डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन । वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी का महात्मा गाँधी जयंती पर विशेष आलेख “गांधी और जीवन मूल्य “। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी के आज के सन्दर्भ में इस सार्थक एवं विचारणीय विमर्श के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन। )
☆ गाँधी जयंती विशेष – गांधी और जीवन मूल्य ☆
जीवन मूल्य सामाजिक अभिलाषाओं का वह रूप होते हैं जो एक मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाते हैं और ये ऐसे नैतिक सिद्धांत व विश्वास भी हैं जो व्यक्ति के साथ-साथ समाज को भी उत्प्रेरित करते हैं। इतना ही नहीं किसी भी संस्कृति के आध्यात्मिक, भौतिक और सौंदर्य परक मूल्यों में ये मानवीय मूल्य भीतरी तह तक समाए हुए होते हैं और मनुष्य को मानवता की ओर ले जाते हैं। उसे सामान्य मानव से ऊपर उठाकर उच्च और उदात्त मनुष्य बनाते हैं।
दुनिया भर के सभी महापुरुषों के जीवन मूल्य कमोबेश एक जैसे होते हैं। प्राय:शाश्वत और समावेशी होते हैं। लेकिन जब हम बापू के संदर्भ में मानवीय मूल्यों की बात करते हैं तो उनमें सबसे पहले मानवीय संवेदना आती है जिसे वह सत्य,अहिंसा,सत्याग्रह,अपरिग्रह, त्याग, निर्लोभ, वात्सल्य, करुणा और निर्लिप्त प्रेम से पोषित करते हैं। बापू के ये मानवीय मूल्य शाश्वतता के साथ ही अपनी समसामयिक आवश्यकता और प्रासंगिकता से लैस हैं। उनके ये मूल्य आज़ादी के पूर्व से आज़ादी के काफ़ी बाद तक जन-जन में फैले हुए देखे जा सकते हैं।
वे मानवीय मूल्यों को समय और समाज के संदर्भ में देखते थे। उनके जीवन दर्शन से पता चलता है कि कभी बहुमूल्य रहे मानवीय मूल्यों को वह कभी सीधे-सीधे अपनाते नहीं हैं। अपितु यथास्थिति वादियों से लोहा लते हुए समय और समाज के सापेक्ष रखकर तोलते हैं। यदि वे अनुकूल पाए जाते हैं तभी उन्हें अपनाते हैं फिर वे चाहे ब्राह्मण,उपनिषद या पौराणिक काल की मिथकीय धरोहर क्यों हों। ब्राह्मण कालीन कर्मकांड को उन्होंने अपने आचरण का हिस्सा नहीं बनाया। किसी भी धर्मग्रन्थ का जो हिस्सा उपयोगी था उसे लेकर शेष छोड़ दिया। प्राचीन काल से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को भले ही वह नकारते नहीं लेकिन उसमें व्याप्त अस्पृश्यता को वे सिरे से खारिज़ करते हैं और हृदय परिवर्तन के साथ वह उस वर्ग को अपनाते हैं, गले लगाते हैं, जिसे समाज वर्षो से उपेक्षित किए हुए था। दलित बनाए हुए था ।
उनके मानवीय मूल्य लोकतंत्र के पोषक मूल्य हैं। जनकल्याण के पक्षधर मूल्य हैं। लोक कल्याणकारी सरकार की संस्थापना हेतु उन्होंने तुलसी का रामराज्य लिया और स्वराज की कल्पना को साकार करने में प्राणपण से जुट गए।
उनमें पक्षपात नहीं है। बुद्ध की करुणा की तरह ही इनकी करुणा भी एकरस होकर बहती है । वह किसी- किसी के लिए और कभी- कभी नहीं बहती और न ही कभी अवरुद्ध होती है बल्कि सभी के लिए अनवरत और अनवरुद्ध बहती है। उनका प्रेम किसी वर्ग या वर्ण के लिए आरक्षित न होकर पशु पक्षी से लेकर समस्त मानव जगत तक व्याप्त है।
हर जीव के जीवन को बहुमूल्य मानना भी उनका जीवन मूल्य है। लेकिन उनके अनुसार मनुष्य जीवन तो अनमोल है। उनमें संस्कार बहुत ज़रूरी है। वे निश्छल और सरल मन बच्चे को ही नहीं अपितु बड़े से बड़े पापी को भी संस्कारित करने की बात करते हैं । इसलिए वह उनमें भी संस्कार डालकर हृदय परिवर्तन कर मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने में विश्वास करते हैं। वे जीवन को गढ़ना सामाजिक धर्म मानते हैं और मूल्य भी। बचपन में देखा गया नाटक सत्यवादी हरिश्चंद्र उनके जीवन को परिवर्तित करने वाला नाटक इसलिए भी सिद्ध हो सका क्योंकि उनमें बालपन से ही ऐसे संस्कार थे,जो मानव मूल्यों से आपूरित थे। सत्य की रक्षा के लिए अपने राजपाट से लेकर अपनी संतान तक का खोना हरिश्चंद्र के लिए ही नहीं बापू के लिए भी आदर्श रहा और उसे उन्होंने जीवन भर भी निभाया। उन्होंने अपने प्राण सत्य, अहिंसा और मानवीय मूल्यों के लिए ही अर्पित कर दिये।
अत्याचार और असत्य का दृढ़ता से प्रतिकार उनका बहुमूल्य और समसामयिक जीवन मूल्य रहा है। इसीलिए वे सदियों से शोषित समाज के उत्थान के लिए सत्य की प्रयोगशाला में परीक्षित मानववादी जीवन मूल्यों के पुरस्कर्ता बां सके थे । चुनौतियों के सामने पहाड़ की श्वेत धवल,शीतल बरफ़ीली चोटी-से निर्भय खड़े-खड़े सामना करने का साहस रखने वाले अपराजेय योद्धा के रूप में उन्हें सामने पाकर आखिरकार ब्रिटिश अत्याचार का ज्वालामुखी भी एक दिन ठण्डा ही पड़ गया।
अंतत:उनके जैसे अहिंसा और सत्य के नि:शस्त्र आग्रही के आगे असत्य का क्रूर दानव नतमस्तक हो गया। वह इसलिए कि वे वर्तमान के स्रष्टा और भविष्य के द्रष्टा थे। वे पराई पीर को अन्तर्मन से समझने वाले वैष्णव थे।
असहमति का विवेक उनका ऐसा जीवन मूल्य था जो उनके जीवन में विवादों का कारण रहा। लेकिन वे इससे रंच भी विचलित नहीं हुए। गांधी जी अपने सत्याग्रह की व्याख्या में यह कहना नहीं भूलते कि उनके सत्याग्रह में केवल उन्हीं का सत्य शामिल नहीं है बल्कि विपक्षी का सत्य भी शामिल है। इसी के साथ वे असहमति के विवेक को भी बराबर महत्त्व देते थे। इसी कारण से वे अपने ‘हरिजन’और आंबेडकर के दलित विमर्श की सहमति -असहमति से ऊपर उठकर ‘पूना पैक्ट’ में सफल हुए थे। आंबेडकर के जाति उच्छेद को वे सही नहीं मानते थे। जाति उन्मूलन की ज़गह वे अस्पृश्यता का उच्छेद सही मानते थे। इस संदर्भ में उनका यह स्पष्ट कहना था कि,’स्पृश्यता के विरुद्ध आन्दोलन हृदय परिवर्तन का आन्दोलन है। ‘जबकि बाबा साहेब आंबेडकर इनके ‘हरिजन’ शब्द से नफ़रत करते थे और मानते थे कि अगर जाति का नाश नहीं होगा तो स्पृश्यता का नाश सपना ही रह जाएगा। किसी हद तक गाँधी के विचार आज अधिक प्रासंगिक लग रहे हैं कि अस्पृश्यता तो समाप्त हो गई पर जाति व्यवस्था अब भी है। स्वयं दलित ही आज अपनी जाति की पहचान को इसलिए नहीं छोड़ना चाहते क्योंकि इससे उनके आरक्षण के अधिकार को आघात लगने का भय दिखता है।
वे मानव मूल्यों को केवल मानते ही नहीं थे,उनके पोषक भी थे। इन्हीं कारणों से एक आदर्श और नैतिक पिता के रूप में हम बापू को पाते हैं। इसीलिये तो वे सर्व स्वीकार्य राष्ट्रपिता हैं।
माता-पिता के दैहिक रूप पर कोई नहीं रीझता। इसी से हर बच्चे को उसकी माँ ही सबसे प्यारी होती है उसके बाद पिता। माँ के पहचनवाने पर कि उसका पिता कौन है बच्चा भी रूप-कुरूप के भेद से परे भाव से उसे अपना लेता है। मेरी माँ ने भी मुझे किसी शिशु के हिसाब से डरावनी मूंछों वाले मेरे पिता से कब और कैसे परिचय कराया होगा यह तो होश नहीं लेकिन राष्ट्रपिता से परिचय का होश है। मेरी माँ के ‘बापू’अवतारी थे और अवतारी नहीं थे तो कम से कम सिद्ध पुरुष अवश्य थे जो लखनऊ में ज़मीन में प्रवेश करके सीतापुर में निकलकर उनके बाबा से मिले थे।
विद्यालय में बापू के जिस चित्र को देखते हुए हम बड़े हुए वह पसलियां दर्शाती दुर्बल काया थी। आगे के दांत टूटे। हाथ में लाठी लिए तेज़-तेज़ चलता अर्धनग्न शरीर वाला फ़कीर।
भौतिक आँखें तो चमक देखती हैं फिर वह चाहे सोने की हों या पीतल की। ऐसे में वे भला रीझें भी तो किस पर। बाहरी आंखों को क्या पता कि वे रूपवान नहीं चरित्रवान थे और चरित्र तो नंगी आंखों देखा नहीं जा सकता उसके लिए तो भीतरी आँखें चाहिए।
गाँधी अपने वात्सल्य और चरित्र के कारण आज भारत ही नहीं सारी दुनिया में पूजे जा रहे हैं। सारी दुनिया उन्हें पिता मान रही है। हमारे लिए यह गर्व की बात है कि अपने मानव मूूल्यों के चलते ही हमारे राष्ट्र पिता आज विश्व पिता हो गए हैं।
इस दुनिया का बच्चा- बच्चा गाँधी से प्रभावित हुआ है तो हम भला कैसे अछूते रह जाते। हम भी प्रभावित हुए थे। लेकिन गांधी के विचारों को मलिन करने वालों के कारण हमारा बालमन उस समय आहत हुआ था जब गाँँधी के कुटीर उद्दयोग में इकलौते बचे उनके चरखे की अर्थी उठाकर हम भी दस-ग्यारह विद्यार्थी पहली बार गांव से बाहर पांचवीं की परीक्षा देने गए थे। हाथ में रुई (कपास) लिए-लिए उकता गए थे। चरखा एक, कातने वाले दस । अपनी बारी आने तक रुई हथेली के पसीने से भीग भी गई थी। इसके बाद उसे काता हमारे गुरु जी ने था। यह गाँधी दर्शन और उनके आर्थिक विचारों का उनकी ही संतानों द्वारा किया जा रहा अन्तिम सम्मान या संस्कार था, जिससे पूर्व किशोरवास्था में ही हमारा परिचय हो गया था। उस इम्तिहान से पहले हमने सिर्फ तकली,रुई और बापू को देखा था लेकिन चरखे को नहीं। यहाँ तक कि चित्र में भी नहीं। शायद इसीलिए बचपन में तो उतना नहीं रीझे जितनी मेरी माँ रीझी थी। अपनी माँ की तरह ही थोड़ा बड़े यानी समझने लायक होने पर मैं भी रीझा और पाया कि अपने ही घर में उपेक्षित होने के बावजूद बापू पर मैं ही क्या सारी दुनिया रीझी हुई है और ऐसी रीझी हुई है कि जैसे चुंबक पर लोहा रीझता है। उनकी आत्मा के चुंबक के जो भी करीब आया उसे ऐसे चिपकाया जैसे जनम-जनम से वह उनका ही रहा हो या होकर रह गया हो और अब तो पूरे यकीन से कह सकता हूँ कि उनपर जो नहीं रीझा या रीझ रहा वह संवेदनशील मनुष्य तो क्या हाँड़-माँस का विवेक शून्य पशु भी नहीं यहाँँ तक कि जड़ भी नहीं।
मूल्य भले अमूर्त होते हैं लेकिन आचरण में ढलकर मूर्त हो उठते हैं। गांंधी का चरित्र बड़ा कीमती चरित्र इसलिए बन सका है कि मूल्य उनके आचरण की टकसाल में ढाले गए हैं। वे जितना जज के लिए कीमती हैं उतना ही किसी अपराधी के लिए भी। उनके विचार एक विशुद्ध दार्शनिक के ही विचार नहीं बल्कि सहृदय और विवेकशील पिता के भी विचार हैं । ‘आँख के बदले आँख’ से तो सारी दुनिया ही अंधी हो जाएगी और ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ के माध्यम सेे वे जहाँ जज के लिए मार्गदर्शन करते हैं वहीं चोर के लिए भी आत्म सुधार का रास्ता खोलते हैं। हृदय परिवर्तन से पापी में भी सच्चाई,ईमानदारी,कर्तव्यनिष्ठा,सहिष्णुता,करुणा,अहिंसा,प्रेम,सौहार्द,विश्वास,आस्था और आदर भाव जैसे मानवीय मूल्य स्थापित किए जा सकने में पूरा विश्वास रखते थे।
वे साध्य की शुद्धता से अधिक साधन की शुद्धता पर जोर देते हैं। क्योंकि उनकी दृष्टि में यही सबसे सुंदर और कारगर औजार था जिससे हम सुंदर समाज की संरचना कर सकते थे। इसीलिए गांधी क्या उनके हर अनुयायी को इन दो बातों से चिढ़ थी। एक ओर सब कुुुछ चुपचाप सहे जाना और दूसरी ओर सारे शोषण को रातोंरात मिटा देने का उन्माद। अत:बापू के हिसाब से अत्याचार सहना स्पष्टत: कायरता थी। ऐसे निर्भय और आत्मनिर्भर समाज की सरंचना करनेे वाले को आज दबे-छिपे और कहीं-कहीं तो खुलेआम भी गालियाँ दी जा रही हैं । लेकिन वे इसके परिणाम पहले ही जानते थे पर इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की । इसके लिए राज मोहन गांधी एक सटीक बात कहते हैं कि,” उन्हें विश्वास था कि उनके सत्याग्रह का लोग सम्मान करेंगे लेकिन एक दिन वही उन्हें नीचे धकेल देंगे। —अगर विभिन्न धर्मों वाले हमारे देश में आज बहुत से भारतीय खुले आम या गुप्त रूप से गांधी के समान अधिकारों ,परस्पर सम्मान,और आपसी दोस्ती के विचारों को नापसंद करते हैं तो भारत और दुनिया भर में ऐसे लोग भी कम नहीं जो केवल इसी कारण उनसे प्यार करते हैं। ”
वे सौंदर्य परक मूल्यों को अच्छी तरह समझते थे। लेकिन वे उन्हें रोटी,कपड़ा और मकान के भौतिक मूल्यों से जोड़कर देखने के पक्षधर थे। गाँव -गाँव और घर-घर स्वच्छता और खुशहाली चाहते थे। समता और बंधुता उनके मूल्य ही नहीं आत्मीय संकल्प थे। इसके वे औरों के सामने जीवंत आदर्श रख रहे थे । वह इसलिए भी कि इससे उनका दिल दुखता था। अस्पृश्यता का निवारण वे शब्दों से नहीं आचरण से चाहते थे। इसीलिए वे अपने शौचालय स्वयं साफ़ करें। श्रम की कद्र करने के लिये वे अपने जूते-चप्पल स्वयं भी गांठते थे। उनके अनुसार खादी और ग्रामोद्योग से बिना पूंजी और कौशल के भी ग्रामीणों को रोजगार मिल सकता है। वे कहते थे,”बुद्धि, श्रम और कौशल को अलग करने से गांवों की अनदेखी का अपराध हुआ है और इसी लिए हमें गांवों में सौन्दर्य की जगह कूड़े के ढेर नज़र आते हैं । ”
निर्भयता और अचौर्य भी उनके अपरिहार्य जीवन मूल्य थे। प्राय: हम लोग उनकी अहिंसा को कायरता समझते हैं लेकिन यह हमारी भारी भूल है। वह एक अहिंसक को निडर व्यक्ति बनाते हैं, कायर नहीं । उनका मानना है कि कायर कभी अहिंसक हो ही नहीं सकता। हम दुर्बल हैं। हिंसक हैं। कायर हैं। इसलिए बापू को नहीं समझ पाते। हम बापू को इसलिए भी नहीं समझ पाते क्योंकि हम भीतर से चोर और बाहर से कोतवाल हैं। बहुत से लोगों का आरोप है कि गाँधी जी ने शहीद भगत सिंह की पैरवी नहीं की। इसे मैं मारीशस के यशस्वी साहित्यकार अभिमन्यु अनत के ‘गांधी जी बोले थे’ उपन्यास के पात्र देवराज का सहारा लेते हुए साफ़ करना चाहूँगा कि यही एक पड़ाव है जहाँ वे अपने सिद्धांत के विरुद्ध जाते हुए मिलते हैं, जिसे एक विदेशी साहित्यकार तो स्वीकारता है लेकिन हममें वैसा साहस नहीं। क्योंकि हमें उनके व्यक्तित्त्व की विराटता सहन नहीं होती। इसलिए हर बड़ी लकीर की तरह इसे भी छोटी करने के उपक्रम करते रहते हैं। हिंसा के बदले हिंसा वाला चरित्र बताता है कि उपन्यासकार के मनो मस्तिष्क में स्वाधीनता के लिये हिंसा के पक्षधर क्रान्तिकारियों का पक्ष भी है और उनके प्रति अहिंसक गाँधी का सॉफ़्ट कार्नर भी। उसे वह गांधीवादी मदन के माध्यम से कहलवाता है कि,”देव !तुम निर्दोषों को फांसी चढ़ने से रोकने के लिए खुद अपनी गर्दन में फंदा डाल बैठे। ” यह गांंधी का ईमानदार चारित्र ही है जो उन्हें देश-काल से बाहर ले जाता है ।
अचौर्य व अपरिग्रह का पाठ उन्होंने जन-जन को पढ़ाया कि किसी के खेत से कुछ मत छूना। जो लेना हो बस अपने खेत से लाओ। अपने आचरण से हमें अपरिग्रह भी सिखाया और अहिंसा भी।
उनके आचरण की पाठशाला जीवन्त दूर शिक्षण शाला की तरह थी। इसी से बापू से ही सीख कर जो बड़े स्तर पर बापू ने सारी दुनिया के लिए किया वही मेेेरी माँ ने मेरे लिए किया। बचपन मेें मुझे मेरी निरक्षर माँ पढ़ाती थी और किसी के घर या खेत से कुछ लाने के लिए साफ़ मना करती थी। वह जहाँ पढ़ी थी वह पाठशाला बापू की जीवनी थी और वहाँ उसका शिक्षक कोई और नहीं बस बापू का सुना-सुनाया आचरण था। इस अर्थ मेें बापू सारी दुनिया केे लिए एक आदर्श पिता के साथ-साथ प्राथमिक अध्यापक भी कहे जा सकते हैं।
वे एक जागरूक पिता की तरह सेवा और सदाचार भाव के साथ भारतीय जनमानस को तैयार कर रहे थे,जिसमें धर्म सर्वोपरि था। लेकिन उनका धर्म ऐसा धर्म था जिसमें सच में सारी वसुधा और उसके जन समाए हुए थे फिर वे चाहे किसी भी भूभाग के या किसी भी पंथ को मानने वाले क्यों नहों। उनके इसी विराट वैश्विक व्यक्तित्त्व वाले सजग नेतृत्व में ही भारतीय जनमानस पला -पुसा। भटके और डरे हुए भारत को वे धर्माध्यात्म,नीति,समाजनीति,संयम,सत्याचरण ,अहिंसा, राजनीति,आत्मबल वाली जीवनोपयोगी शिक्षा और दर्शन सब एक साथ सिखा-समझा रहे थे। गाँधी और उनके जीवन-दर्शन के विशेषज्ञ आचार्य नन्द किशोर कहते हैं,”महात्मा गांधी जब सत्य को ही ईश्वर कहते हैं तो स्पष्टत: धर्म से उनका आशय सत्य की साधना के उपाय से हो जाता है। वे संपूर्ण सृष्टि को सत्य अर्थात् ईश्वर और उसकी सेवा को ही ईश्वर की सेवा मानते हैं। इस तरह मानवता की सेवा ही गांधी जी के लिए धर्म है,क्योंकि उसके माध्यम से वे सत्य को पा सकते हैं। “गांधी जी ने साफ़ शब्दों में कहा है कि ,”जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई वास्ता नहीं है,वे धर्म का अर्थ नहीं जानते। ”
गाँधी सब धर्मों से प्रभावित हैं। इसलिए उनके राजनीतिक मूल्य मानवीय मूल्यों के पोषक मूल्य हैं। वे उनके दुरुपयोग से भी भिज्ञ थे। ऋषि हृदय बापू को पूर्वाभास था कि एक न एक दिन मंदिर-मस्ज़िद,गिरिजाघर और गुरुद्वारे में राजनीति और राजनीतिक दलों के कार्यालयों और सभा स्थलों पर किसान,मज़दूर और मज़बूर के दर्द के बजाय अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म की तकरीरें होंगी। शायद इसीलिए वे कहते थे,”धर्मों के भीतर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से लुप्त हो रहा है। ” इसके दुष्परिणाम बापू भलीभाँति जानते थे ।
प्रयोगधर्मिता भी उनका मानवीय मूल्य था। इसीलिए दुनियावी दृष्टि में यदि कहीं विफल नज़र आएँ तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। विज्ञान में भी सारे प्रयोग सफल नहीं होते। जो प्रयोग सफल होता है उसी पर सिद्धांत बनते हैं। इसीलिए बापू की किसी विफलता के पहले उनका यह विचार जानना बहुत ज़रूरी है कि उनका आखिरी कथन,विचार या प्रयोग ही अमल में लाया जाए । इस परिप्रेक्ष्य में यह कथन बहुत उपयोगी है कि ‘उनका जीवन ही उनका संदेश है। ‘
जो गांधी की विफलता का ढोल पीटते हैं और उसे रेखांकित करते हुए यह बार-बार बताते हैं कि उन्होंने देश का सत्यानाश कर दिया, उन्हें बापू को तोपों वाली सेना के सामने निडर खड़े भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में समझना होगा। उनको उनके ही समय और समाज के परिप्रेक्ष्य में देखने पर पता चलेगा कि वे(बापू) कितने कीमती थे,जिनके व्यक्तित्त्व का असर देश की सीमाओं को लाँघ सात समुद्र पार तक पहुँच गया था ।
नैतिकता और पवित्रता भी बापू के जीवन मूल्य थे। इसी से वे पूँजी के प्रवाह में प्रगतिगामी नैतिकता को प्रमुख स्थान देते हैं और ट्रस्टीशिप जैसे मूल्य को जोड़ कर उसके प्रवाह को गंगा की तरह पवित्र बनाना चाहते हैं। बापू को समझने वाले जानते हैं कि वे निर्धन समाज के लिए उसी तरह बराबर चिंतित रहे जिस तरह से कोई भी पिता अपनी संतानों में सबसे अधिक निकटता अपनी कमजोर संतान के प्रति रखता है। वे भी इनके प्रति ऐसे ही चिंतित रहे जैसे बापू की चिंता के केंद्र में दुनिया भर के दुखी -दरिद्र रहे। मारीशस और दक्षिण अफ्रीका के गिरटिया मज़दूरों और शोषित लोगों के साथ तो वे प्रत्यक्ष रूप से भी खड़े रहे। उनकेअर्थ दर्शन के पीछे यथार्थ की आँच में तपे प्रौढ़ और अनुभवी मुखिया का अर्थिक चिंतन था। बापूअर्थशास्त्र की बुनियादी चिंताओं की ओर ध्यान देने वाले राजनीतिज्ञ थे। प्लेटो के बाद बापू ही दुनिया के सबसे आध्यात्मिक राजनीतिक विचारक हैं।
मेरी राय में वे किसी देश की अर्थ व्यस्था को भी घर की तरह चलाने में विश्वास करने वाले एक सच्चे राष्ट्र पिता थे। संसाधनों का आवंटन, आजीविका की रचना, वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन व वितरण,उत्पादकों के साधनों के स्वामित्व की प्रकृति और उनके न्यायोचित वितरण के पक्षधर राष्ट्रीय चिंतक थे। गरीबी, ढांचागत संरचना,हिंसा और अन्याय को लेकर गहरी चिंता उनके आर्थिक चिंतन का मूल थी। गांधी के ‘दरिद्र नारायण की छवि हम सबको इस विश्वास से भी मुक्त करती है कि भौतिक वस्तु ही इंसानी अहमियत का वास्तविक पैमाना होती है और इसलिए इन्हें हासिल करना ही सबसे उपयोगी पुरुषार्थ है। ‘ गांधी ने ईश्वर को इसी दरिद्र का या दरिद्र को ईश्वर का और आगे चलकर सत्य को ही ईश्वर का स्वरूप देकर दरअसल ईश्वर की अवधारणा को उसकी मूल रूपांतरकारी और मुक्त करने वाली क्षमता लौटा दी। बापू की दरिद्र नारायण की धारणा बहुत सार्थक है लेकिन वह संपन्न लोगों को नहीं भाई । इसी तरह ट्रस्टीशिप का विचार भी सबके लिए है। यह विचार पूंजी के संचयन व संग्रहण के खिलाफ नहीं बल्कि नैतिक अनिवार्यता के तौर पर पुनर्विचार तथा न्याय का ख्याल रखना है।
प्रताड़ना का प्रतिकार उनका प्रगतिशील मानव मूल्य है। “गरीब को शरीर की हिंसा से बचाने का एकमात्र तरीका मानक व्यवहार अपनाने का है चाहे वह ईश्वर में व्याप्त हो, दरिद्र नारायण में या ईश्वर के किसी संदर्भ के बिना ट्रस्टीशिप में। ” बापू का यही स्वरूप हमें इस रूप में भी लुभाता है कि राजनेता या आध्यात्मिक संत के रूप में वे भले अपूर्ण लगते हों पर पिता के रूप में संपूर्ण थे। वे ऐसे पिता थे जो अपने बच्चों का भौतिक विकास तो चाहता है पर पूर्ण नैतिकता के साथ। वह अपनी संतति को संपन्न तो बनाना चाहते थे लेकिन अपरिग्रह की भावना के साथ। वह हमारे राष्ट्रपिता ही नहीं जगतपिता थे। इसलिए उनका नैतिक धर्म था कि वह राष्ट्र और दुनिया को चरित्रवान बनाएँ । नैतिक और अपरिग्रही बनाएँ ताकि दुनियाभर के सभी भाई-बहन समृद्ध और सुखी जीवन जी सकें। वह अपनी संतानों को अमीर के बजाय सही अर्थों में सुखी बनाना चाहते थे। शारीरिक या मानसिक रोगी बनाने के बजाय संपूर्ण रूप से स्वस्थ बनाना चाहते थे। इसी लिए बापू खानपान पर भी जगह-जगह विचार करते हुए मिलते हैं। उन्होंने स्वयं सालों तक शाकाहारी बनने के लिए संघर्ष किया । गाय तक का दूध छोड़ा। वह साबुत और कच्चे अनाज व मूंगफली के दूध पर विश्वास करते थे। उपवास पर भी उनका अपूर्व विश्वास था। देश और दुनिया की सेवा के लिए उनका स्वस्थ रहना भी ज़रूरी था। इसीलिए अंततः उन्होंने बकरी के दूध को एक उत्तम और अन्यतम विकल्प के रूप में स्वीकार कर ही लिया।
बापू से पहले अध्यात्म प्रेरित राजनीतिक चिंतक विगत पांच हज़ार सालों में भगवान श्री कृष्ण के अलावा दूसरा कोई न हुआ। बहुत संभव है कि पिछले इन सालों के शुरुआती हज़ार-दो हज़ार साल इसी ऊहापोह में बीत गए हों कि कहीं महाभारत के सूत्रधार कृष्ण ही तो नहीं हैं। संभव यह भी है कि गांधारी के द्वारा दिए गए शाप को समाज इसीलिए स्वीकार करता हो कि वह भी उन्हें महाभारत के महाविनाश का दोषी मानता रहा हो । हो तो यह भी सकता है कि गान्धारी कोई और नहीं स्वयं जनमानस हो और जिसने गांधारी की ओट ली हो। बापू को भी समझने में हज़ार साल तो लगेगा ही। इस अर्थ में आइंस्टीन का यह कहना भी गलत न होगा कि,’हज़ार साल बाद लोग यह विश्वास ही नहीं करेंगे कि धरती पर हांड़- मास का ऐसा पुतला जन्मा था। ‘ यह भी असंभव नहीं कि हज़ार दो हज़ार साल बाद बापू को भी उसी तरह अवतार भी मान लिया जाए जैसे बुद्ध को मान लिया गया और यह अवतार सारी दुनिया का सर्वमान्य अवतार हो।
ब्रह्मचर्य उनका एक ऐसा जीवन मूल्य रहा जो सर्वाधिक विवादास्पद हुआ। कुछ विरोधियों को तो जैसे एक धारदार हथियार बापू ने खुद पकड़ा दिया। लेकिन उसे समझने के उसी कोटि के चरित्र की आवश्यकता है जो आधुनिक काल में बापू और ओशो के सिवा किसी के पास नहीं है। आधुनिक काल के ये दो महान प्रयोग धर्मी महापुरुष (बापू और ओशो)बहुतों से समझे ही नहीं गए। जिन्होंने थोड़ा -बहुत इन्हें समझा भी तो दूसरों को सही से समझा नहीं पाए । बापू ने राजनीति के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए तो ओशो ने अध्यात्म के क्षेत्र में और ऐसे- ऐसे प्रयोग किए जो सामान्य जन के लिये अबूझ पहेली और जादू की तरह समझ व पकड़ से परे रहे। हम इन्हें क्यों नहीं समझ पाए इसका उत्तर भी बहुत सीधा-सा है कि चाहे अध्यात्म का क्षेत्र हो या फिर राजनीति का दोनों क्षेत्रों में हम पूर्ण ईमानदार कभी नहीं रहे। हमने सत्य और अहिंसा का पथ इस तरह अपनाया कि बाहर से कोतवाल और भीतर से चोर बने रहे। उनकी देह को तो केवल एक ने ही गोली मारी पर उनके विचारों को अनेक ने मारा । मारा ही नहीं बल्कि निशाना साध-साध कर छलनी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं उनके सत्य,अहिंसा और असहयोग जैसे उपयोगी औजारों को उन्हीं के साथ जला भी दिया गया। उनके चरखे को उनके फूलों वाली हंडिया के साथ पीपल पर लटका दिया गया। यही कारण है कि गांधी जहां दुनिया भर की समझ में आ गए हम उनके बारे में असमंजस में ही पड़े रहे ।
बापू को ठीक से समझने के लिए पहले हमें भी अपने बारे में गांधी की ही तरह ईमानदार होकर पीपल पर लटकी उनके फूलों(अस्थियों)की हांड़ी को हिम्मत से उतारना होगा। चरित्र से पवित्र होना होगा अन्यथा उनके पवित्र फूल अपवित्र हो जाएँगे। हमें भीतर से पूर्ण अहिंसक और सत्य का पक्षधर बनना होगा तब जाकर हम उन्हें समझने लायक बन सकेंगे। इतना सब होने में ही सौ-दो सौ साल लग जाएँगे। जो उन्हें केवल मुसलमानों का पक्षधर मानते हैं उन्हें बिल्कुल समझ नहीं पाए। हिंदू-मुसलमानों के बीच वैमनस्य के संबंध में उनका विचलित रूप ऐसा लगता है जैसे कि कोई पिता बँटवारे के बावज़ूद अपनी संतानों में असहमति का विवेक पैदा करके उन्हें प्रेम से रहना सिखाना चाहने के मूड में हो और ऐसा होते न पाकर झुंझला रहा हो।
आज का तथाकथित गांधीवाद की जुगाली करने वाला वर्ग अपने स्वार्थ से गांधी पर लिख और बोल रहा है। वह वैसे ही भ्रमित है जैसे एक वासनांध युवा प्रेम के मर्म को समझने के लिए फुटपाथ पर कोक शास्त्र की किताब खोज रहा हो। हम गाँधी की तस्वीर लगाकर गाँधी छाप बटोर रहे हैं। पता नहीं किस भ्रम में जी रहे हैं। हम सामने वाले से उसकी मज़बूरी या छोटे से स्वार्थ के बदले उसका सारा ईमान गिरवीं रख ले रहे हैं। ऊपर से यह मानने-मनवाने का मुगालता भी रखते हैं कि वह हमें अपना ट्रस्टी समझे। बापू की ट्रस्टीशिप वह नहीं है जो हम समझ और कर रहे हैं। उनकी ट्रस्टीशिप का ट्रस्टी एक संपूर्ण पिता है। उसमें त्याग ही त्याग है लाभ-लोभ का लेश भी नहीं।
बापू का एकांगी आकलन करने वाले हम अपने आचरण को देखें तो पता चलेगा कि हम भी कुछ वैसा ही कर रहे हैं जैसे कोई डॉक्टर शरीर का पोस्टमार्टम करके उससे हत्यारे की मंशा जांचने की कोशिश कर रहा हो । लेकिन ऐसा करते समय यह भूल जाते हैं कि शरीर के घाव भला हत्यारे की मंशा को कैसे और कितना बता पाएंगे।
शुद्धाचरण उनका बेशकीमती जीवन मूल्य है। उनको जानने-समझने के लिये हमें भी शुद्धाचरण अपनाना होगा। इसके लिए पहली शर्त ही यह है कि तन के बजाय मन को धोना होगा। लेकिन हम मन के बजाय तन धो रहे हैं। जीवन रस से हीन मुर्दे तनों में कलम लगा रहे हैं। गाँधी को जीने और उनपर सोचने-विचारने के पहले हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि मुर्दों के भीतर नहीं अपितु जीवितों में विचारों को जीवित करना होगा,जैसा बापू ने किया था। उन्होंने ज़िन्दा तनों में कलमें लगाई थीं मुर्दे तानों में नहीं। क्योंकि कलमें भी ज़िन्दा पेड़ में ही लगती हैं।
कहीं हम ‘बापू – बापू’ का नाटक तो नहीं खेल रहे हैं। आखिर उन पर नाटक खेलने के लिए भी तो उनकी लुंगी और लाठी के बजाय उनके चारित्र को भी जीना होगा। उनके विचारों में उन्हें साक्षात् जीवित देखते हुए उनकी भावनाओं को समझना होगा। हमें यह भी समझना होगा कि वह अहिंसा के कितने पक्षधर थे और हम कितने हैं। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जहाँ एक ओर बापू को पूजा जा रहा है वहीं दूसरी ओर उनकी अहिंसा को खुलेआम गालियाँ दी जा रही हैं। लेकिन वे इस परिणाम को भी पहले से ही जानते थे पर इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की । इसके लिए राज मोहन गांधी ठीक ही कहते हैं कि,” उन्हें विश्वास था कि उनके सत्याग्रह का लोग सम्मान करेंगे लेकिन एक दिन वही उन्हें नीचे धकेल देंगे। —अगर विभिन्न धर्मों वाले हमारे देश में आज बहुत से भारतीय खुले आम या गुप्त रूप से गांधी के समान अधिकारों,परस्पर सम्मान, और आपसी दोस्ती के विचारों को नापसंद करते हैं तो भारत और दुनिया भर में ऐसे लोग भी कम नहीं जो केवल इसी कारण उनसे प्यार भी करते हैं। ”
बापू की अहिंसा के कारण उन्हें असफल और भोला राजनेता कहा गया। गोली का जवाब गोली से देने वालों के लिए उन्होंने साफ़ संदेश दे ही दिया था कि आँख के बदले आँख से सारी दुनिया अंधी हो जाएगी। इसके बावजूद लोग उनसे जबरन हिंसक आंदोलन में समर्थन चाहते रहे। इनकी निश्छलता के कारण कुछ पाश्चात्य चिंतकों ने भी इन्हें भोला अहिंसक कहा है। मार्टिन बूबर जैसे तत्कालीन चर्चित विचारक का भी मानना था कि यदि बापू जर्मनी में होते तो सत्याग्रह के पहले कदम पर ही नाज़ियों ने उन्हें मिटा दिया होता। लेकिन मेरा विश्वास है की बूबर का विश्वास गलत है। सही यह है कि जर्मनी का यह दुर्भाग्य है कि बापू जर्मनी में पैदा नहीं हुए। जिस ब्रिटिश सत्ता को बापू ने घुटने टिकवा दिये उसके भय से कायर हिटलर को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा। क्रूरता,विवशता और कायरता का पर्याय हिटलर बापू के सामने टिक ही नहीं पाता।
बापू हर देश और काल के लिए प्रासंगिक राजनीतिज्ञ ही नहीं सच्चे मार्गदर्शक महात्मा और पिता हैं। अपने बापू को अगर सही अर्थों में याद करना है तो उनके जीवन मूल्यों को समझना होगा। उनके राजनीतिक विचारों के साथ-साथ धर्म संबंधी विचारों को भी समझना होगा।
सच्ची मानवता के निश्छल पुजारी और परमहंसी भावधारा वाले संत बापू को कोई सिरफिरा कहे या सफल पाखंडी या फिर उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोगों को भी उनकी सनक कहे तो कहता रहे। हम तो उनके सबकी कुशल-क्षेम के साधक विश्व के सबसे बड़े व बहुजातीय राष्ट्र वाले लोकतंत्र के उस संपूर्ण और नियामक पिता रूप के पुजारी हैं जो हमारे लिए आधी रोटी खाकर उठ जाता रहा हो। अधनंगे बदन पर शीत ,ताप और बारिश सहते हुए निष्काम योगी -सा गाँव- गाँव,देश-देश भरमा हो। अपनी गंभीर रूप से बीमार संतानों के भले के लिए अस्पताल-अस्पताल भटका हो। कलश,गुंबद या मीनार में भेद किए बिना दर-दर माथा टेका हो । अपने बूढ़े शरीर का होश रखे बिना पागल जवानी के खूनी उन्माद का उपचार करने के लिए नंगे पाँवों हाँफते हुए बिना रुके और थके भूखे-प्यासे बदहवास भागता रहा हो ।
© डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
सूरत, गुजरात
इस आलेख में व्यक्त विचार साहित्यकार के व्यक्तिगत विचार हैं।
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈