हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 25 ☆ एहसास ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “एहसास)

☆ किसलय की कलम से # 25 ☆

☆ एहसास

मुझे लगता है, जब हम अपनी पूर्ण सामर्थ्य और श्रेष्ठता से कोई कार्य करते हैं, सेवा करते हैं या फिर प्रयास करते हैं तब सफलता के प्रति अधिक आशान्वित रहते हैं। सफलता मिलती भी है। सफलताएँ अथवा असफलताएँ समय एवं परिस्थितियों पर भी निर्भर करती हैं। ये परिस्थितियाँ उचित-अनुचित अथवा अच्छी-बुरी भी हो सकती हैं। अक्सर सफलता का श्रेय हम स्वयं को देते हैं, जबकि इसमें भी अनेक लोगों का योगदान  निहित होता है।

जब असफलता हाथ लगती है तब हम अपने भाग्य के साथ साथ दूसरों को भी कोसते हैं। कमियों को भी खोजते हैं।

सबसे महत्त्वपूर्ण बातें ये होती हैं कि उस समय हमें अपने द्वारा किये अधर्म, अन्याय, बुरे कर्म, अत्याचार, दुर्व्यवहार आदि की स्मृति अवश्य होती है। कदाचित पश्चाताप भी होता है।

आखिर  खुद या अपने निकटस्थों के अनिष्ट पर उपरोक्त कर्मों को स्मरण करते हुए हम घबराए, चिंतित और पश्चाताप की मुद्रा में क्यों आ जाते हैं, जबकि यह पूर्णरूपेण सत्य नहीं होता!

जब सफलता का श्रेय स्वयं को देते हैं तब असफलता अथवा अनिष्ट होने पर भाग्य को, अनैतिक कार्यों को, दुर्व्यवहार को दोष क्यों देते हो जबकि आप के द्वारा किये गए कार्य अथवा कमियाँ ही इसकी जवाबदार होती हैं। अब मुद्दे की बात ये है कि अनिष्ट को  अपने कर्मों, दुर्व्यवहारों और अनैतिक कार्यों का परिणाम निरूपित करने के पीछे उपरोक्त कारक सक्रिय क्यों हो जाते है। यह एक मानव का सामान्य स्वभाव है कि जब हताशा होती है तो हम अपने भूतकाल को स्मृतिपटल पर बार-बार दोहराते हैं और सोचते हैं, कहीं मेरे द्वारा किये गए फलां कार्य का यह परिणाम तो नहीं है। फिर ‘का बरसा जब कृषी सुखानी’ की तर्ज पर सोचने लगते हैं कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। पर “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत” लेकिन ये सभी बातें हैं कि मानस पटल से ओझल होती ही नहीं। आशय यही है कि कहीं न कहीं हम भयभीत जरूर होते हैं कि हमारे दुष्कर्मों के कारण ही ये अनिष्ट हुआ है। इन परिस्थितियों में हमारे मन को “बुरे कर्म का बुरा नतीजा” की बात सही लगती है। वास्तव में भी यदि व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो कुल मिलाकर अंत में यही सिद्ध होता है और निष्कर्ष भी यही निकलता है कि हमें बुरे कर्मों से बचना ही चाहिए।

इसमें दो मत नहीं है कि यदि हम जीवन में सदाचार, सरलता, सादगी, सत्यता और संतोष अपना लेते हैं, तो कम से कम पिछले बुरे कर्मों को दोष देने से बच सकते हैं। इसे  जग के हर एक इंसान को एक चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए कि अब इंसानियत पुनर्जीवित करने के लिए आपको एक अवसर और दिया जाता है।

इसीलिए बुरे वक्त में पिछली बुरी बातें याद आती हैं और उन गल्तियों का एहसास भी होता है, जो एक अच्छे इंसान के रूप में नहीं करना चाहिए थीं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ डॉ राजेंद्र प्रसाद जन्मदिवस विशेष – अनमोल रत्न:देशरत्न ☆ श्री अमरेंद्र नारायण

श्री अमरेंद्र नारायण

(ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह समय-समय पर  “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत चुनिंदा रचनाएँ पाठकों से साझा करते रहते हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। आज प्रस्तुत है श्री अमरेन्द्र नारायण जी का डॉ राजेंद्र प्रसाद जी के जन्मदिवस पर एक विशेष आलेख अनमोल रत्न : देशरत्न।)

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ डॉ राजेंद्र प्रसाद जन्मदिवस विशेष – अनमोल रत्न:देशरत्न ☆

देशरत्न डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद एक अनमोल रत्न थे। वे  प्रखर  प्रतिभाशाली थे और उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी।  देश प्रेम,सादगी और कर्तव्य परायणता से ओत- प्रोत उनका जीवन एक तपोनिष्ठ कर्मयोगी का जीवन था। वे अपने विद्यार्थी जीवन से ही देश सेवा से सम्बंधित कार्यों में संलग्न थे। वे चम्पारण सत्याग्रह में गांधी जी के निकट सम्पर्क में आये और उनके जीवन भर अनन्य सहयोगी बने रहे।  उन्होंने अपनी मुद्रा वर्षिणी वकालत छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे समय में कूद पड़े जब त्यागी और मनसा-वाचा-कर्मणा समर्पित देश प्रेमियों की देश को बहुत आवश्यकता थी। चाहे सेवा कार्य हो या रचनात्मक कार्यक्रम का नेतृत्व करना हो, शिक्षा का प्रसार करना हो, कांग्रेस संगठन के कार्य हों,  सरकार में मंत्री का दायित्व संभालना हो या आगे चलकर संविधान सभा के अध्यक्ष का अत्यंत महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व वहन करना हो-उन्होंने अपनी कर्तव्य परायणता और कार्य कुशलता से सभी दायित्वों का अत्यंत सफलता पूर्वक निर्वाह किया।

यह हमारा सौभाग्य था कि वे देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में प्रतिष्ठित हुये।

उनके विषय में सरोजिनी नायडू ने लिखा था:  “मुझे कुछ दिनों पूर्व राजेन्द्र बाबू पर एक वाक्य लिखने को कहा गया था।  मैंने उत्तर दिया था कि मैं वैसा तभी कर सकती हूं जब मेरे हाथों में शहद की दावात में डूबी सोने की कलम हो क्योंकि विश्व की सारी स्याही उनके गुणों का वर्णन और उनके प्रति आभार प्रगट करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी। “

लेकिन आज  उनके महान व्यक्तित्व के कई पहलुओं से बहुत  लोग अपरिचित से हैं। उनके योगदान को उचित  सम्मान नहीं मिल पाया है। यहां तक कि संविधान निर्माण में उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख नहीं होता, पटना में उनकी समाधि उपेक्षित सी है और उनके जन्म दिवस एवं उनकी पुण्य तिथि पर मात्र औपचारिकता का निर्वाह कर दिया जाता है।

यह हमारा कर्तव्य है कि हम देशरत्न के विलक्षण व्यक्तित्व से लोगों को परिचित करायें और उनसे प्रेरणा लें। उनकी अद्वितीय प्रतिभा के सम्मान में उनके जन्म दिवस को राष्ट्रीय मेधा दिवस के रूप में मनाया जाये और प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं का सम्मान किया जाये,स्वतंत्रता आन्दोलन और संविधान निर्माण में उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका और राष्ट्रपति के पद पर उनके योगदान से लोगों को अवगत कराया जाये। विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में उनके जीवन चरित को सम्मिलित किया जाये।

आईये, उनके महान व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर हम देशरत्न के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करें।

©  श्री अमरेन्द्र नारायण 

शुभा आशर्वाद, १०५५ रिज़ रोड, साउथ सिविल लाइन्स,जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश

दूरभाष ९४२५८०७२००,ई मेल amarnar @gmail.com

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नोबेल पुरूस्कार मिला जीन एडिटिंग की कैंची पर, दो महिला वैज्ञानिकों का कारनामा। ☆ श्री अजीत सिंह

श्री अजीत सिंह जी

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है एक नवीनतम जानकारी से परिपूर्ण आलेख  ‘नोबेल पुरूस्कार मिला जीन एडिटिंग की कैंची पर,  दो महिला वैज्ञानिकों का कारनामा ।  हम आपसे उनकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ आलेख ☆ नोबेल पुरूस्कार मिला जीन एडिटिंग की कैंची पर,  दो महिला वैज्ञानिकों का कारनामा ☆ 

जीवन की आधारभूत इकाई को जीन कहा जाता है और इसे समझने व उपयोग में लाने के विज्ञान को जेनेटिक इंजीनियरिंग का नाम दिया जाता है। यह विज्ञान अब कपास जैसी जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों और लुलू-नाना की कहानी से इतना आगे बढ़ गया है कि  जीनोम एडिटिंग का एक नया, सरल और सस्ता उपाय ढूंढने के लिए दो महिला वैज्ञानिकों को इस वर्ष का केमिस्ट्री का नोबेल पुरुस्कार दिया गया है।

(सुश्री एमानुएल चरपैंटर और सुश्री जेनिफर डूडना)

एमानुएल चरपैंटर और जेनिफर डूडना की खोज को जीनोम की कांट छांट करने की ऐसी कैंची का नाम दिया गया है जो जीवन के किसी भी स्वरूप का एक नया कोड बना सकती है। इस कैंची का नाम क्रिस्पर कैस9 रखा गया है जिसकी मदद से वैज्ञानिक पशुओं, पौधों व सूक्ष्म जीवाणुओं का डीएनए बदल सकते हैं।

(हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की पूर्व प्रो डॉ सुनीता जैन)

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफेसर डॉ सुनीता जैन कहती हैं कि जीनोम एडिटिंग का सरल और सस्ता तरीका उपलब्ध होने से एड्स, कैंसर, मलेरिया, देंगी और चिकनगुनिया जैसी असाध्य बीमारियों के इलाज की संभावना बन चली है।

जीन एडिटिंग के सहारे वैज्ञानिक  वुली मैमथ और डायनासोर जैसे लुप्त जानवरों के जीवाश्मों से पुन: इन जीवों को ज़िंदा कर सकने की संभावना को देख रहे हैं। पशुओं और पौधों की बीमारियां उनके बीमार जीन निकाल कर दूर की जा सकेंगी।

मच्छर के जीन बदल कर उनकी अगली पीढ़ी को मलेरिया फैलाने के अयोग्य बना दिया जाएगा।

फसलों की पैदावार भी बढ़ाई जा सकेगी। पर क्या जीन एडिटिंग के प्रयोग मनुष्यों पर भी किए जाएंगे और उन्हे बेहतर या दुष्कर बनाया जा सकेगा?

इसका सभी सरकारें व वैज्ञानिक विरोध कर रहे हैं। इसी संदर्भ में लूलू और नाना की कहानी उभरती है। चीन के एक वैज्ञानिक ही जियानकुई ने  एड्स की बीमारी से ग्रस्त एक व्यक्ति और उसकी सामान्य पत्नी के सीमन व अंडे से तैयार भ्रूण की जीनोम एडिटिंग कर एड्स बीमारी के जीन निष्क्रिय कर दिए और भ्रूण को महिला के गर्भाशय में स्थापित कर दिया। उसने दो स्वस्थ बेटियों को जन्म दिया जो एड्स मुक्त थीं। इन्हीं बच्चियों को लूलू और नाना के नाम से पुकारा जाता है। वैज्ञानिक ही जियानकुई ने जब अपनी इस उपलब्धि की घोषणा की तो हर तरफ से घोर विरोध हुआ। चीन की सरकार ने वैज्ञानिक ही जियानकुई पर मुकद्दमा चलाया  और उन्हे तीन साल की कैद की सज़ा सुनाई  गई

पर इस तकनीक के दुरुपयोग की संभावनाएं भी हैं। क्या इसके सहारे डिजाइनर बेबी तैयार किए जाएंगे? क्या मनुष्यों की अपार शक्ति बढ़ा कर उन्हे लड़ाई में उपयोग लाया जाएगा? क्या कुछ मानव प्रजातियों को समाप्त कर सभी को एक समान बनाया जाएगा? जैविक इंजीनियरिंग के उपयोग से कुछ जन्मजात बीमारियां जैसे अंधापन, थैलेसीमिया, सिक्कल सैल अनेमिया, सिस्टीक फाइब्रोसिस  का इलाज ढूंढने की कोशिश की जा रही है। दुनिया में हर चालीस हजार बच्चों में से एक बच्चा जन्मजात अंधा होता है।

पर जीन एडिटिंग का उपयोग जैविक युद्ध करने के लिए भी किया जा सकता है। और सबसे ख़तरनाक होगा डिजाइनर बेबी तैयार करना। फिलहाल सभी वैज्ञानिक और सरकारें इसके खिलाफ हैं, पर टेक्नोलॉजी सुलभ होने पर इसके दुरुपयोग को रोकना हमेशा के लिए शायद संभव न हो। यह मानवता के सामने एक नैतिक प्रश्न रहेगा।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 74 ☆ चेत जाओ ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 74 – चेत जाओ ! 

रेल में भीड़-भड़क्का है। हर कोई अपने में मशगूल। एक तीखा, अनवरत स्वर ध्यान बेधता है। देखता हूँ कि साठ से ऊपर की एक स्त्री है संभवतः जिसके स्वरयंत्र में कोई दोष है। बच्चा मचलकर किसी वस्तु के लिए हठ करता है, एक साँस में रोता है, कुछ उसी तरह के स्वर में भुनभुना रही है वह। अंतर बस इतना कि बच्चे के स्वर को बहुत देर तक बरदाश्त किया जा सकता है जबकि यह स्वर बिना थके इतना लगातार है कि खीज़ पैदा हो जाए। दूर से लगा कि यह भीख मांगने का एक और तरीका भर है। वह निरंतर आँख की ज़द से दूर जा रही थी और साथ ही कान भुनभुनाहट से राहत महसूस कर रहे थे।

किसी स्टेशन पर रेल रुकी। प्लेटफॉर्म की विरुद्ध दिशा से वही भुनभुनाहट सुनाई दी। वह स्त्री पटरियों पर उतरकर दूसरी तरफ के प्लेटफॉर्म पर चढ़ी। हाथ से इशारा करती, उसी तरह भुनभुनाती, बेंच पर बैठे एक यात्री से अकस्मात उसका बैग छीनने लगी। उस स्टेशन से रोज़ यात्रा करनेवाले एक यात्री ने हाथ के इशारे से महिला को आगे जाने के लिए कहा। बुढ़िया आगे बढ़ गई।

माज़रा समझ में आ गया। बुढ़िया का दिमाग चल गया है। पराया सामान, अपना समझती है, उसके लिए विलाप करती है।

चित्र दुखद था। कुछ ही समय में चित्र एन्लार्ज होने लगा। व्यष्टि का स्थान समष्टि ने ले लिया। क्या मर्त्यलोक में मनुष्य परायी वस्तुओं के प्रति इसी मोह से ग्रसित नहीं है? इन वस्तुओं को पाने के लिए भुनभुनाना, न पा सकने पर विलाप करना, बौराना और अंततः पूरी तरह दिमाग चल जाना।

अचेत अवस्था से बाहर आओ। समय रहते चेत जाओ अन्यथा समष्टि का चित्र रिड्युस होकर व्यष्टि पर रुकेगा। इस बार हममें से कोई उस बुढ़िया की जगह होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – कजरी क्या है ? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “कजरी क्या है ?। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – कजरी क्या है ?

भारतीय गेय विधा में अनेकों  राग  में देश-काल समय के अनुसार गाते जाने वाले गीत है। इनकी प्रस्तुति अलग-अलग संगीत घरानों द्वारा दी जाती रही है, जिसमें होली, चैता, कजरी, दादरा, ठुमरी आदि शामिल हैं।

कजरी महिला समूहों द्वारा गाया जाने वाला बरखा ऋतु का लोक गीत है। इसका उद्गमस्थल गंगा की गोद में बसा मिर्जापुर का इलाका है, जहां पहले इसे महिला समूहों द्वारा ढ़ुनमुनियां कजरी के रूप में गाया जाने लगा था।  लेकिन समय के साथ इसका रंग रुप भाव अंदाज़ सभी कुछ बदलता चला गया। अब यह पूरे भोजपुरी समुदाय द्वारा गाई जाने वाली विधा बन गया है।  इसमें पहले विरह का भाव प्रमुख होता था। अब यह संयोग-वियोग, श्रृंगार, विरह प्रधान हो गया है। अब धीरे-धीरे इसमें पौराणिक कथाओं तथा व्याकरण का भी समावेश हो गया है तथा अब इसको  पूर्ण रूप से शास्त्रीय घरानों द्वारा अंगीकार कर लिया गया है। इसे उत्सव के रूप में भाद्र पद मास के कृ ष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को कजरी तीज के रूप में महिलाएं मनाती हैं।

माना जाता है कि वर्षा ऋतु में पिउ जब परदेश  में ‌होता है उस समय किसी विरहनी की विरह वेदना को  अगर गहराई से एहसास करना हो तो व्यक्ति को कजरी अवश्य सुनना चाहिए। इसी क्रम में विरह वेदना से चित्रांकित कजरी गीत के भावों से रूबरू कराता मेरे द्वारा रचित उदाहरण देखें

कजरी गीत

हो घटा घेरि  घेरि,बरसै ये बदरिया ना । टेर। हो घटा घेरि घेरि।।

हरियर भइल बा सिवान, गोरिया मिल के रोपे धान। गोरिया मिल के रोपै धान।

झिर झिर बुन्नी परे ,भिजे थे चुनरिया ना।। हो घटाघेरि घेरि बरसै ये बदरिया ना।।1।

बहे पुरूआ झकझोर, टूटे देहिया पोर पोर।
घरवां कंता नाही, सूनी ये सेजरिया ना।। हो घटा घेरि घेरि।।2।।

दादुर पपिहा के बोली,,मारे जियरा में गोली,

सखियां खेलै लगली, तीज और कजरिया ना।।हो घटा घेरि घेरि।।3।।

एक त बरखा बा तूफानी,चूवै हमरी छप्पर छानी (झोपड़ी की छत)।

काटे मच्छर औ खटकीरा, बूझा हमरे जिव के पीरा।।हो घटा घेरि घेरि बरसै।।4।।

घरवां माई बा बिमार,आवै खांसी अउर बोखार।

दूजे देवरा बा शैतान,रोजवै करें परेशान।।हो घटाघेरि घेरि।।5।।

बतिया कवन हम बताइ ,केतनी बिपत हम गिनाई।

सदियां सून कइला तीज और कजरिया ना।।हो घटा घेरि घेरि बरसै रे ।।6।।

मन में बढ़ल बेकरारी,पाती गोरिया लिख लिख हारी।

अब तो कंता घरे आजा, आके हियवा में समाजा।। घटा घेर घेर बरसै रे।।7।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 72 ☆ संतान का सुख : संतान से सुख ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख संतान का सुख : संतान से सुखयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 72 ☆

☆ संतान का सुख : संतान से सुख

‘संतान का सुख तो हज़ारों मां-बाप के पास है, परंतु वर्तमान परिवेश में संतान से सुख कितने मां-बाप के पास है, अत्यंत चिंता का विषय है…संस्कारों पर धब्बा है’… इस वाक्य ने अंतर्मन को झकझोर- झिंझोड़ कर रख दिया और सोचने पर विवश कर दिया…क्या आज की युवा-पीढ़ी समाज को आईना नहीं दिखा रही? क्या वह पाश्चात्य-सभ्यता का अंधानुकरण कर, उन की जूठन स्वीकार कर इतरा नहीं रही? क्या यह मानव-मूल्यों का पतन और संस्कारों का हनन नहीं है? आखिर माता-पिता बच्चों को संस्कारित करने में स्वयं को अक्षम क्यों अनुभव करते हैं…यह चंद प्रश्न मन को हरदम उद्वेलित करते हैं और एक लम्बे अंतराल के पश्चात् भी मानव इनका समाधान क्यों नहीं खोज पाया है?

संतान सुख अर्थात् संतान प्राप्त करने के पश्चात् माता-पिता कहलाना तो बहुत आसान है, परंतु उन्हें सुसंस्कारित कर, एक अच्छा इंसान बनाना अत्यंत कठिन कार्य है। घर में धमा-चौकड़ी मचाते, माता- पिता के कदमों से लिपट मान-मनुहार करते, अपनी बात मनवाने की ज़िद्द करते बच्चे; जहां मन-आंगन को महकाते हैं; वहीं जीवन को खुशियों से भी सराबोर कर देते हैं…इन सबसे बढ़कर औरत को बांझ होने के कलंक से बचाने में भी अहम् भूमिका अदा करते हैं। संतान-प्राप्ति के पश्चात् वह स्वयं को सौभाग्य-शालिनी मां, बच्चों की हर इच्छा को पूर्ण करने में प्रयासरत रहती है और उन्हें सुसंस्कारों से पल्लवित करने की भरपूर चेष्टा करती है। परंतु आधुनिक युग में टी•वी•, मोबाइल व मीडिया के प्रभाव-स्वरूप बच्चे इस क़दर उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं कि वे दिन-भर उनमें आंखें गढ़ाए बैठे रहते हैं। माता-पिता की अति-व्यस्तता व उपेक्षा के कारण, बच्चों से उनका बचपन छिन रहा है। ब्लू फिल्म्स् व अपराध जगत् की चकाचौंध देखने के पश्चात्, वे अनजाने में कब अपराध-जगत् में प्रवेश पा जाते हैं, इसकी खबर उनके माता-पिता को मिल ही नहीं पाती। इसका पर्दाफ़ाश तब होता है, जब वे नशे की आदत में इस क़दर लिप्त हो जाते हैं कि अपहरण, फ़िरौती, चोरी-डकैती, लूटपाट आदि उनके शौक़ बन जाते हैं। वास्तव में कम से कम में समय में, अधिकाधिक धन-संपदा व प्रतिष्ठा पा लेने का जुनून उन्हें ले डूबता है। विद्यार्थी जीवन में ही वे ऐसे घिनौने दुष्कृत्यों को अंजाम देकर, स्वयं को उस नरक में धकेल देते हैं, जिससे मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। इसके प्रतिक्रिया-स्वरूप माता-पिता का एक-दूसरे पर दोषारोपण करने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इन असामान्य परिस्थितियों में, वे जीवन में समझौता करने को तत्पर हो जाते हैं, परंतु बहुत देर हो चुकी होती है। प्रायश्चित-स्वरूप बच्चों को नशे की गिरफ़्त से मुक्त करवा कर लिवा लाने के लिए, मंदिर-मस्जिद में माथा रगड़ने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है, जो लम्बे समय तक चलता रहता है। परंतु तब बहुत देर हो चुकी होती है …उनका सुखी संसार लुट चुका होता है और उनके पास आंसू बहाने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं बचता ही नहीं।

इसका दूसरा पक्ष है, ‘वर्तमान परिवेश में संतान से सुख कितने माता-पिता को प्राप्त हो पाता है’…यह चिंतनीय व मननीय विषय है कि संतान के रहते कितने माता-पिता आत्म-संतुष्ट हैं तथा संतान से प्रसन्न हैं, सुखी हैं? आधुनिक युग में भले ही भौगोलिक दूरियां कम हो गई हैं, परंतु पारस्परिक- प्रतिस्पर्द्धा के कारण दिलों की दूरियां बढ़ती जा रही हैं और इन खाईयों को पाटना मानव के वश की बात नहीं रही। आज की युवा-पीढ़ी किसी भी कीमत पर; कम से कम समय में अधिकाधिक धनोपार्जन कर इच्छाओं व ख़्वाहिशों को पूरा कर; अपने सपनों को साकार कर लेना चाहती है– जिसके लिए उसे अपने घर-परिवार की खुशियों को भी दांव पर लगाना पड़ता है। इसका भीषण परिणाम हम संयुक्त-परिवार व्यवस्था के स्थान पर, एकल-परिवार व्यवस्था के काबिज़ होने के रूप में देख रहे हैं।

‘हम दो हमारे दो’ का नारा अब ‘हम दो हमारा एक’ तक सिमट कर रह गया है। आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज की युवा-पीढ़ी अपने भविष्य के प्रति कितनी सजग है…इसका अनुमान आप उन की सोच को देख कर लगा सकते हैं। आजकल वे संतान को जन्म देकर, किसी बंधन में बंधना नहीं चाहते..सभी दायित्वों से मुक्त रहना पसंद करते हैं। शायद! वे इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि बच्चे माता-पिता के संबंधों को प्रगाढ़ बनाने की धुरी होते हैं..परिवारजनों में पारस्परिक स्नेह, सौहार्द व विश्वास में वृद्धि करने का माध्यम होते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संतान सुख प्राप्त करने के पश्चात् भी, एक छत के नीचे रहते हुए भी पति-पत्नी के मध्य अजनबीपन का अहसास बना रहता है, जिसका दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। वे आत्मकेंद्रित होकर रह जाते हैं तथा घर से बाहर सुक़ून की तलाश करते हैं, जिसका घातक परिणाम हमारे समक्ष है। वैसे भी आजकल मोबाइल, वॉट्सएप, फेसबुक व इंस्टाग्राम आदि पारस्परिक संवाद व भावों के आदान-प्रदान के माध्यम बनकर रह गये हैं।

इक्कीसवीं सदी में बच्चों से लेकर वृद्ध अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं…किसी के पास, किसी के लिए समय नहीं होता…फिर भावनाओं व संवेदनाओं की अहमियत का प्रश्न ही कहां उठता है? मानव आज कल संवेदनहीन होता जा रहा है…दूसरे शब्दों में आत्मकेंद्रितता के भाव ने उसे जकड़ रखा है, जिसके कारण वह निपट स्वार्थी होता जा रहा है। जहां तक सामाजिक सरोकारों का संबंध है, आजकल हर व्यक्ति एकांत की त्रासदी झेल रहा है। सबके अपने-अपने सुख-दु:ख हैं, जिनके व्यूह से मुक्ति पाने में वह स्वयं को असमर्थ पाता है। संबंधों की डोर टूट रही है और परिवार रूपी माला के मनके एक-एक कर बिखर रहे हैं, जिसका आभास माता-पिता को एक लंबे अंतराल के पश्चात् होता है; तब तक सब कुछ लुट चुका होता है। इस असमंजस की स्थिति में मानव कोई भी निर्णय नहीं ले पाता और एक दिन बच्चे अपने नए घरौंदों की तलाश में अक्सर विदेशों में शरण लेते हैं या मेट्रोपोलिटन शहरों की ओर रुख करते हैं, ताकि उनका भविष्य सुरक्षित रह पाए और वे आज की दुनिया के बाशिंदे कहलाने में फ़ख्र महसूस कर सकें। सो! वे सुख- सुविधाओं से सुसज्जित अपने अलग नीड़ का निर्माण कर, खुशी व सुख का अनुभव करते हैं। इसलिए परिवार की परिभाषा आजकल मम्मी-पापा व बच्चों के दायरे में सिमट कर रह गई है; जिस में किसी अन्य का स्थान नहीं होता। वैसे आजकल तो काम-वाली बाईयां भी आधुनिक परिवार की परिभाषा से बखूबी परिचित हैं और वे भी उन्हीं परिवारों में काम करना पसंद करती हैं, जहां तीन या चार प्राणियों का बसेरा हो।

चलिए! हम चर्चा करते हैं, बच्चों से सुख प्राप्त करने की…जो आजकल कल्पनातीत है। बच्चे स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, क्योंकि संबंधों व सरोकारों की अहमियत वे समझते ही नहीं। वास्तव में संस्कार व संबंध वह धरोहर है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है… परंतु अब यह धारणा अस्तित्वहीन हो चुकी है। एकल परिवार-व्यवस्था में माता-पिता– दादा-दादी से अलग-थलग रहते हैं। सो! नाना-नानी और अन्य रिश्तों की अहमियत व गरिमा कहां सुरक्षित रह पाती है? प्रश्न उठता है…’ उनके लिए तो संबंधों व सरोकारों की महत्ता बेमानी होगी, क्योंकि वे आत्ममुग्ध व अहंनिष्ठ प्राणी एकांगी जीवन जीने के आदी हो चुके होते हैं। बचपन से दि -रात नैनी व आया के संरक्षण व उनके साये में रहना, उन बच्चों की नियति बन जाती है। सो! वे अपने माता-पिता से अधिक अहमियत, अपनी नैनी व स्कूल की शिक्षिका को देकर सब को धत्ता बता देते हैं। उस समय उनके माता-पिता की दशा ‘जल बिच मीन पियासी’ जैसी होती है, क्योंकि उनके जन्मदाता होने पर भी उन्हें अपेक्षित मान-सम्मान नहीं मिल पाता है… जिसके वे अधिकारी होते हैं, हक़दार होते हैं। धीरे-धीरे संबंध हैलो-हाय तक सीमित होकर, अंतिम सांसें लेते दिखाई पड़ते हैं। इस स्थिति में उन्हें अपनी ग़लतियों का अहसास होता है और वे अपने आत्मजों से लौट कर आने का अनुरोध करते हैं, परंतु सब निष्फल।

‘गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता’ यह शाश्वत सत्य है। वे अब प्रायश्चित-स्वरूप परिवार में लौट आना चाहते हैं, परंतु उनके हाथ खाली रह जाते हैं। किसी ने सत्य कहा है कि ‘आप जो करते हैं, वह इसी जीवन में, उसी रूप में लौटकर आपके समक्ष आता है। एकल परिवार व्यवस्था में बूढ़े माता-पिता को घर में तो स्थान मिलता नहीं और वे अपना अलग आशियां बना कर रहने को विवश होते हैं तथा असामान्य परिस्थितियों में वृद्धाश्रम की ओर रुख करते हैं। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रही है वह घटना, जब वृद्धाश्रम में रहते हुए एक महिला ने जीवन की अंतिम बेला में, अपने पुत्र को वृद्धाश्रम में आमंत्रित किया और अपनी अंतिम इच्छा से अवगत कराया…’बेटा! तुम यहां पंखे लगवा देना।’ बेटे ने तुरंत प्रश्न किया ‘मां! अब तो तुम संसार से विदा हो रही हो… यह सब तो तुम्हें पहले बताना चाहिए था।’ मां का उत्तर सुन बेटा अचंभित रह गया। ‘मुझे तेरी चिंता है…चंद वर्षों बाद जब तू यहां आकर रहेगा, तुझ से भयंकर गर्मी बर्दाश्त नहीं होगी।’ यह सुनकर बेटा बहुत शर्मिंदा हुआ और उसे अपनी भूल का अहसास हुआ।

परंतु समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। मां इस संसार को अलविदा कह जा चुकी थी। शेष बची थीं, उसकी स्मृतियां। वर्तमान परिवेश में तो परिस्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। आजकल बच्चों को किसी प्रकार के बंधन अर्थात् मर्यादा में रहना पसंद नहीं है। बच्चे क्या, पति-पत्नी के मध्य बढ़ती दूरियां अलगाव व तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं। हर तीसरी महिला इस विषम परिस्थिति से जूझ रही है। चारवॉक दर्शन युवा पीढ़ी की पसंद है..’खाओ पियो, मौज उड़ाओ’ की अवधारणा तो अब बहुत पीछे छूट चुकी है। अब तो ‘तू नहीं और सही’ का बोलबाला है। उनके अहं टकराते हैं; जो उन्हें उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देते हैं; जहां से लौटना असंभव अर्थात् नामुमक़िन होता है।

यदि हम इन असामान्य व विषम स्थितियों का चिंतन करें, तो हमें अपसंस्कृति अर्थात् समाज में बढ़ रही संस्कारहीनता पर दृष्टिपात करना पड़ेगा। सामाजिक अव्यवस्थाओं व व्यस्तताओं के कारण हमारे पास बच्चों को सुसंस्कारित करने का समय ही नहीं है। हम उन्हें सुख-सुविधाएं तो प्रदान कर सकते हैं, परंतु समय नहीं, क्योंकि कॉरपोरेट जगत् में दिन-रात का भेद नहीं होता। सो! बच्चों की खुशियों को नकार; उनके जीवन को दांव पर लगा देना; उनकी विवशता का रूप धारण कर लेती है।

इंसान दुनिया की सारी दौलत देकर, समय की एक घड़ी भी नहीं खरीद सकता, जिसका आभास मानव को सर्वस्व लुट जाने के पश्चात् होता है। यह तो हुई न ‘घर फूंक कर तमाशा देखने वाली बात’ अर्थात् उस मन:स्थिति में वह आंसू बहाने और प्रायश्चित करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाता… क्योंकि उनकी संतान समय के साथ बहुत दूर निकल चुकी होती है तथा उनके माता-पिता हाथ मलते रह जाते हैं। फलत: वे दूसरों को यही सीख देते हैं कि ‘बच्चों से उनका बचपन मत छीनो। एक छत के नीचे रहते हुए, दिलों में दरारें मत पनपने दो, बल्कि एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए, बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करो; उन्हें भरपूर खुशियां प्रदान करो; उनका पूरा ख्याल रखो तथा उनके सुख-दु:ख के साथी बनो।’ सो! आप से अपेक्षा है कि आप अपने हृदय में दैवीय गुणों को विकसित कर, उनके सम्मुख आदर्श स्थापित करें, ताकि वे आपका अनुसरण करें और उनका सर्वांगीण विकास हो सके। यही मानव जीवन का सार है, मक़सद है, लक्ष्य है। मानव को सृष्टि के विकास में योगदान देकर, अपना दायित्व-वहन करना चाहिए, ताकि संतान के सुख-दु:ख का दायरा, उनके इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाए तथा माता-पिता को यह कहने की आवश्यकता ही अनुभव न हो कि यह हमारी संतान है, बल्कि माता-पिता संतान के नाम से जाने जाएं अर्थात् उनकी संतान ही उनकी पहचान बने…यही मानव-जीवन की सार्थकता है, अलौकिक आनंद है, जीते जी मुक्ति है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 24 ☆ योग : कला, विज्ञान, साधना का समन्वय☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “योग : कला, विज्ञान, साधना का समन्वय )

☆ किसलय की कलम से # 24 ☆

☆ योग : कला, विज्ञान, साधना का समन्वय

महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से समूचा विश्व परिचित है । श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान, उपदेश एवं कर्म-मीमांसा के साथ ध्यानयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग जैसे व्यापक विषयों का अद्वितीय ग्रंथ है। गीता में कृष्ण द्वारा योग पर जो उपदेश दिए गए हैं , वे समस्त प्राणियों की जीवन-धारा बदलने में सक्षम हैं। विश्व स्तर पर बहुसंख्य विद्वानों द्वारा गीता में वर्णित योग पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। योग क्रियाओं के माध्यम से जीवन जीने की कला में पारंगत मानव स्वयं को आदर्श के शिखर तक पहुँचाने में सफल होता है, इसीलिए योग को कला माना जाता है। योग में वे सभी वैज्ञानिक तथ्य भी समाहित हैं जिनको हम साक्ष्य, दर्शन, परिणाम एवं प्रयोगों द्वारा जाँच कर सत्यापित कर सकते हैं। योग से अनिद्रा, अवसाद, स्वास्थ्य आदि में धनात्मक परिणाम मिलते ही हैं। अतः योग विज्ञान भी है। सामान्य लोगों का योग की जड़ तक न पहुँचने तथा भगवान के द्वारा उपलब्ध कराये जाने के कारण यह दुर्लभ योग रहस्य से कम नहीं है। योग प्रेम-भाईचारा एवं वसुधैव कुटुंबकम् की अवस्था लाने वाली मानसिक एवं शारीरिक प्रक्रियाओं की आत्म नियंत्रित विधि है, जो मानव समाज के लिए बेहद लाभकारी है। आज की भागमभाग एवं व्यस्त जीवनशैली के चलते कहा जा सकता है कि योग निश्चित रूप से कला, विज्ञान, समाज को नई दिशा प्रदान करने में सक्षम है।

भगवान् कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई योग शिक्षा का उद्देश्य भी यही था है कि मानव तो मात्र निमित्त होता है, बचाने वाले या मारने वाले तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं। श्रेय हेतु अर्जुन को युद्ध कर्म के लिए प्रेरित करने का आशय यह था कि वह इतिहास के पृष्ठों में कायर न कहलाए। महाभारत के दौरान अपने ही लोगों से युद्ध करने एवं अधार्मिक गतिविधियों के चलते धर्म-संस्थापना हेतु युद्ध की अनिवार्यता को प्रतिपादित करती योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की यह दीक्षा ही अंतत: अर्जुन को युद्ध हेतु तैयार कर सकी, जिसका ही परिणाम धर्म सम्मत समाज की स्थापना के रूप में हमारे समक्ष आया।

उपरोक्त बातें बहुसंख्य साधकों तथा विद्वतजनों के चिंतन से भी स्पष्ट हुई हैं। यही  विषय मानव जीवन उपयोगी होने के साथ ही हमें आदिपुरुषों के इतिहास और तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं से भी अवगत कराता है। श्रीमद्भगवद्गीता में योग-दीक्षा का जो विस्तृत वर्णन है, उसकी विभिन्न ग्रंथों व पुस्तकों में उपलब्ध उद्धरणों एवं आख्यानों से भी सार्थकता सिद्ध हो चुकी है। योग को समझने के लिए गीता के छठे अध्याय का चिंतन-मनन एवं अनुकरण की महती आवश्यकता है।

साधना को योग से जोड़ने के संदर्भ में योगी का मतलब केवल गेरुआ वस्त्र धारण करना अथवा संन्यासी होना ही नहीं है, मन का रंगना एवं नियमित अभ्यासी होना भी है। स्वयं से सीखना, अहंकार मुक्त होना, सब कुछ ईश्वर का है और हम मात्र उपभोक्ता हैं, यह भी ध्यान में रखना जरूरी है। “मैं” का मिटना ही अपने आप को जीतना है। योग का मूल उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति मानकर आगे बढ़ने से मानव को बहुत कुछ पहले से ही मिलना प्रारंभ हो जाता है। इंद्रिय साधना से सब कुछ नियंत्रित हो सकता है। हठयोग के बजाए ‘शरीर को अनावश्यक कष्ट न देते हुए’ साधना से भी ज्ञान प्राप्त होता है, जैसे भगवान बुद्ध ने प्राप्त किया था । इसी तरह अभ्यास एवं वैराग्य द्वारा मानसिक नियंत्रण संभव है । महायोगेश्वर कृष्ण ने सभी साधकों को गीता के माध्यम से योग दीक्षा दी है, जिसका वर्तमान मानव जीवन में उपयोग किया जाए तो हमारा समाज वास्तव में नैतिक, मानसिक व शारीरिक रूप से उन्नत हो सकेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #84 ☆ आलेख – ऊर्जा संरक्षण के नये विकल्प ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक विचारणीय एवं सार्थकआलेख   ‘ऊर्जा संरक्षण के नये विकल्प.  इस सार्थक एवं अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 84 ☆

☆ लघुकथा ऊर्जा संरक्षण के नये विकल्प ☆

अंग्रेजी में बी का अर्थ होता है मधुमख्खी.  सभी जानते हैं कि मधुमख्खी किस तरह फूल फूल से पराग कणो को चुनकर शहद बनाती हैं,  जो मीठा तो होता ही है, स्वास्थ्यकर भी होता है.  मधुमख्खखियो का छतना पराग के कण कण से संरक्षण का श्रेष्ठ उदाहरण है. मधुमख्खी अर्थात बी की स्पेलिंग बी ई ई होती है. भारत सरकार के संस्थान ब्यूरो आफ इनर्जी इफिशियेंसी का एब्रिवियेशन भी बी ई ई ही है.  उर्जा संरक्षण के नये वैश्विक विकल्पों पर ब्यूरो आफ इनर्जी इफिशियेंसी अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है. ऊर्जा दक्षता ब्यूरो अर्थात ब्यूरो आफ इनर्जी इफिशियेंसी का लक्ष्य ऊर्जा दक्षता की सेवाओं को संस्थागत रूप देना है ताकि देश के सभी क्षेत्रों में ऊर्जा दक्षता के प्रति जागरूकता उत्पन्न हो.  इसका गठन ऊर्जा संरक्षण अधिनियम,  २००१ के अन्तर्गत मार्च २००२ में किया गया था.  यह भारत सरकार के विद्युत मन्त्रालय के अन्तर्गत कार्य करता है.   इसका कार्य ऐसे कार्यक्रम बनाना है जिनसे भारत में ऊर्जा के संरक्षण और ऊर्जा के उपयोग में दक्षता  बढ़ाने में मदद मिले.  यह संस्थान ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत सौंपे गए कार्यों को करने के लिए उपभोक्ताओं,  संबंधित संस्थानो व संगठनों के साथ समन्वय करके संसाधनों और विद्युत संरचना को मान्यता देने,  इनकी पहचान करने तथा इस्तेमाल का आप्टिमम उपयोग हो सके ऐसे कार्य करता है.

हमारे मन में यह भाव होता है कि बचत का अर्थ उपयोग की अंतिम संभावना तक प्रयोग है,  इसके चलते हम बारम्बार पुराने विद्युत उपकरणो जैसे पम्प,  मोटर आदि की रिवाइंडिंग करवा कर इन्हें सुधरवाते रहते हैं,  हमें जानकारी ही नही है कि हर रिवाइंडिंग से उपकरण की ऊर्जा दक्षता और कम हो जाती है तथा  चलने के लिये वह उपकरण अधिक ऊर्जा की खपत करता है.  इस तरह केवल आर्थिक रूप से सोचें तो भी नयी मशीन से रिप्लेसमेंट की लागत से ज्यादा बिजली का बिल हम किश्तों में दे देते हैं. इतना ही नहीं बृहद रूप से राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सोचें तो इस तरह हम ऊर्जा दक्षता के विरुद्ध अपराध करते हैं.  देश में सेकेंड हैंड उपकरणो का बड़ा बाजार सक्रिय है.  यदि सक्षम व्यक्ति अपने उपकरण ऊर्जा दक्ष उपकरणो से बदलता भी है तो उसके पुराने ज्यादा खपत वाले उपकरण इस सेकेंड हैंड बाजार के माध्यम से पुनः किसी न किसी उपयोगकर्ता तक पहुंच जाते हैं और वह उपकरण ग्रिड में यथावत बना रह जाता है.  आवश्यकता है कि ऐसे ऊर्जा दक्षता में खराब चिन्हित उपकरणो को नष्ट कर दिया जावे तभी देश का समग्र ऊर्जा दक्षता सूचकांक बेहतर हो सकता है.

आत्मनिर्भर भारत के कार्यक्रम से देश में उर्जा की खपत बढ़ रही है.  ऐसे समय में ऊर्जा दक्षता बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है.  ऐसे परिदृश्य में ऊर्जा संसाधनों और उनके संरक्षण का कुशल उपयोग स्वयं ही अपना महत्व प्रतिपादित करता है.  ऊर्जा का कुशल उपयोग और इसका संरक्षण ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए सबसे कम लागत वाला विकल्प है.  देश में ऊर्जा दक्षता सेवाओं के लिए वितरण तंत्र को संस्थागत बनाने और मजबूत करने के लिए और विभिन्न संस्थाओं के बीच आवश्यक समन्वय प्रदान करने का काम ब्यूरो आफ इनर्जी एफिशियेंशी कर रहा है.  आज का युग वैश्विक प्रतिस्पर्धा का है,   ऊर्जा की बचत से भारत को एक ऊर्जा कुशल अर्थव्यवस्था बनाने में लगातार समवेत प्रयास करने होंगे ताकि न केवल हम अपने स्वयं के बाजार के भीतर प्रतिस्पर्धी बने रहें बल्कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी प्रतिस्पर्धा कर सकें.

अक्षय ऊर्जा स्रोत वैकल्पिक ऊर्जा के नवीनतम विकल्प के रूप में लोकप्रिय हो रहे हैं.  हर छत बिजली बना सकती है.  सौर ऊर्जा उत्पादन पैनल अब बहुत काम्पेक्ट तथा दक्ष हो गये हैं.  इस तरह उत्पादित बिजली न केवल स्वयं के उपयोग में लाई जा सकती है,  वरन अतिरिक्त विद्युत,  वितरण ग्रिड में बैंक की जा सकती है,  एवं रात्रि में जब सौर्य विद्युत उत्पादन नही होता तब  ग्रिड से ली जा सकती है.  इसके लिये बाईलेटरल मीटर लगाये जाते हैं.  ऊर्जा दक्ष एल ई डी प्रकाश स्त्रोतो का उपयोग,  दीवारो पर ऐसे  हल्के रंगो का उपयोग जिनसे प्रकाश परावर्तन ज्यादा हो,  घर का तापमान नियंत्रित करने के लिये छत की आकाश की तरफ की सतह पर सफेद रंग से पुताई,   ए सी की आउटर यूनिट को शेड में रखना,  फ्रिज को घर की बाहरी नही भीतरी दीवार के किनारे रखना,

वाटर पम्प में टाईमर का उपयोग,  टीवी,  कम्प्यूटर आदि उपकरणो को हमेशा  स्टेंड बाई मोड पर रखने की अपेक्षा स्विच से ही बंद रखना आदि कुछ सहज उपाय प्रचलन में हैं.  एक जो तथ्य अभी तक लोकप्रिय नही है,  वह है भू गर्भीय तापमान का उपयोग,  धरती की सतह से लगभग तीन मीटर नीचे का तापमान ठण्ड में गरम व गर्मी में ठण्डा होता है,  यदि डक्ट के  द्वारा इतने नीचे तक वायु प्रवाह का चैम्बर बनाकर उसे कमरे से जोड़ा जा सके तो कमरे के तापमान को आश्चर्यकारी तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है.

ऊर्जा दक्षता और संरक्षण पर जन सामान्य में जागरूकता उत्पन्न करना एवं इसका प्रसार करना समय की आवश्यकता है.  इसके लिये बी ई ई लगातार काम कर रही है.  ऊर्जा के दक्ष उपयोग और इसके संरक्षण के लिए तकनीक से जुड़े कार्मिक और विशेषज्ञों के प्रशिक्षण की व्यवस्था और उसका आयोजन करना,  ऊर्जा संरक्षण के क्षेत्र में परामर्शी सेवाओं का सुदृढ़ीकरण,  ऊर्जा संरक्षण के क्षेत्र में अनुसन्धान और विकास कार्यो का संवर्द्धन,  विद्युत उपकरणो के परीक्षण और प्रमाणन की पद्धतियों का विकास और परीक्षण सुविधाओं का संवर्द्धन करना,  प्रायोगिक परियोजनाओं के कार्यान्वयन का सरलीकरण करना,  ऊर्जा दक्ष प्रक्रियाओं,  युक्तियों और प्रणालियों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना,  ऊर्जा दक्ष उपकरण अथवा उपस्करों के इस्तेमाल के लिए लोगों के व्यवहार को प्रोत्साहन देने के लिए कदम उठाना,  ऊर्जा दक्ष परियोजनाओं की फंडिंग को बढ़ावा देना,  ऊर्जा के दक्ष उपयोग को बढ़ावा देने और इसका संरक्षण करने के लिए संस्थाओं को वित्तीय सहायता देना, ऊर्जा के दक्ष उपयोग और इसके संरक्षण पर शैक्षणिक पाठ्यक्रम तैयार करना,  ऊर्जा के दक्ष उपयोग और इसके संरक्षण से सम्बन्धित अंतरराष्ट्रीय सहयोग के कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना आदि कार्य ब्यूरो आफ इनर्जी एफिशियेंसी लगातार अत्यंत दक्षता से कर रहा है.

आज जब भी हम कोई विद्युत उपकरण खरीदने बाजार जाते हैं जैसे एयर कंडीशनर,  फ्रिज,  पंखा,  माइक्रोवेव ओवन,  बल्ब,  ट्यूब लाइट या अन्य कोई बिजली से चलने वाले छोटे बड़े उपकरण तो उस पर स्टार रेटिंग का चिन्ह दिखता है.  अर्ध चंद्राकार चित्र में एक से लेकर पांच सितारे तक बने होते हैं.  यह रेटिंग दरअसल सितारों की बढ़ती संख्या के अनुरूप अधिक विद्युत कुशलता का बीईई प्रमाणी करण है.  विभिन्न उपकरणों की स्टार रेटिंग आकलन के लिए मानकों और लेबल सेटिंग के कार्य में बी ई ई परीक्षण और प्रमाणीकरण प्रक्रियाओं के विकास और परीक्षण सुविधाओं को बढ़ावा देने के लिए निरन्तर कार्यशील रहती है.  विद्युत उपकरणों के सभी प्रकार के परीक्षण और प्रमाणन प्रक्रियाओं को परिभाषित करने का कार्य बी ई ई ही  करती है.   यंत्र उत्पादन संस्थान जब भी किसी विद्युत उपकरण के नये मॉडल का निर्माण करता हैं वह यह जरूर चाहता है की उसका उत्पाद प्रमाणित हो जाए,  जिससे उपभोक्ता के मन में उत्पाद के प्रति विश्वसनीयता की भावना उत्पन्न हो सके.  इसके लिये निर्माता बीईई द्वारा डिजाइन प्रक्रियाओं के अनुसार अपने उपकरणों का परीक्षण करने के उपरान्त,  प्राप्त आंकड़ों के साथ स्टार प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करते हैं,  परीक्षण के आंकड़ों के आधार पर बीईई इन उपकरणों के लिए एक स्टार रेटिंग प्रदान करता है.  बीईई समय-समय पर मानकों और प्रमाणीकरण प्रक्रियाओं को परिष्कृत भी करता रहता है. आज जब ई कामर्स लगातार बढ़ता जा रहा है इस तरह की स्टार रेटिंग खरीददार के मन में बिना भौतिक रूप से उपकरण को देखे भी,  केवल उत्पाद का चित्र देखकर, उसके उपयोग तथा ऊर्जा दक्षता के प्रति आश्वस्ति का भाव पैदा करने में सहायक होता है.

देश में उर्जा दक्षता को बढ़ावा देने के लिये व जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैश्विक प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए ऊर्जा दक्षता ब्यूरो तथा ऊर्जा दक्ष अर्थव्यवस्था हेतु गठबंधन द्वारा मिलकर,  भारत का पहला ‘राज्य ऊर्जा दक्षता तैयारी सूचकांक’ जारी किया है.  यह सूचकांक देश के सभी राज्यों में ऊर्जा उत्सर्जन के प्रबंधन में होने वाली प्रगति की निगरानी करने,  इस दिशा में राज्यों के बीच प्रतिस्पर्द्धा को प्रोत्साहित करने और कार्यक्रम कार्यान्वयन में सहायता प्रदान करता है.  ऊर्जा दक्षता सूचकांक इमारतों,  उद्योगों,  नगरपालिकाओं,  परिवहन,  कृषि और बिजली वितरण कंपनियों जैसे क्षेत्रों के 63 संकेतकों पर आधारित है.  ये संकेतक नीति,  वित्त पोषण तंत्र,  संस्थागत क्षमता,  ऊर्जा दक्षता उपायों को अपनाने और ऊर्जा बचत प्राप्त करने जैसे मानकों पर आधारित हैं.  बीईई के अनुसार,  ऊर्जा दक्षता प्राप्त करके भारत 500 बिलियन यूनिट ऊर्जा की बचत कर सकता है.  वर्ष 2030 तक 100 गीगावाट बिजली क्षमता की आवश्यकता को कम किया जा सकता है.  इससे कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में लगभग 557 मिलियन टन की कमी की जा सकती है.  इसके अन्य मापकों में विद्युत वाहनों के माध्यम से भारत के विकास की गतिशीलता को फिर से परिभाषित करना तथा विद्युत उपकरणों,  मोटरों,  कृषि पम्पों तथा ट्रैक्टरों और यहां तक कि भवनों की ऊर्जा दक्षता में सुधार लाना शामिल है.  राज्यों को उनके प्रदर्शन के आधार पर अग्रगामी (फ्रंट रनर),  लब्धकर्ता (एचीवर),  प्रतिस्पर्धी (कंटेंडर) व आकांक्षी (ऐस्पिरैंट) चार श्रेणियों में बांटा गया है.  सूचकांक में 60 से अधिक अंक पाने वाले राज्यों को ‘अग्रगामी’,  50-60 तक अंक पाने वाले राज्यों को ‘लब्धकर्ता’,  30-49 तक अंक पाने वाले राज्यों को ‘प्रतिस्पर्धी’ और 30 से कम अंक पाने वाले राज्यों को ‘आकांक्षी’ श्रेणी में चिन्हित किया गया है.

नये भवनो के निर्माण में प्रथम चरण में  100 किलोवॉट और उससे अधिक या 120 केवीए और इससे अधिक  संबद्ध विद्युत लोड वाले बड़े व्यावसायिक भवनों पर ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता लागू की गई  है.  ईसीबीसी अर्थात इनर्जी कंजरवेशन बिल्डिंग कोड बनाया गया है.  यह कोड भवन आवरण,  यांत्रिक प्रणालियों और उपकरणों पर केंद्रित है.  जिसमें हीटिंग,  वेंटिलेटिंग और एयर कंडीशनिंग प्रणाली,  आंतरिक और बाहरी प्रकाश व्यवस्था,  विद्युत प्रणाली और नवीकरणीय ऊर्जा शामिल हैं. इसमें भारत के मौसम के अनुरूप पांच जलवायु क्षेत्रों गर्म सूखे,  गर्म गीले,  शीतोष्ण,  समग्र और शीत,   को भी ध्यान में रखा गया है.  मौजूदा आवासीय और व्यावसायिक भवनों में ऊर्जा दक्षता लाने की भी महत्वपूर्ण आवश्यकता है.   विभिन्न अध्ययनों में यह देखा गया है कि मौजूदा वाणिज्यिक भवनों की उर्जा दक्षता क्षमता मात्र 30से40% ही है.  ब्यूरो,  ऊर्जा सघन इमारतों की अधिसूचना जारी करता है.   राज्य के अधिकारियों द्वारा अनिवार्य ऊर्जा ऑडिट के लिए अधिसूचना और मौजूदा बहुमंजिला इमारतों में ऊर्जा दक्षता उन्नयन के कार्यान्वयन हेतु वाणिज्यिक भवनों के लिए स्टार लेबलिंग कार्यक्रम का दायरा व्यापक बनाने के विभिन्न कार्य भी ब्यूरो कर रहा है.   कम लागत वाले आवास के ऊर्जा दक्ष डिजाइन के लिए भी ब्यूरो द्वारा दिशानिर्देश तैयार किये जाते हैं.

सरकार ने मार्च 2007 में  नौ बड़ें औद्योगिक क्षेत्रों को चिन्हित किया था जिनमें ऊर्जा की सर्वाधिक खपत दर्ज होती है.  ये क्षेत्र हैं एल्यूमीनियम,  सीमेंट,  क्षार,  उर्वरक,  लोहा और इस्पात,  पल्प एंड पेपर,  रेलवे,  कपड़ा और ताप विद्युत संयंत्र.   इन इकाइयों  में ऊर्जा दक्षता में सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित कर समयबद्ध योजना बनाकर ऊर्जा संरक्षण के प्रयास किये जा रहे हैं.  इसी तरह लघु व मध्यम उद्योगों में भी उर्जा दक्षता हेतु व्यापक प्रयास किये जा रहे हैं.

विद्युत मांग पक्ष प्रबंधन अर्थात डिमांड साइड मैनेजमेंट को सुनिश्चित करते हुए ऊर्जा की मांग में कमी के लक्ष्य प्राप्त करने के व्यापक प्रयास भी किये जा रहे हैं. डीएसएम के हस्तक्षेप से न केवल बिजली की पीक मांग को कम करने में मदद मिली है, बल्कि यह उत्‍पादन, पारेषण और वितरण नेटवर्क में उच्च निवेश को कम करने में भी सहायक होता है.

कृषि हेतु विद्युत मांग के प्रबंधन से  सब्सिडी के बोझ को कम करने में मदद मिलती है.  हमारे प्रदेश में कृषि हेतु बिजली की मांग बहुत अधिक है.  कृषि पंपों की औसत क्षमता लगभग 5 एचपी है पर इनकी ऊर्जा दक्षता का स्तर 25-30% ही है.  यदि समुचित दक्षता के पंप लगा लिये जावें तो इतनी ही बिजली की मांग में ज्यादा पंप चलाये जा सकते हैं.  जिस पर काम किया जा रहा है. किसानों की आय दोगुनी करने के समय बद्ध लक्ष्य को पाने के लिये ऊर्जा दक्षता का योगदान महत्वपूर्ण है.  कृषि पंपसेट,  ट्रैक्टर और अन्य मशीनों का उपयोग न्यूनतम ईंधन से करने और सिंचाई का प्रयोग प्रति बूंद अधिक फसल की कार्यनीति के अंतर्गत करने की योजना को प्रभावी बनाया जा रहा है.  नगरपालिका मांग पक्ष प्रबंधन के द्वारा स्ट्रीट लाइट प्रकाश व्यवस्था,  जल प्रदाय संयत्रो में विद्युत उपयोग में ऊर्जा संरक्षण को बढ़ावा दिया जा रहा है.

बिजली के क्षेत्र में अनुसंधान की व्यापक संभावनायें हैं.  हम आज भी लगभग उसी आधारभूत तरीके से व्यवसायिक बिजली उत्पादन,  व वितरण कर रहे हैं जिस तरीके से सौ बरस पहले कर रहे थे.  दुनिया की सरकारो को चाहिये कि बिजली के क्षेत्र में अन्वेषण का बजट बढ़ायें.  वैकल्पिक स्रोतो से बिजली का उत्पादन,  बिना तार के बिजली का तरंगो के माध्यम से  वितरण संभावना भरे हैं.  हर घर में शौचालय होता है,  जो बायो गैस का उत्पादक संयत्र बनाया जा सकता है,  जिससे घर की उर्जा व प्रकाश की जरूरत  पूरी की जा सकती है.   रसोई के अपशिष्ट से भी बायोगैस के जरिये चूल्हा जलाने के प्रयोग किये जा सकते हैं.   बिजली को व्यवसायिक तौर पर एकत्रित करने के संसाधनो का विकास,  कम बिजली के उपयोग से अधिक क्षमता की मशीनो का संचालन,  अनुपयोग की स्थिति में विद्युत उपकरणो का स्व संचालन से बंद हो जाना,  दिन में बल्ब इत्यादि प्रकाश श्रोतो का स्वतः बंद हो जाना आदि बहुत से अनछुऐ बिन्दु हैं जिन पर हमारे युवा अनुसंधानकर्ता ध्यान दें,  विश्वविद्यालयों व रिसर्च संस्थानो में काम हो तो बहुत कुछ नया किया जा सकता है.   वर्तमान संसाधनो में सरकार बहुत कुछ कर रही है जरूरत है कि विद्युत व्यवस्था को अधिक सस्ता व अधिक उपयोगी बनाने के लिये जन चेतना जागृत हो.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 73 ☆ फादर ऑफ मेन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 73 – फादर ऑफ मेन 

‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’ दो शताब्दी पहले विल्यम वर्ड्सवर्थ की कविता में सहजता से आया था यह उद्गार। यह सहज उद्गार कालांतर में मनोविज्ञान का सिद्धांत बन जाएगा, यह विल्यम वर्ड्सवर्थ ने भी कहाँ सोचा होगा।

‘चाइल्ड’ के ‘फादर’ होने की शुरुआत होती है, अभिभावकों द्वारा दिये जाते निर्देशों से। विवाह या अन्य समारोहों में माँ-बाप द्वारा अपने बच्चों को दिये जाते ये निर्देश सार्वजनिक रूप से सुनने को मिलते हैं। कुछ बानगियाँ देखिए, ‘दौड़कर लाइन में लगो अन्यथा जलपान समाप्त हो जायेगा।’…  ‘पहले भोजन करो, बाद में शायद न बचे।’.. ‘गिफ्ट देते समय फोटो ज़रूर खिंचवाना।’… ‘बरात में बैंड-बाजेवालों को पैसे तभी देना जब वीडियो शूटिंग चल रही हो।’ बचपन से येन केन प्रकारेण हासिल करना सिखाते हैं, तजना सिखाते ही नहीं। बटोरने का अभ्यास करवाते हैं, बाँटने की विधि बताते ही नहीं। बच्चे में आशंका, भय, आत्मकेंद्रित रहने का भाव बोते हैं। पहले स्वार्थ देखो बाकी सब बाद में।

‘मैं’ के अभ्यास से तैयार हुआ बच्चा बड़ा होकर रेल स्टेशन या बस अड्डे पर टिकट के लिए लगी लाइन में बीच में घुसने का प्रयास करता है। झुग्गी-झोपड़ियों में सार्वजनिक नल से पानी भरना हो, सरकारी अस्पताल में दवाइयाँ लेनी हों, भंडारे में प्रसाद पाना हो या लक्ज़री गाड़ी  में बैठकर सबसे पहले सिग्नल का उल्लंघन करना हो, ‘मैं’ का हुंकार व्यक्ति को संकीर्णता के पथ पर ढकेलता है। इस पथ के व्यक्ति की मति हरेक से लेने के तरीके ढूँढ़ती है। चरम तब आता है जब जिनसे यह वृत्ति सीखी, उन बूढ़े माँ-बाप से भी लेने की प्रवृत्ति जगती  है। माँ-बाप को अब भान होता है कि बबूल बोकर, आम खाने की आशा रखना व्यर्थ है। कैसे संभव है कि सिखाएँ स्वार्थ और पाएँ परमार्थ!

अपनी कविता ‘प्रतिरूप’ स्मरण हो आई।

मेरा बेटा

सारा कुछ खींच कर ले गया,

लोग उसे कोस रहे हैं,

मैं आत्मविश्लेषण में मग्न हूंँ, बचपन में घोड़ा बनकर,

मैं ही उसे ऊपर बिठाता था, दूसरे को सीढ़ी बनाकर ऊँचाई हासिल करने के

गुर सिखलाता था,

परायों के हिस्से पर

अपना हक जताने की

बाल-सुलभता पर

मुस्कराता था,

सारा कुछ बटोर कर

अपनी जेब में रखने की उसकी अदा पर इठलाता था, जो बोया मेरी राह में अड़ा है, मेरा बीज

अब वृक्ष बनकर खड़ा है, बीज पर नियंत्रण कर लेता, वृक्ष का बल प्रचंड है,

अपने विशाल प्रतिरूप से,

नित लज्जित होना,

मेरा समुचित दंड है!

साहित्य मौन क्रांति करता है। बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज के निर्माण के लिए बच्चे में बचपन से बड़प्पन भरना होगा। आखिर जो भरेगा वही तो झरेगा।

इसीलिए तो कहा गया था, ‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – नेत्रदान ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “नेत्रदान। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – नेत्रदान ☆

अंधापन एक अभिशाप – अंधापन मानव जीवन को जटिल बना देता है, तथा‌ जीवन  को अंधेरे से भर देता है।

अंधापन दो तरह का होता है

१ – जन्मांधता –  जो व्यक्ति जन्म से ही अंधे होते हैं।

२- अस्थाई अंधापन – बीमारी अथवा चोट का कारण से।

१ – जंन्मांधता

जन्मांध व्यक्ति सारी जिंदगी अंधेरे का अभिशाप भोगने के लिए विवश होता है। उसकी आंखें देखने योग्य नहीं होती, लेकिन उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण ‌होती है। ‌वह मजबूर नहीं, वह अपने सारे दैनिक कार्य कर लेता है।  दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन तथा अंदाज के सहारे, ऐसे अनेक व्यक्तियों को देखा गया है,  जो अपनी मेहनत तथा लगन से शीर्ष पर स्थापित ‌हुये है।  उनकी कल्पना शक्ति उच्च स्तर की होती है।  यदि हम इतिहास में झांकें तो पायेंगे  इस कड़ी में सफलतम् व्यक्तित्वों की एक लंबी श्रृंखला है, जिन्होंने अपनी क्षमताओं का सर्वोत्कृष्ट प्रर्दशन कर लोगों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया। इस कड़ी में स्मरण करें  तो भक्ति कालीन महाकवि सूरदास रचित सूरसागर में कृष्ण ‌की‌ बाल लीलाओं का  तथा गोपियों का विरह वर्णन, भला कौन संवदेनशील प्राणी‌ होगा जो उन रचनाओं के संम्मोहन में ‌न फंसा‌ हो।

दूसरा उदाहरण ले रविन्द्र जैन की आवाज का। कौन सा व्यक्ति है जो उनकी हृदयस्पर्शी आवाज का दीवाना नहीं है?

तीसरा उदाहरण है मथुरा के सूर बाबा का, जिनकी कथा शैली  अमृत वर्षा करती है। अगर खोजें तो ऐसे तमाम लोगों की लंबी शृंखला दिखाई देगी, लेकिन उनका इलाज अभी तक संभव नहीं है। भविष्य में चिकित्सा विज्ञान कोई भी चमत्कार  कभी भी कर सकता है।

२ – अस्थाई अंधत्व

जब कि दूसरे तरह के अंधत्व का इलाज समाज के सहयोग ‌से संभव है । चिकित्सा बिज्ञान में इस विधि को रेटिना प्रत्यारोपण कहते हैं जिससे व्यक्ति के आंखों की ज्योति वापस लाई जा सकती है, जो किसी मृतक व्यक्ति के  परिजनों द्वारा नेत्रदान  प्रक्रिया में योगदान से ही संभव है । चिकित्सा विज्ञानियों का मानना है कि मृत्यु के आठ घंटे बाद तक नेत्रदान कराया जा सकता है तथा किसी की‌ जिंदगी  को रोशनी का उपहार दिया जा सकता है। यह एक साधारण से छोटे आपरेशन के द्वारा कुछ ही मिनटों में सफलता पूर्वक संपन्न किया जाता है।  मृत्यृ के पश्चात   मृतक को कोई अनुभूति नहीं होती, लेकिन  जागरूकता के अभाव में नेत्रदान   प्राय:  कभी कभी ही  संभव हो पाता है। जिसके पीछे जागरूकता के अभाव तथा अज्ञान को ही कारण  माना जा सकता है।

सामान्यतया हम लोग दान का मतलब धार्मिक कर्मकाण्डो के संपादन, पूजा पाठ तीर्थक्षेत्र की यात्राओं,  थोड़े धन के दान तथा कथा प्रवचन तक ही सीमित समझ लेते है, उसे कभी आचरण में उतार नहीं सके। उसका निहितार्थ नहीं ‌समझ सके। मानव जीवन की रक्षा में अंगदान का बहुत बड़ा महत्व है।  जीवन मे हम अधिकारों के पाने  की बातें करते हैं, लेकिन जहां कर्तव्य निभाने बात आती है‌, तो बगलें झांकने लगते हैं। इस संबंध में तमाम प्रकार की भ्रामक धारणायें  बाधक बन‌ती  है जैसे नेत्रदान आपरेशन के समय पूरी पुतली निकाल ली जाती है और चेहरा विकृत हो जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है। आपरेशन से मात्र नेत्रगोलकों के रेटिना की पतली झिल्ली ही निकाली जाती है । जिससे चेहरे पर कोई विकृति नहीं होती।

हिंदू धर्म में चौरासी लाख योनियों की कल्पना की गयी  है, जो यथार्थ में दिखती भी है, लेकिन यह‌ मान्यता पूरी तरह भ्रामक  निराधार  और असत्य है कि नेत्रदान के पश्चात अगली योनि में नेत्रदाता अंधा पैदा होगा। यह मात्र कुछ अज्ञानी जनों की मिथ्याचारिता है। इसी लिए भय से‌  लोग नेत्रदान से  बचना चाहते‌ है।  जब कि  सच तो यह है कि इस योनि का शरीर मृत्यु के पश्चात जलाने या गाड़ने से नष्ट हो जाता है, अगली योनि के शरीर पर इसका कोई प्रभाव ही नहीं होता। क्यो कि अगली योनि का शरीर योनि गत  अनुवांशिक संरचना पर आधारित होता है। यह एक मिथ्याभ्रामक मान्यताओं पर आधारित गलत अवधारणा है।

नेत्रदान के मार्ग की बाधाएं

नेत्रदान की सबसे बड़ी बाधा जनजागरण का अभाव तथा मानसिक रूप से तैयार न होना है। नेत्रदान के संबंध में जिस ढंग के प्रचार प्रसार की जरूरत महसूस की जा रही है वैसा हो नहीं पा रहा है, इसके लिए तथ्यो की सही जानकारी आम जन तक पहुंचाना, भ्रम का निवारण करने के मिशन को युद्ध स्तर पर चलाना। मृत्यु के पश्चात परिजन नेत्रदान के लिए  इस लिए सहमत नहीं होते, क्यो कि दुखी परिजन मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति में लोक कल्याण के बारे में सोच ही नहीं पाते। सामंजस्य स्थापित नही कर पाते। इसके लिए अभियान चला कर लोगों को मानसिक रूप से अपनी विचारधारा से सहमत कर नेत्रदान हेतु मृतक के परिजनों को मृत्यु पूर्व ही प्रेरित करना तथा दान के महत्व को समझाना चाहिए, ताकि मृत्यु के बाद अंगदान की अवधारणा पर  उनकी सहमति बन सके। इसके लिए जनजागरण अभियान, समाज सेवकों की टीम गठित करना, लोगों को मीडिया प्रचार, स्थिर चित्र, तथा चलचित्र एवं टेलीविजन से प्रचार प्रसार कर जन जागरण करना तथा अंगदान रक्तदान के महत्व को लोगों को समझाना कि किस प्रकार मृत्यु शैय्या पर पडे़ व्यक्ति की रक्त देकर जीवन रक्षा की जा सकती है, तथा नेत्र दान से जीवन में छाया अंधेरा दूर कर व्यक्ति को देखने में सक्षम बनाया जा सकता है इसका मुकाबला कोई भी धार्मिक कर्मकांड नहीं कर सकता। लोगों को अपने मिशन के साथ जोड़कर वैचारिक ‌क्रांति पैदा करनी‌ होगी, बल्कि यूं कह लें कि हमें ‌खुद अगुआई करते हुए अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।

इस बारे में पौराणिक उदाहरण भरे पड़े हैं, जैसे शिबि, दधिचि, हरिश्चंद, कर्ण, कामदेव, रतिदेव, आदि ना जाने अनेकों कितने नाम।

इस संदर्भ में अपनी कविता ” दान  की  महिमा” की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं –

जीते  जी रक्तदान मरने पर अंगदान,
सबसे बड़ा धर्म है पुराण ये बताता है।
शीबि दधिची हरिश्चंद्र हमें ‌ये बता गये,
सत्कर्मो का धर्म से बड़ा गहरा नाता है।

पर हित सरिस धर्म नहिं,
पर पीडा सम अधर्म नहीं।
रामचरितमानस हमें ये सिखाता है।
जीवों की रक्षा में जिसने विषपान किया,
देवों का देव महादेव ‌वो बन जाता है।।

(दान की महिमा रचना के अंश से) 

इस प्रकार हमारी ‌भारतीय संस्कृति में ‌दान का महत्व ‌लोक‌कल्याण हेतु एक  परंपरा का रूप ले चुका था, लेकिन आज का मानव  समाज अपनी परंपरा भूल चुका है। उसे एक बार फिर याद दिलाना होगा। इस क्रम में देश के उन जांबाज सेना के जवानों का संकल्प ‌याद आता है जिन्होंने अपना‌ जीवन‌ देश सीमा को तो सौंपा ही है अपने मृत शरीर  का हर अंग समाज सेवा में लोक कल्याण हेतु दान कर अमरत्व की महागाथा लिख दिया ऐसे लोगो का संकल्प, पूजनीय, वंदनीय तथा अभिनंदनीय है हमारे नवयुवाओं को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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