हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 254 – शिवोऽहम्… (5) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 254 शिवोऽहम्… (5) ?

आत्मषटकम् पर मनन-चिंतन की प्रक्रिया में आज पाँचवें श्लोक पर विचार करेंगे। अपने परिचय के क्रम में अगला आयाम आदिगुरु शंकराचार्य कुछ यूँ रखते हैं,

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:

पिता नैव मे नैव माता न जन्म:

न बंधुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यं

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।

इसका शाब्दिक अर्थ है कि न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है। न मेरा कोई पिता है, न कोई माता है, न ही मेरा जन्म हुआ है। न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु  है और न ही कोई शिष्य। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

मृत्यु के संदर्भ में देखें तो शंकराचार्य जी महाराज के कथन से स्पष्ट है कि देह छूटना आशंका नहीं होना चाहिए। यों भी यात्रा में पड़ाव आशंका नहीं हो सकता। यात्रा तो परमात्मा के अंश की है, यात्रा आत्मा की है। यात्रा के सनातन और यात्री के शाश्वत होने का प्रसंग आए और योगेश्वर उवाच स्मृति में न आए, यह संभव ही नहीं। भगवान गीतोपदेश में कहते हैं,

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

आत्मा का किसी भी काल में न जन्म होता है और न ही मृत्यु। यह पूर्व न होकर, पुनः न रहनेवाला भी नहीं है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।

मैं मृत्यु नहीं हूँ, अत: स्वाभाविक है कि जन्म भी नहीं हूँ। जो कभी जन्मा ही नहीं, वह मरेगा कैसे? जो कभी मरा ही नहीं, वह जन्मेगा कैसे?..ओशो की समाधि पर लिखा है, ‘नेवर बॉर्न, नेवर डाइड, ऑनली विज़िटेड दिस प्लानेट अर्थ बिटविन….’ उन्होंने न कभी जन्म लिया, न उनकी कभी मृत्यु हुई। वे केवल फलां तिथि से फलां तिथि तक सौरग्रह धरती पर रहे।’

विचार करें तो बस यही अवस्था न्यूनाधिक हर जीवात्मा की है। स्पष्ट है कि केवल जन्म और मृत्यु तक सीमित रखकर जीवन नहीं देखा जा सकता।

पिता न होना अर्थात किसीके जन्म का कारक न बनना और माता न होना अर्थात किसीको जन्म देने का कारण न होना। जन्म से मृत्यु तक जीवात्मा द्वारा देह धारण  करने का कारण और कारक परमात्मा ही हैं। प्राप्त देह, यात्रा की निमित्त मात्र है।

न मार्ग का दर्शन, न मार्ग का अनुसरण.., न गुरु होना, न शिष्य होना। बंधु, मित्र न होना, रक्त का या परिचय का सम्बंध न होना। जगत के सम्बंधों तक सीमित नहीं है अस्तित्व। माता, पिता, गुरु, शिष्य, बंधु, मित्र इहलोक के नश्वर सम्बंध हैं जबकि जीवात्मा ईश्वर का आंशिक अवतरण है।

जातिभेद का उल्लेख करते हुए आदिगुरु स्पष्ट करते हैं कि मैं न कुलविशेष तक सीमित हूँ, न ही वंशविशेष हूँ।  ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।’ …जाति का एक अर्थ उत्पत्ति भी है। जीवात्मा उत्पत्ति और विनाश से परे है।

जीवात्मा अपरिमेय संभावना है जिसे देह और मर्त्यलोक की आशंका तक सीमित कर हम अपने अस्तित्व को भूल रहे हैं। अपनी एक रचना स्मरण आ रही है,

संभावना क्षीण थी, आशंका घोर,

बायीं ओर से उठाकर, आशंका के सारे शून्य

धर दिये संभावना के दाहिनी ओर..,

गणना की संभावना खो गई,

संभावना अपरिमेय हो गई..!

मनुष्य अपने अस्तित्व की अपरिमेय संभावनाओं को पढ़ने लगे तो कह उठेगा,..’मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ,…शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 454 ⇒ हमारे पास भी भेजा है… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हमारे पास भी भेजा है।)

?अभी अभी # 454 ⇒ हमारे पास भी भेजा है? श्री प्रदीप शर्मा  ?

खुदा जब हुस्न देता है तो नज़ाकत आ ही जाती है, लेकिन अगर वह साथ में उसे थोड़ी सी अगर अक्ल भी दे दे, तो कयामत आ जाती है। इसलिए वह एक इंसान को या तो हुस्न देता है, या फिर अक्ल। Have you ever seen a beauty with brain ?

बचपन में हम दिखने में ठीकठाक ही थे, निष्छल हँसी और मुस्कान अगर बच्चों की पहचान है तो हुस्न किसी हसीना की पहचान है। जो कभी हँसी ही नहीं, वह काहे की हसीना। हम भले ही पढाई में होशियार रहे हों, लेकिन गणित की कक्षा में हमारे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगती थी और गणित के गुरु जी तुरंत हमारा चेहरा भांप लिया करते थे और कहते थे, जब ऊपर वाला अक्ल बांट रहा था, तब तुम कहां थे।।

अजीब गणित है अक्ल का भी, यह दुनिया गणित वालों को अक्लमंद मानती है, और शेष को मंदबुद्धि।

वैसे हम आपको बता दें, हमारे मस्तिष्क में दिमाग भी है, और वह बहुत चलता भी है। मैं भी मुंह में जबान रखता हूं, और मेरे पास भी भेजा है और वह भी उस ऊपर वाले ने ही भेजा है।

अब ऐसा तो नहीं हो सकता कि हमारे पास भेजा तो हो, लेकिन उसमें अक्ल नहीं हो। हम तो उस देने वाले पर यह भी इल्जाम नहीं लगा सकते कि उसने हमारे भेजे में अक्ल भरी ही नहीं, क्योंकि समझदारी तो हममें कूट कूटकर भरी है। हमें आज भी याद है, वह बचपन की कहावत ;

छड़ी पड़े छमछम

विद्या आए झम झम…

जिसे हम ब्रेन, दिमाग, मस्तिष्क अथवा भेजा कहते हैं, आखिर वह है क्या, हमारे शरीर रूपी यंत्र का कोई हार्डवेयर अथवा सॉफ्टवेयर। यह कैसा शरीर का सॉफ्टवेयर, अगर ब्रेन डेड तो सब डेड, फिर मम्मी हो या डेड।

इससे तो यही साबित होता है, कि उस ऊपर वाले ने हमें भी वही भेजा भेजा है, जो सबको भेजा है, एक रेडियो की तरह उसकी ट्यूनिंग भी चेक की होगी, टेक्नोलॉजी में आज जो वैज्ञानिक दिमाग लगा रहे हैं, उसका भी कॉपीराइट उसी के पास है। अगर उसने ऊपर से स्विच ऑफ कर दिया तो सब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का गणित भी भूल जाओगे।।

अगर बचपन में गणित हमारे भेजे में नहीं घुसा, तो हमें रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा। फर्क तो उनको पड़ा जिनको जब जीवन का गणित बिगड़ता नजर आया, तो उन्होंने अपने भेजे में ही गोली मार ली।

भय्यू महाराज जैसे संत और कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक केवल जिंदगी का गणित बिगड़ने से अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुके हैं।

असली गणित जीवन का गणित है, का करि के, पुनि भाग कर, नहीं ! यह बात हमारे भेजे में घर कर चुकी है, इसलिए भेजे को नहीं, गोली मारो ऐसे गणित को।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 453 ⇒ जोड़ी गीतकार और… संगीतकारों की… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जोड़ी गीतकार औरसंगीतकारों की…।)

?अभी अभी # 453 ⇒ जोड़ी गीतकार और… संगीतकारों की… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब कभी हिंदी सिनेमा संगीत की स्वर्ण युग की बात होती है इसका श्रेय पचास और साठ के दशक को जाता है। लगभग उसी दौर में संगीतकार शंकर जयकिशन की अपनी एक जगह थी। उनके संगीत ने सिनेमा संगीत को फेमस किया। उनके पहले संगीत इतना पॉप्युलर नहीं था। शंकर जयकिशन ने संगीत को आसान कर दिया। मगर यह सुनने में जितना आसान लगता है उसका निर्माण उतना ही कठिन होता है। कैसे बनाते थे शंकर-जयकिशन संगीत…

शंकर गंभीर थे और जयकिशन रोमांटिक

वो ज्यादातर हार्मोनियम और प्यानो पर अपने संगीत का निर्माण करते थे। जयकिशन जी रोमांटिक स्वभाव के थे और उन्हें कपडों का बडा शौक था। थीम सॉन्ग और शीर्षक गीत, उनकी फिल्म संगीत को बडी देन है। ऐसा कहा जाता था कि उन्हें स्वरलेखन (नोटेशन) लिखना नही आता था, इसके बावजूद वो सफल और लोकप्रिय रहे। पहली फिल्म “बरसात” से ही उन्होंने अपनी जगह बना ली थी। 10 अप्रैल 1950 को मुंबई के इम्पीरियल सिनेमागृह मे प्रदर्शित हुई इस फिल्म की अपार सफलता ने उनका विश्वास बढाया। आज भी इस फिल्म के गाने, हवा में उडता जाए, जिया बेकरार है, मुझे किसी से प्यार हो गया, अब मेरा कौन सहारा, और बरसात मे हमसे मिले तुम (सभी लता मंगेशकर) सुनने में आनंद देते हैं।

अपने गॉडफादर राज कपूर के लिए वे कुछ हटकर संगीत बनाते थे। शंकर को आंध्र के लोक संगीत की अच्छी जानकारी थी। श्री 420 के वक्त उन्होंने रमय्या, वस्तावैया धुन राजसाहब को सुनाई जो उन्हें बहुत पसंद आई।

फिल्म जिस देश में गंगा बहती है के गीत आ अब लौट चले की रेकॉर्डिंग के समय फेमस स्टुडिओ मे इतने वादक हो गये की कईंयो को बैठने के लिए जगह नही थी। इतने वादक होने के बावजूद रेकॉर्डिंग मे कोई गडबडी नहीं हुई। भैरवी उन दोनो का पसंदीदा राग था। बोल रे कठपुतली (कठपुतली) राजा की आयेगी बारात (आह) सुनो छोटी सी दुनिया की (सीमा) तुम्हें और क्या दूं मैं (आई मिलन की बेला) आदि गीतों की रचना इसी राग की थी। कभी नील गगन की छाँव मे (आम्रपाली) केतकी गुलाब (बसंत बहार) झनक झनक तोरी बाजे पायलिया (मेरे हुजूर) ऐसे कुछ शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों मे सफलता पाई।

शंकर जयकिशन और उनके संगीत के बारे में जितना भी कहा जाए उतना कम ही है। सिनेमा संगीत का एक लंबा, महत्वपूर्ण और लोकप्रिय संगीत शंकर जयकिशन की देन है। भारतीय फिल्म संगीत को अमर बनाने में गीत और संगीत का बड़ा योगदान है। पहले गीत लिखा जाता है, फिर उसकी धुन बनाई जाती है और उसके बाद गायक उसे अपना सुर प्रदान करता है। श्रोता के पास जब यह गीत पहुंचता है तो उस पर गीत, संगीत और गायक, तीनों का मिला जुला असर पड़ता है, और उसकी आत्मा तृप्त हो जाती है।

जो लोग केवल आम खाते हैं, वे पेड़ नहीं गिनते। हमें तो स्वादिष्ट सब्जी से मतलब है, फिर भले ही वह आलू की हो अथवा गोभी की, अथवा दोनों मिक्स। किसने बनाई, क्या क्या मसाले डाले, इससे हमें क्या। गीत, धुन और संगीत का भी यही हाल है। लेकिन जो संगीत के रसिक होते हैं, उनकी तो बात कुछ और ही होती है।।

हम यहां सिर्फ संगीतकार और गीतकार जोड़ी की ही चर्चा करेंगे। हमारी आज की संगीतकार जोड़ी है, शंकर जयकिशन अब जरा इनके साथ वाले गीतकार की जोड़ी पर भी गौर फरमाइए। गीतकार जोड़ी हैं शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी।।

फिल्म का गीतकार तो एक ही हो सकता है, लेकिन संगीत का संयोजन तो दो संगीतकार मिलकर भी कर सकते हैं। याद कीजिए संगीतकार हुस्नलाल भगतराम और कल्याण जी आनंद जी की जोड़ी को।

हर संगीतकार के अपनी पसंद के गीतकार होते हैं। राजकपूर की फिल्म बरसात में शंकर जयकिशन का संगीत था और गीतकार थे शैलेंद्र और हसरत जयपुरी। फिल्म मेरा नाम जोकर तक राजकपूर की फिल्मों में शंकर जयकिशन ने संगीत दिया और शैलेंद्र और हसरत जयपुरी ने गीत लिखे।।

अब इसी जोड़ी की जरा धमा चौकड़ी भी देखिए, जिसमें शामिल हैं गीतकार शैलेन्द्र, संगीतकार शंकर, गायक मुकेश और द ओनली शोमैन राजकपूर। फिल्म आवारा, बरसात, श्री ४२०, चोरी चोरी, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, संगम और मेरा नाम जोकर तक इनका जलवा कायम रहा।

सजन रे झूठ मत बोलो, शैलेंद्र की तीसरी कसम किसे याद नहीं। शैलेंद्र के गीतों में दर्द था, सादगी थी, गांव का ठेठ भोलापन था ;

सब कुछ सीखा हमने,

ना सीखी होशियारी।

सच है दुनिया वालों

कि हम हैं अनाड़ी।।

इसी जोड़ी के दूसरे गीतकार थे, हसरत जयपुरी। राजकपूर के अलावा सभी अभिनेताओं के लिए हसरत जयपुरी ने जिन गीतों की रचना की, उनके लिए केवल एक गायक मोहम्मद रफी ही पर्याप्त थे। शम्मी कपूर की फिल्में जंगली, जानवर, प्रोफेसर, बदतमीज, प्रिंस, पगला कहीं का, एन इवनिंग इन पेरिस, अंदाज़ और ब्रह्मचारी तक एक ही संगीतकार और एक ही आवाज मोहम्मद रफी।

कोई फर्क नहीं पड़ता फिर वो आरजू, मेरे महबूब, सूरज और आई मिलन की बेला के राजेंद्र कुमार हों, अथवा लव इन टोकियो के जॉय मुखर्जी।

1940 में जयपुरी बॉम्बे (अब मुंबई) आ गए और बस कंडक्टर के रूप में काम करना शुरू कर दिया, जहाँ उन्हें ग्यारह रुपये मासिक वेतन मिलता था। वह मुशायरों या कविता पाठ संगोष्ठियों में भाग लेते थे। एक मुशायरे में पृथ्वीराज कपूर की नज़र जयपुरी पर पड़ी और उन्होंने अपने बेटे राज कपूर से उनकी सिफारिश की। राज कपूर शंकर-जयकिशन के साथ एक संगीतमय प्रेम कहानी, बरसात (1949) की योजना बना रहे थे। जयपुरी ने फिल्म के लिए अपना पहला रिकॉर्ड किया हुआ गाना, जिया बेकरार है लिखा। उनका दूसरा गाना (और पहला युगल गीत) छोड़ गए बालम था।।

शैलेंद्र के साथ, जयपुरी ने 1971 तक राज कपूर की सभी फिल्मों के लिए गीत लिखे। जिस फिल्म के गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी होंगे, उस फिल्म का संगीत शंकर जयकिशन का ही होगा। जयकिशन और शंकर की इस जोड़ी ने लगभग १७० फिल्मों में संगीत दिया है जिसमें केवल लता मंगेशकर के ही गाए हुए ४६६ गीत हैं।

जीना यहां मरना यहां हो अथवा सजन रे झूठ मत बोलो, तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे। जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग संग तुम भी गुनगुनाओगे। इतनी छोटी दास्तान नहीं है फिल्म संगीत के इतिहास की इस ऐतिहासिक धमा चौकड़ी की, जहां धुनों के जादूगर अगर शंकर और जयकिशन हैं, तो दर्द भरे, संजीदा, दार्शनिक और फड़कते गीतों के लिए महाकवि शैलेंद्र और शायर हसरत जयपुरी मौजूद हैं।।

अभी अभी इतना ही, एक और जोड़ी संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और गीतकार जोड़ी आनंद बख्शी और मजरूह सुल्तानपुरी पर फिर कभी..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पुरस्कृत आलेख – ‘मेघ, सावन और ईश्वर’ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख ☆ मेघ, सावन और ईश्वर… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

(हिंदीभाषा डॉट कॉम परिवार द्वारा आयोजित ‘मेघ, सावन और ईश्वर’ विषय पर 84 वीं स्पर्धा कराई गई। इसमें उत्कृष्टता अनुसार प्रथम विजेता बनने का सौभाग्य गद्य में डॉ. मीना श्रीवास्तव जी को प्राप्त हुआ। प्रस्तुत है पुरस्कृत आलेख ‘मेघ, सावन और ईश्वर’ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई।)

वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थ: प्रतिपत्यये।

जगत: पितरौ वंदे पार्वतीपरमेश्वरौ॥”

(अर्थ: शब्द और अर्थ का सम्यक ज्ञान प्राप्त हो, इसलिए शब्द और अर्थ के समान ही (परस्पर से भिन्न होकर भी) परस्पर में समाहित रहने वाले, जो अखिल जगत के जनक जननी हैं, ऐसे पार्वती तथा परमेश्वर (शिव) को मैं प्रणाम करता हूँ|)

महाकवि कालिदास के अमर काव्य ‘रघुवंशम्’ का प्रारम्भ शिव-पार्वती स्तुति के इसी श्लोक से होता है। जब मेघों से लरजती रिमझिम फुहार धरती पर बरसने को व्याकुल हो, जब इंद्रधनुषी किनारी से सजी, विविध कुसुमों की भीनी-भीनी खुशबू में लिपटी बेल-बूटी से सजे वस्त्र ओढ़ कर साँवरी-सलोनी वसुंधरा आनन्द गीत गुनगुनाने लगे और जब परमेश्वर की असीम कृपा आप पर हर पल वृद्धिगत होने को तैयार हो तो, समझ लीजिए कि, सावन का महीना आपके द्वार पर दस्तक दे रहा है।
अब कृष्णमेघ नई उमंग के साथ आसमान में छा जाते हैं। जरा-सी बारिश हुई नहीं कि, मेघों से लुका-छुपी खेलती सुनहरी धूप की किरणें झांकती हैं। फिर प्रकृति का एक अनुपम दृश्य ‘इंद्रधनुष’ आसमान में तन जाता है। उसके सप्त रंग सुहानी आभा बिखेरते हैं समस्त वातावरण में। जब इंद्रधनुष कहे कि, मेरी इस सुंदरता का कोई सानी नहीं, तब कोई है जो कारे- कारे बदरा को देख अपने पंखों को फैलाकर अपनी नृत्यकला से समस्त प्रकृति को भावविभोर करे एवं कहे-है कोई मेरा सानी रंगों में और नृत्य में ? मित्रों, हमें तो मयूर का नृत्य उतना ही लुभाता है, जितने मोरपखा के रंग। ‘छायावाद’ के शीर्ष लेखक सुमित्रानंदन पंत ने उनकी ‘बरसते बादल’ नामक कविता में सावन के शस्य श्यामल रूप का मनमोहक वर्णन किया है, जो कर्णमधुर भी है।

“झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के,

छम छम छम गिरती बूँदें तरुओं से छन के।

चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,

थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।”

वर्षा की फेनिल धाराओं धारा के कवि का मन ऐसा डोलने लगता है कि, वह बारम्बार सावन के आने की प्रतीक्षा करने लगता है।

“पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,

आओ रे सब मुझे घेर कर गाओ सावन!

इन्द्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन,

फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन!”

*

“उज्जयिन्यां महाकालं ओम्कारम् अमलेश्वरम्॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।

सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।

हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥”

मित्रों, १२ ज्योतिर्लिंगों में ही नहीं, बल्कि हर शिवभक्त के प्राणों में बसे देवों के देव महादेव की आराधना करने के लिए सर्वोत्तम ऐसा सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित है, जिस मनोरम प्रकृति के हर रूप में ईश्वर का निवास है, वहीं प्रकृति अपने सबसे सुन्दर रूप का श्रृंगार कर भोलेनाथ की पूजा में तल्लीन हो जाती है। इस माह में चंद्रमा श्रवण नक्षत्र में होते हैं, इसलिए इस महीने को ‘श्रावण’ या ‘सावन’ कहा जाने लगा। शास्त्र कहते हैं कि, सावन के महीने से भगवन विष्णु चौमासे के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं, इसलिए महादेव सृष्टि का संचालन करने लगते हैं और इस महीने में भूलोक पर आते हैं।

भगवान शिव को सोमनाथ अर्थात सोम (चंद्र के स्वामी) और जलदेव (वर्षा के स्वामी) भी कहा जाता है। जलाभिषेक से सम्बंधित एक प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार-सावन के महीने में समुद्र मंथन के दौरान ‘हलाहल’ नामक विष निकला था। समस्त सृष्टि की रक्षा करने के लिए भगवान शिव ने विष ग्रहण कर लिया था, जिसके कारण उनका गला नीला पड़ गया। तब से वे ‘नीलकंठ’ कहलाए। उस समय गले पर विष का प्रभाव कम करने के लिए देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया था। मुझे तो यही प्रतीत होता है कि, शिव ऐसे इकलौते अल्पसंतोषी भगवान हैं जो श्रद्धापूर्वक अर्पण किए हुए जल तत्व को ग्रहण कर प्रसन्न होते हैं।

भगवान शिव की पूजा-अर्चना करने के लिए सावन के सोमवार को उपवास, उपासना और जलाभिषेक महत्वपूर्ण माने जाते हैं। मान्यता है कि, इन दिनों में शिवजी को जलाभिषेक करने से सर्वोत्तम फलप्राप्ति और भक्तों की मनोकामनाएं अवश्य पूरी होती हैं। बेल की पत्तियाँ और धतूरा भी भोलेनाथ को अतिप्रिय है।

श्रावण माह का महत्व इस महीने में आने वाले पूजा अर्चना और त्योहारों के कारण और भी वृद्धिगत हो जाता है। महादेव को प्रसन्न करते-करते उनके गले में प्रेम से लिपटे नीलकंठ की शोभा बढ़ाते हुए नागराज वासुकी को कैसे बिसरा दें ? इन्होंने ही अमृत मंथन के लिए रस्सी का कार्य किया था। नाग पंचमी का त्यौहार हम इसी सावन में (श्रावण शुक्ल पंचमी) मनाते हैं। देखिए, हमारी भारतीय संस्कृति इतनी महान है कि, विष उगलने वाले सर्पों को भी हम देवता का दर्जा दे पूजते हैं। श्रावण पूर्णिमा के दिन मछुआरे सागर को श्रीफल अर्पण कर यह प्रार्थना करते हैं कि वह शान्त रहे। इसी दिन भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक रक्षाबंधन मनाया जाता है| जन्माष्टमी (श्रावण वद्य अष्टमी) यह कृष्णजन्म का पावन दिवस कृष्णभक्तों के लिए तो आनंदोल्लास का पर्व होता है। हर श्रावण शुक्रवार को जरा जीवंतिका पूजन बालकों की मंगल कामना के लिए किया जाता है। इन दिनों में नववधुएं मायके में जाने को व्याकुल होती हैं। ऐसे में उसे सखियों के साथ बिताए पल याद आते हैं, खास कर ‘सावन के झूले!’
भक्ति और समृद्धि से समाहित यह खुशहाल समां सबको आनंद विभोर करता है। उसकी जलधाराओं के नृत्याविष्कार में ‘ॐ नमः शिवाय’ और नन्हें बाल गोपाल की किलकारियाँ प्रतिध्वनित होती हैं। आइए, इस हरित ऋतु का प्रेमोल्लास से स्वागत करें।

© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #246 ☆ मनन, अनुसरण, अनुभव… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मनन, अनुसरण, अनुभव… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 246 ☆

☆ मनन, अनुसरण, अनुभव… ☆

ज्ञान तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है– प्रथम मनन, जो सबसे श्रेष्ठ है, द्वितीय अनुसरण सबसे आसान है और तृतीय अनुभव जो कटु व कठिन है– सफलता प्राप्ति के मापदंड हैं। इंसान   संसार में जो कुछ देखता-सुनता है, अक्सर उस पर चिंतन-मनन करता है। उसकी उपयोगिता- अनुपयोगिता, औचित्य-अनौचित्य, ठीक-ग़लत लाभ-हानि आदि विभिन्न पहलुओं के बारे में सोच-विचार करके ही निर्णय लेता है– ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है। यह सर्वश्रेष्ठ माध्यम है तथा किसी ग़लती की संभावना नहीं रहती। दूसरा माध्यम है अनुसरण–यह अत्यंत सुविधाजनक है। इंसान महान् विद्वत्तजनों का अनुसरण कर सकता है। इसमें किसी प्रकार की ग़लती की संभावना नहीं रहती तथा इसे अभ्यास की संज्ञा भी दी जाती है। तृतीय अनुभव जो एक कटु मार्ग है, जिसका प्रयोग वे लोग करते हैं, जो दूसरों पर विश्वास नहीं करते तथा अपने अनुभव से ही सीख लेते हैं। वे उससे होने वाले परिणामों से अवगत नहीं होते। वे यह जानते हैं कि इससे उनका लाभ होने वाला नहीं, परंतु वे उसका अनुभव करके ही साँस लेते हैं। ऐसे लोगों को हानि उठानी पड़ती है तथा आपदाओं का सामना करना पड़ता है।

विद्या रूपी धन बाँटने से बढ़ता है। परंतु इसके लिए ग्रहणशीलता का मादा होना चाहिए तथा उसमें इच्छा भाव होना अपेक्षित है। मानव की इच्छा शक्ति यदि प्रबल होती है, तभी वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है तथा जो वह सीखना चाहता है, उसमें और अधिक जानने की प्रबल इच्छा जाग्रत होती है। वास्तव में ऐसे व्यक्ति महान् आविष्कारक होते हैं। वे निरंतर प्रयासरत रहते हैं तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखते। ऐसे लोगों का अनुसरण करने वाले ही ठीक राह पर चलते हैं; कभी पथ-विचलित नहीं होते। सो! अनुसरण सुगम मार्ग है। तीसरी श्रेणी के लोग कहलाते मूर्ख कहलाते हैं, जो दूसरों की सुनते नहीं और उनमें सोचने-विचारने की शक्ति होती नहीं होती। वे अहंवादी केवल स्वयं पर विश्वास करते हैं तथा सब कुछ जानते हुए भी वे अनुभव करते हैं। जैसे आग में कूदने पर जलना अवश्यम्भावी है, परंतु फिर भी वे ऐसा कर गुज़रते हैं।

मानव में इन चार गुणों का होना आवश्यक है– मुस्कुराना, प्रशंसा करना, सहयोग करना व क्षमा करना। यह एक तरह के धागे होते हैं, जो उलझ कर भी क़रीब आ जाते हैं। दूसरी तरफ रिश्ते हैं जो ज़रा सा उलझते ही टूट जाते हैं। जो व्यक्ति जीवन में सदा प्रसन्न रहता है तथा दूसरों की प्रशंसा कर उन्हें  प्रसन्न करने का प्रयास करता है, सबके हृदय के क़रीब होता है। इतना ही नहीं, जो दूसरों का सहयोग करके प्रसन्न होता है, क्षमाशील कहलाता है। उसकी हर जगह सराहना होती है. वास्तव में यह उन धागों के समान है, जो उलझ कर भी क़रीब आ जाते हैं और रिश्ते ज़रा से उलझते ही टूट जाते हैं। वैसे रिश्तों की अहमियत आजकल कहीं भी रही नहीं। वे तो दरक़ कर टूट जाते हैं काँच की मानिंद।

अविश्वास आजकल सब रिश्तों पर हावी है, जिसके कारण उसमें स्थायित्व होता ही नहीं। मानव आजकल अपने दु:ख से दु:खी नहीं रहता, दूसरों को सुखी देखकर अधिक दु:खी व परेशान रहता है, क्योंकि उसमें ईर्ष्या भाव होता है। वह निरंतर यह सोचता रहता है कि जो दूसरों के पास है, उसे क्यों नहीं मिला। सो! वह अकारण हरपल दुविधा में रहता है तथा अपने भाग्य को कोसता रहता है, जबकि वह इस तथ्य से अवगत होता है कि इंसान को समय से पहले व भाग्य से अधिक कुछ भी नहीं मिल सकता। इसलिए  उसे सदैव समीक्षा करनी चाहिए तथा निरंतर कर्मशील रहना कारग़र है, क्योंकि जो उसके भाग्य में है, अवश्य मिलकर रहेगा। सो!

मानव को प्रभु  पर विश्वास करना चाहिए। ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा।’ ‘कलयुग केवल नाम आधारा’ अर्थात् कलयुग में केवल नाम स्मरण ही प्रभु-प्राप्ति का एकमात्र सुगम उपाय है। अंतकाल यही उसके साथ जाता है तथा शेष यहीं धरा रह जाता है।

मौन वाणी की सर्वश्रेष्ठ विशेषता है और सर्वाधिक शक्तिशाली है। इसमें नौ गुण निहित रहते हैं। इसलिए मानव को यह शिक्षा दी जाती  है कि उसे तभी मुँह खोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अन्यथा उसे मौन को सर्वश्रेष्ठ आभूषण समझ धारण करना चाहिए। सत्य व प्रिय वचन वचन बोलना ही वाणी का सर्वोत्तम  गुण हैं और धर्मगत अथवा कटु व व्यंग्य वचनों का प्रयोग भी हानि पहुंचा सकता है। इसलिए हमें विवाद में नहीं, संवाद में विश्वास करना चाहिए, क्योंकि ‘अजीब चलन है ज़माने का/ दीवारों में आएं दरारें तो/ दीवारें गिर जाती हैं। पर रिश्तों आए दरार तो/ दीवारें खड़ी हो जाती हैं।’ इसलिए हमें दरारों को दीवारों का रूप धारण करने से रोकना चाहिए। संवाद के माधुर्य के लिए संबोधन की मधुरता अनिवार्य है। शब्दों का महत्व संबंधों को जीवित रखने की संजीवनी है। सो! संबंध तभी बने रहेंगे, यदि संबोधन में माधुर्य होगा, क्योंकि प्रेम वह चाबी है, जिससे हर ताला खुल सकता है।

‘बहुत से रिश्ते तो इसलिए खत्म हो जाते हैं, क्योंकि एक सही बोल नहीं पाता और दूसरा सही समझ नहीं पाता।’ इसके लिए जहाँ वाणी माधुर्य की आवश्यकता होती है, वहीं उसे सही समझने का गुण भी आवश्यक है। यदि हमारी सोच नकारात्मक है तो हमें ठीक बात भी ग़लत लगना स्वाभाविक है। इसलिए रिश्तों में गर्माहट का होना आवश्यक है और हमें उसे दर्शाना भी चाहिए। जो भी हमें मिला है, उसे खुशी से स्वीकारना चाहिए। मुझे स्मरण हो रहे हैं भगवान कृष्ण के यह शब्द ‘मैं विधाता होकर भी विधि के विधान को नहीं टाल सका। मेरी चाह राधा थी और चाहती मुझे मीरा थी, परंतु मैं रुक्मणी का होकर रह गया। यह विधि का विधान है।’ सो!  होइहि वही जो राम रचि राखा।

रिश्ते ऐसे बनाओ, जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो। जो इंसान आपकी भावनाओं को बिना बोले  ही समझ जाए, वही सर्वश्रेष्ठ होता है। सो! कठिन समय में जब मन से धीरे से आवाज़ आती है कि सब अच्छा ही होगा। वह आवाज़ परमात्मा की होती है। इसलिए मानव को मनन करना चाहिए तथा संतजनों के श्रेष्ठ वचनों का अनुसरण करना चाहिए। सत्य में विश्वास कर आगे बढ़ना चाहिए तथा उनके अनुभव से सीखना अर्थात् अनुसरण करना सर्वोत्तम है। व्यर्थ व अकारण अनुभव करने से सदैव मानव को हानि होती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 452 ⇒ धीरे धीरे मोड़ तू इस मन को… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धीरे धीरे मोड़ तू इस मन को।)

?अभी अभी # 452 ⇒ धीरे धीरे मोड़ तू इस मन को? श्री प्रदीप शर्मा  ?

साहिर कह गए हैं, मन रे, तू काहे ना धीर धरे। इधर हमारा चंचल मन एक महात्मा के भजन पर आकर्षित हो रहा है, हमें दूर के ढोल अधिक पसंद हैं, भजन के बोल तो हमें सुनाई नहीं दे रहे, लेकिन धुन जानी पहचानी लगती है। महात्मा आन गांव के सिद्ध हैं, पर्चियां निकाला करते हैं और बागेश्वर धाम के नाम से जगत प्रसिद्ध हैं। फिलहाल वे व्यासपीठ पर विराजमान हैं, और भक्तों और श्रोताओं को भागवत कथा का रसपान करवा रहे हैं।

व्यासपीठ पर जो विराजमान हो जाता है, उसमें ज्ञान, भक्ति और वैराग्य तीनों प्रविष्ट हो जाते हैं, राम कथा, शिव पुराण कथा, गीता ज्ञान और भागवत ज्ञान इन संतों में स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं। लेकिन कलयुग का फेर देखिए, यहां उल्टी गंगा बहती है, व्यासपीठ वालों को भी ज्ञानपीठ से नवाजा जाता है। ।

देखिए, हमारा चंचल मन हमें कहां ले गया। हमारा ध्यान फिर उसी भजन की धुन पर गया, जिसके बोल हम सुन नहीं पा रहे थे।

अचानक हमें उस सुनी हुई धुन के बोल भी याद आ गए। वह एक फिल्मी धुन थी, जिसके बोल थे, धीरे धीरे बोल, कोई सुन ना ले, कोई सुन ना ले।

महात्मा जी धीरे धीरे बोल रहे थे, इसलिए हम भी उनके भजन के बोल सुन नहीं पा रहे थे। कथा, सत्संग, प्रवचन में कब कोई फिल्मी भजन इल्मी हो जाए, कहा नहीं जा सकता। कुछ मौलिक फिल्मी धुनें होती ही इतनी मधुर हैं, कि उन धुनों पर आधारित भजन सुन पूरा पांडाल झूमता हुआ, समाधिस्थ हो जाता है।

श्रावण मास में इस तरह के फिल्मी धुनों पर आधारित भजन आप अक्सर कथा, कीर्तन और महिलाओं के भजन सत्संग में सुन सकते हैं। ढोलक की थाप पर जब महिलाओं का स्वर परवान चढ़ता है, तो दूर कोई गाए, धुन ये सुनाए, वाला फीलिंग मन में आ ही जाता है। ।

इसके पहले कि हमारी भी समाधि लग जाती, हमने इस भजन के शब्दों को भी कान लगाकर सुनने की कोशिश की। महात्मा जी भी भक्ति के आवेश में आ गए थे, और उनके भजन के बोल अब कानों में स्पष्ट सुनाई पड़ने लगे थे। जिसे हम धीरे धीरे बोल समझ रहे थे, वह यहां, धीरे धीरे मोड़, हो गया था और, कोई सुन ना ले, बड़ी खूबसूरती से, तू इस मन को बन चुका था। यूरेका यूरेका, पूरा भजन हमें भी प्रकट हो गया ;

धीरे धीरे मोड़ तू

इस मन को,

इस मन को

भई इस मन को ….

और हमारा मन भी धीरे धीरे इस भजन की ओर मुड़ता चला गया। मन को बाहर के जगत से अंदर की ओर को मोड़ना ही तो अध्यात्म है, जितने सरल और सरस शब्दों में यह बात की जाए, उतना ही बेहतर है। ।

व्हाट अ ट्विस्ट ! हमारे मन ने भी धीर धरा। हमारा मन पहले उस फिल्मी धुन में अटका, थोड़ा हमारा ध्यान भी भटका। कुछ आग्रह पूर्वाग्रह भी हुए, महात्मा भी कितने फिल्मी होते चले जा रहे हैं, फिर हमारा भी विवेक जाग्रत हुआ, हमारे ज्ञानचक्षु खुले और आज सुबह से ही हम भी यह भजन गाने लगे हैं ;

धीरे धीरे मोड़

तू इस मन को

इस मन को

भई इस मन को …

भक्तों आप भी गाइए। अपने मन को अंदर की ओर मोड़िए। अबाउट टर्न।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 210 ☆ … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना त्यौं-त्यौं उज्ज्वल होय। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 210 ☆ त्यौं-त्यौं उज्ज्वल होय…

जिस कार्य को आप कर रहे हैं उसमें आपको शत प्रतिशत योग्य होना चाहिए और ये योग्यता एक पल में नहीं मिल जाती, इसके लिए सतत परिश्रम, धैर्य, योग्यता, कुछ कर गुजरने का जज़्बा, किसी भी परिस्थिति में हार न मानने का प्रण।

जब आप सफ़लता के नजदीक होते हैं तभी लोग एक- एक कर साथ छोड़ने लगते हैं, कारण शीर्ष पर खड़े होना सबके बस की बात नहीं होती इसीलिए वे दूर हो जाते हैं। ऐसे समय में कदम पीछे करने के बजाय पूरी ताकत के साथ बढ़ते रहना चाहिए क्योंकि लक्ष्य की राह में कोई और नहीं आ सकता यहाँ तक कि स्वयं के मन का भय भी नहीं। केवल मंजिल पर निगाह हो, एक रास्ता बंद हो तो दूसरा खोजें, राह भी बनानी पड़े तो बनाएँ पर अपनी जीत सुनिश्चित करें।

तिनके – तिनके जोड़ के, कुनबा लिया बनाय।

नेह भाव मन में बसे, करिए सतत उपाय।।

जीवन में कई बार ऐसा होता है कि आप ने सब कुछ अपने परिश्रम से बनाया पर एक झटके में वो सब बिखर गया, ऐसे में बिल्कुल भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है ये मंत्र सदैव याद रखें जो होता है अच्छे के लिए होता है, कोई भी आपका सब कुछ छीन सकता है पर भाग्य नहीं छीन सकता। अपने को हमेशा समय के साथ अपडेट करते रहें, तकनीकी का ज्ञान ऐसे समय में आपकी सहायता करता है आप अध्ययन करते रहें निरंतर अपनी योग्यता को बढ़ाते रहें।

किसी ऐसे विषय का चयन करें जिसमें आपकी विशेष रुचि हो उसी को विस्तारित करते रहें विश्वास रखें एक न एक दिन दुनिया आपका लोहा मानेगी। बिना मेहनत के यदि आपने कुछ हासिल कर भी लिया तो उसका कोई अर्थ नहीं है, योग्यता सबसे जरूरी होती है योग्य व्यक्ति ही समाज में अपना स्थान बना पाता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 298☆ आलेख – दुनियां एक रंगमंच… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 298 ☆

? आलेख – दुनियां एक रंगमंच? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

ये दुनिया एक रंगमंच है. हम सब छोटे बड़े कलाकार और परमात्मा शायद हम सबका निर्देशक है जिसके इशारो पर हम उठते गिरते परदे और प्रकाश व ध्वनि के तेज कम होते नियंत्रण के साथ अपने अपने चरित्र को जी रहे हैं. जो कलाकार जितनी गम्भीरता से अपना किरदार निभाता है, दुनिया उसे उतने लम्बे समय तक याद रखती है.

एक लेखक की दृष्टि से सोचें तो अपनी भावनाओ को अभिव्यक्त करने की अनेक विधाओ में से नाटक  एक श्रेष्ठ विधा है. कविता न्यूनतम शब्दो में अधिकतम कथ्य व्यक्त कर देती है, किन्तु संप्रेषण तब पूर्ण होता है जब पाठक के हृदय पटल पर कविता वे दृश्य रच सकें जिन्हें कवि व्यक्त करना चाहता है. वहीं नाटक चूंकि स्वयं ही दृश्य विधा है अतः लेखक का कार्य सरल हो जाता है, फिर लेखक की अभिव्यक्ति को निर्देशक तथा नाटक के पात्रो का साथ भी मिल जाता है. किन्तु आज फिल्म और मनोरंजन के अन्य अनेक आधुनिक संसाधनो के बीच विशेष रूप से हिन्दी में नाटक कम ही लिखे जा रहे हैं. एकांकी, प्रहसन, जैसी नाट्य विधायें लोकप्रिय हुई हें. इधर रेडियो रूपक की एक नई विधा विकसित हुई है जिसमें केवल आवाज के उतार चढ़ाव से अभिनय किया जाता है. नुक्कड़ नाटक भी नाटको की एक अति लोकप्रिय विधा है. प्रदर्शन स्थल के रूप में किसी सार्वजनिक स्थल पर एक घेरा, दर्शकों और अभिनेताओं का अंतरंग संबंध और सीधे-सीधे दर्शकों की रोज़मर्रा की जिंद़गी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और नाटकों का मंचन, यह नुक्कड़ नाटको की विशेषता है.

हिन्दी सिनेमा में अमोल पालेकर, फारूख शेख, शबाना आजमी जैसे अनेक कलाकार मूलतः नाट्य कलाकार ही रहे हैं. किन्तु नाट्य प्रस्तुतियो के लिये सुविधा संपन्न मंचो की कमी, नाटक से जुड़े कलाकारो को पर्याप्त आर्थिक सुविधायें न मिलना आदि अनेकानेक कारणो से देश में सामान्य रूप से हिन्दी नाटक आज दर्शको की कमी से जूझ रहा है. लेकिन मैं फिर भी बहुत आशान्वित हूं, क्योकि सब जगह हालात एक से नही है. जबलपुर में ही तरंग जैसा प्रेक्षागृह, विवेचना आदि नाट्य संस्थाओ के समारोह, भोपाल  में रविन्द्र भवन, भारत भवन आदि दर्शको से खचाखच भरे रहते है.

मराठी और बंगाली परिवेश में तो रंगमंच सिनेमा की तरह लोकप्रिय हैं.

सच कहूं तो नाटक के लिये एक वातावरण बनाने की जरूरत होती है, यह वातावरण बनाना  हमारा ही काम  है. नाटक अभिजात्य वर्ग में अति लोकप्रिय विधा है. सरकारें नाट्य संस्थाओ को अनुदान दे रहीं हैं. हर शहर में नाटक से जुड़े, उसमें रुचि रखने वाले लोगो ने  संस्थायें या इप्टा अर्थात इंडियन पीपुल थियेटर एसोशियेशन जैसी १९४३ में स्थापित राष्ट्रीय संस्थाओ की क्षेत्रीय इकाइयां स्थापित की हुई हैं. और नाट्य विधा पर काम चल रहा है. वर्कशाप के माध्यम से नये बच्चो को अभिनय के प्रति प्रेरित किया जा रहा है. पश्चिम बंगाल व  महाराष्ट्र में अनेक निजी व संस्थागत नाट्य गृह संचालित हैं, दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, भोपाल में भारत भवन आदि सक्रिय संस्थाये इस दिशा में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही हैं. नाटक के विभिन्न पहलुओ पर पाठ्यक्रम भी संचालित किये जा रहे हैं.

जरूरत है कि नाटक लेखन को और प्रोत्साहित किया जावे क्योकि आज भी जब कोई थियेटर ग्रुप कोई प्ले करना चाहता है तो उन्ही पुराने नाटको को बार बार मंचित करना पड़ता है. नाटक लेखन पर कार्यशालाओ के आयोजन किये जाने चाहिये, मेरे पास कई शालाओ के शिक्षको के फोन आते हैं कि वे विशेष अवसरो पर नाटक करवाना चाहते हैं पर  उस विषय का कोई नाटक नही मिल रहा है, वे मुझसे नाटक लिखने का आग्रह करते हैं, मैं बताऊ मेरे अनेक नाटक ऐसी ही मांग पर लिखे गये हैं. मेरे नाटक पर इंटरनेट के माध्यम से ही संपर्क करके कुछ छात्रो ने फिल्मांकन भी किया है. संभावनायें अनंत हैं. आगरा में हुये  एक प्रयोग का उल्लेख जरूरी है, यहां १७ करोड़ के निवेश से अशोक ओसवाल ग्रुप ने एक भव्य नाट्यशाला का निर्माण किया है, जहां पर “मोहब्बत दि ताज” नामक नाटक का हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में भव्य शो प्रति दिन वर्षो से जारी है, जो पर्यटको को लुभा रहा है. अर्थात नाटको के विकास के लिये  सब कुछ सरकार पर ही नही छोड़ना चाहिये समाज सामने आवे तो नाटक न केवल स्वयं संपन्न विधा बन सकता है वरन वह लोगो के मनोरंजन, आजीविका और धनोपार्जन का साधन भी बन सकता है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 451 ⇒ || मलाल || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| मलाल ||।)

?अभी अभी # 451 ⇒ || मलाल || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जहां आत्म संतुष्टि होती है, वहां अवसाद प्रवेश नहीं करता। अभाव, इच्छा और आवश्यकता हमें जीवन में सतत कार्यरत रहते हुए आगे बढ़ने में हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहती है। सफलता का मार्ग प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा का मार्ग है।

उपलब्धियों और इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती। संतुष्टि सफलता के मार्ग में रोड़े अटकाती है और जिद, जुनून तथा असंतुष्टि का भाव हमें अपने गंतव्य तक पहुंचने में मदद करता है।

जीवन के सफर में नीड़ के निर्माण से लगाकर आखरी पड़ाव तक पहुंचने के बीच एक अवस्था ऐसी भी होती है, जब वह कुछ पल रुककर, सुस्ताकर वह सोचता है, मैने जीवन में क्या खोया, क्या पाया। खोने को हम असफलता और पाने को सफलता कहते हैं। पैसा, धन दौलत, अच्छा स्वास्थ्य, मान सम्मान और सुखी परिवारिक और सामाजिक जीवन ही हमारी कसौटी। का मापदंड होता है। ।

जिसे हम विहंगावलोकन कहते हैं, वह एक तरह का आत्म निरीक्षण ही होता है, जीवन में जीत हार, सफलता असफलता और सुख दुख का लेखा जोखा। कहीं हमें अफसोस भी होता है और कहीं अपने आप पर अभिमान भी। आपके अफसोस और रंज के खाते में जो कुछ भी होता है, बस वही तो मलाल होता है।

जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि इल्म अथवा ज्ञान है। इल्म में शिक्षा के साथ साथ हुनर का भी समावेश होता है। जो काम मैं अपने जीवन में परिस्थितिवश नहीं कर पाया, उसमें भाषा प्रमुख है। मातृभाषा हिंदी होने के कारण, कामचलाऊ अंग्रेजी के अलावा मुझे संसार की किसी भाषा का ज्ञान नहीं। मैं ऐसा कैसे कुंए का मेंढक, जिसे हिंदी के अलावा एक भी भारतीय भाषा का ज्ञान नहीं।

काश मेरी मातृभाषा हिंदी के अलावा कुछ और होती। मराठी, गुजराती, उर्दू और संस्कृत का शौक जरूर, लेकिन कभी दो शब्द सीखे नहीं। मैं तो ठीक से मालवी, निमाड़ी अथवा राजस्थानी भी नहीं बोल सकता। ऐसा कैसा हिंदी भासा भासी, हमें सुन सुन आए हांसी। ।

विरासत में परिवार से कोई पेशा नहीं मिला इसलिए कोई हुनर भी हाथ नहीं लगा। ना तो हम डॉक्टर इंजिनियर अथवा शिक्षक ही बन पाए और ना ही कोई नेता, समाज सेवक अथवा एनजीओ। दर्जी, सुतार, व्यापारी अथवा अगर किसान भी होते तो कम से कम अन्नदाता तो कहलाते। मानस जीवन व्यर्थ ही गंवाया, और केवल एक पेंशनधारी करदाता कहलाया।

सीखने की कोई उम्र नहीं होती। हम इस उम्र में कुछ सीखना चाहते भी हैं, तो सुनना पड़ता है, यह भी कोई सीखने की उम्र है। स्मरण शक्ति और नेत्र दृष्टि भी अब क्षीण हो चुकी है, ठीक से सात सुरों की सरगम भी नहीं सीख पाए। जब भी इन कारणों से मन में अफ़सोस, रंज, पछतावा अथवा मलाल होता है, लता मंगेशकर का यह गीत हमारा दामन थाम लेता है ;

जब दिल को सताए गम

तू, छेड़ सखि सरगम

स रे ग म प ध नि स

नि ध प म ग रे स

बड़ा ज़ोर है सात सुरों में

बहते आँसू जाते हैं थम

तू छेड़ सखि सरगम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 450 ⇒ छोटी बहन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छोटी बहन।)

?अभी अभी # 450 ⇒ छोटी बहन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सन् १९५९ में निर्देशक एल.वी.प्रसाद ने एक फिल्म बनाई थी, छोटी बहन, जिसके मुख्य कलाकार थे, बलराज साहनी, नंदा, रहमान, महमूद और शुभा खोटे। इस फिल्म को पांच फिल्मफेयर पुरस्कार मिले थे ;

१)सर्वश्रेष्ठ फिल्म,

२) सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, प्रसाद,

३) सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता महमूद

४) सर्वश्रेष्ठ संगीतकार शंकर जयकिशन

और सबसे ऊपर,

५) सर्वश्रेष्ठ गायिका लता मंगेशकर ;

और वह गीत था, भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना। कहने की आवश्यकता नहीं, ऐसा गीत केवल शैलेंद्र ही लिख सकते थे, और लता से छोटी बहन उस समय शायद संगीत की दुनिया में कोई दूसरी मौजूद थी ही नहीं। लता जी को आज भी लता दीदी यूं ही नहीं कहते।

आज से ६५ वर्ष पुराना गीत अगर आप आज भी सुनें, तो लगता है, यह गीत किसी छोटी बहन द्वारा ही गाया गया है। मेरी छोटी बहनों की उम्र आज ६० वर्ष से ऊपर हो गई, लेकिन इस गीत की तरह, मेरे लिए आज भी वे उतनी ही छोटी और प्यारी भी हैं। ।

आज जब सभी पारिवारिक रिश्ते दम तोड़ते नजर आते हैं, भाई बहन का रिश्ता आज भी क्यों आंखों भिगो देता है, खास कर तब, जब रेडियो पर आज भी गीत बजता है। किसी को बहन का होना अगर खुशी के आंसू लाता है, तो किसी के आंखों में बहन के खोने के आंसू भी आज उमड़ पड़ते हैं। शैलेन्द्र के भाव देखिए ;

ये दिन ये त्यौहार ख़ुशी का

पावन जैसे नीर नदी का

भाई के उजले माथे पे

बहन लगाए मंगल टीका

झूमे ये सावन सुहाना, सुहाना।

बांध के हमने रेशम डोरी

तुम से वो उम्मीद है जोड़ी

नाज़ुक है जो साँस के जैसी

पर जीवन भर जाए ना तोड़ी

जाने ये सारा ज़माना ज़माना। ।

शायद वो सावन भी आए

जो बहना का रंग ना लाए

बहन पराए देश बसी हो

अगर वो तुम तक पहुँच ना पाए

याद का दीपक जलाना, जलाना। ।

भैया मेरे …

लेकिन समय कितना बदल गया है। बच्चे दो या तीन ही अच्छे, से हम दो हमारे दो, तक तो ठीक था, फिर सिंगल चाइल्ड का जमाना आ गया। भाई बहन को तरस रहा है, और बहन भाई को। माता पिता के जाने के बाद एक ही रिश्ता भाई बहन का तो होता है, जो रिश्ता कहला सकता है।

सुख और दुख का हिंडोला है यह जीवन। हवा के साथ पुरानी यादें भी आएंगी, रिश्ते याद आएंगे।

अगर किसी बहन के भाई नहीं है, तो वह सबके पालनहार कृष्ण को तो राखी बांध ही सकती है, लेकिन भाई को भी तो किसी बहन के कांधे की आस होती है। आज तो बस एक ही शब्द कानों में गूंज रहा है;

भैया मेरे…!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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