष है; अविस्मरणीय है…कौन भुला सकता है उन्हें? सावित्री का अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा के लिए यमराज से उलझ जाना; गंधारी का पति की खुशी के लिए अंधत्व को स्वीकार करना; सीता का राम के साथ वन-गमन; उर्मिला का लक्ष्मण के लिए राजमहल की सुख- सुविधाओं का त्याग करना आदि तथ्यों से सब अवगत हैं। परंतु लक्ष्मण व भरत जैसे भाई आजकल कहां मिलते हैं? आधुनिक युग में तो ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ का प्रचलन है। सो! पति-पत्नी का संबंध भी वस्त्र-परिवर्तन की भांति है। जब तक अच्छा लगे– साथ रहो, वरना अलग हो जाओ। सो! संबंधों को ढोने का औचित्य क्या है? आजकल तो चंद घंटों पश्चात् भी पति-पत्नी में अलगाव हो जाता है। परिवार खंडित हो रहे हैं और सिंगल पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। बच्चे इसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा भुगतने को विवश हैं। एकल परिवार व्यवस्था के कारण बुज़ुर्ग भी वृद्धाश्रमों में आश्रय पा रहे हैं। कोई भी संबंध पावन नहीं रहा, यहां तक कि खून के रिश्ते, जो परमात्मा द्वारा बनाए जाते हैं तथा उनमें इंसान का तनिक भी योगदान नहीं होता …वे भी बेतहाशा टूट रहे हैं।
परिणामत: स्नेह, सौहार्द, प्रेम व त्याग का अभाव चहुंओर परिलक्षित है। हर इंसान निपट स्वार्थी हो गया है। विवाह-व्यवस्था अस्तित्वहीन हो गई है तथा टूटने के कग़ार पर है। पति-पत्नी भले ही एक छत के नीचे रहते हैं, परंतु कहां है उनमें समर्पण व स्वीकार्यता का भाव? वे हर पल एक-दूसरे को नीचा दिखा कर सुक़ून पाते हैं। सहनशीलता जीवन से नदारद होती जा रही है। पति-पत्नी दोनों दोधारी तलवार थामे, एक-दूसरे का डट कर सामना करते हैं। आरोप-प्रत्यारोप का प्रचलन तो सामान्य हो गया है। बीस वर्ष तक साथ रहने पर भी वे पलक झपकते अलग होने में जीवन की सार्थकता स्वीकारते हैं, जिसका मुख्य कारण है…लिव-इन व विवाहेतर संबंधों को कानूनी मान्यता प्राप्त होना। जी हां! आप स्वतंत्र हैं। आप निरंकुश होकर अपनी पत्नी की भावनाओं पर कुठाराघात कर पर-स्त्री गमन कर सकते हैं। ‘लिव-इन’ ने भी हिन्दू विवाह पद्धति की सार्थकता व अनिवार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कैसा होगा आगामी पीढ़ी का चलन? क्या इन विषम परिस्थितियों में परिवार-व्यवस्था सुरक्षित रह पाएगी?
मैं यहां ‘मी टू’ पर भी प्रकाश डालना चाहूंगी, जिसे कानून ने मान्यता प्रदान कर दी है। आप पच्चीस वर्ष पश्चात् भी किसी पर दोषारोपण कर अपने हृदय की भड़ास निकालने को स्वतंत्र हैं। हंसते-खेलते परिवारों की खुशियों को होम करने का आपको अधिकार है। सो! इस तथ्य से तो आप सब परिचित हैं कि अपवाद हर जगह मिलते हैं। कितनी महिलाएं कहीं दहेज का इल्ज़ाम लगा व ‘मी टू’ के अंतर्गत किसी की पगड़ी उछाल कर उनकी खुशियों को मगर की भांति लील रही हैं।
इन विषम परिस्थितियों में आवश्यक है– सामाजिक विसंगतियों पर चर्चा करना। बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण जीवन- मूल्य खण्डित हो रहे हैं और उनका पतन हो रहा है। सम्मान-सत्कार की भावना विलुप्त हो रही है और मासूमों के प्रति दुष्कर्म के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। कोई भी रिश्ता विश्वसनीय नहीं रहा। नब्बे प्रतिशत बालिकाओं का बचपन में अपनों द्वारा शीलहरण हो चुका होता है और उन्हें मौन रहने को विवश किया जाता है, ताकि परिवार विखण्डन से बच सके। वैसे भी दो वर्ष की बच्ची व नब्बे वर्ष की वृद्धा को मात्र उपभोग की वस्तु व वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारा जाता है। हर चौराहे पर दुर्योधन व दु:शासनों की भीड़ लगी रहती है, जो उनका अपहरण करने के पश्चात् दुष्कर्म कर अपनी पीठ ठोकते हैं। इतना ही नहीं, उनकी हत्या कर वे सुक़ून पाते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि वे सबूत के अभाव में छूट जायेंगे। सो! वे निकल पड़ते हैं–नये शिकार की तलाश में। हर दिन घटित हादसों को देख कर हृदय चीत्कार कर उठता है और देश के कर्णाधारों से ग़ुहार लगाता है कि हमारे देश में सऊदी अरब जैसे कठोर कानून क्यों नहीं बनाए जाते, जहां पंद्रह मिनट में आरोपी को खोज कर सरेआम गोली से उड़ा दिया जाता है; जहां राजा स्वयं पीड़िता से मिल तीस मिनट में अपराधी को उल्टा लटका कर भीड़ को सौंप देते हैं ताकि लोगों को सीख मिल सके और उनमें भय का भाव उत्पन्न हो सके। इससे दुष्कर्म के हादसों पर अंकुश लगना स्वाभाविक है।
इस भयावह वातावरण में हर इंसान मुखौटे लगा कर जी रहा है; एक-दूसरे की आंखों में धूल झोंक रहा है। आजकल महिलाएं भी सुरक्षा हित निर्मित कानूनों का खूब फायदा उठा रही हैं। वे बच्चों के लिए पति के साथ एक छत के नीचे रहती हैं, पूरी सुख-सुविधाएं भोगती हैं और हर पल पति पर निशाना साधे रहती हैं। वे दोनों दुनियादारी के निर्वहन हेतू पति-पत्नी का क़िरदार बखूबी निभाते हैं, जबकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि यह संबंध बच्चों के बड़े होने तक ही कायम रहेगा। जी हां, यही सत्य है जीवन का…समझ नहीं आता कि पुरुष इन पक्षों को अनदेखा कर कैसे अपनी ज़िंदगी गुज़ारता है और वृद्धावस्था की आगामी आपदाओं का स्मरण कर चिंतित नहीं होता। वह बच्चों की उपेक्षा व अवमानना का दंश झेलता, नशे का सहारा लेता है और अपने अहं में जीता रहता है। पत्नी सदैव उस पर हावी रहती है, क्योंकि वह जानती है कि उसे प्रदत्त अधिकार से कोई भी बेदखल नहीं कर सकता। हां! अलग होने पर मुआवज़ा, बच्चों की परवरिश का खर्च आदि मिलना उसका संवैधानिक अधिकार है। इसलिए महिलाएं अपने ढंग से जीवन-यापन करती हैं।
यह तो सर्द रातों में बुझते हुए दीयों की बात हुई।
जैसे सर्द हवा के चलने पर जलती आग के आसपास बैठ कर तापना बहुत सुक़ून देता है और इंसान उस तपिश को अंत तक महसूसना चाहता है, जबकि वह जानता है कि वे संबंध स्थायी नहीं हैं; पल भर में ओझल हो जाने वाले हैं। इंसान सदैव सुक़ून की तलाश में रहता है, परंंतु वह नहीं जानता कि आखिर सुक़ून उसे कहाँ और कैसे प्राप्त होगा? इसे आप रिश्तों को बचाने की मुहिम के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि ‘मानव खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ में विश्वास रखता है। वह आज को जी लेना चाहता है; कल के बारे में चिन्ता नहीं करता।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – आलेख – शुभ होली
होली अर्थात विभिन्न रंगों का साथ आना। साथ आना, एकात्म होना। रंग लगाना अर्थात अपने रंग या अपनी सोच अथवा विचार में किसी को रँगना। विभिन्न रंगों से रँगा व्यक्ति जानता है कि उसका विचार ही अंतिम नहीं है। रंग लगानेवाला स्वयं भी सामासिकता और एकात्मता के रंग में रँगता चला जाता है। रँगना भी ऐसा कि रँगा सियार भी हृदय परिवर्तन के लिए विवश हो जाए। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
सारे विरोध उनके तिरोहित हुए,
भाव मेरे मन के पुरोहित हुए,
मतभेदों की समिधा,
संवाद के यज्ञ में,
सद्भाव के घृत से,
सत्य के पावक में होम हुई,
आर-पार अब
एक ही परिदृश्य बसता है,
मेरे मन के भावों का
उनके ह्रदय में,
उनके विचार का
मेरे मानसपटल पर
प्रतिबिंब दिखता है…!
होली या फाग हमारी सामासिकता का इंद्रधनुषी प्रतीक है। यही कारण है कि होली क्षमापना का भी पर्व है। क्षमापना अर्थात वर्षभर की ईर्ष्या मत्सर, शत्रुता को भूलकर सहयोग- समन्वय का नया पर्व आरंभ करना।
जाने-अनजाने विगत वर्षभर में किसी कृत्य से किसी का मन दुखा हो तो हृदय से क्षमायाचना। आइए, शेष जीवन में हिल-मिलकर अशेष रंगों का आनंद उठाएँ, होली मनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 31
नित्य तीर्थ में पवित्र कैलाश पर्वत, मानसरोवर, काशी, गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी आदि का समावेश है। माना जाता है कि इन स्थानों पर सृष्टि की रचना के समय से ही ईश्वर का वास है।
जिन स्थानों की रज पर भगवान के चरण पड़े, वे भगवदीय तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनमें ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ, अयोध्या, वृंदावन आदि समाविष्ट हैं।
संतों की जन्मभूमि, कर्मभूमि, निर्वाणभूमि को संत तीर्थ कहा गया है। ये क्षेत्र मनुष्य को दिव्य अनुभूति एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं।
प्रत्यक्ष जीवन में, नित्य के व्यवहार में निरंतर ईश्वरीय सत्ता का दर्शन करनेवाली वैदिक संस्कृति अद्भुत है। वह अपने आसपास साक्षात तीर्थ देखती, दिखाती और जीवन को धन्य बनाती चलती है। इसी विराट व्यापकता ने अगले 6 तीर्थों में भक्त, गुरु, माता, पिता, पति, पत्नी को स्थान दिया है। अपने साथ ही तीर्थ लेकर जीने की यह वैदिक शब्दातीत दिव्यता है।
वैदिक दर्शन में चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवनचक्र के लिए उद्दिष्ट माने गये हैं। तीर्थ का एक अर्थ तीन पुरुषार्थ धर्म, काम और मोक्ष का दाता भी माना गया है। एक अन्य मत के अनुसार सात्विक, रजोगुण या तमोगुण जिस प्रकार का जीवन जिया है, उसी आधार पर तीर्थ का परिणाम भी मिलता है। समान कर्म में भी भाव महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ परमाणु ऊर्जा से एक वैज्ञानिक बिजली बनाने की सोचता है जबकि दूसरा मानवता के नाश का मानस रखकर परमाणु बम पर विचार करता है।
जिससे संसार समुद्र तीरा जाए, उसे भी तीर्थ कहा जाता है। अगस्त्य मुनि ने एक आचमन में समुद्र को पी लिया था। प्रभु श्रीराम के धनुष उठाने पर समुद्र ने रास्ता छोड़ा था। तीर्थयात्रा संसार समुद्र के पार जाने का सेतु बनाती है।
तीर्थ मृण्मय से चिन्मय की यात्रा है। मृण्मय का अर्थ है मृदा या मिट्टी से बना। चिन्मय, चैतन्य से जुड़ा है। देह से देहातीत होना, काया से आत्मा की यात्रा है तीर्थ। आत्मा के रूप में हम सब एक ही परमात्मा के अंश हैं, इस भाव को पुनर्जागृत और पुनर्स्थापित करता है तीर्थ। अनेक से एक, एक से एकात्म जगाता है तीर्थ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी # 100 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 11 – …लरका रोबैं न्यारे खौं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
शाब्दिक अर्थ :- विपन्नता की स्थिति में खान पान और रहन सहन पूरा अस्त व्यस्त हो जाता है।
कोपरा नदी के किनारे बसे खेजरा गाँव में सजीवन पाँडे अपनी पत्नी रुकमणी व पुत्र भोला के साथ शिव मंदिर के बाड़े में छोटी सी कुटिया बनाकर रहते थे। सजीवन पाँडे बड़े भुनसारे उठते, झाड़े जाते, नित्य क्रिया से फुरसत हो कोपरा नदी में 5-6 डुबकी लगा स्नान करते। स्नान के पूर्व अपनी धोती को धोकर सुखाने के लिए बगराना न भूलते। ऐसा नहीं था की सजीवन पाँडे के पास इकलौती धोती थी, उनके पास धोती, कुर्ता और गमछा एक और सेट था, जिसे वे बड़ा संभालकर रखते और जब कभी कोई बड़ा जजमान उन्हे कथा पूजन में बुलाता तो इन कपड़ों को पहन माथे पर बड़ा सा त्रिपुंड टीका लगाकर, काँख में पोथी पत्रा दबाकर बड़े ठाट से जजमानी करने जाते। जजमानी में जाते वक्त उनकी इच्छा होती की जजमान दान दक्षिणा में एक सदरी दे दे तो उनका कपड़ों का सेट पोरा हो जाय। लोधी पटेलों और काछियों की इस गरीब बसाहट में उनकी इच्छा न तो भगवान ही सुनते और न ही जजमान। यदाकदा सजीवन पाँडे अपने साथ पंडिताइन व एकलौते पुत्र भोला को भी ले जाते। पंडिताइन तो अपने बक्से में से बड़ी सहेज कर रखी गई साफ सुथरी साड़ी निकाल कर पहन लेती। पंडिताइन के जीवन में यही अवसर होता जब वे नारी श्रंगार का संपूर्ण सुख भोगती, साड़ी को पेटीकोट पोलका के साथ पहनती और माथे पर टिकली बिंदी पैरों में महावर लगाती। इस पूरे श्रंगार से पंडिताइन का गोरा मुख चमक उठता और सजीवन पाँडे भी उनके रूप की प्रशंसा कर उठते पर यह कहते हुये कि भोला की अम्मा तुम्हें कोई सुख न दे पाया उनकी आँखे गीली हो जाती गला रूँध जाता। ऐसे में पंडिताइन ही सजीवन पाँडे को ढाढ़स बँधाती और कहती भोला के दद्दा चिंता ना करों हमारे दिन भी बहुरेंगे, शंकर भगवान कृपा करेंगे, आखिर बारा बरस में घूरे के दिन भी फिरत हैंगे। अम्मा दद्दा तो साज सँवर जाते पर भोला के भाग में चड्डी बनियान ही थी उस दिन सुबह सबरे से अम्मा भोला के कपड़े उतार बड़े जतन से धोती और सूखा देती तब तक भोला नंग धड़ंग रहते और घर से बाहर न निकलते। उगारे भोला कुटिया के एक कोने में बैठे बिसुरते रहते। जाने के ठीक पहले उन्हे भी नहला धुलाकर चड्डी बनियान में सुसज्जित कर दिया जाता। कुलमिलाकर शिवालय के शंकरजी की पिंडी की सेवा व आसपास के गाँवों की जजमानी से सजीवन पाँडे की घर ग्रहस्ती चल रही थी या कहें कि घिसट रही थी और उन पर यह कहावत कि “पाँडे रोबैं रोटी खौं, पाँडेन रोबैं धोती खौं, लरका रोबैं न्यारे खौं” (विपन्नता की स्थिति में खान पान और रहन सहन पूरा अस्त व्यस्त हो जाता है) तो फिट ही बैठती।
समय चक्र चलता रहा, भोला पाँडे इन्ही विपन्न परिस्थितियों में, अपने बाप सजीवन पाँडे की पंडिताई में सहायता करते हुये, हिन्दी व संस्कृत का अल्प ज्ञान ले, किशोर हो चले। गाँव में कोई स्कूल न था और हटा अथवा दमोह जहाँ पढ़ाने लिखाने की अच्छी व्यवस्था थी वहाँ भोला को भेज पाने की न तो सजीवन पांडे की आर्थिक हैसियत थी और न ही कोई जजमान या रिश्तेदार का घर जहाँ भोला को रख अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाया जा सके। उनकी उम्र कोई 14-15 वर्ष रही होगी कि सजीवन पाँडे को पुत्र के ब्याह की चिंता होने लगी। घर में तो भारी विपन्नता थी अत: पंडिताइन ने भोला का ब्याह तय करने में पति को सलाह देते हुये कहा कि भोला के दद्दा लरका को ब्याव ऐसी जागा करिओ जो कुलीन घर के होयं और खात पियत मैं अपनी बरोबरी के होयं। हमाइ बऊ कैत हती कै “सुत ऐसे घर ब्याहिए, जो समता में होय। खान पान बेहार में मिलता –जुलता होय।।“ सजीवन पाँडे को पत्नी की सलाह भा गई और साथ ही उन्हे पास ही के गाँव इमलिया के एक उच्च कुल के गरीब ब्राह्मण व अपने बाल सखा राम मिलन तिवारी की याद आई। फिर क्या था बजाय संदेसन खेती करने के सजीवन पांडे अपने मित्र से मिलने इमलिया चले गए और उनकी कन्या से अपने पुत्र के विवाह की चर्चा घुमा फिरा कर छेड घर वापस आ गये। राम मिलन तिवारी अपने बाल सखा का मंतव्य न समझ सके पर उनकी धर्मपत्नी जो ओट में बैठी दोनों मित्रों की बात सुन रही थी सब समझ गई। सजीवन पाँडे के वापस जाते ही उसने राम मिलन तिवारी से उनके मित्र के घर आने का कारण बताया और पुत्री के विवाह की चर्चा आगे बढ़ाने ज़ोर डाला। दोनों मित्र एक बार फिर मिले और भोला पाण्डेय का ब्याह तय कर दिया। राम मिलन तिवारी बड़े कुलीन ब्राह्मण थे अत: उनके घर लक्ष्मी कभी कभार ही आती, लेकिन गाँव के लोगों ने इमलिया के इस सुदामा पर बड़ी कृपा करी और लड़की का ब्याह भोला पाँडे से करवाने पूरी सहायता करी। लोधी पटेलों ने अन्न चुन्न दे दिया तो काछी सब्जी भाजी लेता आया। बजाजी ने दो चार जोड़ी कपड़ा लत्ता की व्यवस्था कर दी तो कचेर ने टिकली बिंदी चूड़ी और श्रंगार का समान दे दिया। गाँव भर के युवा बारात के सेवा टहल के लिए आगे आए। राम मिलन तिवारी मौड़ी के ब्याह में कुछ खास दहेज न दे पाये बस किसी तरह नेंग- दस्तूर पूरे कर दिये। सजीवन पाँडे भी यारी दोस्ती के फेर में पड़ गए और पंडिताइन के लाख समझाने- बुझाने पर भी अपने मित्र से कुछ माँग न सके। ब्याह की भावरें पड़ी, बारातियों ने पंगत में पूरी, सुहारी, आलू की रसीली सब्जी में डुबो डुबोकर खाये और पचमेर की जगह केवल लड्डू बर्फी का आनंद लिया। सब्जी में आलू के टुकड़े ढूंढने से मिलते पर बारातियों ने उफ्फ न करी, हाँ । पत्तल की भोजन सामग्री खतम होती कि उसके पहले ही दोनों में गौरस परस दिया गया फिर क्या था बारात में आए पंडित रिश्तेदारों और खेजरा के अन्य ग्रामीणों ने चार चार पूरी मींजकर गौरस में डाली और 5 मिनिट में ही उसे सफाचट कर गए। पंगत को भोजन का आनंद लेते देख राम मिलन तिवारी बड़े प्रसन्न हुये और हुलफुलाहट में पूछ बैठे और कुछ महराज। उनका इतना कहना था कि पंगत में से आवाज आई दो-दो पूरी शक्कर के साथ और हो जाती तो सोने में सुहागा हो जाता। चिंतित राम सजीवन कुछ कहते या पंगत में बिलोरा होता उसके पहले ही इमलिया के घिनहा बनिया बोल पड़े जो आज्ञा महराज और धीरे से बाहर निकल अपनी दुकान से एक बोरी शक्कर उठा लाये। फिर क्या था इधर पंगत शक्कर के साथ दो दो पूरी और उदरस्त कर रही थी कि चुन्नु नाई ने यह बोलते हुये पंगत समाप्त करने की सोची “समदी माँगे दान दायजौ, लरका माँगै जोय.सबै बाराती जो चहें अच्छी पंगत होय॥“ उधर राम मिलन आखों मे कृतज्ञता का भाव लिए घिनहा बनिया की ओर ताक रहे थे और मन ही मन सोच रहे थे कि लड़की को अच्छा वर मिला तो लड़के को सुंदर कन्या मिली बराती भी गाँव वालों के सहयोग से अच्छी पंगत पा गए बस समधी ही दान दहेज से वंचित रह गए। पर उनके बस में दान दहेज देना न था। घर की विपन्नता में दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जाता यही बहुत था। वे बारबार बांदकपुर के भोले शंकर जागेशवरनाथ और हटा की चंडी माता का सुमरन कर रहे थे कि सजीवन पाण्डेय उनके पास विदा लेने आ पहुँचे। अश्रुपूरित आखों से राममिलन तिवारी ने अपने बाल सखा की ओर देखा और फिर नए समधी और दामाद भोला पांडे को साष्टांग दंडवत कर प्रणाम किया। रुँधे गले से उनके मुख से बस इतना ही निकला कि महराज हमाई स्थिति से आप परचित हो कोनौ कमी रै गई होय और अनुआ होय तो क्षिमा करियों। इतना कह वे अपनी गरीबी के दुर्भाग्य पर फूट फूट कर रो पड़े। सजीवन पांडे ने समधी को गले लगाया और दुरागमन की बात आगे कभी करने की कह विदा ली।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 29
तीर्थ : व्याख्या और मीमांसा-
भारतीय दर्शन में तीर्थ के अनेक अर्थ मिलते हैं। ‘तरति पापादिकं तस्मात।’ अर्थात जिसके द्वारा मनुष्य दैहिक, दैविक एवं भौतिक, सभी प्रकार के पापों से तर जाए, वह तीर्थ है। इसीके समांतर भवसागर से पार उतारने वाला/ वैतरणी पार कराने वाला के अर्थ में भी तीर्थ को ग्रहण किया जाता है।
संभवत: इसी आधार पर स्कंदपुराण के काशी खंड में तीन प्रकार के तीर्थ बताये गए हैं- जंगम, स्थावर तथा मानस। संत, वेदज्ञ एवं गौ, जंगम यानि चलते-फिरते तीर्थ। सत्पुरुषों को जंगम तीर्थ कहा गया। सच्चे और परोपकारी भाव के सज्जनों का आशीर्वाद फलीभूत होने की सामुदायिक मान्यता भी जंगम तीर्थ को मिली है। कतिपय विशिष्ट स्थानों को स्थावर तीर्थ कहा गया। इन स्थानों का अपना महत्व होता है। यहाँ एक दैवीय सकारात्मकता का बोध होता है। अद्भुत प्रेरणादायी ऐसे तीर्थस्थान सामान्यत: जल या जलखंड के समीप स्थित होते हैं। ‘पद्मपुराण’ स्थावर तीर्थों को परिभाषित करते हुए लिखता है,
पग-पग पर बुद्धिवाद को प्रधानता देनेवाली वैदिक संस्कृति ने समस्त तीर्थों में मानसतीर्थ को महत्व दिया है। मानसतीर्थ अर्थात मन की उर्ध्वमुखी प्रवृत्तियाँ। इनमें सत्य, क्षमा, इंद्रियनिग्रह, दया, दान, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, मधुरवचन, सरलता, संतोष सभी शामिल हैं।
अनेक मीमांसाकारों ने तीर्थों के 9 प्रकार बताते हैं। उन्होंने पहले तीन प्रकार का नामकरण नित्य, भगवदीय एवं संत तीर्थ किया है। ये तीर्थ ऐसे हैं जो अपने स्थान पर सदा के लिए स्थित हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆