हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “विभिन्नता में समरसता -2”)

☆ आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता -2 ☆

हमारी सामासिक संस्कृति का एक और स्तम्भ है मुस्लिम व हिन्दू धर्म के बीच मेलमिलाप से विकसित हुई गंगा जमुनी तहजीब। इस्लाम भारत में दो रास्तों से आया एक तो सुदूर दक्षिण में अरब व्यापारियों के शांतिपूर्ण माध्यम से सातवीं सदी में  और दूसरा ग्यारहवीं शताब्दी में, अफगान , तुर्क आदि मुस्लिम आक्रान्ताओं की, तलवार से । हिन्दू और मुस्लिम घुल मिलकर एक तो नहीं हो सके पर दोनों सम्प्रदायों की अनेक बातें एक दूसरे में ऐसे समाहित हुई जैसे दूध में चीनी। हिन्दुओं में व्याप्त अनेक अन्धविश्वासों व रुढियों को मुसलामानों ने अपनाया तो मुसलामानों के खान पान व पहनावे हिन्दुओं ने पसंद किये। इन दो संस्कृतियों के मेलमिलाप ने जहाँ एक ओर गंडा ताबीज, पीर, ख्वाजा, पर्दा प्रथा , सगुन-अपसगुन आदि  को बढ़ावा दिया तो दूसरी ओर इस्लाम ने भारतीय राजा महराजाओं की रेशम, मलमल और कीमती जेवरों से सजी पोशाकों को अंगीकृत कर लिया। चीरा और पाग हिन्दुस्तानियों के पहनावे का अंग थे तो बदले में इस्लाम ने कसे चुस्त पायजामे हमें दिए।

सौभाग्यवती मुस्लिम महिलाओं ने अपनी हिन्दू सखियों की भाँति मांग में सिंदूर भरना, हाथ में चूड़ियाँ व नाक में नथ पहनना शुरू कर दिया। दोनों संस्कृतियों के मिलन से इस्लाम धर्म के मानने वालों को फलों से अचार बनाने की विधि पता चली तो दूसरी ओर उनके द्वारा खाया जाने वाला लजीज पुलाव और कोरमा वैसा नहीं रह गया जो इरान और खुरासान में खाया जाता था। आज भी हमारे देश में लजीज जायकेदार  मुगलई व अवधी खान पान इसी मुस्लिम संस्कृति की देन है। कला संगीत और साहित्य के क्षेत्र में इन दो विपरीत ध्रुवों वाली संस्कृतियों के मिलन ने अच्छा  खासा प्रभाव डाला। यदपि संगीत इस्लाम में वर्जित था तथापि मुस्लिम सूफी संतों ने हिन्दू भक्ति के तरीके को अपनाया और संगीत साधना की और उनकी यह साधना कव्वाली के रूप में हमारे देश में दोनों सम्प्रदायों के अनुयायियों आज भी आकर्षित करती है।

भारतीय व ईरानी संगीत तथा वाद्य यंत्रों के मिलन से अनेक नवीन रागों व संगीत के यंत्रों की उत्पति हुई। ऐसा माना जाता है कि अमीर खुसरो ने भारतीय वीणा को देखकर ही सितार की खोज करी। संगीत के माध्यम से हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के बहुत करीब आये। हमारे देश के बहुसंख्य वर्ग द्वारा बोली जाने वाली खड़ी बोली  हिन्दी एवं अल्पसंख्यक मुस्लिमों के मध्य लोकप्रिय उर्दू इसी गंगा जमुनी तहजीब में फली फूली व विकसित हुईं। हिन्दू व मुस्लिम सभ्यता के मिलन ने शिल्प कला, चित्र कला आदि को नया आयाम दिया. इस मिलन ने चित्रकला के क्षेत्र में अनेक नई  शैलियों यथा मुग़ल शैली, राजस्थानी शैली, पहाड़ी शैली को  जन्म दिया तो बेमिसाल महलो, किलों, मस्जिदों,मकबरों का निर्माण भी इंडो इस्लामिक शैली में हुआ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ मेरे प्यारे देश आर्यावर्त ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।

ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान के तहत समय-समय पर  “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत चुनिंदा रचनाएँ पाठकों से साझा करते रहते हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। आज प्रस्तुत है श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का भावप्रवण आलेख  “मेरे प्यारे देश आर्यावर्त”। )

☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ मेरे प्यारे देश आर्यावर्त ☆

मेरे प्यारे देश आर्यावर्त

तुम्हारी सोंधी मिट्टी मेरे सर माथे पर

यह खत तुम्हें बाघा बॉर्डर से लिख रहा हूं ।आज शाम मैंने यहां पर कड़क वर्दी में भारत और पाकिस्तान के सैनिकों का चुस्त अभ्यास देखा ।

भारत की आजादी के जश्न को जब मैं बाघा बॉर्डर पर मना रहा हूं तो सोचता हूं तुम्हारे विभाजन से मिली स्वतंत्रता से महात्मा गांधी और देश की आजादी के लिए फांसी के फंदे पर झूल गए अमर शहीदों का सपना  कच्ची नींद में ही टूट गया लगता है।

कल मैंने एक फिल्म देखी थी ‘सरदार’। फिल्म में भी सीने पर विभाजन का पत्थर रखकर हजारों परिवारों का दोनों ओर से पलायन और बाघा बॉर्डर पार करती लाशों से लदी गाड़ीयां , देख पाना मेरे लिए बेहद पीड़ा जनक था । उफ  कितना वीभत्स  रहा होगा वह सब सच में।

मेरे प्यारे देश मेरी कामना है कभी पुनः आर्यावर्त की सीमा उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम फिर से एक हो, अखंड भारत बना तो  यही बाघा बॉर्डर उस विलय के महा दृश्य का गवाह बन सकेगी।

आज का  आतंक को प्रश्रय देता हमारा पड़ोसी संकुचित सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर शहीदे आजम भगत सिंह जैसे सपूतों के सामाजिक समरसता के रास्ते पर भारत का अनुगामी बन सके । यदि पाकिस्तान मजहबी चश्में से ही देखना चाहे तो मैं उसे अशफाक उल्ला खान, बहादुर शाह जफर और गदर पार्टी के संस्थापकों में से एक भोपाल के बरकतुल्लाह की याद दिलाना चाहता हूं,  इन महान शहीदों ने बंटवारे की कल्पना नहीं की थी।

भगत सिंह ने कहा था पूरी आजादी का मतलब अंग्रेजों को हटाकर हिंदुस्तानियों को कुर्सी पर बैठा देना भर नहीं है ।

उन्होंने आजाद भारत की परिकल्पना की थी जहां सत्ता सर्वहारा के पास होगी,  यह संघर्ष अभी भी जारी है विशेष रूप से हमारे पड़ोसी देश में तो इसकी बड़ी जरूरत है

भारत में भी हमारी पीढ़ी को जवाबदारी मिली है कि हम सांप्रदायिकता के विष से राष्ट्र को मुक्त करें जातिवाद से ऊपर उठकर भाषाई तथा क्षेत्रीय विभिन्नताओं के बीच उस देश की रचना करें जहां भौगोलिक सीमाओं की विशालता के साथ हम सब की संस्कृति एक है संगीत की स्वर लहरियां हम सबको एक जैसा स्पंदित करती है हवा पानी जंगल वैचारिक और वैज्ञानिक संपदा हम सब को एक सूत्र में जोड़ते हैं । जब किसी अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धा में हमारे किसी खिलाड़ी को पदक मिलता है तो जिस गर्व से हमारा सीना चौड़ा हो जाता है तिरंगे के प्रति सम्मान से जनगणमन के गान से हम सबको जो गर्व होता है , जब अंतरिक्ष को चीरता इसरो का कोई रॉकेट हमारी आंखों से नील गगन में ओझल होने लगता है तब हम में जो स्वाभिमान के भाव जाते हैं वह मेरी  पूंजी है ।

भारत और पाकिस्तान की राजनीति में कितना भी बैरभाव हो पर निर्विवाद रुप से दोनों देशों की जनता भगत सिंह जैसे शहीदों के प्रति समान भाव से नतमस्तक है ।

दोनों देशों के सर्वहारा की समस्याएं समान ही है । मैं सोचता हूं कि यदि बर्लिन की दीवार गिर सकती है उत्तर और दक्षिण कोरिया पास पास आ सकते हैं तो अगली पीढ़ियों में शायद कभी वह दिन भी आ सकता है जब एक बार फिर से मेरे उसी आर्यावर्त का नया नक्शा सजीव हो सकेगा। मेरा जीवन तो इतना लंबा नहीं हो सकता कि मैं   वह विहंगम दृश्य देख पाऊंगा पर ए मेरे देश, मेरी कामना है कि यदि मेरा पुनर्जन्म हो तो फिर फिर तेरी धरती ही मेरी मातृभूमि हो । मैं रहूं ना रहूं तुम अमर रहो । सदा रहोगे क्योंकि मेरे जैसा हर भारतवासी बेटा ही नहीं बेटियां भी हमारी आन बान शान के लिए अपनी जान पर खेलने को सदा तत्पर हैं।  विश्व में तुम्हारी पताका लहराने में ही हमारी सफलता है । मुझे और हर भारतवासी को वह शक्ति मिले की हम स्वर्णिम अखंड भारत आर्यावर्त का, सर्वहारा को शक्तिशाली पद प्रतिष्ठित करने का विकास और एकता का स्वप्न यथार्थ में बदलने हेतु निरंतर सकारात्मक रचनात्मक कार्यों में सदैव सक्रिय बने रहे।

तुम्हारी माटी का मुरीद

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # 2 – कथासार ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ई-अभिव्यक्ति  का सदैव प्रयास रहा है कि वह अपने प्रबुद्ध पाठकों को  हिंदी, मराठी एवं अंग्रेजी साहित्य की उत्कृष्ट रचनाएँ साझा करते रहे। इस सन्दर्भ में हमने कुछ प्रयोग भी किये जो काफी सफल रहे।  ई-अभिव्यक्ति  में सुप्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीमद भगवत गीता के एक श्लोक का  प्रतिदिन प्रकाशन किया गया एवं कल के अंक में उसका समापन हुआ। इस प्रयास का हमें पाठकों का अभूतपूर्व स्नेह एवं प्रतिसाद मिला। इस कड़ी में आज से प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा महाकवि कालिदास जी के महाकाव्य मेघदूतम का श्लोकशः  हिन्दी पद्यानुवाद के सन्दर्भ में प्रकाशित मनोगत को पढ़ने के उपरान्त कुछ प्रबुद्ध पाठकों ने ग्रन्थ के सन्दर्भ में जानकारी चाही थी । इस तारतम्य में प्रस्तुत है मेघदूतम का कथासार एवं तत्संबंधित अभिप्राय। )

(महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा  प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव)

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # 2 – कथासार ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

विरह प्रेम का अमर वैश्विक काव्य है कालिदास का मेघदूतम 

यदि कालिदास के समय में मोबाइल होता तो संभवतः मेघदूत की रचना ही न होती, क्योकि प्रत्यक्षतः मेघदूत एक नवविवाहित प्रेमी यक्ष की अपनी प्रिया से विरह की व्याकुल मनोदशा में उससे मिलने की उत्कंठा का वर्णन है. एक वर्ष के विरह शाप के शेष  चार माह वर्षा ‌ॠतु के हैं. विरही यक्ष मध्य भारत के रामगिरी पर्वत से अपनी प्रेमिका को, जो उत्तर भारत में हिमालय पर स्थित अलकापुरी में है, आकाश में उमड़ आये बादलो के माध्यम से प्रेम संदेश भेजता है. अपरोक्ष रुप से रचना का भाषा सौंदर्य, मेघो को अपनी प्रेमिका का पता बताने के माध्यम से तत्कालीन भारत का भौगिलिक व जनैतिक वर्णन, निर्जीव मेघो को सप्राण संदेश वाहक बनाने की आध्यात्मिकता, आदि विशेषताओ ने मेघदूत को अमर विश्वकाव्य बना दिया है. मेघदूत खण्ड काव्य है. जिसके २ खण्ड है. पूर्वमेघ में ६७ श्लोक हैं जिनमें कवि ने मेघ को यात्रा मार्ग बतलाकर प्रकृति का मानवीकरण करते हुये अद्भुत कल्पना शक्ति का परिचय दिया है.

उत्तरमेघ में ५४ श्लोक हैं, जिनमें विरह प्रेम की अवस्था का भावुक चित्रण है.

लौकिक दृष्टि से हर पति पत्नी में कुछ समय के लिये विरह बहुत सहज घटना है.

“तेरी दो टकियो की नौकरी मेरा लाखो का सावन जाये” आज भी गाया जाता है, किन्तु कालिदास के समय में यह विरह अभिव्यक्ति यक्ष के माध्यम से व्यक्त की जा रही थी.. यक्षिणि शायद इतनी मुखर नही थी,  वह तो अवगुंठित अल्कापुरी में अपने प्रिय के इंतजार में ही है.  इसी सामान्य प्रेमी जोड़े के विरह की घटना को विशिष्ट बनाने की क्षमता मेघदूत की विशिष्टता है.

इस अद्भुत कल्पना को काव्य में सजाया था महाकवि कालिदास ने, उसे उसी मधुरता से काव्य भाव अनुवाद किया है प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी ने।

श्रीमद्भगवत्गीता विश्व ग्रंथ के रूप में मान्यता अर्जित कर चुका है, गीता में भगवान कृष्ण के अर्जुन को रणभूमि में दिये गये उपदेश हैं, जिनसे धर्म, जाति से परे प्रत्येक व्यक्ति को जीवन की चुनौतियो से सामना करने की प्रेरणा मिलती है. परमात्मा को समझने का अवसर मिलता है. जीवन “मैनेजमेंट” की शिक्षा मिलती है.

ई अभिव्यक्ति ने प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव के द्वारा भगवत गीता के श्लोकः हिंदी काव्य अनुवाद हिंदी व अंग्रेजी अर्थ का धारावाहिक प्रकाशन किया। इसे पाठकों का अभूतपूर्व प्रतिसाद मिला, जिससे सम्पादक मण्डल अभिभूत है। हमारा उद्देश्य ही आप तक सांस्कृतिक मूल्यों का उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाना है ।

गीता की इस प्रस्तुति से प्रतिदिन अनेको पाठकों ने गीता पर मनन चिंतन किया ।

हम इस आशा से यह कड़ी मेघदूतम के रूप में बढा रहे हैं ।

महाकवि कालिदास की विश्व प्रसिद्ध कृतियों में मेघदूतम्, रघुवंशम्, कुमारसंभवम्, अभिग्यानशाकुन्तलम् आदि ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं । इस विश्व धरोहर पर संस्कृत न जानने वाले पाठको की भी गहन रुचि है !

ऐसे पाठक अनुवाद पढ़कर ही इन महान ग्रंथों को समझने का प्रयत्न करते हैं ! किन्तु अनुवाद की सीमायें होती हैं ! अनुवाद में काव्य का शिल्पगत् सौन्दर्य नष्ट हो जाता है ! पर यदि  काव्यानुवाद श्लोकशः भावानुवाद हो तो वह आनंद यथावत बना रहता है, और यही कर दिखाया है प्रो सी बी श्रीवास्तव ने.

नयी पीढ़ी संस्कृत नही पढ़ रही है, और ये सारे विश्व ग्रंथ मूल संस्कृत काव्य में हैं, अतः ऐसे महान दिशा दर्शक ग्रंथो के रसामृत से आज की पीढ़ी वंचित है.

प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ने श्रीमद्भगवत गीता, रघुवंशम्, मेघदूतम् जैसी महान रचनाओ का श्लोकशः हिन्दी भाव पद्यानुवाद का महान कार्य करके  काव्य की उसी मूल भावना तथा सौंदर्य के आनंद के साथ हमारे सांस्कृतिक ज्ञान,व प्राचीन साहित्य को हिन्दी जानने वाले पाठको के लिये सुलभ करा दिया है. यह कार्य 94 वर्षीय प्रो. श्रीवास्तव के सुदीर्घ संस्कृत, हिन्दी तथा काव्यगत अनुभव व ज्ञान से ही संभव हो पाया है. प्रो श्रीवास्तव इसे ईश्वरीय प्रेरणा, व कृपा बताते हैं.

मण्डला के प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी ने  महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम् के समस्त १२१ मूल संस्कृत श्लोकों का एवं रघुवंश के सभी १९ सर्गों के लगभग १८०० मूल संस्कृत श्लोकों का  तथा श्रीमद्भगवत गीता के समस्त १८ अध्यायो के सारे श्लोको का श्लोकशः हिन्दी गेय छंद बद्ध भाव पद्यानुवाद कर हिन्दी के पाठको के लिये अद्वितीय कार्य किया है।

उल्लेखनीय है कि प्रो श्रीवास्तव की शिक्षा, साहित्य, गजलों,कविताओ की 40 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं व सराहना अर्जित कर चुकी हैं.

शासन हर वर्ष कालिदास समारोह, तथा संस्कृत के नाम पर करोंडों रूपये व्यय कर रहा है ! जन हित में इन अप्रतिम अनुदित कृतियों को आम आदमी के लिये संस्कृत में रुचि पैदा करने हेतु इन पुस्तकों को इलेक्ट्रानिक माध्यमों से प्रस्तुत किया जाना चाहिये, जिससे यह विश्व स्तरीय कार्य समुचित सराहना पा सकेगा !

प्रो श्रीवास्तव ने अपने ब्लाग http://vikasprakashan.blogspot.com  पर अनुवाद के कुछ अंश सुलभ करवाये हैं.

ई बुक्स के इस समय में भी प्रकाशित पुस्तकों  को पढ़ने का आनंद अलग ही है, उन्होने बताया कि इन ग्रंथो को पुस्तकाकार प्रकाशन कर भी सुलभ किया गया है।

प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

?आप कल से प्रतिदिन एक श्लोक का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद आत्मसात कर सकेंगे।?

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 74 ☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 74 ☆

☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़

अल्फ़ाज़ जो कह दिया/ जो कह न सके जज़्बात/ जो कहते-कहते कह न पाए अहसास। अहसास वह अनुभूति है, जिसे हम शब्दों में बयान नहीं कर सकते। जिस प्रकार देखती आंखें हैं, सुनते कान हैं और बयान जिह्वा करती है। इसलिए जो हम देखते हैं, सुनते हैं, उसे यथावत् शब्दबद्ध करना मानव के वश की बात नहीं। सो! अहसास हृदय के वे भाव हैं, जिन्हें शब्द-रूपी जामा पहनाना मानव के नियंत्रण से बाहर है। अहसासों का साकार रूप हैं अल्फ़ाज़; जिन्हें हम बयान कर देते हैं… वास्तव में सार्थक हैं। वे जज़्बात, जो हृदय में दबे रह गए, निरर्थक हैं, अस्तित्वहीन हैं, नश्वर हैं… उनका कोई मूल्य नहीं। वे किसी की पीड़ा को शांत कर सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते। इसलिए उनकी कोई अहमियत नहीं; वे निष्फल व निष्प्रयोजन हैं। मुझे स्मरण हो रहा है, रहीम जी का वह दोहा… ‘ऐसी बानी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ के द्वारा मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया गया है, जिससे  दूसरों के हृदय की पीड़ा शांत हो सके। इसलिए मानव को अपना मुख तभी खोलना चाहिए; जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों। यथासमय सार्थक वाणी का उपयोग सर्वोत्तम है। मानव के शब्दों व अल्फाज़ों में वह सामर्थ्य होनी चाहिए कि सुनने वाला उसका क़ायल हो जाए; मुरीद हो जाए। जैसाकि सर्वविदित है कि शब्द-रूपी बाणों के घाव कभी भर नहीं सकते;  वे आजीवन सालते रहते हैं। इसलिए मौन को नवनिधि के समान अमूल्य, उपयोगी व प्रभावकारी बताया गया है। चेहरा मन का आईना होता है और अल्फ़ाज़ हृदय के भावों व मन:स्थिति को अभिव्यक्त करते हैं। सो! जैसी हमारी मनोदशा होगी, वैसे ही हमारे अल्फ़ाज़ होंगे। इसीलिए कहा जाता है, यदि आप गेंद को ज़ोर से उछालोगे, तो वह उतनी अधिक ऊपर जाएगी। यदि हम नल की जलधारा में विक्षेप उत्पन्न करते हैं, तो वह उतनी ऊपर की ओर जाती है। यदि हृदय में क्रोध के भाव होंगे, तो अहंनिष्ठ प्राणी दूसरे को नीचा दिखाने का भरसक  प्रयास करेगा। इसी प्रकार सुख-दु:ख, ख़ुशी-ग़म व राग-द्वेष में हमारी प्रतिक्रिया भिन्न होगी और जैसे शब्द हमारे मुख से प्रस्फुटित होंगे; वैसा उनका प्रभाव होगा। शब्दों में बहुत सामर्थ्य होता है। वे पल-भर में दोस्त को दुश्मन व दुश्मन को दोस्त बनाने की क्षमता रखते हैं। इसलिए मानव को अपने भावों को सोच-समझ कर अभिव्यक्त करना चाहिए।

‘तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जातीं हैं। ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध की बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं।’ मानव को मुसीबत में साहस व धैर्य बनाए रखना चाहिए; अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही मानव को अभिमान को भी स्वयं से कोसों दूर रखना चाहिए। मुसीबतें तो सब पर आती हैं–कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है और जो आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखता है; सभी आपदाओं पर मुक्ति प्राप्त कर लेता है।’ स्वेट मार्टन का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है…’केवल विश्वास ही हमारा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल पर पहुंचा देता है।’ शायद इसलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत पर बल दिया है। यह वाक्य मानव में आत्मविश्वास जाग्रत करता है, क्योंकि एकांत में रह कर विभिन्न रहस्यों का प्रकटीकरण होता है और वह उस अलौकिक सत्ता को प्राप्त होता है। इसीलिए मानव को मुसीबत की घड़ी में इधर- उधर न झांकने का संदेश प्रेषित किया गया है।

सुंदर संबंध वादों व शब्दों से जन्मते नहीं, बल्कि दो अद्भुत लोगों द्वारा स्थापित होते हैं…जब एक दूसरे पर अगाध विश्वास करे और दूसरा उसे बखूबी समझे। जी, हां! संबंध वह जीवन-रेखा है, जहां स्नेह, प्रेम, पारस्परिक संबंध, अंधविश्वास और मानव में समर्पण भाव होता है। संबंध विश्वास की स्थिति में ही शाश्वत हो सकते हैं, अन्यथा वे भुने हुए पापड़ के समान पल-भर में ज़रा-सी ठोकर लगने पर कांच की भांति दरक़ सकते हैं, टूट सकते हैं। सो! अहं संबंधों में दरार ही उत्पन्न नहीं करता, उन्हें समूल नष्ट कर देता है। ‘इगो’ (EGO) शब्द तीन शब्दों का मेल है; जो बारह शब्दों के ‘रिलेशनशिप’ ( RELATIONSHIP) अर्थात् संबंधों को नष्ट कर देता है। दूसरे शब्दों में अहं चिर-परिचित संबंधों में सेंध लगा हर्षित होता है; फूला नहीं समाता और एक बार दरार पड़ने के पश्चात् उसे पाटना अत्यंत दुष्कर ही नहीं, असंभव होता है। इसलिए मानव को बोलने से पूर्व तोलने अर्थात् सोचने-विचारने की सीख दी जाती है। ‘पहले तोलो, फिर बोलो।’ जो व्यक्ति इस नियम का पालन करता है और सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता; उसके संबंध सबके साथ सौहार्दपूर्ण व शाश्वत बने रहते हैं।

मित्रता, दोस्ती व रिश्तेदारी सम्मान की नहीं;  भाव की भूखी होती है। लगाव दिल से होना चाहिए; दिमाग से नहीं। यहां सम्मान से तात्पर्य उसकी सुंदर-सार्थक भावाभिव्यक्ति से है। भाव तभी सुंदर होंगे, जब मानव की सोच सकारात्मक होगी और उसके हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होगा। इसलिए मानव को सदैव सर्वहिताय व अच्छा सोचना चाहिए, क्योंकि मानव दूसरों को वही देता है जो उसके पास होता है। शिवानंद जी के मतानुसार ‘संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं। जो मनुष्य इस विशेष गुण से संपन्न है; त्रिलोक में सबसे बड़ा धनी है।’ रहीम जी ने भी कहा है, ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ इसके लिए आवश्यकता है… आत्म-संतोष की, जो आत्मावलोकन का प्रतिफलन होता है। इसी संदर्भ में मानव को इन तीन समर्थ, शक्तिशाली व उपयोगी साधनों को कभी न भूलने की सीख दी गई है…प्रेम, प्रार्थना व क्षमा। मानव को सदैव अपने हृदय में प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए और प्रभु से सबके लिए मंगल- कामना करनी चाहिए। जीवन में क्षमा को सबसे बड़ा गुण स्वीकारा गया है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात्’ अर्थात् बड़ों को सदैव छोटों को क्षमा करना चाहिए। बच्चे तो स्वभाववश नादानी में ग़लतियां करते हैं। वैसे भी मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। अक्सर मानव को दूसरों में सदैव ख़ामियां- कमियां नज़र आती हैं और वह मंदबुद्धि स्वयं को गुणों की खान समझता है। परंतु वस्तु-स्थिति इसके विपरीत होती है। मानव स्वयं में तो सुधार करना नहीं चाहता; दूसरों से सुधार की अपेक्षा करता है; जो चेहरे की धूल को साफ करने के बजाय आईने को साफ करने के समान है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग होते हैं, जो आपको उन्नति करते देख, आपके नीचे से सीढ़ी खींचने में विश्वास रखते हैं। मानव को ऐसे लोगों से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए। शायद! इसलिए ही कहा जाता है कि ‘ढूंढना है तो परवाह करने वालों को ढूंढिए, इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेंगे।’ परवाह करने वाले लोग आपकी अनुपस्थिति में भी सदैव आपके पक्षधर बने रहेंगे तथा किसी भी विपत्ति में आपको पथ-विचलित नहीं होने देंगे, बल्कि आपको थाम लेंगे। परंतु यह तभी संभव होगा, जब आपके भाव व अहसास उनके प्रति सुंदर व मंगलकारी होंगे और आपके ज़ज़्बात समय- समय पर अल्फ़ाज़ों के रूप में उनकी प्रशंसा करेंगे। यह अकाट्य सत्य है कि जब आपके संबंधों में परिपक्वता आ जाती है; आपके मनोभाव हमसफ़र की ज़ुबान बन जाते हैं। सो! अल्फ़ाज़ वे संजीवनी हैं, जो संतप्त हृदय को शांत कर सकते हैं; दु:खी मानव का दु:ख हर सकते हैं और हताश-निराश प्राणी को ऊर्जस्वित कर उसकी मंज़िल पर पहुंचा सकते हैं। अच्छे व मधुर अल्फ़ाज़ रामबाण हैं; जो दैहिक, दैविक, भौतिक अर्थात् त्रिविध ताप से मानव की रक्षा करते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 26 ☆ महापुण्य उपकार है, महापाप अपकार ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “महापुण्य उपकार है, महापाप अपकार)

☆ किसलय की कलम से # 26 ☆

☆ महापुण्य उपकार है, महापाप अपकार ☆

स्वार्थ के दायरे से निकलकर व्यक्ति जब दूसरों की भलाई के विषय में सोचता है, दूसरों के लिये कार्य करता है। वही परोपकार है।

इस संदर्भ में हम कह सकते हैं कि भगवान सबसे बड़े परोपकारी हैं, जिन्होंने हमारे कल्याण के लिये प्रकृति का निर्माण किया। प्रकृति का प्रत्येक अंश परोपकार की शिक्षा देता प्रतीत होता है। सूर्य और चाँद हमें प्रकाश देते हैं। नदियाँ अपने जल से हमारी प्यास बुझाती हैं। गाय-भैंस हमारे लिये दूध देती हैं। मेघ धरती के लिये झूमकर बरसते हैं। पुष्प अपनी सुगन्ध से दूसरों का जीवन सुगन्धित करते हैं।

परोपकारी मनुष्य स्वभाव से ही उत्तम प्रवृत्ति के होते हैं। उन्हें दूसरों को सुख देकर आनंद मिलता है। परोपकार करने से यश बढ़ता है। दुआयें मिलती हैं। सम्मान प्राप्त होता है।

तुलसीदास जी ने कहा है-

‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहीं अधभाई।’

प्रकृति भी हमें परोपकार करने के हजारों उदाहरण देती है जैसे :-

परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः

परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।

परोपकाराय दुहन्ति गावः

परोपकारार्थं इदं शरीरम् ॥

अपने लिए तो सभी जीते हैं किन्तु वह जीवन जो औरों की सहायता में बीते, सार्थक जीवन है.

उदाहरण के लिए किसान हमारे लिए अन्न उपजाते हैं, सैनिक प्राणों की बाजी लगा कर देश की रक्षा करते हैं। परोपकार किये बिना जीना निरर्थक है। स्वामी विवेकानद, स्वामी दयानन्द, रवींद्र नाथ टैगोर, गांधी जी जैसे महापुरुषों के जीवन परोपकार के जीते जागते उदाहरण हैं। ये महापुरुष आज भी वंदनीय हैं।

आज का इन्सान अपने दुःख से उतना दुखी नहीं है, जितना की दूसरे के सुख से।

मानव को सदा से उसके कर्मों के अनुरूप ही फल भी मिलता आया है। वैसे कहा भी गया है:-

 ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’।

 

वे रहीम नर धन्य हैं, पर-उपकारी अंग । 

बाँटन बारे के लगे, ज्यों मेहंदी के रंग ॥

जब कोई जरूरतमंद हमसे कुछ माँगे तो हमें अपनी सामर्थ्य के अनुरूप उसकी सहायता अवश्य करना चाहिए। सिक्खों के गुरू नानक देव जी ने व्यापार के लिए दी गई सम्पत्ति से साधु-सन्तों को भोजन कराके परोपकार का सच्चा सौदा किया।

एक बात और ये है कि परोपकार केवल आर्थिक रूप से नहीं होता; वह मीठे बोलकर,  किसी जरूरतमंद विद्यार्थी को पढ़ाकर, भटके को राह दिखाकर, समय पर ठीक सलाह देकर, भोजन, वस्त्र, आवास, धन का दान कर जरूरतमंदों का भला कर के भी किया सकता है।

पशु-पक्षी भी अपने ऊपर किए गए उपकार के प्रति कृतज्ञ होते हैं, फिर मनुष्य तो विवेकशील प्राणी है। उसे तो पशुओं से दो कदम आगे बढ़कर परोपकारी होना चाहिए ।

परोपकार अनेकानेक रूप से कर आत्मिक आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। जैसे-प्यासे को पानी पिलाना, बीमार या घायल व्यक्ति को अस्पताल ले जाना, वृद्धों को बस में सीट देना, अन्धों को सड़क पार करवाना, गोशाला बनवाना, चिकित्सालयों में अनुदान देना, प्याऊ लगवाना, छायादार वृक्ष लगवाना, शिक्षण केन्द्र और धर्मशाला बनवाना परोपकार के ही रूप हैं ।

आज का मानव दिन प्रति दिन स्वार्थी और लालची होता जा रहा है। दूसरों के दु:ख से प्रसन्न और दूसरों के सुख से दु:खी होता है। मानव जीवन बड़े पुण्यों से मिलता है, उसे परोपकार जैसे कार्यों में लगाकर ही हम सच्ची शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। यही सच्चा सुख और आनन्द है। ऐसे में हर मानव का कर्त्तव्य है कि वह भी दूसरों के काम आए।

उपरोक्त तथ्यों से अवगत कराने का मात्र यही उद्देश्य है कि यदि हमें ईश्वर ने सामर्थ्य प्रदान की है, हमें माध्यम बनाया है तो पीड़ित मानवता की सेवा करने हेतु हमें कुछ न कुछ करना ही चाहिए। सच यह भी है कि ऐसी अनेक संस्थाएँ यत्र-तत्र-सर्वत्र देखी जा सकती हैं जो निरंतर लोक कल्याण में जुटी हैं। मेरी दृष्टि से इससे अच्छे कोई दूसरे विकल्प हो भी नहीं सकते और मानवता का भी यही धर्म है।

किसलय जग में श्रेष्ठ है, मानवता का धर्म।

अहम त्याग कर जानिये, इसका व्यापक मर्म।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ककनूस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

☆ संजय दृष्टि  ☆ ककनूस ☆

‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

उसकी लिखी यही बात लोगों को राह दिखाती पर व्यवस्था की राह में वह रोड़ा था। लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने मिलकर उसके लिखे को तितर-बितर करने का हमेशा प्रयास किया।

फिर चोला तजने का समय आ गया। उसने देह छोड़ दी। प्रसन्न व्यवस्था ने उसे मृतक घोषित कर दिया। आश्चर्य! मृतक अपने लिखे के माध्यम से कुछ साँसें लेने लगा।

मरने के बाद भी चल रही उसकी धड़कन से बौखलाए लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने उसके लिखे को जला दिया। कुछ हिस्से को पानी में बहा दिया। कुछ को दफ़्न कर दिया, कुछ को पहाड़ की चोटी से फेंक दिया। फिर जो कुछ शेष रह गया, उसे चील-कौवों के खाने के लिए सूखे कुएँ में लटका दिया। उसे ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मरा हुआ घोषित कर दिया।

अब वह श्रुतियों में लोगों के भीतर पैदा होने लगा। लोग उसके लिखे की चर्चा करते, उसकी कहानी सुनते-सुनाते। किसी रहस्यलोक की तरह धरती के नीचे ढूँढ़ते, नदियों के उछाल में पाने की कोशिश करते। उसकी साँसें कुछ और चलने लगीं।

लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने जनता की भाषा, जनता के धर्म, जनता की संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिश की। लोग बदले भी लेकिन केवल ऊपर से। अब भी भीतर जब कभी पीड़ित होते, भ्रमित होते, चकित होते, अपने पूर्वजों से सुना उसका लिखा उन्हें राह दिखाता। बदली पोशाकों और संस्कृति में खंड-खंड समूह के भीतर वह दम भरने लगा अखंड होकर।

फिर माटी ने पोषित किया अपने ही गर्भ में दफ़्न उसका लिखा हुआ। नदियों ने सिंचित किया अपनी ही लहरों में अंतर्निहित उसका लिखा हुआ। समय की अग्नि में कुंदन बनकर तपा उसका लिखा हुआ। कुएँ की दीवारों पर अमरबेल बनकर खिला और खाइयों में संजीवनी बूटी बनकर उगा उसका लिखा हुआ।

ब्रह्मांड के चिकित्सक ने कहा, ‘पूरी तन्मयता से आ रहा है श्वास। लेखक एकदम स्वस्थ है।’

अब अनहद नाद-सा गूँज रहा है उसका लेखन।अब आदि-अनादि के अस्तित्व पर गुदा है उसका लिखा, ‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता – 1 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “विभिन्नता में समरसता”)

☆ आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता -1 ☆

विश्व में अनेक सभ्यतायें फली फूली किन्तु काल ने उनमें से अधिकांश का नामोनिशान मिटा दिया। मिस्र की सभ्यता और संस्कृति जो ईसा पूर्व दो- अढाई हज़ार साल पुरानी थी, उसका आज कोई अस्तित्व नहीं बचा है। अरब देशों का हाल तो और भी बुरा है वे आपस में ही लड़ रहे है। एशिया और यूरोप के अनेक देश परिवर्तन की आंधी के आगे ढह गए हैं।उर्दू के प्रसिद्ध शायर सर मुहम्मद इकबाल  इसलिए लिख गए कि:

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।

हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा।।

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गए जहाँ से।

अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।। सारे…

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।

सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा।। सारे…

हमारी अजर अमर हस्ती को संक्षेप में बता पाना दुष्कर है। भारत के असंख्य गाँव, शहर, प्रांत के निवासी जिन भाषाओं में संवाद करते आये हैं जो भोजन वे ग्रहण करते रहे हैं, जिस कला संगीत, नृत्य और साहित्य ने उन्हें बांधे रखा है और सदियों पुराने रीतिरिवाज, त्यौहार, मनोरंजन के साधन, खेलकूद आदि जो आज भी अक्षुण हैं, गहन अध्यन का विषय हैं और इन पर लिखा भी बहुत गया हैं। इन्हे हम सदियों से मानते आए हैं, उनका परिपालन करते आए हैं। यही हमारी सामासिक संस्कृति के मूल स्तम्भ है, हमारी विस्तृत परम्परा का अभिन्न अंग है।

भारत में दो विभिन्न संस्कृतियों के मेलमिलाप का पहला उदाहरण आर्य व द्रविड़ सभ्यताओं के परस्पर मिलन के रूप में दिखाई देता है। आर्य उत्तर भारत के निवासी तो दक्षिण भारत में द्रविड़ सभ्यता फल फूल रही थी। ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अगस्त्य ने सर्वप्रथम उत्तर और दक्षिण भारत में समन्वय स्थापित करते हुए विभिन्न जन समूहों में स्नेह संपर्क तथा भाषाओं में प्रभावपूर्ण विकास लाने का कार्य किया। उन्होंने आर्येतर जाति की कन्या लोपमुद्रा से विवाह कर समन्वय व उदारता की भावना को और आगे  बढाया। महर्षि अगस्त्य के  पश्चात रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्यों ने भी उत्तर और दक्षिण के भेद को मिटाने में महती भूमिका निर्वाहित की। संस्कृत ने इन भारतीय प्रदेशों के निवासियों के बीच संपर्क भाषा का स्थान पाया किन्तु तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़  आदि  क्षेत्रीय भाषाए भी फलती फूलती रही व अनेक उच्च स्तर के साहित्य का सृजन इन भाषाओं में होता रहा। शैव वैष्णव समुदाय के कवियों द्वारा रचे गए भक्ति काव्यों ने हमारी सामासिक संस्कृति और अधिक बल प्रदान किया। आर्य एवं द्रविड़ संस्कृति और कई प्रादेशिक व साम्प्रदायिक संस्कृतियों ( जैन बौध, शैव, वैष्णव आदि) के संगम से सामासिक संस्कृति बनी। भिन्न भिन्न पर्व, त्यौहार, वृत, उत्सव, आदि में आर्य संस्कृति आज भी सजीव है। शिल्प के क्षेत्र में, उत्तर व दक्षिण, दो अलग अलग शैलियाँ का प्रभाव हमारे प्राचीन मंदिरों भवनों आदि में दिखाई देता है। उत्तर भारत के हिन्दुस्तानी संगीत व दक्षिण के कार्नेटिक संगीत की जुगलबंदी भी राष्ट्रीय समरसता की प्रतीक है। इस अमिट अंतरधारा की विशेषता है विविधताओं और विभिन्नताओं के बीच अभिन्नता को बनाए रखने की संजीवनी सामंजस्य भावना। इस सार्वजनीन भावना पर समस्त भारतीयों आर्य, आर्येतर, द्रविड़ आदि  सभी का समान अधिकार है। यही भावना हम सभी को एक बनाए रख सकने में सक्षम है।

क्रमशः ....

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 75 ☆ अर्द्धनारी-नटेश्वर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 75 – अर्द्धनारी-नटेश्वर ☆

मीमांसा की दृष्टि से वैदिक दर्शन अनन्य है। देवों के देव को महादेव कहा गया और परंपरा में महादेव अर्द्धनारी-नटेश्वर के रूप में विद्यमान हैं। अर्द्धनारी-नटेश्वर, स्त्री-पुरुष के सह अस्तित्व का प्रतीक हैं। नर के अस्तित्व को आत्मसात करती नारी और नारी से अस्तित्व पाता नर।

इस दर्शन की यथार्थ के धरातल पर पड़ताल करें तो पाते हैं स्त्री पुरुष को आत्मसात नहीं करती अपितु पुरुष में लीन हो जाती है।

एक बुजुर्ग दंपति के यहाँ जाना होता था। बुजुर्ग की पत्नी कैंसर से पीड़ित थीं। तब भी सदा घर के काम करती रहतीं। उन्हें आवभगत करते देख मुझे बड़ी ग्लानि होती थी। पीछे सूचना मिली कि वे चल बसीं।

लगभग बीस रोज़ बाद बुजुर्ग से मिलने पहुँचा। वे मेथी के लड्डू खा रहे थे। मुझे देखा तो आँखों से जलधारा बह निकली। बोले, “उसने जीवन भर कुछ नहीं मांगा, बस देती ही रही। घुटनों के दर्द के चलते मैं पाले में मेथी के लड्डू खाता हूँ। जाने से पहले इस पाले के लड्डू भी बना कर गई है, बल्कि हमेशा से कुछ ज्यादा ही बना गई।”

चंद्रकांत देवल ने लिखा है कि आत्महत्या करने से पहले भी स्त्री झाड़ू मारती है, घर के सारे काम निपटाती है, पति और बच्चों के लिए खाना बनाती है, फिर संखिया खाकर प्राण देती है।

पुरुष का नेह आत्मसात करने का होता है, स्त्री का लीन होने का।

आत्मसात होने से उदात्त है लीन होना। निपट अपढ़ से उच्च शिक्षित, हर स्त्री लीनता के इस भाव में गहन दीक्षित होती है।

समर्पण से संपूर्णता की दीक्षा और लीन होने का पाठ स्त्री से पढ़ने की आवश्यकता है।

जिस दिन यह पाठ पढ़ा सुना और गुना जाने लगेगा, अर्द्धनारी-नटेश्वर महादेव घर-घर जागृत हो जाएँगे।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – रक्तदान ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “रक्तदान । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – रक्तदान

रक्तदान के संबंध में  विचारणीय प्रश्न यह है कि – स्वैक्षिक रक्तदान क्यों ?

दान एक आदर्श जीवन वृत्ति है जो मानव को लोक कल्याण हेतु प्रेरित करती है, जिसके बहुत सारे आयाम तथा स्वरूप है।  इन्हें याचक की आवश्यकता के अनुसार दिया जाता है जैसे भूखे को अन्नदान, प्यासे को जलदान,  नंगे बदन को वस्त्रदान। उसी प्रकार मृत्यु शै य्या पर पडे़ जीवन की आस में मौत से जूझ रहे व्यक्ति को अंग दान तथा रक्त दान की आवश्यकता पड़ती है।  रक्तदान तथा अपने परिजनों की मृत्यु के पश्चात  अंग दान द्वारा हम किसी की जान बचा कर नर से नारायण की श्रेणी में जा सकते हैं।

अपने परिजनों के नेत्रों को किसी की आंखों में संरक्षित उस नेत्रज्योति को जो मानव को ईश्वरीय उपहार में मिली है को  लंबे समय तक दूसरों की आंखो में सुरक्षित कर सकते हैं। इससे ज़रूरत मंद नेत्रहीन तो दुनियां देखेगा हमें भी अपने परिजनों की आंखों के जीवित होने का एहसास बना रहेगा।

आज के इस आधुनिक युग में दुर्घटना, बिमारी तथा युद्ध के समय घायल अवस्था में मानव शरीर से अत्यधिक रक्तस्राव के चलते मानव अस्पतालों में मृत्युशैया पर पड़ा मृत्यु से  जूझ रहा होता है, उस समय उसके शरीर को रक्त की अति आवश्यकता पड़ती है। इसके अभाव में व्यक्ति की जान जा सकती है। रक्तदाताओं द्वारा दान किए गये रक्त  के प्रत्येक बूंद की कीमत का पता उसी समय चलता है। रक्तदान से किसी भी व्यक्ति की जान बचाई जा सकती है। जिस अनुपात में रक्तकी जरूरत है उस अनुपात में आज  रक्त की उपलब्धता नहीं है। आज भी दुर्घटना में घायलों मरीजों के परिजनों अथवा रक्ताल्पता से जूझ रहे बीमारों के परिजनों को उसके ग्रुप के रक्त के लिये भटकते हुए, लाइन में लगते छटपटाते देखा जा सकता है। उस समय यदि रक्त की सहज सुलभता हो और समय से उपलब्ध हो तो किसी का जीवन आसानी से बचाना संभव हो सकता है इन्हीं उद्देश्यों को पूरा करने के लिए रक्तकोष बैंकों की स्थापना की गई।

स्वैक्षिक रक्तदान में बाधायें –

स्वैक्षिक रक्तदान में सबसे ज्यादा बाधक अज्ञानता तथा जनचेतना का अभाव है। संवेदनशीलता का अभाव तथा तमाम प्रकार की भ्रांतियों से भी हमारा समाज ग्रस्त हैं। उन्हें दूर कर, युद्ध स्तर पर अभियान चला कर, विभिन्न प्रचार माध्यमों द्वारा रक्तदान के महत्व तथा उसके फायदे से लोगों को अवगत कराना होगा।  लोगों को समझा कर, जनचेतना पैदा कर, अपने अभियान से वैचारिक रूप से जोड़ना होगा। संवाद करना होगा,और इस बात को समझाना होगा कि आप द्वारा किया गया रक्तदान  अंततोगत्वा आप के समाज के ही तथा आप के ही परिजनों के काम आता है। जब हम मानसिक रूप से लोगों को अपने अभियान से जोड़ने में सफल होंगे तथा अपने अभियान को जनांदोलन का रूप दे पायेंगे तो निश्चित ही रक्तदाता समूहों की संख्या बढ़ेगी। रक्त का अभाव दूर कर हम किसी को जीवन दान देने में सफल होंगे। स्वैक्षिक रक्तदान की महत्ता का ज्ञान करा सकेंगे।

रक्तदान से होने वाले फायदे –

जब हम रक्तदान करते हैं तो हमें दोहरा फायदा होता है, प्रथम तो हमारा रक्त हमारे समाज  के किसी परिजन की प्राण रक्षा करता है, दूसरा जब हमारे शरीर से रक्त दान के रूप में रक्त बाहर निकलता है तब हमारा शरीर कुछ समय बाद ही नया रक्त बना कर  शरीर को नये रक्त से भर देता है,  जिसके चलते शरीर को नइ स्फूर्ति तथा नवचेतना का आभास होता है और नया रक्त कोलेस्ट्राल तथा ब्लड शुगर से मुक्त होता है। जिसके चलते हम स्वस्थ्य जीवन जी सकते हैं। इस लिए प्रत्येक व्यक्ति को रक्तदाता समूहों से जोड़ कर,  किसी की जान बचाकर जीवन दाता के रूप में खुद को स्थापित कर अक्षय पुण्य ‌लाभ का भागी बनना चाहिए।

अंत में लोक मंगल कामना “सर्वेभवन्तु सुखिन:” के साथ  एक अनुरोध –  लोक मंगल हेतु इस आलेख को जन-जन तक पहुंचा इस मंगल कार्य में सहभागिता करें।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 73 ☆ ख़ामोशी एवं आबरू ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 73 ☆

☆ ख़ामोशी एवं आबरू

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम् तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर, अपने दायित्व का वहन कर सके।

घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह खामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह खामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है।

वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। खामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते खामोशी का भूषण धारण कर, न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे खामोश रहने का पाठ पढ़ाया जाता है और असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’  परंंतु तुझे तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीख। खामोशी तेरा श्रृंगार है और तुझे ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए खामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ, उनके हर आदेश की अनुपालना करनी है।

इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ, उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह खामोश अर्थात् मौन रहती है, प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे  तो  किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है।

अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए खामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं;  मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करतीं, कभी प्रतिरोध नहीं करतीं। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह चल देती हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं, न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।

संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गलियों में खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।

‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं ,जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर, स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगें, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की… अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेएंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।

इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्मसीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता।’ पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।

ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर, क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए, समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए खामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। खामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह तो हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है। देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहन-शक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और खामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print