डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय स्त्री विमर्श मोबाइल और ज़िन्दगी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 81 ☆
☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆
ज़िन्दगी एक मोबाइल की भांति है, जिसमें अनचाही तस्वीरें, फाइलों व अनचाही स्मृतियों को डिलीट करने से उसकी गति-रफ़्तार तेज़ हो जाती है। भले ही मोबाइल ने हमें आत्मकेंद्रित बना दिया है; हम सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह गये हैं; खुद में सिमट कर रह गये हैं…संबंधों व सामाजिक सरोकारों से दूर…बहुत दूर, परंतु मोबाइल पर बात करते हुए हम विचित्र-सा सामीप्य अनुभव करते हैं।
आइए! हम मोबाइल व ज़िन्दगी की साम्यता पर चिंतन-मनन करने का प्रयास करें। सो! यदि ज़िन्दगी व ज़हन से भी मोबाइल की भांति, अनचाहे अनुभव व स्मृतियों को फ़लक से हटा दिया जाये, तो आप खुशी से ज़िन्दगी जी सकते हैं। वैसे ज़िन्दगी बहुत छोटी है तथा मानव जीवन क्षणभंगुर … जैसा हमारे वेद-शास्त्रों में उद्धृत है। कबीरदास जी ने भी—‘पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात/ देखत ही छिप जायेगा,ज्यों तारा प्रभात’ तथा ‘जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी/ फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत् कह्यो ज्ञानी’…यह दोनों पद मानव जीवन की क्षणभंगुरता व नश्वरता का संदेश देते हैं। मानव जीवन बुलबुले व आकाश के चमकते तारे के समान है। जिस प्रकार पानी के बुलबुले का अस्तित्व पल-भर नष्ट हो जाता है और वह पुनः जल में विलीन हो जाता है; उसी प्रकार भोर होते तारे भी सूर्योदय होने पर अस्त हो जाते हैं। जल से भरा कुंभ टूटने पर उसका जल, बाहर के जल में समा जाता है, जिसमें वह कुंभ रखा होता है। सो! दोनों के जल में भेद करना संभव नहीं होता। यही है मानव जीवन की कहानी अर्थात् जिस शरीर पर मानव गर्व करता है; आत्मा के साथ छोड़ जाने पर वह उसी पल चेतनहीन हो जाता है, स्पंदनहीन हो जाता है, क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या होता है।
अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। परंतु बावरा मन इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि प्रभु मानव को पल-भर में अर्श से फर्श पर गिरा सकते हैं, क्योंकि जब जीवन में अहं का पदार्पण होता है, तब हमें लगता है कि हमने कुछ विशिष्ट अथवा कुछ अलग किया है। यही ‘कुछ विशेष’ हमें ले डूबता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब हम दूसरों की कही बातों व जुमलों पर विश्वास करने लगते हैं तथा उसकी गहराई तक नहीं जाना चाहते। वास्तव में ऐसे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमसे ईर्ष्या करते हैं। वे हमें उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख सहन नहीं कर पाते और तुरंत नीचे गिरा देते हैं। सो! उनसे दूर रहना ही बेहतर है, उपयोगी है, क़ारगर है।
परंतु हमें सम्मान तब मिलता है, जब दुनिया वालों को यह विश्वास हो जाता है कि आपने दूसरों से कुछ अलग व विशेष किया है, क्योंकि मानव के कर्म ही उसका आईना होते हैं। शायद! इसलिए ही इंसान के पहुंचने से पहले उसकी प्रतिष्ठा, कार्य-प्रणाली, सोच, व्यवहार व दृष्टिकोण वहां पहुंच जाते हैं। वे हमारे शुभ कर्म ही होते हैं, जो हमें सबका प्रिय बनाते हैं तथा विशिष्ट मान-सम्मान दिलाते हैं। सम्मान पाने की आवश्यक शर्त है— दूसरों की भावनाओं को अहमियत देना; उनके प्रति स्नेह, सौहार्द व विश्वास रखना, क्योंकि इस संसार में– जो आप दूसरों को देते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है…वह आस्था, श्रद्धा हो या आलोचना; प्रशंसा हो या निंदा; अच्छाई हो या बुराई। सो! महात्मा बुद्ध का यह संदेश मुझे सार्थक प्रतीत होता है कि ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी अपेक्षा आप उनसे रखते हैं।’ मधुर वाणी व मधुर व्यवहार हमारे जीवन के आधार हैं। मधुर वचन बोल कर आप शत्रु को भी अपना प्रिय मित्र बना सकते हैं और वे आपके क़ायल हो सकते हैं…आप उनके हृदय पर शासन कर सकते हैं। कटु वचन बोलने से आपका मान-सम्मान उसी क्षण मिट्टी में मिल जाता है; जो कभी लौटकर नहीं आता…जैसे पानी से भरे गिलास में आप और पानी तो नहीं डाल सकते, परंतु यदि आप आपका व्यवहार मधुर है, तो आप शक्कर या नमक की भांति सबके हृदय में अपना स्थान बना कर अपना अस्तित्व कायम कर सकते हैं। सामान्यतः नमक हृदय में कटुता व ईर्ष्या का भाव उत्पन्न करता है, परंतु शक्कर सौहार्द व माधुर्य … जो जीवन में अपेक्षित है और वह उसकी दशा व दिशा बदल देती है।
महाभारत के युद्ध का कारण द्रौपदी द्वारा उच्चरित शब्द ‘अंधे का पुत्र अंधा’ ही थे, जिसके कारण वर्षों तक उनके मन में कटुता का भाव व्याप्त रहा और वे प्रतिशोध रूपी अग्नि में प्रज्ज्वलित होते रहे। उसके अंत से तो हम हम सब भली-भांति परिचित हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में महायुद्ध हुआ और श्रीकृष्ण को गीता का उपदेश देना पड़ा; जो आज भी प्रासंगिक व सम-सामयिक है। इतना ही नहीं, विदेशी लोग तो गीता को मैनेजमेंट गुरु के रूप में स्वीकारने लगे हैं और विश्व में ‘गीता जयंती’ व ‘योग दिवस’ बहुत धूमधाम से मनाया जाता है… परंतु यह सब हम लोगों के दिलों में पूर्ण रूप से नहीं उतर पाया। वैसे भी ‘जो वस्तु विदेश के रास्ते से भारत में आती है, उसे हम पूर्ण उत्साह व जोशो-ख़रोश से अपनाते व मान सम्मान देते हैं तथा जीवन में धारण कर लेते हैं, क्योंकि हम भारतीय विदेशी होने में फख़्र महसूस करते हैं।’ इससे स्पष्ट होता है कि हमारे मन में अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा व आस्था का अभाव है और पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करना; हमारी आदत में शुमार है। इसलिए हम ‘जीन्स-कल्चर व हैलो-हॉय’ को इतना महत्व देते हैं। ‘लिव-इन, मी टू व परस्त्री-गमन’ हमारे लिए स्टेटस-सिंबल बन गए हैं, जो हमारी पारिवारिक व्यवस्था में बखूबी सेंध लगा रहे हैं। इनके भयावह परिणाम बच्चों में बढ़ रही हिंसा, बुज़ुर्गों के प्रति पनप रहा उपेक्षा भाव व वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में हमारे समक्ष हैं। इसी कारण शिशु से लेकर वृद्ध तक अतिव्यस्त व तनाव-ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। हमारे संबंधों को दीमक चाट रही है और सामाजिक सरोकार जाने कहां मुंह छिपाए बैठे हैं। संबंधों की अहमियत न रहने से स्नेह-सौहार्द के अस्तित्व व स्थायित्व की कल्पना करना बेमानी है। सो! जहां मनोमालिन्य, स्व-पर व ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का एकछत्र साम्राज्य होगा; वहां प्रेम व सुख-शांति कैसे क़ायम रह सकती है? सो! मोबाइल जहां संबंधों में प्रगाढ़ता लाता है; दिलों की दूरियों को नज़दीकियों में बदलता है; हमें दु:खों के अथाह सागर में डूबने से बचाता है… वहीं ज़िंदगी में अजनबीपन के अहसास को भी जाग्रत करता है। इतना ही नहीं, वह उनके दिलों की धड़कन बन सदैव अंग-संग रहता है और उसके बिना जीवन की कल्पना करना बेमानी प्रतीत होता है।
आइए! इस संदर्भ में सुख व सुविधा के अंतर पर दृष्टिपात कर लें। मोबाइल से हमें सुविधा के साथ सुख तो मिल सकता है, परंतु शांति नहीं, क्योंकि सुख भौतिक व शारीरिक होता है और शांति का संबंध मन व आत्मा से होता है। जब मानव को मोबाइल की लत लग जाती है और वह सुविधा के स्थान पर उसकी ज़रूरत बन जाती है, तो उसके अभाव में उसका हृदय पल-भर के लिये भी शांत नहीं रह पाता; जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विदेशों में बसे लोग हैं। उनके पास भौतिक सुख-सुविधाएं तो हैं, परंतु मानसिक शांति व सुक़ून की तलाश में वे भारत आते हैं, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति अत्यंत समृद्ध है तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ अर्थात् मानव-मात्र के कल्याण की भावना से आप्लावित है। ‘अतिथि देवो भव’ का परिचय–’अरुण यह मधुमय देश हमारा/ जहां पहुंच अनजान क्षितिज को/ मिलता एक सहारा’ की भावना, हमें विश्व में सिरमौर स्वीकारने को बाध्य करती है; जहां बाहर से आने वाले अतिथि को हम सिर-आंखों पर बिठाते हैं और उनके प्रति अजनबीपन का भाव, हृदय में लेशमात्र भी दस्तक तक नहीं दे पाता। जिस प्रकार सागर में विभिन्न नदी-नाले समा जाते हैं; वैसे ही बाहर के देशों से आने वाले लोग हमारे यहां इस क़दर रच-बस जाते हैं कि यहां रंग, धर्म, जाति-पाति आदि के भेदभाव का कोई स्थान नहीं रहता।
‘प्रभु के सब बंदे, सब में प्रभु समाया’ अर्थात् हम सब उसी परमात्मा की संतान हैं और समस्त जीव-जगत् व सृष्टि के कण-कण में मानव उसी ब्रह्म की सत्ता का आभास पाता है। आदि शंकराचार्य का यह वाक्य ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ का इस संदर्भ में विश्लेषण करना आवश्यक है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और उसके अतिरिक्त जो भी हमें दिखाई पड़ता है, मिथ्या है; परंंतु माया के कारण सत्य भासता है। सो! प्राणी-मात्र में उस प्रभु के दर्शन पाकर हम स्वयं को धन्य व भाग्यशाली समझते हैं; उनकी प्रभु के समान उपासना करते हैं। इसलिए हम हर दिन को उदार मन से उत्सव की तरह मनाते हैं और उस मन:स्थिति में दुष्प्रवृत्तियां हमें लेशमात्र भी छू नहीं पातीं।
अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता के भाव से ग्रस्त व्यक्ति हमें यह सोचने पर विवश कर देता है कि वह हमारे पथ की बाधा बनकर उपस्थित हुआ है और हमें उसकी रौ में नहीं बह जाना है। तभी हमारे मन में यह भाव दस्तक देता है कि हमें आत्मावलोकन कर आत्म-विश्लेषण करना होगा ताकि हम स्वयं में सुधार ला सकें। वास्तव में यह अपने गुण-दोषों के प्रति स्वीकार्यता का भाव है। जब हमें यह अनुभूति हो जाती है कि हम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उस स्थिति में हम खुद में सुधार ला सकते हैं और दूसरों को दुष्भावनाओं व दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति दिलाने में अहम् भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। वास्तव में जब तक हम अपने दोषों व अवगुणों से वाक़िफ़ नहीं होते; आत्म-परिष्कार संभव नहीं है। वास्तव में वे लोग उत्तम श्रेणी में आते हैं; जो दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। जो लोग अपने अनुभव से सीखते हैं, वे द्वितीय श्रेणी में आते हैं और जो लोग ग़लती करने पर भी उसे नहीं स्वीकारते; वे ठीक राह को नहीं अपना पाते। वास्तव में वे निकृष्टतम श्रेणी के बाशिंदे कहलाते हैं तथा उनमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होती। हां! कोई दैवीय शक्ति अवश्य उनका सही मार्गदर्शन कर सकती है। ऐसे लोग अपने अनुभव से अर्थात् ठोकरें खाने के पश्चात् भी अपने पक्ष को सही ठहराते हैं। मोबाइल के वाट्सएप, फेसबुक आदि के ‘लाइक’ के चक्कर में लोग इतने रच-बस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी वे उससे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते और वे शारीरिक व मानसिक रोगी बन जाते हैं। इस मन:स्थिति में वे स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझते।
परमात्मा सबका हितैषी है। वह जानता है कि हमारा हित किस में है…इसलिए वह हमें हमारा मनचाहा नहीं देता, बल्कि वह देता है…जो हमारे लिए हितकर होता है। परंतु विनाश काल में अक्सर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; विपरीत दिशा में चलती है और उसे सावन के अंधे की भांति सब हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। उस स्थिति में मानव अतीत की स्मृतियों में खोया रहता है और स्वयं को उस उधेड़बुन से मुक्त नहीं कर पाता, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया है, कभी लौटकर नहीं आता। सो! उसे स्मरण कर समय व शक्ति को नष्ट करना उचित नहीं है। हमें अतीत की स्मृतियों को अपने जीवन से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए, क्योंकि वे हमारे विकास में बाधक व अवरोधक होती हैं। हां! स्वर्णिम स्मृतियां हमारे लिए प्रेरणास्पद होती हैं, जिनका स्मरण कर हम वर्तमान की ऊहापोह से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं और उस स्थिति में हमारे हृदय में आत्मविश्वास जागृत होता है। प्रश्न उठता है कि यदि हममें पहले से ही वह सब करने की सामर्थ्य थी, तो हम पहले ही वैसे क्यों नहीं बन पाये? सो! यदि हममें आज भी साहस है, उत्साह है, ओज है, ऊर्जा है, सकारात्मकता है…फिर कमी किस बात की है? शायद जज़्बे की… ‘मैं कर सकता हूं; मेरे लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं है। ‘वह विषम परिस्थितियों में सहज रहकर उनका साहसपूर्वक सामना कर, अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकता है। मुझे याद आ रही हैं– स्वरचित अस्मिता की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां…’मुझमें साहस ‘औ’ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ हर मानव में साहस है, उत्साह है ….हां! आवश्यकता है– आत्मविश्वास और जज़्बे की…जिससे वह कठिन से कठिन कार्य कर सकता है और मनचाहा प्राप्त कर सकता है। ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद/ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो/ तबीयत से उछालो! यारो।’ आप कर सकते हैं…निष्ठा से, साहस से, आत्मविश्वास से…परंतु उस कार्य को अंजाम देने के लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है।
हां! असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है और बुद्धिमान तो अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिए वह सब कुछ कर गुज़रते हैं; जो कल्पनातीत होता है और पर्वत भी उनकी राह में बाधा नहीं बन सकते। वे विषम परिस्थितियों में भी पूर्ण तल्लीनता से अपने पथ पर अग्रसर रहते हैं। वैसे भी जीवन में ग़लती को पुन: न दोहराना श्रेष्ठ होता है। सो! अपने पूर्वानुभवों से शिक्षा ग्रहण कर जीने की राह को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जीवन में केवल दो रास्ते ही नहीं होते …तीसरा विकल्प भी अवश्य होता है। उद्यमी व परिश्रमी व्यक्ति सदैव तीसरे विकल्प की ओर कदम बढ़ाते हैं और मंज़िल को प्राप्त कर लेते हैं। बनी-बनाई लीक पर चलने वाले ज़िंदगी में कुछ भी नया नहीं कर सकते और उनके हिस्से में सदैव निराशा ही आती है; जो भविष्य में कुंठा का रूप धारण कर लेती है। मुझे तो रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘एकला चलो रे’ पंक्तियों का स्मरण हो रही हैं… ‘इसलिए भीड़ का हिस्सा बनने से परहेज़ रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि शेरों की जमात नहीं होती।’ इसलिए अपनी राह का निर्माण खुद करें। मालिक सबका हित चाहता है और हमें सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है– ‘उसकी नवाज़िशों में कोई कमी न थी/ झोली हमारी में ही छेद था।’ यह पंक्तियां परमात्मा के प्रति हमारे दृढ-संकल्प व अटूट विश्वास को दर्शाती हैं व स्थिरता प्रदान करती हैं। वह करुणामय प्रभु सब पर आशीषों की वर्षा करता है तथा हमें आग़ामी आपदाओं से बचाता है। हां! कमी हममें ही होती है, क्योंकि हम पर माया का आवरण इस क़दर चढ़ा होता है कि हम सृष्टि-नियंता की रहमतों का अंदाज़ भी नहीं लगा पाते…उस पर विश्वास करना तो कल्पनातीत है। हम अपने अहं में इस क़दर डूबे रहते हैं कि हम स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ समझने का दंभ भरने लगते हैं। इसलिए हमारी झोली हमेशा खाली रह जाती है। वास्तव में जब हम उस सृष्टि-नियंता के प्रति समर्पित हो जाते हैं; उसके प्रति आस्था, श्रद्धा व विश्वास रखने लगते हैं; तो हमारा अहं स्वत: विगलित होने लगता है और हम पर उसकी रहमतें बरसने लगती हैं। इस स्थिति में हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि हमारा कौन-सा अच्छा कर्म, उस मालिक को भा गया होगा कि उसने हमें फ़र्श से उठाकर अर्श पर पहुंचा दिया।
यदि हम उपरोक्त स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो मानव को अपने हृदय में निहित काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि भावों को निकाल बाहर फेंकना होगा और उसके स्थान पर स्नेह, प्यार, त्याग, सहानुभूति आदि से अपनी झोली के छेदों को भरना होगा। इस स्थिति में आपको दूसरों से संगति व सद्भाव की अपेक्षा नहीं रहेगी। आप एकांत में अत्यंत प्रसन्न रहेंगे, क्योंकि मौन को सबसे बड़ा तप व त्याग स्वीकारा गया है; जो नव-निधियों का प्रदाता है। ‘बुरी संगति से अकेला भला’ में भी यह सर्वश्रेष्ठ संदेश निहित है। इसलिए जो व्यक्ति एकांत रूपी सागर में अवग़ाहन करता है; वह अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त कर सकता है; जिसमें उसे अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। सो! तादात्म्य की स्थिति तक पहुंचने के लिए मानव को अनगिनत जन्म लेने पड़ते हैं। हां! यदि आप अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो भी यह सच्चा सौदा है। आप सांसारिक बुराइयों अर्थात् तेरी-मेरी, राग-द्वेष, निंदा-प्रशंसा आदि दुष्प्रवृत्तियों में लिप्त नहीं होंगे … आपका मन सदैव पावन, मुक्त व शून्यावस्था में रहेगा और आप प्रभु की करुणा-कृपा पाने के सुयोग्य पात्र बने रहेंगे।
आइए! अतीत की स्मृतियों को विस्मृत कर वर्तमान में जीने की आदत बनाएं, ताकि सुखद व सुंदर भविष्य की कल्पना कर; हम खुशी से अपना समय व्यतीत कर सकें। ज़िंदगी बहुत छोटी है। सो! हर पल को जी लें। मुझे याद आ रही हैं… वक्त फिल्म की दो पंक्तियां ‘आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही एक पल है।’ यह पंक्तियां चारवॉक दर्शन ‘खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ’ की पक्षधर हैं। इसलिए मानव को अतीत और भविष्य के भंवर से स्वयं को मुक्त कर, वर्तमान अर्थात् आज में जीने की दरक़ार है, क्योंकि यही वह सार्थक पल है। यह सर्वविदित है कि हम ज़िंदगी भर की संपूर्ण दौलत देकर एक पल भी नहीं खरीद सकते। इसलिए हमें समय की महत्ता को जानने, समझने व अनुभव करने की आवश्यकता है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय लौट कर नहीं आता। सो! सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा व रहमत को अनुभव कर उसके सान्निध्य को महसूस करना बेहतर है। यही वह माध्यम है…उस प्रभु को पाने का; उसके साथ एकाकार होने का; स्व-पर का भेद मिटा अलौकिक आनंद में अवग़ाहन करने का। सो! एक सांस को भी व्यर्थ न जाने दें… सदैव उसका नाम-स्मरण करें…उसे अपने क़रीब जानें और अपनी जीवन-डोर उसके हाथों में सौंप कर निर्मुक्त अवस्था में जीवन-यापन करें… यही निर्वाण की अवस्था है, जहां मानव लख-चौरासी अथवा आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है और यही कैवल्य की स्थिति और हृदय की मुक्तावस्था है। सो! हर पल ख़ुदा की रहमत को अनुभव करें और ज़िंदगी को सुहाना सफ़र समझें, क्योंकि ‘यहां कल क्या हो…किसने जाना’ आनंद फिल्म की इन पंक्तियों में निहित जीवन संदेश… ‘हंसते, गाते जहान से गुज़र, दुनिया की तू परवाह न कर’…इसलिए ‘लोग क्या कहेंगे’ इससे बचें, क्योंकि ‘लोगों का काम है कहना; टीका-टिप्पणी व आलोचना करना।’ परंतु यदि आप उनकी ओर ध्यान नहीं देते, तभी आप अपने ढंग से ज़िंदगी जी सकते हैं, क्योंकि प्रेम की राह अत्यंत संकरी है, जिसमें दो नहीं समा सकते। जब आप पूर्ण रूप से सृष्टि-नियंता के चरणों में समर्पित हो जाते हैं, तो परमात्मा आगे बढ़ कर आपको थाम लेते हैं … अपना लेते हैं और आप अपनी मंज़िल तक पहुंच पाते हैं। इसलिए कछुए की भांति स्वयं को आत्म-केंद्रित कर, अपनी पांचों कर्मेंद्रियों को अंकुश में रखें और हंसते-हंसते इस संसार से सदैव के लिए विदा हो जाएं। इस स्थिति में आप लख चौरासी से मुक्त हो जायेंगे, जो मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,
#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈