(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक विचारणीय एवं सार्थक आलेख ‘भजनं नाम रसनं’. इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 81 ☆
☆ आलेख – भजनं नाम रसनं ☆
प्रमुखतः शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत के रूपों में भारतीय संगीत की व्यापक विवेचना की जाती है. सुगम संगीत की एक शैली भजन है जिसका आधार शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत ही होता है. उपासना की प्रायः भारतीय पद्धतियों में भजन को साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है. तय है कि भजन के स्वरो के जादू से कई मंदिरो में युगो युगो तक कई साधको को परमात्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा.
भजनं नाम रसनं, भजन का अर्थ होता है स्वाद लेना. ‘भजनं नाम आस्वादनम’ मतलब स्मरण करके आनंद लेना, यह भी भजन का ही एक प्रकार है. दरअसल भजन का गूढ़ अर्थ होता है, प्रीति पूर्वक सेवा. प्रीति मन से होती है. यह और बात है कि कौन कहां मन लगा पाता है.
चाहे हाथ से पूजा करें, चाहे पाँव से प्रदक्षिणा करें, चाहे जीभ से स्तुति करें, चाहे साष्टांग दण्डवत करें और चाहे मन में ध्यान करें, भजन दरअसल प्रीति है. प्रीति का व्यापक अर्थ होता है तृप्ति. मंदिर मंदिर, तीरथ तीरथ भ्रमण, भगवान् के नाम, धाम, रूप, भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान के दर्शन से जो आत्मिक शांति और तृप्ति मिलती है वही वास्तविक भजन है. नेता जी तीर्थ करवा कर वोट लेने को ही भजन मानते हैं. चमचे नेता जी को दण्डवत कर उन्हें ही अपना इष्ट मानते हैं. सबके अपने अपने देवता होते हैं.
“संभोग से समाधि तक” लिखकर दार्शनिक चिंतक रजनीश ने इसी तृप्ति से भगवान को अनुभव करने की विशद व्याख्या की है. वे सारी दुनियां में चर्चित रहे. रजनीश ने भी कोई नई विवेचना नहीं की थी. खजुराहो के मंदिरों की दार्शनिक विवेचना की जाये तो यही समझ आता है कि परमात्मा तो भीतर है, बाहर महज वासना है. काम, क्रोध, को बाहर छोड़कर मंदिर के छोटे दरवाजो से जब, आत्म सम्मान को त्याग कर, सर झुकाकर हम मंदिर के अंदर प्रवेश कर पाते हैं तभी हमें भीतर भगवान की प्राप्ति हो पाती है. जिसने ऐसा कर लिया वह ज्ञानी, वरना सब अहंकारी तो हैं ही.
गजल भी मूलतः खुदा की इबादत में कही जाती थी, शायर खुदा के प्रेम में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि न भिन्नं. माशूका से एकाकार होने जैसा एटर्नल लव गजल को जन्म देता है. कालान्तर में परमात्मा से यह एकात्म किंचित वैभिन्य का स्वरूप लेता गया और अब गजल बिल्कुल नये प्रयोगो से गुजर रही है. रब से शराब की गजल यात्रा अब शबाब के सैलाब से गुजर रही है.
कृष्ण और राधा के एटर्नल लव के कांसेप्ट से हम ही नहीं पाश्चात्य जगत भी असीम सीमा तक प्रभावित है, इस्कान के मंदिरो में भारतीय पोशाक में विदेशियो की भीड़ वही आत्मिक प्रेम ढ़ूंढ़ती नजर आती है. किसी को प्रेम मिलता है किसी को भगवान, किसी को जीवंत तो किसी को आभासी प्रेम मिलता है. कोई राधा के चक्कर में रुक्मणी से ही उलझ जाता है.
यू दीवाने हमेशा से उलटी ही राह चलते हैं. वे सनम के दीदार के लिये आंखो को बंद करते हैं. जरा नजरो को झुकाते हैं और हृदय में देख लेते हैं अपने आशिक को. जिसने राधा भाव से इस आशिकी में कृष्ण के दर्शन कर लिये वह संत हो जाता है, वरना मेरे आप की तरह लौकिक प्रेम के भौतिक प्रेमी हाड़ मांस में ही परम सुख ढ़ूढ़ते जीवन बिता देते हैं. और यही कहते रह जाते हैं कि “मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो.” वास्तव में “मेरे मन में राम मेरे तन में राम, रोम रोम में राम रे” होते तो हैं पर उन्हें ढ़ूढ़कर मन मंदिर में बसा सकना ही भजन का वजन है.
कोई सफेद चोंगे में चर्च में भगवान की जगह नन ढूंढ लेता है कोई भगवा में भक्तिनो को धोखा देता है, कोई बुर्के को तार तार कर रहा है. जन्नत की हूरों की तलाश में जमीन पर आतंक फैला रहा है.
भगवान करे सबको उनके लक्ष्य ही मिले. जैसे बच्चा माँ के बिना, प्यासा पानी के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही जब हम भगवान के बिना रह न सकें तो इस प्रक्रिया का ही नाम भजन होता है. करोड़पति पिता से कुछ हजार रूपये लेकर अलग होकर बेटा, पिता की सारी सत्ता से जैसे वंचित रह जाता है ठीक उसी तरह परम पिता भगवान से कुछ माँगना उनसे अलग होना है, उनसे एकात्म बनाये रहने में ही हम भगवान की सारी सत्ता के हिस्से बने रह सकते हैं. परमात्मा में विलीन होना ही जीवन मरण के बंधन से मुक्ति पाना है. बच्चा माँ पर अधिकार अपनेपन से करता है, तपस्या, सामर्थ्य या योग्यता से नहीं. तपस्या से सिद्धि और शक्ति भले ही प्राप्त हो जावे प्रेम नहीं मिल सकता. निष्काम होने से मनुष्य मुक्त, भक्त सब हो जाता है. भगवान के साथ सम्बन्ध रखें तो सांसारिक कामनायें स्वतः ही शांत हो जाती हैं. यह भजन का वजन है. संसार में आसक्ति का अर्थ है, भगवान में वास्तविक प्रेम की अनुभूति का अभाव. किंतु यह सत्य जानकर भी हममें से ज्यादातर इसे समझ नही पाते.
जो भी हो पर हम आप जो रोटी, कपड़ा और मकान के चक्कर में ही आजीवन उलझे रह जाते हैं, वे बेचारे आम आदमी भगवान को पाने के चक्कर में कईयो को सिद्ध बाबा बना देते है. जनता के लिए “भूखे भजन न होंहि गोपाला ” का सिद्धांत और सवाल ही सबसे बड़ा बना रह जाता है लेकिन जिस दिन लगन लग जायेगी मीरा मगन हो जायेगी यही भजन का वास्तविक वजन है.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈